बीते सप्ताह इस लिहाज से काफी महत्वपूर्ण रहा कि सभी ज्वलंत मुद्दों पर दारुल उलूम के नए मोहतामिम (वाइस चांसलर) मौलाना गुलाम वस्तानवी का गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के सन्दर्भ में दिया गया बयान एवं उनके द्वारा गत दिनों महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को मूर्ति पेश किए जाने का आरोप सब पर हावी रहा। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुछ उर्दू अखबारों ने तो इस प्रकरण से पूरा पेज ही भर दिया जबकि कुछ अन्य ने इसे अपने अखबार की पहली खबर बनाई।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने अखबार की पहली खबर लगाकर तीन फोटो के साथ चार कॉलम में पुरी की है। पहला फोटो गुलाम वस्तानवी और दूसरा फोटो नरेन्द्र मोदी का है जिन्हें प्रसन्न मुद्रा में दिखाया गया है जबकि बीच में लगे फोटो में दंगे से प्रभावित रोते हुए हाथ जोड़े हुए एक मुसलमान को दिखाया गया है। एक एजेंसी द्वारा वस्तानवी से लिए गए साक्षात्कार के हवाले से कहा गया है कि गुजरात दंगों में दोनों समुदाय का नुकसान हुआ है किसी का कम, किसी का ज्यादा। अब अदालत का काम है कि पीड़ितों को इंसाफ दिलाए और उन्हें मुआवजा दिलाए। मोदी सरकार को चाहिए कि वह हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सद्भाव पैदा करने की कोशिश करें। मौलाना ने भाजपा को यह कहते हुए प्रमाणपत्र दे दिया कि इस पार्टी की सोच में तब्दीली हो रही है विशेषकर गुजरात के सन्दर्भ में उसने यह महसूस कर लिया है कि मुसलमानों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। उन्होंने अपनी इस बात के तर्प में कहा कि गत दिनों निकाय चुनावों में भाजपा ने 100 मुस्लिमों को निर्वाचित कराया। मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी के इस बयान को मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने निरस्त कर दिया। मौलाना वस्तानवी इसके पूर्व यह कह चुके हैं कि गुजरात में मुसलमान खुश हैं और उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जा रहा है। उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी है। इस पर पूरे देश में उलेमा सहित अन्य की ओर से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सदस्य एवं लखनऊ स्थित ऐश बाग ईदगाह के नायब इमाम मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली ने कहा कि नरेन्द्र मोदी ने ही मुसलमानों का नरसंहार कराया। उनके इस अपराध पर अमेरिका ने मोदी को अपने यहां का वीजा देने से इंकार कर दिया। सेकुलर हिन्दू भी पीड़ितों के इंसाफ के लिए लड़ रहे हैं। उनका कहना था कि मौलाना वस्तानवी ने गुजरात के जिस विकास का जिक्र किया है वह अल्पसंख्यकों के नरसंहार की कीमत पर हुआ है। हम ऐसे किसी विकास का गुणगान नहीं कर सकते जिसके लिए बेकसूरों का खून बहा हो, इस्लाम में यह हराम है। दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेयरमैन कमाल फारुकी ने कहा कि मौलाना वस्तानवी का काम फतवों को जारी करना है न कि मोदी को क्लीन चिट देना। सेकुलर भारत में कोई भी हिन्दू मौलाना के इस बयान की प्रशंसा नहीं करेगा। जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी ने सचेत किया कि मोहतामिम दारुल उलूम ने तुरन्त क्षमा नहीं मांगी तो अन्य उलेमाओं की सहायता से उनका मुकाबला किया जाएगा।
सोनिया गांधी के राजनीतिज्ञ सलाहकार अहमद पटेल की प्रतिक्रिया को दैनिक `सहाफत' ने लिखा कि `मोहतामिम के लायक नहीं वस्तानवी, मौलाना वस्तानवी की पाचन क्रिया सही नहीं।' अहमद पटेल ने मौलाना वस्तानवी से अपने किसी संबंध का खंडन किया है। उनका कहना है कि जिस तरह आम मुसलमान मुझसे मिलने आते हैं उसी तरह वस्तानवी आए थे। मौलाना वस्तानवी के सुपुत्र मुफ्ती हुजैफा ने अहमद पटेल को अपना नाना बताते हुए राजनीतिक स्तर पर कई दावे कर डाले थे। उनका दावा था कि गुजरात और महाराष्ट्र की कांग्रेस इकाई में जो चाहते वही होता। टिकट के बंटवारे से लेकर अन्य प्रशानिक कार्य में इनकी कोई अनदेखी नहीं कर सकता। अखबार के अनुसार आज यह सभी दावे बेनकाब हो गए। मौलाना वस्तानवी के मोहतामिम बनने के बाद अहमद पटेल से मिलने उनके निवास पर गए थे जिससे यह समझा जा रहा था कि मौलाना वस्तानवी का कांग्रेस और अहमद पटेल से गहरा रिश्ता है। लेकिन जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के हक में बयान आया तो अंदाजा हुआ कि दाल में कुछ काला जरूर है। अखबार के मुताबिक अहमद पटेल ने कहा कि जिस आलिम का संबंध मुसलमानों के कातिल नरेन्द्र मोदी से हो, वह भला हमारा कैसे हो सकता है। इतनी बड़ी संख्या दारुल उलूम के लिए किसी योग्य व्यक्ति को जिम्मेदारी देनी चाहिए, क्योंकि मौलाना वस्तानवी दारुल उलूम देवबंद के मोहतामिम बनने योग्य नहीं हैं।
मौलाना वस्तानवी द्वारा अपने बयान का स्पष्टीकरण दिए जाने पर दैनिक `जदीद खबर' ने दारुल उलूम को बचाइए के शीर्षक से पहले पेज पर सम्पादक मासूम मुरादाबादी ने अपने विशेष सम्पादकीय में लिखा है कि मौलाना वस्तानवी की इस क्षमा याचना और स्पष्टीकरण के आ जाने के बाद होना तो यह चाहिए था कि इस विवादित अध्याय को यहीं बन्द कर दिया जाता। लेकिन अफसोस की बात यह है कि वह तत्व जो मौलाना वस्तानवी के दारुल उलूम के मोहतामिम बनाए जाने से नाराज थे, उन्होंने इस विवाद की आग पर लगातार तेल डालने का काम जारी रखा और इसके नतीजे में जो शोले भड़के वह दारुल उलूम तक जा पहुंचे। पत्रकारिता के नाम पर गंदगी फैलाने वाले कुछ बदनाम अखबार इस विवाद को मिल्लत में बेचैनी, अविश्वास फैलाने का कारण बना रहे हैं। इन अखबारों का संरक्षण वही ताकतें कर रही हैं, जिन्होंने हमेशा पेट्रोल उपलब्ध कराया है। ऐसा लगता है कि इन लोगों को मौलाना वस्तानवी की नियुक्ति से दारुल उलूम पर अपनी पारिवारिक पकड़ खत्म होती हुई नजर आती है। मौलाना वस्तानवी के दारुल उलूम के मोहतामिम पद से त्यागपत्र पर दैनिक `सहाफत' ने अपनी पहली खबर लगाई। `कौम व मिल्लत के सौदागर मौलाना वस्तानवी का त्यागपत्र, मौलाना मुस्तकीम आजमी की प्रतिक्रिया, दारुल उलूम की कार्यकारिणी के फैसले का इंतजार किए बिना मोहतामिम की कुर्सी छोड़कर इज्जत बचाने का सुझाव।' अखबार लिखता है कि समाचार के अनुसार आगामी 15 दिन में कार्यकारिणी की आपातकाल बैठक बुलाकर नए मोहतामिम की घोषणा कर दी जाएगी। मौलाना मुस्तकीम के हवाले से अखबार ने लिखा है कि उन्हें मौलाना वास्तानवी की इस बात पर सख्त आपत्ति है कि यदि कार्यकारिणी कहेगी तो त्यागपत्र दूंगा। उनका कहना है कि मौलाना वस्तानवी को चाहिए कि वह कार्यकारिणी के फैसले का इंतजार किए बिना कार्यकारिणी और मोहतामिम के पद से त्यागपत्र देकर यहां से चले जाएं। मौलाना आजमी का कहना है कि मौलाना वस्तानवी बुनियादी तौर पर तालीम के कारोबारी हैं जैसे महाराष्ट्र में बहुत सारे मंत्रियों ने इंजीनियरिंग और मेडिकल की शिक्षा के कॉलेज खोल रखे हैं उसी तरह से मौलाना वस्तानवी भी हैं। वह डोनेशन लेकर अपने कॉलेजों में दाखिला कराते हैं और यदि कोई गरीब हो तो उसके साथ दो फीसदी की भी छूट नहीं देते। शमा रहबर महाराष्ट्र के हवाले से लिखा है `मोदी समर्थक वस्तानवी अब हिन्दू हृदय सम्राट बाल ठाकरे की गोद में, कट्टर मुस्लिम दुश्मन शिवसेना मुख पत्र `सामना' में उमर बिन खत्ताब वैलफेयर ट्रस्ट की ओर से शिवसेना सुप्रीमो की वर्षगांठ पर मुबारकबाद।' औरंगाबाद (महाराष्ट्र) से फहमी अहमद कादरी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है `24 जनवरी 2011 के शिवसेना मुख पत्र `सामना' में वस्तानवी की एक संस्था उमर बिन खताब वैलफेयर ट्रस्ट का एक विज्ञापन प्रकाशित हुआ है। इस संस्था के नाजिम फारुक वस्तानवी मौलाना गुलाम वस्तानवी के भतीजे हैं। यह एक डीएड कॉलेज है। आमतौर पर शैक्षिक संस्थानों में दाखिला एवं जरूरी सूचना, आदि प्रकाशित की जाती है लेकिन वस्तानवी के इस अमूबाई अल्लाना वुमेन्स डीएड कॉलेज के विज्ञापन में इस बाबत कुछ नहीं है इसमें शिवसेना सुप्रीमो को उनकी वर्षगांठ पर बधाई दी गई है। अखबार ने `सामना' में छपे विज्ञापन को छापकर सवाल किया है कि इस विज्ञापन का मकसद क्या है...?? काबिलेगौर बात यह है कि मौलाना गुलाम वस्तानवी के सुपुत्र मौलाना सईद अहमद वस्तानवी उमर बिन खताब वैलफेयर ट्रस्ट के उपाध्यक्ष हैं और मौलाना फारुक वस्तानवी जो मौलाना गुलाम वस्तानवी के भतीजे हैं, इस ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं। इस ट्रस्ट के अधीन दो और मदरसे चल रहे हैं जिनके जिम्मेदार मौलाना फारुक वस्तानवी हैं। रिपोर्ट में आगे है कि इससे स्पष्ट है कि वस्तानवी न केवल मोदी समर्थक हैं बल्कि वह बाल ठाकरे के मुरीद भी हैं।
A Blog is specially build for minorities. Where you can find a latest article as well as Issues. there is no need to recognize a muslim but there is a lot of work for humanity.
Monday, January 31, 2011
Friday, January 21, 2011
मदरसों में अमेरिकी शिक्षक!
मदरसे आतंकवाद के अड्डे नहीं हैं और न ही भारतीय मुसलमानों का आतंकवादी संगठन अल-कायदा से कोई संबंध है। लेकिन अब यहां के मदरसों में पढ़ाने के लिए अमेरिका अपने शिक्षक भेजना चाहता है। इस संदर्भ में उसने एक परियोजना तैयार की है, जो विदेश मंत्रालय में विचाराधीन है। मदरसों में अमेरिकी शिक्षकों की भरती का कारण है। दरअसल महाशक्ति देश अपने प्रति मुसलमानों की गलत छवि दूर करना चाहता है। लेकिन क्या मामला इतने तक ही सीमित है या फिर यह मदरसों के पाठ्यक्रम में किसी परिवर्तन का संकेत है? या मदरसों की विचारधारा में, जिसका स्रोत कुरआन व हदीस है, संशोधन करने अथवा उसे प्रभावित करने की मंशा है?
यह प्रस्ताव ओबामा की भारत यात्रा से कोई चार महीने पहले बना था। तब अमेरिकी सरकार के विशेष दूत राशद हुसैन भारत आए थे। यहां उन्होंने पटना, मुंबई, दिल्ली और हैदराबाद सहित अन्य शहरों का भ्रमण करते हुए कॉलेजों, विश्वविद्यालयों का दौरा किया और लोगों को संबोधित भी किया। उन्होंने सरकारी अधिकारियों और बुद्धिजीवियों से मुलाकातें कर आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई, वैश्विक स्वास्थ्य सहित शिक्षा और उद्यम क्षेत्र पर विस्तृत चर्चा की थी। यह प्रस्ताव उनके दौरे के बाद ही सामने आया।
अब यह मामला बेशक विदेश मंत्रालय के अधीन है, लेकिन विशेषज्ञ इस पूरी प्रक्रिया को केंद्रीय मदरसा बोर्ड के गठन के बदले स्वरूप के तौर पर देख रहे हैं। उनका कहना है कि मदरसा बोर्ड का प्रस्ताव सरकार ने अमेरिका के इशारे पर पेश किया था, जिसका मदरसों सहित उलेमा ने विरोध किया था। ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो इसके खिलाफ बाकायदा मुहिम भी चलाई थी, जिसकेचलते सरकार की यह मुहिम परवान न चढ़ सकी। इस नाकामी के बाद अमेरिका ने अपने शिक्षकों को मदरसों में पढ़ाने हेतु भरती करने की योजना बनाई है।
ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी प्रशासन में भारतीय मूल की फराह पंडित, रशद हुसैन एवं उमर खालिदी ने यहां का दौरा कर मुसलमानों से संवाद किया, लेकिन ये सभी अपने मिशन में नाकाम रहे। ओबामा के ये दूत अपने दौरे के दौरान हमारे देश के मुसलमानों को इराक पर हमला, अफगानिस्तान पर बमबारी और फलस्तीन मामले में अमेरिकी नीति को लेकर पूछे गए सवालों का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे सके। उलटे कई जगहों पर ये खुद संकोच का शिकार नजर आए, जिसके चलते मुसलिम समाज ने उनके विचारों को कोई महत्व नहीं दिया।
तसवीर का दूसरा पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इन दोनों कड़ियों को जोड़ने से जो समीकरण बनता है, वह काफी चौंकाने वाला है। मदरसा बोर्ड को लेकर दारुल उलूम सहित सभी बड़े मदरसों ने इसका विरोध किया था। दारुल उलूम, देवबंद के मोहतामिम के निधन के बाद वहां की कार्यकारिणी (मजलिस शुरा) ने शुरा सदस्य मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को मोहतामिम बनाया है। मौलाना वस्तानवी दीनी शिया के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा प्राप्त हैं और गुजरात के रहने वाले हैं। वह कई मदरसों का संचालन करते हैं। बताया जाता है कि उन पर हवाला मामले को लेकर भी आरोप लगे हैं। कहते हैं कि उनके कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल से भी करीबी रिश्ते हैं। मौलाना वस्तानवी ने मोहतामिम का पद संभालने के बाद कहा है कि आने वाले दिनों में शिक्षा का एक नया चेहरा सामने होगा।
बाबरी विध्वंस के बाद से कांग्रेस लगातार मुसलमानों की नाराजगी झेल रही थी और बार-बार उसे अपने करीब लाने की कोशिश में लगी थी। बताते हैं कि ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून’ से मदरसों को बाहर रखने का सुझाव अहमद पटेल का ही था। इसके द्वारा कांग्रेस ने मुसलमानों को अपने करीब लाने की कोशिश की थी। तब तो वह कोशिश नाकाम हो गई, लेकिन मौलाना वस्तानवी के मोहतामिम बनने के बाद कांग्रेस की मदरसों पर कब्जा करने की पुरानी इच्छा पूरी हो गई हो, तो आश्चर्य नहीं। अब यह देखना दिलचस्प है कि मदरसों में अमेरिकी शिक्षकों की भरती मामले में नए मोहतामिम मौलाना वस्तानवी की अगुवाई में दारुल उलूम, देवबंद इसे निरस्त करता है या बदले हुए परिदृश्य में दोनों एक दूसरे को गले लगाते हैं।
यह प्रस्ताव ओबामा की भारत यात्रा से कोई चार महीने पहले बना था। तब अमेरिकी सरकार के विशेष दूत राशद हुसैन भारत आए थे। यहां उन्होंने पटना, मुंबई, दिल्ली और हैदराबाद सहित अन्य शहरों का भ्रमण करते हुए कॉलेजों, विश्वविद्यालयों का दौरा किया और लोगों को संबोधित भी किया। उन्होंने सरकारी अधिकारियों और बुद्धिजीवियों से मुलाकातें कर आतंकवाद के विरूद्ध लड़ाई, वैश्विक स्वास्थ्य सहित शिक्षा और उद्यम क्षेत्र पर विस्तृत चर्चा की थी। यह प्रस्ताव उनके दौरे के बाद ही सामने आया।
अब यह मामला बेशक विदेश मंत्रालय के अधीन है, लेकिन विशेषज्ञ इस पूरी प्रक्रिया को केंद्रीय मदरसा बोर्ड के गठन के बदले स्वरूप के तौर पर देख रहे हैं। उनका कहना है कि मदरसा बोर्ड का प्रस्ताव सरकार ने अमेरिका के इशारे पर पेश किया था, जिसका मदरसों सहित उलेमा ने विरोध किया था। ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तो इसके खिलाफ बाकायदा मुहिम भी चलाई थी, जिसकेचलते सरकार की यह मुहिम परवान न चढ़ सकी। इस नाकामी के बाद अमेरिका ने अपने शिक्षकों को मदरसों में पढ़ाने हेतु भरती करने की योजना बनाई है।
ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी प्रशासन में भारतीय मूल की फराह पंडित, रशद हुसैन एवं उमर खालिदी ने यहां का दौरा कर मुसलमानों से संवाद किया, लेकिन ये सभी अपने मिशन में नाकाम रहे। ओबामा के ये दूत अपने दौरे के दौरान हमारे देश के मुसलमानों को इराक पर हमला, अफगानिस्तान पर बमबारी और फलस्तीन मामले में अमेरिकी नीति को लेकर पूछे गए सवालों का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे सके। उलटे कई जगहों पर ये खुद संकोच का शिकार नजर आए, जिसके चलते मुसलिम समाज ने उनके विचारों को कोई महत्व नहीं दिया।
तसवीर का दूसरा पहलू भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इन दोनों कड़ियों को जोड़ने से जो समीकरण बनता है, वह काफी चौंकाने वाला है। मदरसा बोर्ड को लेकर दारुल उलूम सहित सभी बड़े मदरसों ने इसका विरोध किया था। दारुल उलूम, देवबंद के मोहतामिम के निधन के बाद वहां की कार्यकारिणी (मजलिस शुरा) ने शुरा सदस्य मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को मोहतामिम बनाया है। मौलाना वस्तानवी दीनी शिया के साथ-साथ आधुनिक शिक्षा प्राप्त हैं और गुजरात के रहने वाले हैं। वह कई मदरसों का संचालन करते हैं। बताया जाता है कि उन पर हवाला मामले को लेकर भी आरोप लगे हैं। कहते हैं कि उनके कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल से भी करीबी रिश्ते हैं। मौलाना वस्तानवी ने मोहतामिम का पद संभालने के बाद कहा है कि आने वाले दिनों में शिक्षा का एक नया चेहरा सामने होगा।
बाबरी विध्वंस के बाद से कांग्रेस लगातार मुसलमानों की नाराजगी झेल रही थी और बार-बार उसे अपने करीब लाने की कोशिश में लगी थी। बताते हैं कि ‘मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिकार कानून’ से मदरसों को बाहर रखने का सुझाव अहमद पटेल का ही था। इसके द्वारा कांग्रेस ने मुसलमानों को अपने करीब लाने की कोशिश की थी। तब तो वह कोशिश नाकाम हो गई, लेकिन मौलाना वस्तानवी के मोहतामिम बनने के बाद कांग्रेस की मदरसों पर कब्जा करने की पुरानी इच्छा पूरी हो गई हो, तो आश्चर्य नहीं। अब यह देखना दिलचस्प है कि मदरसों में अमेरिकी शिक्षकों की भरती मामले में नए मोहतामिम मौलाना वस्तानवी की अगुवाई में दारुल उलूम, देवबंद इसे निरस्त करता है या बदले हुए परिदृश्य में दोनों एक दूसरे को गले लगाते हैं।
Monday, January 3, 2011
अफगानिस्तान को बांटने की नापाक कोशिश
क्या अमेरिका ने अफगानिस्तान को बांटने की योजना बना ली है? अमेरिकी राष्ट्रपति का अफगान का गुप्त दौरा इस सिलसिले की कड़ी है या नहीं, इस बहस को किनारे भी कर दें, तो भी इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि तालिबान के साथ अमेरिका और नाटो के बीच गुप्त बातचीत हो रही है। लेकिन इस बातचीत में तालिबान के वास्तविक प्रतिनिधि शामिल हैं या नहीं, इसे लेकर अब तक संदेह बना हुआ है। यह वार्ता उसी रणनीति का हिस्सा है, जिसकी घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जनवरी, 2010 में की थी। इसका आधार कट्टर विचार रखने वाले लड़ाकुओं के बीच फूट डालने और नरमपंथी वर्ग से उन्हें विभाजित करना था। पेंटागन की रणनीति है कि नरमपंथियों को नागरिक जीवन में वापस लाया जाए, ताकि अफगान सरकार के साथ उनका समझौता हो सके।
इसके तहत सरकार और नरमपंथी वर्ग के बीच बातचीत शुरू हुई है। स्वयं अफगानी राष्ट्रपति हामिद करजई ने स्वीकार किया कि ‘अकसर’ तालिबान नेताओं के साथ उनकी बातचीत हो रही है। उन्होंने एक सरकारी ‘शांति परिषद’ का भी गठन किया है, जिसमें पूर्व अफगान गुटों एवं विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया गया है। हालांकि इस परिषद के गठन की घोषणा के तुरंत बाद विद्रोही वर्गों ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था, बावजूद अक्तूबर में काबुल के सेरेना होटल में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच शुरुआती दौर की बात हुई। यह बातचीत 2009 में सऊदी अरब के नेतृत्व में रियाद शहर में हुई बातचीत जैसी थी। फर्क इतना है कि रियाद की वार्ता में तालिबान के वास्तविक प्रतिनिधि मौजूद थे। जानकारों का मानना है कि तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव होने के कारण वर्तमान बातचीत में सफलता नहीं मिल रही है। अफगान सरकार इसलामाबाद के प्रभाव से मुक्ति दिलाने की कोशिश कर रही है। अमेरिकी योजना है कि नाटो किसी तरह तालिबान को पराजित करे, ताकि वह राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए तैयार हो जाए।
दूसरी ओर तालिबान ने अमेरिका के अलावा किसी से बात करने के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया है। वह अफगान सरकार या किसी और से बात नहीं करना चाहता, क्योंकि वह करजई सरकार को गैरकानूनी मानते हुए उसे निरस्त करता है। वह अमेरिका से भी इस शर्त पर बात करना चाहता है कि अमेरिका पहले अफगानिस्तान से वापसी की समय सीमा की घोषणा कर दे। अरबी पत्रिका ‘अल-मुजल्ला’ के अनुसार, नाटो के एक अधिकारी ने बताया कि तालिबान जैसे ढांचे के साथ बात करना बहुत कठिनाई वाला काम है, क्योंकि उनका कोई परिचित ढांचा नहीं है। उनके लड़ाकुओं को डर है कि यदि उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व की आज्ञा का पालन नहीं किया, तो उन्हें उसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। वहीं अन्य जानकारों का मानना है कि तालिबान फौज में नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच मतभेद है। पुराने नेता शांति संधि के हक में हैं, लेकिन युवा इसके खिलाफ।
राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिका तालिबान के साथ बात करने के प्रति गंभीर नहीं है और बातचीत को नाकाम बनाने का आरोप तालिबान के सिर मढ़ना चाहता है, ताकि पश्चिमी ताकतें अफगानिस्तान को टुकड़ों में बांटने की योजना पूरी कर सके। एक दैनिक अपनी समीक्षा में लिखता है, यदि पश्चिम की ओर से अफगानिस्तान को कई भागों में विभाजित किया जाता है, तो इससे ईरान, पाकिस्तान और अन्य देशों के विभाजन का दरवाजा खुल जाएगा। विभाजन की यह लहर मध्य एशिया में फैलकर चीन को अपनी लपेट में ले सकती है। उज्बेक, ताजिक और इराकी तुर्क अपनी आजादी की मांग कर रहे हैं, यदि ऐसा हुआ, तो इसलामी कट्टरपंथ अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाएगा, जो पश्चिमी ताकतों के हित में नहीं होगा।
अब जबकि यह स्पष्ट हो गया है कि बातचीत करने वाले तालिबान के वास्तविक प्रतिनिधि नहीं हैं, इससे पश्चिमी ताकतें सांसत में हैं। अब अगर अफगानिस्तान को बांटने की कोशिश हुई, तो इससे तालिबान या इसलाम समर्थकों का तो ज्यादा नुकसान नहीं होगा, लेकिन पश्चिमी ताकतों के लिए यह घाटे का सौदा साबित हो सकता है।
इसके तहत सरकार और नरमपंथी वर्ग के बीच बातचीत शुरू हुई है। स्वयं अफगानी राष्ट्रपति हामिद करजई ने स्वीकार किया कि ‘अकसर’ तालिबान नेताओं के साथ उनकी बातचीत हो रही है। उन्होंने एक सरकारी ‘शांति परिषद’ का भी गठन किया है, जिसमें पूर्व अफगान गुटों एवं विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया गया है। हालांकि इस परिषद के गठन की घोषणा के तुरंत बाद विद्रोही वर्गों ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था, बावजूद अक्तूबर में काबुल के सेरेना होटल में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच शुरुआती दौर की बात हुई। यह बातचीत 2009 में सऊदी अरब के नेतृत्व में रियाद शहर में हुई बातचीत जैसी थी। फर्क इतना है कि रियाद की वार्ता में तालिबान के वास्तविक प्रतिनिधि मौजूद थे। जानकारों का मानना है कि तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव होने के कारण वर्तमान बातचीत में सफलता नहीं मिल रही है। अफगान सरकार इसलामाबाद के प्रभाव से मुक्ति दिलाने की कोशिश कर रही है। अमेरिकी योजना है कि नाटो किसी तरह तालिबान को पराजित करे, ताकि वह राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए तैयार हो जाए।
दूसरी ओर तालिबान ने अमेरिका के अलावा किसी से बात करने के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया है। वह अफगान सरकार या किसी और से बात नहीं करना चाहता, क्योंकि वह करजई सरकार को गैरकानूनी मानते हुए उसे निरस्त करता है। वह अमेरिका से भी इस शर्त पर बात करना चाहता है कि अमेरिका पहले अफगानिस्तान से वापसी की समय सीमा की घोषणा कर दे। अरबी पत्रिका ‘अल-मुजल्ला’ के अनुसार, नाटो के एक अधिकारी ने बताया कि तालिबान जैसे ढांचे के साथ बात करना बहुत कठिनाई वाला काम है, क्योंकि उनका कोई परिचित ढांचा नहीं है। उनके लड़ाकुओं को डर है कि यदि उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व की आज्ञा का पालन नहीं किया, तो उन्हें उसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। वहीं अन्य जानकारों का मानना है कि तालिबान फौज में नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच मतभेद है। पुराने नेता शांति संधि के हक में हैं, लेकिन युवा इसके खिलाफ।
राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिका तालिबान के साथ बात करने के प्रति गंभीर नहीं है और बातचीत को नाकाम बनाने का आरोप तालिबान के सिर मढ़ना चाहता है, ताकि पश्चिमी ताकतें अफगानिस्तान को टुकड़ों में बांटने की योजना पूरी कर सके। एक दैनिक अपनी समीक्षा में लिखता है, यदि पश्चिम की ओर से अफगानिस्तान को कई भागों में विभाजित किया जाता है, तो इससे ईरान, पाकिस्तान और अन्य देशों के विभाजन का दरवाजा खुल जाएगा। विभाजन की यह लहर मध्य एशिया में फैलकर चीन को अपनी लपेट में ले सकती है। उज्बेक, ताजिक और इराकी तुर्क अपनी आजादी की मांग कर रहे हैं, यदि ऐसा हुआ, तो इसलामी कट्टरपंथ अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाएगा, जो पश्चिमी ताकतों के हित में नहीं होगा।
अब जबकि यह स्पष्ट हो गया है कि बातचीत करने वाले तालिबान के वास्तविक प्रतिनिधि नहीं हैं, इससे पश्चिमी ताकतें सांसत में हैं। अब अगर अफगानिस्तान को बांटने की कोशिश हुई, तो इससे तालिबान या इसलाम समर्थकों का तो ज्यादा नुकसान नहीं होगा, लेकिन पश्चिमी ताकतों के लिए यह घाटे का सौदा साबित हो सकता है।
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