इन दिनों मुसलिम राजनीति नए परीक्षण के दौर से गुजर रही है। कहीं मुसलिम पार्टियां एक मंच पर एकत्र होने का प्रयास कर रह हैं, तो कहीं राष्ट्रीय स्तर पर मुसलिम राजनैतिक पार्टियां वजूद में आ रही हैं। पीपुल्स डैमोक्रेटिक फ्रंट के गठन के साथ ही जमाअत इसलामी ने एक नई सियासी पार्टी की रूपरेखा तैयार कर ली है। इसकी औपचारिक घोषणा 18 अप्रैल को नई दिल्ली के फिक्की सभागागर में आयोजित एक कार्यक्रम में की जाएगी। इस प्रसंग में जमाअत-ए-इसलामी हिंद का सियासी सफर बहुत दिलचस्प है। इसमें कई उतार-चढ़ाव हैं। जमाअत पहले राजनीति में हिस्सा लेने की ही विरोधी रही है। लेकिन आपातकाल में जिस तरह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया और जमाअत इसलामी पर बैलेंस करने की नीयत से प्रतिबंध लगाकर इसके सदस्यों को जेल भेज दिया था, उससे उसे बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया। जमाअत का यह आत्मंथन ही था कि उसने पहली बार मतदान में भाग लेने का फैसला किया। इसके सदस्यों ने खुलकर 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ वोट किया था। इस फैसले के बाद ही जमाअत के अंदर राजनीति में उतरने का सवाल चर्चा में रहा। कुछ सदस्यों का मानना था कि जमाअत को राजनीति में कूद जाना चाहिए, जबकि कुछ सदस्य यह तो मानते थे कि वे राजनीति में तो आए, लेकिन अभी इसका माहौल नहीं है। इसलिए हमें माहौल बनाना चाहिए और समय आने पर अपनी योग्यता दिखानी चाहिए।
इसको लेकर जमाअत के अंदर काफी आत्मंथन हुआ और चुनाव में जमाअत के भाग न लेने की वकालत करने वाले सदस्यों ने अपनी बात पर अडिग रहते हुए जमाअते इसलामी हिंद से स्वयं को अलग कर लिया। इस प्रकार जमाअत इसलामी हिंद से वह लोग निकल गए, जो अपने विचारों को लेकर कट्टर थे। अब जमाअत में बहुसंख्यक उन लोगों की थी, जो वर्तमान में जमाअत के राजनीति के आने के अनुकूल नहीं मान रहे थे और समय का इंतजार करने की बात कर रहे थे। जमाअत ने अपने एक महत्वपर्ण फैसले के तहत निर्णय लिया कि राजनीति, जिसमें आमतौर पर लोग ऊपर से नीचे जाते हैं और वह अपनी जमीनी सच्चाई की अनदेखी करते हैं, यदि नीचे से सफर शुरू किया जाए तो लक्ष्य की प्राप्ति में आसानी होगी।
इस उद्देश्य के तहत जमाअत ने निकाय चुनाव द्वारा राजनीति में आने का फैसला किया। पहले चरण में जमाअत अच्छी छवि वाले उम्मीदवारों को सामने लाएगी, ताकि निकाय चुनाव में उन लोगों की उपस्थिति से बेहतर माहौल बन सके। निकाय संस्थान, जो जनता के हित एवं विकास की शुरुआती श्रंखला है, में यदि सही लोग आएंगे और काम करेंगे तो निश्चय ही जन-जन तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। और मानव सेवा का दायित्व भी पूरा होगा। इसी योजना के तहत उसने केरल और तमिलनाडु में गत दिनों हुए नगर निकाय चुनावों में हिस्सा लिया। उसने लगभग दो हजार उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, लेकिन दस उम्मीदवार भी नहीं जीत सके । वर्तमान में जमाअत के अंदर व्यवाहारिक राजनीति के सोच रखने वाले तत्व पूरे देश का भ्रमण कर रहे हैं और नई राजनैतिक पार्टी के हक में माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं। पूरी कवायद के बाद मुसलमानों में इसको लेकर कोई उत्साह नहीं है। यह एक वैचारिक जमाअत है। इस लिहाज से उसकी कोई राजनैतिक पृष्ठभूमि नहीं है, जिससे वह लोगों को अपनी ओर आकृषित कर सके।
जमाअत के इस फैसले से अभी तक किसी राजनैतिक पार्टी ने किसी तरह की परेशानी का इजहार नहीं किया है। जहां तक मुसलमानों में पायी जाने वाली राजनैतिक पार्टियों अथवा राजनैतिक गतिविधियों का मामला है, बाबरी मसजिद गिराए जाने के बाद कांग्रेस से उसका मोह भंग हो गया था। तब वह उनसे दूर हो गया था और तीसरे मोर्चे को एक विकल्प के तौर पर चुना था, लेकिन तीसरे मोर्चे के बिखरने और कांग्रेस एवं भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा दो पार्टी व्यवस्था को आगे बढ़ाने के उपाय के बाद मुसलिम दानिश्वरों का रुख कांग्रेस की ओर हो गया। ऐसे में जमाअत की राजनैतिक गतिविधियां क्या इस सोच के विपरीत होेंगी? यदि ऐसा हुआ तो क्या वह मुसलमानों के लिए लाभदायक साबित होगी, जैसे अनेक सवाल भविष्य के गर्भ में छिपे हुए हैं। जमाअत में धारणा प्रबल होती जा रही है कि जमाअत के उद्देश्यों की पूर्ति और उसके उत्थान के लिए संघर्षशील कार्यकर्ता और पदााधिकारी नेताओं की श्रेणी में शामिल होने के लिए व्याकुल हैं। इससे राजनीतिक स्वरूप तो जमाअत का किसी न किसी स्तर से देश के समक्ष आ जाएगा। लेकिन संगठन ने जिन उद्देश्यों और लक्ष्यों को लेकर आगे बढ़ा था, वह लुप्त होते जा रहे हैं। जमाअत इसलामी हिंद की राजनैतिक शाखा की ‘वैलयफेयर पार्टी’ क्या करती है, इसका सभी को इंतजार है। क्या यह भी अन्य मुसलिम पार्टियों की तरह अपना वजूद खो देगी ?
A Blog is specially build for minorities. Where you can find a latest article as well as Issues. there is no need to recognize a muslim but there is a lot of work for humanity.
Wednesday, April 13, 2011
Monday, April 11, 2011
Tuesday, April 5, 2011
जामिया मिलिया इस्लामिया: अल्पसंख्यक चरित्र बहाल
नेशनल कम्वेंशन फॉर माइनारीटीज एजूकेशनल इंस्टीट्यूट (एनसीएमईआई) द्वारा जामिया मिलिया इस्लाािमया का अल्पसंख्यक चरित्र बहाल करने के फैसले को एक ऐतिहासिक निर्णय के रूप में लिया जा रहा है। इस फैसले से जामिया में मुस्लिम छात्रों को दाखिले में 50 फीसदी आरक्षण का हक हासिल हो गया है।
जामिया मिलिया इस्लामिया के अल्पसंख्यक चरित्र का मामला उस समय पैदा हुआ था जब 1955 में केन्द्रीय सरकार ने संसद से एक कानून पारित कर इसे सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया था। उस समय उसका अल्पसंख्यक चरित्र खत्म कर दिया गया था। 1955 के उस कानून के अनुसार यह एक सामान्य यूनिवर्सिटी थी। मामले में उस समय मोड़ आया जब 2006 में केन्द्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर जामिया मिलिया इस्लाािमया को अपने यहां 27 फीसदी ओबीसी कोटा लागू करने का निर्देश दिया। जामिया ने इस आदेश के खिलाफ नेशनल कमीशन फॉर माइनारीटीज एजूकेशनल इंस्टीट्यूट में अपील दायर की। जामिया में पहले के ही 22.5 फीसदी सीटें एससी/एसटी 25 फीसदी इन्टरनल और तीन फीसदी सीटें विक्लांग छात्रों के लिए आरक्षित थीं। ओबीसी कोटा लागू करने से यह कोटा 50 फीसदी से बढ़ जाता जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सीमा से ज्यादा था।
18 सुनवाई के बाद एनसीएमईआई ने 22 फीसदी 2011 को अपने फैसले में स्पष्ट किया कि उसे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि जामिया मिलिया इस्लामिया को मुसलमानों के फायदे के लिए मुसलमानों ने ही कायम किया था और कभी भी इसने अपना मुस्लिम चरित्र नहीं खोया है। कमीशन चेयरमैन जस्टिस सुहैल एज़ाज़ सिद्दीकी ने फैसला सुनाते हुए कहा कि संविधान की धारा 30(1) के तहत जामिया मिलिया इस्लामिया एक अल्पसंख्यक संस्था है। इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्था घोषित किया जाए।
फैसले के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति नजदिव जंग ने इसे अगले शैक्षिक सत्र में लागू करने का भरोसा दिलाया है और कहा कि 2012-12 के प्रोस्पैक्टस आदि सामग्री छप चुकी है। इसके अतिरिक्त इसे लागू करने में जो बाधायें हैं उन्हें भी दूर किया जाएगा। इसलिए यह आगामी सत्र से लागू हो पाएगा। फैसले के अनुसार जहां 50 फीसदी सीटें मुस्लिम समुदाय के लिए आरक्षित होंगी वहां 50 फीसदी सीटें सामान्य कोटे के तहत भरी जाएगी। तब एससी/एसटी आरक्षण बांकी नहीं रहेगा। जामिया कुलपति का बयान अखबारों में सुरक्षित है जिसमें उन्होंने कहा कि जामिया का सेकुलर चरित्र बरकरार रहेगा। सवाल यह है कि किसी शैक्षिक संस्था में सेकुलर चरित्र का अर्थ क्या है और जामिया मिलिया में यह कहां से आया?
1988 में जामिया को सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा देते समय उसकी अंजुमन (संस्था) का उर्दू से अंग्रेजी अनुवाद किया गया और तब जामिया के मेमोरेण्डम ऑफ एसोसिएशन में दर्ज दीनी और पुनभावी शिक्षा की जगह अंग्रेजी में धार्मिक और सेकुलर अनुवार किया गया, यहीं से सेकुलर चरित्र की बात चल पड़ी जबकि इसके पूर्व लगता है कि कोई बात नहीं थी। फाना वाच डाट काम के संपादक एवं दिल्ली मामलों के जानकार क्यू आसिफ कहते हैं कि दुन्त्यावी शब्द का अंग्रेजी में सेकुलर अनुवाद किसी तरह सही नहीं है। उनका कहना था कि एनएमसीईआई के फैसले के बाद जिस तरह कुछ लोगों में क्रेडिट लेने की होड़ मची है वह उस समय कहां थे जब संसद में इस पर जोरदार बहस चल रही थी। तब अकेले जिस व्यक्ति की आवाज सुनी गई वह कोई और नहीं बल्कि वरिष्ठ भाजपा नेता एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। उनकी मांग थी कि जामिया का जो विधेयक चर्चा का विषय है उसमें जामिया के ऐतिहासिक चरित्र का कोई जिक्र नहीं है। जाहिर सी बात है कि जामिया का यह ऐतिहासिक चरित्र इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था कि 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को यूनिवर्सिटी का दर्जा दिए जाने के बाद तत्कालीन मुस्लिम नेतृत्व विशेषकर खिलाफत आंदोलन की अगुवाई कर रहे अलीग बंधुओं को यह एहसास था कि एएमयू अब पूरी तरह अंग्रेजों के कंट्रोल में चला जाएगा और यहां से स्वतंत्रता संग्राम के मतवालों को भी आवाज उठाने की अनुमति नहीं होगी। यही वह सोच थी जिसके तहत एक अलग मुस्लिम शिक्षण संस्था की 29 अक्टूबर, 1920 को स्थापना हुई, जिसका नाम जामिया मिलिया इस्लामिया पड़ा। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कैम्पस में शुरू होने वाली जामिया को दिल्ली के करोल बाग लाया गया, बाद में ओखला। यहीं यह यूनिवर्सिटी स्थापित है।
ख्याति प्राप्त आलिम दीन और स्वतंत्र सेनानी जो नालंदा की जेल से रिहा हुए थे ने इसकी बुनियाद रखते हुए कहा कि इसका मकसद मुसलमानों की शिक्षा मुसलमानों के हाथों में रख्ना है। जामिया की स्थापना से लेकर 1938 तक जामिया के प्रॉस्पेक्टस में उसका यह उद्देश्य लिखा जाता रहा लेकिन 1939 में डॉ. जाकिर हुसैन ने जामिया कुलपति बनने के बाद जामिया की अंजुमन के पंजीकृत के समय उसके उद्देश्य में थोड़ा संशोधन कर दिया। तब उसमें यह बात दर्ज की गई कि इसकी स्थापना का असल मकसद हिंदुस्तानी विशेषकर मुसलमानों को दोनी एवं दुनभावी शिक्षा देना है।
2006 के अंत में जब प्रोफेसर मुशीहल हसन जामिया के कुलपति थे। जब जामिया टीचर्स एसोसिएशन, जामिया स्टुडेन्टस यूनियन और जामिया ओल्ड ब्वायज़ एसोसिएशन ने अलग-अलग याचिका दायर कर इस कमीशन से अनुरोध किया कि जामिया मिलिया को अल्पसंख्यक होने का दर्जा प्रदान करे। तत्काली रजिस्ट्रार एस.एम. अफजल ने इसका विरोध किया क्योंकि मुशीहल हसन इसका विरोध कर चुके थे। लेकिन वर्तमान रजिस्ट्रार एस.एम. साजिद ने अपने शपथ-पत्र में स्वीकार किया कि जामिया अल्पसंख्यक संस्था था और है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कमीशन में याचिका दाखिल कर मांग की कि इस मामले की सुनवाई उस समय तक स्थगित रखी जाए। जब तक सुप्रीम कोर्ट अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र से सम्बन्धित इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ इसकी और यूनिवर्सिटी की अपील पर कोई फैसला न दे।
कमीशन ने अपने फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की जामिया मिलिया से तुलना करते हुए कहा कि 1920 में जब एक एक्ट के तहत मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी उस समय एमएओ कॉलेज तो था, लेकिन मुस्लिम यूनिवर्सिटी का वजूद नहीं था। इसलिए यह कहा जाएगा कि यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत कायम हुई है जबकि जामिया मिलिया के मामले में यह सूरते हाल नहीं थी। इस आधार पर कमीशन ने इस आपत्ति को निरस्त कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक इंतजार किया जाए। लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक संस्था होने में इस आधार पर कोई ज्वेंट नहीं किया जा सकता। इसका चरित्र और प्रबंध शुरू दिन से मुसलमानों के हाथों में है। कई धारा वजूद में आने वाली यूनिवर्सिटी इसी एमएओओ कॉलेज की नई शक्ल है जो अल्पसंख्यक संस्था है।
एनसीएमईआई ने अपने फैसले में जामिया की स्थापना पर चर्चा करते हुए लिखा है कि किस तरह पहले अलीगढ़ में 1920 में जामिया को कायम किया गया, फिर दिल्ली लाया गया। 1939 में इसे सोसाइटी एक्ट के तहत पंजीकृत कराया गया। इस बात का विशेष तौर से जिक्र किया है कि जामिया कालेजा की ब्रिटिश सरकार से मदद हासिल थी जबकि जामिया मिलिया इस्लामिया खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन के नतीजे में कायम हुआ। जामिया के संस्थापक संस्था के प्रबंध को सरकारी हस्तक्षेप से आजाद अपने हाथ में रखना चाहते थे।
जामिया मिलिया इस्लामिया इस प्रसंग में अकेली यूनिवर्सिटी है जहां अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और बनारस विश्वविद्यालय की तरह किसी एक संस्थापक के बजाए संस्थापकों की शब्दावली प्रचलित है। जबकि वास्तविकता यह है कि 29 अक्टूबर, 1920 को जामिया की स्थापना के समय 92 सदस्यीय फाउडेशन कमेटी गइित हुई थी। जिसमें सर्व सम्मति से प्रस्ताव पारित कर मौलाना मोहम्मद अली जौहर को इसका संस्थापक बताया गया था। कमेटी सदस्यों में शेरवुल हिंद मौलाना महमूद हसन, हकीम अजमल खां, डॉ. मुखतार अहमद अंसारी, अब्दुल मजीद ख्वाजा, मुफ्ती किफायत उल्ला, मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना अबुल कलाम आजाद और महात्मा गांधी के नाम उल्लेखनीय हैं। 1920 से 1938 तक मौलाना जौहर का नाम संस्थापक के तौर पर आता रहा लेकिन बाद में संस्थापकों की शब्दावली का इस्तेमाल कर उसमें डॉ. जाकिर हुसैन का नाम शामिल कर दिया गया।
डॉ. जाकिर हुसैन 1925 में जर्मनी से आए थे। निःसंदेह उन्होंने जामिया को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जामिया को आर्थिक संकट से निकालने के लिए संस्था सदस्यों ने एक शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर किया जिस पर लिखा था कि वह 20 साल तक 150 रुपए मासिक से ज्यादा वेतन नहीं लेंगे और जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाएंगे। स्वयं डॉ. जाकिर हुसैन ने अपना वेतन 150 रुपए से कम कर 40 रुपए मासिक कर वह कुर्बानी दी जिसकी मिसाल शायद ही किसी संस्था में देखने को मिले। उनका नाम सुनहरे अक्षरों में लिखने लायक है लेकिन इसके बावजूद वह उसके संस्थापकों की सूची में शामिल नहीं हो सकते।
आश्चर्य तो इस बात पर है कि जामिया के कुछ अपने हित के चलते मोहम्मद अली जौहर जैसे स्वतंत्र सेनानी जिन्हें महात्मा गांधी ने भारत की आजादी दिलाने से सम्बन्धित लंदन की गोल मेज कांफ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा था। वहां उन्होंने अपने भाषण में कहा कि ब्रिटेन हमें आजादी का परवाना दे अन्यथा हम गुलाम देश में मरना पसंद नहीं करेंगे। कांफ्रेंस के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई उन्हें फिलीस्तीन में दफन किया गया, की भूमिका को नकारने में लगे हैं वहीं मुंबई से प्रकाशित ‘उर्दू टाइम्स’ ने भी जामिया का संस्थापक डॉ. जाकिर हुसैन और उनके साथियों को बताकर सच्चाई के छुपाने की जो कोशिश की है वह निश्चय ही निंदनीय है और पत्रकारिता मूल्यों के विरुद्ध भी है।
जामिया मिलिया इस्लामिया के अल्पसंख्यक चरित्र का मामला उस समय पैदा हुआ था जब 1955 में केन्द्रीय सरकार ने संसद से एक कानून पारित कर इसे सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया था। उस समय उसका अल्पसंख्यक चरित्र खत्म कर दिया गया था। 1955 के उस कानून के अनुसार यह एक सामान्य यूनिवर्सिटी थी। मामले में उस समय मोड़ आया जब 2006 में केन्द्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर जामिया मिलिया इस्लाािमया को अपने यहां 27 फीसदी ओबीसी कोटा लागू करने का निर्देश दिया। जामिया ने इस आदेश के खिलाफ नेशनल कमीशन फॉर माइनारीटीज एजूकेशनल इंस्टीट्यूट में अपील दायर की। जामिया में पहले के ही 22.5 फीसदी सीटें एससी/एसटी 25 फीसदी इन्टरनल और तीन फीसदी सीटें विक्लांग छात्रों के लिए आरक्षित थीं। ओबीसी कोटा लागू करने से यह कोटा 50 फीसदी से बढ़ जाता जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सीमा से ज्यादा था।
18 सुनवाई के बाद एनसीएमईआई ने 22 फीसदी 2011 को अपने फैसले में स्पष्ट किया कि उसे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि जामिया मिलिया इस्लामिया को मुसलमानों के फायदे के लिए मुसलमानों ने ही कायम किया था और कभी भी इसने अपना मुस्लिम चरित्र नहीं खोया है। कमीशन चेयरमैन जस्टिस सुहैल एज़ाज़ सिद्दीकी ने फैसला सुनाते हुए कहा कि संविधान की धारा 30(1) के तहत जामिया मिलिया इस्लामिया एक अल्पसंख्यक संस्था है। इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्था घोषित किया जाए।
फैसले के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति नजदिव जंग ने इसे अगले शैक्षिक सत्र में लागू करने का भरोसा दिलाया है और कहा कि 2012-12 के प्रोस्पैक्टस आदि सामग्री छप चुकी है। इसके अतिरिक्त इसे लागू करने में जो बाधायें हैं उन्हें भी दूर किया जाएगा। इसलिए यह आगामी सत्र से लागू हो पाएगा। फैसले के अनुसार जहां 50 फीसदी सीटें मुस्लिम समुदाय के लिए आरक्षित होंगी वहां 50 फीसदी सीटें सामान्य कोटे के तहत भरी जाएगी। तब एससी/एसटी आरक्षण बांकी नहीं रहेगा। जामिया कुलपति का बयान अखबारों में सुरक्षित है जिसमें उन्होंने कहा कि जामिया का सेकुलर चरित्र बरकरार रहेगा। सवाल यह है कि किसी शैक्षिक संस्था में सेकुलर चरित्र का अर्थ क्या है और जामिया मिलिया में यह कहां से आया?
1988 में जामिया को सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा देते समय उसकी अंजुमन (संस्था) का उर्दू से अंग्रेजी अनुवाद किया गया और तब जामिया के मेमोरेण्डम ऑफ एसोसिएशन में दर्ज दीनी और पुनभावी शिक्षा की जगह अंग्रेजी में धार्मिक और सेकुलर अनुवार किया गया, यहीं से सेकुलर चरित्र की बात चल पड़ी जबकि इसके पूर्व लगता है कि कोई बात नहीं थी। फाना वाच डाट काम के संपादक एवं दिल्ली मामलों के जानकार क्यू आसिफ कहते हैं कि दुन्त्यावी शब्द का अंग्रेजी में सेकुलर अनुवाद किसी तरह सही नहीं है। उनका कहना था कि एनएमसीईआई के फैसले के बाद जिस तरह कुछ लोगों में क्रेडिट लेने की होड़ मची है वह उस समय कहां थे जब संसद में इस पर जोरदार बहस चल रही थी। तब अकेले जिस व्यक्ति की आवाज सुनी गई वह कोई और नहीं बल्कि वरिष्ठ भाजपा नेता एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। उनकी मांग थी कि जामिया का जो विधेयक चर्चा का विषय है उसमें जामिया के ऐतिहासिक चरित्र का कोई जिक्र नहीं है। जाहिर सी बात है कि जामिया का यह ऐतिहासिक चरित्र इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था कि 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को यूनिवर्सिटी का दर्जा दिए जाने के बाद तत्कालीन मुस्लिम नेतृत्व विशेषकर खिलाफत आंदोलन की अगुवाई कर रहे अलीग बंधुओं को यह एहसास था कि एएमयू अब पूरी तरह अंग्रेजों के कंट्रोल में चला जाएगा और यहां से स्वतंत्रता संग्राम के मतवालों को भी आवाज उठाने की अनुमति नहीं होगी। यही वह सोच थी जिसके तहत एक अलग मुस्लिम शिक्षण संस्था की 29 अक्टूबर, 1920 को स्थापना हुई, जिसका नाम जामिया मिलिया इस्लामिया पड़ा। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कैम्पस में शुरू होने वाली जामिया को दिल्ली के करोल बाग लाया गया, बाद में ओखला। यहीं यह यूनिवर्सिटी स्थापित है।
ख्याति प्राप्त आलिम दीन और स्वतंत्र सेनानी जो नालंदा की जेल से रिहा हुए थे ने इसकी बुनियाद रखते हुए कहा कि इसका मकसद मुसलमानों की शिक्षा मुसलमानों के हाथों में रख्ना है। जामिया की स्थापना से लेकर 1938 तक जामिया के प्रॉस्पेक्टस में उसका यह उद्देश्य लिखा जाता रहा लेकिन 1939 में डॉ. जाकिर हुसैन ने जामिया कुलपति बनने के बाद जामिया की अंजुमन के पंजीकृत के समय उसके उद्देश्य में थोड़ा संशोधन कर दिया। तब उसमें यह बात दर्ज की गई कि इसकी स्थापना का असल मकसद हिंदुस्तानी विशेषकर मुसलमानों को दोनी एवं दुनभावी शिक्षा देना है।
2006 के अंत में जब प्रोफेसर मुशीहल हसन जामिया के कुलपति थे। जब जामिया टीचर्स एसोसिएशन, जामिया स्टुडेन्टस यूनियन और जामिया ओल्ड ब्वायज़ एसोसिएशन ने अलग-अलग याचिका दायर कर इस कमीशन से अनुरोध किया कि जामिया मिलिया को अल्पसंख्यक होने का दर्जा प्रदान करे। तत्काली रजिस्ट्रार एस.एम. अफजल ने इसका विरोध किया क्योंकि मुशीहल हसन इसका विरोध कर चुके थे। लेकिन वर्तमान रजिस्ट्रार एस.एम. साजिद ने अपने शपथ-पत्र में स्वीकार किया कि जामिया अल्पसंख्यक संस्था था और है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कमीशन में याचिका दाखिल कर मांग की कि इस मामले की सुनवाई उस समय तक स्थगित रखी जाए। जब तक सुप्रीम कोर्ट अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र से सम्बन्धित इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ इसकी और यूनिवर्सिटी की अपील पर कोई फैसला न दे।
कमीशन ने अपने फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की जामिया मिलिया से तुलना करते हुए कहा कि 1920 में जब एक एक्ट के तहत मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी उस समय एमएओ कॉलेज तो था, लेकिन मुस्लिम यूनिवर्सिटी का वजूद नहीं था। इसलिए यह कहा जाएगा कि यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत कायम हुई है जबकि जामिया मिलिया के मामले में यह सूरते हाल नहीं थी। इस आधार पर कमीशन ने इस आपत्ति को निरस्त कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक इंतजार किया जाए। लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक संस्था होने में इस आधार पर कोई ज्वेंट नहीं किया जा सकता। इसका चरित्र और प्रबंध शुरू दिन से मुसलमानों के हाथों में है। कई धारा वजूद में आने वाली यूनिवर्सिटी इसी एमएओओ कॉलेज की नई शक्ल है जो अल्पसंख्यक संस्था है।
एनसीएमईआई ने अपने फैसले में जामिया की स्थापना पर चर्चा करते हुए लिखा है कि किस तरह पहले अलीगढ़ में 1920 में जामिया को कायम किया गया, फिर दिल्ली लाया गया। 1939 में इसे सोसाइटी एक्ट के तहत पंजीकृत कराया गया। इस बात का विशेष तौर से जिक्र किया है कि जामिया कालेजा की ब्रिटिश सरकार से मदद हासिल थी जबकि जामिया मिलिया इस्लामिया खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन के नतीजे में कायम हुआ। जामिया के संस्थापक संस्था के प्रबंध को सरकारी हस्तक्षेप से आजाद अपने हाथ में रखना चाहते थे।
जामिया मिलिया इस्लामिया इस प्रसंग में अकेली यूनिवर्सिटी है जहां अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और बनारस विश्वविद्यालय की तरह किसी एक संस्थापक के बजाए संस्थापकों की शब्दावली प्रचलित है। जबकि वास्तविकता यह है कि 29 अक्टूबर, 1920 को जामिया की स्थापना के समय 92 सदस्यीय फाउडेशन कमेटी गइित हुई थी। जिसमें सर्व सम्मति से प्रस्ताव पारित कर मौलाना मोहम्मद अली जौहर को इसका संस्थापक बताया गया था। कमेटी सदस्यों में शेरवुल हिंद मौलाना महमूद हसन, हकीम अजमल खां, डॉ. मुखतार अहमद अंसारी, अब्दुल मजीद ख्वाजा, मुफ्ती किफायत उल्ला, मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना अबुल कलाम आजाद और महात्मा गांधी के नाम उल्लेखनीय हैं। 1920 से 1938 तक मौलाना जौहर का नाम संस्थापक के तौर पर आता रहा लेकिन बाद में संस्थापकों की शब्दावली का इस्तेमाल कर उसमें डॉ. जाकिर हुसैन का नाम शामिल कर दिया गया।
डॉ. जाकिर हुसैन 1925 में जर्मनी से आए थे। निःसंदेह उन्होंने जामिया को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जामिया को आर्थिक संकट से निकालने के लिए संस्था सदस्यों ने एक शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर किया जिस पर लिखा था कि वह 20 साल तक 150 रुपए मासिक से ज्यादा वेतन नहीं लेंगे और जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाएंगे। स्वयं डॉ. जाकिर हुसैन ने अपना वेतन 150 रुपए से कम कर 40 रुपए मासिक कर वह कुर्बानी दी जिसकी मिसाल शायद ही किसी संस्था में देखने को मिले। उनका नाम सुनहरे अक्षरों में लिखने लायक है लेकिन इसके बावजूद वह उसके संस्थापकों की सूची में शामिल नहीं हो सकते।
आश्चर्य तो इस बात पर है कि जामिया के कुछ अपने हित के चलते मोहम्मद अली जौहर जैसे स्वतंत्र सेनानी जिन्हें महात्मा गांधी ने भारत की आजादी दिलाने से सम्बन्धित लंदन की गोल मेज कांफ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा था। वहां उन्होंने अपने भाषण में कहा कि ब्रिटेन हमें आजादी का परवाना दे अन्यथा हम गुलाम देश में मरना पसंद नहीं करेंगे। कांफ्रेंस के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई उन्हें फिलीस्तीन में दफन किया गया, की भूमिका को नकारने में लगे हैं वहीं मुंबई से प्रकाशित ‘उर्दू टाइम्स’ ने भी जामिया का संस्थापक डॉ. जाकिर हुसैन और उनके साथियों को बताकर सच्चाई के छुपाने की जो कोशिश की है वह निश्चय ही निंदनीय है और पत्रकारिता मूल्यों के विरुद्ध भी है।
Saturday, April 2, 2011
सहाबा की महानता पर अमेरिकी हितों का संरक्षण
इमाम हरम के भारत आगमन पर उर्दू अखबारों ने काफी कुछ लिखा है। जिस तरह उनका प्रचार-प्रसार किया जा रहा था उस पर चर्चा करते हुए एक अखबार ने लिखा है कि यह सुनामी है। सुनामी गुजर जाने के बाद देखिएगा, कैसे-कैसे दृश्य नजर आते हैं। पेश है इस बाबत उर्दू के कुछ अखबारों की राय।
`इमाम हरम का दौरा देवबंद' के शीर्षक दैनिक `उर्दू नेट' में सम्पादक असगर अंसारी ने लिखा है कि मक्का और मदीना की मस्जिद में इमामत के लिए योग्य होना ऐसा ही है जैसा दिल्ली की शाही मस्जिद का मामला है, बाप के बाद बेटा उसके बाद पोता। जिस तरह जामा मस्जिद के शाही इमाम की योग्यता पूर्व इमाम का बेटा होना है उसी तरह मक्का में स्थित हरम का इमाम होना मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब के रिश्तेदारों से होना है। सऊदी अरब ने अपने यहां जारी आंदोलन की लहर को टालने के लिए मसलकी रंग दे दिया है और अमेरिका के इशारे पर इस्राइली हितों को संरक्षण देने हेतु बहरीन में सैनिक हस्तक्षेप कर दिया है। दूसरी ओर सऊदी अरब के धार्मिक विभाग के मंत्रालय ने आम मुसलमानों को यह समझाने की जिम्मेदारी दी है कि सऊदी अरब में इस्लाम के अनुसार शरई सरकार है और इसके खिलाफ गतिविधियां इस्लाम के खिलाफ और गैर शरई हैं। सभी इमामों से कहा गया है कि वह आंदोलनकारियों को शिया करार देकर इस्लामी जगत के लिए खतरा करार दें ताकि सुन्नी मुसलमान इस आंदोलन के खिलाफ एकजुट हो जाएं। सऊदी अरब के सामने सबसे बड़ा मिशन यही है और उसके मंत्री, दूत एवं धार्मिक व्यक्ति इस समय दुनियाभर के दौरे पर हैं। शेख अबुर्दुरहमान बिन अब्दुल अजीज असुदैस का दौरा भी इसी सिलसिले की कड़ी मालूम होता है। कांफ्रेंस के लिए विषय का चयन भी ऐसा है जो मुसलमानों में बहरहाल विवादित है।
`और कितना नीचे उतरेंगे अरशद मियां?' के शीर्षक से वरिष्ठ पत्रकार हफीज नोमानी ने `जदीद' खबर में लिखा है कि उनके प्रेस में सैयद सालार मसूद गाजी के उर्स का पोस्टर छपवाने एक साहब आते थे। एक बार जब वह आए तो उन्होंने कहा कि इस बार पोस्टर में आधे में मेरा फोटो और तीन इंच की मोटी पट्टी में नाम सहित आधे में उर्स का विवरण और कैलेंडर होगा। इसकी संख्या एक लाख होगी। यह पूछने पर कि इस बार ऐसा अलग क्यों हैं, उन्होंने कहा कि वह चुनाव लड़ना चाहते हैं इसीलिए आधे में फोटो और आधे में कैलेंडर है ताकि लोगों के घर में लगा रहे और सालभर लोग मुझे देखकर याद करते रहें। इस उदाहरण को देने के बाद वह लिखते हैं अगर हमारी बात गलत है तो माफ कर दीजिएगा। हमें बिल्कुल ऐसा लग रहा है कि जैसे हमारे दोस्त सैयद सालार मसूद गाजी की गोद में बैठकर संसद में पहुंचना चाहते हैं। मौलाना अरशद मदनी बिना जरूरत और बिना किसी कारण पैगम्बर मोहम्मद के महान साथियों (सहाबा) को जमीअत उलेमा के लिए इस्ताल कर रहे हैं। दिल्ली में लाख दो लाख मुसलमानों को जमा करके अपनी लोकप्रियता का प्रदर्शन कर राज्यसभा की सदस्यता के लिए रास्ता साफ कर रहे हैं।
`सहाबा की महानता के नाम पर अमेरिकी हितों का संरक्षण' के तहत डॉ. मुजफ्फर हुसैन गजाली ने `सेकुलर कयादत' में लिखा है। हिन्दुस्तानी मुसलमान यह महसूस करते हैं कि ऐसे समय में सहाबा की महानता पर कांफ्रेंस करना जबकि मुस्लिम देशों में तानाशाहों के खिलाफ लोकतंत्र के हक में एक जबरदस्त इंकलाब आया हुआ है जिसकी शुरुआत ईरान से हुई थी। इत्तेहाद मिल्लत (मुस्लिम एकता) को नुकसान पहुंचाना है। मुस्लिम दुनिया में जो हालात पैदा हो रहे हैं उनसे ईरान के लिए मुसलमानों में गुंजाइश पैदा हुई है और शिया-सुन्नी करीब आए हैं। अरशद मदनी की सहाबा की महानता कांफ्रेंस मुस्लिम हित की नहीं बल्कि इस्राइल एवं अमेरिका के हित के संरक्षण की कांफ्रेंस है। सऊदी अरब में लोकतांत्रिक सरकार अमेरिका के हित में नहीं है। ऐसा करने से उसकी पकड़ कमजोर पड़ जाएगी। हो सकता है कि मौलाना मिल्ली इत्तेहाद को नुकसान पहुंचाकर इस अवसर का फायदा उठाने की रणनीति के तहत मैदान में उतरे हों। इससे मौलाना के दो मकसद पूरे हो सकते हैं। एक कांग्रेस उन्हें राज्यसभा में भेज दे तो उनकी मंजिल है दूसरे उन्हें आने वाले चुनावों में मुसलमानों का वोट कांग्रेस के हक में डलवाने का ठेका मिल जाए। `हमारा समाज' में सालिक धामपुरी ने `देखने हम भी पर तमाशा न हुआ' के शीर्षक से लिखा है। इमाम हरम के हमारे देश में आने की सूचना कारोबारी मकसद से निकलन वाले अखबारात में दीनी व मिल्ली जमाअतों बल्कि हमारे उलेमा की ओर से दिए गए लाखों रुपये के विज्ञापनों से पढ़ने को मिली। इमाम हरम का हमारे देश में आने का मकसद क्या है यह हम नहीं जानते, लेकिन इनके आगमन पर हमारी मिल्ली जमाअतों ने अपनी पब्लिसटी का कोई मौका हाथ से नहीं जाने दिया। 26 मार्च को इमाम हरम को जमाअत इस्लामी हिन्द के मुख्यालय स्थित गुबंद वाली मस्जिद में जोहर की नमाज पढ़ानी थी इसके लिए एक दिन पहले से ही रिक्शे पर ऐलान कराया गया और अखबारों में विज्ञापन दिया गया जिसके कारण भीड़ इतनी हो गई कि वह मस्जिद के अन्दर नहीं जा सके और उन्हें बिना नमाज पढ़ाए ही वापस जाना पड़ा। माना कि भीड़ के कारण वह नमाज नहीं पढ़ा सके लेकिन जमाअत इस्लामी हिन्द कैडर आधारित संगठन होने का दावा करती है। देश की व्यवस्था की तब्दीली की इच्छा रखने वाली जमाअत एक मामूली से कार्यक्रम को कंट्रोल नहीं कर सकी। सुबह से इमाम हरम के जोहर की नमाज अदा कराने का एक मुबारक तमाशे का जो ऐलान हो रहा था, अफसोस कि वह तमाशा न हो सका। `इमाम हरम के दौरे पर सियासी रोटियां सेकने की कोशिश तेज' के तहत देवबंद से रिजवान सलमानी ने `हमारा समाज' में लिखा है कि राजनैतिक विशेषज्ञों का मानना है कि केंद्र की यूपीए सरकार विशेषकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अमेरिका की ओर झुकाव से कांग्रेस की मुसलमानों और सेकुलर लोगों में जो छवि बनी है, इमाम हरम के दौरे से इसमें बदलाव आएगा। कांग्रेस और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने आगे बढ़कर इस कार्यक्रम में भाग लिया और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने उनके लिए अशोका होटल में भोज दिया। उससे कांग्रेस के इरादे किसी से छिपे नहीं रह सके। विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि गत कुछ समय से उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से तोड़ने में जीजान से कांग्रेस लगी है। वर्तमान कार्यक्रम को कांग्रेस की इसी नीति का हिस्सा माना जा रहा है।
`इमाम हरम की राजनीति' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' में ख्वाजा मजनू ने लिखा है। राजधानी वालों के लिए यह सप्ताह काफी मुबारक था। हर तरफ पवित्र हलचल थी। लोग जा-ए-नमाज (जमीन पर बिछाकर नमाज पढ़ने का कपड़ा) लेकर भागते नजर आ रहे थे। जिन्होंने कभी खुदा का घर नहीं देखा वह भी भगवान राम के मैदान सिजदा करने के लिए बेचैन थे। कोई इसे आधा हज का दर्जा दे रहा था तो कोई हज से भी ज्यादा महत्व देने में लगा था। दिल्ली में इमाम साहब कहां जाएंगे और कहां नहीं जाएंगे इसके लिए अन्दर ही अन्दर खूब खींचातानी हुई। आईटीओ स्थित मस्जिद अब्दुल नबी से 24 घंटे कंट्रोलिंग की कोशिश की जा रही थी।
यहां मुंबई के एक साहब हैं, जिन्हें कुछ लोग मोबाइल आफिस भी कहते हैं। वह एक ट्रेवल एजेंट हैं लेकिन छोटे बाबू की सेवा करना अपना कर्तव्य समझते हैं। छोटे बाबू ने वह कर दिखाया जिससे उनके पूर्वज वर्षों से नहीं करना चाहते थे। सऊदी सरकार के खिलाफ अपनी आवाज उठाने के लिए मशहूर इनके पूर्वजों की आत्मा को कितनी तकलीफ हुई होगी जब एक सरकारी इमाम के लिए शेखुल इस्लाम का नारा लगा रहे हों। एक ऐसा व्यक्ति कदमों में एक कर्मचारी के गिर पड़ा हो जिनके पूर्वजों के कदमों में पूरा शासन नतमस्तक हुआ हो और उन्होंने उसे ठोकर मार दी हो। खैर, यह तो समय-समय की बात है। हालात सदैव एक जैसे नहीं रहते और बुद्धिजीवी वही है जो हालात के अनुसार फैसला करे, जो अपनी बरतरी के लिए किसी का कदम चूमें और किसी के दर पर माथा टेके।
`इमाम हरम का दौरा देवबंद' के शीर्षक दैनिक `उर्दू नेट' में सम्पादक असगर अंसारी ने लिखा है कि मक्का और मदीना की मस्जिद में इमामत के लिए योग्य होना ऐसा ही है जैसा दिल्ली की शाही मस्जिद का मामला है, बाप के बाद बेटा उसके बाद पोता। जिस तरह जामा मस्जिद के शाही इमाम की योग्यता पूर्व इमाम का बेटा होना है उसी तरह मक्का में स्थित हरम का इमाम होना मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब के रिश्तेदारों से होना है। सऊदी अरब ने अपने यहां जारी आंदोलन की लहर को टालने के लिए मसलकी रंग दे दिया है और अमेरिका के इशारे पर इस्राइली हितों को संरक्षण देने हेतु बहरीन में सैनिक हस्तक्षेप कर दिया है। दूसरी ओर सऊदी अरब के धार्मिक विभाग के मंत्रालय ने आम मुसलमानों को यह समझाने की जिम्मेदारी दी है कि सऊदी अरब में इस्लाम के अनुसार शरई सरकार है और इसके खिलाफ गतिविधियां इस्लाम के खिलाफ और गैर शरई हैं। सभी इमामों से कहा गया है कि वह आंदोलनकारियों को शिया करार देकर इस्लामी जगत के लिए खतरा करार दें ताकि सुन्नी मुसलमान इस आंदोलन के खिलाफ एकजुट हो जाएं। सऊदी अरब के सामने सबसे बड़ा मिशन यही है और उसके मंत्री, दूत एवं धार्मिक व्यक्ति इस समय दुनियाभर के दौरे पर हैं। शेख अबुर्दुरहमान बिन अब्दुल अजीज असुदैस का दौरा भी इसी सिलसिले की कड़ी मालूम होता है। कांफ्रेंस के लिए विषय का चयन भी ऐसा है जो मुसलमानों में बहरहाल विवादित है।
`और कितना नीचे उतरेंगे अरशद मियां?' के शीर्षक से वरिष्ठ पत्रकार हफीज नोमानी ने `जदीद' खबर में लिखा है कि उनके प्रेस में सैयद सालार मसूद गाजी के उर्स का पोस्टर छपवाने एक साहब आते थे। एक बार जब वह आए तो उन्होंने कहा कि इस बार पोस्टर में आधे में मेरा फोटो और तीन इंच की मोटी पट्टी में नाम सहित आधे में उर्स का विवरण और कैलेंडर होगा। इसकी संख्या एक लाख होगी। यह पूछने पर कि इस बार ऐसा अलग क्यों हैं, उन्होंने कहा कि वह चुनाव लड़ना चाहते हैं इसीलिए आधे में फोटो और आधे में कैलेंडर है ताकि लोगों के घर में लगा रहे और सालभर लोग मुझे देखकर याद करते रहें। इस उदाहरण को देने के बाद वह लिखते हैं अगर हमारी बात गलत है तो माफ कर दीजिएगा। हमें बिल्कुल ऐसा लग रहा है कि जैसे हमारे दोस्त सैयद सालार मसूद गाजी की गोद में बैठकर संसद में पहुंचना चाहते हैं। मौलाना अरशद मदनी बिना जरूरत और बिना किसी कारण पैगम्बर मोहम्मद के महान साथियों (सहाबा) को जमीअत उलेमा के लिए इस्ताल कर रहे हैं। दिल्ली में लाख दो लाख मुसलमानों को जमा करके अपनी लोकप्रियता का प्रदर्शन कर राज्यसभा की सदस्यता के लिए रास्ता साफ कर रहे हैं।
`सहाबा की महानता के नाम पर अमेरिकी हितों का संरक्षण' के तहत डॉ. मुजफ्फर हुसैन गजाली ने `सेकुलर कयादत' में लिखा है। हिन्दुस्तानी मुसलमान यह महसूस करते हैं कि ऐसे समय में सहाबा की महानता पर कांफ्रेंस करना जबकि मुस्लिम देशों में तानाशाहों के खिलाफ लोकतंत्र के हक में एक जबरदस्त इंकलाब आया हुआ है जिसकी शुरुआत ईरान से हुई थी। इत्तेहाद मिल्लत (मुस्लिम एकता) को नुकसान पहुंचाना है। मुस्लिम दुनिया में जो हालात पैदा हो रहे हैं उनसे ईरान के लिए मुसलमानों में गुंजाइश पैदा हुई है और शिया-सुन्नी करीब आए हैं। अरशद मदनी की सहाबा की महानता कांफ्रेंस मुस्लिम हित की नहीं बल्कि इस्राइल एवं अमेरिका के हित के संरक्षण की कांफ्रेंस है। सऊदी अरब में लोकतांत्रिक सरकार अमेरिका के हित में नहीं है। ऐसा करने से उसकी पकड़ कमजोर पड़ जाएगी। हो सकता है कि मौलाना मिल्ली इत्तेहाद को नुकसान पहुंचाकर इस अवसर का फायदा उठाने की रणनीति के तहत मैदान में उतरे हों। इससे मौलाना के दो मकसद पूरे हो सकते हैं। एक कांग्रेस उन्हें राज्यसभा में भेज दे तो उनकी मंजिल है दूसरे उन्हें आने वाले चुनावों में मुसलमानों का वोट कांग्रेस के हक में डलवाने का ठेका मिल जाए। `हमारा समाज' में सालिक धामपुरी ने `देखने हम भी पर तमाशा न हुआ' के शीर्षक से लिखा है। इमाम हरम के हमारे देश में आने की सूचना कारोबारी मकसद से निकलन वाले अखबारात में दीनी व मिल्ली जमाअतों बल्कि हमारे उलेमा की ओर से दिए गए लाखों रुपये के विज्ञापनों से पढ़ने को मिली। इमाम हरम का हमारे देश में आने का मकसद क्या है यह हम नहीं जानते, लेकिन इनके आगमन पर हमारी मिल्ली जमाअतों ने अपनी पब्लिसटी का कोई मौका हाथ से नहीं जाने दिया। 26 मार्च को इमाम हरम को जमाअत इस्लामी हिन्द के मुख्यालय स्थित गुबंद वाली मस्जिद में जोहर की नमाज पढ़ानी थी इसके लिए एक दिन पहले से ही रिक्शे पर ऐलान कराया गया और अखबारों में विज्ञापन दिया गया जिसके कारण भीड़ इतनी हो गई कि वह मस्जिद के अन्दर नहीं जा सके और उन्हें बिना नमाज पढ़ाए ही वापस जाना पड़ा। माना कि भीड़ के कारण वह नमाज नहीं पढ़ा सके लेकिन जमाअत इस्लामी हिन्द कैडर आधारित संगठन होने का दावा करती है। देश की व्यवस्था की तब्दीली की इच्छा रखने वाली जमाअत एक मामूली से कार्यक्रम को कंट्रोल नहीं कर सकी। सुबह से इमाम हरम के जोहर की नमाज अदा कराने का एक मुबारक तमाशे का जो ऐलान हो रहा था, अफसोस कि वह तमाशा न हो सका। `इमाम हरम के दौरे पर सियासी रोटियां सेकने की कोशिश तेज' के तहत देवबंद से रिजवान सलमानी ने `हमारा समाज' में लिखा है कि राजनैतिक विशेषज्ञों का मानना है कि केंद्र की यूपीए सरकार विशेषकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अमेरिका की ओर झुकाव से कांग्रेस की मुसलमानों और सेकुलर लोगों में जो छवि बनी है, इमाम हरम के दौरे से इसमें बदलाव आएगा। कांग्रेस और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने आगे बढ़कर इस कार्यक्रम में भाग लिया और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने उनके लिए अशोका होटल में भोज दिया। उससे कांग्रेस के इरादे किसी से छिपे नहीं रह सके। विशेषज्ञ यह भी मानते हैं कि गत कुछ समय से उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से तोड़ने में जीजान से कांग्रेस लगी है। वर्तमान कार्यक्रम को कांग्रेस की इसी नीति का हिस्सा माना जा रहा है।
`इमाम हरम की राजनीति' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' में ख्वाजा मजनू ने लिखा है। राजधानी वालों के लिए यह सप्ताह काफी मुबारक था। हर तरफ पवित्र हलचल थी। लोग जा-ए-नमाज (जमीन पर बिछाकर नमाज पढ़ने का कपड़ा) लेकर भागते नजर आ रहे थे। जिन्होंने कभी खुदा का घर नहीं देखा वह भी भगवान राम के मैदान सिजदा करने के लिए बेचैन थे। कोई इसे आधा हज का दर्जा दे रहा था तो कोई हज से भी ज्यादा महत्व देने में लगा था। दिल्ली में इमाम साहब कहां जाएंगे और कहां नहीं जाएंगे इसके लिए अन्दर ही अन्दर खूब खींचातानी हुई। आईटीओ स्थित मस्जिद अब्दुल नबी से 24 घंटे कंट्रोलिंग की कोशिश की जा रही थी।
यहां मुंबई के एक साहब हैं, जिन्हें कुछ लोग मोबाइल आफिस भी कहते हैं। वह एक ट्रेवल एजेंट हैं लेकिन छोटे बाबू की सेवा करना अपना कर्तव्य समझते हैं। छोटे बाबू ने वह कर दिखाया जिससे उनके पूर्वज वर्षों से नहीं करना चाहते थे। सऊदी सरकार के खिलाफ अपनी आवाज उठाने के लिए मशहूर इनके पूर्वजों की आत्मा को कितनी तकलीफ हुई होगी जब एक सरकारी इमाम के लिए शेखुल इस्लाम का नारा लगा रहे हों। एक ऐसा व्यक्ति कदमों में एक कर्मचारी के गिर पड़ा हो जिनके पूर्वजों के कदमों में पूरा शासन नतमस्तक हुआ हो और उन्होंने उसे ठोकर मार दी हो। खैर, यह तो समय-समय की बात है। हालात सदैव एक जैसे नहीं रहते और बुद्धिजीवी वही है जो हालात के अनुसार फैसला करे, जो अपनी बरतरी के लिए किसी का कदम चूमें और किसी के दर पर माथा टेके।
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