Friday, October 28, 2011

`पेड न्यूज पर चुनाव आयोग की ऐतिहासिक पहल'

केंद्र सरकार द्वारा 1400 आईपीएस भर्ती के लिए डीएसपी और सेना के मेजर/कैप्टन रैंक के अधिकारी ही भाग ले सकेंगे, की प्रधानमंत्री कार्यालय के सुझाव पर मुस्लिम संगठनों ने आजित करते हुए इसे मुसलमानों के हक पर संवैधानिक डाका डालने के बराबर बतया है। दैनिक `सहाफत' ने जकात फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. सैयद जफर महमूद, जमाअत इस्लामी हिन्द अध्यक्ष मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी, दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस राजेन्द्र सच्चर और ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस के कार्यवाहक अध्यक्ष एवं पाक्षिक अंग्रेजी `मिल्ली गजट' के सम्पादक डॉ. जफरुल इस्लाम खां के संयुक्त बयान को प्रकाशित कर इनके विचारों को प्रमुखता से उजागर किया है। बयान के अनुसार इस तरह की भर्ती के नतीजे में आईपीएस में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व अगले तीन-चार दशकों के लिए और भी कम हो जाएगा क्योंकि सशस्त्र बल में मुसलमानों का अनुपात आईपीएस से भी कम है और डीएसपी के पद पर मुसलमान गिनती के हैं। इंडियन पुलिस सर्विस और अन्य सिविल सर्विस में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व केवल 2.3 फीसदी है जबकि 2001 की जनगणना के अनुसार इनका अनुपात 13.4 फीसदी है। नए आईपीएस अधिकारियों की भर्ती के लिए ओपन परीक्षा न लेने का फैसला मुसलमानों के हित के खिलाफ होगी। इस फैसले से सरकारी रोजगार के समान अवसर के संवैधानिक हक की अवहेलना होती है जिसकी जमानत धारा 16 में दी गई है। जस्टिस सच्चर के अनुसार यह संविधान की धारा 15 के भी खिलाफ है जिसमें धर्म के आधार पर सरकार की ओर से भेदभाव वर्जित है।
`आडवाणी की आखिरी यात्रा' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दुनिया' ने पटना से अपने विशेष संवाददाता के हवाले से लिखा है कि आडवाणी जी गुजरात के बजाय बिहार को नमूना बता रहे हैं, मोदी के बजाय नीतीश कुमार को आइडियल मुख्यमंत्री कह रहे हैं, जो मोदी को अपने राज्य में घुसने नहीं देते और साफ-साफ कह देते हैं कि बिहार में इसका अपना मोदी मौजूद है। किसी अन्य मोदी की जरूरत नहीं है। आडवाणी की यात्रा गुजरात से शुरू हुआ करती थी लेकिन यह उनकी पहली यात्रा है जो पूरब से पश्चिम को हो रही है। यह देश के सोशलिस्ट नेता के जन्म स्थल से नई दिल्ली की ओर शुरू की गई है और इसको हरी झंडी जय प्रकाश नारायण के चेले नीतीश कुमार ने दिखाई है। सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्राओं के लिए बदनाम आडवाणी की यात्रा हर बार देश में सांप्रदायिक वातावरण को खराब करती रही है लेकिन पहली बार वह भ्रष्टाचार जैसे गैर सांप्रदायिक मुद्दे पर यात्रा कर रहे हैं। विशेषज्ञों का यह विचार गलत नहीं है कि यह आडवाणी की आखिरी यात्रा है, उनके सामने करो या मरो की चुनौती है।
`पेड न्यूज पर चुनाव आयोग की ऐतिहासिक पहल' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के दसौली विधानसभा क्षेत्र के विधायक उरमिलेश यादव पर तीन वर्ष तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी है। आयोग ने अपने फैसले में कहा कि पेड न्यूज मामले पर आरोप साबित होने के चलते यादव पर 20 अक्तूबर 2011 से 19 अक्तूबर 2014 तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी है। ऐसी स्थिति में उर्मिलेश यादव 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाग नहीं ले सकेंगी। इसी सीट से योगेन्द्र कुमार ने भी इनके खिलाफ चुनाव लड़ा था। उन्होंने एक जुलाई 2010 को चुनाव आयोग में शिकायत दर्ज कराई कि चुनाव से ठीक पहले 17 अप्रैल 2007 को उर्मिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के दो बड़े हिन्दी दैनिक में अपने हक में समाचार प्रकाशित कराए हैं। इसी के साथ उन्होंने यह शिकायत प्रेस परिषद में भी दर्ज कराई थी। चुनाव आयोग ने इस मामले की जांच की और दोनों पक्षों की दलीलें भी सुनीं और तफ्तीश के बाद आयोग ने पाया कि उर्मिलेश ने चुनाव से ठीक पहले समाचार प्रकाशित कराने के लिए 21250 रुपये खर्च किए लेकिन इस खर्च को चुनावी खर्च में नहीं दिखाया गया था। उम्मीदवार को अपना प्रचार करने का पूरा हक है लेकिन उसे खर्च दिखाना पड़ेगा। ऐसी खबरें प्रकाशित करने वाले अखबारों और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को भी आखिर में यह लिखना और दिखाना होगा कि यह विज्ञापन है और वह भी पेड विज्ञापन। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पर भी पेड न्यूज के आरोप हैं। इन दोनों नेताओं को भी चुनाव आयोग द्वारा नोटिस दिया जा चुका है। दैनिक `जदीद खबर' ने `मोदी के खिलाफ सुबूत' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि गुजरात की जमीन पर मुसलमानों के नरसंहार में मोदी किस हद तक शरीक थे, इसका अभी तक कोई दस्तावेजी सुबूत सामने नहीं आ सका है। इस बाबत जकिया जाफरी की अपील पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेष तफ्तीशी टीम ने भी नरेन्द्र मोदी के खिलफ ठोस सुबूत उपलब्ध करने से इंकार कर दिया था और ऐसा महसूस होने लगा था कि इतिहास के इस बड़े नरसंहार के सबसे बड़े अपराधी पर कोई आंच नहीं आएगी और वह अपनी गर्दन में बेगुनाही का हार डलकर इसी तरह इंसाफ और कानून का मजाक उड़ाता रहेगा। लेकिन अब अदालत के एक निरपेक्ष सलाहकार ने अपनी जांच में यह रहस्योद्घाटन किया है कि नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मुकदमा चलाने के सुबूत मौजूद हैं। इन सुबूतों की बुनियाद पर मोदी के खिलाफ संगीन मुकदमा तो कायम नहीं हो पाएगा लेकिन सांप्रदायिक घृणा, भड़काऊ और जनता को हंगामे पर उसकाने जैसी धारा के तहत मुकदमा कायम हो सकता है। यदि ट्रायल कोर्ट ने विशेष वकील रामचन्द्रन के विचार को स्वीकार कर लिया तो मोदी के खिलाफ मुकदमे की कार्यवाही जल्द शुरू होगी।
`मोदी के खिलाफ शिकंजा' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी एक बार फिर मुश्किल में दिखाई दे रहे हैं क्योंकि इनके खिलाफ धारा 153 और 163 के तहत मुकदमा चलाने की पैरवी कर दी गई है, इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि गुजरात दंगों के मामले में मोदी के खिलाफ शिकंजा कसा ही जाएगा लेकिन अदालत के सलाहकार ने यह महसूस कर स्पष्ट कर दिया है कि मोदी का गुनाह माफी लायक नहीं है। इसके बावजूद एक बार फिर यह बात साफ हो गई है कि मोदी के लिए यह रिपोर्ट भारी पड़ सकती है। कल तक मोदी इस बात पर गर्व करते रहे हैं कि सुबूत न होने के आधार पर उन्हें क्लीन चिट मिल सकती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की गठित कमेटी की रिपोर्ट की रोशनी में यह बात उभरकर सामने आ गई है कि मोदी को राहत दिया जाना अब संभव नहीं है। देखना यह है कि 10 वर्षों से इंसाफ की राह देख रहे पीड़ितों को कब इंसाफ मिलता है। `मुसलमानों के लिए आरक्षण दुश्वार, कांग्रेस का मायूस कुन जवाब' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' ने कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अलवी के हवाले से लिखा है कि मुसलमानों के लिए आरक्षण का मामला बहुत गंभीर है जब इस मसले पर कोई फैसला लिया जाएगा तो मीडिया को सूचित कर दिया जाएगा। कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में मुसलमानों को आरक्षण देने का वादा किया था और कहा था कि केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के मॉडल पर विचार किया जाएगा। राशिद अलवी ने कहा कि घोषणा पत्र में बहुत सारे वायदे किए गए हैं। मुस्लिम आरक्षण भी इन वायदों में से एक है।

Wednesday, October 26, 2011

मुस्लिम महापंचायत की अनॉप-शनॉप

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय संस्थापक सर सैयद अहमद के जन्म दिवस पर 17 अक्तूबर 2011 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आयोजित समारोह में केंद्रीय कानून एवं इंसाफ मंत्री सलमान खुर्शीद को शरीक नहीं होने दिया गया, पर चर्चा करते हुए दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अखबार की पहली खबर बनाई है। अलीगढ़ के संवाददाता ए. समन सवॉ के हवाले से अखबार ने लिखा है कि सर सैयद का 194वां जन्म दिवस पारम्परिक जोश खरोश से मनाया जाना था। इस कार्यक्रम में मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति ने सलमान खुर्शीद को विशेष मेहमान क sतौर पर बुलाया था लेकिन उनका सपना एक डरावने ख्वाब की तरह बिखर गया। छात्र और शिक्षक संघ ने इसका विरोध करते हुए पहले ही घोषणा कर दी थी कि वह किसी भी कीमत पर सलमान खुर्शीद को इस समारोह में शरीक नहीं होने देंगे। सर सैयद कार्यक्रम शाम चार बजे शुरू होना था लेकिन वीसी लाज पर छात्र और शिक्षकों की भीड़ काले झंडे लिए हुए सलमान खुर्शीद मुर्दाबाद और वाइस चांसलर मुर्दाबाद के नारे लगा रही थी। जिला और प्रशासन ने स्थिति को देखते हुए केंद्रीय मंत्री को एक होटल में ठहरा दिया और इनको यूनिवर्सिटी में दाखिल होने की इजाजत नहीं दी। जिसके नतीजे में साम साढ़े छह बजे अर्थात् दो घंटे बाद वाइस चांसलर और रजिस्ट्रार किसी गोपनीय रास्ते से समारोह स्थल पर आए जहां रजिस्ट्रार ने बताया कि पुलिस ने सलमान खुर्शीद को यहां आने से रोक दिया है।
आल इंडिया उलेमा मशाएख के बैनर तले मौलाना मोहम्मद अशरफ द्वारा मुसलमानों के एक सप्रदाय को निशाना बनाए जाने पर दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खां ने अपनी विशेष रिपोर्ट में लिखा है कि एमएलबी की सीट और कुछ विधानसभा टिकटों के लिए मौलाना मिल्लत में फूट डाल रहे हैं इसके लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश की एक अहम राजनैतिक पार्टी के बड़े नेता से गोपनीय संधि भी की है। कुर्सी और कुछ टिकटों के बदले पूरे मुस्लिम समुदाय को बांटने की नीति अपना सकते हैं। गत दिनों दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस और फिर बाद में बरेली की महापंचायत को इसी पार्टी ने स्पांसर किया था। मौलाना अशरफ ने प्रेस कांफ्रेंस और महापंचायत में मिल्लत इस्लामिया के संबंध में जो विचार जाहिर किए हैं उससे सुन्नी उलेमा भी हैरान हैं। इस बात से हैरान नहीं होना चाहिए कि वह राजनैतिक कद बढ़ाने के लिए वहाबी विचारधारा के खिलाफ काम कर रहे हैं। सूत्रों के अनुसार प्रेस कांफ्रेंस के लिए दिल्ली का चयन भी इन नेता जी की गोपनीय बैठक और निर्देश का नतीजा था क्योंकि दिल्ली से जो बात चलेगी वह दूर तक चलेगी। दूसरी ओर मुरादाबाद में भी हुई महापंचायत में भी वही बातें सामने आई हैं जिससे मुसलमानों में काफी गुस्सा पाया जा रहा है।
मुरादाबाद की महापंचायत में वक्ताओं द्वारा अनॉप-शनॉप बातें करने पर मुसलमानों द्वारा तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की जारी है। दैनिक `सहाफत' ने अपनी पहली खबर में जमीअत उलेमा हिन्द (अरशद ग्रुप) के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी, दिल्ली उर्दू अकादमी के वाइस चेयरमैन प्रोफेसर अखतारुल वासे, जमाअत इस्लामी हिन्द सचिव मौलाना रफीक कासमी, जमीअत अहले हदीस के महासचिव मौलाना असगर इमाम मेहंदी खलफी और मुस्लिम मजलिस अमल के महासचिव राहत मदमूद चौधरी सहित अनेक बुद्धिजीवियों के विचारों को प्रमुखता से प्रकाशित कर उनकी निन्दा की है और उन्हें कुरआन एवं हदीस की शिक्षा से अनभिज्ञ बताया है। मुरादाबाद की मुस्लिम महापंचायत में जिस तरह मुसलमानों को सुन्नी वहाबी में विभाजित कर वहाबी सप्रदाय पर आरोप लगाया गया है, वह बिल्कुल बेबुनियाद हैं। राहत महमूद चौधरी के अनुसार इस तरह का आरोप तो आरएसएस, भाजपा, शिवसेना, बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद भी आज तक नहीं लगा सकी है। उन्होंने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि इस महापंचायत में सऊदी अरब में कब्रिस्तान और मस्जिद की अवमानना का तो जिक्र किया गया लेकिन देश में वीरान पड़ी मस्जिदों और बाबरी मस्जिद तक का कोई जिक्र नहीं किया गया।
मौलाना अरशद मदनी ने महापंचयात के आरोप को नकारते हुए स्पष्ट किया कि इस्लाम दुनिया में मुसलमानों को जोड़ने के लिए आया है, तोड़ने के लिए नहीं। इसलिए दारुल उलूम देवबंद से कभी कोई आवाज मिल्लत के किसी सप्रदाय को तोड़ने के लिए नहीं उठाई जाती है। जोड़ने की यह कोशिश 150 साल से जारी है और हम इसमें पूरी तरह कामयाब हैं।
`सूचना अधिकार पर तलवार' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि सूचना का अधिकार एक बार फिर चर्चा में है और इसके कुछ बिन्दुओं पर फिर से विचार-विमर्श की बात की जा रही है। इस बार यह चिन्ता स्वयं प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा की ओर से की जा रही है। उनका कहना है कि इस कानून का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि इसके द्वारा ईमानदारी और सही ढंग से काम करने वाले लोग परेशान हों। प्रधानमंत्री की चिन्ता इसलिए है कि गत दिनों आरटीआई कार्यकर्ता द्वारा इस कानून के तहत प्रधानमंत्री कार्यालय से वह पत्र हासिल कर लिया गया था जो 2जी मामले में वित्त मंत्रालय ने उन्हें लिखा था जिसके बाद केंद्र सरकार संकट में पड़ गई थी। इसके अतिरिक्त जितने बड़े घोटाले सामने आए हैं उसमें सूचना अधिकार कानून का बड़ा योगदान है इसलिए सरकार अब इस कानून को कमजोर करना चाहती है। नौकरशाही व्यवस्था पर लगाम कसने वाला यह कानून अब सरकार के निशाने पर है।
दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने `अन्ना और उनकी टीम पर चौतरफा हमला' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम गत कुछ दिनों से चारों ओर से समस्याओं से घिरती जा रही है। एक-एक करके कई समस्याएं खड़ी हो गई हैं। उत्तर प्रदेश में अन्ना का संदेश लेकर दौरा कर रहे उनके सिपाहसालार अरविन्द केजरीवाल पर हमला हुआ। टीम अन्ना के दो वरिष्ठ सदस्य पीवी राजगोपाल और राजेन्द्र सिंह ने मुहिम के राजनैतिक रंग लेने पर कोर कमेटी से त्यागपत्र दे दिया है। कांग्रेस से सुलह कराने के प्रयासों पर उस समय पानी फिर गया जब समय देकर राहुल गांधी अन्ना के प्रतिनिधियों से नहीं मिले। रामदेव ने प्रशांत भूषण के खिलाफ मामला दर्ज करने की बात कही। अन्त में टीम अन्ना को एक झटका उस समय लगा जब सुप्रीम कोर्ट ने अन्ना के हिन्द स्वराज ट्रस्ट को मिलने वाले सरकारी पैसे का गलत इस्तेमाल की छानबीन के लिए सीबीआई की अर्जी को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया। अन्ना खुद तो बेदाग हैं लेकिन उनके साथी निश्चित रूप से अन्ना आंदोलन को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

Friday, October 14, 2011

अन्ना हजारे का असली चेहरा

बीते सप्ताह विभिन्न राजनैतिक और सामाजिक घटनाओं सहित अनेक ज्वलंत मुद्दों पर उर्दू अखबारों ने अपना पक्ष रखा। अन्ना हजारे की मुहिम का विशेष रूप से नोटिस लिया। लगभग सभी उर्दू अखबारों ने इस पर सम्पादकीय लिखे और लेख प्रकाशित किए। हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `अन्ना हजारे की कांग्रेस विरोधी अपील' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर जनता की सकारात्मक प्रतिक्रिया कोई ढकी छिपी बात नहीं है। जन लोकपाल बिल के मंजूर किए न किए जाने पर कांग्रेस को वोट न देने की अपील का कांग्रेस गंभीरता से नोटिस ले। यदि इस अपील के नतीजे में भाजपा अगुवाई वाली एनडीए सत्ता में वापस होती है तो यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही कहलाएगा। दूसरी बात यह कि भाजपा कोई दूध की धूली पार्टी नहीं है। जब तक सत्ता हाथ नहीं आई यह अपनी साफ छवि का दावा करती रही लेकिन विभिन्न राज्यों और विशेषकर कर्नाटक में सत्ता संभालने के बाद भाजपा मुख्यमंत्री और मंत्रियों के अवैध खनन में विभिन्न घोटालों में लिप्त होना इस बात का सुबूत है कि भाजपा भी भ्रष्टाचार में लिप्त है। हजारे यदि कांग्रेस को वोट न देने की अपील के साथ-साथ भाजपा को भी वोट न देने की अपील करते तो सांप्रदायिक ताकतों के प्रति इनके झुकाव का संदेह दूर हो जाता। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अन्ना को यह बात समझ लेना चाहिए कि इसी सत्ता भोग का फायदा उठाकर नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार किया। हजारे जब अपने आपको गांधी उसूलों पर चलने वाला बताते हैं तो उनके लिए जरूरी है कि वह इस देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह को नजरंदाज न करें।
`...तो यह है अन्ना जी का असली चेहरा' के शीर्षक से सना उल्ला सादिक तैमी ने दैनिक `हमारा समाज' में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि अन्ना हजारे के इस आंदोलन को लेकर कुछ वर्गों के अन्दर शुरू से एक प्रकार का असंतोष देखा गया, यदि साफ तौर पर कहा जाए तो मुसलमानों और दलितों ने लगभग इस पूरे आंदोलन से खुद को अलग रखा। व्यक्तिगत तौर पर हम न तो कांग्रेस को दूध की धुली हुई पार्टी समझते हैं और न ही हम इसके पक्षधर हैं कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध साथ न दें। यह तो लोकतंत्र का अपहरण करने जैसा है। अन्ना का कहना यह है कि भाजपा भी भ्रष्टाचार में वैसी ही लिप्त है जैसे अन्य राजनैतिक पार्टियां। ऐसा लगता है कि अन्ना जाने-अनजाने में किसी और के इशारों पर चल रहे हैं, वोट किसको देना है और किसको नहीं, यह फैसला हर भारतीय खुद कर सकता है। उनकी इस बात से अन्ना जी के चाहने वाले भी उनसे नाराज हो रहे हैं।
दैनिक `जदीद मेल' ने `गलत दिशा में आंदोलन' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अन्ना हजारे हो या उनकी टीम के दूसरे सदस्य, उनकी बातों पर उसी समय विश्वास करेंगे जब वह राजनैतिक पार्टियों से समान दूरी बनाकर अपने आंदोलन को आगे बढ़ाएंगे। यह सही है कि किसी भी जन आंदोलन में शामिल होने के लिए कोई भी आगे आ सकता है लेकिन आंदोलन का नेतृत्व करने वालों का दामन पाक-साफ होना जरूरी है। यदि हरियाणा में कांग्रेस को कामयाबी हासिल हो जाती है तो फिर अन्ना हजारे की पोजीशन कमजोर पड़ जाएगी और वह इस आंदोलन को जन आंदोलन होने का भी दावा नहीं कर सकते और यदि कांग्रेस वहां से हार जाती है तो अन्ना हजारे पर भाजपा के संरक्षण का आरोप लगेगा। इसलिए दोनों स्थिति में अन्ना की ही हार होगी। चुनावी जंग में कूद कर अन्ना ने बड़ी गलती की है। लोकपाल बिल संसद के आगामी अधिवेशन में पेश होगा इसके अतिरिक्त कई अन्य बिल भी पेश होंगे जो भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल कानून के सहायक बनेंगे तो फिर आगामी अधिवेशन तक अन्ना को इंतजार करने में कोई हर्ज नहीं था। अब लोग इस बात को देख रहे हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ और चुनावी सुधारों को लागू करने में कौन ईमानदार है और कौन ड्रामेबाजी कर रहा है।
`अन्ना हजारे का आंदोलन, बिल्ली थैले से बाहर आ गई' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' में `हिन्दुस्तान नाम' के अपने स्तम्भ में नाके किदवई ने लिखा है कि अन्ना हजारे की कांग्रेस दुश्मनी स्पष्ट है कि उन्होंने कांग्रेस हटाओ का तो नारा दिया लेकिन उत्तर प्रदेश जिसकी गिनती आज देश के भ्रष्टाचार राज्यों में की जाने लगी है और शायद मुख्यमंत्री मायावती सबसे बड़ी भ्रष्टाचारी राजनेता भी हैं। यूपी की मंत्रिपरिषद लगभग भ्रष्टाचार मंत्रियों पर आधारित है, मायावती अरबपति हैं तो उनकी मंत्रिपरिषद का हर व्यक्ति करोड़ों में खेल रहा है। उत्तर प्रदेश के लोक आयुक्त एनके मेहरोत्रा अब तक तीन मंत्रियों को भ्रष्टाचार, बेइमानी के संगीन मामलों में कसूरवार ठहरा चुके हैं। इन मंत्रियों को मायावती ने अपने मंत्रिपरिषद से निकाल बाहर भी कर दिया लेकिन खुद मायावती ने अभी तक अपनी जवाबदेही नहीं की है। अन्ना हजारे ने मायावती, बीएसपी के उम्मीदवारों को हराने की कोई अपील नहीं की और न ही अन्ना हजारे को मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी नजर आ रही है जो अतीत से लेकर आज तक भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। यही सूरते हाल भाजपा का है लेकिन इन पार्टियों को अन्ना हजारे ने छोड़ दिया है। इनको हराने की कोई अपील जारी नहीं की। इससे साफ जाहिर है कि अन्ना आंदोलन का मकसद कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर लाल कृष्ण आडवाणी अथवा नरेन्द्र मोदी जैसे नेता को प्रधानमंत्री का ताज पहनाना चाहते हैं।
दैनिक `सहाफत' ने अपने सम्पादकीय में अन्ना हजारे की मुहिम पर चर्चा करते हुए लिखा है कि अन्ना हजारे ने धमकी दी है कि आने वाले दिनों में कुछ राज्यों में जो चुनाव होने वाले हैं, उनमें वह उन सभी पार्टियों और उम्मीदवारों के खिलाफ चुनावी मुहिम में भाग लेंगे जो जन लोकपाल बिल के विरोधी हैं। आने वाले साल में जहां चुनाव होने हैं उनमें पांच राज्यों के अतिरिक्त मुंबई नगर निगम का चुनाव भी शामिल है। मुंबई नगर निगम का बजट कई राज्यों के बजट से ज्यादा बड़ा है। इसलिए हमें नहीं मालूम कि अन्ना हजारे की सूची में मुंबई निगम का चुनाव शामिल है या नहीं, यदि नहीं शामिल है तो बड़ी आश्चर्य की बात होगी क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि अन्ना हजारे यह समझते हैं कि सारा भ्रष्टाचार विधानसभा और संसद तक सीमित है। नगर निगम भ्रष्टाचार से बिल्कुल पाक साफ होती है और यदि मुंबई नगर निगम भी इनकी सूची में शामिल हैं तो हमें यह भी नहीं मालूम कि शिवसेना और उसके उम्मीदवारों के प्रति इनका रवैया क्या होगा? मुंबई नगर निगम पर भाजपा-शिव सेना का कब्जा है। मुंबई की सड़कों के गड्ढे गवाह हैं कि मुंबई नगर निगम ने गत पांच सालों में कितना `शानदार' काम किया। शिव सेना एक बार नहीं कई बार अन्ना हजारे और उनके आंदोलन का मजाक बना चुकी है। देखना यह है कि शिव सेना और उसके उम्मीदवारों के खिलाफ चुनावी मुहिम चलाएंगे? यदि ऐसा नहीं होता है तो इसका मतलब यह है कि चिराग तले अंधेरा है।