Tuesday, December 6, 2011

सब सियासत के संकेत हैं, चना जोर गरम

केंद्र सरकार द्वारा खुदरा बाजार में विदेशी निवेश की इजाजत देने के फैसले पर जहां सियासी पार्टियों की ओर से विरोध का सिलसिला जारी है वहीं संसद में भी इसको लेकर गतिरोध है। इस मुद्दे पर उर्दू अखबारों ने अपने विचार रखे हैं। पेश हैं उनमें से कुछ की राय। `खुदरा में एफडीआई का फैसला सरकार को टाल देना चाहिए' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि देश के मंझोले और छोटे शहरों में ठेला, रेहड़ी लगाने, फल-सब्जी बेचने वाले छोटे दुकानदार और किसान यदि अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं तो उन्हें कुसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के खुदरा कारोबार से साढ़े तीन करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है। यदि एक परिवार में पांच व्यक्तियों को भी बुनियाद माना जाए तो 18 करोड़ लोग इस खुदरा कारोबार से जुड़े हैं। इनके लिए वैकल्पिक व्यवस्था करना सरकार के समीप एक बड़ा सवाल है। इन सवालों के बावजूद मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार अपने फैसले पर अटल है। सूत्रों के अनुसार कांग्रेस के अन्दर और बाहर विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री के निवास पर कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक में फैसला लिया गया कि सरकार एफडीआई के फैसले को वापस नहीं लेगी। सियासी विरोध के चलते खुदरा बाजार में विदेशी दुकानें खुलना आसान नजर नहीं आ रहा है। पश्चिमी बंगाल, यूपी के बाद तमिलनाडु द्वारा विदेशी दुकानों को इजाजत न देने के ऐलान से विरोधी राज्यों की संख्या 28 हो गई है। सरकार को चाहिए कि वह एफडीआई के मामले को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाए और फैसले को टाल दे। अभी इस मसले पर बहस बहुत जरूरी है।
कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' ने `खुदरा बाजार में विदेशी निवेश, सब सियासत के हैं संकेत चना जोर गरम' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि यूपीए की सबसे बड़ी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस ने फैसला वापस लेने की मांग की है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साफ कह दिया है कि इसके राज्य में विदेशी खुदरा कम्पनियों को सुपर मार्केट खोलने की इजाजत नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि इस मुद्दे पर सभी पार्टियां अपने-अपने राजनैतिक हित को सामने रखकर विरोध अथवा समर्थन कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर भाजपा इस फैसले के विरोध में सबसे आगे है लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और कर्नाटक सरकार ने कहा है कि वह अपने राज्यों में वॉलमार्ट और टिसको जैसी कम्पनियों के सुपर मार्केट का स्वागत करेंगे। दूसरी ओर पंजाब में भाजपा की सहयोगी शिरोमणि अकाली दल ने एफडीआई पर सरकार के फैसले का समर्थन किया है। जयललिता की एडीएम के भी केंद्र के फैसले के खिलाफ है। बहुत-सी पार्टियों को यह नहीं पता कि वह इसका विरोध क्यों कर रही हैं। मायावती का कहना है कि सरकार ने यह फैसला इसलिए किया है कि राहुल गांधी के विदेशी दोस्तों को फायदा पहुंचेगा। सीपीएम का कहना है कि इस फैसले से लाखों दुकानदार और इससे जुड़े करोड़ों व्यक्ति बेरोजगार हो जाएंगे।
`एफडीआई का विरोध' के शीर्षक से दैनिक `जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि सरकार ने इस मसले पर विपक्ष को विश्वास में लेने की जो कोशिश की थी वह पूरी तरह नाकाम हो गई है। इस मामले में विपक्ष के अतिरिक्त सरकार की समर्थक पार्टियां भी विपक्ष की भाषा बोल रही हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पूरे देश में फैले शॉपिंग मॉल के कल्चर ने भारतीय मार्केट की शक्ल की बदल दी है। इन शॉपिंग मॉल में महंगे विदेशी ब्रांड मुंह मांगी कीमतों पर बेचा जाता है और शॉपिंग मॉल की चकाचौंध से प्रभावित होकर वह लोग भी इनके चंगुल में आ जाते हैं जिनकी जेब इसे वहन नहीं कर सकती। विदेशी निवेश से नौकरियों के दरवाजे निश्चय ही खुले हैं लेकिन बेरोजगारी की दर बढ़ी है। अब देखना यह है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के बाद हालात क्या करवट लेंगे। फिलहाल इसका विरोध चल रहा है। देश के 26 राज्यों में से केवल 5 राज्य ऐसे हैं जिन्होंने एफडीआई को लागू करने से सहमति व्यक्त की है जबकि 10 राज्यों का स्पष्ट रूप से कहना है कि वह इसके हक में नहीं हैं। अन्य राज्यों का भी यही मत है। इन हालात में खुदरा बाजार में विदेशी निवेश का फैसला सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है।
`अपने पैरों पर कुल्हाड़ी' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' ने लिखा है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश की इजाजत देने का फैसला और इस पर प्रतिक्रिया के तौर पर संसद का कामकाज ठप होने का मामला ऐसी आग है जो न तो खुद लगी है और न ही विपक्ष ने लगाई है इसके लिए सरकार के अलावा कोई जिम्मेदार नहीं है। आश्चर्य है कि सरकार ने यह फैसला अचानक ही कर लिया और इसके लिए समर्थकों को विश्वास में लेने की जरूरत भी महसूस नहीं की गई। हम नहीं जानते कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के जितने फायदे गिनाए जा रहे हैं वह हासिल हो सकेंगे या नहीं, क्योंकि इस पर वही लोग प्रतिक्रिया दे सकते हैं जो अर्थव्यवस्था की गुत्थियों पर नजर रखते हैं और उन्हें सुलझाने के लिए बेहतर सुझाव भी दे सकते हैं लेकिन हम यह जरूर जानते हैं कि किसी बड़ी और अहम पहल से पूर्व सियासी वातावरण बनाना और सभी राजनीतिक पार्टियों को विश्वास में लेने की कोशिश करना ही लोकतंत्र की अंतरआत्मा है। लोकतंत्र के फैसले कभी एकतरफा नहीं हो सकते। इसके बावजूद सरकार ने लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर यह फैसला किया और अब इसके गुणों को बताकर विपक्ष के दांत खट्टे करना चाहती है। जाहिर है यह संभव नहीं है।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `एफडीआई पर कांग्रेस की परेशानी' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का यह कहना कि एफडीआई पर फैसला जल्दबाजी में नहीं किया गया है बल्कि बहुत सोच-विचार कर किया गया है। इसके बावजूद यदि कुछ राज्य इस फैसले को कुबूल नहीं करना चाहती तो यह उनके अधिकार में है कि वह एफडीआई की इजाजत दें या न दें। इसका विरोध केवल विपक्ष अथवा कांग्रेस को सहयोग दे रही पार्टियां ही नहीं कर रही हैं बल्कि कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग भी इसके हक में नहीं है। जाहिर है कि यदि पार्टी के अन्दर से एफडीआई के खिलाफ आवाज उठेगी तो उससे निपटना सरकार और कांग्रेस दोनों के लिए बड़ा चैलेंज होगा। पार्टी के कई वर्गों की ओर से एफडीआई के संबंध में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में प्रभाव को लेकर जो सन्देह व्यक्त किया जा रहा है उसके दबाव में यदि सरकार अपना फैसला बदल देती है तो भी इसे सियासी फायदा कम और विरोधियों को ज्यादा मिलने की आशा है।