गत सप्ताह केंद्र सरकार द्वारा संसद से पारित बजट में मुसलमानों के लिए प्रावधान सहित योजना आयोग की वार्षिक रिपोर्ट जैसे अनेक मुद्दे उर्दू अखबारों में चर्चा का विषय रहे। पेश है इनमें से कुछ उर्दू अखबारों की राय।
`दिल्ली के स्कूलों में मुस्लिम बच्चों के दाखिले का मसला, मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस पर तुरन्त ध्यान दें' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों में नर्सरी कक्षाओं में जो दाखिले हुए हैं उनमें मुसलमानों के साथ अन्याय किया गया है। लोक जनशक्ति पार्टी के महासचिव अब्दुल खालिक ने आंकड़ों द्वारा यह रहस्योद्घाटन किया कि दिल्ली पब्लिक स्कूल (मथुरा) को छोड़कर शहर के सभी स्कूलों में मुस्लिम बच्चों के साथ अन्याय किया गया है। कुछ स्कूलों में तो मुस्लिम बच्चों को दाखिला दिया ही नहीं गया जबकि कुछ अन्य में सिर्प नाम के लिए कुछ बच्चों को दाखिला दिया गया। यह सवाल लोक जनशक्ति पार्टी सुप्रीमो रामविलास पासवान ने राज्यसभा में उठाया तो मुस्लिम दुश्मनी में भाजपा सांसद बलबीर पुंज भड़क उठे और मुसलमानों से अपने बच्चों को मदरसों में पढ़ाने को कहा। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने अल्पसंख्यकों के हवाले से इस रहस्योद्घाटन को संगीन बताते हुए इस मामले की जांच कर उचित कार्यवाही करने की घोषणा की है जबकि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने रामविलास पासवान के आरोपों को गलत करार दिया है।
सच्चाई यह है कि मुस्लिम बच्चों के दाखिलों में रुकावट खड़ी नहीं की जाती बल्कि दलितों और झुग्गी-झोपड़ियों वाले गरीब बच्चों के साथ भी ऐसा होता है। पश्चिमी दिल्ली के एक मोहल्ले पांडव नगर में 50 से अधिक ऐसे बच्चे हैं जिनका दाखिला सरकारी स्कूलों में नहीं हो सका। आरोप है कि झुग्गी-झोपड़ी में रहने के कारण उनका दाखिला नहीं हुआ। सरकार इस पर तुरन्त ध्यान दे।
`बेचारा हिन्दुस्तानी मुसलमान...' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपनी समीक्षा में चर्चा करते हुए लिखा है कि सच्चर कमेटी ने इस बात को उजागर किया था कि हिन्दुस्तानी मुसलमान शैक्षिक तौर पर दलितों से भी पिछड़े हैं। अब योजना आयोग ने मुसमलानों के संबंध में एक और चौंकाने वाला रहस्योदघाटन किया है और वह यह है कि शहरों में रहने वाले मुसलमानों की गिनती अब देश के सबसे गरीब वर्ग में होती है। योजना आयोग के अनुसार 2005-10 के बीच पांच करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से बाहर हो गए हैं लेकिन मुसलमान और गरीब हुआ है। शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 34 फीसदी मुसलमान अत्याधिक गरीबी के दायरे में आते हैं। इस बाबत सबसे ज्यादा खराब सूरतेहाल गुजरात, बिहार और उत्तर प्रदेश में है। ग्रामीण क्षेत्रों के मुसलमानों की हालत भी अत्यंत चिन्ताजनक है। आयोग के आंकड़ों के अनुसार असम के ग्रामीण क्षेत्रों के मुसलमानों में 53 फीसदी गरीबी रेखा से नीचे हैं और उत्तर प्रदेश में यह अनुपात 56 फीसदी है। गुजरात में मुसलमान यदि दूसरे वर्गों से अधिक गरीब हैं तो इसमें कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन आश्चर्य इस बात पर है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जहां सेकुलर सरकारों का राज है।
यह स्थिति असम की है जहां ज्यादातर कांग्रेस का राज रहा है। योजना आयोग के यह आंकड़े इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि मुसलमानों की गरीबी दूर करने की कोशिश नहीं की गई तो सेकुलरिज्म एक खोखला नारा होकर रह जाएगा और यह हिन्दुस्तानी मुसलमानों का दुर्भाग्य होगा।
`अल्पसंख्यक मंत्रालय की सुस्ती, 587 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं हुए' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' ने स्टैंडिंग कमेटी आन सोशल जस्टिस एंड इम्पावरमेंट की रिपोर्ट के हवाले से लखा है कि 2010-11 में अल्पसंख्यकों के विकास के लिए दिए गए अनुदान में से 587 करोड़ रुपये इस्तेमाल करने के बजाय इसे सरकार को वापस लौटा दिया। रिपोर्ट के अनुसार गत वर्ष लौटाई गई रकम इसके मुकाबले कहीं कम थी। अल्संख्यक मंत्रालय ने 2008-09 में 33.63 करोड़ रुपये और 2009-10 में 31.5 करोड़ रुपये का गैर इस्तेमाल अनुदान लौटा दिया था। कमेटी रिपोर्ट के अनुसार यह रकम इसलिए इस्तेमाल नहीं हो सकी कि 4 नई योजनाएं शुरू ही नहीं की जा सकीं। मंत्रालय ने मल्टी सेक्टोरियल डेवलपमेंट प्रोग्राम के लिए दिए गए 426.26 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं किए। इसने पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए 24 करोड़, वक्फ बोर्ड के कम्प्यूटरीकरण के लिए दिए गए 9.3 करोड़ रुपये, प्री मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए 33 करोड़ रुपये और मेरिट कम मींस छात्रवृत्ति के लिए दिए 26 करोड़ रुपये भी इस्तेमाल नहीं किए। कमेटी ने यह भी कहा कि सच्चर कमेटी के सभी सुझावों का गंभीरतापूर्वक क्रियान्वयन नहीं किया जा रहा है। कमेटी ने मंत्रालय को हिदायत दी कि सच्चर सुझावों को सीमित समय में क्रियान्वित करने हेतु योजना बनाए।
`यह तो सांप्रदायिकता के संबंध में बातें हैं और बातों का क्या? काम कब शुरू होगा?' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' में प्रकाशित समीक्षात्मक लेख में मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी ने लिखा है कि सांप्रदायिक तत्रों की गतिविधियों और देश की व्यवस्था को अपने विचारों के अनुसार चलाने की बात कोई नई नहीं है और यह भी कोई राज नहीं कि इनकी पकड़ विभिन्न विभागों पर कितनी मजबूत है। अन्य पार्टियों को छोड़िए, खुद कांग्रेस में भी संघ और इसके विचारों से प्रभावित सांप्रदायिक तत्वों की एक मजबूत टोली हमेशा से रही है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बराबर इस तरफ ध्यान दिलाते हुए उन्हें बेनकाब करने और उनसे सरकारी विभागों को पाक करने की जरूरत बताते रहते थे।
गत कुछ दिनों से राहुल गांधी, जयप्रकाश अग्राल और दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसियों को सरकारी विभागों में सांप्रदायिक तत्वों की घुसपैठ का बहुत अहसास हो रहा है और वह इसका इजहार कर रहे हैं। लेकिन यह काफी नहीं है। बीमारी के कारणों को दूर करने के साथ सरकारी विभागों को पाक करने के लिए व्यवहारिक उपाय भी जरूरी हैं।
`सरकार और अल्पसंख्यक' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने अपने संपादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि 2012-13 के बजट में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अपनी आंखों पर एक चश्मा लगाते हुए अल्पसंख्यकों के हाथों में झुनझुना थमा दिया है जिससे यह महसूस होता है कि हमारी सरकार के पास अल्पसंख्यकों के लिए कुछ है ही नहीं अथवा हम अल्पसंख्यकों को देश के नागरिक ही नहीं मानते। अल्पसंख्यकों के साथ बजट में यह अन्याय कोई इस वर्ष का मामला ही नहीं है बल्कि गत कई बार से अल्पसंख्यकों के साथ यही मजाक किया जाता रहा है और यदि अल्पसंख्यकों के लिए राशि का प्रावधान किया जाता है, इसके संबंध में कोई योजना तैयार नहीं की जाती कि वह किस तरह खर्च की जाएगी अथवा अल्पसंख्यकों पर इस राशि को कैसे लगाएं। इसलिए आने वाले वर्ष में वह राशि वापस हो जाती है और कहा जाता है कि अल्पसंख्यकों को इसकी जरूरत नहीं। वैसे गत बजट के मुकाबले 385 करोड़ रुपये की वृद्धि की गई है। लेकिन इस वृद्धि से देश के अल्पसंख्यकों को किसी सूरत में कोई फायदा नहीं होता।
A Blog is specially build for minorities. Where you can find a latest article as well as Issues. there is no need to recognize a muslim but there is a lot of work for humanity.
Saturday, March 24, 2012
Saturday, March 17, 2012
उर्दू पत्रकार काजमी की गिरफ्तारी इजरायल के इशारे पर
इजरायली राजनयिक की गाड़ी पर हमले के आरोप में पुलिस द्वारा सैयद मोहम्मद अहमद काजमी को गिरफ्तार करने पर जहां देशभर में विभिन्न मुस्लिम एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध प्रदर्शन का सिलसिला जारी है वहां उर्दू अखबारों ने इस पर अपने सम्पादकीय लिखे, आलेख और रिपोर्ट प्रकाशित की। पेश है कुछ उर्दू अखबारों की राय।
`इजरायली राजनयिक पर हमले में ईरानी पत्रकार की गिरफ्तारी?' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा कि दरअसल बैंकाक में हुए विस्फोट के बाद वहां से कुछ संदिग्ध ईरानी फरार हो गए थे जिसमें एक महिला भी शामिल थी। बैंकाक पुलिस को उस महिला के घर की तलाशी में एक टेलीफोन डायरी मिली थी जिसमें मोहम्मद अहमद काजमी का मोबाइल नम्बर था। काजमी के खिलाफ कई महत्वपूर्ण सुबूत मिले हैं। आशंका जताई जा रही है कि हमलों के पीछे ईरानी सेना की स्पेशल फोर्स है जिसे खासतौर से ईरान-इराक युद्ध के समय गठित किया गया था। मोहम्मद अहमद काजमी को सूचनाएं जुटाने के लिए डालर में भुगतान किया गया था। ब्लास्ट में जिस मोटर साइकिल का इस्तेमाल किया गया वह करोल बाग इलाके से किराये पर ली गई थी। हमलावर विदेश से आकर पहाड़गंज के एक होटल में ठहरे थे। बताया जा रहा है कि स्टिकी बम इसी होटल में तैयार किया गया।
पूरे मामले का दुःखद पहलू यह है कि विदेशी बाम्बर जिसने औरंगजेब रोड में कार पर बम लगाया था वह गृह मंत्रालय की सुस्ती के कारण उसी दिन इन्दिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से दक्षिण एशिया के किसी देश की फ्लाइट से भाग गया। गृह मंत्रालय या किसी और सरकारी एजेंसी ने हवाई अड्डे पर इमिग्रेशन को सूचित नहीं किया कि अमूक व्यक्तियों को रोका जाए, पूछताछ की जाए। गृह मंत्रालय की यह चूक इसलिए भी चिन्ता का विषय है कि बम धमाका होने के तुरन्त बाद इजरायल ने कह दिया था कि हमले के पीछे ईरान का हाथ है।
`संघी-यहूदी-राजनीति' के शीर्षक से लखनऊ सहित कई शहरों से प्रकाशित दैनिक `अवधनामा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी का मामला सादा नहीं बहुत पेचीदा है, जिसको समझने के लिए यहूदी राजनीति का समझना जरूरी है। आरएसएस के एक थिंक टैंक के अनुसार शीत युद्ध के खत्म होने और फिर
9/11 के बाद दुनिया एक बार फिर दो ब्लॉकों में विभाजित हो चुकी है। दक्षिणी ईसाई ब्लॉक और पूर्वी मुस्लिम ब्लॉक। इस थिंक का कहना है कि 6 दिसम्बर 1992 के संदर्भ में संघ परिवार ने बहुत कोशिश की थी कि ईसाई ब्लॉक (जिसमें यहूदी भी शामिल हैं) और मुस्लिम ब्लॉक की तरह दुनिया में एक तीसरे हिन्दू ब्लॉक को भी स्वीकार कराया जाए लेकिन इसमें कामयाबी नहीं मिल सकी। इसलिए भारत जो एक हिन्दू बहुसंख्यक देश है जिसमें सांस्कृतिक प्रभाव ब्राह्मणों का है उसका प्रतिशत भारत में उतना नहीं है जो पूरी दुनिया में यहूदियों का है। इसके सिवाय कोई उपाय नहीं कि वह ईसाई ब्लॉक का साथ दे क्योंकि वह कई कारणों से मुस्लिम ब्लॉक में शामिल नहीं हो सकता। संघ परिवार के इसी उच्चस्तरीय फैसले के बाद ही भारत की विदेश नीति तब्दील हुई और लगभग आधी सदी के विरोध के बाद वह इजरायल समर्थक हो गई। इसी फैसले के तहत प्रधानमंत्री नरसिंह राव के समय में इजरायल को व्यावहारिक तौर पर तसलीम करके इससे राजनयिक रिश्ते कायम किए गए। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद हुई जिसमें संघ परिवार को यहूदी इजरायल की लॉजिस्टक सहायता भी शामिल थी। इजरायल जो मुसलमानों के प्रथम किबला बैतुल मकद्दस को गिराकर हैकल में तब्दील करना चाहता है यह देखना चाहता था कि बाबरी मस्जिद की शहादत इस्लामी जगत पर क्या प्रभाव डालती है ताकि वह मस्जिद की शहादत के बाद पेश आने वाले संभावित घटनाओं से निपटने की योजना बना सके। गत 32 वर्षों के दौरान भारत-इजरायल संबंध जितने गहरे और पेचीदा हो चुके हैं, जनता को छोड़िए खास को भी इसके बारे में अनुमान नहीं है। उर्दू पत्रकार मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी इसी संघी यहूदी रणनीति के तहत है।
दैनिक `जदीद मेल' ने `कलम पर साम्राजी हमला' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मोहम्मद अहमद काजमी को अंतर्राष्ट्रीय आतंक रोधी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया है। शायद इसीलिए दिल्ली की स्पेशल सेल के लोगों ने उनकी पुलिस रिमांड 20 दिन की ली है और पुलिस ने जिन स्रोतों से अखबार और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में यह समाचार प्रसारित किया गया कि इसमें काजमी को उत्तर-पूर्व आतंकी संगठन से जुड़ा बताया गया है। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि अंतर्राष्ट्रीय आतंकी संगठन से संबंध रखने वाले किसी व्यक्ति की जांच दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल कर रही है। अभी तक आतंकी जो घटनाएं सामने आई हैं उसमें छोटी से छोटी घटना में लिप्त किसी भी संदिग्ध से पूछताछ `आईबी', `रॉ' या `एनआईए' के लोग ही करते हैं। जाहिर है कि एटीएस और एनआईए का गठन ही आतंकवाद से जुड़े मामलों की छानबीन के लिए हुआ है फिर यह एजेंसियां मोहम्मद अहमद काजमी मामले से दूर क्यों हैं? सबसे ज्यादा दुःखद बात तो यह है कि मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी के बाद इजरायली राजनयिक की कार विस्फोट मामले को हल करने का दावा स्पेशल सेल के जिन अधिकारियों ने किया है इनमें से एक तो खुद भ्रष्टाचार के मामले में विजीलेंस जांच के दायरे में है। सवाल यह है कि क्या ईरान के हक में लेख लिखना और समीक्षा करना गुनाह है और इजरायल व अमेरिका की निन्दा व भर्त्सना करना जुर्म है।
`वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी' के शीर्षक से मौलाना अली हैदर गाजी कुमी ने दैनिक `सहाफत' में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि बात दरअसल यह है कि काजमी ने सीरिया का दौरा किया और वहां की सूरतेहाल पर कलम उठाया। इजरायल के षड्यंत्र को उजागर किया। गाजा और फलस्तीन के मुसलमानों को सताया जा रहा है, पर लिखा और दिल्ली बम विस्फोट की समीक्षा की और इजरायल के षड्यंत्र की पोल खोल दी जिसके कारण काजमी को तुरन्त गिरफ्तार कर लिया गया ताकि पत्रकारिता की दुनिया को इन डायरेक्ट पैगाम दिया जाए कि बस वह लिखो जो मोसाद चाहे, वह पढ़ो जो वह पढ़ाएं, वह देखो जो इजरायल दिखाए, वह सोचो जो यहूदी सोचें तो ठीक है अन्यथा काजमी जैसे पत्रकारों को दबोचा जा सकता है तो फिर दूसरे पत्रकार भी अपनी खैर मनाएं। अपनी गिरफ्तारी से ठीक दो घंटे पूर्व उन्होंने एक बयान दिया था जिसकी कीमत उन्हें गिरफ्तारी से चुकानी पड़ी।
मोहम्मद अहमद की यह गिरफ्तारी आखिरी कदम नहीं बल्कि पहला कदम है दूसरा कदम मैं या मेरे जैसा कोई दूसरा हो, अभी कुछ कहना समय पूर्व होगा लेकिन होगा जरूर, क्योंकि भारत में मोसाद ने अपने पंजे जिस तरह गाड़ रखे हैं इसे हर कोई जानता है। मोहम्मद अहमद काजमी से अपने इस बयान में विश्लेषण किया और फिर इसी विश्लेषण की रोशनी में इजरायली षड्यंत्र की पोल खोल दी जिससे बौखलाकर इजरायल ने हिन्दुस्तान पर दबाव बनाया और फिर क्या था कि काजमी पर बेबुनियाद, झूठे आरोप लगा दिए गए। उनकी गिरफ्तारी इजरायल के इशारे पर हुई है।
`इजरायली राजनयिक पर हमले में ईरानी पत्रकार की गिरफ्तारी?' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा कि दरअसल बैंकाक में हुए विस्फोट के बाद वहां से कुछ संदिग्ध ईरानी फरार हो गए थे जिसमें एक महिला भी शामिल थी। बैंकाक पुलिस को उस महिला के घर की तलाशी में एक टेलीफोन डायरी मिली थी जिसमें मोहम्मद अहमद काजमी का मोबाइल नम्बर था। काजमी के खिलाफ कई महत्वपूर्ण सुबूत मिले हैं। आशंका जताई जा रही है कि हमलों के पीछे ईरानी सेना की स्पेशल फोर्स है जिसे खासतौर से ईरान-इराक युद्ध के समय गठित किया गया था। मोहम्मद अहमद काजमी को सूचनाएं जुटाने के लिए डालर में भुगतान किया गया था। ब्लास्ट में जिस मोटर साइकिल का इस्तेमाल किया गया वह करोल बाग इलाके से किराये पर ली गई थी। हमलावर विदेश से आकर पहाड़गंज के एक होटल में ठहरे थे। बताया जा रहा है कि स्टिकी बम इसी होटल में तैयार किया गया।
पूरे मामले का दुःखद पहलू यह है कि विदेशी बाम्बर जिसने औरंगजेब रोड में कार पर बम लगाया था वह गृह मंत्रालय की सुस्ती के कारण उसी दिन इन्दिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से दक्षिण एशिया के किसी देश की फ्लाइट से भाग गया। गृह मंत्रालय या किसी और सरकारी एजेंसी ने हवाई अड्डे पर इमिग्रेशन को सूचित नहीं किया कि अमूक व्यक्तियों को रोका जाए, पूछताछ की जाए। गृह मंत्रालय की यह चूक इसलिए भी चिन्ता का विषय है कि बम धमाका होने के तुरन्त बाद इजरायल ने कह दिया था कि हमले के पीछे ईरान का हाथ है।
`संघी-यहूदी-राजनीति' के शीर्षक से लखनऊ सहित कई शहरों से प्रकाशित दैनिक `अवधनामा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी का मामला सादा नहीं बहुत पेचीदा है, जिसको समझने के लिए यहूदी राजनीति का समझना जरूरी है। आरएसएस के एक थिंक टैंक के अनुसार शीत युद्ध के खत्म होने और फिर
9/11 के बाद दुनिया एक बार फिर दो ब्लॉकों में विभाजित हो चुकी है। दक्षिणी ईसाई ब्लॉक और पूर्वी मुस्लिम ब्लॉक। इस थिंक का कहना है कि 6 दिसम्बर 1992 के संदर्भ में संघ परिवार ने बहुत कोशिश की थी कि ईसाई ब्लॉक (जिसमें यहूदी भी शामिल हैं) और मुस्लिम ब्लॉक की तरह दुनिया में एक तीसरे हिन्दू ब्लॉक को भी स्वीकार कराया जाए लेकिन इसमें कामयाबी नहीं मिल सकी। इसलिए भारत जो एक हिन्दू बहुसंख्यक देश है जिसमें सांस्कृतिक प्रभाव ब्राह्मणों का है उसका प्रतिशत भारत में उतना नहीं है जो पूरी दुनिया में यहूदियों का है। इसके सिवाय कोई उपाय नहीं कि वह ईसाई ब्लॉक का साथ दे क्योंकि वह कई कारणों से मुस्लिम ब्लॉक में शामिल नहीं हो सकता। संघ परिवार के इसी उच्चस्तरीय फैसले के बाद ही भारत की विदेश नीति तब्दील हुई और लगभग आधी सदी के विरोध के बाद वह इजरायल समर्थक हो गई। इसी फैसले के तहत प्रधानमंत्री नरसिंह राव के समय में इजरायल को व्यावहारिक तौर पर तसलीम करके इससे राजनयिक रिश्ते कायम किए गए। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद हुई जिसमें संघ परिवार को यहूदी इजरायल की लॉजिस्टक सहायता भी शामिल थी। इजरायल जो मुसलमानों के प्रथम किबला बैतुल मकद्दस को गिराकर हैकल में तब्दील करना चाहता है यह देखना चाहता था कि बाबरी मस्जिद की शहादत इस्लामी जगत पर क्या प्रभाव डालती है ताकि वह मस्जिद की शहादत के बाद पेश आने वाले संभावित घटनाओं से निपटने की योजना बना सके। गत 32 वर्षों के दौरान भारत-इजरायल संबंध जितने गहरे और पेचीदा हो चुके हैं, जनता को छोड़िए खास को भी इसके बारे में अनुमान नहीं है। उर्दू पत्रकार मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी इसी संघी यहूदी रणनीति के तहत है।
दैनिक `जदीद मेल' ने `कलम पर साम्राजी हमला' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मोहम्मद अहमद काजमी को अंतर्राष्ट्रीय आतंक रोधी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया है। शायद इसीलिए दिल्ली की स्पेशल सेल के लोगों ने उनकी पुलिस रिमांड 20 दिन की ली है और पुलिस ने जिन स्रोतों से अखबार और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में यह समाचार प्रसारित किया गया कि इसमें काजमी को उत्तर-पूर्व आतंकी संगठन से जुड़ा बताया गया है। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि अंतर्राष्ट्रीय आतंकी संगठन से संबंध रखने वाले किसी व्यक्ति की जांच दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल कर रही है। अभी तक आतंकी जो घटनाएं सामने आई हैं उसमें छोटी से छोटी घटना में लिप्त किसी भी संदिग्ध से पूछताछ `आईबी', `रॉ' या `एनआईए' के लोग ही करते हैं। जाहिर है कि एटीएस और एनआईए का गठन ही आतंकवाद से जुड़े मामलों की छानबीन के लिए हुआ है फिर यह एजेंसियां मोहम्मद अहमद काजमी मामले से दूर क्यों हैं? सबसे ज्यादा दुःखद बात तो यह है कि मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी के बाद इजरायली राजनयिक की कार विस्फोट मामले को हल करने का दावा स्पेशल सेल के जिन अधिकारियों ने किया है इनमें से एक तो खुद भ्रष्टाचार के मामले में विजीलेंस जांच के दायरे में है। सवाल यह है कि क्या ईरान के हक में लेख लिखना और समीक्षा करना गुनाह है और इजरायल व अमेरिका की निन्दा व भर्त्सना करना जुर्म है।
`वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी' के शीर्षक से मौलाना अली हैदर गाजी कुमी ने दैनिक `सहाफत' में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि बात दरअसल यह है कि काजमी ने सीरिया का दौरा किया और वहां की सूरतेहाल पर कलम उठाया। इजरायल के षड्यंत्र को उजागर किया। गाजा और फलस्तीन के मुसलमानों को सताया जा रहा है, पर लिखा और दिल्ली बम विस्फोट की समीक्षा की और इजरायल के षड्यंत्र की पोल खोल दी जिसके कारण काजमी को तुरन्त गिरफ्तार कर लिया गया ताकि पत्रकारिता की दुनिया को इन डायरेक्ट पैगाम दिया जाए कि बस वह लिखो जो मोसाद चाहे, वह पढ़ो जो वह पढ़ाएं, वह देखो जो इजरायल दिखाए, वह सोचो जो यहूदी सोचें तो ठीक है अन्यथा काजमी जैसे पत्रकारों को दबोचा जा सकता है तो फिर दूसरे पत्रकार भी अपनी खैर मनाएं। अपनी गिरफ्तारी से ठीक दो घंटे पूर्व उन्होंने एक बयान दिया था जिसकी कीमत उन्हें गिरफ्तारी से चुकानी पड़ी।
मोहम्मद अहमद की यह गिरफ्तारी आखिरी कदम नहीं बल्कि पहला कदम है दूसरा कदम मैं या मेरे जैसा कोई दूसरा हो, अभी कुछ कहना समय पूर्व होगा लेकिन होगा जरूर, क्योंकि भारत में मोसाद ने अपने पंजे जिस तरह गाड़ रखे हैं इसे हर कोई जानता है। मोहम्मद अहमद काजमी से अपने इस बयान में विश्लेषण किया और फिर इसी विश्लेषण की रोशनी में इजरायली षड्यंत्र की पोल खोल दी जिससे बौखलाकर इजरायल ने हिन्दुस्तान पर दबाव बनाया और फिर क्या था कि काजमी पर बेबुनियाद, झूठे आरोप लगा दिए गए। उनकी गिरफ्तारी इजरायल के इशारे पर हुई है।
Tuesday, March 6, 2012
गुजरात नरसंहार के 10 साल
गुजरात दंगों को लेकर 10 वर्ष पूरे होने पर विभिन्न संगठनों ने कार्यक्रम आयोजित किए। उर्दू अखबारों ने इस पर सम्पादकीय लिखे और विशेष लेख प्रकाशित किए। `गुजरात ः दंगों के 10 साल' के शीर्षक से दैनिक `जदीद खबर' में प्रकाशित सुहैल अंजुम ने अपने समीक्षात्मक लेख में लिखा है कि दंगों की 10 वर्ष पूरा होने पर जो रिपोर्ट अखबारों में प्रकाशित हुई है वह केवल एक दिखावा और झूठ है। मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी छह करोड़ गुजरातियों की बात करते हैं, वह उन लोगों को गुजराती मानते हैं जो हिन्दू हैं, उन लोगों को गुजराती नहीं मानते जो मुसलमान कहलाते हैं। वह उन्हें पहले तो इंसान ही नहीं मानते और यदि मानते हैं तो भारतीय नहीं बल्कि पाकिस्तानी मानते हैं इसलिए इनके समीप यह किसी सुविधा के पात्र नहीं हैं। मोदी कहते हैं कि वह हिन्दू-मुस्लिम की नीति पर अमल करते हैं लेकिन उनके यहां इस बात की कोई गुंजाइश नहीं है वह अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की नहीं बल्कि सिर्प गुजराती की बात करते हैं। दंगे स्वतंत्रता से पहले और बाद में भी हुए। लेकिन यह दंगा नहीं बल्कि मुसलमानों का नरसंहार था।
नरेन्द्र मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाकर इसीलिए भेजा गया कि वह आरएसएस के एजेंडे पर अमल करें। उन्होंने इस पर अमल करके दिखा दिया। आज भारत के मानचित्र पर दो गुजरात कायम हो गए हैं, एक वह गुजरात जो आरएसएस और नरेन्द्र मोदी का गुजरात है दूसरा वह गुजरात है जो मजलूम मुसलमानों का गुजरात है।
`भय और अन्याय के 10 साल' के शीर्षक से `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गोधरा घटना और इसके दूसरे दिन गुजरात में शुरू हुए नरसंहार को 10 वर्ष पूरे हो चुके हैं लेकिन गुजरात के जख्म इतने गहरे हैं कि एक दशक का समय गुजर जाने के बाद भी ऐसा लगता है जैसे यह कल की बात हो। इसका बड़ा कारण यह है कि कातिल नजरों के सामने हे और पीड़ित बेबसी के साथ अपने चारों तरफ घूमते देख रहे हैं। कहते हैं कि समय जख्म पर मरहम लगा देता है लेकिन गुजरात में न समय बदला, न सरकार बदली और न व्यवस्था में कुछ तब्दीली आई। सेक्यूलर पार्टियों ने गुजरात पर सियासत तो बहुत की लेकिन सत्ता में बैठे हुए तथाकथित नेतृत्व को इतना साहस आज तक न हुआ कि वह गुजरात के इस अन्याय आधारित व्यवस्था के खिलाफ कोई संवैधानिक कदम उठा सकें जबकि ऐसी सरकारों को भंग करने की संवैधानिक व्यवस्था हमारे संविधान में मौजूद है। कहते हैं कि नेता लोग कोई भी काम अपने सियासी फायदे व नुकसान को सामने रखकर ही करते हैं, इसलिए उन्हें गुजरात के पीड़ितों की चीख-पुकार सुनाई नहीं पड़ी जिनकी दास्तान सुनने के बाद बरबस ही आंखों से आंसू आ जाते हैं। बहरहाल यह भी साफ है कि गुजरात में जिस योजना के तहत यह नरसंहार किया गया वह योजना गुजरात में ही दफन हो गई। बदनाम होकर मोदी भले ही एक पार्टी के हीरो बन गए हों लेकिन हिन्दुस्तान का सेक्यूलरिज्म आज भी जिन्दा है और वह सांप्रदायिक ताकतों को ऐसे ही काटता रहेगा।
`गांधी के देश में...' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात में हिन्दुइज्म के फलसफे को मुस्लिम दुश्मनी में बदलने की भरपूर कोशिश हो रही है, जिसकी वजह से मुसलमानों के बच्चे शिक्षा से वंचित हैं, इनका कारोबार पहले ही खत्म हो चुका है। हर दिन इनके लिए संकट भरा है, हर रात इनके लिए भय का साया है। इस स्थिति को कुछ लोग मोदी के आतंक से प्रेरित बता रहे हैं। प्रोफेसर आबिद शम्सी ऐसे ही बुद्धिजीवी हैं जिनका विचार है कि गुजरात में मोदी का आतंक फैला हुआ है, वह तो यह भी कहते हैं कि यदि कोई हिन्दू किसी मुसलमान को अपना मकान अथवा दुकान किराये पर देना चाहे तो हिन्दू संगठन बीच में आ जाते हैं जिसके नतीजे में उन्हें किराये पर भी रहने की अच्छी जगह नहीं मिल पाती। मानवाधिकार के लिए काम करने वाले गिरीश पटेल तो शम्सी से एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि आज से 7-8 साल पहले तक मैं यह नहीं कह सकता था कि मोदी टाइप सोच आगे बढ़ सकती है लेकिन आज ऐसा नहीं कह सकता। आज भारत में हिन्दुआइजेशन धीरे-धीरे हो रहा है। गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में इसके प्रभाव देखे जा सकते हैं। हिन्दू राज्य आधिकारिक रूप से घोषित नहीं है लेकिन सच्चाई यह है कि यह सेक्यूलर स्टेट के लिए एक बड़ा चैलेंज है।
कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' ने `गुजरात दंगे के 10 साल' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि देश में जब कोई बड़ी घटना होती है तो उस समय नैतिक बुनियाद पर आरोपी से त्यागपत्र की मांग शुरू हो जाती है। भाजपा संसद में चिदम्बरम का मात्र इस आधार पर बायकाट कर रही है कि अदालत ने एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई शुरू कर दी है। लेकिन क्या नरेन्द्र मोदी को नैतिक बुनियाद पर त्यागपत्र नहीं देना चाहिए कि अदालत ने इनके शासनकाल में हुई मुठभेड़ की सीबीआई जांच की हिदायत दी, दंगों को नहीं रोक पाने पर डांट लगाई, अदालत की अवमानना का नोटिस जारी किया है और एक बहादुर महिला के कारण एक मुख्यमंत्री से घंटों एसआईटी टीम ने पूछताछ की है। नरेन्द्र मोदी का मुख्यमंत्री के पद पर बने रहना ही देश के लोकतंत्र के लिए शर्म की बात है। ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताना इस पद की अवहेलना है।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `सियासत' ने `मुस्लिम नरसंहार के 10 साल, आरोपी अब तक आजाद' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि आश्चर्य इस बात पर है कि नरसंहार के 10 साल बीत जाने के बाद भी इनके आरोपी आजाद घूम रहे हैं और सरकारी पदों पर रहते हुए सभी सरकारी फायदे हासिल कर रहे हैं जबकि पीड़ितों की कोई खबर लेने वाला भी नहीं है। इंसाफपसंद व्यक्ति और संगठन पीड़ितों को न्याय दिलाने के मकसद से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और अदालत ने एक विशेष जांच टीम भी गठित की। अब यहआरोप लगाया जा रहा है कि इस टीम पर भी नरेन्द्र मोदी प्रभाव डालने और अपनी मर्जी से तैयार करवाने में कामयाब हो गए हैं। संजु भट्ट के आरोप मुख्यमंत्री और उनके सथियों पर हैं लेकिन एसआईटी पर आरोप है कि इसने इन आरोप का कोई नोटिस लेना तक उचित नहीं समझा जबकि संजु भट्ट का कहना है कि इस सिलसिले में उन्होंने सुबूत भी पेश किए हैं। अब जबकि इस नरसंहार को हुए 10 वर्ष का समय बीत चुका है।
पीड़ितों की समस्याओं में कोई कमी नहीं हुई है और न ही उन्हें इंसाफ मिल सका है। जरूरत इस बात की है कि बिना किसी देरी के आरोपियों को सजा दी जाए।
नरेन्द्र मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाकर इसीलिए भेजा गया कि वह आरएसएस के एजेंडे पर अमल करें। उन्होंने इस पर अमल करके दिखा दिया। आज भारत के मानचित्र पर दो गुजरात कायम हो गए हैं, एक वह गुजरात जो आरएसएस और नरेन्द्र मोदी का गुजरात है दूसरा वह गुजरात है जो मजलूम मुसलमानों का गुजरात है।
`भय और अन्याय के 10 साल' के शीर्षक से `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गोधरा घटना और इसके दूसरे दिन गुजरात में शुरू हुए नरसंहार को 10 वर्ष पूरे हो चुके हैं लेकिन गुजरात के जख्म इतने गहरे हैं कि एक दशक का समय गुजर जाने के बाद भी ऐसा लगता है जैसे यह कल की बात हो। इसका बड़ा कारण यह है कि कातिल नजरों के सामने हे और पीड़ित बेबसी के साथ अपने चारों तरफ घूमते देख रहे हैं। कहते हैं कि समय जख्म पर मरहम लगा देता है लेकिन गुजरात में न समय बदला, न सरकार बदली और न व्यवस्था में कुछ तब्दीली आई। सेक्यूलर पार्टियों ने गुजरात पर सियासत तो बहुत की लेकिन सत्ता में बैठे हुए तथाकथित नेतृत्व को इतना साहस आज तक न हुआ कि वह गुजरात के इस अन्याय आधारित व्यवस्था के खिलाफ कोई संवैधानिक कदम उठा सकें जबकि ऐसी सरकारों को भंग करने की संवैधानिक व्यवस्था हमारे संविधान में मौजूद है। कहते हैं कि नेता लोग कोई भी काम अपने सियासी फायदे व नुकसान को सामने रखकर ही करते हैं, इसलिए उन्हें गुजरात के पीड़ितों की चीख-पुकार सुनाई नहीं पड़ी जिनकी दास्तान सुनने के बाद बरबस ही आंखों से आंसू आ जाते हैं। बहरहाल यह भी साफ है कि गुजरात में जिस योजना के तहत यह नरसंहार किया गया वह योजना गुजरात में ही दफन हो गई। बदनाम होकर मोदी भले ही एक पार्टी के हीरो बन गए हों लेकिन हिन्दुस्तान का सेक्यूलरिज्म आज भी जिन्दा है और वह सांप्रदायिक ताकतों को ऐसे ही काटता रहेगा।
`गांधी के देश में...' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात में हिन्दुइज्म के फलसफे को मुस्लिम दुश्मनी में बदलने की भरपूर कोशिश हो रही है, जिसकी वजह से मुसलमानों के बच्चे शिक्षा से वंचित हैं, इनका कारोबार पहले ही खत्म हो चुका है। हर दिन इनके लिए संकट भरा है, हर रात इनके लिए भय का साया है। इस स्थिति को कुछ लोग मोदी के आतंक से प्रेरित बता रहे हैं। प्रोफेसर आबिद शम्सी ऐसे ही बुद्धिजीवी हैं जिनका विचार है कि गुजरात में मोदी का आतंक फैला हुआ है, वह तो यह भी कहते हैं कि यदि कोई हिन्दू किसी मुसलमान को अपना मकान अथवा दुकान किराये पर देना चाहे तो हिन्दू संगठन बीच में आ जाते हैं जिसके नतीजे में उन्हें किराये पर भी रहने की अच्छी जगह नहीं मिल पाती। मानवाधिकार के लिए काम करने वाले गिरीश पटेल तो शम्सी से एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि आज से 7-8 साल पहले तक मैं यह नहीं कह सकता था कि मोदी टाइप सोच आगे बढ़ सकती है लेकिन आज ऐसा नहीं कह सकता। आज भारत में हिन्दुआइजेशन धीरे-धीरे हो रहा है। गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में इसके प्रभाव देखे जा सकते हैं। हिन्दू राज्य आधिकारिक रूप से घोषित नहीं है लेकिन सच्चाई यह है कि यह सेक्यूलर स्टेट के लिए एक बड़ा चैलेंज है।
कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' ने `गुजरात दंगे के 10 साल' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि देश में जब कोई बड़ी घटना होती है तो उस समय नैतिक बुनियाद पर आरोपी से त्यागपत्र की मांग शुरू हो जाती है। भाजपा संसद में चिदम्बरम का मात्र इस आधार पर बायकाट कर रही है कि अदालत ने एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई शुरू कर दी है। लेकिन क्या नरेन्द्र मोदी को नैतिक बुनियाद पर त्यागपत्र नहीं देना चाहिए कि अदालत ने इनके शासनकाल में हुई मुठभेड़ की सीबीआई जांच की हिदायत दी, दंगों को नहीं रोक पाने पर डांट लगाई, अदालत की अवमानना का नोटिस जारी किया है और एक बहादुर महिला के कारण एक मुख्यमंत्री से घंटों एसआईटी टीम ने पूछताछ की है। नरेन्द्र मोदी का मुख्यमंत्री के पद पर बने रहना ही देश के लोकतंत्र के लिए शर्म की बात है। ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताना इस पद की अवहेलना है।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `सियासत' ने `मुस्लिम नरसंहार के 10 साल, आरोपी अब तक आजाद' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि आश्चर्य इस बात पर है कि नरसंहार के 10 साल बीत जाने के बाद भी इनके आरोपी आजाद घूम रहे हैं और सरकारी पदों पर रहते हुए सभी सरकारी फायदे हासिल कर रहे हैं जबकि पीड़ितों की कोई खबर लेने वाला भी नहीं है। इंसाफपसंद व्यक्ति और संगठन पीड़ितों को न्याय दिलाने के मकसद से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और अदालत ने एक विशेष जांच टीम भी गठित की। अब यहआरोप लगाया जा रहा है कि इस टीम पर भी नरेन्द्र मोदी प्रभाव डालने और अपनी मर्जी से तैयार करवाने में कामयाब हो गए हैं। संजु भट्ट के आरोप मुख्यमंत्री और उनके सथियों पर हैं लेकिन एसआईटी पर आरोप है कि इसने इन आरोप का कोई नोटिस लेना तक उचित नहीं समझा जबकि संजु भट्ट का कहना है कि इस सिलसिले में उन्होंने सुबूत भी पेश किए हैं। अब जबकि इस नरसंहार को हुए 10 वर्ष का समय बीत चुका है।
पीड़ितों की समस्याओं में कोई कमी नहीं हुई है और न ही उन्हें इंसाफ मिल सका है। जरूरत इस बात की है कि बिना किसी देरी के आरोपियों को सजा दी जाए।
Subscribe to:
Posts (Atom)