Monday, April 16, 2012

आजम और बुखारी में कौन कितना मुस्लिम हितैषी?

बीते दिनों विभिन्न मुद्दों सहित समाजवादी नेता आजम खां और शाही इमाम अहमद बुखारी के बीच नोंकझोंक का मुद्दा विशेष रूप से मीडिया में छाया रहा। उर्दू अखबारों ने इस पर सम्पादकीय लिखे और विशेष रिपोर्ट प्रकाशित की। पेश है कुछ उर्दू अखबारों की राय।

दैनिक `हमारा समाज' ने `खान साहब से छुटकारा जरूरी' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि अहमद बुखारी अपने दामाद या भाई के लिए राज्यसभा नहीं चाहते हैं वह चाहते हैं कि मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में उनको हक दिया जाए। उन्होंने मुसलमानों की उन्नति के लिए 15 सूत्री कार्यक्रम के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने की मांग की है। उन्होंने राज्यसभा की 6 सीटों पर आजित करते हुए कहा कि एक सीट मध्य प्रदेश से एक अनजान नाम मुनव्वर सलीम को दे दी गई। क्या उत्तर प्रदेश में कोई मुसलमान इस योग्य नहीं था जिसे राज्यसभा भेजा जाता और फिर एक सीट दी है जबकि दो सीटों पर मुसलमानों का हक बनता है एवं दर्शन सिंह यादव को राज्यसभा में भेजा है जो पार्टियां बदलने में माहिर हैं और विधान परिषद में 7 नामों में से एक नाम मुसलमान मोहम्मद उमर खां का है। हिस्सेदारी का यह क्या तर्प है जबकि उत्तर प्रदेश में मुसलमान 20 फीसदी और यादव 7 फीसदी, इसका मतलब है कि मुसलमानों को पूरी तरह नजरअंदाज किया जा रहा है। उधर मोहम्मद आजम खां जो उत्तर प्रदेश सरकार के मंत्रिमंडल मंत्री हैं, शाही इमाम को सुझाव देते हैं कि उलेमा को सियासत में पड़ने की जरूरत क्या है, तो वह भूल रहे हैं कि सियासत उलेमा के घर से ही निकलती है। सियासत मस्जिद के मेम्बर से शुरू होती है, सियासत उलेमा की घुट्टी में होती है लेकिन वह सियासत ईमानदारी, सच्चाई और उसूलों की होती है। उलेमा की सियासत आजम खां की सियासत नहीं होती है जो कदम-कदम पर झूठ और बेइमानी के आधार पर खड़ी की जाए। समाजवादी पार्टी में आजम खां यह चाहते हैं कि किसी मुसलमान का कद उनसे बड़ा न हो। मुलायम सिंह को हमारा सुझाव है कि आजम खां को मुस्लिम मामलों से दूर ही रखो।

दैनिक `जदीद खबर' ने `शाही इमाम का सवाल' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि समाजवादी पार्टी की तरफ से मुसलमानों को सत्ता और प्रशासन में अनुपातित हिस्सेदारी न दिए जाने के खिलाफ शाही इमाम ने नाराजगी जाहिर करते हुए मुलायम सिंह यादव को पत्र लिखा। इस पर मुलायम सिंह यादव को स्वयं कोई स्पष्टीकरण देना चाहिए था लेकिन दुःखद बात यह है कि इस पत्र के सामने आने के बाद समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ मुस्लिम नेता मोहम्मद आजम खां ने इनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। उन्होंने शाही इमाम की तरफ से उठाए गए बुनियादी सवालों की अनदेखी करके व्यक्तिगत हमले शुरू कर दिए। आजम खां की सबसे बड़ी कमजोरी उनकी अपनी जुबान है जिस पर वह काबू नहीं रख पाते। जहां तक विधान परिषद में मुस्लिम प्रतिनिधित्व का सवाल है वहां समाजवादी पार्टी की भूमिका अन्य पार्टियों से भिन्न नहीं है। जिस तरह कांग्रेस और अन्य सैक्यूलर पार्टियां मुसलमानों के वोट हासिल करने के बाद उन्हें अंगूठा दिखाती हैं उसी तरह समाजवादी पार्टी ने भी सत्ता हासिल करने के बाद मुसलमानों को सियासी तौर पर इम्पावर करने में कंजूसी दिखाई। यदि मुसलमानों की सत्ता और प्रशासन में हिस्सेदारी का यही हाल रहा तो 2014 तक उनके लिए अपने हक में मुसलमानों को रोके रखना मुश्किल हो जाएगा। शाही इमाम ने मुसलमानों की हिस्सेदारी का जो सवाल उठाया है वह सही समय पर उठाया गया सही कदम है।

वसीम अहमद ने `इमाम छोड़ने और इसके बाद सियासत करने का शाही इमाम को सुझाव' के शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में विस्तारपूर्वक समीक्षा करते हुए लिखा है कि दिल्ली के कुछ लोगों ने जब आदम सेना बनाई तो आपसे उसका सरपरस्त बनने को कहा था और आपने इसे कुबूल कर लिया था, लेकिन इसके बाद इसका क्या हश्र हुआ, इसके बाद सदस्य बनाए गए और इस रकम का आज तक पता नहीं है। सपा नेता आजम खां और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ आज भी करोड़ों मुसलमान साथ हैं, वरिष्ठ पत्रकार सैयद जाहिद के अनुसार बेहट सीट से अपने दामाद उमर खां की जमानत भी न बचा सके। इससे पता चलता है कि अहमद बुखारी की मुसलमानों में कितनी पकड़ है। अहमद बुखारी का अतीत सियासी भ्रष्टाचार से भरा पड़ा है। कभी यह अपने हित के लिए भाजपा से गले मिलते हैं। यूडीएफ के लिए चुनाव लड़कर याकूब कुरैशी को भी धोखा दे चुके हैं। खुद चुनाव हार गए और याकूब कुरैशी यूडीएफ से चुनाव जीत गए। अहमद बुखारी के दामाद उमर खां की चुनाव में चौथी पोजीशन आने के बावजूद मुलायम सिंह ने उन्हें एमएलसी का तोहफा दिया। जिस पर अहमद बुखारी का कहना था कि मेरे भाई को राज्यसभा सीट दी जाए। इस पर मुलायम ने पार्टी उसूलों के चलते असमर्थता जताई तो अहमद बुखारी नाराज हो गए और एमएलसी का तोहफा शुक्रिए के साथ वापस कर दिया और यह आरोप लगाया कि मुलायम सिंह मुसलमानों को नजरअंदाज कर रहे हैं।

दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `आजम खां इमाम बुखारी से माफी मांगने की मांग की' को अखबार के पहले पेज पर पहली खबर बनाते हुए लिखा है कि आजम खां ने मौलाना बुखारी को चैलेंज किया है कि वह मुरादाबाद में जहां उनकी पहली पत्नी रहने वाली हैं, मेयर का चुनाव जीतकर दिखाएं। यदि वह चुनाव जीत गए तो मैं सियासत छोड़ दूंगा। आजम खां ने मौलाना बुखारी पर सांप्रदायिक किरदार का व्यक्ति होने का आरोप लगाते हुए कहा कि शाइनिंग इंडिया के दावे में भारतीय जनता पार्टी का समर्थन किया था और जब राम नायक राजग सरकार में मंत्री थे तो उन्होंने दो पेट्रोल पम्प भी हासिल किए थे। उन्होंने यह भी कहा कि दिल्ली वक्फ बोर्ड इस तरह की टिप्पणी पर मौलाना अहमद बुखारी के खिलाफ कार्रवाई करे और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ राज्यसभा सांसद मुनव्वर सलीम के बारे में दिए गए बयान पर मौलाना बुखारी को माफी मांगनी चाहिए।

रिजवान सलमानी ने देवबंद से अपनी रिपोर्ट में `काजी रशीद मसूद ने लगाया आजम पर निशाना, इमाम को भी सुनाई खरी-खरी' के शीर्षक से लिखा है कि कांग्रेस राज्यसभा सांसद काजी रशीद मसूद का कहना है कि न तो आजम खां को मुसलमानों से कोई मतलब है और न शाही इमाम अहमद बुखारी को, दोनों इस्लाम का लिबास ओढ़कर मुसलमानों को बेवकूफ बनाकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।

उन्होंने कहा कि यदि दोनों को मुसलमानों से हमदर्दी थी तो उस समय क्यों नहीं बोले जब चुनाव के दौरान मुलायम सिंह ने मुसलमानों को 18 फीसदी आरक्षण दिलाने की बात कही थी जबकि यह संभव ही नहीं है।

Friday, April 6, 2012

दिल्ली निगम चुनाव में बटला हाउस मुठभेड़ बना मुद्दा

बीते सप्ताह विभिन्न राष्ट्रीय मुद्दों सहित दिल्ली में नगर निगम चुनाव और जमीअत उलेमा हिंद के मुख्यालय में जमीअत के दो धड़ों में कहासुनी को लेकर उर्दू अखबारों ने विशेष फोकस किया है। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय

दैनिक `सहाफत' में मोहम्मद आतिफ ने `नगर निगम चुनाव में बटला हाउस इंकाउंटर बना मुद्दा' के शीर्षक से चर्चा करते हुए अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि दिल्ली के मुस्लिम बहुल क्षेत्र जामिया नगर में दो वार्ड जाकिर नगर (205) और ओखला (206) हैं। यह वार्ड भले ही कई बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं लेकिन दोनों सीटों पर ज्यादातर उम्मीदवार सितम्बर 2008 में हुए इंकाउंटर को फर्जी इंकाउंटर मानते हुए अहम मुद्दा बना रहे हैं। जाकिर नगर से कुल 25 उम्मीदवार मैदान में हैं। यहां वर्तमान पार्षद शोएब दानिश फिर से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं तो दिल्ली और अहमदाबाद के सिलसिलेवार बम धमाकों के आरोप में गिरफ्तार 26 वर्ष के जियाऊ&रहमान ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मैदान में हैं। जियाऊ&रहमान की मुहिम की कमान संभाले अमानत उल्लाह ने कहा कि हम ने अदालत से इजाजत लेकर ही उन्हें उम्मीदवार बनाया है। इसे आतंकवादी कहा जा रहा है लेकिन इसे अभी अदालत ने कुसूरवार नहीं बताया है। हम आज भी दिल्ली धमाकों के आरोप में पकड़े गए युवाओं को बेकसूर मानते हैं। स्थानीय विधायक आसिफ मोहम्मद खां का कहना है कि चूंकि सरकार ने इस इंकाउंटर की जांच कराने से इंकार कर दिया है इसलिए हम नगर निगम चुनाव में एक उम्मीदवार की हैसियत से इसके समर्थन करने पर एक दृष्टिकोण अख्तियार करने के लिए मजबूर हैं। उन्होंने कहा कि हम जनता की अदालत में जाएंगे और लोकतांत्रिक तरीके से जवाब देंगे। दूसरी ओर पार्षद शोएब दानिश बटला हाउस इंकाउंटर को चुनावी मुद्दा नहीं मानते। उन्होंने कहा कि बटला हाउस मुठभेड़ के मामले को लेकर कुछ लोग व्यक्तिगत फायदा उठा रहे हैं। चुनावी मुद्दा बनाने से युवाओं को इंसाफ नहीं मिलेगा।

`नगर निगम चुनाव जियाऊ&रहमान के कारण कांग्रेस की नींद हराम' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' में मोहम्मद अहमद खां ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि 2008 में जिस समय 12 लोगों के साथ जियाऊ&रहमान को गिरफ्तार किया गया था, उस समय वह जामिया मिलिया इस्लामिया का एक छात्र था। सामाजिक कार्यकर्ता फिरोज बख्त अहमद का कहना है कि यह क्षेत्र पहले से ही ब्लैक लिस्टेड है। अगर जिया यहां से जीत जाता है तो यह क्षेत्र के लिए चिंताजनक होगा और बाहर यह पैगाम जाएगा कि यहां के लोग आतंकवादियों का समर्थन करते हैं। जियाऊ&रहमान के कारण क्षेत्र में काफी हलचल है। एक ओर जहां आम लोगों में इसको लेकर उत्साह पाया जा रहा है वहां वर्तमान विधेयक आसिफ मोहम्मद खां और लोक जन शक्ति पार्टी नेता अमानतुल्ला का एक प्लेट फार्म पर आ जाने से कांग्रेस की नींद हराम हो गई है।

दैनिक `इंकलाब' ने `जियाऊ&रहमान की सियासी पार्टियों के बाद अब बहुत सी मिल्ली संगठनों ने भी अपने समर्थन की घोषणा की' के शीर्षक से मोहम्मद रजा फराज ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि लोक जन शक्ति पार्टी और राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल सहित सियासी पार्टियों और स्थानीय आरडब्लूए के समर्थन के बाद अब बहुत सी मिल्ली संगठनों ने भी समर्थन की घोषणा की है। जामिया नगर फेडरेशन के महासचिव मुशरिफ हुसैन का कहना है कि यह चुनाव बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पूरे देश की निगाह बटला हाउस चुनाव पर है। इस चुनाव से इस बात का फैसला होना है कि जनता जियाऊ&रहमान को आतंकवादी मानती है या बेकसूर।

आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत (सालिम ग्रुप) के अध्यक्ष डा. अनवारुल इस्लाम कहते हैं कि जियाऊ&रहमान को जो लाबी चुनाव में ला रही उनकी नियतों पर भरोसा नहीं किया जा सकता लेकिन उनका समर्थन करेंगे। जियाऊ&रहमान के पिता अबुर्दरहमान का कहना है कि पुलिस विभाग ने हमारे बच्चों सहित सैकड़ों मुस्लिम युवाओं की जिंदगी को बर्बाद किया है। चुनाव में यदि हमारा बेटा जीत जाता है तो इन जैसे सभी युवाओं को हौसला मिलेगा और उम्मीद की एक आसा पैदा होगी।

दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `दिल्ली बम धमाके का तथाकथित आरोपी भी मैदान में' के शीर्षक से लिखा है कि जियाऊ&रहमान को 2008 के सीरियल बम ब्लास्ट के बाद बटला हाउस इकाउंटर में गिरफ्तार किया गया था। इस इंकांउटर में इसके दो साथी सहित दिल्ली पुलिस इस्पेक्टर मारे गए थे। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने इस इंकाउंटर को फर्जी बताया था लेकिन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने दिग्विजय के दावे को नकारते हुए इनकाउंटर को सही बताया था। 2008 से जेल में बंद जियाऊ&रहमान अपनी बेगुनाही को साबित करने के लिए नगर निगम चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतरा है। जियाऊ&रहमान साबरमती जेल में बंद है और शायद वह अकेला उम्मीदवार है जो जेल से 15 अप्रैल को होने वाले चुनाव में लड़ रहा है। जमाअत इस्लामी हिंद के अध्यक्ष मौलाना जलाल उद्दीन उमरी ने कहा कि चूंकि अदालत ने इजाजत दे दी है वह चुनाव लड़ सकता है, क्या वह उसका समर्थन करते हैं के सवाल पर उन्होंने कहा कि लोगों को खुद फैसला लेना चाहिए।

सिलसिलेवार बम धमाकों के आरोप से 14 साल बाद बरी होने वाले मोहम्मद आमिर खां ने आल इंडिया मिल्ली काउंसिल के राष्ट्रीय अधिवेशन `युवाओं की रक्षा' में अपनी आप बीती सुनाते हुए कहा ः वैसे तो मुस्लिम संगठन युवाओं की गिरफ्तारी का विरोध करते नजर आते हैं लेकिन गिरफ्तार युवाओं की रिहाई के लिए अच्छा वकील तक उपलब्ध और परिवार की देखभाल करने में कोई भूमिका यह मुस्लिम संगठन नहीं निभाती हैं। दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `14 साल न करने वाले गुनाह की सजा काटने वाले आमिर की नसीहत' के शीर्षक से आगे लिखा है कि जब मुझे गिरफ्तार किया गया था तब कोई भी मुस्लिम संगठन सामने नहीं आया। किसी वकील ने मुकदमा लड़ने की पेशकश नहीं की। मां बीमार रही, पिता गुजर गए लेकिन किसी संगठन ने कोई खबर नहीं ली।

आमिर के इस वक्तव्य पर एनए शिबली ने दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' में अपनी रिपोर्ट में खुलासा करते हुए लिखा कि जमाअत इस्लामी हिंद ने भी मोहम्मद आमिर को केवल सपना ही दिखाया, जबकि जमाअत इस्लामी हिंद ने एक प्रेस कांफ्रेंस में अध्यक्ष मौलाना जलाल उद्दीन उमरी ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि हम ने आमिर को आर्थिक सहायता दी और आगे भी देंगे लेकिन आमिर ने यह कहकर चौंका दिया कि मुझसे पहले दिन जमाअत की जो टीम मिलने आई थी उस ने मुझे दो हजार रुपये दिए थे। इसके बाद से न तो जमाअत की ओर से मुझे कोई फोन आया और न किसी ने मेरी कोई मदद की। इसका मतलब तो यह हुआ कि उमरी ने प्रेस कांफ्रेंस के दौरान जो कहा वह गलत है।

Sunday, April 1, 2012

मुस्लिम औरतों की बदहाली

बीते दिनों उर्दू समाचार पत्रों ने विभिन्न मुद्दों पर खुलकर चर्चा की और सम्पादकीय द्वारा स्थिति को स्पष्ट किया। पेश है कुछ उर्दू अखबारों की राय।
`मुस्लिम औरतों की बदहाली पर कोई सियासी पार्टी बोलने को तैयार नहीं' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि देश में मुस्लिमों के पारिवारिक कानून में सुधार व मुस्लिम निजी कानून को संहिताबद्ध किए जाने की मांग अब जोर पकड़ रही है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन से जुड़ी मुस्लिम महिला शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार, कानून एवं सेहत के मुद्दों पर जागरुकता लाने का काम कर रही हैं। उत्तर प्रदेश के कई शहरों में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन व परचम संस्था संयुक्त रूप से मुस्लिम महिलाओं के बीच जाकर उन्हें सशक्त करने की नई राह दिखा रही हैं। देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति हमेशा से बहस में रही है। मुस्लिम पारिवारिक कानून में सुधार का समय आ गया है। इस्लाम धर्म में मुसलमानों को हालात के आधार पर चार बीवी रखने की छूट है। धर्म की आड़ में हालात कुछ लोग खुद ही गढ़ लेते हैं और इस्लाम में बताई गई परिस्थितियों को नजरंदाज कर देते हैं। मनमुताबिक व्याख्या करते हैं। सूबे या मुल्क के सियासी दल भले ही पार्टी की सियासत में चुप्पी साधे हों। लेकिन हालात ज्यादा बिगड़ते नजर आ रहे हैं।
सियासी दल अल्पसंख्यक के रूप में मुस्लिमों को आरक्षण देने की वकालत तो करते हैं लेकिन महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार पर चुप्पी साध लेते हैं। सूरते हाल यह है कि पारिवारिक परामर्श केंद्र में पारिवारिक बिखराव के जितने भी मामले आते हैं वह ज्यादातर मुस्लिम परिवारों के ही होते हैं। 21वीं सदी में बिना किसी सुधार के डेढ़ हजार साल के कानून में सुधार जरूरी है।
`नागरिकों की गर्दन पर एक नई तलवार' के शीर्षक से कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि 20 मार्च को राज्यसभा में आतंकवाद विरोधी राष्ट्रीय सेंटर (एनसीटीसी) को मंजूरी दे दी गई जबकि राज्यसभा के 245 सांसदों में यूपीए के केवल 97 सांसद हैं। लेकिन इसके बावजूद सरकार एनसीटीसी पर भाजपा और सीपीआईएम की ओर से संशोधन के प्रस्ताव को 82 के मुकाबले 105 वोटों से पराजित कर दिया। यह कानून वास्तव में आतंकवाद को खत्म करने के लिए बनाया गया है। लेकिन यह पिछले सभी आतंक रोधी कानून से भी ज्यादा सख्त है और शायद यही कारण है कि भाजपा और सीपीएम सहित कई पार्टियों और कम से कम सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इसका विरोध किया। खुद ममता बनर्जी ने इसे पूर्व का टाडा और पोटा के मुकाबले कई ज्यादा खतरनाक बताया जो भारतीय संविधान के संघीय ढांचे से मेल नहीं खाता है। एनसीटीसी की कानूनी पेचीदगियों पर बहस से बचते हुए यह विचार करना है कि इस कानून की जरूरत क्यों पेश आई जबकि 2008 में मुंबई में ताज होटल वाली आतंकी घटना के बाद देश में कोई बड़ी आतंकी घटना नहीं हुई। एनसीटीसी वास्तव में आतंक रोधी अमेरिकी संगठन है जिसका मुख्यालय वर्जीनिया में है। अमेरिका इस एजेंसी के तहत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादियों के विरुद्ध कार्यवाही करता है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान समेत एक दर्जन से अधिक मुस्लिम देश और कई दर्जन गैर मुस्लिम देशों में एजेंसी के कार्यकर्ता किसी भी व्यक्ति को उठा लेते हैं और आतंकवादी करार देकर जेलों में बन्द कर देते हैं। यह कानून अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने 2003 में मंजूर कराया था। भारत ने भी एक ऐसा ही कानून बनाया जो अमेरिकी के एनसीटीसी की पूरी नकल है। पोटा और टाडा के तहत गिरफ्तार होने वालों में भारी संख्या मुसलमानों की थी तो आश्चर्य नहीं कि एनसीटीसी भी किसी तज्जमुल हुसैन के लिए बनाया गया है।
`एनसीटीसी पर सियासी पार्टियों की दोहरी भूमिका' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि एनसीटीसी पर केवल तृणमूल कांग्रेस की दोहरी भूमिका ही नहीं बल्कि आरजेडी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की भी है। इनमें उपरोक्त दोनों पार्टियों ने वोटिंग के समय वाकआउट किया और परमाणु संधि की तरह एक बार फिर समाजवादी पार्टी ने सरकार के दृष्टिकोण का समर्थन किया और बाद में बयान दिया कि उनकी पार्टी यूपीए सरकार का बाहर से समर्थन करती है नाकि कांग्रेस पार्टी का। सवाल यह है कि परमाणु संधि अथवा एनसीटीसी आदि यूपीए का एजेंडा है या कांग्रेस का। यदि यूपीए का एजेंडा होता तो यूपीए में शामिल पार्टियां उसका विरोध नहीं करती। आखिर यह कैसा विरोध है कि संसद से बाहर तो खूब शोर मचाया जाए लेकिन जब परीक्षा की घड़ी आए तो सरकार के समर्थन में आ जाएं या खुद ही अपनी आवाज को कमजोर करने वाला कदम उठाया जाए। देश के संजीदा लोगों विशेषकर मुसलमानों को आगे आकर इसका विरोध करना चाहिए और दोहरी नीति रखने वाली पार्टियों को कठघरे में खड़ा करना चाहिए।
`फौज में भ्रष्टाचार' के विषय पर दैनिक `जदीद मेल' ने लिखे अपने सम्पादकीय में लिखा है कि एक तरफ अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम में सांसद के अपमान के दोषी ठहराए जा रहे हैं तो दूसरी ओर फौज का चीफ भ्रष्टाचार का एक ऐसा खुलासा कर रहा है जो अंजाम को नहीं पहुंच पाया। लेकिन इससे यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई कि फौज में भी हर स्तर पर भ्रष्टाचार बुरी तरह फैला हुआ है और इसमें यदि कुछ लोग सच्चे और ईमानदार हैं तो उन्हें भी इस दलदल में घसीटने की नापाक कोशिश यह कर की जा रही है कि `सब ही लेते हैं, आ भी ले लें क्या दिक्कत है, नहीं लेने से यह गोरखधंधा बन्द नहीं हो जाएगा।' देश की सुरक्षा निश्चित रूप से फौज के हाथों में होती है इसीलिए देश के बजट में एक बड़ी राशि सुरक्षा पर खर्च की जाती है।
जाहिर है कि देश की सुरक्षा पर जो भी राशि खर्च की जाती है वह अन्य विभागों के जरूरी बजट में कटौती करके ही की जाती है। फौज के बहुत से ईमानदार अधिकारी आज भी मौजूद हैं जो बहुत कुछ चाहते हुए भी कुछ करने में असमर्थ हैं। शायद जनरल वीके सिंह भी उनमें एक हैं जो आगामी कुछ दिन में नौकरी से सेवानिवृत्ति होने वाले हैं। उन्होंने दावा किया है कि फौज के लिए खरीदी जाने वाली बड़ी गाड़ियों की खेप की मंजूरी के लिए उन्हें 14 करोड़ रुपये घूस की पेशकश यह कहते हुए की गई कि `सब लेते हैं।' वह यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गए और हड़बड़ाहट में यह समझ ही नहीं पाए कि वह क्या करें। उनके अनुसार यह पेशकश करने वाला कोई बाहरी व्यक्ति न होकर बीते दिनों सेवानिवृत्ति होने वाला एक फौजी जनरल ही था। उन्होंने यह बात रक्षामंत्री को बता दी थी लेकिन रक्षामंत्री ने इसे क्यों दबाकर रखा।