Monday, September 24, 2012

`बटला हाउस मुठभेड़ के बहाने स्थानीय नेताओं की सियासत'


बटला हाउस मुठभेड़ के चार वर्ष होने पर लगभग सभी उर्दू अखबारों ने विशेष रिपोर्ट और लेख प्रकाशित किए हैं। बीते सप्ताह बाजार में आया उर्दू दैनिक `सियासी तकदीर' में निसार अहमद खां और अली शहजाद ने `बटला हाउस मुठभेड़ के बहाने स्थानीय नेताओं की सियासत' के शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि देश की राजनीति को हिला देने वाली तथाकथित फर्जी मुठभेड़ की चौथी बरसी पर ओखला के स्थानीय नेता आज होने वाली गतिविधियों से गायब रहे लेकिन मुठभेड़ पर आरोप और बयानबाजी द्वारा सियासत तेज करने में पीछे नहीं रहे। एक ओर ओखला के विधायक आसिफ मोहम्मद खां ने सरकार से मांग की है कि सच को सामने लाने के लिए इस तथाकथित मुठभेड़ की जांच कराई जाए।
वहीं दूसरी ओर विपक्ष के सभी नेताओं ने उनकी आवाज में आवाज मिलाई और साथ ही आसिफ मोहम्मद खां को यह कहते हुए निशाना बनाया कि बटला हाउस मुठभेड़ द्वारा कामयाब होने वाले विधायक ने अपनी `तहरीके इंसाफ' को भुला दिया है। लोक जन शक्ति पार्टी नेता अमानत उल्लाह खां ने कहा कि इस मुठभेड़ की जांच नहीं कराने के लिए सरकार और शीला दीक्षित जिम्मेदार हैं क्योंकि दोनों ने इस मामले की जांच में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई बल्कि यह कह दिया कि इससे पुलिस का `मनोबल' गिरेगा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से साफ स्पष्ट है कि मोहम्मद आतिक की पीठ में गोलियां लगी हैं इसलिए यह इनकाउंटर नहीं है बल्कि उसे मारा गया है। इसलिए इस मामले की न्यायिक जांच की मांग हम पहले से करते रहे हैं और आज भी यही मांग कर रहे हैं।
`मुस्लिम युवाओं के सिर पर एक बार फिर खुफिया एजेंसियों की तलवार' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दिल्ली' ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जामिया टीचर्स सालिडिटरी एसोसिएशन ने 20 पेज पर आधारित एक गहन जांच रिपोर्ट जारी की है, जिसमें सबूत के आधार पर यह बताया गया है कि दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने सिर्प जामिया इलाके से जिन 14 युवाओं को गिरफ्तार किया था और उन्हें अलबदर, हूजी और लश्कर तैयबा के सक्रिय कार्यकर्ता करार देकर बहुत से आरोपों के फंदे से बांधा था।
 वह सब बेगुनाह करार दिए गए और अदालत ने पुलिस के आरोपों को फर्जी करार देकर उनको बाइज्जत बरी कर दिया। असल योजना कुछ मुस्लिम युवाओं को फांसी पर लटकाने या उम्र कैद की सजा दिलवाने का नहीं है बल्कि उन्हें देश में संदिग्ध करार देने और उनको अलग-थलग करके हाशिए पर पहुंचाने की है और इसमें नीतिकारों को सफलता मिल रही है। मुस्लिम नेतृत्व तो अब प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और कुछ अन्य उच्च पदाधिकारियों के आश्वासनों पर भरोसा करने की आदत से ऊपर नहीं उठ सका है।
केंद्र सरकार द्वारा एफडीआई की इजाजत देने और गैस सिलेंडर पर से सब्सिडी घटाने को लेकर राजनीतिक हलचल पर चर्चा करते हुए दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने `मुलायम, ममता का ड्रामा, यह बादल गरजते हैं, बरसते नहीं' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव, मायावती और करुणानिधि सभी एक साथ झटके में समर्थन वापस ले लें तो ही सरकार को सही मायनों में खतरा हो सकता है। लेकिन तब भी सरकार के तुरन्त ही गिर जाने के आसार नहीं हैं। कटु सत्य तो यह है कि न तो ममता समर्थन वापस लेने वाली हैं और न ही सपा। हां, एनडीए यह उम्मीद जरूर पाले है कि सरकार गिर सकती है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव हमेशा कहते कुछ हैं, करते कुछ और हैं। याद है कि एटमी डील और राष्ट्रपति चुनाव का किस्सा। दोनों बार पहले धमकी दी और  बाद में यूपीए के साथ खड़े नजर आए। लोकपाल पर भी सरकार को संकट से निकाल ले गए थे। दरअसल खेल तो 2014 की कुर्सी का है। मुलायम सरकार गिराने के बजाय 2014 का इंतजार करना चाहेंगे। इस बीच यूपी और थर्ड फ्रंट के बीच अपनी ताकत बढ़ाते रहेंगे। तब तक मनमोहन सरकार से पैसों की सौदेबाजी करके ज्यादा से ज्यादा पैसे लेते रहेंगे। यही उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के दौरान किया था। पहले धमकी देना फिर नाराज हो जाना ममता बनर्जी की पुरानी आदत है। ममता किसी भी कीमत पर लेफ्ट के साथ खड़ी नहीं हो सकतीं और भाजपा वाले एनडीए में जाकर मुस्लिम वोट बैंक को खोना नहीं चाहते।
`चुनाव अमेरिका का और चुनावी मुहिम इजरायल के नाम पर' शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि अमेरिका एक ऐसा देश है जहां के राष्ट्रपति चुनाव में आंतरिक मामलों से ज्यादा विदेशी संबंधों और नीति को महत्व दी जाती है। निशाने पर सिर्प और सिर्प इस्लाम, मुसलमान और मुस्लिम देश होते हैं। गत बार आतंकवाद के नाम पर इस्लाम और मुस्लिम देशों के विरोध को बहस के एजेंडे में ऊपर रखा गया था। इस बार इजरायल के वजूद और ईरान की तबाही को चर्चा का विषय बनाया गया है। अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि सरकार किसी भी पार्टी की हो, इजरायल की नाराजगी का खतरा मोल नहीं ले सकती। यही कारण है कि जब-जब फलस्तीनियों ने अपनी आजादी और सदस्यता के लिए संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटाया तो वह उसके विरोध में आगे-आगे रहा। इसी तरह वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ तो जंग की बात करता है लेकिन इजरायल के परमाणु कार्यक्रमों पर मौन धारण किए हुए है। अंतर्राष्ट्रीय परमाणु एजेंसी के पूर्व चीफ अलबरादी ने इस मामले को उठाया तो इस जुर्म में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। इजरायल के मामले को राष्ट्रपति चुनाव में कुछ ज्यादा ही उभारा जा रहा है। शासक वर्ग डेमोकेटिक और विपक्ष रिपब्लिकन पार्टी दोनों ही यहूदी लॉबी को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं जिससे पूरी तरह माहौल मुस्लिम विरोधी बन गया है।
`एफडीआई पर सरकार की मजबूती' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यह बात याद रखने की है कि एफडीआई को मंजूरी देने की वकालत जसवंत सिंह ने की थी, जब वह एनडीए में वित्त मंत्री थे। भाजपा ने कभी एफडीआई का विरोध नहीं किया। इस बार एफडीआई और डीजल के भाव ममता बनर्जी और भाजपा के विरोध का कारण बन गए हैं। जहां तक डीजल का मामला है यह जान लेना चाहिए कि डीजल की कीमत इतनी ज्यादा होने का कारण यह है कि डीजल और पेट्रोल पर इतने अधिक राज्य टैक्स लगा दिए जाते हैं कि कीमत अपने आप ज्यादा हो जाती है। कोई राज्य इन टैक्सों को कम करना नहीं चाहता। इसके विपरीत जब भी डीजल अथवा पेट्रोल की कीमत बढ़ती है राज्य टैक्स का अनुपात भी इस लिहाज से बढ़ जाता है और इससे अधिक आमदनी होती है। जिस दिन डीजल मूल्य में वृद्धि हुई उसी दिन गोवा सरकार ने डीजल पर दो फीसदी वैट में वृद्धि कर दी। गोवा में भाजपा की सरकार है और भाजपा ही डीजल में वृद्धि पर सबसे ज्यादा शोर मचा रही है। एलपीजी सिलेंडरों पर सब्सिडी दी जाती है इसका मकसद आम लोगों को राहत देना है। लेकिन सब जानते हैं कि सब्सिडी दलालों की भेंट चढ़ जाती है। इसलिए सरकार ने फैसला किया कि छह सिलेंडर सरकारी भाव से और इसके बाद बाजार भाव से मिलेंगे।

Tuesday, September 18, 2012

`जुर्म एक तो सजा अलग-अलग क्यों?'


`हिन्दुत्वा सिपाही-गोगोई' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई द्वारा `कम शिक्षित मुस्लिम घरों में ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं' के बयान पर चर्चा करते हुए लिखा है कि असमी मुसलमानों के संबंध में गोगोई का यह बयान न केवल अफसोसजनक है बल्कि यह एक खतरनाक बयान है। संघ परिवार 1960 और 1970 के दशक से न केवल असम बल्कि पूरे देश के मुसलमानों के संबंध में यह प्रचार करा रहा है कि मुसलमानों के यहां ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं। इस तरह के गलत बयान का मकसद हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति भय पैदा करना है। यदि किसी प्रकार की धारणा किसी एक समुदाय के बारे में दूसरे समुदाय के मन में बैठ जाए तो जब अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं और उनके लोग मारे जाते हैं तो बहुसंख्यक के लोग मानसिक रूप से संतोष और खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। सिर्प इतना ही नहीं बल्कि अल्पसंख्यकों को मारने वालों को खुद अपना संरक्षक समझते हैं। गोधरा 2002 में साबरमती एक्सप्रेस में कारसेवकों के मारे जाने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के मुसलमानों के खिलाफ यही रणनीति अपनाई थी जिससे वह गुजराती हिन्दुओं के न केवल हीरो बन गए थे बल्कि वह उनके अंगरक्षक भी कहे जाने लगे थे। गोगोई का मुसलमानों के खिलाफ गलत बयान देने का सियासी मकसद है इसके द्वारा वह आगामी चुनाव में मोदी की तरह हिन्दुत्व के हीरो बनकर उभरना चाहते हैं। उन्हें यह मालूम है कि उन्हें मुस्लिम वोट नहीं मिलने वाला है तो फिर क्यों न हिन्दू वोट बैंक को पूरी तरह अपने हक में कर लिया जाए। नरसिम्हा राव के बाद गोगोई दूसरे कांग्रेसी नेता हैं जो कांग्रेस के सेकुलर विचारों के बजाय खुलकर हिन्दत्ववादी विचारों की ओर झुके हैं। यह बात कांग्रेस और देश दोनों के लिए खतरनाक है।
दैनिक `जदीद खबर' ने `मुस्लिम आबादी का भय' के शीर्षक से लिखा है कि मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने अपने साक्षात्कार में इस धारणा को बेबुनियाद करार दिया है कि मुसलमान हमेशा कांग्रेस को वोट देते हैं। उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने कभी भी 50 फीसदी से ज्यादा वोट कांग्रेस को नहीं दिया। उन्होंने इस बाबत मुस्लिम आबादी वाले 126 विधानसभा क्षेत्रों की समीक्षा भी पेश की। असम एक ऐसा राज्य है जो शुरू से ही मुस्लिम बहुल रहा है। यहां के मुसलमान गरीब और परेशानी की जिंदगी गुजारते रहे हैं। उस पर से उन पर बंगलादेशी होने का आरोप लगाकर उनकी हत्या की जाती है। असम में बोडो बहुल क्षेत्रों में मुसलमानों के खिलाफ वर्तमान हिंसा उन्हें मजबूर करना है ताकि वह इन आबादियों को खाली करके कहीं और जा बसें। यही कारण है कि  बड़े पैमाने पर उनके मकान जलाए गए, उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया गया और उन्हें कारोबार से वंचित कर दिया गया। ऐसे में राज्य के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई इनके जख्मों पर मरहम रखने के बजाय नमक छिड़कने का काम कर रहे हैं। मुसलमानों की आबादी को चिन्हित करके इसमें वृद्धि का प्रचार और इसके लिए अशिक्षा को जिम्मेदार बताना, वास्तव में एक सांप्रदायिक सोच है जिसका इजहार मुख्यमंत्री ने खुलकर किया है।
`महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे का बिहारियों के खिलाफ ऐलान जंग, केंद्र एवं राज्य सरकार मौन क्यों?' के शीर्षक से साप्ताहिक `अल जमीअत' में सम्पादक मोहम्मद सालिम जामई ने अपने विशेष  लेख में चर्चा करते हुए लिखा है कि राज ठाकरे के हौसले इतने बढ़ चुके हैं कि वह अब खुद को कानून से भी ऊपर की कोई चीज समझने लगा है, इसके बावजूद भी यदि हमारी केंद्र एवं राज्य सरकारें मौन हैं तो हम इसे देश व कौम के दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कह सकते हैं। राज ठाकरे की इस घृणित राजनीति को हवा देने वाले नेताओं को भी यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि संघी ढांचे में क्षेत्र का मसला अत्यंत खतरनाक साबित हुआ करता है। ऐसी सूरत में एक गुंडे और सिरफिरे व्यक्ति का संरक्षण खुद उनके लिए भी खतरनाक साबित होगा। यह मसला सिर्प महाराष्ट्र का नहीं है बल्कि पूरे देश का मसला बन चुका है। इसलिए केंद्र सरकार को भी इस पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।
`जुर्म एक तो सजा अलग क्यों' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने 1 सितम्बर 12 के एशियन ऐज में `द लिटिल मैग्जीन' के सम्पादक अतरादेव सेन द्वारा 29 अगस्त के सुप्रीम कोर्ट और अहमदाबाद की विशेष अदालत दोनों के फैसलों की समीक्षा के हवाले से लिखा है कि दोनों ही घटनाओं अर्थात् गुजरात के नरोदा पाटिया की सांप्रदायिक हिंसा और अजमल कसाब के आतंक ने पूरे देश को हिला दिया था, जिसका फैसले में भी जिक्र किया गया है लेकिन माननीय न्यायाधीशों ने नरोदा पाटिया की हिंसा के लिए 32 व्यक्तियों को आरोपी मानने के बावजूद केवल उम्रकैद की सजा सुनाई। इस हिंसा में 97 मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इसके बावजूद मुसलमानों की हत्या करने वाले किसी अपराधी को मौत की सजा नहीं सुनाई गई। दूसरी तरफ गुजरात के ही गोधरा ट्रेन में आग लगने के आरोप में 11 मुसलमानों को यह सजा सुनाई जा चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात दंगों के अहम मुकदमों की जांच के लिए विशेष टीम गठित करते हुए यह टिप्पणी की थी कि दंगा आतंकवाद से ज्यादा खतरनाक है। फिर आतंकी और दंगा के मुकदमों में सजाओं का स्तर अलग क्यों है?
`और अब दिल्लीवासियों को बिजली का झटका' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि राजधानी वासी बिजली के बिलों से परेशान हैं, उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि यह हो क्या रहा है? हर कोई बिजली की खपत कम करने की कोशिश कर रहा है। बावजूद इसके बिजली का करंट बढ़ता जा रहा है। बिजली कम्पनियों के `पॉवर गेम' की वजह से उपभोक्ता को कम बिजली खर्च करने पर भी ज्यादा बिल अदा करना पड़ रहा है। बिजली टैरिफ के मुताबिक अगर एक महीने में 200 यूनिट से कम बिजली खर्च करेंगे तो प्रति यूनिट 3.70 रुपए देने होंगे और इसमें सरकार एक रुपए की सब्सिडी भी देती है। लेकिन अगर खर्च 200 यूनिट से ज्यादा और 400 यूनिट से कम है तो प्रति यूनिट 4.80 रुपए और इससे ज्यादा बिजली खर्च करने पर 6.40 रुपए देने होंगे। बिल दो महीने का एक साथ आता है।
अगर एक महीने में 195 यूनिट खर्च है और दूसरे महीने में 290 यूनिट है तब भी आपको 4.80 रुपए चुकाने पड़ेंगे। आरडब्ल्यूए के अनुसार बिजली कम्पनियां 10-15 करोड़ रुपए एक्स्ट्रा ले रही हैं। यह रिटेल लूट कर होलसेल फायदा जैसा है।

गुमराह युवकों को समझाना मिल्ली नेतृत्व का दायित्व


बम धमाकों के आरोप में मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी पर चर्चा करते हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मनसिफ' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि पुणे धमाके के सिलसिले में जैसा ही जांच एजेंसियों और मीडिया को इसके नाम का पता चला तो उन्हें अफसोस हुआ कि यह हिन्दू है अर्थात् दयानंद पाण्डेय इसका नाम है। यदि यह मुसलमान होता तो इसका संबंध किसी न किसी `कागजी' मुस्लिम आतंकी संगठन से जोड़ दिया जाता और फिर तुरन्त गिरफ्तारियों का न खत्म होने वाला सिलसिला चल पड़ता। महाराष्ट्र में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने चार मुसलमानों को गिरफ्तार किया और फिर बाद में दो को रिहा कर दिया गया।  पुलिस का कहना है कि यह गिरफ्तारियां आतंकवाद के विभिन्न मुकदमों में पूछताछ करना एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है। सूत्रों का कहना है कि जांच एजेंसियां पुणे धमाके के सिलसिले में मुस्लिम युवाओं को लिप्त करने में व्यस्त हैं और मीडिया विशेषकर मराठी समाचार पत्रों की झूठी खबरों की बुनियाद पर बीड़ से इन मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया था। सवाल यह है कि सिर्प मुसलमानों को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है। गत 8 सालों में हुई आतंकी घटनाओं के संबंध में यह साबित हो चुका है कि इनमें ज्यादातर हिन्दू आतंकी शामिल थे। इसलिए जांच एजेंसियों को केवल एक ही नजरिये की बुनियाद पर जांच नहीं करना चाहिए। आखिर यह सब बेबुनियाद हरकतें कब तक होती रहेंगी? क्या सिर्प इसलिए कि सरकार यूरोपीय दुनिया विशेषकर अमेरिका को बताना चाहती है कि हम भी उन ही की तरह `कागजी' आतंकियों से परेशान हैं।
अमेरिका को खुश करने की कोशिश में अरब देशों से भी संबंध खराब होने की संभावना पैदा हो रही है जिससे भविष्य में हमारी आर्थिक गतिविधियों पर चोट भी लग सकती है। सरकार को चाहिए कि वह मुस्लिम विरोध पर आधारित नीति का त्याग करे और देश से प्रेम के नाम पर हिंसा और दंगा फैलाने वाले हिन्दू आतंकी संगठनों के खिलाफ भी अपने घेरे को और अधिक सख्त करते हुए देश की सुरक्षा और सौहार्द को निश्चित करे।
`गुमराह युवकों के संबंध में मिल्ली नेतृत्व का दायित्व, जोश में होश खो देना बिल्कुल गलत रणनीति' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि इधर एक वर्ष के अंदर देशभर में पुलिस ने तथाकथित आतंकी कहकर बहुत से मुसलमानों को गिरफ्तार किया है जिनमें से ज्यादातर युवा और शिक्षित हैं। अदालतों ने बहुत से गिरफ्तार लोगों को बाइज्जत तौर पर रिहा भी किया है जो इस बात का सबूत हैं कि पुलिस ने बहुत से लोगों को गिरफ्तार किया है। मुस्लिम नेतृत्व ने मुसलमानों की अंधाधुंध गिरफ्तारियों के खिलाफ विरोध भी किया है और कानूनी कार्रवाई भी की है और यह हर तरह से सही और जायज है क्योंकि यह हमारा संवैधानिक हक है। मुस्लिम संगठनों ने आतंकवाद के खिलाफ आम सभा, सम्पोजियम और सेमिनार भी किया जिसमें बिना कारण किसी की हत्या को गैर इस्लामी बताते हुए इसकी भर्त्सना भी की गई लेकिन किसी मिल्ली संगठन ने मुस्लिम युवाओं से सीधे तौर पर संबोधित करते हुए उनकी आतंकी गतिविधियों के मुस्लिम मिल्लत पर होने वाले हुए प्रभाव से उन्हें अवगत नहीं कराया है। हम एक बार फिर मिल्ली नेतृत्व से अपील करते हैं कि वह इस बाबत सक्रिय हों और जोश में आए हुए लोगों को होश की नसीहत करें।
तीसरे मोर्चा की आहट के बीच मुलायम सिंह की रणनीति पर चर्चा करते हुए दैनिक`प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने `मुलायम सिंह एक एक तीर से कई शिकार करने के लिए चला सियासी दांव' के शीर्षक से लिखा है कि मुलायम सिंह ने कैग रिपोर्ट पर संसद के गतिरोध को तोड़ने के लिए तेलुगूदेशम के साथ एक नया फार्मूला पेश किया कि वह लोग कोयला प्रकरण में किसी की तरफदारी नहीं कर रहे, इतना भर चाहते हैं कि इस गंभीर मामले में संसद के अंदर खुली बहस हो जबकि भाजपा के लोग जिद पर उतारू हैं जो कि सही नहीं है। उन्होंने कोयला आवंटन में हुईं गड़बड़ियों के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश से जांच कराने की मांग की। जहां मुलायम ने एक तरफ कांग्रेस को अपने स्टैंड से प्रसन्न किया वहीं विपक्षी एकता तोड़ने का प्रयास कर कांग्रेस की मदद करने का प्रयास किया है। दरअसल मुलायम 2014 की रणनीति पर अमल करने का प्रयास कर रहे हैं।
वाम मोर्चा, तेलुगूदेशम को साथ लेकर वह 2014 के लिए एक नया मोर्च बनाने की जुगाड़ में हैं। इस तथाकथित तीसरा मोर्चा बनाने के प्रयास का एक फायदा मुलायम सिंह को यह हुआ कि उन्होंने अपने आपको भाजपा से दूर कर लिया है। मुलायम सिंह यादव ऐसे पहले नेता हैं जिन्होंने मध्यावथि चुनाव की बात कही थी। मुलायम का यह सियासी दांव है। पता नहीं, कांग्रेस को यह समझ आएगा या नहीं? भाजपा के लिए भी यह एक चुनौती है।
`हथियारों के सौदागर दुनिया में शांति कैसे स्थापित कर सकते हैं' के शीर्षक से `दावत सहरोजा' ने लिखा है कि अमेरिकी कांग्रेस के थिंक टैंक सीआरएस की रिपोर्ट एक ऐसे समय सामने आई है जब संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून हथियारों के बेचने और खरीदने से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय नियम बनाने की बात कर रहे थे जिसमें अमेरिका सबसे बड़ी रुकावट है क्योंकि इसकी अर्थव्यवस्था या आर्थिक उन्नति बहुत हद तक हथियारों के बेचने पर आधारित है और वह हर वर्ष अपनी इस गैर इंसानी व्यापार को हर वर्ष दो गुना और तीन गुना करने की नीति पर अमल कर रहा है। सीआरएस की रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि गत वर्ष 2011 में केवल अमेरिका ने दूसरे देशों को 66 अरब 30 करोड़ के हथियार बेचे और दुनिया में बेचे हथियारों का इसका अनुपात 78 फीसदी रहा। यह एक सच्चाई है कि ज्यादा हथियारों की खरीद से दुनिया में ताकत का बैलेंस बिगड़ता रहता है। टिप्पणीकारों का यह भी कहना है कि अमेरिका केवल हथियार बनाने और बेचने का ही काम नहीं करता है बल्कि वह खतरनाक खेल खेल कर अपने हथियारों को बेचने के लिए माहौल भी बनाता है जैसा कि वह ईरान की फौजी ताकत और इसके परमाणु कार्यक्रम का हव्वा खड़ा करके कई वर्षों से खाड़ी देशों को हथियार बेच रहा है।
`बिना मर्द के बच्चा पैदा कर सकेंगी कुंआरी लड़कियां, आश्चर्य की बात यह है कि वह फिर भी पुंआरी ही रहेंगी' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दुनिया' ने अपनी सांझी रिपोर्ट में लिखा है कि लिंग की पहचान अब पुरानी होने लगी है। अब एक नई शुरुआत के लिए दुनिया को तैयार रहने की जरूरत है। वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि पुंआरी लड़कियां मर्द से मिले बिना बच्चे पैदा कर सकेंगी। प्रकृति ने जो व्यवस्था बनाई है, इंसान अब उसको चैलेंज करने के लिए तैयार नजर आ रहा है। यूरोप में महिलाएं आजादी की सभी हदें पार कर चुकी हैं, उनका कहना है कि हमें बच्चा हासिल करने के लिए मर्दों का गुलाम बनने की जरूरत नहीं है।
 हम आजाद हैं, हमें बच्चे की इच्छा हो तो हम मर्द से मिले बिना बच्चा पैदा कर सकेंगे। वैज्ञानिकों का मानना है कि उन्होंने अपने परीक्षण का बड़ा हिस्सा पूरा कर लिया है। ऐसे उदाहरण भी हैं जिनको वह अपने दावे के सबूत में दुनिया के सामने पेश कर सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो जमीन पर एक नई पीढ़ी वजूद में आएगी जो बिन बाप के होगी। ऐसे बच्चों की देखभाल कौन करेगा और पारिवारिक व्यवस्था कैसे बनी रहेगी, के सवाल ने बुद्धिजीवियों को परेशान कर रखा है।

इस साजिश का मकसद क्या है?

यूरोप ओर अमेरिका में एक गिरोह मौजूद है, जो थोड़े-थोड़े अंतराल पर बहुत सोच-समझकर पैगंबर इसलाम की निंदा करता है। कभी काटरून द्वारा तो कभी फिल्म द्वारा या फिर किसी और तरह से। सवाल यह है कि इस साजिश का मकसद क्या है?
 पैगंबर इसलाम की निंदा पर आधारित अमेरिकी फिल्म पर मुसलिम जमाअतों के पदाधिकारियों के विचारों को लगभग सभी उर्दू अखबारों ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है। इन सभी जिम्मेदारों ने जहां इस निंदनीय फिल्म पर शांति के साथ विरोध प्रदर्शन करने का सर्मथन किया, वहीं हिंसक घटनाओं की आलोचना भी की। इसी के साथ अमेरिका से अपनी नीति पर पुनर्विचार करने का भी आग्रह किया। जमाअत इसलामी हिंद के अमीर मौलाना सैयद जलालउद्दीन उमरी ने कहा कि इसलाम और उसके पैगंबर के मान-सम्मान को पहले भी प्रभावित करने का षड्यंत्र रचा गया, जो नाकाम रहा और आज भी कोई शक्ति पैगंबर की र्मयादा को नुकसान पहुंचाने में कामयाब नहीं हो सकती। जमाअत इसलामी के अमीर ने अमेरिका की निंदनीय फिल्म पर हो रहे धरने-प्रदर्शन पर कहा कि हमें ऐसे काम से बचना चाहिए, जिससे मिल्लत की र्मयादा पर पर आंच आती हो। यह बात सही नहीं होगी कि अपराध कोई करे और सजा दूसरे को दी जाए। इससे इसलाम की छवि बिगड़ती है। मौलाना उमरी ने इसलामी संगठनों से अपील की कि वे दीन-ए-इसलाम को दूसरों तक पहुंचाने की अपनी जिम्मेदारी पहले से अधिक महसूस करें, ताकि आम लोग इसलाम की वास्तविक शिक्षाओं से परिचित हो सकें और अमेरिकी फिल्म जैसी घटना न दोहराईजा सके।

दैनिक ‘जदीद मेल’ में जफर आगा ने पहले पेज पर प्रकाशित अपने विशेष लेख ‘खुदा के लिए पश्चिमी देशों की साजिश का शिकार मत बनिए’ शीर्षक से लिखा है कि पैगंबर की निंदा का मुद्दा मुसलमानों की वह नस है, जो थोड़ा-सा दबाते ही फड़क उठती है। इस परिप्रेक्ष्य में दो बातें बिल्कुल साफ उभरकर सामने आती हैं। एक यह कि यूरोप ओर अमेरिका में एक गिरोह मौजूद है, जो थोड़े-थोड़े अंतराल पर बहुत सोच-समझकर पैगंबर की निंदा करता है। कभी काटरून द्वारा तो कभी फिल्म द्वारा या फिर किसी और तरह से। सवाल यह है कि इस षड्यंत्र का मकसद क्या है? पैगंबर की निंदा के बाद की घटनाओं में मुसलमानों की प्रतिक्रिया पर नजर डालिए। लाखों या हजारों की भीड़ गुस्से से बेकाबू, अमेरिकी उच्चायोग पर धावा बोल रही है। पूरी भीड़ में किसी को होश नहीं, तोड़फोड़, पुलिस से जंग में व्यस्त एक ऐसा दृश्य नजर आता है, जैसे यह वहशी भीड़ हो, जो गुस्से में होश खोकर वहशी अंदाज में आतंक पर उतर आया है। पैगंबर की निंदा का यही मकसद है। यही तो षड्यंत्र है। पहले फिल्म बनाओ, काटरून बनाओ और जब मुसलमान विरोध-प्रदर्शन में अपना आपा खो बैठें, तो उसकी फिल्म बनाओ और विभिन्न संचार माध्यमों से इसका प्रचार करो।

‘आर्थिक आत्महत्या की ओर बढ़ते कदम’ शीर्षक से दैनिक ‘इंकलाब’ ने संपादकीय में लिखा है कि अर्थव्यवस्था का मामला भी बिल्कुल अलग है। सरकार ने जब डीजल के दाम बढ़ाए और रसोई गैस की सुविधा कम की, तब आर्थिक विशेषज्ञों ने सरकार की इस जनविरोधी पहल का स्वागत करते हुए यहां तक कहा कि यह सही दिशा में उठाया जाने वाला छोटा-सा कदम है। सरकार को और कड़े कदम उठाने होंगे। जनता की चमड़ी उधेड़कर यदि कोई अर्थव्यवस्था और इसके चलते कोई लोकतांत्रिक सरकार पनप सकती है, तो यह अपनी तरह का पहला और नया मामला होगा। लोकतंत्र में जनता की भावनाओं के साथ-साथ उसके हितों का भी ख्याल रखा जाता है। जहां तक सवाल आर्थिक घाटे का है, जिसके कारण हमारी आर्थिक अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है और वैश्विक संस्थानों ने हमें तीखी नजरों से देखना शुरू कर दिया है, तो इस घाटे को कम करने के और भी उपाय हो सकते हैं। सरकार उन पर अमल क्यों नहीं कर रही है? सरकार अपने खचरें में कटौती करे। सरकार जनता के वोटों से चुनी जाती है या पेट्रोलियम कंपनियों के वोटों से?

दैनिक ‘जदीद खबर’ ने भी अपने संपादकीय में डीजल की बढ़ी कीमतों पर चर्चा करते हुए लिखा है कि जनता को दी जाने वाली सब्सिडी के बारे में तो कहा जाता है कि इसके कारण अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है, लेकिन भ्रष्टाचार में लाखों-करोड़ों रुपयों का घोटाला हो रहा है, वह किसी को दिखाई नहीं देता। इसका कारण यह है कि यह रुपया कॉरपोरेट घराने, नेता और दलाल हजम कर जाते हैं। आम आदमी को चंद सौ रुपयों की सब्सिडी दी जाती है, तो इसे न तो सरकार सहन करने को तैयार है और न योजना आयोग को अच्छा लगता है। सरकार भूल गई कि जब फैसले का अधिकार जनता के हाथ में होगा, तो वह भी सख्त फैसला करने से परहेज नहीं करेगी।

इसके विपरीत दैनिक ‘अखबारे मशरिक’ ने अपने संपादकीय में लिखा है कि सरकार ने डीजल की कीमत में वृद्धि और रसोई गैस पर से बड़ी हद तक सब्सिडी खत्म करके एक मजबूत कदम उठाया है। सरकार अपने फैसले पर अडिग है। इस पर सरकार को जमे रहना चाहिए और दाएं-बाएं न देखकर सीधे रास्ते पर अपनी गाड़ी हांकते रहना चाहिए।

यूरोप ओर अमेरिका में एक गिरोह मौजूद है, जो थोड़े-थोड़े अंतराल पर बहुत सोच-समझकर पैगंबर इसलाम की निंदा करता है। कभी काटरून द्वारा तो कभी फिल्म द्वारा या फिर किसी और तरह से। सवाल यह है कि इस साजिश का मकसद क्या है?

Monday, September 17, 2012

`किराए की कोख भलाई का माध्यम या कारोबार का साधन'


भारत में किराए की बढ़ती कोख के चलन पर चर्चा करते हुए भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ एवं इस्लामी विद्वान मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी ने दैनिक `अखबारे मशरिक' में लिखा है कि भारत में 2007 में शुरू की गई यह मुहिम जो कई स्तरों पर शुरू की गई थी, ने कारोबारी रूप धारण कर लिया है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में यह कारोबार वार्षिक 45 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है और स्वास्थ्य मंत्रालय भी इस धंधे में शामिल हो गया है। गत दिनों कारोबारी मानसिकता वाला नं. एक राज्य गुजरात के आनंद से इस तरह की खबरें आई थीं कि एक हवेलीनुमा मकान में औरतों को जमा करके उन्हें ठेकेदारों ने औने-पौने दाम देकर किराए की कोख देने के लिए राजी कर लिया था। यह कोई तरस खाकर मानवता के लिए औलाद देने का मामला नहीं है बल्कि यह धंधे की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है। धार्मिक पहलू से तो यह सवाल अहम ही है कि किराए की कोख से पौदा होने वाला बच्चा वास्तव में किसका है, विरासत, जायदाद में हिस्से को लेकर सवाल उठना बिल्कुल स्वाभाविक है लेकिन भारत के पास सूचना है कि बंगलादेश, पाकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल देशों में भी यह धंधा खूब फल-फूल रहा है। दलाल, ठेकेदार और डाक्टरों की मिलीभगत से यह कारोबार इतना जोर पकड़ चुका है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक अकेले भारत में किराए की कोख द्वारा 25 हजार बच्चे पैदा किए जा रहे हैं।
इस कारोबार में डाक्टरों और ठेकेदारों को भारी रकम मिलती है जिससे दोनों पर कारोबारी मानसिकता पूरी तरह हावी हो गई है। औरत की बच्चादानी गोदाम का रूप लेती जा रही है, क्या औरत को सशक्तिकरण बनाने का मतलब इतना भोंडा हो सकता है, साथ ही इस पेशे और कारोबार से जुड़े डाक्टरों की समाज में क्या छवि बन रही है। साइंसी उन्नति और आविष्कार का इससे ज्यादा गलत इस्तेमाल और क्या हो सकता है।
`पूरी दुनिया में मुसलमान परेशान' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि एक तरफ फलस्तीन में मुसलमानों का खून इस्राइल बहा रहा है। अमेरिका के डर की वजह से दुनिया के सभी देश ईमानदारी से दामन बचा रहे हैं और फलस्तीन के मामले पर खामोश हैं। हमारे देश भारत में भी मुसलमानों को नई-नई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। म्यांमार का एक आतंकवादी संगठन जिस पर संयुक्त राष्ट्र ने प्रतिबंध लगा रखा है वहां दंगों की जिम्मेवार है और मुसलमानों का कत्ल कर रही है। अब तक ढाई हजार मुसलमानों के मारे जाने की सरकारी खबर है जबकि गैर-सरकारी सूचना के अनुसार यह संख्या कई गुना ज्यादा है। तथाकथित तौर पर ज्ञात हुआ है कि इस प्रतिबंधित संगठन को वहां की सरकार का समर्थन प्राप्त है। लेकिन अफसोस है कि संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका जैसे देशों की नजर मुसलमानों की हत्या पर क्यों नहीं जाती, जबकि यदि एक इस्राइली कहीं मारा जाए तो अमेरिका चीख उठता है। क्या अमेरिका और इस्राइल के इंसान ही इंसान हैं बाकी दुनिया में इंसान नहीं हैं या दुनिया में मुसलमान इंसान नहीं हैं। आंकड़ों के अनुसार म्यांमार में अब तक 12000 मुसलमानों को बर्मा फौज मार चुकी है। कुछ बस्तियां तो ऐसी हैं जहां मुसलमानों का नाम व निशान तक मिटा दिया गया है।
मुंबई के आजाद मैदान में मुसलमानों द्वारा असम दंगों को मीडिया में नहीं दिखाए जाने पर विरोध प्रदर्शन के समय हुई घटना पर `मीडिया और मुसलमान' के शीर्षक से दैनिक`जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में  लिखा है कि असम में योजनाबद्ध तरीके से मुसलमानों का नरसंहार किया गया।  हजारों मुसलमान बेघर हो गए, उनके घरों को जला दिया गया। दर्जनों मारे गए लेकिन राष्ट्रीय स्तर के मीडिया की ओर से इन घटनाओं की रिपोर्टिंग जरूरी नहीं समझी गई। इससे मुसलमानों में बेचैनी पैदा हुई। मुंबई का विरोध प्रदर्शन अचानक हिंसक हो गया। पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी, दो व्यक्ति मारे गए और 50 से अधिक जख्मी हुए। पुलिस और प्रचार-प्रसार की कुछ गाड़ियों को भी भीड़ ने जला दिया। यह असम घटनाओं पर नाराजगी थी। मीडिया में इस विरोध प्रदर्शन की जिस तरह रिपोर्टिंग की गई है वह सही नहीं है। कुछ अखबारों और टीवी चैनल ने इसे बढ़ाचढ़ा कर पेश करने की कोशिश की और कहा गया कि मुस्लिम युवक रोष की हालत में तेज धार हथियार लेकर सड़कों पर उतर आए थे। यह बिल्कुल गलत है।
कहीं भी मुसलमानों ने हथियार के साथ विरोध प्रदर्शन नहीं किया। मुसलमान शांति के साथ असम के मुसलमानों से हमदर्दी और प्रशासन व पुलिस की बेरुखी के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। मुंबई में हिंसा फूट पड़ी। यह निंदनीय है और इसे किसी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। मीडिया को अपनी जिम्मेदारी का एहसास करते हुए भेदभाव और संकीर्ण सोच वाले रुझान को खत्म करना होगा, यह मीडिया की जिम्मेदारी है।
`मोदी की दाढ़ी में तिनका, सांप्रदायिक तत्वों' के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाओ' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दुनिया' ने अहमदाबाद के अपने नुमाइंदे की रिपोर्ट के हवाले से लिखा है कि नरेन्द्र मोदी ने अपने सुझाव में कहा है कि जो सांप्रदायिक दंगों में  लिप्त रहने का आदी होगा, उसको चुनाव में हिस्सा नहीं लेने देना चाहिए और इस बाबत यह भी स्पष्टीकरण दिया गया है कि इसका संबंध फंडामेंटलिस्ट पालिटिक्स और मिलीटेंट फंडामेंटलिज्म से संबंध रहा हो, लेकिन इसमें यह स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है कि सांप्रदायिक हिंसा के दोषी वह किसको करार देते हैं। क्या एक ऐसा व्यक्ति, जिसके सांप्रदायिक दंगों में लिप्त होने का आरोप साबित हो गया है या फिर वह व्यक्ति जिसके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई है।
`भागवत के नीतीश प्रेम के पीछे क्या रणनीति है' के शीर्षक से दैनिक `वीर अर्जुन' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में प्रस्तावित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों को लेकर घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा है। मोदी बनाम नीतीश की लड़ाई खुलकर सामने आ चुकी है। इन सबके बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने सुशासन में बिहार को गुजरात से बेहतर बताकर एक नया विवाद पैदा कर दिया। यह संभव है कि मोहन भागवत ने ऐसा बयान नीतीश कुमार को शांत करने के लिए दिया हो। मोहन भागवत ने बिहार में संघ प्रचारक के पद पर  लगभग 10 साल तक काम किया है। वह नहीं चाहते कि अब लोकसभा चुनावों को दो साल से कम का समय रह गया है भाजपा और राजग के दूसरे सबसे बड़े घटक दल जनता दल (यू) में दरार बढ़े। इससे कांग्रेस को लाभ होगा। भागवत के बयान को इसलिए नीतीश को मनाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।

असम समस्या और समाधान की संभावना


कोयला घोटाले के चलते संसद का कामकाज ठप है। इस पर चर्चा करते हुए दैनिक`जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि जिस तरह भारत में भ्रष्टाचार को खत्म करने का आंदोलन जोर पकड़ रहा है और जनता उससे जुड़ रही है उसी तरह देश में एक के बाद एक घोटाले सामने आ रहे हैं। कोयला घोटाले में सीधे तौर पर प्रधानमंत्री को निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि इससे सरकारी कोष को 1.86 लाख करोड़ रुपए का नुकसान बताया जा रहा है। इसे सरकार की ही एक संस्था कैग ने उजागर किया है। विपक्ष की आलोचनाओं और मांगों की अनदेखी कर सरकार ने इस पूरे मामले में मौन धारण कर रखा है इसकी ओर से कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया जा रहा है। कैग एक सरकारी संस्था है और कई अवसरों पर सरकार ने स्वयं ही इस संस्था की रिपोर्टों का केडिट लिया है इसलिए अब जो कुछ सामने आया है उस पर भी सरकार को स्पष्टीकरण देना चाहिए। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के पास कोयला मंत्रालय है और उनके सहयोगी मंत्री भी रह चुके हैं कि यह सारा अलाटमेंट मनमोहन सिंह की मर्जी से हुआ है।
ऐसे में सरकार की खामोशी का कोई औचित्य नहीं हो सकता और यह खामोशी भी खुद प्रधानमंत्री को तोड़नी चाहिए। भारत में आज भी करोड़ों लोग दो जून की रोटी हासिल नहीं कर पाते हैं वहां इतनी बड़ी राशि का सरकारी कोष को नुकसान पहुंचाने वालों को माफ नहीं किया जा सकता चाहे यह कितने ही उच्च पदों पर क्यों न आसीन हों।
`असम समस्या और समाधान की संभावना' पर चर्चा करते हुए मर्पजी जमीअत अहले हदीस हिंद के महासचिव मौलाना असगर इमाम मेंहदी सलफी ने अपने समीक्षात्मक लेख में लिखा है कि असम की वर्तमान समस्या बुनियादी तौर पर कानूनी और सियासी है। यह बोडो और गैर बोडो समुदाय के बीच है। इसे हिन्दू-मुस्लिम या बंगलादेशी संदर्भ में देखना किसी लिहाज से सही नहीं है। यही कारण है कि सिनथाली एवं अन्य आदिवासियों और समुदायों की भी बहुत बड़ी संख्या समय-समय पर निशाना बनती रहती है। इसलिए सत्ता पक्ष को चाहिए कि वह बोडो काउंसिल की प्राकृतिक संरचना और ढांचे पर पुनर्विचार करें और वहां मौजूद सभी लोगों की समानुपातिक प्रतिनिधित्व को निश्चित बनाएं। ज्ञात रहे कि 2003 की बोडो संधि के तहत संविधान में संशोधन प्रस्ताव के तहत 46 सदस्यीय बोडोलैंड टेरिटोरियल काउंसिल वजूद में लाई गई थी। गोहाटी के एक वकील के हवाले से मौलाना असगर ने लिखा है कि यह संशोधन ही असंवैधानिक है और इसे सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज करने की जरूरत है क्योंकि इसे संसद के दो तिहाई वोट से ही संशोधित किया जा सकता है जो कि वर्तमान में संभव नजर नहीं आ रहा है। इसके तहत उपरोक्त काउंसिल के अंदर 73 फीसदी गैर बोडो अधिकारहीन और 27 फीसदी बोडो अधिकार प्राप्त कर चुके हैं।
असम समस्या पर कुछ मुस्लिम नेताओं और पार्टियों की ओर से हो रही राजनीति पर चर्चा करते हुए दैनिक `सहाफत' में मोहम्मद अनस सिद्दीकी ने `असम हिंसा पर सियासी कदमताल, माल एनसीपी का और ब्रांड फाउंडेशन की' के शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि असम जाने से पूर्व ख्वाजा गरीब नवाज फाउंडेशन के अध्यक्ष मौलाना अनसार रजा खां ने अखबारों द्वारा मुसलमानों से जकात और सदाकात देने की अपील की थी लेकिन असम वापसी के बाद उनकी तरफ से जो बयान सामने आया, आश्चर्यजनक तौर पर इसमें वहां किसी तरह की कोई सहायता देने का जिक्र नहीं था। इसके विपरीत इस प्रतिनिधिमंडल को एनसीपी अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ का बताया गया लेकिन एनसीपी की ओर से भी असम हिंसा में पीड़ितों को किसी प्रकार की सहायता देने का कोई जिक्र या बयान पढ़ने और सुनने को नहीं मिला। सवाल यह है कि गरीब नवाज फाउंडेशन की अगुवाई में एनसीपी अल्संख्यक प्रकोष्ठ का डेलीगेशन असम क्या करने गया था? यदि उसने वहां किसी तरह की सहायता सामग्री नहीं दी तो क्या इसने हालात की समीक्षा कर अपनी कोई रिपोर्ट पार्टी को दी, के सवाल पर एनसीपी अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय अध्यक्ष जफर अख्तर कहते हैं कि हमने इस डेलीगेशन को दो दिन में अपनी रिपोर्ट देने को कहा है लेकिन दौरे के 11 दिन गुजर जाने के बाद भी इस डेलीगेशन ने कोई रिपोर्ट नहीं दी। यह तो एनसीपी ही बताए कि उसने पार्टी फंड से इस डेलीगेशन को असम का दौरा करने की इजाजत क्यों दी? पार्टी जवाबदेही से अपना दामन नहीं बचा सकती है।
`कैग के खिलाफ हमला' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट संसद में पेश होते ही कांग्रेस और केंद्र सरकार के मंत्रियों ने इस संवैधानिक संस्था के खिलाफ हमला बोल कर अपनी ही फजीहत करानी शुरू कर दी है। कैग किसी सरकार के रहमोकरम पर निर्भर नहीं होती। इसका गठन संविधान के पांचवें अध्याय के अनुच्छेद 149, 150 और 151 के तहत हुआ है। जिस तरह से देश में संसद का महत्व है, न्यायपालिका का महत्व है ठीक उसी प्रकार कैग का भी महत्व है। कांग्रेस की जब-जब सरकारें रही हैं और कोई घपला-घोटाला कैग रिपोर्ट द्वारा उजागर किया गया है तो यह सब कैग पर ही पिल पड़ते हैं। 1984 से 1980 तक के कैग महानिदेशक त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी के साथ भी यही हुआ था। तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने बोफोर्स तौप सौदे में हुए घोटाले की रिपोर्ट को तो गलत बताया ही तत्कालीन महानिदेशक को भी अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया। 2जी और कामनवेल्थ खेल घोटाले में कैग रिपोर्ट पर टिप्पणी की गई।
कैग महानिदेशक को विपक्ष का एजेंट तक बताया गया। बेशर्मी की हद तो तब हो गई जब कपिल सिब्बल जैसे मंत्री ने यहां तक कह डाला कि 2जी में एक भी पैसे का नुकसान सरकार को नहीं हुआ।
`प्रधानमंत्री से इस्तीफे की मांग क्यों' के शीर्षक से हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक`ऐतमाद' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि आश्चर्यजनक तौर पर कैग अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों की अनदेखी कर सरकार से मुकाबले पर उतर आई है। कोयला गेट में 35 बिलियन डालर घोटाले की बात की जा रही है, अंबिका सोनी के मुताबिक इसका सुबूत क्या है? और जैसा कि केंद्रीय संचार मंत्री बंसल ने कहा है कि कोयला निकालने का काम भाजपा शासित राज्यों में भी हुआ है। इन राज्यों के बारे में भाजपा ने अपना कोई दृष्टिकोण नहीं व्यक्त किया है।
सरकार ने भाजपा और अन्य पार्टियों से कोल गेट पर बहस की दावत दी है। इस पर सकारात्मक बहस होनी चाहिए। भाजपा के कहने पर यदि प्रधानमंत्री ने इस्तीफा दे दिया तो इससे  देश में एक गलत मिसाल कायम होगी। प्रधानमंत्री को भी अपनी सफाई का पूरा मौका मिलना चाहिए।

Sunday, September 16, 2012

असम हिंसा में राज्य सरकार को मुशावरत की क्लीन चिट


हामिद अंसारी के दूसरी बार उपराष्ट्रपति बनने का स्वागत करते हुए दैनिक `जदीद मेल' ने लिखा है कि वह स्वतंत्र भारत के 14वें उपराष्ट्रपति हैं और एक मुसलमान के नाते वह दूसरे मुस्लिम हैं। इनसे पूर्व स्वर्गीय जाकिर हुसैन उपराष्ट्रपति रहे थे जो बाद में राष्ट्रपति बने। जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद और एपीजे अब्दुल कलाम तीन ऐसे मुस्लिम हैं जो राष्ट्रपति रहे हैं। अब तक दो मुस्लिम चीफ जस्टिस हिदायत उल्ला बेग और जस्टिस एएम अहमदी रह चुके हैं। इदरीस हसन लतीफ देश की वायुसेना के चीफ रहे हैं। फौज का चीफ अभी तक कोई मुसलमान नहीं हुआ लेकिन अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति जनरल जमीरउद्दीन शाह फौज के उप चीफ रह चुके हैं। भारतीय लोकतंत्र में हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए उच्च पदों के दरवाजे खुले हुए हैं और यह राष्ट्र के सेकुलर चरित्र का सुबूत है लेकिन सवाल यह है कि क्या किसी कौम की समस्याएं सत्ता के शीर्ष पदों पर असीन होने से हल हो सकते हैं। आज मुसलमान राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक हर मैदान में पिछड़ेपन की चरम सीमा पर पहुंच चुका है।
इसी स्वतंत्र और सेकुलर भारत में बाबरी मस्जिद का गिराया जाना, गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार होना और अभी दस दिन पूर्व असम में  लगभग चार लाख मुसलमानों का नस्ली हिंसा में  बेघर होना इस बात का तर्प है कि मुसलमानों के खिलाफ देश में घृणा का एक सैलाब है जो ढाढे मार रहा है। इसलिए देश हित में यही है कि हामिद अंसारी उपराष्ट्रपति के पद पर रहते देश के मुसलमानों की समस्याओं पर गंभीरतापूर्वक ध्यान दें और सच्चर कमेटी रिपोर्ट के सुझावों पर अमल कर इनकी समस्याओं को जल्द से जल्द हल करने की कोशिश की जाए।
`फिजा' में दूषित `चांद' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने अपने सम्पादकीय में 24 घंटे में हरियाणा से दोनों खबरों पर चर्चा करते हुए लिखा है कि एयर होस्टेस और फिजा दोनों की मौत में एक बात संयुक्त यह है कि इसका आरोप ऐसे वर्ग पर जाता है जिस पर कानून बनाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी है। दोनों की कहानी में बहुत ज्यादा फर्प नहीं है। अनुराधा उर्प फिजा हरियाणा की पूर्व सहायक एडवोकेट जनरल थीं और राज्य के उपमुख्यमंत्री की मोहब्बत में फंस गई थी। शादी के लिए इस्लाम धर्म स्वीकार करने का ड्रामा रचा क्योंकि धर्म परिवर्तन के बिना शादी संभव नहीं थी। अनुराधा ने फिजा और चंद्र मोहन ने चांद मोहम्मद का चोला पहन शादी का स्वांग रचा, लेकिन यह रिश्ता 40 दिन से ज्यादा न चला और तलाक हो गई। इन दोनों में दूरी क्यों हुई, इस पर किसी चर्चा की जरूरत नहीं है और न ही यह बताने की जरूरत है कि अनुराधा की जिंदगी में उसके इतने ज्यादा नकारात्मक प्रभाव पड़े कि उसने आत्महत्या कर अपनी जिंदगी को खत्म कर लिया। यह संयोग ही है कि अनुराधा की जान भी एक नेता के चक्कर में गई जबकि गीतिका की जान भी एक नेता के कारण गई। इन घटनाओं में उन राजनेताओं का लिप्त होना निश्चय ही चिंता का विषय है जो विधानसभा के सदस्य हैं और जिन पर कानून बनाने की अतिरिक्त जिम्मेदारी भी है। जब इस तरह के लोग कानून बनाएंगे तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि समाज किस रास्ते पर चलेगा और महिलाओं की आबरू किस हद तक सुरक्षित रहेगी?
असम दंगों पर चर्चा करते हुए मोहम्मद रियाज अहमद ने लिखा है कि असम में योजनाबद्ध तरीके से मुसलमानों का मारा गया, उनके मकान जलाए गए। 20 जुलाई से लगातार दस दिन तक बोडो टेरीटोरियल आटोनामी डिस्ट्रिक्ट्स (ँऊAअ) में मुसलमानों का खून बहाया गया। इसके बावजूद कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने आपराधिक खामोशी अख्तियार की। कोकराझार एवं अन्य जिलों में मुसलमानों की जो तबाही हुई है उसमें गोगोई की भूमिका संदिग्ध हो गई है। क्योंकि पुलिस ने मौजूद कुछ मानवतावादी और शिक्षिक पदाधिकारियों के हवाले से सूत्रों न रहस्योद्घाटन किया है कि इन पुलिस अधिकारियों को हिंसा भड़काने वालों के खिलाफ किसी भी कार्यवाही न करने की हिदायत दी गई थी इनसे स्पष्ट तौर पर कह दिया गया था कि बोडो आतंकवादी जो कर रहे हैं उनके इस काम (मुसलमानों का नरसंहार) में रुकावट न डाली जाए। यह हिदायत किसने दी? क्यों दी और इसका मकसद क्या है? इस बारे में उच्च स्तरीय जांच जरूरी है। वैसे भी कोकराझार में मुसलमानों का कत्ल कोई नई बात नहीं है। वर्तमान नस्ली हिंसा से `नेली' में 18 फरवरी 1983 को मुसलमानों के बर्बरतापूर्वक किए कत्ल की याद ताजा हो गई। 18 फरवरी को चुनाव के दिन लगभग सुबह 9 बजे एक भीड़ ने नेली और आसपास के देहातों पर हमला कर दिया और 6 घंटों तक मुसलमानों का कत्ल होता रहा। इसमें 2191 मुसलमानों के शहीद होने की पुष्टि की गई लेकिन गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 5 से 10 हजार मुसलमानों को मौत के घाट उतारा गया। इस घटना पर 378 मुकदमे दर्ज किए गए लेकिन राजीव गांधी के साथ आंसु संधि के दौरान इन मुकदमों को खत्म कर दिया गया।
`असम हिंसा पर गोगोई सरकार को क्लीन चिट' दिए जाने पर मोहम्मद अहमद ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत ने आज कहा है कि यह कहना कि असम हिंसा गोगोई सरकार की सरपरस्ती में हुई है बिल्कुल गलत होगा। मुशावरत के अध्यक्ष डॉ. जफरुल इस्लाम खां ने असम से वापसी के बाद आज मुशावरत के मुख्यालय में पत्रकारों से बातचीत में कहा कि हम राज्य सरकार के खिलाफ कोई मुकदमा कर ही नहीं सकते, क्योंकि वह इस हिंसा के लिए जिम्मेदारी नहीं है। उन्होनें बोडो लीडरशिप (बीटीसी) को भी क्लीन चिट देने की कोशिश करते हुए कहा कि इनकी लीडरशिप से बात करने के बाद ऐसा लगता है कि वह भी इस हिंसा पर शर्मिंदा है और चाहते हैं कि जल्द से जल्द लोग अपने घरों को लौट आएं क्योंकि यदि मुसलमान वापस नहीं आएंगे तो उनके क्षेत्रों में विकास रुक जाएगा।
उन्होंने इस हिंसा को गुजरात से जोड़ने की बात को भी सिरे से खारिज करते हुए कहा कि गुजरात दंगे मोदी की सरपरस्ती में हुआ था, लेकिन इसमें सरकार (गोगोई) शामिल नहीं हैं। उल्लेखनीय है कि जमीअत उलेमा हिंद (अरशद मदनी) के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने असम से वापसी के बाद असम हिंसा को गुजरात हिंसा की तर्ज पर बताया था। जिसका मुशावरत ने खंडन कर दिया।
`अन्ना ने टीम भंग तो कर दी पर अब क्या होगा?' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि सोमवार को अन्ना हजारे ने अपनी टीम भंग करने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि जन लोकपाल के लिए टीम अन्ना बनाई गई थी और अब चूंकि सरकार से इस विषय पर कोई बातचीत नहीं होनी है इसलिए टीम अन्ना के नाम से शुरू हुए काम खत्म होता है और समिति भी समाप्त होती है। उन्होंने कहा कि अब चुनावी तैयारी शुरू होगी। टीम अन्ना कुछ मुद्दों को लेकर चल रही है, ऐसे में जातिवाद के जिन्न से कैसे निपटेगी?
अन्ना खुद कह चुके हैं कि वह तो नगर पालिका का चुनाव भी नहीं जीत सकते, ऐसे में लोकसभा की कितनी सीट जीत पाएंगे? प्रत्याशियों का चयन भी बड़ा काम होता है। राजनीतिक संगठन बनाने या चुनाव लड़ने के लिए पैसा, साधन चाहिए, यह कहां से आएगा? इसलिए भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन को राजनीतिक विकल्प के रूप में आगे बढ़ाना आसान नहीं होगा? वैसे यह चुनौती अकेले इस आंदोलन की नहीं बल्कि देश के लोकतांत्रिक भविष्य की भी है।