Sunday, February 17, 2013

राक बैंड पर मुफ्ती का फतवा


कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम पर हुए विवाद पर चर्चा करते हुए आल इंडिया वुमेन पर्सनला बोर्ड की अध्यक्षा शाइस्ता अंबर ने दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' के अपने लेख में लिखा है कि इस फिल्म में सभी मुसलमानों की छवि को बिगाड़ने की एक कोशिश है। इस फिल्म में दुनिया के सभी मुसलमानों को आतंकवादी बताया गया है और उन्हें कुछ इस अंदाज में पेश किया गया है कि यदि इस फिल्म को कोई गैर मुस्लिम देखेगा तो निश्चय ही मुस्लिम पड़ोसी उसकी नजर में संदिग्ध हो जाएगा। इसमें एक मुस्लिम पात्र को कुरआन पढ़ने के बाद बम धमाका करते हुए दिखाया गया है। इस तरह फिल्म निर्माता यह बताना चाहता है कि कुरआन शरीफ आतंक का गाइड है जो कि बिल्कुल गलत  बात है। फिल्म में मुस्लिम पात्रों को नमाज पढ़ने के बाद बम रखते हुए दिखाया गया है। छोटे बच्चों की आंख बंद करके हथियार पहुंचाते हुए दृश्य दिखाया गया है। यहां तक कि कारतूसों को सिर्प छूकर उसका नाम बताने की बात कही गई है। अर्थात मुसलमानों को बचपन से ही आतंकवाद की ट्रेनिंग मिल रही है। इस तरह के कई दृश्य फिल्म में मौजूद हैं जिससे मुसलमानों की छवि खराब करने की कोशिश की गई है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर एक विशेष समुदाय को निशाना बनाना कहां का लोकतंत्र है। कमल हासन रोना रोते हैं कि इस फिल्म में उन्होंने अपनी पूरी पूंजी लगा दी तो क्या मुसलमानों की भावनाओं से ऊपर उनका पैसा है। पैसे से देश की एकता को खत्म करने की कोई इजाजत नहीं दे सकता। जिस तरह बुद्धिजीवी वर्ग विश्वरूपम को लेकर  परेशान है यदि यह वर्ग मुसलमानों की सही सूरतेहाल पर भी आवाज उठाता तो शायद देश में मुस्लिम विरोधी माहौल बनाने वालों का मनोबल टूटता। लेकिन जिस तरह यह तथाकथित वर्ग सेकुलरिज्म की दुहाई देकर इस्लाम विरोधी लेखनी, फिल्मों और कार्टूनों का मनोबल बढ़ा रहा है यह देश की गगनचुंभी सभ्यता ही नहीं  बल्कि उपमहाद्वीप की संस्कृति को भी किसी न किसी तरह नुकसान पहुंचा रहा है।
जयपुर के साहित्यिक मेले पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील शम्सी अपने बहुचर्चित स्तम्भ में लिखते हैं कि आजकल साहित्य का एक और अर्थ हो गया है और उसका नाम है साहित्य द्वारा दिल दुखाना। साहित्य द्वारा दिल दुखाने वाले साहित्यकारों को बड़े-बड़े पुरस्कार और खिताब दिए जाते हैं। इन साहित्यकारों का यह पैदाइशी हक माना जाता है कि वह किसी भी धार्मिक समूह की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दिल दुखाने वाला यह वर्ग अपने को दुनिया के सभी कानूनों से ऊपर समझता है। हमारे देश में भी अब यह समझा जाने लगा है कि साहित्यकार और लेखक किसी भी धार्मिक समूह अथवा अल्पसंख्यकों का दिल दुखाने का हक रखते हैं। जयपुर में इसी मकसद के तहत एक साहित्यिक मेला भी हर साल सम्पन्न होने लगा है। गत वर्ष इसमें भाग लेने के लिए रुशदी को बुलाया गया था लेकिन मुसलमानों के विरोध के चलते वह शरीक नहीं हो सका। अपने प्रयासों में नाकाम होने के बाद कई तथाकथित साहित्यकारों ने विरोध करते हुए रुशदी की विवादित किताब के कुछ अंश पेश किए और इसकी हमारे देश के मीडिया ने खूब प्रशंसा की। इस बार इस मेले में रुशदी भाग लेने आया और मुसलमानों के दिलों पर कांग्रेस की मदद से तीर चलाने में कामयाब रहा। मेले में मौजूद आशीष नंदी जो उच्च जाति से संबंध रखते हैं और इनके दिल में दलितों और पिछड़ों के लिए जो घृणा मौजूद है वह उनकी जुबान पर आ गई। वही चैनल जो मुसलमानों का दिल दुखाने वाले रुशदी को हीरो बना पेश करते थे वही आशीष नंदी के खिलाफ मैदान में उतर आए। खुशी की बात है कि देश में इंसानों के समूह के खिलाफ बोलने वालों को जेल भेजे जाने की वकालत हो रही है। इस अवसर पर हम दुआ करते हैं कि काश!  ऐसा दिन आए जब पैगम्बर इस्लाम का अनादर करने वालों को यहां मेहमान न बनाया जाए बल्कि उनको गिरफ्तार भी किया जाए।
`दुष्कर्म जैसे अपराध के बढ़ते रुझान के लिए क्या कोई सभ्यता जिम्मेदार है?' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि अपराध के कारणों के संबंध में वैदिक साहित्य का नाम लेकर दलित बुद्धिजीवी कांचा अलिया ने बहस को एक नया रुख दे दिया है। उनके इस बयान की भर्त्सना हो रही है लेकिन न तो किसी ने उन्हें झूठा बताया और न उनके बयान को ऐतिहासिक और धार्मिक आधार पर गलत बताया अर्थात कांचा अलिया ने वैदिक साहित्य के बारे में जो कुछ कहा वह सही था, मतभेद इस बात पर था कि वैदिक साहित्य का प्रभाव आज भी पाया जाता या नहीं। कुछ समय पूर्व मशहूर वकील राम जेठमलानी ने भी श्री रामचन्द्र जी के भी कुछ पहलुओं पर आपत्ति की थी जिस पर काफी विरोध हुआ था लेकिन उस समय भी न तो किसी ने उन्हें झूठा बताया और न ही आपत्ति को दूर करने की कोशिश की। उपरोक्त मामले में भी कांचा अलिया के रहस्योद्घाटन के खंडन में हिन्दू धार्मिक गुरू का कोई बयान सुनने या पढ़ने में नहीं आया है।
वैदिक धर्म क्या है? वह मानव का किस तरह मार्गदर्शन करता है? इस पर विचार व्यक्त करने का हक तो हिन्दू धार्मिक गुरुओं का ही है और वही इसको सही तौर पर परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन इस देश की प्राचीन संस्कृति का बहुत प्रचार किया जाता है जिस पर कुछ लोगों द्वारा गर्व किया जाता है। इसकी कुछ बातों से सभी लोग परिचित हैं जैसे सती प्रथा, देवदासी प्रथा, विधवाओं को मनहूस समझना, दहेज प्रथा आदि इसी प्राचीन संस्कृति की देन हैं, भले ही कानून द्वारा इन पर प्रतिबंध हो लेकिन समाज पर इसका प्रभाव बिल्कुल न हो ऐसा कहना गलत होगा बल्कि सच तो यह है कि लड़कियों को गर्भ में मार देने का एक कारण महिलाओं के प्रति उपरोक्त सोच भी है। ऐसी सूरत में वर्तमान समाज पर प्राचीन सभ्यता के इस प्रभाव को  बिल्कुल खारिज नहीं किया जा सकता। सच तो है कि इस देश की बहुसंख्या कुछ मामलों को छोड़कर व्यावहारिक जिंदगी में धर्म के मार्गदर्शन के पक्ष में नहीं है और वह पश्चिमी सभ्यता की पक्षधर है जो उसे दुनिया में ज्यादा से ज्यादा मनोरंजन करने का पाठ देती है।
आतंकवाद के संबंध में गृहमंत्री के बयान पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार शमीम तारिक ने कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' में लिखा है कि आतंकवाद के सिलसिले में किसी गैर राजनीतिक संगठन और एक राजनीतिक पार्टी का नाम लेना बहुत अहम है। पूरा विवरण गृह सचिव आरके सिंह ने पेश किया जिसका कहना है कि समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद और ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार होने वाले कम से कम 10 व्यक्ति ऐसे हैं जो किसी न किसी तरह आरएसएस से जुड़े रहे हैं। कई अन्य मंत्रियों ने भी गृहमंत्री के बयान का समर्थन किया है। अच्छा होता कि गृहमंत्री आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले इन संगठनों के खिलाफ की गई कार्यवाही भी बताते। गृहमंत्री के इस बयान के संदर्भ में यह जरूरत महसूस होती है कि कांग्रेस सरकारी और प्रशासनिक स्तर पर इस तरह की गतिविधियों को रोकने के साथ जन स्तर पर भी ऐसे कार्यक्रम करे जिससे जनता के सामने आतंकवादियों का असल चेहरा सामने आ सके। इस काम में दूसरी सेकुलर ताकतों का साथ होना भी जरूरी है। जनता दल (यू) और शिवसेना भाजपा के समर्थन में उतर आए हैं। क्या कांग्रेस सेकुलर पार्टियों का फ्रंट तैयार नहीं कर सकती? यह विचित्र बात है कि कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियां चुनाव के बाद सत्ता के लिए एक-दूसरे से हाथ मिलाती हैं लेकिन चुनाव से पूर्व सांप्रदायिकता खत्म करने के लिए संयुक्त मोर्चा बनाने और जन आंदोलन चलाने से कतराती हैं।
`कश्मीर के ग्रैंड मुफ्ती का तालिबानी फतवा' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि पड़ोसी अफगानिस्तान का तालिबानी असर कश्मीर में पड़ने लगा है। कश्मीर के ग्रैंड मुफ्ती-ए-आजम बशीरुद्दीन ने तालिबानी फतवा जारी किया। उनका कहना है कि खुलेआम तेज संगीत गैर इस्लामिक है। दरअसल कश्मीरी लड़कियों ने एक राक बैंड प्रगाश बनाया है। जिसका अर्थ होता है अंधेरे से उजाले की ओर। लेकिन उसकी यह कोशिश रुढ़ीवादी समाज के लोगों के गले नहीं उतरी। पहले उन्हें ऑनलाइन बैंड बंद करने की धमकी दी गई और फिर सोशल साइट्स पर भद्दे कमेंट किए गए। इसके बाद इनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया गया। उनका कहना है कि खुले आम तेज संगीत गैर इस्लामी है। इसलिए राक बैंड में शामिल लड़कियों को यह काम बंद कर देना चाहिए। सवाल यह है कि घाटी में नई चेतना का स्वर क्या कुछ दकियानूसी लोगों के समूह के एतराज के कारण खामोश हो जाएगा? क्या सामाजिक सांस्कृतिक जड़ता के खिलाफ संगीत को एक औजार की तरह इस्तेमाल करने का तीन लड़कियों का हौसला बीच राह में ही दम तोड़ देगा? क्या देश में सांस्कृतिक अराजकतावाद इतना मजबूत हो गया है कि कलाकारों और उनकी कला पर भी पाबंदी लगाई जाएगी? अगर ऐसा है तो हमें संदेह है कि हम क्या गुजरी सदियों की ओर नहीं बढ़ रहे हैं?

`संसद हमला इतना बड़ा और फांसी सिर्प एक को'


अफजल गुरू की फांसी पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील शम्सी ने अपने स्तंभ में लिखा है कि अफजल गुरू को मकबूल भट की तरह फांसी के बाद जेल ही में दफन कर दिया गया। जाहिर है इसकी मौत पर कश्मीर के अलगाववादी लोगों में गम का माहौल है, क्योंकि  उनकी दृष्टि में अफजल गुरू तो एक मुजाहिद था, जिसने कश्मीरियत की लड़ाई  लड़ी। दुर्भाग्य से आतंकवाद अख्तियार करने वालों की दो तस्वीरें दुनिया के सामने होती हैं। एक वर्ग उनको अत्यंत खराब इंसान मानता है जबकि दूसरा वर्ग उनको हीरो का दर्जा देता है जैसा कि पंजाब में भी हो रहा है कि वहां की शिरोमणी अकाली दल की सरकार ऐसे लोगों को शहीद का दर्जा देती है जिन्होंने देश में आतंक का नंगा नाचा दिखाया। इंदिरा गांधी के हत्यारों की तस्वीर अमृतसर के धार्मिक स्थानों पर शहीद के तौर पर लगी हुई हैं। बेअंत सिंह के हत्यारे को जिंदा शहीद का दर्जा दिया गया है। ऐसी ही हमदर्दी अफजल गुरू के साथ कश्मीर के अलगाववादियों को है और इसी कारण वहां इतनी बेचैनी है कि सरकार को पूरी घाटी में कर्फ्यू लगाना पड़ा है। जहां तक अफजल गुरू को फांसी दिए जाने का सवाल है तो भारतीय सरकार ने न्यायिक प्रक्रिया को पूरी तरह साफ रखा है और इसी कारण सजा के आदेश पर अमल होने में इतनी ज्यादा देर लगी। हमारे विचार में देरी के कारण भारत की कानूनी व्यवस्था का सम्मान बाकी रहा।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अफजल गुरू को फांसी दिया जाना कानून के सभी पहलुओं की कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं, इस पर बहस की जा सकती है और शायद की भी जाए। लेकिन एक बात तय है कि इस अचानक फैसले के पीछे सियासी पहलू छुपा हुआ है। यह बात आमतौर पर जानी जाती है कि अफजल गुरू को फांसी न दिया जाना भाजपा और शिवसेना के हाथों में एक बहुत प्रभावी हथियार बन गया था, जिसका दोनों ने कांग्रेस के खिलाफ जी भर इस्तेमाल किया और यह कहकर किया कि अफजल गुरू को फांसी इसलिए नहीं दी जा रही है कि कांग्रेस आतंकवादियों के प्रति नरमी की नीति पर काम कर रही है। इस  बाबत इस तर्प को भी चुटकियों में उड़ा दिया जाता था कि अफजल गुरू ने राष्ट्रपति से दया की अपील की थी और इनकी अपील का नम्बर पहला नहीं था। इसके पूर्व अजमल कसाब के प्रति भी भाजपा और शिवसेना का यही दृष्टिकोण था। इसलिए जब अचानक कसाब को फांसी दी गई तो भाजपा और शिवसेना सन्नाटे में आ गईं। उनका एक अहम हथियार खत्म हो गया। भाजपा यूरोपीय यूनियन की ओर से नरेन्द्र मोदी का बायकाट खत्म किए जाने को अपनी लिए और नरेन्द्र मोदी के लिए शुभ साबित करने और प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी मजबूत करने का फैसला कर चुकी थी। यदि अफजल गुरू की फांसी पर ब्रेकिंग न्यूज का दर्जा न अख्तियार कर लेती तो नरेन्द्र मोदी और उनके माध्यम से भाजपा मीडिया पर छाई रहती।
आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत (शहाबुद्दीन ग्रुप) के अध्यक्ष डॉ. जफरुल इस्लाम खां ने अपने बयान में कहा कि यह कानूनी और नैतिक स्तर पर जल्दबाजी में उठाया गया इंसाफ के विरुद्ध कदम है। अफजल ने बार-बार दावा किया था कि वह एक  पुलिस अधिकारी द्वारा भेजा गया था लेकिन इस दावे की कोई जांच नहीं की गई।
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला भी विचारणीय है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि `इस दर्दनाक घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था और हमारा समाज सिर्प इस बात पर संतुष्ट होगा कि हमला करने वालों को फांसी की सजा दी जाए।'
`संसद हमला इतना बड़ा और फांसी सिर्प एक को क्यों ' के शीर्षक से सहरोजा  `दावत'ने लिखा है कि संसद के शीत सत्र के पूर्व मुंबई हमले के आरोपी अजमल कसाब को तुरन्त 21 नवम्बर 2012 को  पुणे की जेल में फांसी दे दी गई और अब इसके ठीक 79 दिन बाद अर्थात 9 फरवरी 2013 को संसद हमला केस में अफजल गुरू को फांसी दे दी गई और इसे भी कसाब की तरह जेल में ही दफन कर इस अध्याय को बंद कर दिया गया, यह भी संयोग है कि दोनों मामलों में केवल एक-एक व्यक्ति को फांसी दी गई, जबकि इस मामले को देश-विदेश में जिस तरह पेश किया गया था, केवल एक-एक व्यक्ति की फांसी एक तरह से उसका अपमान है। इसे सांकेतिक सजा कहकर अध्याय को बंद करना ही कहेंगे।
 हमला करने वालों को फांसी तो दे दी लेकिन यह सवाल आज भी अपनी जगह है, सुरक्षा में जिन से चूक हुई या हमले की रोकथाम में सुरक्षा एजेंसियां या सरकारें नाकाम हुईं, उनको कब सजा होगी, क्या केवल हमला करने वालों को घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहरा देना और केवल उनको ही सजा देना समस्या का हल है या जिन लोगों ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई, उसको भी सजा दिलाना जरूरी है।
`अफजल गुरू को फांसी दे दी गई और दी भी जानी चाहिए थी लेकिन इसमें इतनी जल्दी और छुपाने का तुक क्या है' के शीर्षक से कोलकाता और नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कांग्रेस 2014 के आम चुनाव से पूर्व आंतरिक सुरक्षा के हवाले से आतंकियों को फांसी पर लटका कर अपने सियासी हित को बढ़ावा दे रही है और यह कि इस समय वह 13 व्यक्ति जिन्हें फांसी पर लटकाया जाना है उनका किस्सा जल्द से जल्द खत्म कर वह वाहवाही लूटना चाहती है। संभव है कि इस विश्लेषण में कुछ सच्चाई भी हो लेकिन 13 व्यक्तियों को फांसी पर लटका कर कांग्रेस चुनावी किला नहीं जीत सकती। इसके बावजूद यह बात उल्लेखनीय है कि सरकार हर मामले में संदेह पैदा करती है। कसाब को फांसी देने में भी जल्दबाजी की गई। दिल्ली गैंगरेप की शिकार निर्भय को सिंगापुर ले जाने और उसके अंतिम संस्कार किए जाने तक यही स्थिति देखने को मिली। यह किसी जन हित सरकार की निशानी नहीं हो सकती कि वह जन हित मामलों को छुपाए और अपने कामों संदेह के घेरे में  लाए।
`कसाब बनाम अफजल ः एक आतंक का चेहरा तो दूसरा शैतानी दिमाग' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि संसद हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरू की फांसी की खबर के साथ ही हर हिन्दुस्तानी के जेहन में एक और फांसी की अनदेखी तस्वीर कौंध जाती है। मुंबई पर कहर बरपाने वाले अजमल आमिर कसाब का कारनामा भले ही अलग हो लेकिन दोनों का इरादा एक था और अंजाम भी एक सा हुआ। एक ने देश के आर्थिक केंद्र को तो दूसरे ने राजनैतिक केंद्र को निशाना बनाया। इसमें से एक विदेशी था तो दूसरा देसी लेकिन दोनों की कमान पाकिस्तान में ही थी। दोनों को कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने फांसी पर लटकाया। दोनों ही मामलों में पाकिस्तान बार-बार अपनी किसी भी भूमिका से पूरी तरह इंकार करता रहा लेकिन उसकी भूमिका साफ थी।

सजा अपराध की बुनियाद पर न कि उम्र की बुनियाद पर


2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम राहुल में रेखांकित करते हुए विख्यात सामाजिक चिंतक एवं टिप्पणीकार मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी दैनिक `जदीद खबर'में प्रकाशित अपने लेख में चर्चा करते हैं कि राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी में अपनी पार्टी में बड़ी  जिम्मेदारी देने के गर्मागरम चर्चा में सियासी रथ दो विरोधी दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है, इसके पहिए के नीचे कौन-कौन आकर अपने गंतव्य को पाएंगे और कौन-कौन रथ की सवारी के नाम पर एयरकंडीशन, आरामदेह कार रथ की सवारी का आनंद लेंगे, इसका पूर्ण विवरण बताने की स्थिति में अभी कोई नहीं है। राजू शुक्ला जैसे कांग्रेसियों की इस आशा और भविष्यवाणी को पूरी तरह झुठलाया नहीं जा सकता कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री राहुल गांधी होंगे। ऐसी हालत में भाजपा आज की तारीख में `धर्म संकट' में है कि प्रधानमंत्री के तौर पर खुलकर किसका नाम सामने लाया जाए। आने वाले दिनों में राहुल गांधी बनाम मोदी की सियासत तेज होगी। मोदी केवल एक नाम नहीं रह गया है बल्कि एक विशेष मानसिकता का प्रतीक बन गया है। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को पार्टी में शामिल करने के संदर्भ में जिस सोच का सबूत दिया है। इसने भाजपा के विशेष चेहरे से एक बार फिर नकाब उठा दिया है। इसलिए नरेन्द्र मोदी को संघ को विशेष परिप्रेक्ष्य में ही देखना होगा। लेकिन यदि कांग्रेस ने गुजरात की तरह हिन्दुत्व से दूरी वाली नीति अपनाई तो उसे अच्छे नतीजे की आशा नहीं  रखना चाहिए। इसलिए चुनावी लड़ाई तो जंग की तरह ही लड़नी होगी, ऐसी हालत में कोई स्पष्ट भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती लेकिन कामयाबी के संबंध में करीब-करीब सही अंदाजा लगाना आसान हो जाता है कि बाजी किसके हाथ में होगी।
दिल्ली और कोलकाता से एक साथ प्रकाशित दैनिक `अखबारे मशरिक' ने दिल्ली की 23 वर्षीया निर्भय के साथ हुए गैंगरेप के छठे आरोपी को नाबालिग बताने पर चर्चा करते हुए अपने सम्पादकीय में लिखा है कि आयु का मामला तकनीकी है और असल चीज अपराध का होना है। सजा अपराध की बुनियाद पर होनी चाहिए न कि उम्र की बुनियाद पर। छोटे-मोटे अपराध के मामलों में तो फिर भी वयस्क और अवयस्क की बात की जा सकती है लेकिन दुष्कर्म और जघन्य हत्या के मामले में किसी प्रकार की छूट देना अपराध का हौसला बढ़ाना होगा। 13 से 14 वर्ष की आयु को विशेषज्ञों ने सबसे ज्यादा खतरनाक करार दिया है। ऐसी हालत में अवयस्क होने के कारण सख्त सजा से छूट जाना अपराध को बढ़ाने जैसा होगा। क्या यह अच्छा होता कि कानून मंत्रालय मोटे-मोटे अपराध जैसे हत्या और दुष्कर्म आदि के संदर्भ में जनता को सचेत करता विशेषकर इस परिप्रेक्ष्य में कि अपराध पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गए हैं और इसमें युवाओं का हिस्सा ज्यादा है। यदि इन्कम टैक्स विभाग विज्ञापन द्वारा नागरिकों को यह बता सकता है कि टैक्स की चोरी या न देने की सूरत में जुर्माना या कैद की नौबत आ सकती तो हत्या, दुष्कर्म और अन्य गंभीर अपराध की बाबत सरकार उनको प्रचारित क्यों नहीं करती। यह सच्चाई है कि जिन देशों में सख्त कानून है वहां अपराध का ग्रॉफ कम है। हमें भी सजा को सख्त करना होगा और उम्र के चक्कर से निकलना होगा।
कमल हासन की फिल्म `विश्वरूपम' पर चर्चा करते हुए दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में  लिखा है कि उनकी पिछली फिल्मों की नाकामी ने शायद उन्हें थोड़ा डगमगा दिया, उन्हें एक ऐसी कहानी की तलाश थी जो डब किए जाने की सूरत में तमिलनाडु से बाहर हिन्दी फिल्म जगत से भी ढेरों पैसा वापस ला सके। इस जरूरत ने उन्हें एक ऐसी कहानी चुनने पर मजबूर कर दिया, जिस तरह की कहानियां कई सफल हिन्दी फिल्मों का विषय भी रही हैं। इन फिल्मों का एक खास पहलू मुसलमानों को एक खास अंदाज में पेश किया जाता है। किसी न किसी बहाने और किसी न किसी आतंकवादी, स्मगलिंग, देशद्रोही और अन्य नकारात्मक मूल्यों से मुसलमानों को जोड़ दिया जाता है और उन्हें विलेन बनाकर पेश किया जाता है। कमल हासन ने यही किया। यह कहा जा सकता कि ऐसा करने का कारण उनकी मानसिकता नहीं, पैसे की ज्यादा जरूरत थी। लेकिन शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि यही कारीगरी उनके लिए बवाल जान बन जाएगी। उन्होंने चाहा था कि फिल्म डिजीटल तकनीक की मदद से `डायरेक्ट टू होम' रिलीज की जाए लेकिन जयललिता सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी। इसके बाद मुस्लिम मुनतरा गजम नामी सियासी पार्टी को इसकी भनक लग गई। इसके विरोध के बाद मामला हाई कोर्ट पहुंचा। हाई कोर्ट ने सुझाव दिया कि कमल हासन को विरोध करने वालों से बात करके मामले को तय कर लेना चाहिए।  तमिलनाडु सरकार ने भी कहा है कि विश्वरूपम से कम से कम घंटे भर का मैटर निकाल देना चाहिए। यही उनके लिए बेहतर तरीका है।
दिल्ली के महरौली में डीडीए द्वारा गौसिया मस्जिद तोड़े जाने पर जो राजनीति हो रही है उसका रहस्योद्घाटन करते हुए आमिर सलीम खां ने दैनिक `हमारा समाज' में लिखा है कि सरकारी एजेंसियों द्वारा तोड़ी गई गौसिया मस्जिद और इससे मिली कालोनी का पुनर्निर्माण न हो लेकिन कुछ लोग लीडरी चमकाने में जरूर व्यस्त हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि दशकों से मसलकी जंग से दूर रहने वाली गौसिया मस्जिद के विध्वंस के बाद मसलक का जहर फैलाया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि विध्वंस के लिए कुछ पीड़ित भी बराबर के जिम्मेदार हैं। आपसी चपकलीश के चलते गौसिया कालोनीवासियों ने लगभग 50 से अधिक आवेदन विभिन्न सरकारी विभागों में देकर दिल्ली वक्फ बोर्ड की जमीन को सरकारी बताते हुए उस पर से अतिक्रमण हटाने की मांग की गई। जब विध्वंस हुआ तो जिन्होंने सरकारी सम्पत्ति बताई थी वही दिल्ली वक्फ बोर्ड की जमीन के पुख्ता सबूत ले आए। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और दिल्ली वक्फ बोर्ड सहित विभिन्न बैठकों में यह बात भी सामने आ चुकी है जब कुछ पीड़ितों ने यहां तक कह दिया कि `मस्जिद नहीं पहले हमारे घर निर्माण कराओ।' गौसिया मस्जिद और वहां वक्फ जायदादों की सामूहिक लड़ाई अब बिखर चुकी है। कुछ लोग बाहर से आकर वहां मुसलमानों में मसलक का जहर फैला रहे हैं। महरौली में मस्जिद और वक्फ जायदादों के संरक्षण के  लिए यदि एक  शाही इमाम ने आवाज बुलंद की तो उनके बजाय मसलक का जहर फैलाने वाले लोग दूसरे शाही इमाम को लेकर घटनास्थल पर पहुंच रहे हैं। स्थानीय लोगों ने भी यह स्वीकार किया कि हमसे गलती हुई है और हमारे कुछ नेता लीडरी चमकाने के लिए मसलकी दीवार खड़ी कर रहे हैं।
`शाहरुख की छोटी-सी टिप्पणी पर इतना बड़ा बवाल' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बॉलीवुड के सुपर स्टार शाहरुख खान की सुरक्षा पर नापाक नसीहत भारत और पाकिस्तान के बीच तकरार का नया सबब बन गई है। 21 जनवरी न्यूयार्प टाइम्स के सहयोग से प्रकाशित पत्रिका आऊटलुक टर्निंग प्वाइंट्स का अंक बाजार में आया था। पत्रिका को दिए अपने इंटरव्यू में शाहरुख ने अपने मन की कई बातों का खुलासा किया। इसमें उन्होंने यह भी कहा कि भारत में कुछ ही नेता हर मुसलमान को देशद्रोही नजरिए से देखते हैं। इस पीड़ा से एक मुस्लिम होने के नाते वे कई बार खुद गुजरे हैं। ऐसे में उन्हें देशप्रेम जताने के लिए कुछ न कुछ बोलना पड़ता है। जबकि उनके पिता एक स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। उनकी पत्नी गौरी एक हिन्दू हैं। उनके जीवन में कभी भी धर्म के सवाल पर तनाव नहीं हुआ। लेकिन कुछ लोग मुसलमानों को गलत नजरिए से देखते हैं। इस इंटरव्यू के छपते ही मुंबई हमले के मास्टर माइंड और आतंकी संगठन जमात उद दावा के सरगना हाफिज सईद ने शाहरुख की आप बीती का हवाला देते हुए उन्हें पाकिस्तान में बसने का न्यौता दे डाला। पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक बिना सोचे इस मैदान में कूद गए। शाहरुख ने बिना किसी का नाम लिए यह स्पष्ट किया कि कोई उन्हें बेवजह सलाह न दे।

पाकिस्तान के उकसाने के पीछे असल मंशा क्या है?


`सीमा पर तनाव का हल क्या हो?' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि सेना प्रमुख ने बहुत अच्छे अंदाज में पाकिस्तान को चेतावनी दी है लेकिन महसूस किया जाता है कि यह काफी नहीं है और पाकिस्तानी घुसपैठ और उसके बाद उनकी ओर से कोई जिम्मेदारी न लेने के रवैए पर बहुत सोचना और समझना होगा। इसका मतलब यह भी नहीं कि हमें पाकिस्तान के खिलाफ फौजी कार्रवाई ही कर देनी चाहिए और ताकत के इस्तेमाल से काम लेना चाहिए, यह भी मसले का कोई ठोस हल नहीं होता है क्योंकि इसके नतीजे दोनों देशों के लिए बहुत दर्दनाक और नुकसान पहुंचाने वाले होंगे। इसलिए यदि बातचीत से काम चले तो हर स्तर पर बातचीत के रास्तों को खुला रखना चाहिए और गम व गुस्सा को काबू में रखते हुए प्रभावी ढंग से मसले के हल की तलाश करनी चाहिए क्योंकि हम किसी भी तरह से कमजोर नहीं हैं बल्कि किसी भी तरह की कार्यवाही का जवाब देने की पूरी ताकत रखते हैं। कारगिल के मौके पर और उसके पूर्व 1971 में युद्ध छिड़ने पर दिखाया है। लेकिन दोनों देशों की जनता एक दूसरे के करीब और रिश्तों में मधुरता रखकर ही खुश होती है क्योंकि दोनों देशों की भाषा, संस्कृति और सभ्यता में जितनी समानता है शायद ही कहीं दो पड़ोसियों में देखने को मिले, यहां तक कि बंगलादेश, श्रीलंका, चीन और म्यांमार किसी में उतनी समानता नहीं है जितनी भारत और पाकिस्तान के बीच पाई जाती है।
`पाकिस्तान से मायूस है अमन का कारवां' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में सहारा न्यूज नेटवर्प के एडीटर एवं न्यूज डायरेक्टर ओपेंदर राय ने अपने स्तंभ में लिखा है कि पाकिस्तान में इसी साल चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में वहां के सारे ग्रुपों में भारत विरोधी नारों की होड़ लगी है। इस हालत में हमारी फौज और हमारी सरकार को धैर्य से काम लेना होगा। जल्दबाजी में हम किसी ऐसे आपशन्स को न चुनें जिससे माहौल और  बिगड़ जाए। पाकिस्तान ऐसा नासूर है जिसका इलाज आपरेशन नहीं है। इसे मरहम पट्टी के साथ एंटी बायटेक के बोस्टर डोज की जरूरत है। हमें इन दोनों का इस्तेमाल करना चाहिए और चीर-फाड़ से बचना चाहिए। पाकिस्तान की शासकीय व्यवस्था में कई परतें हैं। बाहरी दुनिया के लिए सरकार के मुखिया वहां के राष्ट्रपति आसिफ अली हैं लेकिन पाकिस्तान में इस सिविल सरकार का शासन पर पूरी तरह से कंट्रोल नहीं है। दूसरी परत के मुखिया पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल अशफाक परवेज कयानी हैं। कयानी ने आज तक इस सिविल सरकार के कामकाज में दखल नहीं दिया है लेकिन कयानी इस वर्ष सेवानिवृत्ति हो रहे हैं। इतिहास साक्षी है कि पाकिस्तान का कोई भी आर्मी चीफ आसानी से कुर्सी नहीं छोड़ता है। संभव है कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए कयानी ऐसे हालात पैदा करने की कोशिश करें, जिससे आर्मी की भूमिका में वृद्धि हो जाए। हो सकता है कि भारत के साथ ताजा विवाद एक फौजी षड्यंत्र हो, जिसे कयानी की ओर से समर्थन मिल रहा हो और जिसके बारे में वहां की सिविलियन सरकार को भी न मालूम हो।
`नक्सली हिंसा के कारण और हल क्या हों?' के शीर्षक से कोलकाता और दिल्ली से एक साथ प्रकाशित होने वाले दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि 1960 के दशक से शुरू हुई नक्सली हिंसा अभी खत्म नहीं हुई है और यह आज देश की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है बल्कि एक लिहाज से सीमा पार से जारी आतंक से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि इसके पीछे जो गुमराह युवक सक्रिय हैं उनकी जड़ें हमारे कस्बों, देहातों और छोटे-छोटे गांवों में फैली हुई हैं। देश के लगभग दस राज्य इसकी लपेट में हैं। इस आतंक के खिलाफ बुद्धिजीवियों के विचार भी समय-समय पर सामने आए हैं जिसके मुताबिक नक्सलइज्म को ताकत के बल पर खत्म नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह आर्थिक असमानता के कोख से पैदा हुई है और इसे एक सामाजिक मसले के तौर पर ही हल किया जाना चाहिए। नक्सली हिंसा को हल करने की दिशा में हमारा पहला कदम कबाइली क्षेत्रों से दलाली की परम्परा अथवा ठेकेदारी को बेदखल करना चाहिए, जिसका एक उदाहरण मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने तेंदू पत्ते से ठेकेदारी हटाकर और इस कारोबार को कबाइलियों को देकर किया था लेकिन छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने यह काम ठेकेदारों के सुपुर्द कर दिया जो इस कारोबार में फायदे के बजाय नुकसान बताते हैं क्योंकि खनन कर रही कम्पनियां अपने सीए से बनवाई बैलेंस शीट में सदैव घाटा दिखाती हैं। इसलिए उचित तरीका यही है कि खनन का फायदा कबाइलियों (आदिवासियों) को पहुंचाने के खनिज की हर टन पैदावार की रायलटी का एक हिस्सा उनको दिया जाए। इसी 1927 के अंग्रेजों के बनाए जंगल कानून को भी वापस लिया जाए इसके द्वारा आदिवासी जंगल पर अपने हक से वंचित हो गए हैं और यही उनको हिंसा द्वारा अपना हक लेने पर मजबूर करती है।
16 दिसम्बर को राजधानी दिल्ली में एक लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और जघन्य हत्या के बाद से विरोध-प्रदर्शन  का सिलसिला जारी है। जिस तेजी से यह आंदोलन चल रहा है उसी तेजी से हर दिन दुक्रम की सजाएं अखबारों में पढ़ने को मिल रही हैं। सहरोजा `दावत' में मोहम्मद सिबगातुल्ला नदवी ने `बिगाड़ के सुधार के लिए धर्म एवं नैतिकता का सहारा लेना पड़ेगा' के शीर्षक से अपने लेख में लिखा है कि आज महिलाओं से दुष्कर्मों के लिए आजीवन कारावास अथवा फांसी की  बात कही जा रही है लेकिन यह सजा इसे रोक सकेगी, निश्चय ही नहीं, क्योंकि हत्या के लिए पहले से ही यह सजा निर्धारित है जब इस मामले में यह डर पैदा नहीं कर सका तो दुष्कर्म के मामले यह कैसे डर पैदा कर सकेगी। वास्तव में सारी खराबियों और बुराइयों की जड़ वह बिगाड़ है जो समाज में फैला हुआ है जिसके सुधार के  बजाय उसे कानून संरक्षण दिया जा रहा है। लोगों को मानवता, नैतिकता और धर्म का पाठ पढ़ाने के बजाय उस कानून का पाठ पढ़ाया जा रहा है जो खुद खामियों से भरा होता है वह दूसरों का सुधार क्या करेगा।
`सुप्रीम कोर्ट द्वारा खाप पंचायतों को फटकार' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' के सम्पादक (नार्थ) शकील शम्सी ने अपने स्तंभ में  लिखा है कि खाप पंचायतें मोहब्बत की शादी, ईश्क और महिला आजादी के सख्त खिलाफ हैं, पुरुषों का वर्चस्व कायम करना उनका पहला दायित्व है। उनका मानना है कि दुष्कर्म की घटनाएं इसलिए होती हैं कि महिलाओं को आजादी मिल गई है। खाप पंचायतों की नजर में सबसे बड़ा गुनाह एक ही गोत्र में होने वाली शादियां हैं। खाप का संबंध न हो। खाप पंचायतों ने लड़कियों को जीन्स न पहनने की हिदायत दी जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने पंचायतों को आदेश दिया कि वह लड़कियों को जीन्स पहनने या मोबाइल रखने से मना नहीं कर सकती। जीन्स पहनने की इच्छुक और मोबाइल रखने की इच्छा रखने वाली लड़कियों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से काफी खुशी हुई होगी, लेकिन इस आदेश से उनकी समस्याएं हल हो जाएंगी, विश्वास से नहीं कहा जा सकता लेकिन आशा की एक किरण पैदा हुई है जो बहुत सी लड़कियों को एहसास महरूमी से  बचाएगी।
`पाकिस्तान के उकसाने के पीछे असल मंशा आखिर क्या है?' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि दरअसल हम तो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि पाकिस्तान भारत के साथ एलओसी पर बढ़ रहे तनाव को कम करने में दिलचस्पी रखता ही नहीं। उसका कोई बड़ा गेम प्लान है जिसका मेंढर सेक्टर में दो भारतीय जवानों का सिर काटने की घटना एक हिस्सा है। अगर ऐसा न होता तो नियंत्रण रेखा पर तनाव कम करने के लिए मुश्किल से हुई फ्लैग मीटिंग से ठीक एक दिन पहले युद्ध विराम का फिर से उल्लंघन न करता। यही नहीं भारत ने पाकिस्तान पर ताजा आरोप लगाया कि दोनों देशों के बीच ब्रिगेडियर स्तर पर हुई फ्लैग मीटिंग के बाद से अब तक वह पांच दफा संघर्ष विराम का उल्लंघन कर चुका है। लिहाजा सोमवार को फ्लैग मीटिंग का जो नतीजा निकलना था वही निकला। यानी कुछ भी नहीं निकला। साफ है कि पाकिस्तान घुमा-फिराकर किसी भी तरह से इस मामले में तीसरे पक्ष की दखलअंदाजी चाहता है जबकि यह द्विपक्षीय मामला है। भारत सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी हालत में इसे अंतर्राष्ट्रीय नहीं होने देगा।