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Sunday, February 17, 2013

सजा अपराध की बुनियाद पर न कि उम्र की बुनियाद पर


2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम राहुल में रेखांकित करते हुए विख्यात सामाजिक चिंतक एवं टिप्पणीकार मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी दैनिक `जदीद खबर'में प्रकाशित अपने लेख में चर्चा करते हैं कि राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी में अपनी पार्टी में बड़ी  जिम्मेदारी देने के गर्मागरम चर्चा में सियासी रथ दो विरोधी दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है, इसके पहिए के नीचे कौन-कौन आकर अपने गंतव्य को पाएंगे और कौन-कौन रथ की सवारी के नाम पर एयरकंडीशन, आरामदेह कार रथ की सवारी का आनंद लेंगे, इसका पूर्ण विवरण बताने की स्थिति में अभी कोई नहीं है। राजू शुक्ला जैसे कांग्रेसियों की इस आशा और भविष्यवाणी को पूरी तरह झुठलाया नहीं जा सकता कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री राहुल गांधी होंगे। ऐसी हालत में भाजपा आज की तारीख में `धर्म संकट' में है कि प्रधानमंत्री के तौर पर खुलकर किसका नाम सामने लाया जाए। आने वाले दिनों में राहुल गांधी बनाम मोदी की सियासत तेज होगी। मोदी केवल एक नाम नहीं रह गया है बल्कि एक विशेष मानसिकता का प्रतीक बन गया है। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को पार्टी में शामिल करने के संदर्भ में जिस सोच का सबूत दिया है। इसने भाजपा के विशेष चेहरे से एक बार फिर नकाब उठा दिया है। इसलिए नरेन्द्र मोदी को संघ को विशेष परिप्रेक्ष्य में ही देखना होगा। लेकिन यदि कांग्रेस ने गुजरात की तरह हिन्दुत्व से दूरी वाली नीति अपनाई तो उसे अच्छे नतीजे की आशा नहीं  रखना चाहिए। इसलिए चुनावी लड़ाई तो जंग की तरह ही लड़नी होगी, ऐसी हालत में कोई स्पष्ट भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती लेकिन कामयाबी के संबंध में करीब-करीब सही अंदाजा लगाना आसान हो जाता है कि बाजी किसके हाथ में होगी।
दिल्ली और कोलकाता से एक साथ प्रकाशित दैनिक `अखबारे मशरिक' ने दिल्ली की 23 वर्षीया निर्भय के साथ हुए गैंगरेप के छठे आरोपी को नाबालिग बताने पर चर्चा करते हुए अपने सम्पादकीय में लिखा है कि आयु का मामला तकनीकी है और असल चीज अपराध का होना है। सजा अपराध की बुनियाद पर होनी चाहिए न कि उम्र की बुनियाद पर। छोटे-मोटे अपराध के मामलों में तो फिर भी वयस्क और अवयस्क की बात की जा सकती है लेकिन दुष्कर्म और जघन्य हत्या के मामले में किसी प्रकार की छूट देना अपराध का हौसला बढ़ाना होगा। 13 से 14 वर्ष की आयु को विशेषज्ञों ने सबसे ज्यादा खतरनाक करार दिया है। ऐसी हालत में अवयस्क होने के कारण सख्त सजा से छूट जाना अपराध को बढ़ाने जैसा होगा। क्या यह अच्छा होता कि कानून मंत्रालय मोटे-मोटे अपराध जैसे हत्या और दुष्कर्म आदि के संदर्भ में जनता को सचेत करता विशेषकर इस परिप्रेक्ष्य में कि अपराध पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गए हैं और इसमें युवाओं का हिस्सा ज्यादा है। यदि इन्कम टैक्स विभाग विज्ञापन द्वारा नागरिकों को यह बता सकता है कि टैक्स की चोरी या न देने की सूरत में जुर्माना या कैद की नौबत आ सकती तो हत्या, दुष्कर्म और अन्य गंभीर अपराध की बाबत सरकार उनको प्रचारित क्यों नहीं करती। यह सच्चाई है कि जिन देशों में सख्त कानून है वहां अपराध का ग्रॉफ कम है। हमें भी सजा को सख्त करना होगा और उम्र के चक्कर से निकलना होगा।
कमल हासन की फिल्म `विश्वरूपम' पर चर्चा करते हुए दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में  लिखा है कि उनकी पिछली फिल्मों की नाकामी ने शायद उन्हें थोड़ा डगमगा दिया, उन्हें एक ऐसी कहानी की तलाश थी जो डब किए जाने की सूरत में तमिलनाडु से बाहर हिन्दी फिल्म जगत से भी ढेरों पैसा वापस ला सके। इस जरूरत ने उन्हें एक ऐसी कहानी चुनने पर मजबूर कर दिया, जिस तरह की कहानियां कई सफल हिन्दी फिल्मों का विषय भी रही हैं। इन फिल्मों का एक खास पहलू मुसलमानों को एक खास अंदाज में पेश किया जाता है। किसी न किसी बहाने और किसी न किसी आतंकवादी, स्मगलिंग, देशद्रोही और अन्य नकारात्मक मूल्यों से मुसलमानों को जोड़ दिया जाता है और उन्हें विलेन बनाकर पेश किया जाता है। कमल हासन ने यही किया। यह कहा जा सकता कि ऐसा करने का कारण उनकी मानसिकता नहीं, पैसे की ज्यादा जरूरत थी। लेकिन शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि यही कारीगरी उनके लिए बवाल जान बन जाएगी। उन्होंने चाहा था कि फिल्म डिजीटल तकनीक की मदद से `डायरेक्ट टू होम' रिलीज की जाए लेकिन जयललिता सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी। इसके बाद मुस्लिम मुनतरा गजम नामी सियासी पार्टी को इसकी भनक लग गई। इसके विरोध के बाद मामला हाई कोर्ट पहुंचा। हाई कोर्ट ने सुझाव दिया कि कमल हासन को विरोध करने वालों से बात करके मामले को तय कर लेना चाहिए।  तमिलनाडु सरकार ने भी कहा है कि विश्वरूपम से कम से कम घंटे भर का मैटर निकाल देना चाहिए। यही उनके लिए बेहतर तरीका है।
दिल्ली के महरौली में डीडीए द्वारा गौसिया मस्जिद तोड़े जाने पर जो राजनीति हो रही है उसका रहस्योद्घाटन करते हुए आमिर सलीम खां ने दैनिक `हमारा समाज' में लिखा है कि सरकारी एजेंसियों द्वारा तोड़ी गई गौसिया मस्जिद और इससे मिली कालोनी का पुनर्निर्माण न हो लेकिन कुछ लोग लीडरी चमकाने में जरूर व्यस्त हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि दशकों से मसलकी जंग से दूर रहने वाली गौसिया मस्जिद के विध्वंस के बाद मसलक का जहर फैलाया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि विध्वंस के लिए कुछ पीड़ित भी बराबर के जिम्मेदार हैं। आपसी चपकलीश के चलते गौसिया कालोनीवासियों ने लगभग 50 से अधिक आवेदन विभिन्न सरकारी विभागों में देकर दिल्ली वक्फ बोर्ड की जमीन को सरकारी बताते हुए उस पर से अतिक्रमण हटाने की मांग की गई। जब विध्वंस हुआ तो जिन्होंने सरकारी सम्पत्ति बताई थी वही दिल्ली वक्फ बोर्ड की जमीन के पुख्ता सबूत ले आए। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और दिल्ली वक्फ बोर्ड सहित विभिन्न बैठकों में यह बात भी सामने आ चुकी है जब कुछ पीड़ितों ने यहां तक कह दिया कि `मस्जिद नहीं पहले हमारे घर निर्माण कराओ।' गौसिया मस्जिद और वहां वक्फ जायदादों की सामूहिक लड़ाई अब बिखर चुकी है। कुछ लोग बाहर से आकर वहां मुसलमानों में मसलक का जहर फैला रहे हैं। महरौली में मस्जिद और वक्फ जायदादों के संरक्षण के  लिए यदि एक  शाही इमाम ने आवाज बुलंद की तो उनके बजाय मसलक का जहर फैलाने वाले लोग दूसरे शाही इमाम को लेकर घटनास्थल पर पहुंच रहे हैं। स्थानीय लोगों ने भी यह स्वीकार किया कि हमसे गलती हुई है और हमारे कुछ नेता लीडरी चमकाने के लिए मसलकी दीवार खड़ी कर रहे हैं।
`शाहरुख की छोटी-सी टिप्पणी पर इतना बड़ा बवाल' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बॉलीवुड के सुपर स्टार शाहरुख खान की सुरक्षा पर नापाक नसीहत भारत और पाकिस्तान के बीच तकरार का नया सबब बन गई है। 21 जनवरी न्यूयार्प टाइम्स के सहयोग से प्रकाशित पत्रिका आऊटलुक टर्निंग प्वाइंट्स का अंक बाजार में आया था। पत्रिका को दिए अपने इंटरव्यू में शाहरुख ने अपने मन की कई बातों का खुलासा किया। इसमें उन्होंने यह भी कहा कि भारत में कुछ ही नेता हर मुसलमान को देशद्रोही नजरिए से देखते हैं। इस पीड़ा से एक मुस्लिम होने के नाते वे कई बार खुद गुजरे हैं। ऐसे में उन्हें देशप्रेम जताने के लिए कुछ न कुछ बोलना पड़ता है। जबकि उनके पिता एक स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। उनकी पत्नी गौरी एक हिन्दू हैं। उनके जीवन में कभी भी धर्म के सवाल पर तनाव नहीं हुआ। लेकिन कुछ लोग मुसलमानों को गलत नजरिए से देखते हैं। इस इंटरव्यू के छपते ही मुंबई हमले के मास्टर माइंड और आतंकी संगठन जमात उद दावा के सरगना हाफिज सईद ने शाहरुख की आप बीती का हवाला देते हुए उन्हें पाकिस्तान में बसने का न्यौता दे डाला। पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक बिना सोचे इस मैदान में कूद गए। शाहरुख ने बिना किसी का नाम लिए यह स्पष्ट किया कि कोई उन्हें बेवजह सलाह न दे।

Sunday, November 18, 2012

क्या भाजपा व एनडीए संप्रग सरकार का विकल्प है?


अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका `न्यूज वीक' द्वारा `मुस्लिम गुस्से' को कवर स्टोरी बनाने पर साप्ताहिक `नई दुनिया' ने इसे मुसलमानों के जख्मों पर नमक छिड़कने वाला बताते हुए लिखा है कि मुस्लिम गुस्सा एक ऐसी स्टोरी है जिसका मकसद पत्रिका को दोबारा खड़ा करना था, लेकिन न्यूज वीक का दांव उलटा पड़ गया। ब्रिटिश अखबार `द टेलीग्राफ' के अनुसार हरसी अली की लेखनी घटिया पत्रकारिता का नमूना है, जिसने अतीत की एक बड़ी पत्रिका को सस्ता और घटिया बना दिया है। हर कोई हैरान है कि जब पैगम्बर इस्लाम पर निंदनीय फिल्म की भर्त्सना हो रही है और इस्लामी जगत जल रहा है तो हरसी अली इसको झूठा गुस्सा कह रही हैं। इस्लाम के खिलाफ जहर उगल रही सोमाली महिला का कहना है कि हम लोगों को सिर उठाकर जीना होगा। एक अधर्मी काली महिला बता रही है कि हम मुस्लिम गुस्से का किस तरह मुकाबला कर सकते हैं और उसे किस तरह खत्म करें। हरसी अली को अपनी इस्लाम दुश्मनी के कारण उसके बाप ने उसे अपने से अलग कर दिया है। हरसी अली को हालैंड की नागरिकता गंवानी पड़ी और वह अब इस्लाम दुश्मनी पर रोटियां तोड़ रही हैं। दुनिया में बहुसंख्यक ने मुस्लिम गुस्से को निरस्त कर दिया है जिसके कारण पत्रिका फिर उसी अंधकार में गिर गई है। हरसी अली तो पहले से ही गिरी हुई थीं इसलिए उनके बारे में कुछ कहना बेकार है।
`पुलिस बल में मुस्लिमों की नुमाइंदगी' के शीर्षक से हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक`ऐतमाद' ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने गत ढाई महीने पूर्व देश में पुलिस बल में मुसलमानों की संख्या के बारे में जो आंकड़े जारी किए थे उनसे पता चलता है कि देश में मुस्लिम पुलिस अधिकारियों की संख्या कुछ ज्यादा नहीं है। आंकड़ों के अनुसार देश में कुल 16 लाख 80 हजार पुलिस बल में मुस्लिम पुलिस अधिकारियों की संख्या एक लाख 8 हजार 389 से अधिक नहीं है अर्थात् कुल पुलिस बल में मुसलमान केवल 6 फीसदी हैं। जहां तक नई दिल्ली का मामला है, दिल्ली पुलिस में सिर्प 1521 अधिकारी हैं जबकि कुल पुलिस बल 57,117 है अर्थात् दिल्ली में मुस्लिम आबादी के अनुपात में केवल 2 फीसदी नुमाइंदगी है। यह शुभ समाचार है कि केंद्र सरकार ने अर्ध सैनिक बलों में अल्पसंख्यक समुदाय को उचित नुमाइंदगी देने के लिए विशेष मुहिम चलाने का फैसला किया है। इसके अलावा सरकार सुरक्षाबलों में महिलाओं की संख्या भी बढ़ा रही है। अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों को इसके लिए स्वयं को तैयार करना पड़ेगा।
`क्या भाजपा व एनडीए संप्रग सरकार का विकल्प है' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी की तीन दिवसीय राष्ट्रीय परिषद की बैठक के आखिरी दिन पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने कार्यकर्ताओं को खरी-खरी सुनाई। कर्नाटक सहित भाजपा शासित कुछ राज्यों में भ्रष्टाचार के आरोपों की पृष्ठभूमि में आडवाणी ने कहा कि हमारे नेताओं, मंत्रियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं को ऐसा आचरण करना चाहिए कि जब कभी भी लोग भाजपा के बारे में सोचें तो उन्हें भाजपा के इस यूएसपी की याद आए। यदि आडवाणी एनडीए का कुनबा बढ़ाने की कवायद करते हैं तो कुछ लोग इसे भाजपा की आंतरिक राजनीति और पीएम पद की दावेदारी से जोड़ देते हैं। यह इसलिए भी हो रहा है कि आगामी चुनाव में नेतृत्व का सवाल अभी भी उलझा हुआ है। नरेन्द्र मोदी को पार्टी कार्यकर्ताओं का व्यापक समर्थन प्राप्त है उन्हें केंद्रीय नेतृत्व पर काबिज नेता दिल्ली नहीं आने देना चाहते। बहाना यह है कि इससे गठबंधन साथी बिदक जाएंगे। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता के आग्रह को मोदी का पत्ता साफ करने की रणनीति के तौर पर भी देखा जा रहा है। वैसे अभी तक एनडीए कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार के विकल्प के रूप में खुद को स्वीकार नहीं करा सका है।
दिल्ली वक्फ बोर्ड निकाह पंजीकृत करने के फैसले पर एक बार फिर उलेमा ने इसका विरोध कर इसे निरस्त किया है। दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने दारुल उलूम देवबंद और मजाहिरुल उलूम सहारनपुर सहित अनेक बुद्धिजीवियों के विचारों को प्रमुखता से प्रकाशित किया है। दारुल उलूम देवबंद के मोहतमिम मुफ्ती अबुल कासमी ने कहा कि शरीअत में तो निकाह को लिखित रूप में लिखने पर पाबंदी नहीं लगाई है लेकिन पंजीकृत से निकाह में पेचीदगी और परेशानी खड़ी हो जाएगी। जामिया मजाहिरुल उलूम सहारनपुर के नाजिम मौलाना सैयद सुलेमान मजाहिरी ने दारुल उलूम के दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए कहा कि दिल्ली वक्फ बोर्ड और इस तरह के अन्य संस्थानों की ओर निकाह अनिवार्य पंजीकृत को गैर जरूरी समझता है। मदरसा मजाहिरुल उलूम वक्फ सहारनपुर के मोहतमिम मौलाना मोहम्मद सईदी कहते हैं कि पंजीकृत का कानून एक तरह से शरीअत में हस्तक्षेप का दरवाजा खोलता है जो मुसलमानों को स्वीकार नहीं है। इंस्टीट्यूट ऑफ मुस्लिम लॉ के डायरेक्टर अनवर अली एडवोकेट कहते हैं कि हिन्दुस्तान के कई राज्यों में निकाह का पंजीकरण कानूनी और अनिवार्य है जैसे कश्मीर, गोवा, असम और केरल आदि। कुछ इस्लामी देशों में भी निकाह का पंजीकरण होता है फिर आखिर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीअत उलेमा और जमाअत इस्लामी इस पर क्यों जोर देती हैं कि पंजीकरण न हो। तहरीक वहदत इस्लामी के अमीर मौलाना अताऊर रहमान वजदी कहते हैं कि काजी द्वारा जो निकाहनामा भरा जाता है वह अपने आप में एक तरह पंजीकरण है, इसको ही काफी माना जाए। कानूनी तौर पर पंजीकरण सिर दर्द साबित होगा।
`बंगलादेशी घुसपैठ के नाम पर समाज का सांप्रदायिक विभाजन' के शीर्षक से साप्ताहिक`अल-जमीअत' में भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी अपने विशेष लेख में लिखते हैं कि बंगलादेशी घुसपैठ और इस्लामी राज्य की स्थापना का शिगूफा बेवक्त और गैर जरूरी तौर से छेड़ा गया है, इसका मकसद इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि देश के गैर मुस्लिम समुदाय के मन में भय एवं हिंसा पैदा करके अपना सियासी उल्लू सीधा किया जाए।
इस मसले का यह पहलू भी विचारणीय है कि मीडिया के एक ताकतवर ग्रुप की इस तरह के प्रोपेगंडा  को जबरदस्त समर्थन प्राप्त है। वह बिना किसी सबूत के बंगलादेशी घुसपैठ के प्रचार में लग जाता है और असल मसले से किसी न किसी तरह से ध्यान हटाने में कामयाब हो जाता है, अब यही देखिए कि असम में बोडो और गैर बोडो के बीच जिन बातों को लेकर टकराव हुआ, उन पर बहस करने के बजाय बड़ी चालाकी से बंगलादेशी घुसपैठ का प्रोपेगंडा सबसे ऊपर ले आया गया और बोडो काउंसिल में गैर बोडो का उचित प्रतिनिधित्व और केंद्र का इससे संधि के सही गलत होने का मामला पीछे चला गया। भाजपा और आरएसएस वाले इसकी ओर से ध्यान हटाने में मीडिया के सहयोग से सफल नजर आते हैं। उन्हें मालूम है कि यदि संधि की बात पर चर्चा होगी तो यह सवाल सामने आएगा कि आखिर भाजपा अगुवाई वाली एनडीए सरकार के गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने किस उद्देश्य के तहत बोडो ग्रुप से संधि करके इसे 70 फीसदी गैर बोडो पर लाद दिया है।

Saturday, May 5, 2012

`यौन संबंध के लिए सही उम्र क्या है?'


बीते दिनों विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक मुद्दों पर उर्दू अखबारों ने अपने विचार प्रस्तुत किए और विशेष लेख प्रकाशित किए। दिल्ली की एक अदालत द्वारा यौन संबंधों को लेकर दिया गया फैसला भी चर्चा का विषय रहा। दैनिक `प्रताप' ने `यौन संबंध के लिए सही उम्र क्या है?' के शीर्षक से सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि दिल्ली की रोहिणी जिला अदालत की अतिरिक्त न्यायाधीश डॉ. कामिनी लॉ अपने फैसलों के लिए अकसर चर्चा में रहती हैं। उन्होंने अब एक केस में सांसदों से कहा है कि उन्हें सामाजिक व्यवहार में आए बदलाव को ध्यान में रखते हुए यौन संबंधों के लिए उपयुक्त आयु से जुड़े मौजूदा कानून पर विचार करना चाहिए। अदालत की यह टिप्पणी एक लड़की के कथित अपहरण के मामले में युवक को बरी करते हुए की गई। अदालत ने कहा कि आरोपी युवक और लड़की के बीच प्रेम संबंध थे। प्रेम कर रहे नौजवानों को दंडित करने के लिए हमारे देश में कानून तंत्र का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। खासकर जब उनके बीच उम्र का फासला स्वीकार्य सीमा तक है। अदालत ने कहा कि मामले को यहीं विराम देना चाहिए।
किसी भी परिस्थिति में इन नौजवानों का भविष्य उनके अतीत को उजागर करके बर्बाद नहीं किया जा सकता। दस्तावेजी जांच के बाद पता चला कि घटना के वक्त लड़की की उम्र 18-19 साल थी और आरोपी युवक के खिलाफ कुछ नहीं मिला। डॉ. लॉ का फैसला इसलिए विवादास्पद माना जाए क्योंकि किसी भी देश में इस विषय पर एक राय नहीं है। कनाडा में कसैंट की उम्र मई 2008 तक 14 होती थी अब उसे 16 वर्ष कर दिया गया पर जहां दोनों पार्टनरों की उम्र में 5 साल से कम का फर्प है तो यौन संबंध अपराध माना जाएगा।
इसी तरह अमेरिका में 50 राज्यों में यौन संबंध की उम्र 16 से 18 वर्ष है। लगभग हर राज्य में डेटिंग, हगिंग, हाथ पकड़ना व किसिंग अपराध नहीं है। सिनेमा और टीवी में बढ़ती अश्लीलता भी यौन संबंधों में आई तेजी का एक प्रमुख कारण है।
दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `यौन संबंधों के लिए 18 साल की उम्र तय करने का सरकार का फैसला बिल्कुल सही और उचित है' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गत दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दो व्यस्कों के बीच इच्छा से यौन संबंधों की आयु कम करके 18 साल का सुझाव दिया है। संभव है कि यह विधेयक संसद के वर्तमान सत्र में मंजूर हो जाए। खुले विचार वाले इसके लिए 16 साल की उम्र तय करने के पक्ष में हैं और हिन्दुस्तान द्वारा 18 साल की उम्र तय करने पर बड़ी घृणा दृष्टि से अफ्रीकी देशों खांडा और उगांडा का हवाला देते हुए कहते हैं कि ऐसा करके वह ओंगाडा और खांडा क्लब में दाखिल हो जाएगा। यह तर्प भी दिया जा रहा है कि गांव देहात में तो 18 साल से कम उम्र में शादियों का चलन है इसलिए 18 साल तय करना शहरों में रहने वालों के खिलाफ एक प्रकार का भेदभाव है। इस कानून के नतीजे में आत्महत्या और आनर किलिंग बढ़ जाएगी। देश में बच्चों के अधिकारों के विशेषज्ञ, शिक्षक और शोधकर्ता भी इस कानून के खिलाफ विरोध कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि यही सबसे बड़ा मसला है और यदि इसे इनकी इच्छानुसार हल नहीं किया गया तो कयामत टूट पड़ेगी। जो लोग शादी के बिना यौन संबंध के समर्थन हैं और उसके लिए 16 साल की आयु पर जोर दे रहे हैं। वास्तव में उनके सिर पर यौन का भूत सवार है। आज 16 तो क्या 18 और 20 साल की आयु में भी कोई व्यक्ति आर्थिक तौर पर अपने पांव पर खड़ा नहीं हो सकता। शिक्षा और दक्षता हासिल करने में 30 से 35 साल लग जाते हैं, फिर देश की जनसंख्या भी बढ़ रही है जिस पर काबू पाने की सख्त जरूरत है। इन हालत में 18 साल का सरकार का फैसला बिल्कुल सही और उचित है जिसका अनुमोदन और समर्थन किया जाना चाहिए।
दैनिक `जदीद मेल' में एमए हक ने `कांग्रेस और दिल्ली मदरसों की सहायता' की शीर्षक से लिखे पत्र में लिखा है कि दिल्ली एमसीडी में हार के बाद दिल्ली सरकार ने 2013 के विधानसभा चुनाव के लिए मुसलमानों के रिझाने की रणनीति शुरू कर दी है ताकि विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट कांग्रेस की झोली में जा सके। मुस्लिम शैक्षिक संस्थानों में केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने मुसलमानों को बेवकूफ बनाते हुए सेंध मारा है। मुस्लिम शैक्षिक संस्था, कालेज, मदरसा बोर्ड या संगठन जो भी सरकारी अनुदान पाते हैं उनको आरटीई के दायरे में लाकर राज्यसभा ने भी इस विधेयक को पास कर दिया। इसका अंदाजा बहुत से नेताओं को है या नहीं या जानते हुए इसकी अनदेखी कर रहे हैं ताकि चुनाव के समय उन्हें मुस्लिम समस्याओं पर रोटी सेंकने का मौका मिल सके। दिल्ली सरकार ने मदरसों को कहा है कि वह अपने मदरसों का पंजीकरण कराएं ताकि उन्हें अनुदान दिया जा सके। क्या दिल्ली सरकार अपनी अकेली शैक्षिक संस्था मदरसा आलिया, फतेहपुरी मस्जिद की शैक्षिक गतिविधियों, पाठ्यक्रम एवं स्तर को दिल्ली के मुसलमानों को उदाहरण के तौर पर पेश कर सकती है।
आज तक मदरसा आलिया के प्रमाण पत्र को न तो दिल्ली सरकार ने अपने सरकारी विभागों में मंजूरी दी और न उसका अब तक सही पाठ्यक्रम तैयार किया जैसा कि अन्य राज्यों के मदरसा बोर्ड के प्रमाण पत्र की मंजूरी है जिसके आधार पर आप सरकारी, प्राइवेट नौकरी और शैक्षिक गतिविधियां जारी रख सकें। अनुदान देकर वोट लेना कांग्रेस की परम्परा रही है।
`राजग गठबंधन भी खतरे में' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि इस गठबंधन को पहला धक्का 2004 में उस समय लगा था जब उसे आशा के विपरीत बुरी तरह से पराजय हुई थी। इसके बाद उमर फारुक ने कहा कि उनकी नेशनल पार्टी ने बाजपा से हाथ मिलाकर गलती की थी। इसके बाद नवीन पटनायक की बीजू जनता दल इससे अलग हो गई। अम्मा जयललिता ने सरपरस्ती से हाथ खींच लिया। एक अन्य सहयोगी दल चन्द्र बाबू नायडू ने भी कह दिया कि तेलुगूदेशम का भाजपा से हाथ मिलाना सबसे बड़ी गलती थी। इसके बावजूद एनडीए का वजूद बरकरार रहा। कम से कम तीन अहम पार्टियां अर्थात् अकाली दल, जनता दल (यू) और शिवसेना इसमें शामिल रहीं। राष्ट्रपति चुनाव ने इस गठबंधन के लिए भी खतरे की घंटी बजा दी है। भाजपा नेता सुषमा स्वराज के इस कथन के बाद कि हामिद अंसारी राष्ट्रपति पद के उपयुक्त उम्मीदवार नहीं हैं, एनडीए गठबंधन में शामिल दलों में दरार पैदा कर दी है। एनडीए अब्दुल कलाम के हक में भी पूरी तरह नहीं है। दूसरे यह जरूरी नहीं कि भाजपा द्वारा बताया गया नाम गठबंधन में शामिल सहयोगियों के लिए स्वीकार्य हो। भाजपा ने अभी तक खुलकर कोई नाम नहीं पेश किया है। यह संभव नहीं रहा कि भाजपा अपने तौर पर किसी का नाम तय कर सके। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि एनडीए की अगुवाई अब भाजपा के हाथ में न रह सके और तकनीकी तौर पर अब भी नहीं है।