Showing posts with label Khursheed-Alam. Show all posts
Showing posts with label Khursheed-Alam. Show all posts

Sunday, February 17, 2013

राक बैंड पर मुफ्ती का फतवा


कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम पर हुए विवाद पर चर्चा करते हुए आल इंडिया वुमेन पर्सनला बोर्ड की अध्यक्षा शाइस्ता अंबर ने दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' के अपने लेख में लिखा है कि इस फिल्म में सभी मुसलमानों की छवि को बिगाड़ने की एक कोशिश है। इस फिल्म में दुनिया के सभी मुसलमानों को आतंकवादी बताया गया है और उन्हें कुछ इस अंदाज में पेश किया गया है कि यदि इस फिल्म को कोई गैर मुस्लिम देखेगा तो निश्चय ही मुस्लिम पड़ोसी उसकी नजर में संदिग्ध हो जाएगा। इसमें एक मुस्लिम पात्र को कुरआन पढ़ने के बाद बम धमाका करते हुए दिखाया गया है। इस तरह फिल्म निर्माता यह बताना चाहता है कि कुरआन शरीफ आतंक का गाइड है जो कि बिल्कुल गलत  बात है। फिल्म में मुस्लिम पात्रों को नमाज पढ़ने के बाद बम रखते हुए दिखाया गया है। छोटे बच्चों की आंख बंद करके हथियार पहुंचाते हुए दृश्य दिखाया गया है। यहां तक कि कारतूसों को सिर्प छूकर उसका नाम बताने की बात कही गई है। अर्थात मुसलमानों को बचपन से ही आतंकवाद की ट्रेनिंग मिल रही है। इस तरह के कई दृश्य फिल्म में मौजूद हैं जिससे मुसलमानों की छवि खराब करने की कोशिश की गई है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर एक विशेष समुदाय को निशाना बनाना कहां का लोकतंत्र है। कमल हासन रोना रोते हैं कि इस फिल्म में उन्होंने अपनी पूरी पूंजी लगा दी तो क्या मुसलमानों की भावनाओं से ऊपर उनका पैसा है। पैसे से देश की एकता को खत्म करने की कोई इजाजत नहीं दे सकता। जिस तरह बुद्धिजीवी वर्ग विश्वरूपम को लेकर  परेशान है यदि यह वर्ग मुसलमानों की सही सूरतेहाल पर भी आवाज उठाता तो शायद देश में मुस्लिम विरोधी माहौल बनाने वालों का मनोबल टूटता। लेकिन जिस तरह यह तथाकथित वर्ग सेकुलरिज्म की दुहाई देकर इस्लाम विरोधी लेखनी, फिल्मों और कार्टूनों का मनोबल बढ़ा रहा है यह देश की गगनचुंभी सभ्यता ही नहीं  बल्कि उपमहाद्वीप की संस्कृति को भी किसी न किसी तरह नुकसान पहुंचा रहा है।
जयपुर के साहित्यिक मेले पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील शम्सी अपने बहुचर्चित स्तम्भ में लिखते हैं कि आजकल साहित्य का एक और अर्थ हो गया है और उसका नाम है साहित्य द्वारा दिल दुखाना। साहित्य द्वारा दिल दुखाने वाले साहित्यकारों को बड़े-बड़े पुरस्कार और खिताब दिए जाते हैं। इन साहित्यकारों का यह पैदाइशी हक माना जाता है कि वह किसी भी धार्मिक समूह की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दिल दुखाने वाला यह वर्ग अपने को दुनिया के सभी कानूनों से ऊपर समझता है। हमारे देश में भी अब यह समझा जाने लगा है कि साहित्यकार और लेखक किसी भी धार्मिक समूह अथवा अल्पसंख्यकों का दिल दुखाने का हक रखते हैं। जयपुर में इसी मकसद के तहत एक साहित्यिक मेला भी हर साल सम्पन्न होने लगा है। गत वर्ष इसमें भाग लेने के लिए रुशदी को बुलाया गया था लेकिन मुसलमानों के विरोध के चलते वह शरीक नहीं हो सका। अपने प्रयासों में नाकाम होने के बाद कई तथाकथित साहित्यकारों ने विरोध करते हुए रुशदी की विवादित किताब के कुछ अंश पेश किए और इसकी हमारे देश के मीडिया ने खूब प्रशंसा की। इस बार इस मेले में रुशदी भाग लेने आया और मुसलमानों के दिलों पर कांग्रेस की मदद से तीर चलाने में कामयाब रहा। मेले में मौजूद आशीष नंदी जो उच्च जाति से संबंध रखते हैं और इनके दिल में दलितों और पिछड़ों के लिए जो घृणा मौजूद है वह उनकी जुबान पर आ गई। वही चैनल जो मुसलमानों का दिल दुखाने वाले रुशदी को हीरो बना पेश करते थे वही आशीष नंदी के खिलाफ मैदान में उतर आए। खुशी की बात है कि देश में इंसानों के समूह के खिलाफ बोलने वालों को जेल भेजे जाने की वकालत हो रही है। इस अवसर पर हम दुआ करते हैं कि काश!  ऐसा दिन आए जब पैगम्बर इस्लाम का अनादर करने वालों को यहां मेहमान न बनाया जाए बल्कि उनको गिरफ्तार भी किया जाए।
`दुष्कर्म जैसे अपराध के बढ़ते रुझान के लिए क्या कोई सभ्यता जिम्मेदार है?' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि अपराध के कारणों के संबंध में वैदिक साहित्य का नाम लेकर दलित बुद्धिजीवी कांचा अलिया ने बहस को एक नया रुख दे दिया है। उनके इस बयान की भर्त्सना हो रही है लेकिन न तो किसी ने उन्हें झूठा बताया और न उनके बयान को ऐतिहासिक और धार्मिक आधार पर गलत बताया अर्थात कांचा अलिया ने वैदिक साहित्य के बारे में जो कुछ कहा वह सही था, मतभेद इस बात पर था कि वैदिक साहित्य का प्रभाव आज भी पाया जाता या नहीं। कुछ समय पूर्व मशहूर वकील राम जेठमलानी ने भी श्री रामचन्द्र जी के भी कुछ पहलुओं पर आपत्ति की थी जिस पर काफी विरोध हुआ था लेकिन उस समय भी न तो किसी ने उन्हें झूठा बताया और न ही आपत्ति को दूर करने की कोशिश की। उपरोक्त मामले में भी कांचा अलिया के रहस्योद्घाटन के खंडन में हिन्दू धार्मिक गुरू का कोई बयान सुनने या पढ़ने में नहीं आया है।
वैदिक धर्म क्या है? वह मानव का किस तरह मार्गदर्शन करता है? इस पर विचार व्यक्त करने का हक तो हिन्दू धार्मिक गुरुओं का ही है और वही इसको सही तौर पर परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन इस देश की प्राचीन संस्कृति का बहुत प्रचार किया जाता है जिस पर कुछ लोगों द्वारा गर्व किया जाता है। इसकी कुछ बातों से सभी लोग परिचित हैं जैसे सती प्रथा, देवदासी प्रथा, विधवाओं को मनहूस समझना, दहेज प्रथा आदि इसी प्राचीन संस्कृति की देन हैं, भले ही कानून द्वारा इन पर प्रतिबंध हो लेकिन समाज पर इसका प्रभाव बिल्कुल न हो ऐसा कहना गलत होगा बल्कि सच तो यह है कि लड़कियों को गर्भ में मार देने का एक कारण महिलाओं के प्रति उपरोक्त सोच भी है। ऐसी सूरत में वर्तमान समाज पर प्राचीन सभ्यता के इस प्रभाव को  बिल्कुल खारिज नहीं किया जा सकता। सच तो है कि इस देश की बहुसंख्या कुछ मामलों को छोड़कर व्यावहारिक जिंदगी में धर्म के मार्गदर्शन के पक्ष में नहीं है और वह पश्चिमी सभ्यता की पक्षधर है जो उसे दुनिया में ज्यादा से ज्यादा मनोरंजन करने का पाठ देती है।
आतंकवाद के संबंध में गृहमंत्री के बयान पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार शमीम तारिक ने कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' में लिखा है कि आतंकवाद के सिलसिले में किसी गैर राजनीतिक संगठन और एक राजनीतिक पार्टी का नाम लेना बहुत अहम है। पूरा विवरण गृह सचिव आरके सिंह ने पेश किया जिसका कहना है कि समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद और ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार होने वाले कम से कम 10 व्यक्ति ऐसे हैं जो किसी न किसी तरह आरएसएस से जुड़े रहे हैं। कई अन्य मंत्रियों ने भी गृहमंत्री के बयान का समर्थन किया है। अच्छा होता कि गृहमंत्री आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले इन संगठनों के खिलाफ की गई कार्यवाही भी बताते। गृहमंत्री के इस बयान के संदर्भ में यह जरूरत महसूस होती है कि कांग्रेस सरकारी और प्रशासनिक स्तर पर इस तरह की गतिविधियों को रोकने के साथ जन स्तर पर भी ऐसे कार्यक्रम करे जिससे जनता के सामने आतंकवादियों का असल चेहरा सामने आ सके। इस काम में दूसरी सेकुलर ताकतों का साथ होना भी जरूरी है। जनता दल (यू) और शिवसेना भाजपा के समर्थन में उतर आए हैं। क्या कांग्रेस सेकुलर पार्टियों का फ्रंट तैयार नहीं कर सकती? यह विचित्र बात है कि कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियां चुनाव के बाद सत्ता के लिए एक-दूसरे से हाथ मिलाती हैं लेकिन चुनाव से पूर्व सांप्रदायिकता खत्म करने के लिए संयुक्त मोर्चा बनाने और जन आंदोलन चलाने से कतराती हैं।
`कश्मीर के ग्रैंड मुफ्ती का तालिबानी फतवा' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि पड़ोसी अफगानिस्तान का तालिबानी असर कश्मीर में पड़ने लगा है। कश्मीर के ग्रैंड मुफ्ती-ए-आजम बशीरुद्दीन ने तालिबानी फतवा जारी किया। उनका कहना है कि खुलेआम तेज संगीत गैर इस्लामिक है। दरअसल कश्मीरी लड़कियों ने एक राक बैंड प्रगाश बनाया है। जिसका अर्थ होता है अंधेरे से उजाले की ओर। लेकिन उसकी यह कोशिश रुढ़ीवादी समाज के लोगों के गले नहीं उतरी। पहले उन्हें ऑनलाइन बैंड बंद करने की धमकी दी गई और फिर सोशल साइट्स पर भद्दे कमेंट किए गए। इसके बाद इनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया गया। उनका कहना है कि खुले आम तेज संगीत गैर इस्लामी है। इसलिए राक बैंड में शामिल लड़कियों को यह काम बंद कर देना चाहिए। सवाल यह है कि घाटी में नई चेतना का स्वर क्या कुछ दकियानूसी लोगों के समूह के एतराज के कारण खामोश हो जाएगा? क्या सामाजिक सांस्कृतिक जड़ता के खिलाफ संगीत को एक औजार की तरह इस्तेमाल करने का तीन लड़कियों का हौसला बीच राह में ही दम तोड़ देगा? क्या देश में सांस्कृतिक अराजकतावाद इतना मजबूत हो गया है कि कलाकारों और उनकी कला पर भी पाबंदी लगाई जाएगी? अगर ऐसा है तो हमें संदेह है कि हम क्या गुजरी सदियों की ओर नहीं बढ़ रहे हैं?

`संसद हमला इतना बड़ा और फांसी सिर्प एक को'


अफजल गुरू की फांसी पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील शम्सी ने अपने स्तंभ में लिखा है कि अफजल गुरू को मकबूल भट की तरह फांसी के बाद जेल ही में दफन कर दिया गया। जाहिर है इसकी मौत पर कश्मीर के अलगाववादी लोगों में गम का माहौल है, क्योंकि  उनकी दृष्टि में अफजल गुरू तो एक मुजाहिद था, जिसने कश्मीरियत की लड़ाई  लड़ी। दुर्भाग्य से आतंकवाद अख्तियार करने वालों की दो तस्वीरें दुनिया के सामने होती हैं। एक वर्ग उनको अत्यंत खराब इंसान मानता है जबकि दूसरा वर्ग उनको हीरो का दर्जा देता है जैसा कि पंजाब में भी हो रहा है कि वहां की शिरोमणी अकाली दल की सरकार ऐसे लोगों को शहीद का दर्जा देती है जिन्होंने देश में आतंक का नंगा नाचा दिखाया। इंदिरा गांधी के हत्यारों की तस्वीर अमृतसर के धार्मिक स्थानों पर शहीद के तौर पर लगी हुई हैं। बेअंत सिंह के हत्यारे को जिंदा शहीद का दर्जा दिया गया है। ऐसी ही हमदर्दी अफजल गुरू के साथ कश्मीर के अलगाववादियों को है और इसी कारण वहां इतनी बेचैनी है कि सरकार को पूरी घाटी में कर्फ्यू लगाना पड़ा है। जहां तक अफजल गुरू को फांसी दिए जाने का सवाल है तो भारतीय सरकार ने न्यायिक प्रक्रिया को पूरी तरह साफ रखा है और इसी कारण सजा के आदेश पर अमल होने में इतनी ज्यादा देर लगी। हमारे विचार में देरी के कारण भारत की कानूनी व्यवस्था का सम्मान बाकी रहा।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अफजल गुरू को फांसी दिया जाना कानून के सभी पहलुओं की कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं, इस पर बहस की जा सकती है और शायद की भी जाए। लेकिन एक बात तय है कि इस अचानक फैसले के पीछे सियासी पहलू छुपा हुआ है। यह बात आमतौर पर जानी जाती है कि अफजल गुरू को फांसी न दिया जाना भाजपा और शिवसेना के हाथों में एक बहुत प्रभावी हथियार बन गया था, जिसका दोनों ने कांग्रेस के खिलाफ जी भर इस्तेमाल किया और यह कहकर किया कि अफजल गुरू को फांसी इसलिए नहीं दी जा रही है कि कांग्रेस आतंकवादियों के प्रति नरमी की नीति पर काम कर रही है। इस  बाबत इस तर्प को भी चुटकियों में उड़ा दिया जाता था कि अफजल गुरू ने राष्ट्रपति से दया की अपील की थी और इनकी अपील का नम्बर पहला नहीं था। इसके पूर्व अजमल कसाब के प्रति भी भाजपा और शिवसेना का यही दृष्टिकोण था। इसलिए जब अचानक कसाब को फांसी दी गई तो भाजपा और शिवसेना सन्नाटे में आ गईं। उनका एक अहम हथियार खत्म हो गया। भाजपा यूरोपीय यूनियन की ओर से नरेन्द्र मोदी का बायकाट खत्म किए जाने को अपनी लिए और नरेन्द्र मोदी के लिए शुभ साबित करने और प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी मजबूत करने का फैसला कर चुकी थी। यदि अफजल गुरू की फांसी पर ब्रेकिंग न्यूज का दर्जा न अख्तियार कर लेती तो नरेन्द्र मोदी और उनके माध्यम से भाजपा मीडिया पर छाई रहती।
आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत (शहाबुद्दीन ग्रुप) के अध्यक्ष डॉ. जफरुल इस्लाम खां ने अपने बयान में कहा कि यह कानूनी और नैतिक स्तर पर जल्दबाजी में उठाया गया इंसाफ के विरुद्ध कदम है। अफजल ने बार-बार दावा किया था कि वह एक  पुलिस अधिकारी द्वारा भेजा गया था लेकिन इस दावे की कोई जांच नहीं की गई।
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला भी विचारणीय है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि `इस दर्दनाक घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था और हमारा समाज सिर्प इस बात पर संतुष्ट होगा कि हमला करने वालों को फांसी की सजा दी जाए।'
`संसद हमला इतना बड़ा और फांसी सिर्प एक को क्यों ' के शीर्षक से सहरोजा  `दावत'ने लिखा है कि संसद के शीत सत्र के पूर्व मुंबई हमले के आरोपी अजमल कसाब को तुरन्त 21 नवम्बर 2012 को  पुणे की जेल में फांसी दे दी गई और अब इसके ठीक 79 दिन बाद अर्थात 9 फरवरी 2013 को संसद हमला केस में अफजल गुरू को फांसी दे दी गई और इसे भी कसाब की तरह जेल में ही दफन कर इस अध्याय को बंद कर दिया गया, यह भी संयोग है कि दोनों मामलों में केवल एक-एक व्यक्ति को फांसी दी गई, जबकि इस मामले को देश-विदेश में जिस तरह पेश किया गया था, केवल एक-एक व्यक्ति की फांसी एक तरह से उसका अपमान है। इसे सांकेतिक सजा कहकर अध्याय को बंद करना ही कहेंगे।
 हमला करने वालों को फांसी तो दे दी लेकिन यह सवाल आज भी अपनी जगह है, सुरक्षा में जिन से चूक हुई या हमले की रोकथाम में सुरक्षा एजेंसियां या सरकारें नाकाम हुईं, उनको कब सजा होगी, क्या केवल हमला करने वालों को घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहरा देना और केवल उनको ही सजा देना समस्या का हल है या जिन लोगों ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई, उसको भी सजा दिलाना जरूरी है।
`अफजल गुरू को फांसी दे दी गई और दी भी जानी चाहिए थी लेकिन इसमें इतनी जल्दी और छुपाने का तुक क्या है' के शीर्षक से कोलकाता और नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कांग्रेस 2014 के आम चुनाव से पूर्व आंतरिक सुरक्षा के हवाले से आतंकियों को फांसी पर लटका कर अपने सियासी हित को बढ़ावा दे रही है और यह कि इस समय वह 13 व्यक्ति जिन्हें फांसी पर लटकाया जाना है उनका किस्सा जल्द से जल्द खत्म कर वह वाहवाही लूटना चाहती है। संभव है कि इस विश्लेषण में कुछ सच्चाई भी हो लेकिन 13 व्यक्तियों को फांसी पर लटका कर कांग्रेस चुनावी किला नहीं जीत सकती। इसके बावजूद यह बात उल्लेखनीय है कि सरकार हर मामले में संदेह पैदा करती है। कसाब को फांसी देने में भी जल्दबाजी की गई। दिल्ली गैंगरेप की शिकार निर्भय को सिंगापुर ले जाने और उसके अंतिम संस्कार किए जाने तक यही स्थिति देखने को मिली। यह किसी जन हित सरकार की निशानी नहीं हो सकती कि वह जन हित मामलों को छुपाए और अपने कामों संदेह के घेरे में  लाए।
`कसाब बनाम अफजल ः एक आतंक का चेहरा तो दूसरा शैतानी दिमाग' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि संसद हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरू की फांसी की खबर के साथ ही हर हिन्दुस्तानी के जेहन में एक और फांसी की अनदेखी तस्वीर कौंध जाती है। मुंबई पर कहर बरपाने वाले अजमल आमिर कसाब का कारनामा भले ही अलग हो लेकिन दोनों का इरादा एक था और अंजाम भी एक सा हुआ। एक ने देश के आर्थिक केंद्र को तो दूसरे ने राजनैतिक केंद्र को निशाना बनाया। इसमें से एक विदेशी था तो दूसरा देसी लेकिन दोनों की कमान पाकिस्तान में ही थी। दोनों को कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने फांसी पर लटकाया। दोनों ही मामलों में पाकिस्तान बार-बार अपनी किसी भी भूमिका से पूरी तरह इंकार करता रहा लेकिन उसकी भूमिका साफ थी।

सजा अपराध की बुनियाद पर न कि उम्र की बुनियाद पर


2014 के लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम राहुल में रेखांकित करते हुए विख्यात सामाजिक चिंतक एवं टिप्पणीकार मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी दैनिक `जदीद खबर'में प्रकाशित अपने लेख में चर्चा करते हैं कि राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी में अपनी पार्टी में बड़ी  जिम्मेदारी देने के गर्मागरम चर्चा में सियासी रथ दो विरोधी दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है, इसके पहिए के नीचे कौन-कौन आकर अपने गंतव्य को पाएंगे और कौन-कौन रथ की सवारी के नाम पर एयरकंडीशन, आरामदेह कार रथ की सवारी का आनंद लेंगे, इसका पूर्ण विवरण बताने की स्थिति में अभी कोई नहीं है। राजू शुक्ला जैसे कांग्रेसियों की इस आशा और भविष्यवाणी को पूरी तरह झुठलाया नहीं जा सकता कि 2014 में उनके प्रधानमंत्री राहुल गांधी होंगे। ऐसी हालत में भाजपा आज की तारीख में `धर्म संकट' में है कि प्रधानमंत्री के तौर पर खुलकर किसका नाम सामने लाया जाए। आने वाले दिनों में राहुल गांधी बनाम मोदी की सियासत तेज होगी। मोदी केवल एक नाम नहीं रह गया है बल्कि एक विशेष मानसिकता का प्रतीक बन गया है। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को पार्टी में शामिल करने के संदर्भ में जिस सोच का सबूत दिया है। इसने भाजपा के विशेष चेहरे से एक बार फिर नकाब उठा दिया है। इसलिए नरेन्द्र मोदी को संघ को विशेष परिप्रेक्ष्य में ही देखना होगा। लेकिन यदि कांग्रेस ने गुजरात की तरह हिन्दुत्व से दूरी वाली नीति अपनाई तो उसे अच्छे नतीजे की आशा नहीं  रखना चाहिए। इसलिए चुनावी लड़ाई तो जंग की तरह ही लड़नी होगी, ऐसी हालत में कोई स्पष्ट भविष्यवाणी तो नहीं की जा सकती लेकिन कामयाबी के संबंध में करीब-करीब सही अंदाजा लगाना आसान हो जाता है कि बाजी किसके हाथ में होगी।
दिल्ली और कोलकाता से एक साथ प्रकाशित दैनिक `अखबारे मशरिक' ने दिल्ली की 23 वर्षीया निर्भय के साथ हुए गैंगरेप के छठे आरोपी को नाबालिग बताने पर चर्चा करते हुए अपने सम्पादकीय में लिखा है कि आयु का मामला तकनीकी है और असल चीज अपराध का होना है। सजा अपराध की बुनियाद पर होनी चाहिए न कि उम्र की बुनियाद पर। छोटे-मोटे अपराध के मामलों में तो फिर भी वयस्क और अवयस्क की बात की जा सकती है लेकिन दुष्कर्म और जघन्य हत्या के मामले में किसी प्रकार की छूट देना अपराध का हौसला बढ़ाना होगा। 13 से 14 वर्ष की आयु को विशेषज्ञों ने सबसे ज्यादा खतरनाक करार दिया है। ऐसी हालत में अवयस्क होने के कारण सख्त सजा से छूट जाना अपराध को बढ़ाने जैसा होगा। क्या यह अच्छा होता कि कानून मंत्रालय मोटे-मोटे अपराध जैसे हत्या और दुष्कर्म आदि के संदर्भ में जनता को सचेत करता विशेषकर इस परिप्रेक्ष्य में कि अपराध पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गए हैं और इसमें युवाओं का हिस्सा ज्यादा है। यदि इन्कम टैक्स विभाग विज्ञापन द्वारा नागरिकों को यह बता सकता है कि टैक्स की चोरी या न देने की सूरत में जुर्माना या कैद की नौबत आ सकती तो हत्या, दुष्कर्म और अन्य गंभीर अपराध की बाबत सरकार उनको प्रचारित क्यों नहीं करती। यह सच्चाई है कि जिन देशों में सख्त कानून है वहां अपराध का ग्रॉफ कम है। हमें भी सजा को सख्त करना होगा और उम्र के चक्कर से निकलना होगा।
कमल हासन की फिल्म `विश्वरूपम' पर चर्चा करते हुए दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में  लिखा है कि उनकी पिछली फिल्मों की नाकामी ने शायद उन्हें थोड़ा डगमगा दिया, उन्हें एक ऐसी कहानी की तलाश थी जो डब किए जाने की सूरत में तमिलनाडु से बाहर हिन्दी फिल्म जगत से भी ढेरों पैसा वापस ला सके। इस जरूरत ने उन्हें एक ऐसी कहानी चुनने पर मजबूर कर दिया, जिस तरह की कहानियां कई सफल हिन्दी फिल्मों का विषय भी रही हैं। इन फिल्मों का एक खास पहलू मुसलमानों को एक खास अंदाज में पेश किया जाता है। किसी न किसी बहाने और किसी न किसी आतंकवादी, स्मगलिंग, देशद्रोही और अन्य नकारात्मक मूल्यों से मुसलमानों को जोड़ दिया जाता है और उन्हें विलेन बनाकर पेश किया जाता है। कमल हासन ने यही किया। यह कहा जा सकता कि ऐसा करने का कारण उनकी मानसिकता नहीं, पैसे की ज्यादा जरूरत थी। लेकिन शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि यही कारीगरी उनके लिए बवाल जान बन जाएगी। उन्होंने चाहा था कि फिल्म डिजीटल तकनीक की मदद से `डायरेक्ट टू होम' रिलीज की जाए लेकिन जयललिता सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी। इसके बाद मुस्लिम मुनतरा गजम नामी सियासी पार्टी को इसकी भनक लग गई। इसके विरोध के बाद मामला हाई कोर्ट पहुंचा। हाई कोर्ट ने सुझाव दिया कि कमल हासन को विरोध करने वालों से बात करके मामले को तय कर लेना चाहिए।  तमिलनाडु सरकार ने भी कहा है कि विश्वरूपम से कम से कम घंटे भर का मैटर निकाल देना चाहिए। यही उनके लिए बेहतर तरीका है।
दिल्ली के महरौली में डीडीए द्वारा गौसिया मस्जिद तोड़े जाने पर जो राजनीति हो रही है उसका रहस्योद्घाटन करते हुए आमिर सलीम खां ने दैनिक `हमारा समाज' में लिखा है कि सरकारी एजेंसियों द्वारा तोड़ी गई गौसिया मस्जिद और इससे मिली कालोनी का पुनर्निर्माण न हो लेकिन कुछ लोग लीडरी चमकाने में जरूर व्यस्त हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि दशकों से मसलकी जंग से दूर रहने वाली गौसिया मस्जिद के विध्वंस के बाद मसलक का जहर फैलाया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि विध्वंस के लिए कुछ पीड़ित भी बराबर के जिम्मेदार हैं। आपसी चपकलीश के चलते गौसिया कालोनीवासियों ने लगभग 50 से अधिक आवेदन विभिन्न सरकारी विभागों में देकर दिल्ली वक्फ बोर्ड की जमीन को सरकारी बताते हुए उस पर से अतिक्रमण हटाने की मांग की गई। जब विध्वंस हुआ तो जिन्होंने सरकारी सम्पत्ति बताई थी वही दिल्ली वक्फ बोर्ड की जमीन के पुख्ता सबूत ले आए। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और दिल्ली वक्फ बोर्ड सहित विभिन्न बैठकों में यह बात भी सामने आ चुकी है जब कुछ पीड़ितों ने यहां तक कह दिया कि `मस्जिद नहीं पहले हमारे घर निर्माण कराओ।' गौसिया मस्जिद और वहां वक्फ जायदादों की सामूहिक लड़ाई अब बिखर चुकी है। कुछ लोग बाहर से आकर वहां मुसलमानों में मसलक का जहर फैला रहे हैं। महरौली में मस्जिद और वक्फ जायदादों के संरक्षण के  लिए यदि एक  शाही इमाम ने आवाज बुलंद की तो उनके बजाय मसलक का जहर फैलाने वाले लोग दूसरे शाही इमाम को लेकर घटनास्थल पर पहुंच रहे हैं। स्थानीय लोगों ने भी यह स्वीकार किया कि हमसे गलती हुई है और हमारे कुछ नेता लीडरी चमकाने के लिए मसलकी दीवार खड़ी कर रहे हैं।
`शाहरुख की छोटी-सी टिप्पणी पर इतना बड़ा बवाल' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बॉलीवुड के सुपर स्टार शाहरुख खान की सुरक्षा पर नापाक नसीहत भारत और पाकिस्तान के बीच तकरार का नया सबब बन गई है। 21 जनवरी न्यूयार्प टाइम्स के सहयोग से प्रकाशित पत्रिका आऊटलुक टर्निंग प्वाइंट्स का अंक बाजार में आया था। पत्रिका को दिए अपने इंटरव्यू में शाहरुख ने अपने मन की कई बातों का खुलासा किया। इसमें उन्होंने यह भी कहा कि भारत में कुछ ही नेता हर मुसलमान को देशद्रोही नजरिए से देखते हैं। इस पीड़ा से एक मुस्लिम होने के नाते वे कई बार खुद गुजरे हैं। ऐसे में उन्हें देशप्रेम जताने के लिए कुछ न कुछ बोलना पड़ता है। जबकि उनके पिता एक स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। उनकी पत्नी गौरी एक हिन्दू हैं। उनके जीवन में कभी भी धर्म के सवाल पर तनाव नहीं हुआ। लेकिन कुछ लोग मुसलमानों को गलत नजरिए से देखते हैं। इस इंटरव्यू के छपते ही मुंबई हमले के मास्टर माइंड और आतंकी संगठन जमात उद दावा के सरगना हाफिज सईद ने शाहरुख की आप बीती का हवाला देते हुए उन्हें पाकिस्तान में बसने का न्यौता दे डाला। पाकिस्तान के गृहमंत्री रहमान मलिक बिना सोचे इस मैदान में कूद गए। शाहरुख ने बिना किसी का नाम लिए यह स्पष्ट किया कि कोई उन्हें बेवजह सलाह न दे।

पाकिस्तान के उकसाने के पीछे असल मंशा क्या है?


`सीमा पर तनाव का हल क्या हो?' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि सेना प्रमुख ने बहुत अच्छे अंदाज में पाकिस्तान को चेतावनी दी है लेकिन महसूस किया जाता है कि यह काफी नहीं है और पाकिस्तानी घुसपैठ और उसके बाद उनकी ओर से कोई जिम्मेदारी न लेने के रवैए पर बहुत सोचना और समझना होगा। इसका मतलब यह भी नहीं कि हमें पाकिस्तान के खिलाफ फौजी कार्रवाई ही कर देनी चाहिए और ताकत के इस्तेमाल से काम लेना चाहिए, यह भी मसले का कोई ठोस हल नहीं होता है क्योंकि इसके नतीजे दोनों देशों के लिए बहुत दर्दनाक और नुकसान पहुंचाने वाले होंगे। इसलिए यदि बातचीत से काम चले तो हर स्तर पर बातचीत के रास्तों को खुला रखना चाहिए और गम व गुस्सा को काबू में रखते हुए प्रभावी ढंग से मसले के हल की तलाश करनी चाहिए क्योंकि हम किसी भी तरह से कमजोर नहीं हैं बल्कि किसी भी तरह की कार्यवाही का जवाब देने की पूरी ताकत रखते हैं। कारगिल के मौके पर और उसके पूर्व 1971 में युद्ध छिड़ने पर दिखाया है। लेकिन दोनों देशों की जनता एक दूसरे के करीब और रिश्तों में मधुरता रखकर ही खुश होती है क्योंकि दोनों देशों की भाषा, संस्कृति और सभ्यता में जितनी समानता है शायद ही कहीं दो पड़ोसियों में देखने को मिले, यहां तक कि बंगलादेश, श्रीलंका, चीन और म्यांमार किसी में उतनी समानता नहीं है जितनी भारत और पाकिस्तान के बीच पाई जाती है।
`पाकिस्तान से मायूस है अमन का कारवां' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में सहारा न्यूज नेटवर्प के एडीटर एवं न्यूज डायरेक्टर ओपेंदर राय ने अपने स्तंभ में लिखा है कि पाकिस्तान में इसी साल चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में वहां के सारे ग्रुपों में भारत विरोधी नारों की होड़ लगी है। इस हालत में हमारी फौज और हमारी सरकार को धैर्य से काम लेना होगा। जल्दबाजी में हम किसी ऐसे आपशन्स को न चुनें जिससे माहौल और  बिगड़ जाए। पाकिस्तान ऐसा नासूर है जिसका इलाज आपरेशन नहीं है। इसे मरहम पट्टी के साथ एंटी बायटेक के बोस्टर डोज की जरूरत है। हमें इन दोनों का इस्तेमाल करना चाहिए और चीर-फाड़ से बचना चाहिए। पाकिस्तान की शासकीय व्यवस्था में कई परतें हैं। बाहरी दुनिया के लिए सरकार के मुखिया वहां के राष्ट्रपति आसिफ अली हैं लेकिन पाकिस्तान में इस सिविल सरकार का शासन पर पूरी तरह से कंट्रोल नहीं है। दूसरी परत के मुखिया पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल अशफाक परवेज कयानी हैं। कयानी ने आज तक इस सिविल सरकार के कामकाज में दखल नहीं दिया है लेकिन कयानी इस वर्ष सेवानिवृत्ति हो रहे हैं। इतिहास साक्षी है कि पाकिस्तान का कोई भी आर्मी चीफ आसानी से कुर्सी नहीं छोड़ता है। संभव है कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए कयानी ऐसे हालात पैदा करने की कोशिश करें, जिससे आर्मी की भूमिका में वृद्धि हो जाए। हो सकता है कि भारत के साथ ताजा विवाद एक फौजी षड्यंत्र हो, जिसे कयानी की ओर से समर्थन मिल रहा हो और जिसके बारे में वहां की सिविलियन सरकार को भी न मालूम हो।
`नक्सली हिंसा के कारण और हल क्या हों?' के शीर्षक से कोलकाता और दिल्ली से एक साथ प्रकाशित होने वाले दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि 1960 के दशक से शुरू हुई नक्सली हिंसा अभी खत्म नहीं हुई है और यह आज देश की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है बल्कि एक लिहाज से सीमा पार से जारी आतंक से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि इसके पीछे जो गुमराह युवक सक्रिय हैं उनकी जड़ें हमारे कस्बों, देहातों और छोटे-छोटे गांवों में फैली हुई हैं। देश के लगभग दस राज्य इसकी लपेट में हैं। इस आतंक के खिलाफ बुद्धिजीवियों के विचार भी समय-समय पर सामने आए हैं जिसके मुताबिक नक्सलइज्म को ताकत के बल पर खत्म नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह आर्थिक असमानता के कोख से पैदा हुई है और इसे एक सामाजिक मसले के तौर पर ही हल किया जाना चाहिए। नक्सली हिंसा को हल करने की दिशा में हमारा पहला कदम कबाइली क्षेत्रों से दलाली की परम्परा अथवा ठेकेदारी को बेदखल करना चाहिए, जिसका एक उदाहरण मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने तेंदू पत्ते से ठेकेदारी हटाकर और इस कारोबार को कबाइलियों को देकर किया था लेकिन छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने यह काम ठेकेदारों के सुपुर्द कर दिया जो इस कारोबार में फायदे के बजाय नुकसान बताते हैं क्योंकि खनन कर रही कम्पनियां अपने सीए से बनवाई बैलेंस शीट में सदैव घाटा दिखाती हैं। इसलिए उचित तरीका यही है कि खनन का फायदा कबाइलियों (आदिवासियों) को पहुंचाने के खनिज की हर टन पैदावार की रायलटी का एक हिस्सा उनको दिया जाए। इसी 1927 के अंग्रेजों के बनाए जंगल कानून को भी वापस लिया जाए इसके द्वारा आदिवासी जंगल पर अपने हक से वंचित हो गए हैं और यही उनको हिंसा द्वारा अपना हक लेने पर मजबूर करती है।
16 दिसम्बर को राजधानी दिल्ली में एक लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और जघन्य हत्या के बाद से विरोध-प्रदर्शन  का सिलसिला जारी है। जिस तेजी से यह आंदोलन चल रहा है उसी तेजी से हर दिन दुक्रम की सजाएं अखबारों में पढ़ने को मिल रही हैं। सहरोजा `दावत' में मोहम्मद सिबगातुल्ला नदवी ने `बिगाड़ के सुधार के लिए धर्म एवं नैतिकता का सहारा लेना पड़ेगा' के शीर्षक से अपने लेख में लिखा है कि आज महिलाओं से दुष्कर्मों के लिए आजीवन कारावास अथवा फांसी की  बात कही जा रही है लेकिन यह सजा इसे रोक सकेगी, निश्चय ही नहीं, क्योंकि हत्या के लिए पहले से ही यह सजा निर्धारित है जब इस मामले में यह डर पैदा नहीं कर सका तो दुष्कर्म के मामले यह कैसे डर पैदा कर सकेगी। वास्तव में सारी खराबियों और बुराइयों की जड़ वह बिगाड़ है जो समाज में फैला हुआ है जिसके सुधार के  बजाय उसे कानून संरक्षण दिया जा रहा है। लोगों को मानवता, नैतिकता और धर्म का पाठ पढ़ाने के बजाय उस कानून का पाठ पढ़ाया जा रहा है जो खुद खामियों से भरा होता है वह दूसरों का सुधार क्या करेगा।
`सुप्रीम कोर्ट द्वारा खाप पंचायतों को फटकार' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' के सम्पादक (नार्थ) शकील शम्सी ने अपने स्तंभ में  लिखा है कि खाप पंचायतें मोहब्बत की शादी, ईश्क और महिला आजादी के सख्त खिलाफ हैं, पुरुषों का वर्चस्व कायम करना उनका पहला दायित्व है। उनका मानना है कि दुष्कर्म की घटनाएं इसलिए होती हैं कि महिलाओं को आजादी मिल गई है। खाप पंचायतों की नजर में सबसे बड़ा गुनाह एक ही गोत्र में होने वाली शादियां हैं। खाप का संबंध न हो। खाप पंचायतों ने लड़कियों को जीन्स न पहनने की हिदायत दी जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने पंचायतों को आदेश दिया कि वह लड़कियों को जीन्स पहनने या मोबाइल रखने से मना नहीं कर सकती। जीन्स पहनने की इच्छुक और मोबाइल रखने की इच्छा रखने वाली लड़कियों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से काफी खुशी हुई होगी, लेकिन इस आदेश से उनकी समस्याएं हल हो जाएंगी, विश्वास से नहीं कहा जा सकता लेकिन आशा की एक किरण पैदा हुई है जो बहुत सी लड़कियों को एहसास महरूमी से  बचाएगी।
`पाकिस्तान के उकसाने के पीछे असल मंशा आखिर क्या है?' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि दरअसल हम तो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि पाकिस्तान भारत के साथ एलओसी पर बढ़ रहे तनाव को कम करने में दिलचस्पी रखता ही नहीं। उसका कोई बड़ा गेम प्लान है जिसका मेंढर सेक्टर में दो भारतीय जवानों का सिर काटने की घटना एक हिस्सा है। अगर ऐसा न होता तो नियंत्रण रेखा पर तनाव कम करने के लिए मुश्किल से हुई फ्लैग मीटिंग से ठीक एक दिन पहले युद्ध विराम का फिर से उल्लंघन न करता। यही नहीं भारत ने पाकिस्तान पर ताजा आरोप लगाया कि दोनों देशों के बीच ब्रिगेडियर स्तर पर हुई फ्लैग मीटिंग के बाद से अब तक वह पांच दफा संघर्ष विराम का उल्लंघन कर चुका है। लिहाजा सोमवार को फ्लैग मीटिंग का जो नतीजा निकलना था वही निकला। यानी कुछ भी नहीं निकला। साफ है कि पाकिस्तान घुमा-फिराकर किसी भी तरह से इस मामले में तीसरे पक्ष की दखलअंदाजी चाहता है जबकि यह द्विपक्षीय मामला है। भारत सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी हालत में इसे अंतर्राष्ट्रीय नहीं होने देगा।

Tuesday, January 8, 2013

प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद क्या मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी रुकेगी?


बाबरी मस्जिद गिराए जाने के 20 वर्ष बाद लगभग सभी उर्दू अखबारों ने इस पर विशेष रिपोर्ट प्रकाशित की और सम्पादकीय लिखे। दैनिक `सहाफत' में अतहर सिद्दीकी ने अपने विशेष लेख `परदे सियासत पर अगर शहाबुद्दीन न होते तो बाबरी मस्जिद शहीद नहीं होती' में स्थिति की समीक्षा की है। साथ ही उनके द्वारा नरेन्द्र मोदी को माफी दिए जाने पर लिखा है कि किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह दंगा पीड़ितों की ओर से उस अत्याचारी व्यक्ति को माफ करे। शहाबुद्दीन साहब। खुदा के लिए ऐसा फलस्फा आप मुस्लिम कौम को न पढ़ाएं जिसमें दूसरी बार बाबरी मस्जिद को शहीद करने का संदेह मौजूद हो। इसी अखबार ने बाबरी मस्जिद मुकदमे के संदर्भ में तीन किस्तों में सूरतेहाल को स्पष्ट कर बताया है कि मुकदमों में देर भी है और अंधेर भी। सीबीआई ने 9 फरवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट में अपील कर मांग की है कि हाई कोर्ट के इस आदेश को निरस्त करते हुए आडवाणी सहित 21 आरोपियों के खिलाफ बाबरी मस्जिद गिराने का षड्यंत्र और अन्य धाराओं में मुकदमा चलाया जाए। अभी इस अपील पर सुनवाई होनी है। मुकदमा चलने के बाद सबूत न होने के कारण बहुत से अपराधी छूट जाएंगे, वह अलग बात है लेकिन अभी यही तय नहीं हो रहा है कि किस आरोपी के खिलाफ किस-किस सेक्शन में कहां मुकदमा चलाया जाएगा। अब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से कौन पूछेगा कि अदालतों में यह देर अंधेर नहीं तो फिर क्या है?
दैनिक `इंकलाब' में सईद अहमद खां ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद मुंबई दंगों के पीड़ितों पर चर्चा करते हुए लिखा है कि 20 साल बाद भी इंसाफ का रास्ता देख रहे हैं। मुंबई दंगा पीड़ितों के जख्म आज भी हरे हो जाते हैं जब 6 दिसम्बर आता है। पीड़ितों को सबसे ज्यादा शिकायत पुलिस और सरकार से है। उनके अनुसार एक तरफ जहां पुलिस ने दंगों के दौरान दंगाइयों की भूमिका निभाई, वहीं सरकार ने भी इनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की है। जिसकी वजह से पीड़ितों को आज तक न्याय नहीं मिला और उन पर भय छाया हुआ है। `बाबरी मस्जिद घटना' पर इसी अखबार ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बहुत से लोग गंभीरता के साथ ही यह सुझाव देते हुए मिलते हैं कि मुसलमान बाबरी मस्जिद घटना को भूल जाएं और शिक्षा एवं रोजगार द्वारा उस सामूहिक परिवर्तन को पकड़ें जो उन्हें इस देश में ज्यादा प्रभावी बना सकता है। जहां तक इस पहले सुझाव का मामला है कि मुसलमान बाबरी मस्जिद को भूल जाएं, तो यह संभव नहीं है क्योंकि बाबरी मस्जिद देश में लोकतंत्र और भाईचारे का एक अहम प्रतीक थी। इस घटना ने मुसलमानों को ही नहीं देशवासियों को भी झिझोड़ कर रख दिया था। यह सेकुलरिज्म पर विश्वास रखने वाले, देश के हर नागरिक का मसला है। इस बुनियाद पर यह भी कहना गलत न होगा कि यदि मुसलमान उसे भूल जाएं तब भी यह घटना भूली नहीं जा सकती। दूसरा सुझाव सौ फीसदी सही है कि मुसलमान शैक्षिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन से निजात हासिल कर जिंदगी की दौड़ में न केवल आएं बल्कि खुद को भी मनवाएं।
दारुल उलूम देवबंद में भारतीय दर्शन के शिक्षक एवं जमीअत उलेमा हिन्द के प्रवक्ता मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी ने आरएसएस के चेन्नई में हुए तीन दिवसीय सम्मेलन पर चर्चा करते हुए लिखा है कि आरएसएस के सिलसिले में यह बताने की जरूरत नहीं है कि उसकी सभी बुनियादें नकारात्मक और प्रयास का निशाना देश के एक विशेष वर्ग का उत्थान और उसे सत्तासीन बनाना है, जिसे वह हिन्दू राष्ट्र का नाम देता है। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में आयोजित हुई इस बैठक के पहले सेशन में असम की हिंसा के शीर्षक से बंगलादेशी घुसपैठियों की चनौती को देशव्यापी स्तर पर बताने की कोशिश की गई है। इससे जाहिर है कि राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ बहुसंख्यक में घृणा और संदेह पैदा करने का और रास्ता खुलेगा। पुलिस प्रशासन की भी इसमें पूरी मदद मिलेगी, जैसा कि आज तक देखा गया है। घृणा, हिंसा और संदेह के माहौल में जहां संघ को बहुसंख्यक समाज के संरक्षण के तौर पर पेश करने का मौका मिल जाता है वहीं आतंक के शिकार इसे अपनी पनाहगाह समझते हुए इसके करीब आ जाते हैं और यही आरएसएस की कामयाबी है। आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र`आर्गनाइजर' के सम्पादकीय, डॉ. प्रवीन तोगड़िया का स्तम्भ और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के चेन्नई अधिवेशन की पूर्ण रिपोर्ट से संघ के इरादों का पता चलता है। इस सिलसिले में हमें नहीं मालूम कि हमारा नेतृत्व किस हद तक संघ के मामले को गंभीरता से लेते हुए आने वाले दिनों में रणनीति बनाकर ऐसा काम करेंगे जिससे मुल्क व मिल्लत दोनों को फायदा हो।
मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी को लेकर समाजवादी पार्टी नेता प्रोफेसर राम गोपाल यादव की अगुवाई में संसद में मुद्दा उठाने और इसके चलते संसद की कार्यवाही तीन बार रोकनी पड़ी, जबकि इसके एक दिन पूर्व 3 दिसम्बर को लोक जन शक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम विलास पासवान की अगुवाई में 16 सांसदों के एक प्रतिनिधि मंडल ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से मुलाकात कर उन्हें एक ज्ञापन दिया। इन सांसदों ने जांच एजेंसियों सीबीआई, पुलिस और अन्य एजेंसियों द्वारा मुस्लिम युवाओं की लगातार हो रही गिरफ्तारियों पर चिन्ता व्यक्त की। इस पर प्रधानमंत्री ने उन्हें भरोसा दिलाया कि आतंकी मामलों में पारदर्शिता और ईमानदारी से काम लिया जाएगा। दैनिक `हमारा समाज' ने `विश्वास दिलाने से कुछ नहीं होगा' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में  लिखा है कि सवाल यह पैदा होता है कि इन मुस्लिम युवाओं को कब तक इंसाफ मिलेगा और प्रधानमंत्री ने जो विश्वास दिलाया है, उस पर किस समय अमल किया जाएगा। हकीकत यह है कि ऐसी यकीनी दहानी अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमानों के बारे में कराई जाती रही हैं लेकिन उसके बाद हमारे देश के नेता यह भूल जाते हैं कि हम ने कब किस से क्या वादा किया था। समाजवादी पार्टी की मांग पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने आकर कोई बयान नहीं दिया जबकि संसद की कार्यवाही को तीन बार स्थगित करना पड़ा। राज्यसभा में मुस्लिम युवाओं की रिहाई के सिलसिले में नारे लगाए गए लेकिन हमें अब भी सरकार की नीयत साफ नजर आती और हमें नहीं लगता कि इस तरह की यकीन दहानी के बाद बेगुनाह मुसलमानों की गिरफ्तारियों पर रोक लग जाएगी।
अरविन्द केजरीवाल द्वारा `आम आदमी पार्टी' के नाम से सियासी पार्टी के गठन पर सहरोजा `दावत' के सम्पादक परवाज रहमानी ने विख्यात स्तम्भ `खबरो नजर' में चर्चा करते हुए लिखा कि आम आदमी पार्टी के संस्थापक के अब तक बयानात और विचारों से यह धारणा गलत न होगी कि वह अपने प्रयासों में ईमानदार हैं। भ्रष्टाचार से परेशान हैं और उसे हर कीमत पर खत्म करना चाहते हैं। थोड़ा जज्बाती आदमी  हैं लेकिन आदमी काम के हैं। इसलिए उन्हें याद दिलाना उचित मालूम होता है कि वह बातचीत याद करें जो गत वर्ष जमाअत इस्लामी हिन्दू मुख्यालय में अमीर जमाअत मौलाना जलालुद्दीन उमरी ने उनसे की थी, जब वह अपनी टीम के साथ जमाअत मुख्यालय विचार-विमर्श के लिए आए थे। अमीर जमाअत ने उनकी टीम से कहा था कि भ्रष्टाचार सहित सभी बुराइयों पर काबू अल्लाह के सामने जवाबदेही की धारणा के बिना संभव नहीं है। अरविन्द ने स्वीकार किया कि फिलहाल यह पहलू हमारे सामने नहीं है। अब उन्हें इस पर जरूर विचार करना चाहिए। काम देखने में मुश्किल है लेकिन अगर समझ में आ जाए तो भ्रष्टाचार पर रोक का सबसे आसान रास्ता भी यही है।
थ�e � � � ��{ Р� � हो सकती है और क्या जो दल पायः सभी दल-वर्ग विशेष का मत पाने की आंकांक्षा में उससे दूरी बनाये हुए हैं-वे सरकार बनाते समय संयुक्त मोर्चा बनाने की दिशा में जाकर कांग्रेस के समर्थन से सरकार चलायेंगे। पिछले डेढ़ दशक में जो राजनीतिक नियत उतरकर सामने आई है उससे किसी पतिबद्धता की सांवना का आंकलन करना दिवास्वप्न देखने के समान ही होगा। लेकिन एक बात को-उत्तर पदेश के संदर्भ में- समझ लेना आवश्यक है वह यह कि मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व के समय 1989 में जनता दल का विभाजन होने के बाद उनकी सरकार के समर्थन में जब कांग्रेस खड़ी हुई तो वे अल्पमत में थे। उनकी सरकार कांग्रेस के सहारे कुछ महीने चली नारायण दत्त तिवारी विपक्ष के नेता थे। मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह से सरकार चलायी वह वैसी ही थी जैसे आज अखिलेश की सरकार चल रही है। फलतः 1991 के चुनाव में विधानसभा में चौथे नंबर का सिर्फ 31 सीटें मिल पायी थी और कांग्रेस तब से उत्तर पदेश में राजनीति की मुख्यधारा से बाहर है। नारायण दत्त के नेतृत्व में मुलायम सिंह की सरकार को समर्थन न मुलायम सिंह के लिए शुभ रहा और ना ही कांग्रेस के लिए। नारायण दत्त तिवारी का ``आर्शीवाद'' वैसा ही जैसे विधान परिषद में स्थान पाने के लिए जे.ए. अहमद का कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ मुलायम सिंह की शरण में जाना। लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिला। तिवारी जी सुर्खियों में बने रहने के लिए चाहे जो उपकम करें। अब उनको जे.ए. अहमद की स्थिति पाप्त हो गई है। आज की राजनीति अवसरवादिता और सत्ता सुख भोगने का साधन मात्र होकर रह गई है इसलिए किसी भी चुनाव के बाद कोई पार्टी किस करवट बढ़ेगी इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती।

Sunday, November 18, 2012

ओबामा और उम्मीदें


अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में राष्ट्रपति बराक ओबामा के दोबारा चुनाव जीतने पर लगभग सभी उर्दू अखबारों ने खबरों के अलावा विशेष सम्पादकीय और लेख प्रकाशित किए हैं। दैनिक `इंकलाब' ने `ओबामा और उम्मीदें' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि ओबामा को यह जीत इसलिए हासिल हुई कि कांटे के इस मुकाबले में निर्णायक वोट उन अल्पसंख्यकों के थे जो हस्पानवी, लातीनी, अमेरिकी, एशियाई और मुस्लिम अमेरिकी कहलाते हैं। हस्पानवी अमेरिकियों ने उन्हें इसलिए वोट दिया कि ओबामा खुद भी हस्पानवी हैं। लातीनी अमेरिकियों ने उनके हाथ इसलिए मजबूत किए कि रोमनी अमेरिका के बहुसंख्यक वर्ग को लुभाने में लगे थे। एशियाई और मुस्लिम अमेरिकियों ने उन पर नए सिरे से इसलिए भरोसा किया कि मिट रोमनी इजरायल प्रेम में तेल  अबीब को ओबामा से ज्यादा सलामियां दाग रहे थे। अमेरिका के आम लोगों को ओबामा में गरीब और मध्यम वर्ग के हितों को साधने की इच्छा दिखाई दे रही थी जबकि रोमनी पूरी तरह पूंजीवादियों के हितों का संरक्षण करते दिखाई पड़ रहे थे। इन्हीं कारणों ने ओबामा की लाज रख ली और व्हाइट हाउस में चार साल और रहने को निश्चित किया। अमेरिकी कानून के मुताबिक कोई व्यक्ति दो ही बार राष्ट्रपति हो सकता है अर्थात् ओबामा को अब कोई अवसर नहीं मिलने वाला है, इसलिए अब उन्हें फैसला करना है कि इतिहास में किस तरह याद किया जाना पसंद करेंगे। न्यायप्रिय राष्ट्रपति या अपने पूर्व की तरह पक्षपाती, हिंसक और डिक्टेटर की हैसियत से।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `ओबामा को दोबारा चुनाव' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव अमेरकी जनता के लिए तो विशेष महत्व रखते ही हैं लेकिन गैर अमेरिकियों और दुनिया के दूसरे देश भी इन चुनावी नतीजों पर गहरी नजर रखते हैं क्योंकि व्हाइट हाउस में तब्दीली की सूरत में कई नीतियों की तब्दीलियों की संभावना पैदा हो जाती है। आशा की जा रही है कि अगले वर्षों में दुनिया में स्टेटेजिक लिहाज से बड़ी तब्दीलियां होंगी। अफगानिस्तान से अमेरिकी और नाटो फौज की वापसी, ईरान और मध्य एशिया के मामलात, चीन जापान विवाद, उत्तरी कोरिया से चल रहा विवाद, मध्य पूर्व में बेचैनी और गृहयुद्ध से लेकर अफ्रीकी देशों में बेचैनी की लहर तक कई समस्याएं हैं जो हल की इच्छुक हैं। यही कारण है कि दुनियाभर की निगाहें राष्ट्रपति चुनाव पर लगी थीं ताकि इनकी रोशनी में आगे आने वाली संभावित तब्दीली से निपटने की तैयारी की जा सके। लेकिन ओबामा की जीत से हालात ज्यूं का त्यूं रहने की आशा है। जहां तक इस्लामी जगत से अमेरिकी संबंधों का सवाल है। पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने न केवल गवानतामोबे कैद खाना बंद करने का वादा किया था बल्कि मिस्र की जामिया अजहर के ऐतिहासिक भाषण में अमेरिका और इस्लामी जगत के बीच बेहतर संबंधों का वादा किया था और एक स्वतंत्र फलस्तीन राज्य की स्थापना का सपना भी दिखाया था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके विपरीत उनकी हिंसक युद्ध नीतियों से इस्लामी जगत में नए महाज खुलने की शंकाएं बढ़ गई हैं।
दैनिक `जदीद मेल' ने `ओबामा का चुनाव' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास पर चर्चा करते हुए लिखा है कि 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में जीत के बाद राष्ट्रपति बराक ओबामा गत सौ साल में दूसरी पारी के लिए निर्वाचित होने वाले 7वें अमेरिकी राष्ट्रपति बन गए हैं। 1912 से अब तक अमेरिका में कुल 17 राष्ट्रपति सत्तासीन रहे जिनमें से उनका संबंध रिपब्लिक और 8 का डेमोकेटिक पार्टी से था। इन 17 राष्ट्रपतियों में से फ्रेंकिलन डीरोज ओल्ट अकेले राष्ट्रपति हैं जिन्होंने चार बार अमेरिकी राष्ट्रपति की कमान संभाली। पूर्व में लगातार दो बार राष्ट्रपति बनने वालों में बिल क्लिंटन, जॉर्ज डब्ल्यू बुश और रोनाल्ड रीगन शामिल हैं।
गत सौ साल में दूसरी बार राष्ट्रपति बनने का पहला अवसर विल्सन को 1917 में मिला। इनके शासनकाल में प्रथम विश्व युद्ध हुआ इसके बाद संयुक्त राष्ट्र परिषद का गठन हुआ।  बराक ओबामा से पूर्व दो बार चुने जाने वाले आखिरी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश थे जो 2001 में राष्ट्रपति बने और 2009 में ओबामा के राष्ट्रपति बनने तक इस पद पर रहे। बुश शासन काल में सितम्बर 2001 में अमेरिका के शहर न्यूयार्प में होने वाले हमलों के बाद आतंकवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय युद्ध हुआ और यही युद्ध इनके शासन का केंद्र रहा।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में सहारा न्यूज नेटवर्प के एडीटर एवं न्यूज डायरेक्टर उपेन्दर राय ने पहले पेज पर प्रकाशित अपने विशेष सम्पादकीय के तहत `यह उम्मीद की जीत है' में लिखा है कि भारत की बिजनेस कम्युनिटी को ओबामा की जीत से बहुत उम्मीदें नहीं जगी हैं। भारत की आईटी कम्पनियों को चिंता है कि आउटसोर्सिंग के विरोध में अमेरिका में फिर आवाज उठाई जाएगी। आईटी विशेषज्ञों को आसानी से वीजा नहीं मिलेगा और इसका असर उनके मुनाफे पर पड़ेगा। लेकिन मेरे विचार से यहां बहुत बड़ी चिंता की बात नहीं है। हिन्दुस्तान की आईटी कम्पनियों में इतनी मजबूती आ गई है कि वह इस तरह के चैलेंजों को बर्दाश्त कर सकें। वैसे ओबामा के चार साल के शासन काल में अमेरिका में अपनी आईटी कम्पनियों का कारोबार बढ़ा ही है और कोई कारण नहीं है कि अगले चार साल में ऐसा नहीं होगा। मेरे विचार से ओबामा को देसी आईटी कम्पनियों को महीन चश्मे से नहीं देखा जा सकता। यह सच है कि भारत के लिए उन्होंने कुछ भी अलग नहीं किया है लेकिन उनका यह अप्रोच रहा है। किसी की सीधी मदद करने के बजाय उसकी तरक्की के रास्ते में रुकावट न पैदा करना। दूसरों की आजादी और स्वायत्तता करना और उनका यही अप्रोच दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपतियों से बहुत अलग करता है। ओबामा के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने पर हिन्दुस्तान पर क्या असर पड़ेगा। मेरे विचार से अच्छी बात यह है कि हमारे प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति की अच्छी कैमिस्ट्री है जिसका फायदा हमें मिलेगा और पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान में शांति व्यवस्था को बहाल करने की ओबामा की कोशिशें और तेज होंगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश तेज होगी और इसके चलते हमारे देश में विदेशी निवेश का फ्लो बढ़ेगा।
दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `फिर `गधा' जीत गया' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में फिर गधा जीत गया और हाथी ने हार मान ली। अमेरिका में दो पार्टियों के बीच ही मुकाबला होता है क्योंकि यहां टू पार्टी व्यवस्था है जिसके तहत डेमोकेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार आमने-सामने हुआ करते हैं। डेमोकेटिक पार्टी जिसके बारे में है कि वह खुले विचारों की है ने ओबामा को अपना उम्मीदवार बनाया और उनका चुनाव चिन्ह `गधा' था जबकि मिट रोमनी रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार थे जिसके बारे में अमेरिकियों का विचार है कि यह कट्टरपंथी हैं इनका चुनाव चिन्ह `हाथी' था। राष्ट्रपति जंग में `हाथी' `गधे' से हार गया। अमेरिका में गधे को मेहनत, धैर्य, प्रयास का प्रतीक माना जाता है जबकि हमारे यहां यही गधा बेवकूफी का प्रवक्ता कहलाता है। बहरहाल देखने की बात यह होगी कि बराक हुसैन ओबामा की दूसरी पारी किस गधे के गुणों के करीब होती है।

Sunday, August 5, 2012

`खबर' का विश्लेषण करने के सवाल पर उर्दू सम्पादक बगले झांकता नजर आया


नेशनल काउंसिल फार प्रमोशन आफ उर्दू लैंग्वेज (एनसीपीयूएल) द्वारा उर्दू पत्रकारों के लिए जम्मू कश्मीर में गत दिनों वर्पशाप आयोजित किए जाने पर एक हिंदी अखबार ने इसमें शामिल दिल्ली के पत्रकारों की सूची देखकर यह टिप्पणी प्रकाशित की थी कि यह सरकारी पैसे पर मनोरंजन करना है जो वर्पशाप के मकसद से दूर है। उर्दू के एक बड़े अखबार जिसे एक हिंदी अखबार ने खरीदा है, से  दो लोगों को कश्मीर ले जाना सरकारी पैसे का दुरुपयोग है। वर्पशाप उर्दू पत्रकारों का था जिसमें कुछ सम्पादक भी शरीक हो रहे थे इसलिए किसी उर्दू अखबार ने इस वर्पशाप की आलोचना नहीं की लेकिन अब दैनिक`जदीद खबर' ने श्रीनगर के मुशरफ अहमद की पहले पेज पर विशेष रिपोर्ट प्रकाशित कर हिंदी अखबार के संदेह की पुष्टि कर दी है। `श्रीनगर के पत्रकार वर्पशाप में काउंसिल को शर्मिंदगी का सामना, बड़े दैनिक का सम्पादक खबर का विश्लेषण करने के सवाल पर बगले झांका नजर आया' के शीर्षक से मुशरफ अहमद ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि एनसीपीयूएल ने कश्मीर यूनिवर्सिटी के  पत्राचार विभाग  के सहयोग से उर्दू पत्रकारों के लिए सात दिवसीय वर्पशाप आयोजित की थी जिसमें दिल्ली के कुछ उर्दू अखबारों के सम्पादकों का चयन विशेषज्ञों के तौर पर किया गया था लेकिन इनमें से केवल एक पत्रकार के अलावा कोई भी इस योग्य नहीं था कि वह पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं से अच्छी तरह परिचित हो। यही कारण है कि वर्पशाप के दौरान कई ऐसे सवालात उठाए गए जिनका यह `विशेषज्ञ पत्रकार' संतोषजनक उत्तर देने में असमर्थ रहे। इसी तरह जब दिल्ली के एक बड़े अखबार के सम्पादक से `खबर' का विश्लेषण करने के बारे में पूछा गया तो सम्पादक महोदय बगले झांकने लगे। याद रहे काउंसिल ने दो बड़े दैनिक के सम्पादकों के अलावा एक शिक्षिका, एक ऐसे सम्पादक जिसे खुद उर्दू पढ़ना नहीं आती, एक बड़े अखबार से जुड़े एक पत्रकार जिनकी योग्यता केवल मसलकी (पंत) है को विशेषज्ञ के तौर पर चयन किया था और इस सिलसिले में काउंसिल के नए डायरेक्टर ने अपनी ही मीडिया कमेटी से कोई सुझाव लेना जरूरी नहीं समझा।
दैनिक `सहाफत' ने `वाह मुसलमानों! कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने पर लगा दी पाबंदी' के शीर्षक से पहले पेज पर प्रकाशित खबर में लिखा है कि उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के सखेड़ के  मुस्लिम बहुल गांव नराना की पंचायत ने एक आदेश जारी किया है जिसमें 30 वर्षों में आकर रहने वाले लोगों को कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने में पाबंदी लगा दी है। सखेड़ा थाने के अंतर्गत मुस्लिम बहुल गांव नराना में 52 बीघे का कब्रिस्तान है। गत दिनों विवाद के चलते इस कब्रिस्तान को तीन हिस्सों में विभाजित किया गया। एक भाग में तेली, धनी दूसरे में जुलाहे और तीसरे में गाढ़ा बिरादरी के मुर्दों को दफने करने पर सहमति हुई थी लेकिन तीन दिन पहले फिर से विवाद गहरा गया। बताया जाता है कि गत कुछ वर्षों में बाहर से आकर रहने वालों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है उसको लेकर कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने के लिए जगह कम पड़ गई है। इसी पर गांव में ग्राम प्रधान तैयब अली और पूर्व प्रधान सलीम की उपस्थिति में पंचायत बुलाई गई जिसमें फैसला किया गया कि जो लोग 30 वर्षों के अंदर यहां आकर बसे हैं उनके मुर्दों को कब्रिस्तान में दफन करने नहीं दिया जाएगा।
`पश्चिमी बंगाल में मुस्लिम आरक्षण...कितनी हितकारी?' के शीर्षक से कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिंद' में अशफाक अहमद ने अपने विश्लेषण में लिखा है कि पश्चिमी बंगाल में सरकारी नौकरियों में दस फीसदी आरक्षण की खबर पर मुसलमानों ने खुशी जाहिर की थी लेकिन जब आरक्षण लागू करने का आर्डर सामने आया तो सारी खुशी काफुर हो गई। आरक्षण के लिए जो ए कैटेगरी है उसमें 65 जाति हैं जिसमें मुसलमानों के साथ गैर मुस्लिम भी हैं। इसी तरह कैटेगरी बी में भी 78 जातियां हैं। आम सोच यह थी कि ओबीसी आरक्षण के लिए कैटेगरी ए और बी का मकसद यह है कि एक कैटेगरी मुसलमानों के लिए विशेष होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जानकारों के अनुसार ममता सरकार और पूर्व की वाम मोर्चा सरकार के आरक्षण विधेयक में फर्प केवल इतना है कि नई सरकार ने आरक्षण के लिए बनाई ए और बी कैटेगरी में 21 मुस्लिम जातियों को शामिल किया है। इस कानून का फायदा केंद्र की किसी नौकरी में नहीं होगा इसके अलावा उच्च न्यायिक पदों, प्राइवेट सेक्टर और सिंग्ल पोस्ट कैडर में भी यह  लागू नहीं होगा।
`असारा की मुस्लिम पंचायत' के फैसले को सही बताते हुए वरिष्ठ पत्रकार सैयद मंसूर आगा ने दैनिक `जदीद मेल' के अपने लेख में लिखा है कि यहां की पंचायत ने जो फैसला किया है वह सही है। उदाहरण के तौर पर कोई युवा महिला अकेले बाजारों में न घूमती फिरे और यदि घर से निकले तो चादर ओढ़कर निकले ताकि शरीर के अंग ढके रहे। यह तरीका शरीअत के मुताबिक और हमारे सामाजिक मूल्यों के अनुरूप है। इसलिए बिना संकोच महसूस किए हमें यह कहना चाहिए कि इन पर आपत्ति गलत है। गोहाटी में एक महिला के साथ जो कुछ घटित हुआ उसके बाद राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ने भी हमारी बहनों, बेटियों और बहुओं को यही सुझाव दिया है।
साप्ताहिक `नई दुनिया' ने `क्या बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के कैम्पों को हासिल है चिदम्बरम का आशीर्वाद?' के शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में  लिखा है कि यदि हवा का झोंका चलता है और पत्ते खड़कते हैं तो सरकार को मालूम हो जाता है लेकिन सरकार को इसकी जानकारी नहीं है कि इसकी नाक के नीचे राइफलों से फायरिंग करने की ट्रेनिंग दी जा रही है, गोलियां चलने की आवाजें मीडिया के लोग सुन रहे हैं लेकिन प्रशासन के कानों में कोई आवाज नहीं आ रही है। सवाल यह कि आखिर हथियार चलाने की यह ट्रेनिंग क्यों दी जा रही है, सांप्रदायिकों की एक पैरालेल फौज क्यों बन रही है जाहिर है यह सब कुछ नेक नीयते पर आधारित नहीं है। मकसद यही है कि मुसलमानों पर हमले की तैयारी पूरी कर ली जाए और जब भी मौका मिले तो इसमें किसी तरह की चूक न होने पाए।
`ओबामा की टिप्पणी इतनी बुरी क्यों  लग रही है' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर की गई टिप्पणी का भारत सरकार ने बुरा माना है। देखा जाए तो ओबामा ने कोई बात नहीं की। यही बात भारत की कारपोरेट लाबी बहुत दिनों से कर रही है। लगभग यही बात गत दिनों अमेरिकी पत्रिका टाइम ने भी कही थी। हैरानी है कि इसी अमेरिकी लाबी की नीतियों पर यह सरकार आज तक चलती आ रही है आज इन्हें बुरा क्यों  लग रहा है? मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह खुद अमेरिकी समर्थक हैं, आज ओबामा की बात क्यों चुभ रही है?

पुलिस थानों में मुस्लिम पुलिसकर्मियों की तैनाती टेढ़ी खीर


केंद्रीय गृह सचिव द्वारा सच्चर सुझावों पर अमल करने हेतु मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के थानों में पुलिस इंस्पेक्टर तैनात करने का आदेश दिल्ली पुलिस के समीप एक गंभीर समस्या बनी हुई है क्योंकि पुलिस विभाग में इतनी संख्या में मुस्लिम इंस्पेक्टर नहीं हैं। इस पर चर्चा करते हुए दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खां ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि दिल्ली पुलिस के रिकार्ड के अनुसार दिल्ली में कुल 83 हजार पुलिसकर्मी हैं इसमें अल्पसंख्यक समुदाय का हिस्सा 1.8 फीसदी है जिसमें मुसलमानों की संख्या मात्र 1500 है। आश्चर्यजनक बात यह है कि 1978 में बनाए गए दिल्ली पुलिस आयुक्त के पद पर आज तक एक भी मुसलमान नहीं पहुंच सका है। दिल्ली के 11 जिलों में बहुत सी ऐसी कालोनियां हैं जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं लेकिन इन क्षेत्रों के थानों में एक भी मुस्लिम इंस्पेक्टर नहीं है। केवल जामा मस्जिद थाने में 9 सब-इंस्पेक्टर मुस्लिम हैं। काबिले गौर बात है कि दिल्ली के कुल 186 थाने, 181 एडिशनल एसएचओ, 180 इंस्पेक्टर एटीओ हैं। पुलिस ने थानों के लिहाज से दिल्ली को 11 जिलों में बांटा है जिनमें कुल 172 थाने हैं और लगभग हर चार थानों को कंट्रोल करने के लिए एक एसीपी को तैनात किया गया है। इस लिहाज से दिल्ली में कुल 56 एसीपी हैं। क्राइम पर काबू पाने के लिए सरकार ने कुल 186 थाने बनाए हैं। पुलिस का कहना है कि मुस्लिम युवक पुलिस में भर्ती के लिए नहीं आते जबकि मुस्लिम वर्ग का कहना है कि तैनाती और प्रमोशन में भेदभाव होता है इसलिए मुस्लिम युवक नहीं आ पाते हैं।
पाकिस्तान द्वारा सरबजीत की रिहाई की घोषणा और फिर अपने बयान से पलटकर सुरजीत सिंह कि रिहाई पर हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `राष्ट्रपति फैसला या मजाक?' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अब बात सुरजीत या सरबजीत की रिहाई की नहीं बल्कि पाकिस्तान सरकार की कार्यप्रणाली की है। इसको यदि चुनी सरकार की मजबूरी व बेबसी कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा। पाकिस्तान सरकार ने इस मामले को `उलझन' बताते हुए इसे मामूली बनाने की कोशिश की है लेकिन वास्तव में यह इतना मामूली नहीं है। सबसे पहला सवाल यह पैदा होता है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति को सुरजीत की रिहाई के लिए आदेश जारी करने की जूरत क्यों पड़ी। सुरजीत 1982 से पाकिस्तान की जेल में है इसकी सजा-ए-मौत को 1989 में बेनजीर के दौर में राष्ट्रपति गुलाम इसहाक खां ने उम्र कैद में बदल दी थी और इसकी उम्र कैद की सजा तो पांच साल पूर्व 2008 में खत्म हो गई लेकिन इसे रिहा नहीं किया गया। यदि सुरजीत को रिहा करना था तो किसी अदालत द्वारा यह प्रक्रिया पूरी की जाती इसके लिए राष्ट्रपति को किसी आदेश की जरूरत ही नहीं थी। दूसरे यह बयान में `माफी' का शब्द इस्तेमाल किया गया। शब्द इस तरह थे `सरबजीत सिंह की सजा-ए-मौत को माफ करते हुए उम्र कैद में तब्दील कर दिया गया और चूंकि इसने 14 साल कैद में गुजार दिए हैं लिहाजा इसे रिहा किया जाता है।' जबकि सुरजीत के साथ ऐसा कोई मामला ही नहीं है, यह तो स्पष्ट रूप से सरबजीत सिंह से संबंधित आदेश थे। इतनी बड़ी गलती के पीछे राज क्या है?
खुद पाकिस्तान के समीक्षकों एवं टिप्पणीकारों का मानना है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने अपना फैसला आईएसआई और फौज के दबाव में बदला है। बेहतर होता कि राष्ट्रपति भवन अपना फैसला देने से पूर्व आईएसआई और फौज से मशविरा कर लेता।
लखनऊ के वरिष्ठ स्तम्भकार हफीज नोमानी ने `क्या सरकार चलाने का तरीका एक ही है?' के शीर्षक से लिखा है कि बटला हाऊस मुठभेड़ की जांच से जब शीला दीक्षित और पी. चिदम्बरम ने इंकार कर दिया तो जिन मुसलमानों को सबसे ज्यादा तकलीफ हुई उनमें समाजवादी सरकार में मंत्री नम्बर दो आजम खां भी थे। आज जब प्रतापगढ़ के एस्थान घटना की जांच और मुसलमानों की बर्बादी की जांच की मांग हिन्दू नेताओं ने की तो सबसे ज्यादा जोर से इंकार करने वाले भी आजम खां हैं। वह फरमाते हैं कि हम पीड़ितों को पक्का मकान बनाकर देंगे जिनमें एक कमरा, एक किचन और एक बाथरूम होगा। फारसी की एक मशहूर कहावत है कि जब तक इराक से जहर की काट आएगी जहरीले सांप का काटा मर जाएगा। शायद आजम खां भी यही चाहते हैं कि सारे पीड़ित मकान का सपना देखते-देखते पांच साल गुजार दें। एस्थान नामी गांव में हुई घटना के बाद जी चाहता है कि यूपी के मुस्लिम विधायकों का एक प्रतिनिधिमंडल मुलायम सिंह से मिले और उनसे कहे कि वह घोषणा पत्र में किया हुआ वादा न पूरा करें। न मुस्लिम लड़कियों को लैपटॉप दें, न ही 30 हजार रुपये दें और न ही बेरोजगारी भत्ता दें। केवल इतना करें कि मुसलमान सिपाहियों और अधिकारियों को मुसलमानों की सुरक्षा का अधिकार दे दें और उनकी संख्या आबादी के अनुपात में कर दें और उन बेगुनाह मुसलमानों को जेल से रिहा कर दें जो बेगुनाह और मासूम हैं जिसे राज्य की पुलिस, सीआईडी और एटीएस सब जानते हैं।
`भारतीय संविधान धार्मिक बुनियादों पर आरक्षण की इजाजत नहीं देता यह अफसाना है या हकीकत?' के शीर्षक से इलाहाबाद हाई कोर्ट के वकील सैयद फरमान अहमद नकवी ने दैनिक `इंकलाब' में प्रकाशित अपने शोधपूर्ण लेख में लिखा है कि यह जानकर आश्चर्य होगा कि जब इस बाबत अधिसूचना 1950 में जारी की गई तो इसने धार्मिक बुनियादों पर आरक्षण को संविधान की धारा 15 का पूर्ण रूप से उल्लंघन कर दिया। हमारी सरकार ने धार्मिक बुनियादों पर आरक्षण की इजाजत संविधान की धारा 341 को इस्तेमाल करते हुए दी है।
यह धारा मंजूरी देती है कि अलग-अलग जाति को स्पष्ट कर उनको उस सूची में जोड़ दिया जाए जो राष्ट्रपति तैयार करता है और जो अधिसूचना द्वारा जारी करता है। अधिसूचना 1950 के पैरा-2 में कहा गया है। `इसके बावजूद जो कोई भी हिन्दू व सिख या बौद्ध धर्म के अतिरिक्त कोई भी धर्म से संबंध रखता है वह इस सूची में शामिल होने के योग्य नहीं समझा जाएगा।'
`बीजापुर मामले की अदालती जांच हो' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में 17 माओवादियों की मौत को लेकर मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उसके अनुसार इस क्षेत्र में मारे जाने वाले व्यक्ति माओवादी नहीं बल्कि गांव के मासूम लोग थे। जो इस क्षेत्र की परम्परा के अनुसार एक कबाइली परम्परा का निर्वाह करने के लिए एकत्र हुए थे। मारे गए लोग माओवादी थे या नहीं, इसका फैसला जांच के बाद ही हो सकता है लेकिन इस सिलसिले में दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर विचार करना जरूरी है कि सीआरपीएफ की गोली का निशाना बने लोगों की जांच खुद सीआरपीएफ को ही करनी चाहिए। इस सिलसिले की दूसरी अहम बात एनकाउंटर की है। यह शब्द इतना संदिग्ध हो चुका है कि अब किसी को इस पर विश्वास नहीं आता। अदालतों और अदालत के बाहर दर्जनों एनकाउंटरों के मामलों में यह तय हो चुका है कि एनकाउंटर के नाम पर पुलिस अक्सर मासूम व्यक्तियों का बेदर्दी से कत्ल करती है।

Saturday, May 12, 2012

इमाम काबा के आगमन से सियासी मकसद हासिल करने की कोशिश


बीते दिनों सऊदी अरब स्थित पवित्र काबा (हरम) के इमाम  6 दिवसीय पर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के दौर पर आए। उनके आगमन पर जहां मुसलमानों ने चौंकते हुए उनके लिए पलकें बिछाईं वहां कुछ मुस्लिम नेताओं द्वारा इससे सियासी फायदा उठाने की कोशिश की गई। इस बाबत चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार हफीज नेमानी जो प्रसिद्ध आलिम स्वर्गीय मौलाना मोहम्मद मंजूर नोमानी के सुपुत्र हैं, ने अपने स्तम्भ में मिर्जा गालिब के शेर की इस पंक्ति `रखियो गालिब मुझे इस तलख नवाई में माफ' के शीर्षक से समीक्षा करते हुए लिखा है कि सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि इमाम काबा का दौरा दारुल उलूम नदवातुल उलेमा लखनऊ के निमंत्रण पर नहीं बल्कि करौली (मलिहाबाद) स्थित जामिया सैयद अहम शहीद के मोहतमिम मालना सैयद सलमान हुसैनी की दावत पर हुआ है। मौलाना हुसैनी नदवा के शिक्षक भी हैं। मौलाना सलमान हुसैनी एक यूनानी मेडिकल कालेज चलाते हैं जिस पर गत दिनों छापा पड़ा था। इस पर एक हिन्दी दैनिक ने पूरे पेज पर छापे की कार्यवाही छापी थी। उसमें फर्जी मरीज, फर्जी दवाएं, फर्जी अस्पताल सब कुछ फर्जी या केवल कालेज और मौलाना हुसैनी के। यह सारा घपला वह बहन जी के खास सतीश चन्द्र मिश्रा की छत्रछाया में करते थे। यही कारण है कि चुनाव के समय जब नमक का हक अदा करने का समय आ गया तो मौलाना सलमान हुसैन ने कोई दर्जन मुस्लिम सियासी पार्टियों का मोर्चा बनाकर मुस्लिम वोटों को निप्रभावी करने की कोशिश की, लेकिन इसमें वह सफल नहीं हो सके। राज्य में सत्ता बदलने पर यह अनुमान लगाया जा रहा था कि सरकार इनके काले कारनामों को उजागर करेगी। इस खतरे को महसूस करते हुए मौलाना हुसैनी ने इमाम हरम को बुला लिया। उनके पीछे नमाज पढ़ती भीड़ को दिखाकर सरकार को चेता दिया कि मुसलमान उनके साथ हैं। इसी के साथ एक ऐसे इंजीनियरिंग और अटल बिहारी वाजपेयी की बनाई हुई यूनिवर्सिटी में जहां न किसी मुस्लिम बच्चे के दाखिला लेनी वाली घूस और वार्षिक फीस में कोई छूट की जाती हो वहां इमाम काबा का कार्यक्रम रखाना क्या ऐसा नहीं है जैसे यह भी आपस में सगे भाई हों।
`इमाम काबा के लखनऊ आगमन से सियासी उद्देश्य हासिल करने की कोशिश' के शीर्षक से दैनिक `जदीद खबर' ने पहले पेज पर प्रकाशित खबर में लिखा है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इमाम हरम के आगमन पर परम्परागत तरीके से उनका स्वागत किया था, एयरपोर्ट उन्हें लेने गए थे और यह घोषणा की थी कि इमाम हरम राज्य के मेहमान हैं और उन्हें किसी तरह की परशानी नहीं होने दी जाएगी। 4 मई को मौलाना अली मियां के नाम पर बने एफआई मेडिकल कालेज में मेहमान के तौर पर अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव को शरीक होना था लेकिन कार्यक्रम में न तो मुख्यमंत्री आए और न ही मुलायम सिंह यादव। इस बाबत जब जानकारी ली गई तो मालूम हुआ कि गत चुनाव में मौलाना हुसैनी ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी के साथ मिलकर बहुजन समाज पार्टी का चुनाव लड़ाया था। इसी तरह ईदगाह कन्वेंशन सेंटर में भी कुछ इसी कारण से मुख्यमंत्री शरीक नहीं हुए। मुख्यमंत्री मौलाना सलमान हुसैनी के एकता मोर्चों से काफी नाराज नजर आ रहे हैं। मौलाना ने सभी कार्यक्रम ऐसे लोगों को दिए हैं जो गत सरकार में बसपा कार्यालय के करीब रहे और समाजवादी पार्टी को हराने में सक्रिय भूमिका निभाई। इमाम काबा के आने पर चली सियासत के उपरांत स्टूडेंट्स इस्लामिक आर्गेनाइजेशन ऑफ इंडिया (एसआईओ) ने भी अपना कार्यक्रम निरस्त कर दिया और इसकी सूचना सऊदी उच्चायोग की दे दी गई है।
`इजरायल में अमेरिकी हथियारों का भंडार, मकसद क्या है?' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने अपने विशेष लेख में लिखा है कि समाचार के मुताबिक अमेरिका इजरायल को खतरनाक हथियार सप्लाई तो करता ही है, साथ ही इसने इजरायल में 80 करोड़ डालर का हथियार भी जमा कर रखा है जिसमें समय और जरूरत के तहत वृद्धि की जाती है। हथियारों को जमा करने का सिलसिला 1990 में शुरू हुआ था, जब हमास ने इजरायल के खिलाफ तहरीक इनतिफाजा शुरू की थी। हथियारों के जमा करने से यह सवाल पैदा हो रहा है कि आखिर अमेरिका वहां किसलिए हथियार जमा कर रहा है? क्या यह हथियार अमेरिका के लिए है या इजरायल के लिए। यदि यह हथियार अमेरिकी इस्तेमाल के लिए होते तो इनका इस्तेमाल इराक के खिलाफ जंग में जरूर किया जाता लेकिन ऐसा देखने में नहीं आया। इसलिए संभावना यही है कि हथियारों का भंडार इजरायल के लिए किया जा रहा है। गौरतलब बात यह है कि जब रूस अपने पड़ोसी यूरोपीय देशों में अमेरिका के सुरक्षा प्रेक्षपास्त्र का विरोध कर सकता है तो मुस्लिम देश अपने सबसे बड़े शत्रु इजरायल में अमेरिकी हथियारों के भंडार का विरोध क्यों नहीं कर सकते।
`मदरसों में हस्तक्षेप, नई बिदअत (बुराई) के लिए सफदर खां जिम्मेदार, मदरसों को आर्थिक सहयोग देने का उपाय करने में लगे हैं लेकिन मिस्टर खान को नहीं मालूम कि कैसा होगा मदरसों की आर्थिक सहयोग व्यवस्था' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खां ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि मदरसा बोर्ड को लेकर दो ग्रुप हैं एक इसके बनाने की मांग कर रहा है तो दूसरा इसका विरोध कर रहा है, उसका तर्प है कि इससे मदरसों में हस्तक्षेप की राह आसान हो जाएगी। दिल्ली अल्पसंख्यक चेयरमैन सफदर हुसैन खां इन दोनों के बीच मध्यस्या की भूमिका  में रहे हैं लेकिन उन्हें भी नहीं मालूम कि मदरसों की दी जाने वाली आर्थिक सहयोग की रूपरेखा क्या होगी? इस सवाल पर कि मदरसा बोर्ड के गठन के बिना मदरसों को किस तरह सहायता दी जाएगी, के सवाल पर सफदर खां ने कहा कि अभी प्रक्रिया चल रही है। वैसे मदरसे अल्पसंख्यक आयोग को पंजीकरण के लिए आवेदन करें, आयोग उनकी संसुति शिक्षा विभाग से कराएगा, इसके बाद उन्हें सहायता दी जाएगी।
`जमीअत उलेमा हिन्द का 31वां आम अधिवेशन' पर फोकस करते हुए साप्ताहिक `अल जमीअत' ने अपनी कवर स्टोरी बनाई है। अखबार लिखता है कि हमें कोशिश करनी चाहिए कि समस्याओं के समाधन हेतु यह अधिवेशन एक यादगार अधिवेशन बन जाए जिसके बाद हमें बार-बार समस्याओं के लिए रोना न पड़े। यह सातवां अवसर है जब राजधानी दिल्ली इन अधिवेशन की मेजबानी कर रही है। मुसलमानों की पहली और सक्रिय संगठन जमीअत उलेमा हिन्द का पहला अधिवेशन 19, 20, 21 नवम्बर 1920 को हुआ था जिसमें जमीअत के विचारक शेखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन देवबंदी मालटा की जेल से छूट कर आए थे और साफ-साफ कहा था कि `देशवासियों के सहयोग के बिना स्वाधीनता सम्भव नहीं है।'

Sunday, April 1, 2012

मुस्लिम औरतों की बदहाली

बीते दिनों उर्दू समाचार पत्रों ने विभिन्न मुद्दों पर खुलकर चर्चा की और सम्पादकीय द्वारा स्थिति को स्पष्ट किया। पेश है कुछ उर्दू अखबारों की राय।
`मुस्लिम औरतों की बदहाली पर कोई सियासी पार्टी बोलने को तैयार नहीं' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि देश में मुस्लिमों के पारिवारिक कानून में सुधार व मुस्लिम निजी कानून को संहिताबद्ध किए जाने की मांग अब जोर पकड़ रही है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन से जुड़ी मुस्लिम महिला शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार, कानून एवं सेहत के मुद्दों पर जागरुकता लाने का काम कर रही हैं। उत्तर प्रदेश के कई शहरों में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन व परचम संस्था संयुक्त रूप से मुस्लिम महिलाओं के बीच जाकर उन्हें सशक्त करने की नई राह दिखा रही हैं। देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति हमेशा से बहस में रही है। मुस्लिम पारिवारिक कानून में सुधार का समय आ गया है। इस्लाम धर्म में मुसलमानों को हालात के आधार पर चार बीवी रखने की छूट है। धर्म की आड़ में हालात कुछ लोग खुद ही गढ़ लेते हैं और इस्लाम में बताई गई परिस्थितियों को नजरंदाज कर देते हैं। मनमुताबिक व्याख्या करते हैं। सूबे या मुल्क के सियासी दल भले ही पार्टी की सियासत में चुप्पी साधे हों। लेकिन हालात ज्यादा बिगड़ते नजर आ रहे हैं।
सियासी दल अल्पसंख्यक के रूप में मुस्लिमों को आरक्षण देने की वकालत तो करते हैं लेकिन महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार पर चुप्पी साध लेते हैं। सूरते हाल यह है कि पारिवारिक परामर्श केंद्र में पारिवारिक बिखराव के जितने भी मामले आते हैं वह ज्यादातर मुस्लिम परिवारों के ही होते हैं। 21वीं सदी में बिना किसी सुधार के डेढ़ हजार साल के कानून में सुधार जरूरी है।
`नागरिकों की गर्दन पर एक नई तलवार' के शीर्षक से कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि 20 मार्च को राज्यसभा में आतंकवाद विरोधी राष्ट्रीय सेंटर (एनसीटीसी) को मंजूरी दे दी गई जबकि राज्यसभा के 245 सांसदों में यूपीए के केवल 97 सांसद हैं। लेकिन इसके बावजूद सरकार एनसीटीसी पर भाजपा और सीपीआईएम की ओर से संशोधन के प्रस्ताव को 82 के मुकाबले 105 वोटों से पराजित कर दिया। यह कानून वास्तव में आतंकवाद को खत्म करने के लिए बनाया गया है। लेकिन यह पिछले सभी आतंक रोधी कानून से भी ज्यादा सख्त है और शायद यही कारण है कि भाजपा और सीपीएम सहित कई पार्टियों और कम से कम सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इसका विरोध किया। खुद ममता बनर्जी ने इसे पूर्व का टाडा और पोटा के मुकाबले कई ज्यादा खतरनाक बताया जो भारतीय संविधान के संघीय ढांचे से मेल नहीं खाता है। एनसीटीसी की कानूनी पेचीदगियों पर बहस से बचते हुए यह विचार करना है कि इस कानून की जरूरत क्यों पेश आई जबकि 2008 में मुंबई में ताज होटल वाली आतंकी घटना के बाद देश में कोई बड़ी आतंकी घटना नहीं हुई। एनसीटीसी वास्तव में आतंक रोधी अमेरिकी संगठन है जिसका मुख्यालय वर्जीनिया में है। अमेरिका इस एजेंसी के तहत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादियों के विरुद्ध कार्यवाही करता है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान समेत एक दर्जन से अधिक मुस्लिम देश और कई दर्जन गैर मुस्लिम देशों में एजेंसी के कार्यकर्ता किसी भी व्यक्ति को उठा लेते हैं और आतंकवादी करार देकर जेलों में बन्द कर देते हैं। यह कानून अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने 2003 में मंजूर कराया था। भारत ने भी एक ऐसा ही कानून बनाया जो अमेरिकी के एनसीटीसी की पूरी नकल है। पोटा और टाडा के तहत गिरफ्तार होने वालों में भारी संख्या मुसलमानों की थी तो आश्चर्य नहीं कि एनसीटीसी भी किसी तज्जमुल हुसैन के लिए बनाया गया है।
`एनसीटीसी पर सियासी पार्टियों की दोहरी भूमिका' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि एनसीटीसी पर केवल तृणमूल कांग्रेस की दोहरी भूमिका ही नहीं बल्कि आरजेडी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की भी है। इनमें उपरोक्त दोनों पार्टियों ने वोटिंग के समय वाकआउट किया और परमाणु संधि की तरह एक बार फिर समाजवादी पार्टी ने सरकार के दृष्टिकोण का समर्थन किया और बाद में बयान दिया कि उनकी पार्टी यूपीए सरकार का बाहर से समर्थन करती है नाकि कांग्रेस पार्टी का। सवाल यह है कि परमाणु संधि अथवा एनसीटीसी आदि यूपीए का एजेंडा है या कांग्रेस का। यदि यूपीए का एजेंडा होता तो यूपीए में शामिल पार्टियां उसका विरोध नहीं करती। आखिर यह कैसा विरोध है कि संसद से बाहर तो खूब शोर मचाया जाए लेकिन जब परीक्षा की घड़ी आए तो सरकार के समर्थन में आ जाएं या खुद ही अपनी आवाज को कमजोर करने वाला कदम उठाया जाए। देश के संजीदा लोगों विशेषकर मुसलमानों को आगे आकर इसका विरोध करना चाहिए और दोहरी नीति रखने वाली पार्टियों को कठघरे में खड़ा करना चाहिए।
`फौज में भ्रष्टाचार' के विषय पर दैनिक `जदीद मेल' ने लिखे अपने सम्पादकीय में लिखा है कि एक तरफ अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम में सांसद के अपमान के दोषी ठहराए जा रहे हैं तो दूसरी ओर फौज का चीफ भ्रष्टाचार का एक ऐसा खुलासा कर रहा है जो अंजाम को नहीं पहुंच पाया। लेकिन इससे यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई कि फौज में भी हर स्तर पर भ्रष्टाचार बुरी तरह फैला हुआ है और इसमें यदि कुछ लोग सच्चे और ईमानदार हैं तो उन्हें भी इस दलदल में घसीटने की नापाक कोशिश यह कर की जा रही है कि `सब ही लेते हैं, आ भी ले लें क्या दिक्कत है, नहीं लेने से यह गोरखधंधा बन्द नहीं हो जाएगा।' देश की सुरक्षा निश्चित रूप से फौज के हाथों में होती है इसीलिए देश के बजट में एक बड़ी राशि सुरक्षा पर खर्च की जाती है।
जाहिर है कि देश की सुरक्षा पर जो भी राशि खर्च की जाती है वह अन्य विभागों के जरूरी बजट में कटौती करके ही की जाती है। फौज के बहुत से ईमानदार अधिकारी आज भी मौजूद हैं जो बहुत कुछ चाहते हुए भी कुछ करने में असमर्थ हैं। शायद जनरल वीके सिंह भी उनमें एक हैं जो आगामी कुछ दिन में नौकरी से सेवानिवृत्ति होने वाले हैं। उन्होंने दावा किया है कि फौज के लिए खरीदी जाने वाली बड़ी गाड़ियों की खेप की मंजूरी के लिए उन्हें 14 करोड़ रुपये घूस की पेशकश यह कहते हुए की गई कि `सब लेते हैं।' वह यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गए और हड़बड़ाहट में यह समझ ही नहीं पाए कि वह क्या करें। उनके अनुसार यह पेशकश करने वाला कोई बाहरी व्यक्ति न होकर बीते दिनों सेवानिवृत्ति होने वाला एक फौजी जनरल ही था। उन्होंने यह बात रक्षामंत्री को बता दी थी लेकिन रक्षामंत्री ने इसे क्यों दबाकर रखा।

Saturday, March 24, 2012

`बेचारा हिन्दुस्तानी मुसलमान...'

गत सप्ताह केंद्र सरकार द्वारा संसद से पारित बजट में मुसलमानों के लिए प्रावधान सहित योजना आयोग की वार्षिक रिपोर्ट जैसे अनेक मुद्दे उर्दू अखबारों में चर्चा का विषय रहे। पेश है इनमें से कुछ उर्दू अखबारों की राय।
`दिल्ली के स्कूलों में मुस्लिम बच्चों के दाखिले का मसला, मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस पर तुरन्त ध्यान दें' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों में नर्सरी कक्षाओं में जो दाखिले हुए हैं उनमें मुसलमानों के साथ अन्याय किया गया है। लोक जनशक्ति पार्टी के महासचिव अब्दुल खालिक ने आंकड़ों द्वारा यह रहस्योद्घाटन किया कि दिल्ली पब्लिक स्कूल (मथुरा) को छोड़कर शहर के सभी स्कूलों में मुस्लिम बच्चों के साथ अन्याय किया गया है। कुछ स्कूलों में तो मुस्लिम बच्चों को दाखिला दिया ही नहीं गया जबकि कुछ अन्य में सिर्प नाम के लिए कुछ बच्चों को दाखिला दिया गया। यह सवाल लोक जनशक्ति पार्टी सुप्रीमो रामविलास पासवान ने राज्यसभा में उठाया तो मुस्लिम दुश्मनी में भाजपा सांसद बलबीर पुंज भड़क उठे और मुसलमानों से अपने बच्चों को मदरसों में पढ़ाने को कहा। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने अल्पसंख्यकों के हवाले से इस रहस्योद्घाटन को संगीन बताते हुए इस मामले की जांच कर उचित कार्यवाही करने की घोषणा की है जबकि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने रामविलास पासवान के आरोपों को गलत करार दिया है।
सच्चाई यह है कि मुस्लिम बच्चों के दाखिलों में रुकावट खड़ी नहीं की जाती बल्कि दलितों और झुग्गी-झोपड़ियों वाले गरीब बच्चों के साथ भी ऐसा होता है। पश्चिमी दिल्ली के एक मोहल्ले पांडव नगर में 50 से अधिक ऐसे बच्चे हैं जिनका दाखिला सरकारी स्कूलों में नहीं हो सका। आरोप है कि झुग्गी-झोपड़ी में रहने के कारण उनका दाखिला नहीं हुआ। सरकार इस पर तुरन्त ध्यान दे।
`बेचारा हिन्दुस्तानी मुसलमान...' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपनी समीक्षा में चर्चा करते हुए लिखा है कि सच्चर कमेटी ने इस बात को उजागर किया था कि हिन्दुस्तानी मुसलमान शैक्षिक तौर पर दलितों से भी पिछड़े हैं। अब योजना आयोग ने मुसमलानों के संबंध में एक और चौंकाने वाला रहस्योदघाटन किया है और वह यह है कि शहरों में रहने वाले मुसलमानों की गिनती अब देश के सबसे गरीब वर्ग में होती है। योजना आयोग के अनुसार 2005-10 के बीच पांच करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से बाहर हो गए हैं लेकिन मुसलमान और गरीब हुआ है। शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 34 फीसदी मुसलमान अत्याधिक गरीबी के दायरे में आते हैं। इस बाबत सबसे ज्यादा खराब सूरतेहाल गुजरात, बिहार और उत्तर प्रदेश में है। ग्रामीण क्षेत्रों के मुसलमानों की हालत भी अत्यंत चिन्ताजनक है। आयोग के आंकड़ों के अनुसार असम के ग्रामीण क्षेत्रों के मुसलमानों में 53 फीसदी गरीबी रेखा से नीचे हैं और उत्तर प्रदेश में यह अनुपात 56 फीसदी है। गुजरात में मुसलमान यदि दूसरे वर्गों से अधिक गरीब हैं तो इसमें कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन आश्चर्य इस बात पर है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जहां सेकुलर सरकारों का राज है।
यह स्थिति असम की है जहां ज्यादातर कांग्रेस का राज रहा है। योजना आयोग के यह आंकड़े इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि मुसलमानों की गरीबी दूर करने की कोशिश नहीं की गई तो सेकुलरिज्म एक खोखला नारा होकर रह जाएगा और यह हिन्दुस्तानी मुसलमानों का दुर्भाग्य होगा।
`अल्पसंख्यक मंत्रालय की सुस्ती, 587 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं हुए' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' ने स्टैंडिंग कमेटी आन सोशल जस्टिस एंड इम्पावरमेंट की रिपोर्ट के हवाले से लखा है कि 2010-11 में अल्पसंख्यकों के विकास के लिए दिए गए अनुदान में से 587 करोड़ रुपये इस्तेमाल करने के बजाय इसे सरकार को वापस लौटा दिया। रिपोर्ट के अनुसार गत वर्ष लौटाई गई रकम इसके मुकाबले कहीं कम थी। अल्संख्यक मंत्रालय ने 2008-09 में 33.63 करोड़ रुपये और 2009-10 में 31.5 करोड़ रुपये का गैर इस्तेमाल अनुदान लौटा दिया था। कमेटी रिपोर्ट के अनुसार यह रकम इसलिए इस्तेमाल नहीं हो सकी कि 4 नई योजनाएं शुरू ही नहीं की जा सकीं। मंत्रालय ने मल्टी सेक्टोरियल डेवलपमेंट प्रोग्राम के लिए दिए गए 426.26 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं किए। इसने पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए 24 करोड़, वक्फ बोर्ड के कम्प्यूटरीकरण के लिए दिए गए 9.3 करोड़ रुपये, प्री मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए 33 करोड़ रुपये और मेरिट कम मींस छात्रवृत्ति के लिए दिए 26 करोड़ रुपये भी इस्तेमाल नहीं किए। कमेटी ने यह भी कहा कि सच्चर कमेटी के सभी सुझावों का गंभीरतापूर्वक क्रियान्वयन नहीं किया जा रहा है। कमेटी ने मंत्रालय को हिदायत दी कि सच्चर सुझावों को सीमित समय में क्रियान्वित करने हेतु योजना बनाए।
`यह तो सांप्रदायिकता के संबंध में बातें हैं और बातों का क्या? काम कब शुरू होगा?' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' में प्रकाशित समीक्षात्मक लेख में मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी ने लिखा है कि सांप्रदायिक तत्रों की गतिविधियों और देश की व्यवस्था को अपने विचारों के अनुसार चलाने की बात कोई नई नहीं है और यह भी कोई राज नहीं कि इनकी पकड़ विभिन्न विभागों पर कितनी मजबूत है। अन्य पार्टियों को छोड़िए, खुद कांग्रेस में भी संघ और इसके विचारों से प्रभावित सांप्रदायिक तत्वों की एक मजबूत टोली हमेशा से रही है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बराबर इस तरफ ध्यान दिलाते हुए उन्हें बेनकाब करने और उनसे सरकारी विभागों को पाक करने की जरूरत बताते रहते थे।
गत कुछ दिनों से राहुल गांधी, जयप्रकाश अग्राल और दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसियों को सरकारी विभागों में सांप्रदायिक तत्वों की घुसपैठ का बहुत अहसास हो रहा है और वह इसका इजहार कर रहे हैं। लेकिन यह काफी नहीं है। बीमारी के कारणों को दूर करने के साथ सरकारी विभागों को पाक करने के लिए व्यवहारिक उपाय भी जरूरी हैं।
`सरकार और अल्पसंख्यक' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने अपने संपादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि 2012-13 के बजट में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अपनी आंखों पर एक चश्मा लगाते हुए अल्पसंख्यकों के हाथों में झुनझुना थमा दिया है जिससे यह महसूस होता है कि हमारी सरकार के पास अल्पसंख्यकों के लिए कुछ है ही नहीं अथवा हम अल्पसंख्यकों को देश के नागरिक ही नहीं मानते। अल्पसंख्यकों के साथ बजट में यह अन्याय कोई इस वर्ष का मामला ही नहीं है बल्कि गत कई बार से अल्पसंख्यकों के साथ यही मजाक किया जाता रहा है और यदि अल्पसंख्यकों के लिए राशि का प्रावधान किया जाता है, इसके संबंध में कोई योजना तैयार नहीं की जाती कि वह किस तरह खर्च की जाएगी अथवा अल्पसंख्यकों पर इस राशि को कैसे लगाएं। इसलिए आने वाले वर्ष में वह राशि वापस हो जाती है और कहा जाता है कि अल्पसंख्यकों को इसकी जरूरत नहीं। वैसे गत बजट के मुकाबले 385 करोड़ रुपये की वृद्धि की गई है। लेकिन इस वृद्धि से देश के अल्पसंख्यकों को किसी सूरत में कोई फायदा नहीं होता।

Saturday, March 17, 2012

उर्दू पत्रकार काजमी की गिरफ्तारी इजरायल के इशारे पर

इजरायली राजनयिक की गाड़ी पर हमले के आरोप में पुलिस द्वारा सैयद मोहम्मद अहमद काजमी को गिरफ्तार करने पर जहां देशभर में विभिन्न मुस्लिम एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा विरोध प्रदर्शन का सिलसिला जारी है वहां उर्दू अखबारों ने इस पर अपने सम्पादकीय लिखे, आलेख और रिपोर्ट प्रकाशित की। पेश है कुछ उर्दू अखबारों की राय।
`इजरायली राजनयिक पर हमले में ईरानी पत्रकार की गिरफ्तारी?' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा कि दरअसल बैंकाक में हुए विस्फोट के बाद वहां से कुछ संदिग्ध ईरानी फरार हो गए थे जिसमें एक महिला भी शामिल थी। बैंकाक पुलिस को उस महिला के घर की तलाशी में एक टेलीफोन डायरी मिली थी जिसमें मोहम्मद अहमद काजमी का मोबाइल नम्बर था। काजमी के खिलाफ कई महत्वपूर्ण सुबूत मिले हैं। आशंका जताई जा रही है कि हमलों के पीछे ईरानी सेना की स्पेशल फोर्स है जिसे खासतौर से ईरान-इराक युद्ध के समय गठित किया गया था। मोहम्मद अहमद काजमी को सूचनाएं जुटाने के लिए डालर में भुगतान किया गया था। ब्लास्ट में जिस मोटर साइकिल का इस्तेमाल किया गया वह करोल बाग इलाके से किराये पर ली गई थी। हमलावर विदेश से आकर पहाड़गंज के एक होटल में ठहरे थे। बताया जा रहा है कि स्टिकी बम इसी होटल में तैयार किया गया।
पूरे मामले का दुःखद पहलू यह है कि विदेशी बाम्बर जिसने औरंगजेब रोड में कार पर बम लगाया था वह गृह मंत्रालय की सुस्ती के कारण उसी दिन इन्दिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से दक्षिण एशिया के किसी देश की फ्लाइट से भाग गया। गृह मंत्रालय या किसी और सरकारी एजेंसी ने हवाई अड्डे पर इमिग्रेशन को सूचित नहीं किया कि अमूक व्यक्तियों को रोका जाए, पूछताछ की जाए। गृह मंत्रालय की यह चूक इसलिए भी चिन्ता का विषय है कि बम धमाका होने के तुरन्त बाद इजरायल ने कह दिया था कि हमले के पीछे ईरान का हाथ है।
`संघी-यहूदी-राजनीति' के शीर्षक से लखनऊ सहित कई शहरों से प्रकाशित दैनिक `अवधनामा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी का मामला सादा नहीं बहुत पेचीदा है, जिसको समझने के लिए यहूदी राजनीति का समझना जरूरी है। आरएसएस के एक थिंक टैंक के अनुसार शीत युद्ध के खत्म होने और फिर
9/11 के बाद दुनिया एक बार फिर दो ब्लॉकों में विभाजित हो चुकी है। दक्षिणी ईसाई ब्लॉक और पूर्वी मुस्लिम ब्लॉक। इस थिंक का कहना है कि 6 दिसम्बर 1992 के संदर्भ में संघ परिवार ने बहुत कोशिश की थी कि ईसाई ब्लॉक (जिसमें यहूदी भी शामिल हैं) और मुस्लिम ब्लॉक की तरह दुनिया में एक तीसरे हिन्दू ब्लॉक को भी स्वीकार कराया जाए लेकिन इसमें कामयाबी नहीं मिल सकी। इसलिए भारत जो एक हिन्दू बहुसंख्यक देश है जिसमें सांस्कृतिक प्रभाव ब्राह्मणों का है उसका प्रतिशत भारत में उतना नहीं है जो पूरी दुनिया में यहूदियों का है। इसके सिवाय कोई उपाय नहीं कि वह ईसाई ब्लॉक का साथ दे क्योंकि वह कई कारणों से मुस्लिम ब्लॉक में शामिल नहीं हो सकता। संघ परिवार के इसी उच्चस्तरीय फैसले के बाद ही भारत की विदेश नीति तब्दील हुई और लगभग आधी सदी के विरोध के बाद वह इजरायल समर्थक हो गई। इसी फैसले के तहत प्रधानमंत्री नरसिंह राव के समय में इजरायल को व्यावहारिक तौर पर तसलीम करके इससे राजनयिक रिश्ते कायम किए गए। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद शहीद हुई जिसमें संघ परिवार को यहूदी इजरायल की लॉजिस्टक सहायता भी शामिल थी। इजरायल जो मुसलमानों के प्रथम किबला बैतुल मकद्दस को गिराकर हैकल में तब्दील करना चाहता है यह देखना चाहता था कि बाबरी मस्जिद की शहादत इस्लामी जगत पर क्या प्रभाव डालती है ताकि वह मस्जिद की शहादत के बाद पेश आने वाले संभावित घटनाओं से निपटने की योजना बना सके। गत 32 वर्षों के दौरान भारत-इजरायल संबंध जितने गहरे और पेचीदा हो चुके हैं, जनता को छोड़िए खास को भी इसके बारे में अनुमान नहीं है। उर्दू पत्रकार मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी इसी संघी यहूदी रणनीति के तहत है।
दैनिक `जदीद मेल' ने `कलम पर साम्राजी हमला' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मोहम्मद अहमद काजमी को अंतर्राष्ट्रीय आतंक रोधी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया है। शायद इसीलिए दिल्ली की स्पेशल सेल के लोगों ने उनकी पुलिस रिमांड 20 दिन की ली है और पुलिस ने जिन स्रोतों से अखबार और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में यह समाचार प्रसारित किया गया कि इसमें काजमी को उत्तर-पूर्व आतंकी संगठन से जुड़ा बताया गया है। लेकिन यह बात समझ में नहीं आती कि अंतर्राष्ट्रीय आतंकी संगठन से संबंध रखने वाले किसी व्यक्ति की जांच दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल कर रही है। अभी तक आतंकी जो घटनाएं सामने आई हैं उसमें छोटी से छोटी घटना में लिप्त किसी भी संदिग्ध से पूछताछ `आईबी', `रॉ' या `एनआईए' के लोग ही करते हैं। जाहिर है कि एटीएस और एनआईए का गठन ही आतंकवाद से जुड़े मामलों की छानबीन के लिए हुआ है फिर यह एजेंसियां मोहम्मद अहमद काजमी मामले से दूर क्यों हैं? सबसे ज्यादा दुःखद बात तो यह है कि मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी के बाद इजरायली राजनयिक की कार विस्फोट मामले को हल करने का दावा स्पेशल सेल के जिन अधिकारियों ने किया है इनमें से एक तो खुद भ्रष्टाचार के मामले में विजीलेंस जांच के दायरे में है। सवाल यह है कि क्या ईरान के हक में लेख लिखना और समीक्षा करना गुनाह है और इजरायल व अमेरिका की निन्दा व भर्त्सना करना जुर्म है।
`वरिष्ठ पत्रकार मोहम्मद अहमद काजमी की गिरफ्तारी' के शीर्षक से मौलाना अली हैदर गाजी कुमी ने दैनिक `सहाफत' में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि बात दरअसल यह है कि काजमी ने सीरिया का दौरा किया और वहां की सूरतेहाल पर कलम उठाया। इजरायल के षड्यंत्र को उजागर किया। गाजा और फलस्तीन के मुसलमानों को सताया जा रहा है, पर लिखा और दिल्ली बम विस्फोट की समीक्षा की और इजरायल के षड्यंत्र की पोल खोल दी जिसके कारण काजमी को तुरन्त गिरफ्तार कर लिया गया ताकि पत्रकारिता की दुनिया को इन डायरेक्ट पैगाम दिया जाए कि बस वह लिखो जो मोसाद चाहे, वह पढ़ो जो वह पढ़ाएं, वह देखो जो इजरायल दिखाए, वह सोचो जो यहूदी सोचें तो ठीक है अन्यथा काजमी जैसे पत्रकारों को दबोचा जा सकता है तो फिर दूसरे पत्रकार भी अपनी खैर मनाएं। अपनी गिरफ्तारी से ठीक दो घंटे पूर्व उन्होंने एक बयान दिया था जिसकी कीमत उन्हें गिरफ्तारी से चुकानी पड़ी।
मोहम्मद अहमद की यह गिरफ्तारी आखिरी कदम नहीं बल्कि पहला कदम है दूसरा कदम मैं या मेरे जैसा कोई दूसरा हो, अभी कुछ कहना समय पूर्व होगा लेकिन होगा जरूर, क्योंकि भारत में मोसाद ने अपने पंजे जिस तरह गाड़ रखे हैं इसे हर कोई जानता है। मोहम्मद अहमद काजमी से अपने इस बयान में विश्लेषण किया और फिर इसी विश्लेषण की रोशनी में इजरायली षड्यंत्र की पोल खोल दी जिससे बौखलाकर इजरायल ने हिन्दुस्तान पर दबाव बनाया और फिर क्या था कि काजमी पर बेबुनियाद, झूठे आरोप लगा दिए गए। उनकी गिरफ्तारी इजरायल के इशारे पर हुई है।

Tuesday, January 3, 2012

मुस्लिम ओबीसी आरक्षण पर उठे सवाल

उत्तर पदेश में कांग्रेस की अग्निपरीक्षा के शीर्षक से दैनिक `पताप' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि विधानसभा चुनाव की तारीख तय होने से लगभग 40 घंटे पहले कांग्रेस द्वारा ओबीसी के 27 फीसदी कोटे में से अल्पसंख्यकों, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध और पारसी को 4.5 फीसदी अलग से आरक्षण देना यूपी की 403 विधानसभा में कांग्रेस को अपने वजूद के मजबूत होने की उम्मीद है। पहले इसकी सीटें 22 थीं अब इसमें 60 सीटें बढ़ सकती हैं। कांग्रेस का चौधरी अजीत सिंह की पार्टी आरएलडी से समझौता इसके वोट बैंक में वृद्धि करेगा। कांग्रेस का अगला कदम उत्तर पदेश में पधानमंत्री की कुर्सी के दावेदार मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी से चुनावी तालमेल की कोशिश होगी ताकि इसके साथ मिलकर कांग्रेस चुनाव में यादव एवं अन्य जातियों के वोट बैंक पर पकड़ बना सके। राज्य में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की सकियता से पार्टी को आशा हो चली है कि 17 फीसदी मुस्लिम वोट की अहम भूमिका होगी। वह जिस पार्टी की ओर जाएगा वही पार्टी सत्ता में आने वाली पार्टी किंग मेकर की भूमिका निभाएगी। चुनाव पूर्व सर्वे के मुताबिक किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलने वाली है। उत्तर पदेश में गठजोड़ की सरकार बनेगी। देखना है कि चुनाव में ऊंट किस करवट बैठता है लेकिन इतना तय है कि यूपी चुनाव कांग्रेस और यूपीए सरकार के लिए सियासी चैलेंज भरा होगा।

कोलकाता से पकाशित दैनिक `आजाद हिंद' ने उत्तर पदेश विधानसभा चुनाव के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मायावती को अपने राज्य में मुसलमानों से कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही और न ही अल्पसंख्यकों के लिए इनकी पार्टी ने कुछ किया है लेकिन इस बार जब उन्हें मुसलमानों के तेवर साफ दिखाई दे रहे हैं तो ऐसे मौकों पर उन्होंने मुस्लिम कार्ड खेलने की भी कोशिश की है और पिछले सप्ताह ही घोषणा की कि उनकी सरकार राज्य में अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए काम करेगी। अब जबकि चुनाव सिर पर आ गया है तो मायावती को मुसलमानों की याद आई और कुछ बिकाऊ मुस्लिम चेहरों को लेकर एक बड़ा सम्मेलन भी किया लेकिन राज्य के मुसलमान मायावती से दूर हो गए हैं। गत 5 वर्षों के दौरान मायावती को कभी भी मुसलमानों की याद नहीं आई लेकिन इस समय मुसलमानों से हमदर्दी का दम भर रही हैं। सच्चर कमेटी ने तो पश्चिम बंगाल में मुसलमानों की सबसे खराब हालत बताई थी लेकिन यदि उत्तर पदेश का जायजा लिया जाए तो पता चलेगा कि वहां के मुसलमान पश्चिमी बंगाल से भी खराब हालत में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं जहां उनकी न अपनी कोई पहचान है और न कोई भविष्य। मुसलमानों की उन्नति के लिए आरक्षण जरूरी के शीर्षक से आबिद अनवर अपने लेख में लिखते हैं कि मुसलमान हिन्दुस्तान में नए दलित हैं। दुनिया में ऐसा पहला देश होगा जहां दलित से बदतर मुसलमानों की जिंदगी बना दी गई है। सर्वे में पता चला है कि देश के लगभग एक तिहाई मुसलमान 550 रुपए मासिक से कम आमदनी पर जिंदगी गुजारने पर विवश हैं। नेशनल काउंसिल फॉर अप्लाइड एकोनामिक रिसर्च (एनसीएईआर) के अनुसार 2004-05 में हर 10 में से तीन मुसलमान गरीबी रेखा से नीचे जिंदगी गुजार रहे हैं। गरीब मुसलमान जो शहरों में रहते हैं उनकी हालत गांव में रहने वाले मुसलमानों से कुछ बेहतर है। गांव में रहने वालों की आमदनी मात्र 338 रुपए मासिक थी। इसके अतिरिक्त शहरी इलाकों में लगभग 38 फीसदी और देहाती क्षेत्र में 27 फीसदी मुसलमान गरीबी रेखा से नीचे की जिंदगी गुजार रहे हैं। मुसलमानों को सुविधा देने की बात सभी सियासी पार्टियां करती हैं लेकिन जब उन्हें सुविधा देने की बात आती है तो इन पार्टियों को सांप सूंघ जाता है। कुछ पार्टियां आरक्षण की बात करती हैं लेकिन जब सत्ता में आ जाती हैं तो वह भूल जाती हैं कि जैसा कि नीतीश कुमार सरकार ने किया। उन्होंने चुनाव से पूर्व मुसलमानों के लिए आरक्षण की बात कही थी लेकिन दोबारा सत्ता में आते ही आरक्षण की बात तो दूर उल्टे बिहार में मुसलमानों का खून बहाया जा रहा है। फारबसगंज पुलिस फायरिंग और बड़ाहा कत्ल इसका ताजा उदाहरण है।

मुस्लिम ओबीसी के लिए विशेष किया गया कोटा- खोटा के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' में पकाशित लेख में मौलाना अब्दुल मोईद कासमी ने लिखा है कि सच्चाई यह है कि 4.5 फीसदी आरक्षण मुसलमानों अथवा ओबीसी मुसलमानों के लिए बल्कि सभी ओबीसी अल्पसंख्यकों (मुस्लिम, सिख, बौद्ध, ईसाई और पारसी) के लिए है। इस तरह यह घोषणा साढ़े चार फीसदी की है लेकिन मुस्लिम ओबीसी के हिस्से में मुश्किल से ढाई फीसदी आएगा। कांग्रेस मंत्रिमंडल ने कोटा तो तय किया है लेकिन इसमें दो बड़े छल किए हैं। एक यह कि मुस्लिम ओबीसी का कोटा तय करने के बजाए अल्पसंख्यकों अर्थात मुसलमानों समेत सिख, बौद्ध, इसाई और पारसी का कोटा तय किया है। इससे स्थित में यह तब्दीली हुई कि पहले मुस्लिम ओबीसी सभी ओबीसी का हिस्सा थे। अब सभी अल्पसंख्यक ओबीसी का हिस्सा हैं अर्थात केवल शालि होने को विशेष किया गया है, स्पष्ट रूप से मुस्लिम ओबीसी का कोटा विशेष नहीं किया गया है। इस तरह यह बताया जा रहा है कि कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में मुसलमानों के लिए आरक्षण का जो वादा किया था उसको पूरा कर दिया गया। इस आधे-अधूरे फैसले द्वारा मुसलमानों की ओर आरक्षण का जो दबाव बना था उसे भी निष्पभावी करने की कोशिश की गई है और कुछ दिया भी नहीं गया है। दूसरी ओर भाजपा सहित साम्पदायिक ताकतों को मुसलमानों के खिलाफ देशवासियों विशेषकर हिन्दू ओबीसी जातियों को बहकाने का मौका हाथ आ गया।

विधानसभा चुनाव का बिगुल के शीर्षक से दैनिक `जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि वैसे तो उत्तर पदेश में सभी सियासी पार्टियों की नजर 20 फीसदी मुस्लिम वोटों पर है जो विधानसभा की 100 से अधिक सीटों पर निर्णायक भूमिका रखते हैं। लेकिन बाबरी मस्जिद के अपराधी कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के कारण मुलायम सिंह की वह इमेज बाकी नहीं रह गई जो कभी हुआ करती थी। राज्य की सत्ता बन बहुजन समाज पार्टी को मुसलमानों की याद चुनाव के बहुत करीब आकर आई।

पहले उन्होंने पधानमंत्री को पत्र लिखकर मुस्लिम आरक्षण देने की मांग की और इसके बाद लखनऊ में मुसलमानों को लुभाने के सम्मेलन किया। पिछली बार मायावती ने दलितों और ब्राह्मण वोटों के बल पर सत्ता हासिल करने का जो तजुर्बा किया था उसे राजनैतिक हलकों में सराहा गया था लेकिन अब स्थिती पूरी तरह भिन्न है। कांग्रेस की केन्द्र सरकार ने चुनाव से पूर्व अन्य पिछड़ी जातियों को साढ़े चार फीसदी आरक्षण की घोषणा कर दी है। इस बाबत सरकारी अधिसूचना जारी हो चुकी है और मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने शैक्षिक संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों को साढ़े चार फीसदी आरक्षण देने हेतु दिशा-निर्देश जारी कर दिए हैं। इसी के साथ पार्टी ने अपनी स्थिति मजबूत बनाने के लिए राष्ट्रीय लोकदल से चुनावी समझौता किया और चौधरी अजीत सिंह को मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी पार्टी को यूपी में सत्ता सीन करने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। देखना यह है कि इन कोशिशों के नतीजे में कांग्रेस को किस हद तक सियासी फायदा हासिल होगा।