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Sunday, February 17, 2013

पाकिस्तान के उकसाने के पीछे असल मंशा क्या है?


`सीमा पर तनाव का हल क्या हो?' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि सेना प्रमुख ने बहुत अच्छे अंदाज में पाकिस्तान को चेतावनी दी है लेकिन महसूस किया जाता है कि यह काफी नहीं है और पाकिस्तानी घुसपैठ और उसके बाद उनकी ओर से कोई जिम्मेदारी न लेने के रवैए पर बहुत सोचना और समझना होगा। इसका मतलब यह भी नहीं कि हमें पाकिस्तान के खिलाफ फौजी कार्रवाई ही कर देनी चाहिए और ताकत के इस्तेमाल से काम लेना चाहिए, यह भी मसले का कोई ठोस हल नहीं होता है क्योंकि इसके नतीजे दोनों देशों के लिए बहुत दर्दनाक और नुकसान पहुंचाने वाले होंगे। इसलिए यदि बातचीत से काम चले तो हर स्तर पर बातचीत के रास्तों को खुला रखना चाहिए और गम व गुस्सा को काबू में रखते हुए प्रभावी ढंग से मसले के हल की तलाश करनी चाहिए क्योंकि हम किसी भी तरह से कमजोर नहीं हैं बल्कि किसी भी तरह की कार्यवाही का जवाब देने की पूरी ताकत रखते हैं। कारगिल के मौके पर और उसके पूर्व 1971 में युद्ध छिड़ने पर दिखाया है। लेकिन दोनों देशों की जनता एक दूसरे के करीब और रिश्तों में मधुरता रखकर ही खुश होती है क्योंकि दोनों देशों की भाषा, संस्कृति और सभ्यता में जितनी समानता है शायद ही कहीं दो पड़ोसियों में देखने को मिले, यहां तक कि बंगलादेश, श्रीलंका, चीन और म्यांमार किसी में उतनी समानता नहीं है जितनी भारत और पाकिस्तान के बीच पाई जाती है।
`पाकिस्तान से मायूस है अमन का कारवां' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में सहारा न्यूज नेटवर्प के एडीटर एवं न्यूज डायरेक्टर ओपेंदर राय ने अपने स्तंभ में लिखा है कि पाकिस्तान में इसी साल चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में वहां के सारे ग्रुपों में भारत विरोधी नारों की होड़ लगी है। इस हालत में हमारी फौज और हमारी सरकार को धैर्य से काम लेना होगा। जल्दबाजी में हम किसी ऐसे आपशन्स को न चुनें जिससे माहौल और  बिगड़ जाए। पाकिस्तान ऐसा नासूर है जिसका इलाज आपरेशन नहीं है। इसे मरहम पट्टी के साथ एंटी बायटेक के बोस्टर डोज की जरूरत है। हमें इन दोनों का इस्तेमाल करना चाहिए और चीर-फाड़ से बचना चाहिए। पाकिस्तान की शासकीय व्यवस्था में कई परतें हैं। बाहरी दुनिया के लिए सरकार के मुखिया वहां के राष्ट्रपति आसिफ अली हैं लेकिन पाकिस्तान में इस सिविल सरकार का शासन पर पूरी तरह से कंट्रोल नहीं है। दूसरी परत के मुखिया पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल अशफाक परवेज कयानी हैं। कयानी ने आज तक इस सिविल सरकार के कामकाज में दखल नहीं दिया है लेकिन कयानी इस वर्ष सेवानिवृत्ति हो रहे हैं। इतिहास साक्षी है कि पाकिस्तान का कोई भी आर्मी चीफ आसानी से कुर्सी नहीं छोड़ता है। संभव है कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए कयानी ऐसे हालात पैदा करने की कोशिश करें, जिससे आर्मी की भूमिका में वृद्धि हो जाए। हो सकता है कि भारत के साथ ताजा विवाद एक फौजी षड्यंत्र हो, जिसे कयानी की ओर से समर्थन मिल रहा हो और जिसके बारे में वहां की सिविलियन सरकार को भी न मालूम हो।
`नक्सली हिंसा के कारण और हल क्या हों?' के शीर्षक से कोलकाता और दिल्ली से एक साथ प्रकाशित होने वाले दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि 1960 के दशक से शुरू हुई नक्सली हिंसा अभी खत्म नहीं हुई है और यह आज देश की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है बल्कि एक लिहाज से सीमा पार से जारी आतंक से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि इसके पीछे जो गुमराह युवक सक्रिय हैं उनकी जड़ें हमारे कस्बों, देहातों और छोटे-छोटे गांवों में फैली हुई हैं। देश के लगभग दस राज्य इसकी लपेट में हैं। इस आतंक के खिलाफ बुद्धिजीवियों के विचार भी समय-समय पर सामने आए हैं जिसके मुताबिक नक्सलइज्म को ताकत के बल पर खत्म नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह आर्थिक असमानता के कोख से पैदा हुई है और इसे एक सामाजिक मसले के तौर पर ही हल किया जाना चाहिए। नक्सली हिंसा को हल करने की दिशा में हमारा पहला कदम कबाइली क्षेत्रों से दलाली की परम्परा अथवा ठेकेदारी को बेदखल करना चाहिए, जिसका एक उदाहरण मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने तेंदू पत्ते से ठेकेदारी हटाकर और इस कारोबार को कबाइलियों को देकर किया था लेकिन छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने यह काम ठेकेदारों के सुपुर्द कर दिया जो इस कारोबार में फायदे के बजाय नुकसान बताते हैं क्योंकि खनन कर रही कम्पनियां अपने सीए से बनवाई बैलेंस शीट में सदैव घाटा दिखाती हैं। इसलिए उचित तरीका यही है कि खनन का फायदा कबाइलियों (आदिवासियों) को पहुंचाने के खनिज की हर टन पैदावार की रायलटी का एक हिस्सा उनको दिया जाए। इसी 1927 के अंग्रेजों के बनाए जंगल कानून को भी वापस लिया जाए इसके द्वारा आदिवासी जंगल पर अपने हक से वंचित हो गए हैं और यही उनको हिंसा द्वारा अपना हक लेने पर मजबूर करती है।
16 दिसम्बर को राजधानी दिल्ली में एक लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और जघन्य हत्या के बाद से विरोध-प्रदर्शन  का सिलसिला जारी है। जिस तेजी से यह आंदोलन चल रहा है उसी तेजी से हर दिन दुक्रम की सजाएं अखबारों में पढ़ने को मिल रही हैं। सहरोजा `दावत' में मोहम्मद सिबगातुल्ला नदवी ने `बिगाड़ के सुधार के लिए धर्म एवं नैतिकता का सहारा लेना पड़ेगा' के शीर्षक से अपने लेख में लिखा है कि आज महिलाओं से दुष्कर्मों के लिए आजीवन कारावास अथवा फांसी की  बात कही जा रही है लेकिन यह सजा इसे रोक सकेगी, निश्चय ही नहीं, क्योंकि हत्या के लिए पहले से ही यह सजा निर्धारित है जब इस मामले में यह डर पैदा नहीं कर सका तो दुष्कर्म के मामले यह कैसे डर पैदा कर सकेगी। वास्तव में सारी खराबियों और बुराइयों की जड़ वह बिगाड़ है जो समाज में फैला हुआ है जिसके सुधार के  बजाय उसे कानून संरक्षण दिया जा रहा है। लोगों को मानवता, नैतिकता और धर्म का पाठ पढ़ाने के बजाय उस कानून का पाठ पढ़ाया जा रहा है जो खुद खामियों से भरा होता है वह दूसरों का सुधार क्या करेगा।
`सुप्रीम कोर्ट द्वारा खाप पंचायतों को फटकार' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' के सम्पादक (नार्थ) शकील शम्सी ने अपने स्तंभ में  लिखा है कि खाप पंचायतें मोहब्बत की शादी, ईश्क और महिला आजादी के सख्त खिलाफ हैं, पुरुषों का वर्चस्व कायम करना उनका पहला दायित्व है। उनका मानना है कि दुष्कर्म की घटनाएं इसलिए होती हैं कि महिलाओं को आजादी मिल गई है। खाप पंचायतों की नजर में सबसे बड़ा गुनाह एक ही गोत्र में होने वाली शादियां हैं। खाप का संबंध न हो। खाप पंचायतों ने लड़कियों को जीन्स न पहनने की हिदायत दी जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने पंचायतों को आदेश दिया कि वह लड़कियों को जीन्स पहनने या मोबाइल रखने से मना नहीं कर सकती। जीन्स पहनने की इच्छुक और मोबाइल रखने की इच्छा रखने वाली लड़कियों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से काफी खुशी हुई होगी, लेकिन इस आदेश से उनकी समस्याएं हल हो जाएंगी, विश्वास से नहीं कहा जा सकता लेकिन आशा की एक किरण पैदा हुई है जो बहुत सी लड़कियों को एहसास महरूमी से  बचाएगी।
`पाकिस्तान के उकसाने के पीछे असल मंशा आखिर क्या है?' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि दरअसल हम तो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि पाकिस्तान भारत के साथ एलओसी पर बढ़ रहे तनाव को कम करने में दिलचस्पी रखता ही नहीं। उसका कोई बड़ा गेम प्लान है जिसका मेंढर सेक्टर में दो भारतीय जवानों का सिर काटने की घटना एक हिस्सा है। अगर ऐसा न होता तो नियंत्रण रेखा पर तनाव कम करने के लिए मुश्किल से हुई फ्लैग मीटिंग से ठीक एक दिन पहले युद्ध विराम का फिर से उल्लंघन न करता। यही नहीं भारत ने पाकिस्तान पर ताजा आरोप लगाया कि दोनों देशों के बीच ब्रिगेडियर स्तर पर हुई फ्लैग मीटिंग के बाद से अब तक वह पांच दफा संघर्ष विराम का उल्लंघन कर चुका है। लिहाजा सोमवार को फ्लैग मीटिंग का जो नतीजा निकलना था वही निकला। यानी कुछ भी नहीं निकला। साफ है कि पाकिस्तान घुमा-फिराकर किसी भी तरह से इस मामले में तीसरे पक्ष की दखलअंदाजी चाहता है जबकि यह द्विपक्षीय मामला है। भारत सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी हालत में इसे अंतर्राष्ट्रीय नहीं होने देगा।

Tuesday, January 8, 2013

महिलाओं पर बढ़ता अत्याचार, कानून से ज्यादा समाज सुधार की जरूरत


समाजवादी पार्टी द्वारा संसद में मुस्लिम आरक्षण उठाए जाने की मांग पर चर्चा करते हुए दैनिक `सियासी तकदीर' में जावेद कमर ने अपनी समीक्षा में लिखा है कि सलमान खुर्शीद के समय में 4.5 फीसदी जो आरक्षण दिया गया था सरकार उसमें वृद्धि करने के लिए तैयार नहीं है वह तो ओबीसी कोटे को लागू करने के लिए संवैधानिक संशोधन करने पर ही तैयार नहीं हैं। गत दिनों कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ  नेता रशीद मसूद ने राज्यसभा में जब इस बाबत एक लिखित सवाल किया तो अल्पसंख्यक मामलों के राज्यमंत्री न्योंग अरंग ने इसका जवाब नहीं में दिया था। एक बड़ा तर्प यह दिया जा रहा है कि मंडल आयोग के सुझाव पर पिछड़े वर्गों को जो 27 फीसदी आरक्षण दिया गया था उसमें मुसलमानों की पिछड़ी जातियां शामिल हैं और उन्हें इसका फायदा भी मिल रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि 27 फीसदी में मुसलमानों के लिए कोई कोटा निर्धारित नहीं है। इसलिए उन्हें इससे कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है। हमें दुख इस बात पर है कि जब यह कोटा निर्धारित किया गया था तो उस समय हमारे किसी नेता ने सरकार से यह पूछने का साहस क्यों नहीं किया कि हमें हक की जगह भीख क्यों दी जा रही है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के. रहमान की प्रेस कांफ्रेंस में जब किसी पत्रकार ने उनका ध्यान मुलायम सिंह यादव की मांग की ओर दिलाया तो उनका कहना था कि कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में जो वादा किया है वह हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है। हमने अपने घोषणा पत्र में मुसलमानों को केरल और कर्नाटक की तर्ज पर आरक्षण देने का वादा किया है उनकी आबादी की बुनियाद पर नहीं। के. रहमान खां की जुबानी मनमोहन सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह मुसलमानों को उनका हक नहीं भीख ही दे सकती है, तो क्या मुसलमान इस भीख को कुबूल करने के लिए तैयार हैं?
केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा यह कहने पर आईपीएस अधिकारी एएस इब्राहिम को आईबी का डायरेक्टर सोनिया गांधी की वजह से  बनाया है, पर चर्चा करते हुए `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि शिंदे ने यह कहकर आईपीएस अधिकारी की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। इसके जरिये उन्होंने सोनिया की खुशी हासिल करने की कोशिश की तो दूसरी ओर मुसलमानों पर एहसान जताया और उन्हें उनकी हैसियत बता दी कि वह बिना आशीर्वाद के किसी उच्च पद पर नहीं पहुंच सकते। लेकिन इसी के साथ उन्हें  यह भी बताना चाहिए कि अब तक मुसलमान इस एजेंसी का हेड नहीं बन सका तो उसका जिम्मेदार कौन था? यदि यह मान लिया जाए कि इब्राहिम की उन्नति में किसी की भूमिका है, तो सरकार की होगी, उसमें सोनिया गांधी की क्या भूमिका? दूसरी बात यह है कि एक दो मुसलमानों को उच्च पदों पर पदासीन कर देने से क्या मुसलमानों की समस्याएं हल हो जाएंगी? इनके पास क्या अधिकार होते हैं या उन्हें कौन-सी ऐसी जादू की छड़ी दी जाती है कि उनकी वजह से मुसलमानों के काम आसानी से हो जाएंगे। मुसलमानों की समस्याएं हल होंगी तो नीति और सोच में तब्दीली से, जिसके लिए सरकार कभी तैयार नहीं होती। गृहमंत्री आईबी का मुस्लिम हेड बनाने का केडिट तो ले रहे हैं लेकिन यह क्यों नहीं बताते कि इससे मुस्लिम कौम का क्या भला होगा।
`क्या 21 दिसम्बर को दुनिया खत्म हो जाएगी?' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' में नजीम शाह ने अपने लेख में लिखा है कि 21 दिसम्बर को दुनिया खत्म हो जाएगी, यह आस्था एक प्राचीन सभ्यता `माया' के मानने वालों का है। यह लैटिन अमेरिका के अधिकतर देशों की सबसे प्राचीन सभ्यता में गिनी जाती है। यह सभ्यता हजरत ईसा की पैदाइश से  बहुत पहले से इस दुनिया में मौजूद थी। मैक्सिको के कुछ नागरिक अब भी प्राचीन माया भाषा बोल सकते हैं। माया कौम भाषा, गणित और नक्षत्र विज्ञान में बहुत शिक्षित थी। इस सभ्यता के अनुयायियों ने अमेरिका में लिखने की शुरुआत की जबकि इनके लिखने का तरीका मिस्र की सभ्यता से मेल खाता है। माया सभ्यता के कैलेंडर में 18 महीने और हर महीने में 20 दिन होते हैं अर्थात् साल में 360 दिन। वास्तव में इनके बनाए हुए कैलेंडर आज के ईस्वी कैलेंडर से बहुत ज्यादा सही हैं। इस सभ्यता का बड़ा कारनामा इनका कैलेंडर माना जाता है। माया कौम पर शोध करने वालों का मानना है कि यह दुनिया पांच युगों में बंटी है और माया लोग चौथे युग में जी रहे हैं। उनके कैलेंडर के अनुसार 21 दिसम्बर को चौथा युग खत्म हो जाएगा और पांचवां युग शुरू होगा। कयामत (प्रलय) के बारे में इस्लामी आस्था अन्य धर्मों की धारणा को निरस्त करती है। इस्लामी आस्था के अनुसार कयामत के बारे में अल्लाह ही जानता है कि कब आएगी?
दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं पर दैनिक `सहाफत' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि `फांसी इलाज नहीं है।' दुष्कर्म की सामूहिक घटना जो गत रविवार को हुई उस पर गुस्से का इजहार करते हुए मांग की गई कि अपराधियों को फांसी दी जाए लेकिन क्या इस भावुक मांग पर अमल संभव है। हमारा देश चूंकि अपनी मर्जी से लोकतांत्रिक बना है इसलिए कानून द्वारा बताई गई प्रक्रिया को पूरा किए बिना किसी को सजा नहीं दी जा सकती। सरकार ने फैसला किया है कि मुकदमों की सुनवाई के लिए जल्द फैसला करने वाली `फास्ट ट्रैक' अदालतें कायम की जाएं, इस तरह जल्द फैसला हो सकेगा लेकिन क्या गुंडों में इससे भय पैदा हो सकेगा? अपराध के पहलू से हटकर विचार करने की जरूरत है कि हमारे समाज में औरत की क्या हैसियत है। आम विचार यही है कि औरत ऐसी मशीन है जिसके द्वारा ज्यादा से ज्यादा रकम वसूली जा सकती है। दहेज विरोधी कानून बनने के  बावजूद औरत की हालत खराब बनी हुई है। घर के अन्दर टीवी पर और सिनेमा में औरत को जिस अंदाज में दिखाया जाता है उससे युवाओं का प्रभावित होना स्वाभाविक है। संसद में बहस के दौरान किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि औरत की हद से ज्यादा बढ़ी आजादी उसके लिए हानिकारक हो सकती है। लिव इन पार्टनर के फैशन ने औरत के सम्मान को खत्म कर दिया है। औरत अपनी मर्जी से अपनी इज्जत किसी के हवाले कर सकती है। को-एजुकेशन से बिगाड़ शुरू होता है और आजादी से लड़के-लड़कियों के मिलने-जुलने और संबंधों से समाज बिखर जाता है। इन घटनाओं को रोकने के साथ-साथ समाज सुधार पर भी नजर डालनी जरूरी है।
`मुलायम व अखिलेश को दिया सुप्रीम कोर्ट ने तगड़ा झटका' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यह फैसला मुलायम और अखिलेश के लिए राजनीतिक दृष्टि से असहज स्थिति जरूर पैदा करेगा और बाद में केंद्र सरकार के साथ उनके रिश्तों के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा। मुख्य न्यायाधीश अल्तमश कबीर व न्यायमूर्ति एचएल दत्तू ने गुरुवार को मुलायम सिंह की याचिका को ठुकराते हुए मुलायम, अखिलेश और प्रतीक यादव के खिलाफ सीबीआई की प्रारम्भिक जांच के फैसले को बरकरार रखा है। पीठ ने कहा है कि सीबीआई अपनी जांच उसे सौंपेगी, केंद्र सरकार को नहीं। इस फैसले ने सूबे की सियासत को हवा दे दी है। एक ओर जहां इसे अब सियासी चश्मे से देखते हुए सीबीआई के अब तक हुए इस्तेमाल के मद्देनजर समाजवादी पार्टी द्वारा कांग्रेस को समर्थन दिए जाने की नई मजबूरी माना जा रहा है, वहीं उत्तर प्रदेश में बहुमत की सरकार बनने के बाद दिल्ली की गद्दी पर राज करने का सपना देखने वाले मुलायम सिंह यादव की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। यह भी तय हो गया है कि भ्रष्टाचार के सवाल पर चारों ओर से घिरी कांग्रेस को सपा की ओर से तीर और ताने नहीं सहने होंगे। भाजपा ने तो अखिलेश यादव से इस्तीफा मांगते हुए डिम्पल यादव को मुख्यमंत्री बनाने का सुझाव तक दे डाला है।

Sunday, November 18, 2012

`राबर्ट वाड्रा को आरोपों का सामना करना चाहिए'


प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की दावेदारी को संघ द्वारा निरस्त किए जाने पर दैनिक `हमारा समाज' ने अपने संपादकीय में लिखा है कि राजग की भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर अन्य सभी पार्टियों को उस समय बड़ी ताकत मिली जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी को खारिज कर दिया। संघ का मानना है कि यदि नरेन्द्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के लिए आगे बढ़ाया जाता है तो भाजपा और संघ को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा। भाजपा जिन मुद्दों  पर यूपीए और कांग्रेस को घेरती चली आई है और पूरे देश में यूपीए और कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर जनता को अपने पक्ष में करती रही है यह सभी मुद्दे मोदी के कारण खत्म हो जाएंगे और कांग्रेस एवं यूपीए को यह कहने का मौका मिल जाएगा। भाजपा ने नरेन्द्र मोदी का नाम पेश किया है वह गुजरात में मुस्लिम नरसंहार का जिम्मेदार है। इससे केवल मुसलमान ही नहीं बल्कि बहुत से हिन्दू वोटों का भी नुकसान होगा एवं मोदी के नाम पर एनडीए पार्टियां भी सहमत नहीं हैं। पर्दे के पीछे के इस खेल में एलके आडवाणी का हाथ साफ नजर आ रहा है क्योंकि वह एक लम्बे समय से प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की आशा रखते हैं लेकिन जिन सीढ़ियों पर चढ़कर वह प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं वह सीढ़ियां उन्हें आसमान से जमीन पर ला सकती हैं। नरेन्द्र मोदी भी आडवाणी के इस खेल को समझते होंगे। देखना यह है कि संघ के दरबार से मायूस होकर नरेन्द्र मोदी मौन धारण करते हैं या अपने ही लोगों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाते हैं।
तालिबान द्वारा 14 साल की मासूम लड़की मलाला पर हमले की कड़े शब्दों में भर्त्सना एवं निंदा करते हुए काजी हुसैन अहमद ने साप्ताहिक `खबरदार' में लिखा है कि यह तो मानवता, इस्लामी शिक्षा और पख्तून परम्परा के भी खिलाफ है। मलाला पर हमले का अफसोसजनक पहलू यह है कि इसका पुण्य खुद हत्यारे ले रहे हैं। मासूम बच्ची को तीन साल पहले जब इसकी उम्र 11 साल थी, बीबीसी के एक नुमाइंदे ने एक वीडियो डिसमिस्ड स्कूल द्वारा दुनिया से परिचित कराया। यह वीडियो न्यूयार्प टाइम्स की वेबसाइट पर देखी जा सकती है जिसमें वह फर्जी दृश्य भी शामिल है कि एक व्यक्ति को भीड़ के सामने उलटा लिटाकर कोड़े मारे जा रहे हैं और यह मशहूर कर दिया कि तालिबानी औरतों को कोड़े मार रहे हैं। इस बच्ची के मुंह में यह बात डाल दी गई और यह न्यूज पर इंटरव्यू में प्रसारित हुआ कि बेनजीर, बापा खान और ओबामा मेरे आइडियल हैं। बेनजीर और बापा खान की हद तक तो ठीक है कि हमारे देश में बहुत से लोग उनके भक्त हैं लेकिन सवात की एक मासूम बच्ची के मुंह में यह बात डालना कि ओबामा मेरे आइडियल हैं किन तत्वों का कारनामा है जबकि ओबामा के हाथों अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों जगह बहुत से लोग मारे जा रहे हैं जिसमें मासूम बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं। जहां तक तालिबान का मामला है उन्हें किसी ने इस्लाम के प्रतिनिधित्व के तौर पर स्वीकार नहीं किया है और न ही उनके सारे कामों का समर्थन किसी विख्यात दीनी जमाअत ने स्वीकार किया है।
`राबर्ट वाड्रा को आरोपों का सामना करना चाहिए' के शीर्षक से साप्ताहिक `चौथी दुनिया' के संपादक संतोष भारतीय ने अपने संपादकीय में लिखा है कि शायद राबर्ट वाड्रा को इस बात पर भरोसा है कि जनता उनके जुर्म की सारी कहानियां जानने के बाद भी चुन ली। राबर्ट वाड्रा ने अपनी वर्तमान बीवी प्रियंका गांधी  का भी नुकसान कर दिया है। प्रियंका गांधी अपने आगे राबर्ट वाड्रा शब्द लगाने से हिचकिचाती हैं लेकिन राबर्ट वाड्रा इस शब्द को बहुत लोकप्रिय करना चाहते हैं। लोगों को लगने लगा है कि शायद प्रियंका गांधी का दिमाग अपने भाई राहुल गांधी की तरह तेज और तकनीक अपने पति राबर्ट वाड्रा से ज्यादा फुल प्रूफ है। लोगों का इस तरह सोचना प्रियंका गांधी के लिए शुभ संकेत नहीं है। राबर्ट वाड्रा को कुछ अन्य सवालों के लिए भी तैयार रहना चाहिए। उदाहरण के तौर पर वह क्या हालात थे जिनकी वजह से उनके पति रायबरेली से उनकी सास के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गए और वह भी भाजपा के टिकट पर। नामांकन की प्रक्रिया पूरी हो जाने के बावजूद अंतिम समय में चुनाव लड़ने से पीछे क्यों हट गए और इसके कुछ महीनों के अंदर उन्होंने आत्महत्या क्यों की? इसी तरह क्यों इनके भाई ने आत्महत्या की? इनकी बहन की मौत एक सड़क दुर्घटना में हुई और इनकी बहन के कई दोस्तों ने भी आत्महत्या कर ली? यह सभी संयोग हो सकते हैं, लेकिन इन संयोग के पीछे यदि कोई कहानी है तो वह कहानी अब राबर्ट वाड्रा के लिए परेशानियां पैदा कर सकती है।
`मुस्लिम पिछड़ेपन को दूर करने के लिए नौकरियों में आरक्षण' से दैनिक `अखबारे मशरिक' में आरिफ अजीज ने अपने लेख में लिखा है कि 1980 में इंदिरा गांधी ने मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की स्थिति जानने के लिए डॉ. गोपाल सिंह की अगुवाई में एक हाई पावर पैनल कायम किया था जिसने अपनी रिपोर्ट में नौकरियों में आबादी के अनुपात में आरक्षण की सिफारिश की थी और पुलिस बल में भी आरक्षण पर जोर दिया था। सरकार जंगलों में रहने वाले भेल और आदिवासियों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए प्रयासरत है लेकिन न तो मुसलमानों को स्वयं फिक्र है और न सरकार को। आपातकाल के समय इंदिरा गांधी मुसलमानों को आरक्षण देने के लिए तैयार हो गई थीं लेकिन जिन लोगों के सुपुर्द यह काम किया गया वह उसको आगे नहीं बढ़ा सके। 1984 के शुरू में असम के मुख्यमंत्री-हिथेश्वर सैकिया अपने राज्य के मुसलमानों को आबादी के अनुपात में 24 फीसदी आरक्षण देने पर तैयार हो गए थे लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ, न ही इसके बाद बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री भगवत झा आजाद की यह घोषणा व्यावहारिक रूप ले सकी कि सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों के लिए दस फीसदी कोटा निर्धारित किया जाएगा। इसके लिए जरूरी था कि बिहार के सभी मुसलमानों को पिछड़ा मान लिया जाता, क्योंकि संविधान में ऐसी किसी पहल की गुंजाइश नहीं थी लेकिन यह काम बाद की राजीव सरकार चाहती तो कर सकती थी उसको संसद में बहुमत प्राप्त था।
`सुभाष पार्प में अवैध निर्माण पर हाई कोर्ट का साहसी, सराहनीय फैसला' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में संपादक अनिल नरेन्द्र ने अपने संपादकीय में लिखा है कि दिल्ली हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच  के जस्टिस संजय किशन, जस्टिस एमएल मेहता और जस्टिस राजीव शंकधर ने एक साहसी फैसला किया। मामला था दिल्ली के सुभाष पार्प में अवैध मस्जिद बनाने का। उल्लेखनीय है कि मेट्रो लाइन निर्माण के दौरान सुभाष पार्प में एक दीवार मिली थी, जिसे एक समुदाय ने कथित रूप से अकबराबादी मस्जिद का अवशेष बताते हुए वहां रातोंरात निर्माण कर दिया। इस मुद्दे को लेकर कुछ संगठन दिल्ली हाई कोर्ट पहुंचे और इस अवैध निर्माण को हटाने की मांग की। हाई कोर्ट ने 30 जुलाई को पुलिस को यह अवैध निर्माण हटाने के लिए एमसीडी को फोर्स उपलब्ध करवाने का निर्देश दिया था।
बेंच ने स्पष्ट किया कि यदि उक्त स्थल पर सर्वे में मस्जिद हे की पुष्टि होती है तो भी वह संरक्षित इमारत होगी और ऐसे में वहां नमाज अदा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। ऐसे में वहां नमाज अदा करने का सवाल ही नहीं है। हम हाई कोर्ट की पीठ का स्वागत करते हैं। सवाल एक अवैध निर्माण का ही नहीं बल्कि कानून की धज्जियां उड़ाने का भी है। ऐसे में रातोंरात कई पूजा स्थल खड़े हो जाएंगे। अब देखना यह है कि जो साहस हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच ने दिखाया है, क्या दिल्ली पुलिस भी ऐसा ही साहस दिखाएगी?