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Sunday, February 17, 2013

राक बैंड पर मुफ्ती का फतवा


कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम पर हुए विवाद पर चर्चा करते हुए आल इंडिया वुमेन पर्सनला बोर्ड की अध्यक्षा शाइस्ता अंबर ने दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' के अपने लेख में लिखा है कि इस फिल्म में सभी मुसलमानों की छवि को बिगाड़ने की एक कोशिश है। इस फिल्म में दुनिया के सभी मुसलमानों को आतंकवादी बताया गया है और उन्हें कुछ इस अंदाज में पेश किया गया है कि यदि इस फिल्म को कोई गैर मुस्लिम देखेगा तो निश्चय ही मुस्लिम पड़ोसी उसकी नजर में संदिग्ध हो जाएगा। इसमें एक मुस्लिम पात्र को कुरआन पढ़ने के बाद बम धमाका करते हुए दिखाया गया है। इस तरह फिल्म निर्माता यह बताना चाहता है कि कुरआन शरीफ आतंक का गाइड है जो कि बिल्कुल गलत  बात है। फिल्म में मुस्लिम पात्रों को नमाज पढ़ने के बाद बम रखते हुए दिखाया गया है। छोटे बच्चों की आंख बंद करके हथियार पहुंचाते हुए दृश्य दिखाया गया है। यहां तक कि कारतूसों को सिर्प छूकर उसका नाम बताने की बात कही गई है। अर्थात मुसलमानों को बचपन से ही आतंकवाद की ट्रेनिंग मिल रही है। इस तरह के कई दृश्य फिल्म में मौजूद हैं जिससे मुसलमानों की छवि खराब करने की कोशिश की गई है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर एक विशेष समुदाय को निशाना बनाना कहां का लोकतंत्र है। कमल हासन रोना रोते हैं कि इस फिल्म में उन्होंने अपनी पूरी पूंजी लगा दी तो क्या मुसलमानों की भावनाओं से ऊपर उनका पैसा है। पैसे से देश की एकता को खत्म करने की कोई इजाजत नहीं दे सकता। जिस तरह बुद्धिजीवी वर्ग विश्वरूपम को लेकर  परेशान है यदि यह वर्ग मुसलमानों की सही सूरतेहाल पर भी आवाज उठाता तो शायद देश में मुस्लिम विरोधी माहौल बनाने वालों का मनोबल टूटता। लेकिन जिस तरह यह तथाकथित वर्ग सेकुलरिज्म की दुहाई देकर इस्लाम विरोधी लेखनी, फिल्मों और कार्टूनों का मनोबल बढ़ा रहा है यह देश की गगनचुंभी सभ्यता ही नहीं  बल्कि उपमहाद्वीप की संस्कृति को भी किसी न किसी तरह नुकसान पहुंचा रहा है।
जयपुर के साहित्यिक मेले पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील शम्सी अपने बहुचर्चित स्तम्भ में लिखते हैं कि आजकल साहित्य का एक और अर्थ हो गया है और उसका नाम है साहित्य द्वारा दिल दुखाना। साहित्य द्वारा दिल दुखाने वाले साहित्यकारों को बड़े-बड़े पुरस्कार और खिताब दिए जाते हैं। इन साहित्यकारों का यह पैदाइशी हक माना जाता है कि वह किसी भी धार्मिक समूह की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दिल दुखाने वाला यह वर्ग अपने को दुनिया के सभी कानूनों से ऊपर समझता है। हमारे देश में भी अब यह समझा जाने लगा है कि साहित्यकार और लेखक किसी भी धार्मिक समूह अथवा अल्पसंख्यकों का दिल दुखाने का हक रखते हैं। जयपुर में इसी मकसद के तहत एक साहित्यिक मेला भी हर साल सम्पन्न होने लगा है। गत वर्ष इसमें भाग लेने के लिए रुशदी को बुलाया गया था लेकिन मुसलमानों के विरोध के चलते वह शरीक नहीं हो सका। अपने प्रयासों में नाकाम होने के बाद कई तथाकथित साहित्यकारों ने विरोध करते हुए रुशदी की विवादित किताब के कुछ अंश पेश किए और इसकी हमारे देश के मीडिया ने खूब प्रशंसा की। इस बार इस मेले में रुशदी भाग लेने आया और मुसलमानों के दिलों पर कांग्रेस की मदद से तीर चलाने में कामयाब रहा। मेले में मौजूद आशीष नंदी जो उच्च जाति से संबंध रखते हैं और इनके दिल में दलितों और पिछड़ों के लिए जो घृणा मौजूद है वह उनकी जुबान पर आ गई। वही चैनल जो मुसलमानों का दिल दुखाने वाले रुशदी को हीरो बना पेश करते थे वही आशीष नंदी के खिलाफ मैदान में उतर आए। खुशी की बात है कि देश में इंसानों के समूह के खिलाफ बोलने वालों को जेल भेजे जाने की वकालत हो रही है। इस अवसर पर हम दुआ करते हैं कि काश!  ऐसा दिन आए जब पैगम्बर इस्लाम का अनादर करने वालों को यहां मेहमान न बनाया जाए बल्कि उनको गिरफ्तार भी किया जाए।
`दुष्कर्म जैसे अपराध के बढ़ते रुझान के लिए क्या कोई सभ्यता जिम्मेदार है?' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि अपराध के कारणों के संबंध में वैदिक साहित्य का नाम लेकर दलित बुद्धिजीवी कांचा अलिया ने बहस को एक नया रुख दे दिया है। उनके इस बयान की भर्त्सना हो रही है लेकिन न तो किसी ने उन्हें झूठा बताया और न उनके बयान को ऐतिहासिक और धार्मिक आधार पर गलत बताया अर्थात कांचा अलिया ने वैदिक साहित्य के बारे में जो कुछ कहा वह सही था, मतभेद इस बात पर था कि वैदिक साहित्य का प्रभाव आज भी पाया जाता या नहीं। कुछ समय पूर्व मशहूर वकील राम जेठमलानी ने भी श्री रामचन्द्र जी के भी कुछ पहलुओं पर आपत्ति की थी जिस पर काफी विरोध हुआ था लेकिन उस समय भी न तो किसी ने उन्हें झूठा बताया और न ही आपत्ति को दूर करने की कोशिश की। उपरोक्त मामले में भी कांचा अलिया के रहस्योद्घाटन के खंडन में हिन्दू धार्मिक गुरू का कोई बयान सुनने या पढ़ने में नहीं आया है।
वैदिक धर्म क्या है? वह मानव का किस तरह मार्गदर्शन करता है? इस पर विचार व्यक्त करने का हक तो हिन्दू धार्मिक गुरुओं का ही है और वही इसको सही तौर पर परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन इस देश की प्राचीन संस्कृति का बहुत प्रचार किया जाता है जिस पर कुछ लोगों द्वारा गर्व किया जाता है। इसकी कुछ बातों से सभी लोग परिचित हैं जैसे सती प्रथा, देवदासी प्रथा, विधवाओं को मनहूस समझना, दहेज प्रथा आदि इसी प्राचीन संस्कृति की देन हैं, भले ही कानून द्वारा इन पर प्रतिबंध हो लेकिन समाज पर इसका प्रभाव बिल्कुल न हो ऐसा कहना गलत होगा बल्कि सच तो यह है कि लड़कियों को गर्भ में मार देने का एक कारण महिलाओं के प्रति उपरोक्त सोच भी है। ऐसी सूरत में वर्तमान समाज पर प्राचीन सभ्यता के इस प्रभाव को  बिल्कुल खारिज नहीं किया जा सकता। सच तो है कि इस देश की बहुसंख्या कुछ मामलों को छोड़कर व्यावहारिक जिंदगी में धर्म के मार्गदर्शन के पक्ष में नहीं है और वह पश्चिमी सभ्यता की पक्षधर है जो उसे दुनिया में ज्यादा से ज्यादा मनोरंजन करने का पाठ देती है।
आतंकवाद के संबंध में गृहमंत्री के बयान पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार शमीम तारिक ने कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' में लिखा है कि आतंकवाद के सिलसिले में किसी गैर राजनीतिक संगठन और एक राजनीतिक पार्टी का नाम लेना बहुत अहम है। पूरा विवरण गृह सचिव आरके सिंह ने पेश किया जिसका कहना है कि समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद और ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार होने वाले कम से कम 10 व्यक्ति ऐसे हैं जो किसी न किसी तरह आरएसएस से जुड़े रहे हैं। कई अन्य मंत्रियों ने भी गृहमंत्री के बयान का समर्थन किया है। अच्छा होता कि गृहमंत्री आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले इन संगठनों के खिलाफ की गई कार्यवाही भी बताते। गृहमंत्री के इस बयान के संदर्भ में यह जरूरत महसूस होती है कि कांग्रेस सरकारी और प्रशासनिक स्तर पर इस तरह की गतिविधियों को रोकने के साथ जन स्तर पर भी ऐसे कार्यक्रम करे जिससे जनता के सामने आतंकवादियों का असल चेहरा सामने आ सके। इस काम में दूसरी सेकुलर ताकतों का साथ होना भी जरूरी है। जनता दल (यू) और शिवसेना भाजपा के समर्थन में उतर आए हैं। क्या कांग्रेस सेकुलर पार्टियों का फ्रंट तैयार नहीं कर सकती? यह विचित्र बात है कि कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियां चुनाव के बाद सत्ता के लिए एक-दूसरे से हाथ मिलाती हैं लेकिन चुनाव से पूर्व सांप्रदायिकता खत्म करने के लिए संयुक्त मोर्चा बनाने और जन आंदोलन चलाने से कतराती हैं।
`कश्मीर के ग्रैंड मुफ्ती का तालिबानी फतवा' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि पड़ोसी अफगानिस्तान का तालिबानी असर कश्मीर में पड़ने लगा है। कश्मीर के ग्रैंड मुफ्ती-ए-आजम बशीरुद्दीन ने तालिबानी फतवा जारी किया। उनका कहना है कि खुलेआम तेज संगीत गैर इस्लामिक है। दरअसल कश्मीरी लड़कियों ने एक राक बैंड प्रगाश बनाया है। जिसका अर्थ होता है अंधेरे से उजाले की ओर। लेकिन उसकी यह कोशिश रुढ़ीवादी समाज के लोगों के गले नहीं उतरी। पहले उन्हें ऑनलाइन बैंड बंद करने की धमकी दी गई और फिर सोशल साइट्स पर भद्दे कमेंट किए गए। इसके बाद इनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया गया। उनका कहना है कि खुले आम तेज संगीत गैर इस्लामी है। इसलिए राक बैंड में शामिल लड़कियों को यह काम बंद कर देना चाहिए। सवाल यह है कि घाटी में नई चेतना का स्वर क्या कुछ दकियानूसी लोगों के समूह के एतराज के कारण खामोश हो जाएगा? क्या सामाजिक सांस्कृतिक जड़ता के खिलाफ संगीत को एक औजार की तरह इस्तेमाल करने का तीन लड़कियों का हौसला बीच राह में ही दम तोड़ देगा? क्या देश में सांस्कृतिक अराजकतावाद इतना मजबूत हो गया है कि कलाकारों और उनकी कला पर भी पाबंदी लगाई जाएगी? अगर ऐसा है तो हमें संदेह है कि हम क्या गुजरी सदियों की ओर नहीं बढ़ रहे हैं?

`संसद हमला इतना बड़ा और फांसी सिर्प एक को'


अफजल गुरू की फांसी पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील शम्सी ने अपने स्तंभ में लिखा है कि अफजल गुरू को मकबूल भट की तरह फांसी के बाद जेल ही में दफन कर दिया गया। जाहिर है इसकी मौत पर कश्मीर के अलगाववादी लोगों में गम का माहौल है, क्योंकि  उनकी दृष्टि में अफजल गुरू तो एक मुजाहिद था, जिसने कश्मीरियत की लड़ाई  लड़ी। दुर्भाग्य से आतंकवाद अख्तियार करने वालों की दो तस्वीरें दुनिया के सामने होती हैं। एक वर्ग उनको अत्यंत खराब इंसान मानता है जबकि दूसरा वर्ग उनको हीरो का दर्जा देता है जैसा कि पंजाब में भी हो रहा है कि वहां की शिरोमणी अकाली दल की सरकार ऐसे लोगों को शहीद का दर्जा देती है जिन्होंने देश में आतंक का नंगा नाचा दिखाया। इंदिरा गांधी के हत्यारों की तस्वीर अमृतसर के धार्मिक स्थानों पर शहीद के तौर पर लगी हुई हैं। बेअंत सिंह के हत्यारे को जिंदा शहीद का दर्जा दिया गया है। ऐसी ही हमदर्दी अफजल गुरू के साथ कश्मीर के अलगाववादियों को है और इसी कारण वहां इतनी बेचैनी है कि सरकार को पूरी घाटी में कर्फ्यू लगाना पड़ा है। जहां तक अफजल गुरू को फांसी दिए जाने का सवाल है तो भारतीय सरकार ने न्यायिक प्रक्रिया को पूरी तरह साफ रखा है और इसी कारण सजा के आदेश पर अमल होने में इतनी ज्यादा देर लगी। हमारे विचार में देरी के कारण भारत की कानूनी व्यवस्था का सम्मान बाकी रहा।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अफजल गुरू को फांसी दिया जाना कानून के सभी पहलुओं की कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं, इस पर बहस की जा सकती है और शायद की भी जाए। लेकिन एक बात तय है कि इस अचानक फैसले के पीछे सियासी पहलू छुपा हुआ है। यह बात आमतौर पर जानी जाती है कि अफजल गुरू को फांसी न दिया जाना भाजपा और शिवसेना के हाथों में एक बहुत प्रभावी हथियार बन गया था, जिसका दोनों ने कांग्रेस के खिलाफ जी भर इस्तेमाल किया और यह कहकर किया कि अफजल गुरू को फांसी इसलिए नहीं दी जा रही है कि कांग्रेस आतंकवादियों के प्रति नरमी की नीति पर काम कर रही है। इस  बाबत इस तर्प को भी चुटकियों में उड़ा दिया जाता था कि अफजल गुरू ने राष्ट्रपति से दया की अपील की थी और इनकी अपील का नम्बर पहला नहीं था। इसके पूर्व अजमल कसाब के प्रति भी भाजपा और शिवसेना का यही दृष्टिकोण था। इसलिए जब अचानक कसाब को फांसी दी गई तो भाजपा और शिवसेना सन्नाटे में आ गईं। उनका एक अहम हथियार खत्म हो गया। भाजपा यूरोपीय यूनियन की ओर से नरेन्द्र मोदी का बायकाट खत्म किए जाने को अपनी लिए और नरेन्द्र मोदी के लिए शुभ साबित करने और प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी मजबूत करने का फैसला कर चुकी थी। यदि अफजल गुरू की फांसी पर ब्रेकिंग न्यूज का दर्जा न अख्तियार कर लेती तो नरेन्द्र मोदी और उनके माध्यम से भाजपा मीडिया पर छाई रहती।
आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत (शहाबुद्दीन ग्रुप) के अध्यक्ष डॉ. जफरुल इस्लाम खां ने अपने बयान में कहा कि यह कानूनी और नैतिक स्तर पर जल्दबाजी में उठाया गया इंसाफ के विरुद्ध कदम है। अफजल ने बार-बार दावा किया था कि वह एक  पुलिस अधिकारी द्वारा भेजा गया था लेकिन इस दावे की कोई जांच नहीं की गई।
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला भी विचारणीय है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि `इस दर्दनाक घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था और हमारा समाज सिर्प इस बात पर संतुष्ट होगा कि हमला करने वालों को फांसी की सजा दी जाए।'
`संसद हमला इतना बड़ा और फांसी सिर्प एक को क्यों ' के शीर्षक से सहरोजा  `दावत'ने लिखा है कि संसद के शीत सत्र के पूर्व मुंबई हमले के आरोपी अजमल कसाब को तुरन्त 21 नवम्बर 2012 को  पुणे की जेल में फांसी दे दी गई और अब इसके ठीक 79 दिन बाद अर्थात 9 फरवरी 2013 को संसद हमला केस में अफजल गुरू को फांसी दे दी गई और इसे भी कसाब की तरह जेल में ही दफन कर इस अध्याय को बंद कर दिया गया, यह भी संयोग है कि दोनों मामलों में केवल एक-एक व्यक्ति को फांसी दी गई, जबकि इस मामले को देश-विदेश में जिस तरह पेश किया गया था, केवल एक-एक व्यक्ति की फांसी एक तरह से उसका अपमान है। इसे सांकेतिक सजा कहकर अध्याय को बंद करना ही कहेंगे।
 हमला करने वालों को फांसी तो दे दी लेकिन यह सवाल आज भी अपनी जगह है, सुरक्षा में जिन से चूक हुई या हमले की रोकथाम में सुरक्षा एजेंसियां या सरकारें नाकाम हुईं, उनको कब सजा होगी, क्या केवल हमला करने वालों को घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहरा देना और केवल उनको ही सजा देना समस्या का हल है या जिन लोगों ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई, उसको भी सजा दिलाना जरूरी है।
`अफजल गुरू को फांसी दे दी गई और दी भी जानी चाहिए थी लेकिन इसमें इतनी जल्दी और छुपाने का तुक क्या है' के शीर्षक से कोलकाता और नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कांग्रेस 2014 के आम चुनाव से पूर्व आंतरिक सुरक्षा के हवाले से आतंकियों को फांसी पर लटका कर अपने सियासी हित को बढ़ावा दे रही है और यह कि इस समय वह 13 व्यक्ति जिन्हें फांसी पर लटकाया जाना है उनका किस्सा जल्द से जल्द खत्म कर वह वाहवाही लूटना चाहती है। संभव है कि इस विश्लेषण में कुछ सच्चाई भी हो लेकिन 13 व्यक्तियों को फांसी पर लटका कर कांग्रेस चुनावी किला नहीं जीत सकती। इसके बावजूद यह बात उल्लेखनीय है कि सरकार हर मामले में संदेह पैदा करती है। कसाब को फांसी देने में भी जल्दबाजी की गई। दिल्ली गैंगरेप की शिकार निर्भय को सिंगापुर ले जाने और उसके अंतिम संस्कार किए जाने तक यही स्थिति देखने को मिली। यह किसी जन हित सरकार की निशानी नहीं हो सकती कि वह जन हित मामलों को छुपाए और अपने कामों संदेह के घेरे में  लाए।
`कसाब बनाम अफजल ः एक आतंक का चेहरा तो दूसरा शैतानी दिमाग' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि संसद हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरू की फांसी की खबर के साथ ही हर हिन्दुस्तानी के जेहन में एक और फांसी की अनदेखी तस्वीर कौंध जाती है। मुंबई पर कहर बरपाने वाले अजमल आमिर कसाब का कारनामा भले ही अलग हो लेकिन दोनों का इरादा एक था और अंजाम भी एक सा हुआ। एक ने देश के आर्थिक केंद्र को तो दूसरे ने राजनैतिक केंद्र को निशाना बनाया। इसमें से एक विदेशी था तो दूसरा देसी लेकिन दोनों की कमान पाकिस्तान में ही थी। दोनों को कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने फांसी पर लटकाया। दोनों ही मामलों में पाकिस्तान बार-बार अपनी किसी भी भूमिका से पूरी तरह इंकार करता रहा लेकिन उसकी भूमिका साफ थी।

पाकिस्तान के उकसाने के पीछे असल मंशा क्या है?


`सीमा पर तनाव का हल क्या हो?' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि सेना प्रमुख ने बहुत अच्छे अंदाज में पाकिस्तान को चेतावनी दी है लेकिन महसूस किया जाता है कि यह काफी नहीं है और पाकिस्तानी घुसपैठ और उसके बाद उनकी ओर से कोई जिम्मेदारी न लेने के रवैए पर बहुत सोचना और समझना होगा। इसका मतलब यह भी नहीं कि हमें पाकिस्तान के खिलाफ फौजी कार्रवाई ही कर देनी चाहिए और ताकत के इस्तेमाल से काम लेना चाहिए, यह भी मसले का कोई ठोस हल नहीं होता है क्योंकि इसके नतीजे दोनों देशों के लिए बहुत दर्दनाक और नुकसान पहुंचाने वाले होंगे। इसलिए यदि बातचीत से काम चले तो हर स्तर पर बातचीत के रास्तों को खुला रखना चाहिए और गम व गुस्सा को काबू में रखते हुए प्रभावी ढंग से मसले के हल की तलाश करनी चाहिए क्योंकि हम किसी भी तरह से कमजोर नहीं हैं बल्कि किसी भी तरह की कार्यवाही का जवाब देने की पूरी ताकत रखते हैं। कारगिल के मौके पर और उसके पूर्व 1971 में युद्ध छिड़ने पर दिखाया है। लेकिन दोनों देशों की जनता एक दूसरे के करीब और रिश्तों में मधुरता रखकर ही खुश होती है क्योंकि दोनों देशों की भाषा, संस्कृति और सभ्यता में जितनी समानता है शायद ही कहीं दो पड़ोसियों में देखने को मिले, यहां तक कि बंगलादेश, श्रीलंका, चीन और म्यांमार किसी में उतनी समानता नहीं है जितनी भारत और पाकिस्तान के बीच पाई जाती है।
`पाकिस्तान से मायूस है अमन का कारवां' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में सहारा न्यूज नेटवर्प के एडीटर एवं न्यूज डायरेक्टर ओपेंदर राय ने अपने स्तंभ में लिखा है कि पाकिस्तान में इसी साल चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में वहां के सारे ग्रुपों में भारत विरोधी नारों की होड़ लगी है। इस हालत में हमारी फौज और हमारी सरकार को धैर्य से काम लेना होगा। जल्दबाजी में हम किसी ऐसे आपशन्स को न चुनें जिससे माहौल और  बिगड़ जाए। पाकिस्तान ऐसा नासूर है जिसका इलाज आपरेशन नहीं है। इसे मरहम पट्टी के साथ एंटी बायटेक के बोस्टर डोज की जरूरत है। हमें इन दोनों का इस्तेमाल करना चाहिए और चीर-फाड़ से बचना चाहिए। पाकिस्तान की शासकीय व्यवस्था में कई परतें हैं। बाहरी दुनिया के लिए सरकार के मुखिया वहां के राष्ट्रपति आसिफ अली हैं लेकिन पाकिस्तान में इस सिविल सरकार का शासन पर पूरी तरह से कंट्रोल नहीं है। दूसरी परत के मुखिया पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल अशफाक परवेज कयानी हैं। कयानी ने आज तक इस सिविल सरकार के कामकाज में दखल नहीं दिया है लेकिन कयानी इस वर्ष सेवानिवृत्ति हो रहे हैं। इतिहास साक्षी है कि पाकिस्तान का कोई भी आर्मी चीफ आसानी से कुर्सी नहीं छोड़ता है। संभव है कि अपनी कुर्सी बचाने के लिए कयानी ऐसे हालात पैदा करने की कोशिश करें, जिससे आर्मी की भूमिका में वृद्धि हो जाए। हो सकता है कि भारत के साथ ताजा विवाद एक फौजी षड्यंत्र हो, जिसे कयानी की ओर से समर्थन मिल रहा हो और जिसके बारे में वहां की सिविलियन सरकार को भी न मालूम हो।
`नक्सली हिंसा के कारण और हल क्या हों?' के शीर्षक से कोलकाता और दिल्ली से एक साथ प्रकाशित होने वाले दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि 1960 के दशक से शुरू हुई नक्सली हिंसा अभी खत्म नहीं हुई है और यह आज देश की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है बल्कि एक लिहाज से सीमा पार से जारी आतंक से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि इसके पीछे जो गुमराह युवक सक्रिय हैं उनकी जड़ें हमारे कस्बों, देहातों और छोटे-छोटे गांवों में फैली हुई हैं। देश के लगभग दस राज्य इसकी लपेट में हैं। इस आतंक के खिलाफ बुद्धिजीवियों के विचार भी समय-समय पर सामने आए हैं जिसके मुताबिक नक्सलइज्म को ताकत के बल पर खत्म नहीं किया जा सकता है क्योंकि यह आर्थिक असमानता के कोख से पैदा हुई है और इसे एक सामाजिक मसले के तौर पर ही हल किया जाना चाहिए। नक्सली हिंसा को हल करने की दिशा में हमारा पहला कदम कबाइली क्षेत्रों से दलाली की परम्परा अथवा ठेकेदारी को बेदखल करना चाहिए, जिसका एक उदाहरण मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने तेंदू पत्ते से ठेकेदारी हटाकर और इस कारोबार को कबाइलियों को देकर किया था लेकिन छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने यह काम ठेकेदारों के सुपुर्द कर दिया जो इस कारोबार में फायदे के बजाय नुकसान बताते हैं क्योंकि खनन कर रही कम्पनियां अपने सीए से बनवाई बैलेंस शीट में सदैव घाटा दिखाती हैं। इसलिए उचित तरीका यही है कि खनन का फायदा कबाइलियों (आदिवासियों) को पहुंचाने के खनिज की हर टन पैदावार की रायलटी का एक हिस्सा उनको दिया जाए। इसी 1927 के अंग्रेजों के बनाए जंगल कानून को भी वापस लिया जाए इसके द्वारा आदिवासी जंगल पर अपने हक से वंचित हो गए हैं और यही उनको हिंसा द्वारा अपना हक लेने पर मजबूर करती है।
16 दिसम्बर को राजधानी दिल्ली में एक लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार और जघन्य हत्या के बाद से विरोध-प्रदर्शन  का सिलसिला जारी है। जिस तेजी से यह आंदोलन चल रहा है उसी तेजी से हर दिन दुक्रम की सजाएं अखबारों में पढ़ने को मिल रही हैं। सहरोजा `दावत' में मोहम्मद सिबगातुल्ला नदवी ने `बिगाड़ के सुधार के लिए धर्म एवं नैतिकता का सहारा लेना पड़ेगा' के शीर्षक से अपने लेख में लिखा है कि आज महिलाओं से दुष्कर्मों के लिए आजीवन कारावास अथवा फांसी की  बात कही जा रही है लेकिन यह सजा इसे रोक सकेगी, निश्चय ही नहीं, क्योंकि हत्या के लिए पहले से ही यह सजा निर्धारित है जब इस मामले में यह डर पैदा नहीं कर सका तो दुष्कर्म के मामले यह कैसे डर पैदा कर सकेगी। वास्तव में सारी खराबियों और बुराइयों की जड़ वह बिगाड़ है जो समाज में फैला हुआ है जिसके सुधार के  बजाय उसे कानून संरक्षण दिया जा रहा है। लोगों को मानवता, नैतिकता और धर्म का पाठ पढ़ाने के बजाय उस कानून का पाठ पढ़ाया जा रहा है जो खुद खामियों से भरा होता है वह दूसरों का सुधार क्या करेगा।
`सुप्रीम कोर्ट द्वारा खाप पंचायतों को फटकार' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' के सम्पादक (नार्थ) शकील शम्सी ने अपने स्तंभ में  लिखा है कि खाप पंचायतें मोहब्बत की शादी, ईश्क और महिला आजादी के सख्त खिलाफ हैं, पुरुषों का वर्चस्व कायम करना उनका पहला दायित्व है। उनका मानना है कि दुष्कर्म की घटनाएं इसलिए होती हैं कि महिलाओं को आजादी मिल गई है। खाप पंचायतों की नजर में सबसे बड़ा गुनाह एक ही गोत्र में होने वाली शादियां हैं। खाप का संबंध न हो। खाप पंचायतों ने लड़कियों को जीन्स न पहनने की हिदायत दी जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने पंचायतों को आदेश दिया कि वह लड़कियों को जीन्स पहनने या मोबाइल रखने से मना नहीं कर सकती। जीन्स पहनने की इच्छुक और मोबाइल रखने की इच्छा रखने वाली लड़कियों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश से काफी खुशी हुई होगी, लेकिन इस आदेश से उनकी समस्याएं हल हो जाएंगी, विश्वास से नहीं कहा जा सकता लेकिन आशा की एक किरण पैदा हुई है जो बहुत सी लड़कियों को एहसास महरूमी से  बचाएगी।
`पाकिस्तान के उकसाने के पीछे असल मंशा आखिर क्या है?' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि दरअसल हम तो इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि पाकिस्तान भारत के साथ एलओसी पर बढ़ रहे तनाव को कम करने में दिलचस्पी रखता ही नहीं। उसका कोई बड़ा गेम प्लान है जिसका मेंढर सेक्टर में दो भारतीय जवानों का सिर काटने की घटना एक हिस्सा है। अगर ऐसा न होता तो नियंत्रण रेखा पर तनाव कम करने के लिए मुश्किल से हुई फ्लैग मीटिंग से ठीक एक दिन पहले युद्ध विराम का फिर से उल्लंघन न करता। यही नहीं भारत ने पाकिस्तान पर ताजा आरोप लगाया कि दोनों देशों के बीच ब्रिगेडियर स्तर पर हुई फ्लैग मीटिंग के बाद से अब तक वह पांच दफा संघर्ष विराम का उल्लंघन कर चुका है। लिहाजा सोमवार को फ्लैग मीटिंग का जो नतीजा निकलना था वही निकला। यानी कुछ भी नहीं निकला। साफ है कि पाकिस्तान घुमा-फिराकर किसी भी तरह से इस मामले में तीसरे पक्ष की दखलअंदाजी चाहता है जबकि यह द्विपक्षीय मामला है। भारत सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह किसी भी हालत में इसे अंतर्राष्ट्रीय नहीं होने देगा।

Tuesday, January 8, 2013

दुष्कर्मियों को मौत की सजा


महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार एम वदूद साजिद ने दैनिक `इंकलाब' के स्तंभ में लिखा है कि मैंने 12 वर्ष पूर्व एक महिला कामरेड नेता का साक्षात्कार लिया था। साक्षात्कार के दौरान महिलाओं का यौन शोषण और हिंसा पर चर्चा करते हुए उन्होंने पूछा था कि अरब देशों में इस तरह की घटनाएं क्यों नहीं होती हैं? कई गैर मुस्लिम नेता भी इस तरह का विचार व्यक्त करते रहे हैं। महात्मा गांधी ने अपराध, भ्रष्टाचार और अन्य सामाजिक बुराइयों पर काबू पाने के लिए हजरत उमर की खिलाफत (शासन) को पसंद किया था। ताजा घटनाक्रम में यहां के कुछ नेतागण दोषियों को फांसी की सजा देने की मांग कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के एक मुस्लिम सांसद ने संसद में बहस के बीच दोषियों को इस्लामी कानून के अनुसार सजा देने की मांग की। हत्या और लूटपाट की घटनाओं में शराब की बड़ी भूमिका होती है। सवाल यह है कि इस खराब चीज की पैदावार और उसे बेचने पर पूर्ण प्रतिबंध क्यों नहीं लगा दिया जाता? सरकार, नेता और अधिकारी इस कारोबार से अरबों रुपए कमाते हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री और गृहमंत्री ऐसी घटनाओं को रोकने के प्रयासों में व्यस्त हैं लेकिन किसी ने भी शराब के पीने पर पाबंदी के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। शायद भारत में शराब पर प्रतिबंध इसलिए भी नहीं लगाया जा सकता क्योंकि इस्लाम ने इसे हराम करार दिया है। वरिष्ठ पत्रकार शकील शम्शी ने सही लिखा है कि मुस्लिम मोहल्लों में महिलाएं पूर्ण संरक्षण के साथ घूमती हैं जबकि अन्य इलाकों में महिलाएं रात नौ बजे के बाद घरों से बाहर नहीं निकल सकतीं।
दुष्कर्मियों को सजा ए मौत दिए जाने की मांग पर दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `क्या सजा ए मौत वास्तविक इलाज है' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि इस पर विचार क्यों नहीं किया जाता कि यह घृणित कार्य समाज में शामिल कुछ व्यक्तियों की आपराधिक मानसिकता के कारण होते हैं अथवा हमारे समाज में ऐसी कोई बुराई आ गई है जिसका इलाज शायद सजा ए मौत भी  नहीं है। टीवी पर ऐसे शो दिखाए जाते हैं जिनमें बताया जाता है कि शादी से पूर्व आपसी संबंध बना लेने में कोई खराबी नहीं है, मर्द और औरत शादी के बिना भी मियां-बीवी की तरह एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं। अदालतें भी अब लिव इन रिलेशनशिप को स्वीकार करने लगी हैं। जब गुजरात जैसे राज्यों में एक मर्द को दूसरी औरत को रखना कानूनी संरक्षण हासिल हो जाता है तो आम सोच कन्फ्यूज हो जाती है। गुजरात विधानसभा ने वर्षों पूर्व यह कानून पास किया था कि एक शादीशुदा मर्द दूसरी औरत भी रख सकता है, लेकिन इससे शादी करना गैर कानूनी होगा क्योंकि हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत एक से ज्यादा बीवी रखना जुर्म माना जाएगा। दिल्ली के विजय चौक पर जिस गुस्से का इजहार हुआ, वह बिल्कुल सही है उसी दिन कालेज के एक छात्र ने अपनी क्लासफेलो को इसलिए चाकू मार दिया कि उसने शारीरिक संबंध बनाने की इजाजत नहीं दी। विरोध प्रदर्शन करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि सिर्प कानून इस मानसिकता का इलाज नहीं है।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री रहमान मलिक के भारत दौरे पर चर्चा करते हुए हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कुल मिलाकर उनका दौरा दोनों देशों के लिए बड़ी कामयाबी के तौर पर साबित नहीं हुआ। ऐतिहासिक आसान वीजा व्यवस्था पर हस्ताक्षर से जनता को क्या फायदा पहुंचेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इसकी कार्यप्रणाली में आसानी से व्यवसाय के लिए नए अवसर जरूर पैदा किए हैं। इस एक सकारात्मक कदम के अलावा दोनों देशों के नेतागण अन्य मुद्दों पर गंभीरता से बातचीत करने में नाकाम रहे। मेहमान मंत्री ज्यादातर भारत को आतंकी समस्याओं से संबंधित मसलों को विवादित करने की कोशिश करते रहे जिससे यह जाहिर होता है कि पड़ोसी देश इन मामलों से निपटने के लिए गंभीरता से बातचीत के लिए तैयार नहीं है। मलिक के उलटे-सीधे बयानों ने भारतीय शासकों को नाराज कर दिया जबकि भारत दौरे पर आने से पूर्व मलिक ने कहा था कि वह दोनों देशों के बीच संबंधों को और बेहतर बनाने के इच्छुक हैं। ऐसी भड़काऊ टिप्पणी के कारण दौरे के खत्म होने से पूर्व दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस को भी संबोधित नहीं किया। इस समय दोनों देशों की समस्याओं में कई समानता पाई जाती है और यदि इस बाबत गंभीरता का प्रदर्शन नहीं किया गया तो यह समस्याएं हम पर और छा जाएंगी जिसके नतीजे हम 50 साल से भी अधिक समय से देख रहे हैं।
`अब इजरायल करेगा हिन्दुस्तान की सुरक्षा' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दुनिया' ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि गत कुछ वर्षों के दौरान भारत को लगभग 9 बिलियन डालर के हथियार बेचने वाला अमेरिका हक्का-बक्का खड़ा है, क्योंकि इजरायल ने आधुनिक सुरक्षा व्यवस्था और हथियारो पर आकर्षित पेशकश के साथ भारत को अमेरिकी हथियारों का सौदा खत्म करने पर मजबूर कर दिया है। आश्चर्य की बात यह है कि फलस्तीन के संबंध में हिन्दुस्तान के स्पष्ट दृष्टिकोण के बावजूद हिन्दुस्तान से दूरी बनाने की बजाय इजरायल नजदीकी चाहता है क्योंकि उसकी नजर हिन्दुस्तान के रक्षा बजट पर है जो इजरायल की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का काम करेगी। वर्तमान में भारत एशिया में इजरायल से व्यवसाय करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है।
अमेरिकी खुफिया विभाग के मुताबिक `इस्लामी आतंकवाद 2030 तक खत्म हो सकता है' पर `सहरोजा दावत' में सम्पादक परवाज रहमानी ने अपने बहुचर्चित स्तंभ `खबरो नजर' में चर्चा करते हुए लिखा है कि टाइम्स आफ इंडिया में प्रकाशित यह रिपोर्ट बताती है कि पूर्ण रूप से इसके खत्म होने की संभावना नहीं है बल्कि इसका क्षेत्र आर्थिक और वित्तीय आतंक के रूप में और फैल सकता है। अमेरिका की नेशनल इंटेलीजेंस कौंसिल की इस रिपोर्ट का नाम है `ग्लोबल ट्रेंडस 2020'। इसमें विभिन्न पहलुओं से विश्व रुझानों का जायजा लिया गया है और आगामी 18 सालों में होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी भी की गई है। इस रिपोर्ट द्वारा दरअसल अमेरिका दुनिया को यह बताना चाह रहा है कि वह अगले 18 वर्षों में क्या करने वाला है। रिपोर्ट के अनुसार वह विरोधी देशों की अर्थव्यवस्था को कमजोर बल्कि तबाह और दोस्त देशों की अर्थव्यवस्था पर कंट्रोल करने वाला है। `इस्लामी आतंक' से लड़ने के नाम पर दुनिया के विभिन्न भागों में अपने एजेंटों द्वारा हिंसक घटनाएं करवाएगा। इसके लिए इस्लामी ग्रुपों को जिम्मेदार करार देकर इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ अपनी शैतानी मुहिम को और तेज करेगा। वह जानते हैं कि इस्लामी व्यवस्था आएगी तो अपने साथ ब्याज रहित अर्थव्यवस्था लाएगी जो अमेरिका और यहूदियों की ब्याज आधारित प्रणाली को खत्म कर देगी। इसीलिए दुनिया को इस्लाम से भयभीत करने के लिए अमेरिका नए-नए तरीके इस्तेमाल कर रहा है।
`ब्लादिमीर पुतिन भारत आपका सम्मान करता है, स्वागत करता है' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने भारत यात्रा के दौरान 42 सुखोई लड़ाकू विमानों और 71 मीडियम लेफ्ट हेलीकाप्टर के चार अरब डालर मूल्य के रक्षा सौदों पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत रूस के आधुनिकतम सुखोई-30 एमकेआई युद्धक विमानों का भारत में उत्पादन होगा तथा रात में सैन्य कार्यवाही करने में सक्षम 71 सैनिक हेलीकाप्टर रूस से खरीदे जाएंगे। रूसी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री ने दोनों देशों की 13वीं शिखर बैठक में द्विपक्षीय संबंधों पर भी चर्चा की। इस दौरान दोनों देशों के बीच रणनीतिक व व्यापारिक संबंधों को और मजबूत करने के लिए करीब 10 समझौतों पर करार हुए। ब्लादिमीर पुतिन हमारे सम्मान के हकदार हैं। वर्ष 2000 में सत्ता संभालने के बाद उन्होंने भारत-रूस संबंधों को येल्तसिन युग से बाहर निकालकर एक नई दोस्ती की शुरुआत की है।

महिलाओं पर बढ़ता अत्याचार, कानून से ज्यादा समाज सुधार की जरूरत


समाजवादी पार्टी द्वारा संसद में मुस्लिम आरक्षण उठाए जाने की मांग पर चर्चा करते हुए दैनिक `सियासी तकदीर' में जावेद कमर ने अपनी समीक्षा में लिखा है कि सलमान खुर्शीद के समय में 4.5 फीसदी जो आरक्षण दिया गया था सरकार उसमें वृद्धि करने के लिए तैयार नहीं है वह तो ओबीसी कोटे को लागू करने के लिए संवैधानिक संशोधन करने पर ही तैयार नहीं हैं। गत दिनों कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ  नेता रशीद मसूद ने राज्यसभा में जब इस बाबत एक लिखित सवाल किया तो अल्पसंख्यक मामलों के राज्यमंत्री न्योंग अरंग ने इसका जवाब नहीं में दिया था। एक बड़ा तर्प यह दिया जा रहा है कि मंडल आयोग के सुझाव पर पिछड़े वर्गों को जो 27 फीसदी आरक्षण दिया गया था उसमें मुसलमानों की पिछड़ी जातियां शामिल हैं और उन्हें इसका फायदा भी मिल रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि 27 फीसदी में मुसलमानों के लिए कोई कोटा निर्धारित नहीं है। इसलिए उन्हें इससे कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है। हमें दुख इस बात पर है कि जब यह कोटा निर्धारित किया गया था तो उस समय हमारे किसी नेता ने सरकार से यह पूछने का साहस क्यों नहीं किया कि हमें हक की जगह भीख क्यों दी जा रही है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के. रहमान की प्रेस कांफ्रेंस में जब किसी पत्रकार ने उनका ध्यान मुलायम सिंह यादव की मांग की ओर दिलाया तो उनका कहना था कि कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में जो वादा किया है वह हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है। हमने अपने घोषणा पत्र में मुसलमानों को केरल और कर्नाटक की तर्ज पर आरक्षण देने का वादा किया है उनकी आबादी की बुनियाद पर नहीं। के. रहमान खां की जुबानी मनमोहन सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह मुसलमानों को उनका हक नहीं भीख ही दे सकती है, तो क्या मुसलमान इस भीख को कुबूल करने के लिए तैयार हैं?
केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा यह कहने पर आईपीएस अधिकारी एएस इब्राहिम को आईबी का डायरेक्टर सोनिया गांधी की वजह से  बनाया है, पर चर्चा करते हुए `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि शिंदे ने यह कहकर आईपीएस अधिकारी की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। इसके जरिये उन्होंने सोनिया की खुशी हासिल करने की कोशिश की तो दूसरी ओर मुसलमानों पर एहसान जताया और उन्हें उनकी हैसियत बता दी कि वह बिना आशीर्वाद के किसी उच्च पद पर नहीं पहुंच सकते। लेकिन इसी के साथ उन्हें  यह भी बताना चाहिए कि अब तक मुसलमान इस एजेंसी का हेड नहीं बन सका तो उसका जिम्मेदार कौन था? यदि यह मान लिया जाए कि इब्राहिम की उन्नति में किसी की भूमिका है, तो सरकार की होगी, उसमें सोनिया गांधी की क्या भूमिका? दूसरी बात यह है कि एक दो मुसलमानों को उच्च पदों पर पदासीन कर देने से क्या मुसलमानों की समस्याएं हल हो जाएंगी? इनके पास क्या अधिकार होते हैं या उन्हें कौन-सी ऐसी जादू की छड़ी दी जाती है कि उनकी वजह से मुसलमानों के काम आसानी से हो जाएंगे। मुसलमानों की समस्याएं हल होंगी तो नीति और सोच में तब्दीली से, जिसके लिए सरकार कभी तैयार नहीं होती। गृहमंत्री आईबी का मुस्लिम हेड बनाने का केडिट तो ले रहे हैं लेकिन यह क्यों नहीं बताते कि इससे मुस्लिम कौम का क्या भला होगा।
`क्या 21 दिसम्बर को दुनिया खत्म हो जाएगी?' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' में नजीम शाह ने अपने लेख में लिखा है कि 21 दिसम्बर को दुनिया खत्म हो जाएगी, यह आस्था एक प्राचीन सभ्यता `माया' के मानने वालों का है। यह लैटिन अमेरिका के अधिकतर देशों की सबसे प्राचीन सभ्यता में गिनी जाती है। यह सभ्यता हजरत ईसा की पैदाइश से  बहुत पहले से इस दुनिया में मौजूद थी। मैक्सिको के कुछ नागरिक अब भी प्राचीन माया भाषा बोल सकते हैं। माया कौम भाषा, गणित और नक्षत्र विज्ञान में बहुत शिक्षित थी। इस सभ्यता के अनुयायियों ने अमेरिका में लिखने की शुरुआत की जबकि इनके लिखने का तरीका मिस्र की सभ्यता से मेल खाता है। माया सभ्यता के कैलेंडर में 18 महीने और हर महीने में 20 दिन होते हैं अर्थात् साल में 360 दिन। वास्तव में इनके बनाए हुए कैलेंडर आज के ईस्वी कैलेंडर से बहुत ज्यादा सही हैं। इस सभ्यता का बड़ा कारनामा इनका कैलेंडर माना जाता है। माया कौम पर शोध करने वालों का मानना है कि यह दुनिया पांच युगों में बंटी है और माया लोग चौथे युग में जी रहे हैं। उनके कैलेंडर के अनुसार 21 दिसम्बर को चौथा युग खत्म हो जाएगा और पांचवां युग शुरू होगा। कयामत (प्रलय) के बारे में इस्लामी आस्था अन्य धर्मों की धारणा को निरस्त करती है। इस्लामी आस्था के अनुसार कयामत के बारे में अल्लाह ही जानता है कि कब आएगी?
दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं पर दैनिक `सहाफत' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि `फांसी इलाज नहीं है।' दुष्कर्म की सामूहिक घटना जो गत रविवार को हुई उस पर गुस्से का इजहार करते हुए मांग की गई कि अपराधियों को फांसी दी जाए लेकिन क्या इस भावुक मांग पर अमल संभव है। हमारा देश चूंकि अपनी मर्जी से लोकतांत्रिक बना है इसलिए कानून द्वारा बताई गई प्रक्रिया को पूरा किए बिना किसी को सजा नहीं दी जा सकती। सरकार ने फैसला किया है कि मुकदमों की सुनवाई के लिए जल्द फैसला करने वाली `फास्ट ट्रैक' अदालतें कायम की जाएं, इस तरह जल्द फैसला हो सकेगा लेकिन क्या गुंडों में इससे भय पैदा हो सकेगा? अपराध के पहलू से हटकर विचार करने की जरूरत है कि हमारे समाज में औरत की क्या हैसियत है। आम विचार यही है कि औरत ऐसी मशीन है जिसके द्वारा ज्यादा से ज्यादा रकम वसूली जा सकती है। दहेज विरोधी कानून बनने के  बावजूद औरत की हालत खराब बनी हुई है। घर के अन्दर टीवी पर और सिनेमा में औरत को जिस अंदाज में दिखाया जाता है उससे युवाओं का प्रभावित होना स्वाभाविक है। संसद में बहस के दौरान किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि औरत की हद से ज्यादा बढ़ी आजादी उसके लिए हानिकारक हो सकती है। लिव इन पार्टनर के फैशन ने औरत के सम्मान को खत्म कर दिया है। औरत अपनी मर्जी से अपनी इज्जत किसी के हवाले कर सकती है। को-एजुकेशन से बिगाड़ शुरू होता है और आजादी से लड़के-लड़कियों के मिलने-जुलने और संबंधों से समाज बिखर जाता है। इन घटनाओं को रोकने के साथ-साथ समाज सुधार पर भी नजर डालनी जरूरी है।
`मुलायम व अखिलेश को दिया सुप्रीम कोर्ट ने तगड़ा झटका' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यह फैसला मुलायम और अखिलेश के लिए राजनीतिक दृष्टि से असहज स्थिति जरूर पैदा करेगा और बाद में केंद्र सरकार के साथ उनके रिश्तों के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा। मुख्य न्यायाधीश अल्तमश कबीर व न्यायमूर्ति एचएल दत्तू ने गुरुवार को मुलायम सिंह की याचिका को ठुकराते हुए मुलायम, अखिलेश और प्रतीक यादव के खिलाफ सीबीआई की प्रारम्भिक जांच के फैसले को बरकरार रखा है। पीठ ने कहा है कि सीबीआई अपनी जांच उसे सौंपेगी, केंद्र सरकार को नहीं। इस फैसले ने सूबे की सियासत को हवा दे दी है। एक ओर जहां इसे अब सियासी चश्मे से देखते हुए सीबीआई के अब तक हुए इस्तेमाल के मद्देनजर समाजवादी पार्टी द्वारा कांग्रेस को समर्थन दिए जाने की नई मजबूरी माना जा रहा है, वहीं उत्तर प्रदेश में बहुमत की सरकार बनने के बाद दिल्ली की गद्दी पर राज करने का सपना देखने वाले मुलायम सिंह यादव की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। यह भी तय हो गया है कि भ्रष्टाचार के सवाल पर चारों ओर से घिरी कांग्रेस को सपा की ओर से तीर और ताने नहीं सहने होंगे। भाजपा ने तो अखिलेश यादव से इस्तीफा मांगते हुए डिम्पल यादव को मुख्यमंत्री बनाने का सुझाव तक दे डाला है।

एफडीआई और मुस्लिम अल्पसंख्यक


`अभी लंबी है एफडीआई की राह' के शीर्षक से दैनिक `पताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि वालमार्ट ने अमेरिकी सीनेट को दी गई अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि उसने भारत में निवेश तथा अन्य लाबिंग गतिविधियों पर 2008 से अब तक 2.5 करोड़ डालर (लगभग 125 करोड़ रुपए) खर्च किए हैं। इसमें भारत में एफडीआई पर चर्चा से सम्बन्धित मुद्दा भी शामिल है। तिमाही के दौरान वालमार्ट ने अमेरिकी सीनेट, अमेरिकी पतिनिधि सभा, अमेरिकी व्यापार पतिनिधि (यूएसटीआर) और अमेरिकी विदेशी विभाग के समक्ष अपने मामले में लाबिंग की। अमेरिका में कंपनियों को किसी मामले में विभागों या एजेंसियों के समक्ष लाबिंग की अनुमति तो है लेकिन लाबिंग पर हुए खर्च की रिपोर्ट तिमाही आधार पर सीनेट में देनी होती है। इधर जैसी उम्मीद थी अमेरिका ने एफडीआई को मंजूरी देने के फैसले का स्वागत किया है। उसने कहा कि इससे दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग मजबूत होंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार के इस फैसले के मूर्त रूप लेने में अभी समय लगेगा। क्योंकि सरकार ने एक शर्त जोड़ी है जिसके अनुसार एफडीआई का कम से कम 50 फीसदी हिस्सा तीन साल के भीतर कोल्ड स्टोरेज के लिए जमीन खरीदने या किराये को इन्फास्ट्रक्चर खर्च नहीं माना जाएगा। सरकार ने मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई पर भले ही सदन के दोनों सदनों की मंजूरी हासिल कर ली है लेकिन आम आदमी को विदेशी किराना स्टोर के लिए अभी इंतजार करना पड़ेगा।
`गुजरात के मतदाताओं की परीक्षा' के शीर्षक से हैदराबाद से पकाशित दैनिक `ऐतमाद'ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात चुनाव के जो ओपिनियन पोल के नतीजे सामने आए हैं उनमें बताया गया है कि मोदी को स्पष्ट बहुमत हासिल होगा। भाजपा को ज्यादा सीटें मिलेंगी लेकिन इसके वोटों का पतिशत 2007 के मुकाबले घट जाएगा। 2007 में पार्टी ने 49.12 फीसदी वोट हासिल किए थे लेकिन नए पोल में वह 47 फीसदी वोट हासिल कर पाएगी। मोदी सरकार ने गुजरात में विकास से सम्बन्धित तथाकथित तहकीकात पर आधारित किताब छापी है जो सच्चाई के खिलाफ है। 2007 के चुनाव 2002 में गुजरात नरसंहार के बाद हुए थे जिसमें दो हजार से अधिक मुसलमानों की हत्या के लिए गुजरात सरकार जिम्मेदार थी। इस चुनाव के नतीजों ने मोदी के कैरियर को हमेशा के लिए खत्म करने की बजाय उन्हें एक नई जिंदगी दे दी। गुजरात के बहुसंख्यक समुदाय ने भाजपा विशेष कर मोदी के लिए वोट बैंक का काम किया। पधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह जब इस सच्चाई को पेश करते हैं कि गुजरात में अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं और मोदी की भेद-भाव पूर्ण नीतियों ने हिन्दुओं और मुसलमानों में एक दरार डाल दी है, तो यह सच्चाई नरेन्द्र मोदी को कड़वी मालूम होती है और वह पधानमंत्री पर आरोप लगाते हैं कि वह वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि मोदी की वोट बैंक की सियासत पर किसी पकार की पतिकिया उन्हें पसंद नहीं इसलिए उन्होंने उलटे कांग्रेस पर जवाबी हमले शुरू कर दिए हैं। देखना यह है कि गुजरात के मतदाता नरेन्द्र मोदी से छुटकारा हासिल कर पाएंगे?
`फौज और पुलिस के हत्यारे अधिकारी' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मानव अधिकार से सम्बन्धित एक समूह और लापता व्यक्तियों के अभिभावकों के एक संगठन ने दावा किया है कि जम्मू-कश्मीर में फौज और पुलिस के सैकड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो मानव अधिकारों के उल्लंघन की गंभीर घटनाओं में लिप्त हैं, मुकदमा नहीं चलाया गया। यह दो ग्रुप हैं मानव अधिकार और इंसाफ के लिए इन्टरनेशनल पीपुल्स ट्रिब्यूनल और श्रीनगर में स्थित लापता लोगों के अभिभावकों के संगठन की तैयार की हुई रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि भारतीय फौज के तीन ब्रिगेडियर, कर्नल, तीन लेफ्टिनेंट कर्नल, 78 मेजर, 25 कैप्टन और केन्द्र के अर्धसैनिक बलों के 37 वरिष्ठ अधिकारी राज्य में विभिन्न अपराध और मानव अधिकारों के उल्लंघन के दोषी हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि मानव अधिकारों के उल्लंघन में हत्या, अपहरण, दुष्कर्म, हिंसा और जबरदस्ती गायब करने की घटनाएं शामिल हैं। यह रिपोर्ट राज्य के सरकारी कागजों की बुनियाद पर दो साल में तैयार हुई है। इस पर अभी सरकार की पतिकिया सामने नहीं आई है। गोतम नवलखा और पेस कान्पेंस में मौजूद लोगों ने बताया कि यह रिपोर्ट मुख्यमंत्री और पधानमंत्री को भेजी जा चुकी है ताकि आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई हो सके। दोनों ग्रुपों ने बताया कि वह आरोपियों के खिलाफ ठोस सबूत नहीं पेश कर सकते लेकिन इन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए काफी शहादतें मौजूद हैं।
मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी और सरकार के आश्वासन पर चर्चा करते हुए दैनिक`इंकलाब' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कांग्रेस के सिर पर इस समय चुनाव सवार है। 2012 के गुजरात चुनाव, 2013 के कुछ अहम विधानसभा चुनाव और फिर 2014 के आम चुनाव। इसके बावजूद इस सरकार को ज्यादा दिलचस्पी उन कामों से है जिनकी बुनियाद पर उसे समाचार पत्रों और टीवी की ब्रेकिंग न्यूज में जगह मिल जाए ताकि दुनिया को यह बताया जा सके कि वह सकिय है। पाकृतिक पाथमिकता के चयन की बजाय चुनावी सियासत को सामने रखकर तय की जा रही पथमिकता के चलते कांग्रेस और यूपीए सरकार काम करते हुए तो दिखाई दे रही हैं लेकिन समस्याएं हल नहीं होतीं। इस संदर्भ में जब हम आतंकी मामलों में पकड़े गए मुस्लिम युवाओं के बारे में सोचते हैं तो महसूस होता है कि बार-बार की याददहानी अपील और विरोध के बावजूद यूपीए सरकार इस विषय में चिलचस्पी नहीं ले रही है जबकि अब किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रह गई है। कई मामलों में बिल्ली के थैले से बाहर आने के बाद भगवा संगठनों से जुड़े तत्व गिरफ्तार किए गए और कई दूसरे मामलों में सम्मानित अदालतों ने मुस्लिम युवाओं को बाइज्जत रिहा करके जांच एजेंसियों की भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिए। 3 दिसम्बर को विभिन्न सियासी पार्टियों के 16 सांसदों के एक पतिनिधि मंडल ने पधानमंत्री से मुलाकात कर उनका ध्यान मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी, कमजोर, मुकदमों, उनके साथ सख्त रवैया और बाइज्जत बरी होने के बावजूद उनके साथ सौतले व्यवहार की ओर दिलाया। पधानमंत्री ने गृहमंत्री एवं गृहसचिव को बुलाकर उनसे बात करने और एक मेकानिज्म तैयार करने का आश्वासन दिया है और अभी तक आश्वासन से आगे बात नहीं बढ़ सकी है। अब इस सरकार को कौन समझाए कि मुस्लिम युवकों की रिहाई भी इसके चुनावी हित में है।
`एफडीआई और मुस्लिम अल्पसंख्यक' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' में मोहम्मद सिबगत उल्ला नदवी ने लिखा है कि क्या देश के मुसलमान भी इससे पभावित होंगे, इस बाबत कोई भी कुछ कहने को तैयार नहीं है। खुद मुसलमान भी इस पहलू से नहीं सोच रहे हैं। जब समाज का हर वर्ग सरकारी फैसले को अपने फायदे और नुकसान की दृष्टि से देख रहा है तो मुसलमान सोते रहते हैं और जब उन फैसलों के खतरनाक पभाव उन पर पड़ते हैं और उन्हें नुकसान होता हुआ दिखाई देता है तो उन्हें अफसोस करने का मौका भी नहीं मिलता है। जैसा कि सरकारी नौकरियों में इनकी हिस्सेदारी का हुआ। आजादी के समय सरकारी नौकरियों में इनकी जो हिस्सेदारी 35 फीसदी थी वह योजनावद्ध तरीके से घटते-घटते लगभग 2.5 फीसदी हो गई तो अब जाकर इनकी आखें खुली हैं लेकिन इस नुकसान की भरपाई की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है। मुसलमानों के लिए पाइवेट सेक्टर के दरवाजे भी बंद करने की साजिश हो रही है। मुसलमानों के सामने नौकरी के अवसर कम हैं इनके सामने छोटे कारोबार करना और खुद को रोजगार से जोड़ना मजबूरी है। सच्चर कमेटी ने भी यह बात कही है कि मुसलमानों का अनुपात नौकरियों के मुकाबले खुद के रोजगार में ज्यादा है। पैसे की कमी से वह बड़ा कारोबार नहीं कर सकते। इसके लिए रिटेल कारोबार से जुड़े हैं। एफडीआई से संभव है कि कुछ रोजगार मिल जाए लेकिन बेरोजगार वालों का फीसदी ज्यादा होगा, बहुत से किसान भी मुसलमान हैं उनको भी नुकसान पहुंच सकता है।

मोदी की माफी पर मुस्लिम जमाअतों की नाराजगी


ज्वाइंट कमेटी आफ मुस्लिम आर्गनाइजेशन फार इम्पावरमेंट के संयोजक एवं पूर्व सांसद सैयद शहाबुद्दीन द्वारा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को लिखे पत्र पर मुस्लिम जमाअतों ने एक स्वर में इसकी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे निरस्त कर दिया। मोदी को लिखे पत्र में सैयद शहाबुद्दीन ने लिखा कि गुजरात नरसंहार के लिए मोदी माफी मांगें और गुजरात विधानसभा चुनाव में 20 सीटें मुसलमानों को दें। गुजरात पीड़ितों को 1984 के सिख दंगों की तरह मुआवजा देने, बेघर हुए परिवारों का पुनर्वास और सुरक्षा, दंगों में तबाह होने वाले लगभग 300 धार्मिक स्थलों का दोबारा निर्माण, दंगों के लिए जेल में सजा काट रहे आरोपियों की बिना शर्त रिहाई। जमीअत उलेमा हिन्द, जमाअत इस्लामी हिन्द, आल इंडिया मिल्ली काउंसिल और आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत जैसे बड़े संगठनों ने सैयद शहाबुद्दीन के इस पत्र से खुद को अलग करते हुए कहा कि यह उनका व्यक्तिगत बयान था और इस बाबत हम लोगों से कोई मशविरा नहीं किया गया और न ही हमने सैयद शहाबुद्दीन को इस बात का अधिकार दिया था कि वह कोई फैसला करें। जमीअत प्रवक्ता अब्दुल हमीद नोमानी ने कहा कि ज्वाइंट कमेटी के तहत जो बैठक हुई थी वह आरक्षण के मुद्दे पर थी और इस पर सभी मुस्लिम संगठनों की सहमति थी। लेकिन अब जो पत्र लिखा गया है उसका इससे कोई संबंध नहीं है वह राजनीति से प्रेरित है। आल इंडिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव डा. मोहम्मद मंजूर आलम ने तो आधिकारिक तौर से सैयद शहाबुद्दीन को पत्र भेजकर ज्वाइंट कमेटी आफ मुस्लिम आर्गनाइजेशन फार इम्पावरमेंट को भंग करने की मांग की है। विवाद उठते देख सैयद शहाबुद्दीन ने सफाई देते हुए कहा कि आफिस क्लर्प की गलती से ज्वाइंट कमेटी के लैटरपैड पर यह पत्र चला गया। चूंकि यह सब गलती में हुआ है इसलिए अब यह बात खत्म हो जानी चाहिए।
दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील सम्शी ने `मोदी को माफी का ड्रामा' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा कि गुजरात चुनाव से पूर्व मोदी को माफी दिए जाने का ड्रामा शुरू हो गया है। कुछ मुस्लिम संगठनों की ओर से मोदी को माफी दिए जाने की सोची-समझी मुहिम शुरू करने का मकसद हमारी समझ से बहुत दूर की प्लानिंग है, क्योंकि मोदी को माफ किए जाने या न किए जाने का गुजरात चुनाव पर कोई विशेष प्रभाव होने वाला नहीं है। वहां इससे पूर्व दो बार चुनाव हो चुके हैं और मोदी को चुनाव जीतने में कोई परेशानी नहीं हुई, न तो उनको मुसलमानों की कोई चिंता थी और न उनको रिझाने की कोशिश मोदी ने की। दोनों चुनाव में कोई ऐसा नारा नहीं दिया गया था कि मोदी को मुसलमान कट  कर दें। न तो भाजपा ने मुसलमानों से कहा और न मोदी ने कभी यह चाहा कि मुसलमान गुजरात दंगों के लिए मोदी को माफ कर दें। कुछ मुस्लिम संगठनों के दिल में मोदी की जो मोहब्बत जागी है, इसका कोई कारण दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसलिए आम मुसलमान को यही लग रहा है कि इन संगठनों और भाजपा के बीच कोई बहुत बड़ी डील हुई है।
`शहाबुद्दीन बनाम नरेन्द्र मोदी' के शीर्षक से दैनिक `जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि साप्ताहिक `नई दुनिया' के सम्पादक शाहिद सिद्दीकी के बाद सैयद शहाबुद्दीन ऐसे लोकप्रिय मुस्लिम नेता हैं जिन्हें मोदी की मोहब्बत में तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ रहा है। नरेन्द्र मोदी फिलहाल गुजरात के चुनावी दंगल में हैं। अखबारी रिपोर्टों पर विश्वास किया जाए तो वह एक बार फिर गुजरात में भाजपा की सरकार को सत्ता में ला रहे हैं, बात सिर्प इतनी-सी नहीं है। मोदी की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर भी है और जब तक उनकी छवि सही नहीं होगी तब तक वह इस कुर्सी पर नहीं पहुंच सकते। मोदी की छवि को सही करने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि किसी तरह मुसलमानों को खींचतान कर उनकी झोली में डाल दिया जाए। आश्चर्यजनक बात यह है कि इस काम को मुसलमानों के ऐसे नेता और पत्रकार अंजाम दे रहे हैं जिन्हें एक समय में मुसलमानों का बड़ा विश्वास हासिल रहा है। इसे मुस्लिम कौम का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाएगा।
समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखने पर चर्चा करते हुए दैनिक `सियासी तकदीर' में जावेद कमर ने अपनी समीक्षा में लिखा है कि चुनावी घोषणा पत्र में मुलायम सिंह ने मुसलमानों से बड़े वादे किए थे लेकिन हमें बहुत अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि अब तक एक भी वादा पूरा नहीं हुआ।
एक अहम वादा आतंकवाद के झूठे आरोप में बंद मुस्लिम युवाओं की रिहाई का था। यह मामला अब अदालत तक जा पहुंचा है जिसने राज्य सरकार पर तीखे कटाक्ष किए हैं। आठ महीनों के दौरान दो और मुस्लिम युवाओं को राज्य में आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है।
अब इस तरह की बात भी सामने आ रही है कि मुस्लिम विरोधी अधिकारियों को पदोन्नति दी जा रही है। लखनऊ में रिहाई मंच के एक धरने को सम्बोधित करते हुए पूर्व सांसद और सीपीआईएम नेता सुभाषनी अली ने आरोप लगाया कि 1992 में कानपुर में हुए दंगों के दौरान एसएसपी रहते जिस एसी शर्मा ने खुलेआम दंगाइयों को संरक्षण दिया और जिसकी जांच के लिए आईएस माथुर आयोग गठित किया गया था उसे डीजीपी बना दिया गया। अखिलेश सरकार ने मांग के बावजूद नमेश आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया। सरकार ने आईबी की रिपोर्ट को भी गंभीरता से नहीं लिया जिसमें कहा गया था कि राज्य में सांप्रदायिक दंगे हो सकते हैं। तो क्या समाजवादी भी मुसलमानों को भयभीत कर उनका वोट लेना चाहते हैं?
`कांग्रेस का चुनावी हथकंडा ः कैश फार वोट' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यूपीए सरकार ने 2014 लोकसभा चुनाव की तैयारियां जोरशोर से शुरू कर दी हैं। वह अपने पुराने और आजमाए हुए फार्मूले पर काम करने जा रही है। केंद्र सरकार ने अपनी वोटें पक्की करने के लिए गरीबों को सीधे पैसे देने का फैसला किया है। कांग्रेस पार्टी को उम्मीद है कि जब सीधे लोगों के खाते में पैसा जमा होगा तो वह सारे घोटालों, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, बिजली, पानी, कानून अव्यवस्था सब को भूल जाएंगे और कांग्रेस पार्टी को 2014 के चुनाव में वोट दे देंगे। ऐसा संभव भी हो सकता है और नहीं भी। यूपीए सरकार की योजना सफल हुई तो देश में सब्सिडी का स्वरूप 2013 के अंत तक पूरा ही बदल जाएगा। लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं है, पेचीदगियों से भरा हुआ है। सब्सिडी के कैश ट्रांसफर यानि लाभार्थियों को सीधे नकद सहायता देने की योजना में राजनीतिक जोखिम भी है। ब्राजील के उदाहरण से यह कहा जाने लगा है कि नकद सब्सिडी सत्तारूढ़ दल को चुनावी फायदा पहुंचा सकती है। अनेक सामाजिक संगठनों ने नकद सब्सिडी को लेकर कई अंदेशे जताए हैं। इसमें सबसे अहम सवाल यह है कि गरीबों को नकद सब्सिडी देने  से यह कैसे सुनिश्चित किया जा सकेगा कि इसका मकसद के अनुरूप ही इस्तेमाल होगा?
`एफडीआई ः सरकार का नया आत्म विश्वास' के शीर्षक से हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `ऐतमाद' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि एफडीआई पर करुणानिधि के फैसले से कांग्रेस को बड़ी राहत मिली है जबकि दूसरी दो पार्टियां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जो बाहर से सरकार का समर्थन कर रही हैं, ने सरकार को बचाने का फैसला किया है। भाजपा और वाम मोर्चे की पार्टियों ने सरकारी नीतियों का सामूहिक रूप से विरोध किया है और चाहती हैं कि इस मुद्दे पर वोटिंग हो। इस मकसद के लिए इन जमाअतों ने संसद की कार्यवाही को ठप कर रखा है। सरकार बहस के लिए तैयार है। बहस के बाद वोटिंग होगी या नहीं, यह फैसला यूपीए ने स्पीकर के विवेकाधिकार पर छोड़ या है।

Monday, November 26, 2012

बाल ठाकरे और मुसलमान


अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बर्मा दौरे पर चर्चा करते हुए दैनिक `जदीद मेल'ने अपने सम्पादकीय में लिखा है। उनके पहले शासनकाल में उनके प्रशासन की विदेश नीति का केंद्र मध्य पूर्व और अफगानिस्तान बने हुए थे लेकिन मालूम होता है कि अब उनके लिए एशिया बहुत अहम रहेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा केवल छह घंटे तक जारी रहा लेकिन फिर भी यह बहुत अहम है। गत वर्ष तक बर्मा विश्व बिरादरी में आलोचना का निशाना बना रहा और वह फौजी शासन एवं मानव अधिकार उल्लंघन के कारण नापसंद और अलोकतांत्रिक देश माना जाता था। ओबामा प्रशासन का कहना है कि इस दौरे का मकसद उन लोकतांत्रिक सुधारों का समर्थन करना है जो राष्ट्रपति थेन सेन ने बर्मा में शुरू की है लेकिन एक और मकसद यह भी है जिसका जिक्र नहीं किया जाता, वह है बर्मा में चीन के बढ़ते असर को कम करना। बर्मा और चीन के संबंधों का इतिहास बहुत अच्छा नहीं रहा है और दोनों के बीच हथियारों के बेचने और चीनी निवेश पर आधारित रहा है। दौरे की आलोचना करने वालों का यह भी कहना है कि शायद यह दौरा समय से पहले किया गया है। क्योंकि सुधार की प्रक्रिया पिछले साल से ही शुरू हुई थी और इस पर अमेरिका अपने लिए कोई विशेष मांग नहीं मनवा सका। बर्मा सरकार ने कुछ दिन पूर्व 452 कैदियों को माफी देने की घोषणा की थी लेकिन इनमें वह लोग शामिल नहीं हैं जिनको सियासी बुनियाद पर कैद किया गया है। `बर्मा की सरकार ने कुछ कैदियों को रिहा किया है जिनमें कोई सियासी कैदी शामिल नहीं। यह तो दौरे के लिए कोई अच्छी शुरुआत नहीं।' बर्मा में सत्ता और सियासी सुधार के बारे में अब भी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है। फौज की भूमिका कितनी कम हो सकी है, बर्मा के वर्तमान राष्ट्रपति सुधार के प्रति कितना गंभीर हैं, इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है।
बर्मा में मुसलमानों के नरसंहार के हवाले से दैनिक `जदीद मेल' ने `ओबामा का म्यांमार का दौरा' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बराक ओबामा ने म्यांमार के दौरे के दौरान कहा कि रोहगनियां मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल किया जाना चाहिए। निसंदेह उनके इस बयान से मुसलमानों को हार्दिक सुकून मिला होगा लेकिन गत चार वर्ष का अनुभव कहता है कि ओबामा मुसलमानों के हक में हमदर्द साबित नहीं हुए और इनकी कथनी करनी से मुसलमानों को मायूसी हाथ लगी है। गत चार साल के शासनकाल में ओबामा ने सबसे बड़े आतंकी देश इजरायल को फलस्तीनी मुसलमानों की हत्या करने की खुली छूट दे रखी है जब-जब इजरायल को घेरने की कोशिश की गई। अमेरिका वीटो कर गया और फलस्तीन मामला वहीं का वहीं उलझा रहा। गत एक सप्ताह से फिर इजरायली हमलों में तेजी आ गई है। ओबामा से जब फलस्तीनी मुसलमानों के बारे में कोई आशा नहीं की जा सकती तो फिर इनके इस बयान पर किस तरह विश्वास किया जा सकता है कि म्यांमार  में रोहगनियां मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल किया जाए। अपने चार वर्षीय शासनकाल में अपनी कथनी और करनी से अब तक यह साबित नहीं किया गया है कि वह मुसलमानों के हमदर्द हैं।
`इजरायल बनाम हमास लड़ाई खतरनाक मोड़ पर' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मध्य पूर्व एशिया में गाजा पट्टी और इजरायल में पिछले कई दिनों से लड़ाई खतरनाक स्थिति में पहुंचती जा रही है। गत दिनों फलस्तीनी चरमपंथियों ने यरुशलम पर राकेट से हमला किया। फलस्तीनी संगठन हमास ने कहा कि इस राकेट का निशाना इजरायली संसद थी। पिछले कई दशकों में यह पहली बार है कि यरुशलम को निशाना बनाया गया और गाजा पट्टी से इस तरह का यह पहला हमला था। पिछले कई दिनों से हमास तथा इजरायल की तरफ से एक-दूसरे को निशाना बनाया जा रहा है और दोनों ही यह स्वीकार भी कर रहे हैं कि अंतर बस इतना है कि इजरायल डिफेंस फोर्स (आईडीएफ) इसे आतंकी ठिकानों पर किया गया हमला बता रहा है और हमास सहित अरब दुनिया या उससे जुड़े तमाम चरमपंथी संगठन इसे गाजा के निर्दोष लोगों के खिलाफ हमला मान रहे हैं। दोनों देशों द्वारा अपनाई जा रही गतिविधियों को देखते हुए यह कहना शायद गलत होगा कि इस स्थिति के लिए कोई एक दोषी है।
मुसलमानों के प्रति बाल ठाकरे का रवैया को लेकर दैनिक `जदीद खबर' में `बाल ठाकरे और मुसलमान' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बाल ठाकरे की पूरी जिंदगी मुसलमानों की देशभक्ति पर सवालिया निशान लगाते गुजरी। वह अक्सर ऐसे बयान दागा करते थे जो भारतीय दंड संहिता के तहत काबिले गिरफ्त होते थे। उन पर कई बार मुकदमे भी कायम हुए लेकिन कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका क्योंकि उन्होंने कानून का क्रियान्वयन करने वाली संस्थानों पर यह भय कर रखा था कि यदि पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई की तो पूरा महाराष्ट्र जल उठेगा। पुलिस और प्रशासन इसी भय से इनके खिलाफ कोई सख्त कदम नहीं उठा सके और इसी बुजदिली (कायरता) के नतीजे में बाल ठाकरे लॉ एंड आर्डर की मशीनरी पर हावी हो गए। बाल ठाकरे शिवसेना मुख्य पत्र `सामना' में भी अपने सम्पादकीय में अक्सर मुसलमानों के खिलाफ अंतिम स्तर की भड़काऊ लेखनी लिखा करते थे, यह उनकी सियासी मजबूरी थी क्योंकि उन्होंने अपनी सांप्रदायिकता की राजनीति से जिन लाखों शिव सैनिकों की फौज तैयार की थी उसकी मानसिक खुराक और हरारत बाला साहब के उत्तेजित बयान और भड़काऊ लेखनी से ही मिलती थी। दिलचस्प बात यह है कि मुसलमानों से दुश्मनी के बावजूद उन पर विश्वास भी करते थे। जिस समय उन्होंने अंतिम सांस ली तो उनके पास जो डाक्टर मौजूद था उसका नाम डॉ. जलील पारकर था। डॉ. जलील बाल ठाकरे का पांच साल से इलाज कर रहे थे और इनके परिवार को डॉ. जलील पर बड़ा भरोसा था। डॉ. जलील ठाकरे के साथ  दशहरे की पारंपरिक रैली में मंच पर मौजूद रहते थे ताकि आपातकाल स्थिति में उन्हें चिकित्सा सहायता पहुंचा सकें।
`कसाब को फांसी' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि फांसी दिए जाने के लिए ऐसा समय चुना गया जिसके सियासी पहलू को देखने के लिए किसी मैगनीफाइट ग्लास की जरूरत नहीं है। कसाब को फांसी 21 नवम्बर को दी गई, संसद का अधिवेशन 22 नवम्बर से शुरू हो रहा है। इसका मतलब यह है कि संसद के अधिवेशन का पहला दिन बहुत दिलचस्प होगा। इस दिन सरकार के खिलाफ या तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता और यदि कहा जा सकता है तो अच्छा ही कहा जा सकता है। कम से कम इस मुद्दे पर विपक्ष सरकार पर हमला नहीं कर सकता। विपक्ष के पास केवल एक मुद्दा अफजल गुरु की फांसी की मांग का रह गया, वह भी कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने छीन लिया है। इससे पहले कि कोई और अफजल गुरु का मामला उठाए, उन्होंने खुद ही उसकी फांसी की मांग कर दी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अजमल कसाब की फांसी से कांग्रेस आमतौर से और महाराष्ट्र कांग्रेस विशेष रूप से फायदा उठाने की कोशिश करेगी। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की मौत के बाद जो सियासी गैप पैदा हो गया, उसे भरने के लिए जनहित में कुछ लोकप्रिय कदम उठाए जाएं। अजमल कसाब को फांसी दिया जाना ऐसा ही कदम है क्योंकि इसकी फांसी की मांग केवल सियासी पार्टियां ही नहीं, वह लोग भी कर रहे थे जिनके अपने 26/11 हमले में मारे गए थे।

Sunday, November 18, 2012

क्या है इस्लामोफोबिया, कौन है इसके पीछे?


इस्लामोफोबिया पर विश्वस्तरीय चर्चा के बीच साप्ताहिक `नई दुनिया' ने `क्या है इस्लामोफोबिया? कौन है इसके पीछे?' के शीर्षक से एक विशेष अंक प्रकाशित किया है। इस अंक में उपरोक्त विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है। वास्तव में 1990 के बाद इस्लामोफोबिया के ऊपर उठने का सबसे अहम कारण सोवियत यूनियन का बिखरना है। सोवियत यूनियन बिखर गया तो पश्चिम ने समझ लिया कि अब मुकाबला मुसलमानों से होगा और इस्लाम ही सबसे बड़ा खतरा होगा। पश्चिम ने इस्लाम को निशाना बनाया। इसी दौरान सोवियत यूनियन के जिहाद में ओसामा बिन लादेन आ चुका था। बाद में अमेरिका के खिलाफ उठ खड़ा हुआ और पश्चिम की इस्लाम दुश्मनी के लिए ओसामा बिन लादेन सबसे बड़ा बहाना बना। सभ्यताओं के टकराव के विषय पर बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों और समीक्षाकारों ने उस समय यह दावा किया था कि इस्लाम और पश्चिम में खूनी टकराव बाकी है। इसे प्रचारित किया गया और इस पर अरबों डालर खर्च किए गए। जब इंटरनेट का दौर आया तो इंटरनेट पर इस्लामोफोबिया की जंग और ज्यादा बढ़ी। पश्चिम में इस्लामोफोबिया की मुहिम वास्तव में मुसलमानों की नई पीढ़ी की राह में रुकावटें पैदा करने की कोशिश है। 1997 में ब्रिटिश सरकार ने एक आयोग गठित किया जिसने ब्रिटिश मुसलमानों और इस्लामोफोबिया पर रिपोर्ट दी। रिपोर्ट के अनुसार इस्लामोफोबिया सब के लिए खतरनाक और ब्रिटेन के लिए चैलेंज है। इसके चलते ब्रिटेन में मुसलमानों को विभिन्न क्षेत्रों में भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। साफ जाहिर होता है कि इस्लामोफोबिया के पीछे कोई ग्रुप नहीं बल्कि सरकारें भी हैं, अन्यथा आयोग ने जिन बातों का जिक्र वास्तविकता की श्रेणी में किया है वह अलग होतीं। आज इस्लामोफोबिया, ब्रिटेन हो अमेरिका या फ्रांस सबके लिए खतरनाक है, यह सोच और दृष्टिकोण दुनिया को एक बड़ी जंग की ओर ले जा रहा है।
विख्यात अंग्रेजी साहित्यकार एवं नोबल सरकार पुरस्कार से सम्मानित वीएस नायपाल को मुंबई में लेटरेरी फेस्टिवल में `लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड' दिए जाने के खिलाफ मशहूर ड्रामा निगार और हिदायत कार गिरीश कर्नाड के मोर्चा खोलने और अवार्ड दिए जाने के विरोध के चलते जिस तरह पूरा मामला बहस में आ गया है उस पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब'  के सम्पादक शमीम तारिक ने अपने विशेष लेख `नायपाल और गिरीश कर्नाड' के शीर्षक से लिखा है कि इस बहस से हटकर कि अंग्रेजी उपन्यासकार वीएस नायपाल ने क्या लिखा और उनकी लेखनी में कौन से लेखनी फिक्शन की श्रेणी में आती है और कौन सी नहीं? या ड्रामा  निगार और हिदायत कार गिरीश कर्नाड ने लेटरेरी फेस्टिवल में नायपाल की जो आलोचना की वह किस तरह की थी, इस सवाल पर विचार किया जाना जरूरी है कि भारतीय सभ्यता को मुसलमानों ने कुछ दिया है या उसे बर्बाद किया है? गिरीश कर्नाड का दृष्टिकोण स्पष्ट है कि `नायपाल विदेशी हैं और उन्हें अपनी बात कहने की पूरी आजादी है लेकिन एक ऐसे व्यक्ति को पुरस्कार देने के लिए आखिर क्यों चुना गया जो भारतीय मुसलमानों पर धावा बोलने वाला, हमला करने वाला, लुटेरा, लूटमार करने वाला कहता है।' गिरीश कर्नाड ने बहुत सही कहा है कि पुरस्कार हासिल करने का मतलब यह नहीं है कि नायपाल को कुछ भी बोलने का हक हासिल हो गया हो।
`कुत्तों पर हुए हमलों के पीछे भी आतंकियों का हाथ' के शीर्षक से दैनिक `सियासी तकदीर' में `खबरों की खबर' स्तम्भ में जावेद कमर ने लिखा है कि अखबारी खबरों के मुताबिक गत कुछ महीने में मल्लापुरम (केरल) जिले में दर्जनों कुत्तों को निशाना बनाया गया है जिनमें से कुछ मर भी चुके हैं। इस मामले में पुलिस ने 6 मामले दर्ज किए हैं और 100 से अधिक लोगों से पूछताछ भी की है। आश्चर्यजनक बात यह है कि इंटेलीजेंस ब्यूरो ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि इन कार्यवाहियों में एक विशेष धार्मिक कट्टरपंथियों का हाथ हो सकता है। ताजा खबर यह है कि केरल पुलिस अब इसी रिपोर्ट की रोशनी में अपनी जांच आगे बढ़ा रही है। कुत्तों पर हमलों की घटनाएं ज्यादातर मुस्लिम बहुल क्षेत्र मल्लापुरम के गांव और कस्बों में हुई हैं। लेकिन पिछले दिनों इसी तरह की घटनाएं कोजीकोड और पुलकड़ जिलों में भी हुई हैं। तमिलनाडु की सीमा पर स्थित वयानंद जिले में ऐसे कम से कम 30 कुत्ते मिले हैं जिनकी गर्दनों पर तलवार के गहरे जख्म हैं। इसी बुनियाद पर यह खबरें फैलाई जा रही हैं कि केरल तमिलनाडु की सीमा पर जो घने जंगल हैं उनमें कहीं कट्टरपंथियों का प्रशिक्षण शिविर चल रहा है। तर्प दिया जा रहा है कि कुत्तों पर हमले प्रशिक्षण लेने वाले युवाओं से कराए जा रहे हैं ताकि उनके अंदर से भय निकल जाए और प्रशिक्षण के बाद जब वह बाहर निकलें तो उन्हें किसी की जान लेने में किसी प्रकार का संकोच न हो।
गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी द्वारा बरेलवी मसलक के लोगों की बैठक करने पर दैनिक `हमारा समाज' में अमीर सलाम खां ने लिखा है कि यह मुसलमानों को कमजोर करने के लिए भाजपा का नया हथकंडा है, मसलक के नाम पर भिड़ाने की कोशिश है। सूत्रों के मुताबिक गुजरात के शहर गांधी नगर में बरेलवी मसलक के लगभग 45 विशिष्ठ व्यक्तियों के साथ नरेन्द्र मोदी ने एक अत्यंत गोपनीय बैठक की। इस बैठक में गुजरात के अतिरिक्त पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान से भी उलेमा, सज्जादा नशीन और दरगाहों के जिम्मेदारों को बुलाया गया था। लगभग डेढ़ घंटे तक यह बैठक चली। मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि बरेलवी पंत ही देश का वफादार है जिसकी कांग्रेस की ओर से लगातार अनदेखी हो रही है लेकिन अब  ऐसा नहीं होगा। बैठक के बाद ज्यादातर लोग इस बात को पचा नहीं पाए और एक बड़ी संख्या ने यह भांप लिया कि यह एजेंडा कहां से और क्यों लाया गया है। यह मुसलमानों को बांटने का वही एजेंडा है जो आरएसएस का है। बताया जाता है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में इस बार मोदी अपने घर लगी आग से बहुत परेशान हैं जिसकी भरपाई वह मुसलमानों को बांट कर करना चाहते हैं।
उत्तर प्रदेश में आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार मुस्लिम युवकों को छोड़े जाने के फैसले पर दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय `किस कानून के तहत वापस लिए जा रहे हैं आतंकियों के मुकदमें' शीर्षक से लिखा है कि सपा के प्रदेश प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने कहा है कि आदेश देकर अखिलेश सरकार ने मुसलमानों के साथ किए गए चुनावी वादे को पूरा किया है। इनमें से ज्यादातर आरोपियों को 2007 में वाराणसी, गोरखपुर में हुए बम विस्फोट, रामपुर स्थित सीआरपीएफ कैम्प एवं लखनऊ, बाराबंकी और फैजाबाद में आतंकी हमले की साजिश में गिरफ्तार किया गया था। इनमें से कइयों ने अपनी गिरफ्तारी के औचित्य और स्थान को अदालत में चुनौती दे रखी है।
अखिलेश सरकार के इस फैसले पर प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। राजनीतिक दृष्टि से भी और न्यायिक दृष्टि से भी। भाजपा ने इस आदेश को वोट बैंक का तुष्टीकरण का उदाहरण करार देते हुए कहा कि यह कदम कानून व्यवस्था का गला घोंटने जैसा है। उधर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रामपुर में सीआरपीएफ कैम्प पर हमला करने वाले आतंकियों से मुकदमा वापस लिए जाने पर प्रदेश सरकार से पूछा है कि वह किस कानून के तहत मुकदमे वापस ले रही है? अखिलेश सरकार के इस फैसले से सुरक्षा बलों के मनोबल पर असर पड़ सकता है।

`राबर्ट वाड्रा को आरोपों का सामना करना चाहिए'


प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की दावेदारी को संघ द्वारा निरस्त किए जाने पर दैनिक `हमारा समाज' ने अपने संपादकीय में लिखा है कि राजग की भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर अन्य सभी पार्टियों को उस समय बड़ी ताकत मिली जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी को खारिज कर दिया। संघ का मानना है कि यदि नरेन्द्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के लिए आगे बढ़ाया जाता है तो भाजपा और संघ को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा। भाजपा जिन मुद्दों  पर यूपीए और कांग्रेस को घेरती चली आई है और पूरे देश में यूपीए और कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर जनता को अपने पक्ष में करती रही है यह सभी मुद्दे मोदी के कारण खत्म हो जाएंगे और कांग्रेस एवं यूपीए को यह कहने का मौका मिल जाएगा। भाजपा ने नरेन्द्र मोदी का नाम पेश किया है वह गुजरात में मुस्लिम नरसंहार का जिम्मेदार है। इससे केवल मुसलमान ही नहीं बल्कि बहुत से हिन्दू वोटों का भी नुकसान होगा एवं मोदी के नाम पर एनडीए पार्टियां भी सहमत नहीं हैं। पर्दे के पीछे के इस खेल में एलके आडवाणी का हाथ साफ नजर आ रहा है क्योंकि वह एक लम्बे समय से प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की आशा रखते हैं लेकिन जिन सीढ़ियों पर चढ़कर वह प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं वह सीढ़ियां उन्हें आसमान से जमीन पर ला सकती हैं। नरेन्द्र मोदी भी आडवाणी के इस खेल को समझते होंगे। देखना यह है कि संघ के दरबार से मायूस होकर नरेन्द्र मोदी मौन धारण करते हैं या अपने ही लोगों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाते हैं।
तालिबान द्वारा 14 साल की मासूम लड़की मलाला पर हमले की कड़े शब्दों में भर्त्सना एवं निंदा करते हुए काजी हुसैन अहमद ने साप्ताहिक `खबरदार' में लिखा है कि यह तो मानवता, इस्लामी शिक्षा और पख्तून परम्परा के भी खिलाफ है। मलाला पर हमले का अफसोसजनक पहलू यह है कि इसका पुण्य खुद हत्यारे ले रहे हैं। मासूम बच्ची को तीन साल पहले जब इसकी उम्र 11 साल थी, बीबीसी के एक नुमाइंदे ने एक वीडियो डिसमिस्ड स्कूल द्वारा दुनिया से परिचित कराया। यह वीडियो न्यूयार्प टाइम्स की वेबसाइट पर देखी जा सकती है जिसमें वह फर्जी दृश्य भी शामिल है कि एक व्यक्ति को भीड़ के सामने उलटा लिटाकर कोड़े मारे जा रहे हैं और यह मशहूर कर दिया कि तालिबानी औरतों को कोड़े मार रहे हैं। इस बच्ची के मुंह में यह बात डाल दी गई और यह न्यूज पर इंटरव्यू में प्रसारित हुआ कि बेनजीर, बापा खान और ओबामा मेरे आइडियल हैं। बेनजीर और बापा खान की हद तक तो ठीक है कि हमारे देश में बहुत से लोग उनके भक्त हैं लेकिन सवात की एक मासूम बच्ची के मुंह में यह बात डालना कि ओबामा मेरे आइडियल हैं किन तत्वों का कारनामा है जबकि ओबामा के हाथों अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों जगह बहुत से लोग मारे जा रहे हैं जिसमें मासूम बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं। जहां तक तालिबान का मामला है उन्हें किसी ने इस्लाम के प्रतिनिधित्व के तौर पर स्वीकार नहीं किया है और न ही उनके सारे कामों का समर्थन किसी विख्यात दीनी जमाअत ने स्वीकार किया है।
`राबर्ट वाड्रा को आरोपों का सामना करना चाहिए' के शीर्षक से साप्ताहिक `चौथी दुनिया' के संपादक संतोष भारतीय ने अपने संपादकीय में लिखा है कि शायद राबर्ट वाड्रा को इस बात पर भरोसा है कि जनता उनके जुर्म की सारी कहानियां जानने के बाद भी चुन ली। राबर्ट वाड्रा ने अपनी वर्तमान बीवी प्रियंका गांधी  का भी नुकसान कर दिया है। प्रियंका गांधी अपने आगे राबर्ट वाड्रा शब्द लगाने से हिचकिचाती हैं लेकिन राबर्ट वाड्रा इस शब्द को बहुत लोकप्रिय करना चाहते हैं। लोगों को लगने लगा है कि शायद प्रियंका गांधी का दिमाग अपने भाई राहुल गांधी की तरह तेज और तकनीक अपने पति राबर्ट वाड्रा से ज्यादा फुल प्रूफ है। लोगों का इस तरह सोचना प्रियंका गांधी के लिए शुभ संकेत नहीं है। राबर्ट वाड्रा को कुछ अन्य सवालों के लिए भी तैयार रहना चाहिए। उदाहरण के तौर पर वह क्या हालात थे जिनकी वजह से उनके पति रायबरेली से उनकी सास के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गए और वह भी भाजपा के टिकट पर। नामांकन की प्रक्रिया पूरी हो जाने के बावजूद अंतिम समय में चुनाव लड़ने से पीछे क्यों हट गए और इसके कुछ महीनों के अंदर उन्होंने आत्महत्या क्यों की? इसी तरह क्यों इनके भाई ने आत्महत्या की? इनकी बहन की मौत एक सड़क दुर्घटना में हुई और इनकी बहन के कई दोस्तों ने भी आत्महत्या कर ली? यह सभी संयोग हो सकते हैं, लेकिन इन संयोग के पीछे यदि कोई कहानी है तो वह कहानी अब राबर्ट वाड्रा के लिए परेशानियां पैदा कर सकती है।
`मुस्लिम पिछड़ेपन को दूर करने के लिए नौकरियों में आरक्षण' से दैनिक `अखबारे मशरिक' में आरिफ अजीज ने अपने लेख में लिखा है कि 1980 में इंदिरा गांधी ने मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की स्थिति जानने के लिए डॉ. गोपाल सिंह की अगुवाई में एक हाई पावर पैनल कायम किया था जिसने अपनी रिपोर्ट में नौकरियों में आबादी के अनुपात में आरक्षण की सिफारिश की थी और पुलिस बल में भी आरक्षण पर जोर दिया था। सरकार जंगलों में रहने वाले भेल और आदिवासियों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए प्रयासरत है लेकिन न तो मुसलमानों को स्वयं फिक्र है और न सरकार को। आपातकाल के समय इंदिरा गांधी मुसलमानों को आरक्षण देने के लिए तैयार हो गई थीं लेकिन जिन लोगों के सुपुर्द यह काम किया गया वह उसको आगे नहीं बढ़ा सके। 1984 के शुरू में असम के मुख्यमंत्री-हिथेश्वर सैकिया अपने राज्य के मुसलमानों को आबादी के अनुपात में 24 फीसदी आरक्षण देने पर तैयार हो गए थे लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ, न ही इसके बाद बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री भगवत झा आजाद की यह घोषणा व्यावहारिक रूप ले सकी कि सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों के लिए दस फीसदी कोटा निर्धारित किया जाएगा। इसके लिए जरूरी था कि बिहार के सभी मुसलमानों को पिछड़ा मान लिया जाता, क्योंकि संविधान में ऐसी किसी पहल की गुंजाइश नहीं थी लेकिन यह काम बाद की राजीव सरकार चाहती तो कर सकती थी उसको संसद में बहुमत प्राप्त था।
`सुभाष पार्प में अवैध निर्माण पर हाई कोर्ट का साहसी, सराहनीय फैसला' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में संपादक अनिल नरेन्द्र ने अपने संपादकीय में लिखा है कि दिल्ली हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच  के जस्टिस संजय किशन, जस्टिस एमएल मेहता और जस्टिस राजीव शंकधर ने एक साहसी फैसला किया। मामला था दिल्ली के सुभाष पार्प में अवैध मस्जिद बनाने का। उल्लेखनीय है कि मेट्रो लाइन निर्माण के दौरान सुभाष पार्प में एक दीवार मिली थी, जिसे एक समुदाय ने कथित रूप से अकबराबादी मस्जिद का अवशेष बताते हुए वहां रातोंरात निर्माण कर दिया। इस मुद्दे को लेकर कुछ संगठन दिल्ली हाई कोर्ट पहुंचे और इस अवैध निर्माण को हटाने की मांग की। हाई कोर्ट ने 30 जुलाई को पुलिस को यह अवैध निर्माण हटाने के लिए एमसीडी को फोर्स उपलब्ध करवाने का निर्देश दिया था।
बेंच ने स्पष्ट किया कि यदि उक्त स्थल पर सर्वे में मस्जिद हे की पुष्टि होती है तो भी वह संरक्षित इमारत होगी और ऐसे में वहां नमाज अदा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। ऐसे में वहां नमाज अदा करने का सवाल ही नहीं है। हम हाई कोर्ट की पीठ का स्वागत करते हैं। सवाल एक अवैध निर्माण का ही नहीं बल्कि कानून की धज्जियां उड़ाने का भी है। ऐसे में रातोंरात कई पूजा स्थल खड़े हो जाएंगे। अब देखना यह है कि जो साहस हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच ने दिखाया है, क्या दिल्ली पुलिस भी ऐसा ही साहस दिखाएगी?

Sunday, August 5, 2012

`खबर' का विश्लेषण करने के सवाल पर उर्दू सम्पादक बगले झांकता नजर आया


नेशनल काउंसिल फार प्रमोशन आफ उर्दू लैंग्वेज (एनसीपीयूएल) द्वारा उर्दू पत्रकारों के लिए जम्मू कश्मीर में गत दिनों वर्पशाप आयोजित किए जाने पर एक हिंदी अखबार ने इसमें शामिल दिल्ली के पत्रकारों की सूची देखकर यह टिप्पणी प्रकाशित की थी कि यह सरकारी पैसे पर मनोरंजन करना है जो वर्पशाप के मकसद से दूर है। उर्दू के एक बड़े अखबार जिसे एक हिंदी अखबार ने खरीदा है, से  दो लोगों को कश्मीर ले जाना सरकारी पैसे का दुरुपयोग है। वर्पशाप उर्दू पत्रकारों का था जिसमें कुछ सम्पादक भी शरीक हो रहे थे इसलिए किसी उर्दू अखबार ने इस वर्पशाप की आलोचना नहीं की लेकिन अब दैनिक`जदीद खबर' ने श्रीनगर के मुशरफ अहमद की पहले पेज पर विशेष रिपोर्ट प्रकाशित कर हिंदी अखबार के संदेह की पुष्टि कर दी है। `श्रीनगर के पत्रकार वर्पशाप में काउंसिल को शर्मिंदगी का सामना, बड़े दैनिक का सम्पादक खबर का विश्लेषण करने के सवाल पर बगले झांका नजर आया' के शीर्षक से मुशरफ अहमद ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि एनसीपीयूएल ने कश्मीर यूनिवर्सिटी के  पत्राचार विभाग  के सहयोग से उर्दू पत्रकारों के लिए सात दिवसीय वर्पशाप आयोजित की थी जिसमें दिल्ली के कुछ उर्दू अखबारों के सम्पादकों का चयन विशेषज्ञों के तौर पर किया गया था लेकिन इनमें से केवल एक पत्रकार के अलावा कोई भी इस योग्य नहीं था कि वह पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं से अच्छी तरह परिचित हो। यही कारण है कि वर्पशाप के दौरान कई ऐसे सवालात उठाए गए जिनका यह `विशेषज्ञ पत्रकार' संतोषजनक उत्तर देने में असमर्थ रहे। इसी तरह जब दिल्ली के एक बड़े अखबार के सम्पादक से `खबर' का विश्लेषण करने के बारे में पूछा गया तो सम्पादक महोदय बगले झांकने लगे। याद रहे काउंसिल ने दो बड़े दैनिक के सम्पादकों के अलावा एक शिक्षिका, एक ऐसे सम्पादक जिसे खुद उर्दू पढ़ना नहीं आती, एक बड़े अखबार से जुड़े एक पत्रकार जिनकी योग्यता केवल मसलकी (पंत) है को विशेषज्ञ के तौर पर चयन किया था और इस सिलसिले में काउंसिल के नए डायरेक्टर ने अपनी ही मीडिया कमेटी से कोई सुझाव लेना जरूरी नहीं समझा।
दैनिक `सहाफत' ने `वाह मुसलमानों! कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने पर लगा दी पाबंदी' के शीर्षक से पहले पेज पर प्रकाशित खबर में लिखा है कि उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के सखेड़ के  मुस्लिम बहुल गांव नराना की पंचायत ने एक आदेश जारी किया है जिसमें 30 वर्षों में आकर रहने वाले लोगों को कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने में पाबंदी लगा दी है। सखेड़ा थाने के अंतर्गत मुस्लिम बहुल गांव नराना में 52 बीघे का कब्रिस्तान है। गत दिनों विवाद के चलते इस कब्रिस्तान को तीन हिस्सों में विभाजित किया गया। एक भाग में तेली, धनी दूसरे में जुलाहे और तीसरे में गाढ़ा बिरादरी के मुर्दों को दफने करने पर सहमति हुई थी लेकिन तीन दिन पहले फिर से विवाद गहरा गया। बताया जाता है कि गत कुछ वर्षों में बाहर से आकर रहने वालों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है उसको लेकर कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने के लिए जगह कम पड़ गई है। इसी पर गांव में ग्राम प्रधान तैयब अली और पूर्व प्रधान सलीम की उपस्थिति में पंचायत बुलाई गई जिसमें फैसला किया गया कि जो लोग 30 वर्षों के अंदर यहां आकर बसे हैं उनके मुर्दों को कब्रिस्तान में दफन करने नहीं दिया जाएगा।
`पश्चिमी बंगाल में मुस्लिम आरक्षण...कितनी हितकारी?' के शीर्षक से कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिंद' में अशफाक अहमद ने अपने विश्लेषण में लिखा है कि पश्चिमी बंगाल में सरकारी नौकरियों में दस फीसदी आरक्षण की खबर पर मुसलमानों ने खुशी जाहिर की थी लेकिन जब आरक्षण लागू करने का आर्डर सामने आया तो सारी खुशी काफुर हो गई। आरक्षण के लिए जो ए कैटेगरी है उसमें 65 जाति हैं जिसमें मुसलमानों के साथ गैर मुस्लिम भी हैं। इसी तरह कैटेगरी बी में भी 78 जातियां हैं। आम सोच यह थी कि ओबीसी आरक्षण के लिए कैटेगरी ए और बी का मकसद यह है कि एक कैटेगरी मुसलमानों के लिए विशेष होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जानकारों के अनुसार ममता सरकार और पूर्व की वाम मोर्चा सरकार के आरक्षण विधेयक में फर्प केवल इतना है कि नई सरकार ने आरक्षण के लिए बनाई ए और बी कैटेगरी में 21 मुस्लिम जातियों को शामिल किया है। इस कानून का फायदा केंद्र की किसी नौकरी में नहीं होगा इसके अलावा उच्च न्यायिक पदों, प्राइवेट सेक्टर और सिंग्ल पोस्ट कैडर में भी यह  लागू नहीं होगा।
`असारा की मुस्लिम पंचायत' के फैसले को सही बताते हुए वरिष्ठ पत्रकार सैयद मंसूर आगा ने दैनिक `जदीद मेल' के अपने लेख में लिखा है कि यहां की पंचायत ने जो फैसला किया है वह सही है। उदाहरण के तौर पर कोई युवा महिला अकेले बाजारों में न घूमती फिरे और यदि घर से निकले तो चादर ओढ़कर निकले ताकि शरीर के अंग ढके रहे। यह तरीका शरीअत के मुताबिक और हमारे सामाजिक मूल्यों के अनुरूप है। इसलिए बिना संकोच महसूस किए हमें यह कहना चाहिए कि इन पर आपत्ति गलत है। गोहाटी में एक महिला के साथ जो कुछ घटित हुआ उसके बाद राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ने भी हमारी बहनों, बेटियों और बहुओं को यही सुझाव दिया है।
साप्ताहिक `नई दुनिया' ने `क्या बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के कैम्पों को हासिल है चिदम्बरम का आशीर्वाद?' के शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में  लिखा है कि यदि हवा का झोंका चलता है और पत्ते खड़कते हैं तो सरकार को मालूम हो जाता है लेकिन सरकार को इसकी जानकारी नहीं है कि इसकी नाक के नीचे राइफलों से फायरिंग करने की ट्रेनिंग दी जा रही है, गोलियां चलने की आवाजें मीडिया के लोग सुन रहे हैं लेकिन प्रशासन के कानों में कोई आवाज नहीं आ रही है। सवाल यह कि आखिर हथियार चलाने की यह ट्रेनिंग क्यों दी जा रही है, सांप्रदायिकों की एक पैरालेल फौज क्यों बन रही है जाहिर है यह सब कुछ नेक नीयते पर आधारित नहीं है। मकसद यही है कि मुसलमानों पर हमले की तैयारी पूरी कर ली जाए और जब भी मौका मिले तो इसमें किसी तरह की चूक न होने पाए।
`ओबामा की टिप्पणी इतनी बुरी क्यों  लग रही है' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर की गई टिप्पणी का भारत सरकार ने बुरा माना है। देखा जाए तो ओबामा ने कोई बात नहीं की। यही बात भारत की कारपोरेट लाबी बहुत दिनों से कर रही है। लगभग यही बात गत दिनों अमेरिकी पत्रिका टाइम ने भी कही थी। हैरानी है कि इसी अमेरिकी लाबी की नीतियों पर यह सरकार आज तक चलती आ रही है आज इन्हें बुरा क्यों  लग रहा है? मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह खुद अमेरिकी समर्थक हैं, आज ओबामा की बात क्यों चुभ रही है?