Monday, December 6, 2010

बिहार चुनाव से मुसलमानों को नई राह

बिहार विधानसभा चुनाव में राजग गठबंधन की शानदार जीत केबाद अब भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड को मिले मुसलिम वोटों का विश्लेषण जारी है। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में सबसे ज्यादा दिक्कत मुसलिम जमाअतों और मिल्ली नेताओं को हो रही है, क्योंकि राज्य के मुसलमानों ने उनकी फासिज्म थ्योरी को खारिज कर विकास को अपना एजेंडा बनाया।
बिहार में करीब 16 फीसदी मुसलिम मतदाता हैं। तकरीबन 50 विधानसभा क्षेत्रों में इनकी तादाद 40 फीसदी है, जबकि 102 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुसलिम वोट नतीजों को प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं। इसकेबावजूद केवल 19 मुसलिम उम्मीदवार कामयाब हुए, जिनमें तीन महिलाएं शामिल हैं। वहीं 37 मुसलिम उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे। अधिकतर मुसलिम क्षेत्रों में राजग की सफलता को विकास से जोड़कर देखा जा रहा है, जो एक अहम फैक्टर है, लेकिन राजग की सफलता में वोटों के विभाजन ने भी अहम भूमिका निभाई। विधानसभा पहुंचने वाली तीन मुसलिम महिलाओं में एक राज्य के मुख्य सचिव अफजल अमानुल्ला की पत्नी परवीन अमानुल्ला भी हैं, जो ऑल इंडिया मुसलिम मजलिस मुशावरत के सदस्य शहाबुद्दीन की बेटी हैं। परवीन जदयू के टिकट पर विजयी हुई हैं। उनके पिता पूरे देश में भाजपा की सांप्रदायिकता के खिलाफ अभियान छेड़े हुए हैं और मुसलमानों को भाजपा के करीब जाने से रोकने में अहम भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन खुद उनकी बेटी उनके खिलाफ चली गई। इसलिए यह सवाल बहुत अहम हो जाता है कि क्या मुशावरत का भाजपा के प्रति दृष्टिकोण बदल गया है। मुसलिम जमाअतें जो हर मौके पर मुसलमानों को नसीहत देना अपना परम कर्तव्य समझती हैं, इस चुनाव में उनकी ओर से कोई अपील नहीं की गई। नतीजों के बाद जिन मुसलिम नेताओं ने अपनी जुबान खोली भी, उन्होंने सेक्यूलर पार्टियों को तो नसीहत दी, लेकिन किसी ने कांग्रेस को कठघरे में नहीं खड़ा किया कि उसने मुसलिम वोटों को प्रभावहीन करने के लिए इतनी बड़ी संख्या में अपने उम्मीदवार क्यों खड़े किए, जिसकेकारण राजग गठबंधन को अप्रत्याशित जीत हासिल हुई। निश्चय ही इससे कांग्रेस ने एक तीर से कई शिकार किए। लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान को हाशिये पर पहुंचाया और मुसलमानों को प्रभावहीन कर उनको जोर का झटका दिया। राजग गठबंधन को 2005 के विधानसभा चुनावों की तुलना में तीन फीसदी ज्यादा वोट मिले, लेकिन उसे 63 सीटों का फायदा हुआ, जबकि राजद-लोजपा गठबंधन को नौ फीसदी कम वोट मिले, लेकिन उनकी सीटों की संख्या घटकर आधी रह गई। वहीं दो फीसदी ज्यादा वोट मिलने केबावजूद कांग्रेस की सीटें 2005 विधानसभा चुनाव की तुलना में आधी रह गईं। इससे साफ है कि वोटों के बिखराव ने राजग की शानदार जीत में अहम भूमिका निभाई। बिहार चुनाव में एक अहम बात यह भी रही कि जदयू ने भाजपा से गठबंधन के बावजूद भाजपा के कट्टर हिंदुत्व की छवि वाले नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व सांसद वरुण गांधी को चुनाव प्रचार के लिए राज्य में नहीं आने दिया। इसका फायदा यह हुआ कि जदयू पहले से मजबूत पार्टी बनकर उभरी और उसे 27 सीटों का फायदा हुआ। अब नीतीश की सरकार भाजपा के रहमोकरम पर नहीं रहेगी और न ही उसकेदबाव में काम करेगी। जदयू को समर्थन जारी रखना भाजपा की मजबूरी होगी, नहीं तो अन्य विधायकों का समर्थन हासिल करना जदयू केलिए कोई बड़ा काम नहीं होगा। एक न्यूज पोर्टल ने इन चुनावों में भाजपा को मिले मुसलिम वोट फीसदी का विश्लेषण करकेबताया कि भाजपा को मुसलिम वोट मिलने की बात करना सचाई के विपरीत है। इसके बावजूद यह बात अपनी जगह सही है कि भाजपा ने एक मुसलिम उम्मीदवार को टिकट दिया और वह कामयाब हो गया। इसी तरह गुजरात के पंचायत चुनाव में भाजपा ने 100 मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट दिया और वे सभी कामयाब हो गए, जो ऐतिहासिक सचाई है। इसे यह कहकर खारिज नहीं किया जा सकता कि ऐसा करने के लिए मुसलमान मजबूर थे, क्योंकि वे भाजपा शासित गुजरात में मानसिक रूप से सहमे थे। दरअसल, कुछ मुसलिम बुद्घिजीवियों और मुसलिम नेताओं का यह स्वीकार्य नहीं है कि मुसलमान कांग्रेस केजाल से बाहर निकल आएं। कुछ भी हो, लेकिन बिहार के चुनावी नतीजों ने देश के मुसलमानों को एक नई राह दिखाई है।