Tuesday, January 8, 2013

दुष्कर्मियों को मौत की सजा


महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार एम वदूद साजिद ने दैनिक `इंकलाब' के स्तंभ में लिखा है कि मैंने 12 वर्ष पूर्व एक महिला कामरेड नेता का साक्षात्कार लिया था। साक्षात्कार के दौरान महिलाओं का यौन शोषण और हिंसा पर चर्चा करते हुए उन्होंने पूछा था कि अरब देशों में इस तरह की घटनाएं क्यों नहीं होती हैं? कई गैर मुस्लिम नेता भी इस तरह का विचार व्यक्त करते रहे हैं। महात्मा गांधी ने अपराध, भ्रष्टाचार और अन्य सामाजिक बुराइयों पर काबू पाने के लिए हजरत उमर की खिलाफत (शासन) को पसंद किया था। ताजा घटनाक्रम में यहां के कुछ नेतागण दोषियों को फांसी की सजा देने की मांग कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी के एक मुस्लिम सांसद ने संसद में बहस के बीच दोषियों को इस्लामी कानून के अनुसार सजा देने की मांग की। हत्या और लूटपाट की घटनाओं में शराब की बड़ी भूमिका होती है। सवाल यह है कि इस खराब चीज की पैदावार और उसे बेचने पर पूर्ण प्रतिबंध क्यों नहीं लगा दिया जाता? सरकार, नेता और अधिकारी इस कारोबार से अरबों रुपए कमाते हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री और गृहमंत्री ऐसी घटनाओं को रोकने के प्रयासों में व्यस्त हैं लेकिन किसी ने भी शराब के पीने पर पाबंदी के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा। शायद भारत में शराब पर प्रतिबंध इसलिए भी नहीं लगाया जा सकता क्योंकि इस्लाम ने इसे हराम करार दिया है। वरिष्ठ पत्रकार शकील शम्शी ने सही लिखा है कि मुस्लिम मोहल्लों में महिलाएं पूर्ण संरक्षण के साथ घूमती हैं जबकि अन्य इलाकों में महिलाएं रात नौ बजे के बाद घरों से बाहर नहीं निकल सकतीं।
दुष्कर्मियों को सजा ए मौत दिए जाने की मांग पर दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `क्या सजा ए मौत वास्तविक इलाज है' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि इस पर विचार क्यों नहीं किया जाता कि यह घृणित कार्य समाज में शामिल कुछ व्यक्तियों की आपराधिक मानसिकता के कारण होते हैं अथवा हमारे समाज में ऐसी कोई बुराई आ गई है जिसका इलाज शायद सजा ए मौत भी  नहीं है। टीवी पर ऐसे शो दिखाए जाते हैं जिनमें बताया जाता है कि शादी से पूर्व आपसी संबंध बना लेने में कोई खराबी नहीं है, मर्द और औरत शादी के बिना भी मियां-बीवी की तरह एक-दूसरे के साथ रह सकते हैं। अदालतें भी अब लिव इन रिलेशनशिप को स्वीकार करने लगी हैं। जब गुजरात जैसे राज्यों में एक मर्द को दूसरी औरत को रखना कानूनी संरक्षण हासिल हो जाता है तो आम सोच कन्फ्यूज हो जाती है। गुजरात विधानसभा ने वर्षों पूर्व यह कानून पास किया था कि एक शादीशुदा मर्द दूसरी औरत भी रख सकता है, लेकिन इससे शादी करना गैर कानूनी होगा क्योंकि हिन्दू मैरिज एक्ट के तहत एक से ज्यादा बीवी रखना जुर्म माना जाएगा। दिल्ली के विजय चौक पर जिस गुस्से का इजहार हुआ, वह बिल्कुल सही है उसी दिन कालेज के एक छात्र ने अपनी क्लासफेलो को इसलिए चाकू मार दिया कि उसने शारीरिक संबंध बनाने की इजाजत नहीं दी। विरोध प्रदर्शन करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि सिर्प कानून इस मानसिकता का इलाज नहीं है।
पाकिस्तान के विदेश मंत्री रहमान मलिक के भारत दौरे पर चर्चा करते हुए हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कुल मिलाकर उनका दौरा दोनों देशों के लिए बड़ी कामयाबी के तौर पर साबित नहीं हुआ। ऐतिहासिक आसान वीजा व्यवस्था पर हस्ताक्षर से जनता को क्या फायदा पहुंचेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इसकी कार्यप्रणाली में आसानी से व्यवसाय के लिए नए अवसर जरूर पैदा किए हैं। इस एक सकारात्मक कदम के अलावा दोनों देशों के नेतागण अन्य मुद्दों पर गंभीरता से बातचीत करने में नाकाम रहे। मेहमान मंत्री ज्यादातर भारत को आतंकी समस्याओं से संबंधित मसलों को विवादित करने की कोशिश करते रहे जिससे यह जाहिर होता है कि पड़ोसी देश इन मामलों से निपटने के लिए गंभीरता से बातचीत के लिए तैयार नहीं है। मलिक के उलटे-सीधे बयानों ने भारतीय शासकों को नाराज कर दिया जबकि भारत दौरे पर आने से पूर्व मलिक ने कहा था कि वह दोनों देशों के बीच संबंधों को और बेहतर बनाने के इच्छुक हैं। ऐसी भड़काऊ टिप्पणी के कारण दौरे के खत्म होने से पूर्व दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस को भी संबोधित नहीं किया। इस समय दोनों देशों की समस्याओं में कई समानता पाई जाती है और यदि इस बाबत गंभीरता का प्रदर्शन नहीं किया गया तो यह समस्याएं हम पर और छा जाएंगी जिसके नतीजे हम 50 साल से भी अधिक समय से देख रहे हैं।
`अब इजरायल करेगा हिन्दुस्तान की सुरक्षा' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दुनिया' ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि गत कुछ वर्षों के दौरान भारत को लगभग 9 बिलियन डालर के हथियार बेचने वाला अमेरिका हक्का-बक्का खड़ा है, क्योंकि इजरायल ने आधुनिक सुरक्षा व्यवस्था और हथियारो पर आकर्षित पेशकश के साथ भारत को अमेरिकी हथियारों का सौदा खत्म करने पर मजबूर कर दिया है। आश्चर्य की बात यह है कि फलस्तीन के संबंध में हिन्दुस्तान के स्पष्ट दृष्टिकोण के बावजूद हिन्दुस्तान से दूरी बनाने की बजाय इजरायल नजदीकी चाहता है क्योंकि उसकी नजर हिन्दुस्तान के रक्षा बजट पर है जो इजरायल की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का काम करेगी। वर्तमान में भारत एशिया में इजरायल से व्यवसाय करने वाला दूसरा सबसे बड़ा देश है।
अमेरिकी खुफिया विभाग के मुताबिक `इस्लामी आतंकवाद 2030 तक खत्म हो सकता है' पर `सहरोजा दावत' में सम्पादक परवाज रहमानी ने अपने बहुचर्चित स्तंभ `खबरो नजर' में चर्चा करते हुए लिखा है कि टाइम्स आफ इंडिया में प्रकाशित यह रिपोर्ट बताती है कि पूर्ण रूप से इसके खत्म होने की संभावना नहीं है बल्कि इसका क्षेत्र आर्थिक और वित्तीय आतंक के रूप में और फैल सकता है। अमेरिका की नेशनल इंटेलीजेंस कौंसिल की इस रिपोर्ट का नाम है `ग्लोबल ट्रेंडस 2020'। इसमें विभिन्न पहलुओं से विश्व रुझानों का जायजा लिया गया है और आगामी 18 सालों में होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी भी की गई है। इस रिपोर्ट द्वारा दरअसल अमेरिका दुनिया को यह बताना चाह रहा है कि वह अगले 18 वर्षों में क्या करने वाला है। रिपोर्ट के अनुसार वह विरोधी देशों की अर्थव्यवस्था को कमजोर बल्कि तबाह और दोस्त देशों की अर्थव्यवस्था पर कंट्रोल करने वाला है। `इस्लामी आतंक' से लड़ने के नाम पर दुनिया के विभिन्न भागों में अपने एजेंटों द्वारा हिंसक घटनाएं करवाएगा। इसके लिए इस्लामी ग्रुपों को जिम्मेदार करार देकर इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ अपनी शैतानी मुहिम को और तेज करेगा। वह जानते हैं कि इस्लामी व्यवस्था आएगी तो अपने साथ ब्याज रहित अर्थव्यवस्था लाएगी जो अमेरिका और यहूदियों की ब्याज आधारित प्रणाली को खत्म कर देगी। इसीलिए दुनिया को इस्लाम से भयभीत करने के लिए अमेरिका नए-नए तरीके इस्तेमाल कर रहा है।
`ब्लादिमीर पुतिन भारत आपका सम्मान करता है, स्वागत करता है' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि रूस के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन ने भारत यात्रा के दौरान 42 सुखोई लड़ाकू विमानों और 71 मीडियम लेफ्ट हेलीकाप्टर के चार अरब डालर मूल्य के रक्षा सौदों पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत रूस के आधुनिकतम सुखोई-30 एमकेआई युद्धक विमानों का भारत में उत्पादन होगा तथा रात में सैन्य कार्यवाही करने में सक्षम 71 सैनिक हेलीकाप्टर रूस से खरीदे जाएंगे। रूसी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री ने दोनों देशों की 13वीं शिखर बैठक में द्विपक्षीय संबंधों पर भी चर्चा की। इस दौरान दोनों देशों के बीच रणनीतिक व व्यापारिक संबंधों को और मजबूत करने के लिए करीब 10 समझौतों पर करार हुए। ब्लादिमीर पुतिन हमारे सम्मान के हकदार हैं। वर्ष 2000 में सत्ता संभालने के बाद उन्होंने भारत-रूस संबंधों को येल्तसिन युग से बाहर निकालकर एक नई दोस्ती की शुरुआत की है।

महिलाओं पर बढ़ता अत्याचार, कानून से ज्यादा समाज सुधार की जरूरत


समाजवादी पार्टी द्वारा संसद में मुस्लिम आरक्षण उठाए जाने की मांग पर चर्चा करते हुए दैनिक `सियासी तकदीर' में जावेद कमर ने अपनी समीक्षा में लिखा है कि सलमान खुर्शीद के समय में 4.5 फीसदी जो आरक्षण दिया गया था सरकार उसमें वृद्धि करने के लिए तैयार नहीं है वह तो ओबीसी कोटे को लागू करने के लिए संवैधानिक संशोधन करने पर ही तैयार नहीं हैं। गत दिनों कांग्रेस के ही एक वरिष्ठ  नेता रशीद मसूद ने राज्यसभा में जब इस बाबत एक लिखित सवाल किया तो अल्पसंख्यक मामलों के राज्यमंत्री न्योंग अरंग ने इसका जवाब नहीं में दिया था। एक बड़ा तर्प यह दिया जा रहा है कि मंडल आयोग के सुझाव पर पिछड़े वर्गों को जो 27 फीसदी आरक्षण दिया गया था उसमें मुसलमानों की पिछड़ी जातियां शामिल हैं और उन्हें इसका फायदा भी मिल रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि 27 फीसदी में मुसलमानों के लिए कोई कोटा निर्धारित नहीं है। इसलिए उन्हें इससे कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है। हमें दुख इस बात पर है कि जब यह कोटा निर्धारित किया गया था तो उस समय हमारे किसी नेता ने सरकार से यह पूछने का साहस क्यों नहीं किया कि हमें हक की जगह भीख क्यों दी जा रही है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री के. रहमान की प्रेस कांफ्रेंस में जब किसी पत्रकार ने उनका ध्यान मुलायम सिंह यादव की मांग की ओर दिलाया तो उनका कहना था कि कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में जो वादा किया है वह हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है। हमने अपने घोषणा पत्र में मुसलमानों को केरल और कर्नाटक की तर्ज पर आरक्षण देने का वादा किया है उनकी आबादी की बुनियाद पर नहीं। के. रहमान खां की जुबानी मनमोहन सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह मुसलमानों को उनका हक नहीं भीख ही दे सकती है, तो क्या मुसलमान इस भीख को कुबूल करने के लिए तैयार हैं?
केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा यह कहने पर आईपीएस अधिकारी एएस इब्राहिम को आईबी का डायरेक्टर सोनिया गांधी की वजह से  बनाया है, पर चर्चा करते हुए `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि शिंदे ने यह कहकर आईपीएस अधिकारी की योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। इसके जरिये उन्होंने सोनिया की खुशी हासिल करने की कोशिश की तो दूसरी ओर मुसलमानों पर एहसान जताया और उन्हें उनकी हैसियत बता दी कि वह बिना आशीर्वाद के किसी उच्च पद पर नहीं पहुंच सकते। लेकिन इसी के साथ उन्हें  यह भी बताना चाहिए कि अब तक मुसलमान इस एजेंसी का हेड नहीं बन सका तो उसका जिम्मेदार कौन था? यदि यह मान लिया जाए कि इब्राहिम की उन्नति में किसी की भूमिका है, तो सरकार की होगी, उसमें सोनिया गांधी की क्या भूमिका? दूसरी बात यह है कि एक दो मुसलमानों को उच्च पदों पर पदासीन कर देने से क्या मुसलमानों की समस्याएं हल हो जाएंगी? इनके पास क्या अधिकार होते हैं या उन्हें कौन-सी ऐसी जादू की छड़ी दी जाती है कि उनकी वजह से मुसलमानों के काम आसानी से हो जाएंगे। मुसलमानों की समस्याएं हल होंगी तो नीति और सोच में तब्दीली से, जिसके लिए सरकार कभी तैयार नहीं होती। गृहमंत्री आईबी का मुस्लिम हेड बनाने का केडिट तो ले रहे हैं लेकिन यह क्यों नहीं बताते कि इससे मुस्लिम कौम का क्या भला होगा।
`क्या 21 दिसम्बर को दुनिया खत्म हो जाएगी?' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' में नजीम शाह ने अपने लेख में लिखा है कि 21 दिसम्बर को दुनिया खत्म हो जाएगी, यह आस्था एक प्राचीन सभ्यता `माया' के मानने वालों का है। यह लैटिन अमेरिका के अधिकतर देशों की सबसे प्राचीन सभ्यता में गिनी जाती है। यह सभ्यता हजरत ईसा की पैदाइश से  बहुत पहले से इस दुनिया में मौजूद थी। मैक्सिको के कुछ नागरिक अब भी प्राचीन माया भाषा बोल सकते हैं। माया कौम भाषा, गणित और नक्षत्र विज्ञान में बहुत शिक्षित थी। इस सभ्यता के अनुयायियों ने अमेरिका में लिखने की शुरुआत की जबकि इनके लिखने का तरीका मिस्र की सभ्यता से मेल खाता है। माया सभ्यता के कैलेंडर में 18 महीने और हर महीने में 20 दिन होते हैं अर्थात् साल में 360 दिन। वास्तव में इनके बनाए हुए कैलेंडर आज के ईस्वी कैलेंडर से बहुत ज्यादा सही हैं। इस सभ्यता का बड़ा कारनामा इनका कैलेंडर माना जाता है। माया कौम पर शोध करने वालों का मानना है कि यह दुनिया पांच युगों में बंटी है और माया लोग चौथे युग में जी रहे हैं। उनके कैलेंडर के अनुसार 21 दिसम्बर को चौथा युग खत्म हो जाएगा और पांचवां युग शुरू होगा। कयामत (प्रलय) के बारे में इस्लामी आस्था अन्य धर्मों की धारणा को निरस्त करती है। इस्लामी आस्था के अनुसार कयामत के बारे में अल्लाह ही जानता है कि कब आएगी?
दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं पर दैनिक `सहाफत' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि `फांसी इलाज नहीं है।' दुष्कर्म की सामूहिक घटना जो गत रविवार को हुई उस पर गुस्से का इजहार करते हुए मांग की गई कि अपराधियों को फांसी दी जाए लेकिन क्या इस भावुक मांग पर अमल संभव है। हमारा देश चूंकि अपनी मर्जी से लोकतांत्रिक बना है इसलिए कानून द्वारा बताई गई प्रक्रिया को पूरा किए बिना किसी को सजा नहीं दी जा सकती। सरकार ने फैसला किया है कि मुकदमों की सुनवाई के लिए जल्द फैसला करने वाली `फास्ट ट्रैक' अदालतें कायम की जाएं, इस तरह जल्द फैसला हो सकेगा लेकिन क्या गुंडों में इससे भय पैदा हो सकेगा? अपराध के पहलू से हटकर विचार करने की जरूरत है कि हमारे समाज में औरत की क्या हैसियत है। आम विचार यही है कि औरत ऐसी मशीन है जिसके द्वारा ज्यादा से ज्यादा रकम वसूली जा सकती है। दहेज विरोधी कानून बनने के  बावजूद औरत की हालत खराब बनी हुई है। घर के अन्दर टीवी पर और सिनेमा में औरत को जिस अंदाज में दिखाया जाता है उससे युवाओं का प्रभावित होना स्वाभाविक है। संसद में बहस के दौरान किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि औरत की हद से ज्यादा बढ़ी आजादी उसके लिए हानिकारक हो सकती है। लिव इन पार्टनर के फैशन ने औरत के सम्मान को खत्म कर दिया है। औरत अपनी मर्जी से अपनी इज्जत किसी के हवाले कर सकती है। को-एजुकेशन से बिगाड़ शुरू होता है और आजादी से लड़के-लड़कियों के मिलने-जुलने और संबंधों से समाज बिखर जाता है। इन घटनाओं को रोकने के साथ-साथ समाज सुधार पर भी नजर डालनी जरूरी है।
`मुलायम व अखिलेश को दिया सुप्रीम कोर्ट ने तगड़ा झटका' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यह फैसला मुलायम और अखिलेश के लिए राजनीतिक दृष्टि से असहज स्थिति जरूर पैदा करेगा और बाद में केंद्र सरकार के साथ उनके रिश्तों के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा। मुख्य न्यायाधीश अल्तमश कबीर व न्यायमूर्ति एचएल दत्तू ने गुरुवार को मुलायम सिंह की याचिका को ठुकराते हुए मुलायम, अखिलेश और प्रतीक यादव के खिलाफ सीबीआई की प्रारम्भिक जांच के फैसले को बरकरार रखा है। पीठ ने कहा है कि सीबीआई अपनी जांच उसे सौंपेगी, केंद्र सरकार को नहीं। इस फैसले ने सूबे की सियासत को हवा दे दी है। एक ओर जहां इसे अब सियासी चश्मे से देखते हुए सीबीआई के अब तक हुए इस्तेमाल के मद्देनजर समाजवादी पार्टी द्वारा कांग्रेस को समर्थन दिए जाने की नई मजबूरी माना जा रहा है, वहीं उत्तर प्रदेश में बहुमत की सरकार बनने के बाद दिल्ली की गद्दी पर राज करने का सपना देखने वाले मुलायम सिंह यादव की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। यह भी तय हो गया है कि भ्रष्टाचार के सवाल पर चारों ओर से घिरी कांग्रेस को सपा की ओर से तीर और ताने नहीं सहने होंगे। भाजपा ने तो अखिलेश यादव से इस्तीफा मांगते हुए डिम्पल यादव को मुख्यमंत्री बनाने का सुझाव तक दे डाला है।

एफडीआई और मुस्लिम अल्पसंख्यक


`अभी लंबी है एफडीआई की राह' के शीर्षक से दैनिक `पताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि वालमार्ट ने अमेरिकी सीनेट को दी गई अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि उसने भारत में निवेश तथा अन्य लाबिंग गतिविधियों पर 2008 से अब तक 2.5 करोड़ डालर (लगभग 125 करोड़ रुपए) खर्च किए हैं। इसमें भारत में एफडीआई पर चर्चा से सम्बन्धित मुद्दा भी शामिल है। तिमाही के दौरान वालमार्ट ने अमेरिकी सीनेट, अमेरिकी पतिनिधि सभा, अमेरिकी व्यापार पतिनिधि (यूएसटीआर) और अमेरिकी विदेशी विभाग के समक्ष अपने मामले में लाबिंग की। अमेरिका में कंपनियों को किसी मामले में विभागों या एजेंसियों के समक्ष लाबिंग की अनुमति तो है लेकिन लाबिंग पर हुए खर्च की रिपोर्ट तिमाही आधार पर सीनेट में देनी होती है। इधर जैसी उम्मीद थी अमेरिका ने एफडीआई को मंजूरी देने के फैसले का स्वागत किया है। उसने कहा कि इससे दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग मजबूत होंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार के इस फैसले के मूर्त रूप लेने में अभी समय लगेगा। क्योंकि सरकार ने एक शर्त जोड़ी है जिसके अनुसार एफडीआई का कम से कम 50 फीसदी हिस्सा तीन साल के भीतर कोल्ड स्टोरेज के लिए जमीन खरीदने या किराये को इन्फास्ट्रक्चर खर्च नहीं माना जाएगा। सरकार ने मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई पर भले ही सदन के दोनों सदनों की मंजूरी हासिल कर ली है लेकिन आम आदमी को विदेशी किराना स्टोर के लिए अभी इंतजार करना पड़ेगा।
`गुजरात के मतदाताओं की परीक्षा' के शीर्षक से हैदराबाद से पकाशित दैनिक `ऐतमाद'ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात चुनाव के जो ओपिनियन पोल के नतीजे सामने आए हैं उनमें बताया गया है कि मोदी को स्पष्ट बहुमत हासिल होगा। भाजपा को ज्यादा सीटें मिलेंगी लेकिन इसके वोटों का पतिशत 2007 के मुकाबले घट जाएगा। 2007 में पार्टी ने 49.12 फीसदी वोट हासिल किए थे लेकिन नए पोल में वह 47 फीसदी वोट हासिल कर पाएगी। मोदी सरकार ने गुजरात में विकास से सम्बन्धित तथाकथित तहकीकात पर आधारित किताब छापी है जो सच्चाई के खिलाफ है। 2007 के चुनाव 2002 में गुजरात नरसंहार के बाद हुए थे जिसमें दो हजार से अधिक मुसलमानों की हत्या के लिए गुजरात सरकार जिम्मेदार थी। इस चुनाव के नतीजों ने मोदी के कैरियर को हमेशा के लिए खत्म करने की बजाय उन्हें एक नई जिंदगी दे दी। गुजरात के बहुसंख्यक समुदाय ने भाजपा विशेष कर मोदी के लिए वोट बैंक का काम किया। पधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह जब इस सच्चाई को पेश करते हैं कि गुजरात में अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं और मोदी की भेद-भाव पूर्ण नीतियों ने हिन्दुओं और मुसलमानों में एक दरार डाल दी है, तो यह सच्चाई नरेन्द्र मोदी को कड़वी मालूम होती है और वह पधानमंत्री पर आरोप लगाते हैं कि वह वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि मोदी की वोट बैंक की सियासत पर किसी पकार की पतिकिया उन्हें पसंद नहीं इसलिए उन्होंने उलटे कांग्रेस पर जवाबी हमले शुरू कर दिए हैं। देखना यह है कि गुजरात के मतदाता नरेन्द्र मोदी से छुटकारा हासिल कर पाएंगे?
`फौज और पुलिस के हत्यारे अधिकारी' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मानव अधिकार से सम्बन्धित एक समूह और लापता व्यक्तियों के अभिभावकों के एक संगठन ने दावा किया है कि जम्मू-कश्मीर में फौज और पुलिस के सैकड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो मानव अधिकारों के उल्लंघन की गंभीर घटनाओं में लिप्त हैं, मुकदमा नहीं चलाया गया। यह दो ग्रुप हैं मानव अधिकार और इंसाफ के लिए इन्टरनेशनल पीपुल्स ट्रिब्यूनल और श्रीनगर में स्थित लापता लोगों के अभिभावकों के संगठन की तैयार की हुई रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि भारतीय फौज के तीन ब्रिगेडियर, कर्नल, तीन लेफ्टिनेंट कर्नल, 78 मेजर, 25 कैप्टन और केन्द्र के अर्धसैनिक बलों के 37 वरिष्ठ अधिकारी राज्य में विभिन्न अपराध और मानव अधिकारों के उल्लंघन के दोषी हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि मानव अधिकारों के उल्लंघन में हत्या, अपहरण, दुष्कर्म, हिंसा और जबरदस्ती गायब करने की घटनाएं शामिल हैं। यह रिपोर्ट राज्य के सरकारी कागजों की बुनियाद पर दो साल में तैयार हुई है। इस पर अभी सरकार की पतिकिया सामने नहीं आई है। गोतम नवलखा और पेस कान्पेंस में मौजूद लोगों ने बताया कि यह रिपोर्ट मुख्यमंत्री और पधानमंत्री को भेजी जा चुकी है ताकि आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई हो सके। दोनों ग्रुपों ने बताया कि वह आरोपियों के खिलाफ ठोस सबूत नहीं पेश कर सकते लेकिन इन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए काफी शहादतें मौजूद हैं।
मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी और सरकार के आश्वासन पर चर्चा करते हुए दैनिक`इंकलाब' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कांग्रेस के सिर पर इस समय चुनाव सवार है। 2012 के गुजरात चुनाव, 2013 के कुछ अहम विधानसभा चुनाव और फिर 2014 के आम चुनाव। इसके बावजूद इस सरकार को ज्यादा दिलचस्पी उन कामों से है जिनकी बुनियाद पर उसे समाचार पत्रों और टीवी की ब्रेकिंग न्यूज में जगह मिल जाए ताकि दुनिया को यह बताया जा सके कि वह सकिय है। पाकृतिक पाथमिकता के चयन की बजाय चुनावी सियासत को सामने रखकर तय की जा रही पथमिकता के चलते कांग्रेस और यूपीए सरकार काम करते हुए तो दिखाई दे रही हैं लेकिन समस्याएं हल नहीं होतीं। इस संदर्भ में जब हम आतंकी मामलों में पकड़े गए मुस्लिम युवाओं के बारे में सोचते हैं तो महसूस होता है कि बार-बार की याददहानी अपील और विरोध के बावजूद यूपीए सरकार इस विषय में चिलचस्पी नहीं ले रही है जबकि अब किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रह गई है। कई मामलों में बिल्ली के थैले से बाहर आने के बाद भगवा संगठनों से जुड़े तत्व गिरफ्तार किए गए और कई दूसरे मामलों में सम्मानित अदालतों ने मुस्लिम युवाओं को बाइज्जत रिहा करके जांच एजेंसियों की भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिए। 3 दिसम्बर को विभिन्न सियासी पार्टियों के 16 सांसदों के एक पतिनिधि मंडल ने पधानमंत्री से मुलाकात कर उनका ध्यान मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी, कमजोर, मुकदमों, उनके साथ सख्त रवैया और बाइज्जत बरी होने के बावजूद उनके साथ सौतले व्यवहार की ओर दिलाया। पधानमंत्री ने गृहमंत्री एवं गृहसचिव को बुलाकर उनसे बात करने और एक मेकानिज्म तैयार करने का आश्वासन दिया है और अभी तक आश्वासन से आगे बात नहीं बढ़ सकी है। अब इस सरकार को कौन समझाए कि मुस्लिम युवकों की रिहाई भी इसके चुनावी हित में है।
`एफडीआई और मुस्लिम अल्पसंख्यक' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' में मोहम्मद सिबगत उल्ला नदवी ने लिखा है कि क्या देश के मुसलमान भी इससे पभावित होंगे, इस बाबत कोई भी कुछ कहने को तैयार नहीं है। खुद मुसलमान भी इस पहलू से नहीं सोच रहे हैं। जब समाज का हर वर्ग सरकारी फैसले को अपने फायदे और नुकसान की दृष्टि से देख रहा है तो मुसलमान सोते रहते हैं और जब उन फैसलों के खतरनाक पभाव उन पर पड़ते हैं और उन्हें नुकसान होता हुआ दिखाई देता है तो उन्हें अफसोस करने का मौका भी नहीं मिलता है। जैसा कि सरकारी नौकरियों में इनकी हिस्सेदारी का हुआ। आजादी के समय सरकारी नौकरियों में इनकी जो हिस्सेदारी 35 फीसदी थी वह योजनावद्ध तरीके से घटते-घटते लगभग 2.5 फीसदी हो गई तो अब जाकर इनकी आखें खुली हैं लेकिन इस नुकसान की भरपाई की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है। मुसलमानों के लिए पाइवेट सेक्टर के दरवाजे भी बंद करने की साजिश हो रही है। मुसलमानों के सामने नौकरी के अवसर कम हैं इनके सामने छोटे कारोबार करना और खुद को रोजगार से जोड़ना मजबूरी है। सच्चर कमेटी ने भी यह बात कही है कि मुसलमानों का अनुपात नौकरियों के मुकाबले खुद के रोजगार में ज्यादा है। पैसे की कमी से वह बड़ा कारोबार नहीं कर सकते। इसके लिए रिटेल कारोबार से जुड़े हैं। एफडीआई से संभव है कि कुछ रोजगार मिल जाए लेकिन बेरोजगार वालों का फीसदी ज्यादा होगा, बहुत से किसान भी मुसलमान हैं उनको भी नुकसान पहुंच सकता है।

प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद क्या मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी रुकेगी?


बाबरी मस्जिद गिराए जाने के 20 वर्ष बाद लगभग सभी उर्दू अखबारों ने इस पर विशेष रिपोर्ट प्रकाशित की और सम्पादकीय लिखे। दैनिक `सहाफत' में अतहर सिद्दीकी ने अपने विशेष लेख `परदे सियासत पर अगर शहाबुद्दीन न होते तो बाबरी मस्जिद शहीद नहीं होती' में स्थिति की समीक्षा की है। साथ ही उनके द्वारा नरेन्द्र मोदी को माफी दिए जाने पर लिखा है कि किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह दंगा पीड़ितों की ओर से उस अत्याचारी व्यक्ति को माफ करे। शहाबुद्दीन साहब। खुदा के लिए ऐसा फलस्फा आप मुस्लिम कौम को न पढ़ाएं जिसमें दूसरी बार बाबरी मस्जिद को शहीद करने का संदेह मौजूद हो। इसी अखबार ने बाबरी मस्जिद मुकदमे के संदर्भ में तीन किस्तों में सूरतेहाल को स्पष्ट कर बताया है कि मुकदमों में देर भी है और अंधेर भी। सीबीआई ने 9 फरवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट में अपील कर मांग की है कि हाई कोर्ट के इस आदेश को निरस्त करते हुए आडवाणी सहित 21 आरोपियों के खिलाफ बाबरी मस्जिद गिराने का षड्यंत्र और अन्य धाराओं में मुकदमा चलाया जाए। अभी इस अपील पर सुनवाई होनी है। मुकदमा चलने के बाद सबूत न होने के कारण बहुत से अपराधी छूट जाएंगे, वह अलग बात है लेकिन अभी यही तय नहीं हो रहा है कि किस आरोपी के खिलाफ किस-किस सेक्शन में कहां मुकदमा चलाया जाएगा। अब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से कौन पूछेगा कि अदालतों में यह देर अंधेर नहीं तो फिर क्या है?
दैनिक `इंकलाब' में सईद अहमद खां ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद मुंबई दंगों के पीड़ितों पर चर्चा करते हुए लिखा है कि 20 साल बाद भी इंसाफ का रास्ता देख रहे हैं। मुंबई दंगा पीड़ितों के जख्म आज भी हरे हो जाते हैं जब 6 दिसम्बर आता है। पीड़ितों को सबसे ज्यादा शिकायत पुलिस और सरकार से है। उनके अनुसार एक तरफ जहां पुलिस ने दंगों के दौरान दंगाइयों की भूमिका निभाई, वहीं सरकार ने भी इनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की है। जिसकी वजह से पीड़ितों को आज तक न्याय नहीं मिला और उन पर भय छाया हुआ है। `बाबरी मस्जिद घटना' पर इसी अखबार ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बहुत से लोग गंभीरता के साथ ही यह सुझाव देते हुए मिलते हैं कि मुसलमान बाबरी मस्जिद घटना को भूल जाएं और शिक्षा एवं रोजगार द्वारा उस सामूहिक परिवर्तन को पकड़ें जो उन्हें इस देश में ज्यादा प्रभावी बना सकता है। जहां तक इस पहले सुझाव का मामला है कि मुसलमान बाबरी मस्जिद को भूल जाएं, तो यह संभव नहीं है क्योंकि बाबरी मस्जिद देश में लोकतंत्र और भाईचारे का एक अहम प्रतीक थी। इस घटना ने मुसलमानों को ही नहीं देशवासियों को भी झिझोड़ कर रख दिया था। यह सेकुलरिज्म पर विश्वास रखने वाले, देश के हर नागरिक का मसला है। इस बुनियाद पर यह भी कहना गलत न होगा कि यदि मुसलमान उसे भूल जाएं तब भी यह घटना भूली नहीं जा सकती। दूसरा सुझाव सौ फीसदी सही है कि मुसलमान शैक्षिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन से निजात हासिल कर जिंदगी की दौड़ में न केवल आएं बल्कि खुद को भी मनवाएं।
दारुल उलूम देवबंद में भारतीय दर्शन के शिक्षक एवं जमीअत उलेमा हिन्द के प्रवक्ता मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी ने आरएसएस के चेन्नई में हुए तीन दिवसीय सम्मेलन पर चर्चा करते हुए लिखा है कि आरएसएस के सिलसिले में यह बताने की जरूरत नहीं है कि उसकी सभी बुनियादें नकारात्मक और प्रयास का निशाना देश के एक विशेष वर्ग का उत्थान और उसे सत्तासीन बनाना है, जिसे वह हिन्दू राष्ट्र का नाम देता है। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में आयोजित हुई इस बैठक के पहले सेशन में असम की हिंसा के शीर्षक से बंगलादेशी घुसपैठियों की चनौती को देशव्यापी स्तर पर बताने की कोशिश की गई है। इससे जाहिर है कि राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ बहुसंख्यक में घृणा और संदेह पैदा करने का और रास्ता खुलेगा। पुलिस प्रशासन की भी इसमें पूरी मदद मिलेगी, जैसा कि आज तक देखा गया है। घृणा, हिंसा और संदेह के माहौल में जहां संघ को बहुसंख्यक समाज के संरक्षण के तौर पर पेश करने का मौका मिल जाता है वहीं आतंक के शिकार इसे अपनी पनाहगाह समझते हुए इसके करीब आ जाते हैं और यही आरएसएस की कामयाबी है। आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र`आर्गनाइजर' के सम्पादकीय, डॉ. प्रवीन तोगड़िया का स्तम्भ और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के चेन्नई अधिवेशन की पूर्ण रिपोर्ट से संघ के इरादों का पता चलता है। इस सिलसिले में हमें नहीं मालूम कि हमारा नेतृत्व किस हद तक संघ के मामले को गंभीरता से लेते हुए आने वाले दिनों में रणनीति बनाकर ऐसा काम करेंगे जिससे मुल्क व मिल्लत दोनों को फायदा हो।
मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी को लेकर समाजवादी पार्टी नेता प्रोफेसर राम गोपाल यादव की अगुवाई में संसद में मुद्दा उठाने और इसके चलते संसद की कार्यवाही तीन बार रोकनी पड़ी, जबकि इसके एक दिन पूर्व 3 दिसम्बर को लोक जन शक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम विलास पासवान की अगुवाई में 16 सांसदों के एक प्रतिनिधि मंडल ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से मुलाकात कर उन्हें एक ज्ञापन दिया। इन सांसदों ने जांच एजेंसियों सीबीआई, पुलिस और अन्य एजेंसियों द्वारा मुस्लिम युवाओं की लगातार हो रही गिरफ्तारियों पर चिन्ता व्यक्त की। इस पर प्रधानमंत्री ने उन्हें भरोसा दिलाया कि आतंकी मामलों में पारदर्शिता और ईमानदारी से काम लिया जाएगा। दैनिक `हमारा समाज' ने `विश्वास दिलाने से कुछ नहीं होगा' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में  लिखा है कि सवाल यह पैदा होता है कि इन मुस्लिम युवाओं को कब तक इंसाफ मिलेगा और प्रधानमंत्री ने जो विश्वास दिलाया है, उस पर किस समय अमल किया जाएगा। हकीकत यह है कि ऐसी यकीनी दहानी अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमानों के बारे में कराई जाती रही हैं लेकिन उसके बाद हमारे देश के नेता यह भूल जाते हैं कि हम ने कब किस से क्या वादा किया था। समाजवादी पार्टी की मांग पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने आकर कोई बयान नहीं दिया जबकि संसद की कार्यवाही को तीन बार स्थगित करना पड़ा। राज्यसभा में मुस्लिम युवाओं की रिहाई के सिलसिले में नारे लगाए गए लेकिन हमें अब भी सरकार की नीयत साफ नजर आती और हमें नहीं लगता कि इस तरह की यकीन दहानी के बाद बेगुनाह मुसलमानों की गिरफ्तारियों पर रोक लग जाएगी।
अरविन्द केजरीवाल द्वारा `आम आदमी पार्टी' के नाम से सियासी पार्टी के गठन पर सहरोजा `दावत' के सम्पादक परवाज रहमानी ने विख्यात स्तम्भ `खबरो नजर' में चर्चा करते हुए लिखा कि आम आदमी पार्टी के संस्थापक के अब तक बयानात और विचारों से यह धारणा गलत न होगी कि वह अपने प्रयासों में ईमानदार हैं। भ्रष्टाचार से परेशान हैं और उसे हर कीमत पर खत्म करना चाहते हैं। थोड़ा जज्बाती आदमी  हैं लेकिन आदमी काम के हैं। इसलिए उन्हें याद दिलाना उचित मालूम होता है कि वह बातचीत याद करें जो गत वर्ष जमाअत इस्लामी हिन्दू मुख्यालय में अमीर जमाअत मौलाना जलालुद्दीन उमरी ने उनसे की थी, जब वह अपनी टीम के साथ जमाअत मुख्यालय विचार-विमर्श के लिए आए थे। अमीर जमाअत ने उनकी टीम से कहा था कि भ्रष्टाचार सहित सभी बुराइयों पर काबू अल्लाह के सामने जवाबदेही की धारणा के बिना संभव नहीं है। अरविन्द ने स्वीकार किया कि फिलहाल यह पहलू हमारे सामने नहीं है। अब उन्हें इस पर जरूर विचार करना चाहिए। काम देखने में मुश्किल है लेकिन अगर समझ में आ जाए तो भ्रष्टाचार पर रोक का सबसे आसान रास्ता भी यही है।
थ�e � � � ��{ Р� � हो सकती है और क्या जो दल पायः सभी दल-वर्ग विशेष का मत पाने की आंकांक्षा में उससे दूरी बनाये हुए हैं-वे सरकार बनाते समय संयुक्त मोर्चा बनाने की दिशा में जाकर कांग्रेस के समर्थन से सरकार चलायेंगे। पिछले डेढ़ दशक में जो राजनीतिक नियत उतरकर सामने आई है उससे किसी पतिबद्धता की सांवना का आंकलन करना दिवास्वप्न देखने के समान ही होगा। लेकिन एक बात को-उत्तर पदेश के संदर्भ में- समझ लेना आवश्यक है वह यह कि मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व के समय 1989 में जनता दल का विभाजन होने के बाद उनकी सरकार के समर्थन में जब कांग्रेस खड़ी हुई तो वे अल्पमत में थे। उनकी सरकार कांग्रेस के सहारे कुछ महीने चली नारायण दत्त तिवारी विपक्ष के नेता थे। मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह से सरकार चलायी वह वैसी ही थी जैसे आज अखिलेश की सरकार चल रही है। फलतः 1991 के चुनाव में विधानसभा में चौथे नंबर का सिर्फ 31 सीटें मिल पायी थी और कांग्रेस तब से उत्तर पदेश में राजनीति की मुख्यधारा से बाहर है। नारायण दत्त के नेतृत्व में मुलायम सिंह की सरकार को समर्थन न मुलायम सिंह के लिए शुभ रहा और ना ही कांग्रेस के लिए। नारायण दत्त तिवारी का ``आर्शीवाद'' वैसा ही जैसे विधान परिषद में स्थान पाने के लिए जे.ए. अहमद का कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ मुलायम सिंह की शरण में जाना। लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिला। तिवारी जी सुर्खियों में बने रहने के लिए चाहे जो उपकम करें। अब उनको जे.ए. अहमद की स्थिति पाप्त हो गई है। आज की राजनीति अवसरवादिता और सत्ता सुख भोगने का साधन मात्र होकर रह गई है इसलिए किसी भी चुनाव के बाद कोई पार्टी किस करवट बढ़ेगी इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती।

मोदी की माफी पर मुस्लिम जमाअतों की नाराजगी


ज्वाइंट कमेटी आफ मुस्लिम आर्गनाइजेशन फार इम्पावरमेंट के संयोजक एवं पूर्व सांसद सैयद शहाबुद्दीन द्वारा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को लिखे पत्र पर मुस्लिम जमाअतों ने एक स्वर में इसकी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे निरस्त कर दिया। मोदी को लिखे पत्र में सैयद शहाबुद्दीन ने लिखा कि गुजरात नरसंहार के लिए मोदी माफी मांगें और गुजरात विधानसभा चुनाव में 20 सीटें मुसलमानों को दें। गुजरात पीड़ितों को 1984 के सिख दंगों की तरह मुआवजा देने, बेघर हुए परिवारों का पुनर्वास और सुरक्षा, दंगों में तबाह होने वाले लगभग 300 धार्मिक स्थलों का दोबारा निर्माण, दंगों के लिए जेल में सजा काट रहे आरोपियों की बिना शर्त रिहाई। जमीअत उलेमा हिन्द, जमाअत इस्लामी हिन्द, आल इंडिया मिल्ली काउंसिल और आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत जैसे बड़े संगठनों ने सैयद शहाबुद्दीन के इस पत्र से खुद को अलग करते हुए कहा कि यह उनका व्यक्तिगत बयान था और इस बाबत हम लोगों से कोई मशविरा नहीं किया गया और न ही हमने सैयद शहाबुद्दीन को इस बात का अधिकार दिया था कि वह कोई फैसला करें। जमीअत प्रवक्ता अब्दुल हमीद नोमानी ने कहा कि ज्वाइंट कमेटी के तहत जो बैठक हुई थी वह आरक्षण के मुद्दे पर थी और इस पर सभी मुस्लिम संगठनों की सहमति थी। लेकिन अब जो पत्र लिखा गया है उसका इससे कोई संबंध नहीं है वह राजनीति से प्रेरित है। आल इंडिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव डा. मोहम्मद मंजूर आलम ने तो आधिकारिक तौर से सैयद शहाबुद्दीन को पत्र भेजकर ज्वाइंट कमेटी आफ मुस्लिम आर्गनाइजेशन फार इम्पावरमेंट को भंग करने की मांग की है। विवाद उठते देख सैयद शहाबुद्दीन ने सफाई देते हुए कहा कि आफिस क्लर्प की गलती से ज्वाइंट कमेटी के लैटरपैड पर यह पत्र चला गया। चूंकि यह सब गलती में हुआ है इसलिए अब यह बात खत्म हो जानी चाहिए।
दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील सम्शी ने `मोदी को माफी का ड्रामा' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा कि गुजरात चुनाव से पूर्व मोदी को माफी दिए जाने का ड्रामा शुरू हो गया है। कुछ मुस्लिम संगठनों की ओर से मोदी को माफी दिए जाने की सोची-समझी मुहिम शुरू करने का मकसद हमारी समझ से बहुत दूर की प्लानिंग है, क्योंकि मोदी को माफ किए जाने या न किए जाने का गुजरात चुनाव पर कोई विशेष प्रभाव होने वाला नहीं है। वहां इससे पूर्व दो बार चुनाव हो चुके हैं और मोदी को चुनाव जीतने में कोई परेशानी नहीं हुई, न तो उनको मुसलमानों की कोई चिंता थी और न उनको रिझाने की कोशिश मोदी ने की। दोनों चुनाव में कोई ऐसा नारा नहीं दिया गया था कि मोदी को मुसलमान कट  कर दें। न तो भाजपा ने मुसलमानों से कहा और न मोदी ने कभी यह चाहा कि मुसलमान गुजरात दंगों के लिए मोदी को माफ कर दें। कुछ मुस्लिम संगठनों के दिल में मोदी की जो मोहब्बत जागी है, इसका कोई कारण दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसलिए आम मुसलमान को यही लग रहा है कि इन संगठनों और भाजपा के बीच कोई बहुत बड़ी डील हुई है।
`शहाबुद्दीन बनाम नरेन्द्र मोदी' के शीर्षक से दैनिक `जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि साप्ताहिक `नई दुनिया' के सम्पादक शाहिद सिद्दीकी के बाद सैयद शहाबुद्दीन ऐसे लोकप्रिय मुस्लिम नेता हैं जिन्हें मोदी की मोहब्बत में तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ रहा है। नरेन्द्र मोदी फिलहाल गुजरात के चुनावी दंगल में हैं। अखबारी रिपोर्टों पर विश्वास किया जाए तो वह एक बार फिर गुजरात में भाजपा की सरकार को सत्ता में ला रहे हैं, बात सिर्प इतनी-सी नहीं है। मोदी की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर भी है और जब तक उनकी छवि सही नहीं होगी तब तक वह इस कुर्सी पर नहीं पहुंच सकते। मोदी की छवि को सही करने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि किसी तरह मुसलमानों को खींचतान कर उनकी झोली में डाल दिया जाए। आश्चर्यजनक बात यह है कि इस काम को मुसलमानों के ऐसे नेता और पत्रकार अंजाम दे रहे हैं जिन्हें एक समय में मुसलमानों का बड़ा विश्वास हासिल रहा है। इसे मुस्लिम कौम का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाएगा।
समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखने पर चर्चा करते हुए दैनिक `सियासी तकदीर' में जावेद कमर ने अपनी समीक्षा में लिखा है कि चुनावी घोषणा पत्र में मुलायम सिंह ने मुसलमानों से बड़े वादे किए थे लेकिन हमें बहुत अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि अब तक एक भी वादा पूरा नहीं हुआ।
एक अहम वादा आतंकवाद के झूठे आरोप में बंद मुस्लिम युवाओं की रिहाई का था। यह मामला अब अदालत तक जा पहुंचा है जिसने राज्य सरकार पर तीखे कटाक्ष किए हैं। आठ महीनों के दौरान दो और मुस्लिम युवाओं को राज्य में आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है।
अब इस तरह की बात भी सामने आ रही है कि मुस्लिम विरोधी अधिकारियों को पदोन्नति दी जा रही है। लखनऊ में रिहाई मंच के एक धरने को सम्बोधित करते हुए पूर्व सांसद और सीपीआईएम नेता सुभाषनी अली ने आरोप लगाया कि 1992 में कानपुर में हुए दंगों के दौरान एसएसपी रहते जिस एसी शर्मा ने खुलेआम दंगाइयों को संरक्षण दिया और जिसकी जांच के लिए आईएस माथुर आयोग गठित किया गया था उसे डीजीपी बना दिया गया। अखिलेश सरकार ने मांग के बावजूद नमेश आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया। सरकार ने आईबी की रिपोर्ट को भी गंभीरता से नहीं लिया जिसमें कहा गया था कि राज्य में सांप्रदायिक दंगे हो सकते हैं। तो क्या समाजवादी भी मुसलमानों को भयभीत कर उनका वोट लेना चाहते हैं?
`कांग्रेस का चुनावी हथकंडा ः कैश फार वोट' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यूपीए सरकार ने 2014 लोकसभा चुनाव की तैयारियां जोरशोर से शुरू कर दी हैं। वह अपने पुराने और आजमाए हुए फार्मूले पर काम करने जा रही है। केंद्र सरकार ने अपनी वोटें पक्की करने के लिए गरीबों को सीधे पैसे देने का फैसला किया है। कांग्रेस पार्टी को उम्मीद है कि जब सीधे लोगों के खाते में पैसा जमा होगा तो वह सारे घोटालों, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, बिजली, पानी, कानून अव्यवस्था सब को भूल जाएंगे और कांग्रेस पार्टी को 2014 के चुनाव में वोट दे देंगे। ऐसा संभव भी हो सकता है और नहीं भी। यूपीए सरकार की योजना सफल हुई तो देश में सब्सिडी का स्वरूप 2013 के अंत तक पूरा ही बदल जाएगा। लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं है, पेचीदगियों से भरा हुआ है। सब्सिडी के कैश ट्रांसफर यानि लाभार्थियों को सीधे नकद सहायता देने की योजना में राजनीतिक जोखिम भी है। ब्राजील के उदाहरण से यह कहा जाने लगा है कि नकद सब्सिडी सत्तारूढ़ दल को चुनावी फायदा पहुंचा सकती है। अनेक सामाजिक संगठनों ने नकद सब्सिडी को लेकर कई अंदेशे जताए हैं। इसमें सबसे अहम सवाल यह है कि गरीबों को नकद सब्सिडी देने  से यह कैसे सुनिश्चित किया जा सकेगा कि इसका मकसद के अनुरूप ही इस्तेमाल होगा?
`एफडीआई ः सरकार का नया आत्म विश्वास' के शीर्षक से हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `ऐतमाद' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि एफडीआई पर करुणानिधि के फैसले से कांग्रेस को बड़ी राहत मिली है जबकि दूसरी दो पार्टियां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जो बाहर से सरकार का समर्थन कर रही हैं, ने सरकार को बचाने का फैसला किया है। भाजपा और वाम मोर्चे की पार्टियों ने सरकारी नीतियों का सामूहिक रूप से विरोध किया है और चाहती हैं कि इस मुद्दे पर वोटिंग हो। इस मकसद के लिए इन जमाअतों ने संसद की कार्यवाही को ठप कर रखा है। सरकार बहस के लिए तैयार है। बहस के बाद वोटिंग होगी या नहीं, यह फैसला यूपीए ने स्पीकर के विवेकाधिकार पर छोड़ या है।