Monday, November 26, 2012

बाल ठाकरे और मुसलमान


अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बर्मा दौरे पर चर्चा करते हुए दैनिक `जदीद मेल'ने अपने सम्पादकीय में लिखा है। उनके पहले शासनकाल में उनके प्रशासन की विदेश नीति का केंद्र मध्य पूर्व और अफगानिस्तान बने हुए थे लेकिन मालूम होता है कि अब उनके लिए एशिया बहुत अहम रहेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा केवल छह घंटे तक जारी रहा लेकिन फिर भी यह बहुत अहम है। गत वर्ष तक बर्मा विश्व बिरादरी में आलोचना का निशाना बना रहा और वह फौजी शासन एवं मानव अधिकार उल्लंघन के कारण नापसंद और अलोकतांत्रिक देश माना जाता था। ओबामा प्रशासन का कहना है कि इस दौरे का मकसद उन लोकतांत्रिक सुधारों का समर्थन करना है जो राष्ट्रपति थेन सेन ने बर्मा में शुरू की है लेकिन एक और मकसद यह भी है जिसका जिक्र नहीं किया जाता, वह है बर्मा में चीन के बढ़ते असर को कम करना। बर्मा और चीन के संबंधों का इतिहास बहुत अच्छा नहीं रहा है और दोनों के बीच हथियारों के बेचने और चीनी निवेश पर आधारित रहा है। दौरे की आलोचना करने वालों का यह भी कहना है कि शायद यह दौरा समय से पहले किया गया है। क्योंकि सुधार की प्रक्रिया पिछले साल से ही शुरू हुई थी और इस पर अमेरिका अपने लिए कोई विशेष मांग नहीं मनवा सका। बर्मा सरकार ने कुछ दिन पूर्व 452 कैदियों को माफी देने की घोषणा की थी लेकिन इनमें वह लोग शामिल नहीं हैं जिनको सियासी बुनियाद पर कैद किया गया है। `बर्मा की सरकार ने कुछ कैदियों को रिहा किया है जिनमें कोई सियासी कैदी शामिल नहीं। यह तो दौरे के लिए कोई अच्छी शुरुआत नहीं।' बर्मा में सत्ता और सियासी सुधार के बारे में अब भी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है। फौज की भूमिका कितनी कम हो सकी है, बर्मा के वर्तमान राष्ट्रपति सुधार के प्रति कितना गंभीर हैं, इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है।
बर्मा में मुसलमानों के नरसंहार के हवाले से दैनिक `जदीद मेल' ने `ओबामा का म्यांमार का दौरा' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बराक ओबामा ने म्यांमार के दौरे के दौरान कहा कि रोहगनियां मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल किया जाना चाहिए। निसंदेह उनके इस बयान से मुसलमानों को हार्दिक सुकून मिला होगा लेकिन गत चार वर्ष का अनुभव कहता है कि ओबामा मुसलमानों के हक में हमदर्द साबित नहीं हुए और इनकी कथनी करनी से मुसलमानों को मायूसी हाथ लगी है। गत चार साल के शासनकाल में ओबामा ने सबसे बड़े आतंकी देश इजरायल को फलस्तीनी मुसलमानों की हत्या करने की खुली छूट दे रखी है जब-जब इजरायल को घेरने की कोशिश की गई। अमेरिका वीटो कर गया और फलस्तीन मामला वहीं का वहीं उलझा रहा। गत एक सप्ताह से फिर इजरायली हमलों में तेजी आ गई है। ओबामा से जब फलस्तीनी मुसलमानों के बारे में कोई आशा नहीं की जा सकती तो फिर इनके इस बयान पर किस तरह विश्वास किया जा सकता है कि म्यांमार  में रोहगनियां मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल किया जाए। अपने चार वर्षीय शासनकाल में अपनी कथनी और करनी से अब तक यह साबित नहीं किया गया है कि वह मुसलमानों के हमदर्द हैं।
`इजरायल बनाम हमास लड़ाई खतरनाक मोड़ पर' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मध्य पूर्व एशिया में गाजा पट्टी और इजरायल में पिछले कई दिनों से लड़ाई खतरनाक स्थिति में पहुंचती जा रही है। गत दिनों फलस्तीनी चरमपंथियों ने यरुशलम पर राकेट से हमला किया। फलस्तीनी संगठन हमास ने कहा कि इस राकेट का निशाना इजरायली संसद थी। पिछले कई दशकों में यह पहली बार है कि यरुशलम को निशाना बनाया गया और गाजा पट्टी से इस तरह का यह पहला हमला था। पिछले कई दिनों से हमास तथा इजरायल की तरफ से एक-दूसरे को निशाना बनाया जा रहा है और दोनों ही यह स्वीकार भी कर रहे हैं कि अंतर बस इतना है कि इजरायल डिफेंस फोर्स (आईडीएफ) इसे आतंकी ठिकानों पर किया गया हमला बता रहा है और हमास सहित अरब दुनिया या उससे जुड़े तमाम चरमपंथी संगठन इसे गाजा के निर्दोष लोगों के खिलाफ हमला मान रहे हैं। दोनों देशों द्वारा अपनाई जा रही गतिविधियों को देखते हुए यह कहना शायद गलत होगा कि इस स्थिति के लिए कोई एक दोषी है।
मुसलमानों के प्रति बाल ठाकरे का रवैया को लेकर दैनिक `जदीद खबर' में `बाल ठाकरे और मुसलमान' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बाल ठाकरे की पूरी जिंदगी मुसलमानों की देशभक्ति पर सवालिया निशान लगाते गुजरी। वह अक्सर ऐसे बयान दागा करते थे जो भारतीय दंड संहिता के तहत काबिले गिरफ्त होते थे। उन पर कई बार मुकदमे भी कायम हुए लेकिन कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका क्योंकि उन्होंने कानून का क्रियान्वयन करने वाली संस्थानों पर यह भय कर रखा था कि यदि पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई की तो पूरा महाराष्ट्र जल उठेगा। पुलिस और प्रशासन इसी भय से इनके खिलाफ कोई सख्त कदम नहीं उठा सके और इसी बुजदिली (कायरता) के नतीजे में बाल ठाकरे लॉ एंड आर्डर की मशीनरी पर हावी हो गए। बाल ठाकरे शिवसेना मुख्य पत्र `सामना' में भी अपने सम्पादकीय में अक्सर मुसलमानों के खिलाफ अंतिम स्तर की भड़काऊ लेखनी लिखा करते थे, यह उनकी सियासी मजबूरी थी क्योंकि उन्होंने अपनी सांप्रदायिकता की राजनीति से जिन लाखों शिव सैनिकों की फौज तैयार की थी उसकी मानसिक खुराक और हरारत बाला साहब के उत्तेजित बयान और भड़काऊ लेखनी से ही मिलती थी। दिलचस्प बात यह है कि मुसलमानों से दुश्मनी के बावजूद उन पर विश्वास भी करते थे। जिस समय उन्होंने अंतिम सांस ली तो उनके पास जो डाक्टर मौजूद था उसका नाम डॉ. जलील पारकर था। डॉ. जलील बाल ठाकरे का पांच साल से इलाज कर रहे थे और इनके परिवार को डॉ. जलील पर बड़ा भरोसा था। डॉ. जलील ठाकरे के साथ  दशहरे की पारंपरिक रैली में मंच पर मौजूद रहते थे ताकि आपातकाल स्थिति में उन्हें चिकित्सा सहायता पहुंचा सकें।
`कसाब को फांसी' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि फांसी दिए जाने के लिए ऐसा समय चुना गया जिसके सियासी पहलू को देखने के लिए किसी मैगनीफाइट ग्लास की जरूरत नहीं है। कसाब को फांसी 21 नवम्बर को दी गई, संसद का अधिवेशन 22 नवम्बर से शुरू हो रहा है। इसका मतलब यह है कि संसद के अधिवेशन का पहला दिन बहुत दिलचस्प होगा। इस दिन सरकार के खिलाफ या तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता और यदि कहा जा सकता है तो अच्छा ही कहा जा सकता है। कम से कम इस मुद्दे पर विपक्ष सरकार पर हमला नहीं कर सकता। विपक्ष के पास केवल एक मुद्दा अफजल गुरु की फांसी की मांग का रह गया, वह भी कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने छीन लिया है। इससे पहले कि कोई और अफजल गुरु का मामला उठाए, उन्होंने खुद ही उसकी फांसी की मांग कर दी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अजमल कसाब की फांसी से कांग्रेस आमतौर से और महाराष्ट्र कांग्रेस विशेष रूप से फायदा उठाने की कोशिश करेगी। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की मौत के बाद जो सियासी गैप पैदा हो गया, उसे भरने के लिए जनहित में कुछ लोकप्रिय कदम उठाए जाएं। अजमल कसाब को फांसी दिया जाना ऐसा ही कदम है क्योंकि इसकी फांसी की मांग केवल सियासी पार्टियां ही नहीं, वह लोग भी कर रहे थे जिनके अपने 26/11 हमले में मारे गए थे।

Sunday, November 18, 2012

क्या है इस्लामोफोबिया, कौन है इसके पीछे?


इस्लामोफोबिया पर विश्वस्तरीय चर्चा के बीच साप्ताहिक `नई दुनिया' ने `क्या है इस्लामोफोबिया? कौन है इसके पीछे?' के शीर्षक से एक विशेष अंक प्रकाशित किया है। इस अंक में उपरोक्त विषय पर विस्तृत चर्चा की गई है। वास्तव में 1990 के बाद इस्लामोफोबिया के ऊपर उठने का सबसे अहम कारण सोवियत यूनियन का बिखरना है। सोवियत यूनियन बिखर गया तो पश्चिम ने समझ लिया कि अब मुकाबला मुसलमानों से होगा और इस्लाम ही सबसे बड़ा खतरा होगा। पश्चिम ने इस्लाम को निशाना बनाया। इसी दौरान सोवियत यूनियन के जिहाद में ओसामा बिन लादेन आ चुका था। बाद में अमेरिका के खिलाफ उठ खड़ा हुआ और पश्चिम की इस्लाम दुश्मनी के लिए ओसामा बिन लादेन सबसे बड़ा बहाना बना। सभ्यताओं के टकराव के विषय पर बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों और समीक्षाकारों ने उस समय यह दावा किया था कि इस्लाम और पश्चिम में खूनी टकराव बाकी है। इसे प्रचारित किया गया और इस पर अरबों डालर खर्च किए गए। जब इंटरनेट का दौर आया तो इंटरनेट पर इस्लामोफोबिया की जंग और ज्यादा बढ़ी। पश्चिम में इस्लामोफोबिया की मुहिम वास्तव में मुसलमानों की नई पीढ़ी की राह में रुकावटें पैदा करने की कोशिश है। 1997 में ब्रिटिश सरकार ने एक आयोग गठित किया जिसने ब्रिटिश मुसलमानों और इस्लामोफोबिया पर रिपोर्ट दी। रिपोर्ट के अनुसार इस्लामोफोबिया सब के लिए खतरनाक और ब्रिटेन के लिए चैलेंज है। इसके चलते ब्रिटेन में मुसलमानों को विभिन्न क्षेत्रों में भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। साफ जाहिर होता है कि इस्लामोफोबिया के पीछे कोई ग्रुप नहीं बल्कि सरकारें भी हैं, अन्यथा आयोग ने जिन बातों का जिक्र वास्तविकता की श्रेणी में किया है वह अलग होतीं। आज इस्लामोफोबिया, ब्रिटेन हो अमेरिका या फ्रांस सबके लिए खतरनाक है, यह सोच और दृष्टिकोण दुनिया को एक बड़ी जंग की ओर ले जा रहा है।
विख्यात अंग्रेजी साहित्यकार एवं नोबल सरकार पुरस्कार से सम्मानित वीएस नायपाल को मुंबई में लेटरेरी फेस्टिवल में `लाइफ टाइम एचीवमेंट अवार्ड' दिए जाने के खिलाफ मशहूर ड्रामा निगार और हिदायत कार गिरीश कर्नाड के मोर्चा खोलने और अवार्ड दिए जाने के विरोध के चलते जिस तरह पूरा मामला बहस में आ गया है उस पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब'  के सम्पादक शमीम तारिक ने अपने विशेष लेख `नायपाल और गिरीश कर्नाड' के शीर्षक से लिखा है कि इस बहस से हटकर कि अंग्रेजी उपन्यासकार वीएस नायपाल ने क्या लिखा और उनकी लेखनी में कौन से लेखनी फिक्शन की श्रेणी में आती है और कौन सी नहीं? या ड्रामा  निगार और हिदायत कार गिरीश कर्नाड ने लेटरेरी फेस्टिवल में नायपाल की जो आलोचना की वह किस तरह की थी, इस सवाल पर विचार किया जाना जरूरी है कि भारतीय सभ्यता को मुसलमानों ने कुछ दिया है या उसे बर्बाद किया है? गिरीश कर्नाड का दृष्टिकोण स्पष्ट है कि `नायपाल विदेशी हैं और उन्हें अपनी बात कहने की पूरी आजादी है लेकिन एक ऐसे व्यक्ति को पुरस्कार देने के लिए आखिर क्यों चुना गया जो भारतीय मुसलमानों पर धावा बोलने वाला, हमला करने वाला, लुटेरा, लूटमार करने वाला कहता है।' गिरीश कर्नाड ने बहुत सही कहा है कि पुरस्कार हासिल करने का मतलब यह नहीं है कि नायपाल को कुछ भी बोलने का हक हासिल हो गया हो।
`कुत्तों पर हुए हमलों के पीछे भी आतंकियों का हाथ' के शीर्षक से दैनिक `सियासी तकदीर' में `खबरों की खबर' स्तम्भ में जावेद कमर ने लिखा है कि अखबारी खबरों के मुताबिक गत कुछ महीने में मल्लापुरम (केरल) जिले में दर्जनों कुत्तों को निशाना बनाया गया है जिनमें से कुछ मर भी चुके हैं। इस मामले में पुलिस ने 6 मामले दर्ज किए हैं और 100 से अधिक लोगों से पूछताछ भी की है। आश्चर्यजनक बात यह है कि इंटेलीजेंस ब्यूरो ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि इन कार्यवाहियों में एक विशेष धार्मिक कट्टरपंथियों का हाथ हो सकता है। ताजा खबर यह है कि केरल पुलिस अब इसी रिपोर्ट की रोशनी में अपनी जांच आगे बढ़ा रही है। कुत्तों पर हमलों की घटनाएं ज्यादातर मुस्लिम बहुल क्षेत्र मल्लापुरम के गांव और कस्बों में हुई हैं। लेकिन पिछले दिनों इसी तरह की घटनाएं कोजीकोड और पुलकड़ जिलों में भी हुई हैं। तमिलनाडु की सीमा पर स्थित वयानंद जिले में ऐसे कम से कम 30 कुत्ते मिले हैं जिनकी गर्दनों पर तलवार के गहरे जख्म हैं। इसी बुनियाद पर यह खबरें फैलाई जा रही हैं कि केरल तमिलनाडु की सीमा पर जो घने जंगल हैं उनमें कहीं कट्टरपंथियों का प्रशिक्षण शिविर चल रहा है। तर्प दिया जा रहा है कि कुत्तों पर हमले प्रशिक्षण लेने वाले युवाओं से कराए जा रहे हैं ताकि उनके अंदर से भय निकल जाए और प्रशिक्षण के बाद जब वह बाहर निकलें तो उन्हें किसी की जान लेने में किसी प्रकार का संकोच न हो।
गुजरात विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी द्वारा बरेलवी मसलक के लोगों की बैठक करने पर दैनिक `हमारा समाज' में अमीर सलाम खां ने लिखा है कि यह मुसलमानों को कमजोर करने के लिए भाजपा का नया हथकंडा है, मसलक के नाम पर भिड़ाने की कोशिश है। सूत्रों के मुताबिक गुजरात के शहर गांधी नगर में बरेलवी मसलक के लगभग 45 विशिष्ठ व्यक्तियों के साथ नरेन्द्र मोदी ने एक अत्यंत गोपनीय बैठक की। इस बैठक में गुजरात के अतिरिक्त पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान से भी उलेमा, सज्जादा नशीन और दरगाहों के जिम्मेदारों को बुलाया गया था। लगभग डेढ़ घंटे तक यह बैठक चली। मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि बरेलवी पंत ही देश का वफादार है जिसकी कांग्रेस की ओर से लगातार अनदेखी हो रही है लेकिन अब  ऐसा नहीं होगा। बैठक के बाद ज्यादातर लोग इस बात को पचा नहीं पाए और एक बड़ी संख्या ने यह भांप लिया कि यह एजेंडा कहां से और क्यों लाया गया है। यह मुसलमानों को बांटने का वही एजेंडा है जो आरएसएस का है। बताया जाता है कि गुजरात विधानसभा चुनाव में इस बार मोदी अपने घर लगी आग से बहुत परेशान हैं जिसकी भरपाई वह मुसलमानों को बांट कर करना चाहते हैं।
उत्तर प्रदेश में आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार मुस्लिम युवकों को छोड़े जाने के फैसले पर दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय `किस कानून के तहत वापस लिए जा रहे हैं आतंकियों के मुकदमें' शीर्षक से लिखा है कि सपा के प्रदेश प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने कहा है कि आदेश देकर अखिलेश सरकार ने मुसलमानों के साथ किए गए चुनावी वादे को पूरा किया है। इनमें से ज्यादातर आरोपियों को 2007 में वाराणसी, गोरखपुर में हुए बम विस्फोट, रामपुर स्थित सीआरपीएफ कैम्प एवं लखनऊ, बाराबंकी और फैजाबाद में आतंकी हमले की साजिश में गिरफ्तार किया गया था। इनमें से कइयों ने अपनी गिरफ्तारी के औचित्य और स्थान को अदालत में चुनौती दे रखी है।
अखिलेश सरकार के इस फैसले पर प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। राजनीतिक दृष्टि से भी और न्यायिक दृष्टि से भी। भाजपा ने इस आदेश को वोट बैंक का तुष्टीकरण का उदाहरण करार देते हुए कहा कि यह कदम कानून व्यवस्था का गला घोंटने जैसा है। उधर इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रामपुर में सीआरपीएफ कैम्प पर हमला करने वाले आतंकियों से मुकदमा वापस लिए जाने पर प्रदेश सरकार से पूछा है कि वह किस कानून के तहत मुकदमे वापस ले रही है? अखिलेश सरकार के इस फैसले से सुरक्षा बलों के मनोबल पर असर पड़ सकता है।

ओबामा और उम्मीदें


अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में राष्ट्रपति बराक ओबामा के दोबारा चुनाव जीतने पर लगभग सभी उर्दू अखबारों ने खबरों के अलावा विशेष सम्पादकीय और लेख प्रकाशित किए हैं। दैनिक `इंकलाब' ने `ओबामा और उम्मीदें' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि ओबामा को यह जीत इसलिए हासिल हुई कि कांटे के इस मुकाबले में निर्णायक वोट उन अल्पसंख्यकों के थे जो हस्पानवी, लातीनी, अमेरिकी, एशियाई और मुस्लिम अमेरिकी कहलाते हैं। हस्पानवी अमेरिकियों ने उन्हें इसलिए वोट दिया कि ओबामा खुद भी हस्पानवी हैं। लातीनी अमेरिकियों ने उनके हाथ इसलिए मजबूत किए कि रोमनी अमेरिका के बहुसंख्यक वर्ग को लुभाने में लगे थे। एशियाई और मुस्लिम अमेरिकियों ने उन पर नए सिरे से इसलिए भरोसा किया कि मिट रोमनी इजरायल प्रेम में तेल  अबीब को ओबामा से ज्यादा सलामियां दाग रहे थे। अमेरिका के आम लोगों को ओबामा में गरीब और मध्यम वर्ग के हितों को साधने की इच्छा दिखाई दे रही थी जबकि रोमनी पूरी तरह पूंजीवादियों के हितों का संरक्षण करते दिखाई पड़ रहे थे। इन्हीं कारणों ने ओबामा की लाज रख ली और व्हाइट हाउस में चार साल और रहने को निश्चित किया। अमेरिकी कानून के मुताबिक कोई व्यक्ति दो ही बार राष्ट्रपति हो सकता है अर्थात् ओबामा को अब कोई अवसर नहीं मिलने वाला है, इसलिए अब उन्हें फैसला करना है कि इतिहास में किस तरह याद किया जाना पसंद करेंगे। न्यायप्रिय राष्ट्रपति या अपने पूर्व की तरह पक्षपाती, हिंसक और डिक्टेटर की हैसियत से।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `ओबामा को दोबारा चुनाव' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव अमेरकी जनता के लिए तो विशेष महत्व रखते ही हैं लेकिन गैर अमेरिकियों और दुनिया के दूसरे देश भी इन चुनावी नतीजों पर गहरी नजर रखते हैं क्योंकि व्हाइट हाउस में तब्दीली की सूरत में कई नीतियों की तब्दीलियों की संभावना पैदा हो जाती है। आशा की जा रही है कि अगले वर्षों में दुनिया में स्टेटेजिक लिहाज से बड़ी तब्दीलियां होंगी। अफगानिस्तान से अमेरिकी और नाटो फौज की वापसी, ईरान और मध्य एशिया के मामलात, चीन जापान विवाद, उत्तरी कोरिया से चल रहा विवाद, मध्य पूर्व में बेचैनी और गृहयुद्ध से लेकर अफ्रीकी देशों में बेचैनी की लहर तक कई समस्याएं हैं जो हल की इच्छुक हैं। यही कारण है कि दुनियाभर की निगाहें राष्ट्रपति चुनाव पर लगी थीं ताकि इनकी रोशनी में आगे आने वाली संभावित तब्दीली से निपटने की तैयारी की जा सके। लेकिन ओबामा की जीत से हालात ज्यूं का त्यूं रहने की आशा है। जहां तक इस्लामी जगत से अमेरिकी संबंधों का सवाल है। पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने न केवल गवानतामोबे कैद खाना बंद करने का वादा किया था बल्कि मिस्र की जामिया अजहर के ऐतिहासिक भाषण में अमेरिका और इस्लामी जगत के बीच बेहतर संबंधों का वादा किया था और एक स्वतंत्र फलस्तीन राज्य की स्थापना का सपना भी दिखाया था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके विपरीत उनकी हिंसक युद्ध नीतियों से इस्लामी जगत में नए महाज खुलने की शंकाएं बढ़ गई हैं।
दैनिक `जदीद मेल' ने `ओबामा का चुनाव' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के इतिहास पर चर्चा करते हुए लिखा है कि 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में जीत के बाद राष्ट्रपति बराक ओबामा गत सौ साल में दूसरी पारी के लिए निर्वाचित होने वाले 7वें अमेरिकी राष्ट्रपति बन गए हैं। 1912 से अब तक अमेरिका में कुल 17 राष्ट्रपति सत्तासीन रहे जिनमें से उनका संबंध रिपब्लिक और 8 का डेमोकेटिक पार्टी से था। इन 17 राष्ट्रपतियों में से फ्रेंकिलन डीरोज ओल्ट अकेले राष्ट्रपति हैं जिन्होंने चार बार अमेरिकी राष्ट्रपति की कमान संभाली। पूर्व में लगातार दो बार राष्ट्रपति बनने वालों में बिल क्लिंटन, जॉर्ज डब्ल्यू बुश और रोनाल्ड रीगन शामिल हैं।
गत सौ साल में दूसरी बार राष्ट्रपति बनने का पहला अवसर विल्सन को 1917 में मिला। इनके शासनकाल में प्रथम विश्व युद्ध हुआ इसके बाद संयुक्त राष्ट्र परिषद का गठन हुआ।  बराक ओबामा से पूर्व दो बार चुने जाने वाले आखिरी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश थे जो 2001 में राष्ट्रपति बने और 2009 में ओबामा के राष्ट्रपति बनने तक इस पद पर रहे। बुश शासन काल में सितम्बर 2001 में अमेरिका के शहर न्यूयार्प में होने वाले हमलों के बाद आतंकवाद के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय युद्ध हुआ और यही युद्ध इनके शासन का केंद्र रहा।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में सहारा न्यूज नेटवर्प के एडीटर एवं न्यूज डायरेक्टर उपेन्दर राय ने पहले पेज पर प्रकाशित अपने विशेष सम्पादकीय के तहत `यह उम्मीद की जीत है' में लिखा है कि भारत की बिजनेस कम्युनिटी को ओबामा की जीत से बहुत उम्मीदें नहीं जगी हैं। भारत की आईटी कम्पनियों को चिंता है कि आउटसोर्सिंग के विरोध में अमेरिका में फिर आवाज उठाई जाएगी। आईटी विशेषज्ञों को आसानी से वीजा नहीं मिलेगा और इसका असर उनके मुनाफे पर पड़ेगा। लेकिन मेरे विचार से यहां बहुत बड़ी चिंता की बात नहीं है। हिन्दुस्तान की आईटी कम्पनियों में इतनी मजबूती आ गई है कि वह इस तरह के चैलेंजों को बर्दाश्त कर सकें। वैसे ओबामा के चार साल के शासन काल में अमेरिका में अपनी आईटी कम्पनियों का कारोबार बढ़ा ही है और कोई कारण नहीं है कि अगले चार साल में ऐसा नहीं होगा। मेरे विचार से ओबामा को देसी आईटी कम्पनियों को महीन चश्मे से नहीं देखा जा सकता। यह सच है कि भारत के लिए उन्होंने कुछ भी अलग नहीं किया है लेकिन उनका यह अप्रोच रहा है। किसी की सीधी मदद करने के बजाय उसकी तरक्की के रास्ते में रुकावट न पैदा करना। दूसरों की आजादी और स्वायत्तता करना और उनका यही अप्रोच दूसरे अमेरिकी राष्ट्रपतियों से बहुत अलग करता है। ओबामा के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने पर हिन्दुस्तान पर क्या असर पड़ेगा। मेरे विचार से अच्छी बात यह है कि हमारे प्रधानमंत्री और अमेरिकी राष्ट्रपति की अच्छी कैमिस्ट्री है जिसका फायदा हमें मिलेगा और पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान में शांति व्यवस्था को बहाल करने की ओबामा की कोशिशें और तेज होंगी। अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश तेज होगी और इसके चलते हमारे देश में विदेशी निवेश का फ्लो बढ़ेगा।
दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `फिर `गधा' जीत गया' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में फिर गधा जीत गया और हाथी ने हार मान ली। अमेरिका में दो पार्टियों के बीच ही मुकाबला होता है क्योंकि यहां टू पार्टी व्यवस्था है जिसके तहत डेमोकेटिक पार्टी और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार आमने-सामने हुआ करते हैं। डेमोकेटिक पार्टी जिसके बारे में है कि वह खुले विचारों की है ने ओबामा को अपना उम्मीदवार बनाया और उनका चुनाव चिन्ह `गधा' था जबकि मिट रोमनी रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार थे जिसके बारे में अमेरिकियों का विचार है कि यह कट्टरपंथी हैं इनका चुनाव चिन्ह `हाथी' था। राष्ट्रपति जंग में `हाथी' `गधे' से हार गया। अमेरिका में गधे को मेहनत, धैर्य, प्रयास का प्रतीक माना जाता है जबकि हमारे यहां यही गधा बेवकूफी का प्रवक्ता कहलाता है। बहरहाल देखने की बात यह होगी कि बराक हुसैन ओबामा की दूसरी पारी किस गधे के गुणों के करीब होती है।

`बढ़ती महंगाई के कारण गरीब को दो वक्त की रोटी के लाले'


`बढ़ती महंगाई के कारण गरीब को दो वक्त की रोटी के लाले' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि डीजल के दामों में वृद्धि का असर अब महंगाई पर दिखने लगा है और बुरी खबर यह है कि महंगाई की मार से पस्त हो चुके आम लोगों को निकट भविष्य में भी इससे निजात मिलने की खास संभावना नहीं है। उलटे आशंका है कि डीजल और पेट्रोल के दाम और बढ़ाने की तैयारी हो रही है और खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतें अभी और बढ़ेंगी। कीमतों में हुई इस वृद्धि के बाद सितम्बर में थोक मूल्यों पर आधारित महंगाई दर 7.81 फीसदी पर पहुंच गई है। अगस्त में यह 7.55 फीसदी थी। एसोचैम के मुताबिक आठ महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थों जिनमें दालें, गेहूं, चीनी, खाद्य तेल और दूध शामिल हैं, के दाम सितम्बर 2011 से सितम्बर 2012 के मध्य तक 18 फीसदी बढ़े जबकि इसकी तुलना में औसत आय बमुश्किल 10 फीसदी बढ़ी है। उद्योग मंडल द्वारा अपने अध्ययन में यह रेखांकित करना महत्वपूर्ण है कि आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति पक्ष की कमजोरी महंगाई की भयावहता को बढ़ा रही है।
इसकी एक बड़ी वजह कमजोर मानसून को भी बताया गया लेकिन इसके निदान हेतु यदि कदम उठाए भी गए तो उसका नतीजा महंगाई पर कहीं नजर नहीं आया। हमारा मानना है कि इस संप्रग सरकार की प्राथमिकताएं सही नहीं हैं। इसका एक उदाहरण मौजूदा आर्थिक विकास माडल में कृषि क्षेत्र की हो रही लगातार अनदेखी है।
कौमी काउंसिल बराए फरोगे उर्दू जुबान (नेशनल काउंसिल फार प्रमोशन आफ उर्दू लैंग्वेज) की कार्यप्रणाली पर केके खुल्लर की आलोचना के बाद उर्दू मासिक आईटी `नई शनाखत' के  पूर्व सम्पादक फिरोज हाशमी ने काउंसिल पर टीका टिप्पणी करते हुए लिखा है कि 1998 में जब काउंसिल डायरेक्टर ने काउंसिल से प्रकाशित नूरुल लुगात (शब्द कोश) को इन पेज उर्दू साफ्टवेयर में शामिल करने को कहा था और उस समय इन पेज से संबंधित उर्दू का काम मेरे जिम्मे था, मेरे पास आया तो मैंने इसके अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला कि यह शब्द कोश विश्वस्तरीय उर्दू साफ्टवेयर इन पेज में शामिल करने लायक नहीं है। इस नोट के साथ मैंने इस शब्द कोश के चारों खंड काउंसिल को वापस कर दिए। काउंसिल आज तक खुद भी कोई गुणवत्ता वाला साफ्टवेयर तैयार नहीं कर सकी है जिससे उर्दू प्रकाशन में उल्लेखनीय फर्प आया हो। हद तो यह है कि इन पेज उर्दू के लिए उर्दू में जो मैनवेल हमने तैयार किया था उसे कई व्यक्ति और संस्थान किताबी शक्ल में छाप रहे हैं। खुद काउंसिल भी अपने छात्रों के लिए इन पेज की गाइड बुक तैयार नहीं कर सकी है। 2000 में यह बात सामने आई कि जिस व्यक्ति ने काउंसिल की नौकरी के दौरान इन पेज मैनवेल को काट छांट कर गाइड बुक तैयार की थी, वही इसे फिर से भुनाने की कोशिश कर रहा है। यदि वह गाइड बुक इतनी ही गुणवत्ता वाली थी तो काउंसिल ने एक संस्करण के बाद उसे दोबारा क्यों नहीं छापा और इन पेज के मैनवेल को छाप कर क्यों इस्तेमाल कर रही है?
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को ब्रिटेन और अमेरिका द्वारा वीजा दिए जाने के समाचार पर `सहरोजा दावत' ने पहले पेज पर प्रकाशित `दंगों के दाग धुले नहीं तो संबंधों की बहाली क्यों?' के शीर्षक से अपनी समीक्षा में लिखा है कि गुजरात में विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद ब्रिटिश सरकार ने 2002 के गुजरात दंगों को जो वास्तव मुस्लिम नरसंहार थे, को बाई-बाई करते हुए नरेन्द्र मोदी को गुड मार्निंग कहा है और नए सिरे से संबंध बनाने के लिए पैंगे बढ़ाई हैं। नरेन्द्र मोदी को अमेरिका या ब्रिटेन के दौरे का वीजा देने पर पाबंदी की मांग न तो हिन्दुस्तानी मुसलमानों ने की थी और न इस फैसले में उनकी कोई भूमिका थी। यह उन देशों का अपना फैसला था। इसलिए मुसलमान न तो पाबंदी पर खुश थे और न अब मुलाकातों पर दुखी। वह इस पहलू पर जरूर सोच रहे हैं कि दुनिया में अब भी सरकारी स्तर पर मानवता का सम्मान करने और नरसंहार को अपराध मानने वाले मौजूद हैं। उन्हें यदि अफसोस है तो केवल इस बात पर कि उनकी यह सोच गलत साबित हो रही है और वह इसे अपने साथ एक धोखा समझ रहे हैं। एक बड़ा सवाल यह है कि किस बुनियाद पर मोदी के दौरों पर पाबंदी लगाई गई और सरकारी स्तर पर इनसे दूरी बनाई गई और अब दस साल बाद किस बुनियाद पर उन्हें गले लगाया जा रहा है। न तो दंगों के दाग अभी तक धुले हैं और न ही दंगों के सभी मामलों में मोदी को क्लीन चिट दी गई है।
अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत की नाकामी पर साप्ताहिक `अल जमीअत' के सम्पादक  मोहम्मद सालिम जामई ने प्रथम पेज पर प्रकाशित अपने विशेष लेख में लिखा है कि अमेरिका तालिबान में दो ग्रुप बनाकर और एक ग्रुप को आगे बढ़ाकर दुनिया को यह बताना चाहता है कि वह अफगानिस्तान में अकेले जो चाहे कर सकता है लेकिन बातचीत की नाकामी ने इसके दावे की पोल खोल दी है और वह स्वयं अपनी ही चाल में फंस गया है। समाचार के अनुसार यह मालूम होता रहा कि किसी अज्ञात स्थान पर दोनों पक्षों के बीच बातचीत का सिलसिला चल रहा है। खुद अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट की प्रवक्ता विक्टोरिया नोलैंड ने भी इन खबरों की तस्दीक करते हुए कहा था कि तालिबान बातचीत की मेज पर लौट सकते हैं और अमेरिका तालिबान से बातचीत का समर्थन करता है। अमेरिका ने तालिबान की मांगों के अनुसार ग्वानतामो कैद खाने से इनके कुछ साथियों को भी छोड़ दिया था लेकिन अब ऐसा मालूम होता है कि बातचीत का यह सिलसिला अब बंद हो गया है और मामला एक बार वहीं पहुंच गया है जहां से शुरू हुआ था। ओबामा प्रशासन को भी यह स्वीकार करना पड़ा कि वह तालिबान को बातचीत जारी रखने पर मनाने में नाकाम हो गया है और अब कोई कदम राजनीतिक स्तर पर 2014 के बाद ही उठाया जा सकेगा जब यूरोपीय देशों की ज्यादातर फौज अफगानिस्तान से बाहर हो जाएंगी। तालिबान की बातचीत के लिए पहली शर्त यही थी कि पश्चिमी देश अपनी फौजें अफगानिस्तान से निकाल लें इसके बाद ही बातचीत हो सकती है।
डॉ. मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए मंत्रिमंडल में 17 नए चेहरों को शामिल किया गया है जिसमें चार मुस्लिम हैं और मुस्लिम मंत्री को उन्नति देकर उच्च पद पर पहुंचाया गया है। दैनिक `जदीद खबर' ने `केंद्रीय मंत्रिमंल में मुसलमान' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मंत्रिमंडल में नए मंत्रियों के शामिल होने के बाद अब मनमोहन सरकार में मुस्लिम मंत्रियों की संख्या बढ़कर आठ हो गई है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री का चार्ज सलमान खुर्शीद से लेकर राज्यसभा के पूर्व चेयरमैन के. रहमान खां को दिया गया है जबकि सलमान खुर्शीद को उन्नति देकर विदेश मंत्री का पद दिया गया। सलमान खुर्शीद स्वतंत्र भारत के इतिहास में इस पद पर पहुंचने वाले पहले मुसलमान हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में जिन तीन मुस्लिम मंत्रियों को शामिल किया गया है, उनमें तारिक अनवर एनसीपी कोटे से मंत्री बनाए गए हैं। अबु हाशिम खां चौधरी और असम की कबाइली मुस्लिम महिला रानी नारा का संबंध कांग्रेस पार्टी से है। मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में शामिल अन्य मुस्लिम मंत्रियों में गुलाम नबी आजाद, फारुख अब्दुल्ला और ई. अहमद के नाम शामिल हैं।
गुलाम नबी आजाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं जबकि फारुख अब्दुल्ला और ई. अहमद का संबंध नेशनल कांफ्रेंस और मुस्लिम लीग से है। लोकसभा और राज्यसभा में कुल मुस्लिम सांसदों की संख्या लगभग 50 के करीब है जो कि उनकी आबादी के अनुपात में कम है। इन मंत्रियों की असली परीक्षा उस समय होगी जब यह मुस्लिम समस्याओं पर गंभीरता का प्रदर्शन करें। यह सभी मंत्री पार्टी एजेंडे से बंधे हुए हैं लेकिन उन्हें अपनी छाप छोड़ने के लिए कुछ बेहतर प्रदर्शन करना होगा।

`राबर्ट वाड्रा को आरोपों का सामना करना चाहिए'


प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की दावेदारी को संघ द्वारा निरस्त किए जाने पर दैनिक `हमारा समाज' ने अपने संपादकीय में लिखा है कि राजग की भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर अन्य सभी पार्टियों को उस समय बड़ी ताकत मिली जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी को खारिज कर दिया। संघ का मानना है कि यदि नरेन्द्र मोदी का नाम प्रधानमंत्री के लिए आगे बढ़ाया जाता है तो भाजपा और संघ को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा। भाजपा जिन मुद्दों  पर यूपीए और कांग्रेस को घेरती चली आई है और पूरे देश में यूपीए और कांग्रेस के खिलाफ भ्रष्टाचार और महंगाई के मुद्दे पर जनता को अपने पक्ष में करती रही है यह सभी मुद्दे मोदी के कारण खत्म हो जाएंगे और कांग्रेस एवं यूपीए को यह कहने का मौका मिल जाएगा। भाजपा ने नरेन्द्र मोदी का नाम पेश किया है वह गुजरात में मुस्लिम नरसंहार का जिम्मेदार है। इससे केवल मुसलमान ही नहीं बल्कि बहुत से हिन्दू वोटों का भी नुकसान होगा एवं मोदी के नाम पर एनडीए पार्टियां भी सहमत नहीं हैं। पर्दे के पीछे के इस खेल में एलके आडवाणी का हाथ साफ नजर आ रहा है क्योंकि वह एक लम्बे समय से प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने की आशा रखते हैं लेकिन जिन सीढ़ियों पर चढ़कर वह प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं वह सीढ़ियां उन्हें आसमान से जमीन पर ला सकती हैं। नरेन्द्र मोदी भी आडवाणी के इस खेल को समझते होंगे। देखना यह है कि संघ के दरबार से मायूस होकर नरेन्द्र मोदी मौन धारण करते हैं या अपने ही लोगों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाते हैं।
तालिबान द्वारा 14 साल की मासूम लड़की मलाला पर हमले की कड़े शब्दों में भर्त्सना एवं निंदा करते हुए काजी हुसैन अहमद ने साप्ताहिक `खबरदार' में लिखा है कि यह तो मानवता, इस्लामी शिक्षा और पख्तून परम्परा के भी खिलाफ है। मलाला पर हमले का अफसोसजनक पहलू यह है कि इसका पुण्य खुद हत्यारे ले रहे हैं। मासूम बच्ची को तीन साल पहले जब इसकी उम्र 11 साल थी, बीबीसी के एक नुमाइंदे ने एक वीडियो डिसमिस्ड स्कूल द्वारा दुनिया से परिचित कराया। यह वीडियो न्यूयार्प टाइम्स की वेबसाइट पर देखी जा सकती है जिसमें वह फर्जी दृश्य भी शामिल है कि एक व्यक्ति को भीड़ के सामने उलटा लिटाकर कोड़े मारे जा रहे हैं और यह मशहूर कर दिया कि तालिबानी औरतों को कोड़े मार रहे हैं। इस बच्ची के मुंह में यह बात डाल दी गई और यह न्यूज पर इंटरव्यू में प्रसारित हुआ कि बेनजीर, बापा खान और ओबामा मेरे आइडियल हैं। बेनजीर और बापा खान की हद तक तो ठीक है कि हमारे देश में बहुत से लोग उनके भक्त हैं लेकिन सवात की एक मासूम बच्ची के मुंह में यह बात डालना कि ओबामा मेरे आइडियल हैं किन तत्वों का कारनामा है जबकि ओबामा के हाथों अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों जगह बहुत से लोग मारे जा रहे हैं जिसमें मासूम बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं। जहां तक तालिबान का मामला है उन्हें किसी ने इस्लाम के प्रतिनिधित्व के तौर पर स्वीकार नहीं किया है और न ही उनके सारे कामों का समर्थन किसी विख्यात दीनी जमाअत ने स्वीकार किया है।
`राबर्ट वाड्रा को आरोपों का सामना करना चाहिए' के शीर्षक से साप्ताहिक `चौथी दुनिया' के संपादक संतोष भारतीय ने अपने संपादकीय में लिखा है कि शायद राबर्ट वाड्रा को इस बात पर भरोसा है कि जनता उनके जुर्म की सारी कहानियां जानने के बाद भी चुन ली। राबर्ट वाड्रा ने अपनी वर्तमान बीवी प्रियंका गांधी  का भी नुकसान कर दिया है। प्रियंका गांधी अपने आगे राबर्ट वाड्रा शब्द लगाने से हिचकिचाती हैं लेकिन राबर्ट वाड्रा इस शब्द को बहुत लोकप्रिय करना चाहते हैं। लोगों को लगने लगा है कि शायद प्रियंका गांधी का दिमाग अपने भाई राहुल गांधी की तरह तेज और तकनीक अपने पति राबर्ट वाड्रा से ज्यादा फुल प्रूफ है। लोगों का इस तरह सोचना प्रियंका गांधी के लिए शुभ संकेत नहीं है। राबर्ट वाड्रा को कुछ अन्य सवालों के लिए भी तैयार रहना चाहिए। उदाहरण के तौर पर वह क्या हालात थे जिनकी वजह से उनके पति रायबरेली से उनकी सास के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गए और वह भी भाजपा के टिकट पर। नामांकन की प्रक्रिया पूरी हो जाने के बावजूद अंतिम समय में चुनाव लड़ने से पीछे क्यों हट गए और इसके कुछ महीनों के अंदर उन्होंने आत्महत्या क्यों की? इसी तरह क्यों इनके भाई ने आत्महत्या की? इनकी बहन की मौत एक सड़क दुर्घटना में हुई और इनकी बहन के कई दोस्तों ने भी आत्महत्या कर ली? यह सभी संयोग हो सकते हैं, लेकिन इन संयोग के पीछे यदि कोई कहानी है तो वह कहानी अब राबर्ट वाड्रा के लिए परेशानियां पैदा कर सकती है।
`मुस्लिम पिछड़ेपन को दूर करने के लिए नौकरियों में आरक्षण' से दैनिक `अखबारे मशरिक' में आरिफ अजीज ने अपने लेख में लिखा है कि 1980 में इंदिरा गांधी ने मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की स्थिति जानने के लिए डॉ. गोपाल सिंह की अगुवाई में एक हाई पावर पैनल कायम किया था जिसने अपनी रिपोर्ट में नौकरियों में आबादी के अनुपात में आरक्षण की सिफारिश की थी और पुलिस बल में भी आरक्षण पर जोर दिया था। सरकार जंगलों में रहने वाले भेल और आदिवासियों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए प्रयासरत है लेकिन न तो मुसलमानों को स्वयं फिक्र है और न सरकार को। आपातकाल के समय इंदिरा गांधी मुसलमानों को आरक्षण देने के लिए तैयार हो गई थीं लेकिन जिन लोगों के सुपुर्द यह काम किया गया वह उसको आगे नहीं बढ़ा सके। 1984 के शुरू में असम के मुख्यमंत्री-हिथेश्वर सैकिया अपने राज्य के मुसलमानों को आबादी के अनुपात में 24 फीसदी आरक्षण देने पर तैयार हो गए थे लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ, न ही इसके बाद बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री भगवत झा आजाद की यह घोषणा व्यावहारिक रूप ले सकी कि सरकारी नौकरियों में अल्पसंख्यकों के लिए दस फीसदी कोटा निर्धारित किया जाएगा। इसके लिए जरूरी था कि बिहार के सभी मुसलमानों को पिछड़ा मान लिया जाता, क्योंकि संविधान में ऐसी किसी पहल की गुंजाइश नहीं थी लेकिन यह काम बाद की राजीव सरकार चाहती तो कर सकती थी उसको संसद में बहुमत प्राप्त था।
`सुभाष पार्प में अवैध निर्माण पर हाई कोर्ट का साहसी, सराहनीय फैसला' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में संपादक अनिल नरेन्द्र ने अपने संपादकीय में लिखा है कि दिल्ली हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच  के जस्टिस संजय किशन, जस्टिस एमएल मेहता और जस्टिस राजीव शंकधर ने एक साहसी फैसला किया। मामला था दिल्ली के सुभाष पार्प में अवैध मस्जिद बनाने का। उल्लेखनीय है कि मेट्रो लाइन निर्माण के दौरान सुभाष पार्प में एक दीवार मिली थी, जिसे एक समुदाय ने कथित रूप से अकबराबादी मस्जिद का अवशेष बताते हुए वहां रातोंरात निर्माण कर दिया। इस मुद्दे को लेकर कुछ संगठन दिल्ली हाई कोर्ट पहुंचे और इस अवैध निर्माण को हटाने की मांग की। हाई कोर्ट ने 30 जुलाई को पुलिस को यह अवैध निर्माण हटाने के लिए एमसीडी को फोर्स उपलब्ध करवाने का निर्देश दिया था।
बेंच ने स्पष्ट किया कि यदि उक्त स्थल पर सर्वे में मस्जिद हे की पुष्टि होती है तो भी वह संरक्षित इमारत होगी और ऐसे में वहां नमाज अदा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती। ऐसे में वहां नमाज अदा करने का सवाल ही नहीं है। हम हाई कोर्ट की पीठ का स्वागत करते हैं। सवाल एक अवैध निर्माण का ही नहीं बल्कि कानून की धज्जियां उड़ाने का भी है। ऐसे में रातोंरात कई पूजा स्थल खड़े हो जाएंगे। अब देखना यह है कि जो साहस हाई कोर्ट की स्पेशल बेंच ने दिखाया है, क्या दिल्ली पुलिस भी ऐसा ही साहस दिखाएगी?

उर्दू के नाम पर रोटियां सेंकते उर्दू के प्रोफेसर


देश के दो बड़े वैचारिक संगठनों जमाअत इस्लामी हिंद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अब्दुल हक अंसारी और पूर्व सर संघ चालक केसी सुदर्शन के निधन पर`दावत सहरोजा' में सम्पादक परवेज रहमानी ने अपने विशेष स्तंभ `खबर-ओ-नजर' में दोनों की समानता पर चर्चा करते हुए लिखा है कि डॉ. अंसारी युवा आयु में तहरीक इस्लामी के काम से जुड़ गए थे और फिर इसके अमीर (अध्यक्ष) चुने गए। इस पद पर रहने के बाद 2007 में  पद से सेवानिवृत्त हुए और शोध एवं लेखनी में व्यस्त रहे। 81 वर्ष की आयु वह दुनिया से इस तरह गए कि अपने ईमान एवं आस्था पर पूरी तरह संतुष्ट थे। केएस सुदर्शन भी युवा आयु में ही आरएसएस की देशभक्ति के नारों से प्रभावित होकर इससे जुड़ गए और इसके  सबसे बड़े पद सर संघ चालक के पद पर पहुंच गए। 9 साल इस पद पर रहने के बाद वह इस पद से सेवानिवृत्त हुए। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद खामोश से रहते थे, ज्यादा समय अध्ययन में गुजरता था। 81 साल की आयु में दुनिया को छोड़ दिया। दोनों बुद्धिजीवियों की जीवनी में कई पहलुओं में समानता दिलचस्प है। यह दोनों दो बड़ी लेकिन विभिन्न एवं विरोधाभासी संगठनों से जीवन बर जुड़े रहे, इनका नेतृत्व किया लेकिन अंजाम में बुनियादी फर्प रहा। डॉ. अंसारी अपने ईमान और आस्था पर संतुष्ट रहते दुनिया से विदा हुए वहीं केएस सुदर्शन अपने आखिरी दिनों में बेचैन और परेशान देखे गए जिससे महसूस होता है कि कम से कम इस्लाम और मुसलमानों के सिलसिले में अब तक की अपनी सोच से संतुष्ट नहीं हैं और इस पर पुनर्विचार कर रहे हैं। यदि उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया था जैसा कि उनके साथी बता रहे हैं तब भी उनके मन में कहीं न कहीं यह बात जरूर रही होगी जो उन्हें ताजुल मसाजिद जाने पर मजबूर कर रही थी (हिन्दुस्तान टाइम्स) 16 सितम्बर की रिपोर्ट कहती है कि मिस्टर सुदर्शन कुरआन का गहरा अध्ययन करते थे। बहरहाल इन दोनों में जिसका जो भाग्य था, वह होकर रहा। आगे का मामला अल्लाह के हाथ में है।
राहुल गांधी की कश्मीर यात्रा का स्वागत करते हुए आर्थिक क्रांति से पूर्व सियासी सुधार की जरूरत पर जोर देते हुए दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने कश्मीर जाने के लिए बहुत अच्छे समय का चयन किया है जब वहां आतंकी गतिविधियां कमजोर पड़ी हुई हैं। राहुल गांधी जहां भी गए वहां उनका जोरदार स्वागत हुआ और कहीं भी उनसे टेढ़े-मेढ़े सवाल नहीं पूछे गए। राहुल गांधी के दौरे में टाटा ग्रुप के चेयरमैन रतन टाटा, बिरला ग्रुप के चेयरमैन कुमार मंगलम बिरला, एचडीएफसी के चेयरमैन दीपक पारेख, बजाज आटो लिमिटेड के मैनेजिंग डायरेक्टर राजीव बजाज और विप्रो के चेयरमैन अजीम प्रेम जी जैसे लोग साथ थे। यह लोग देश के अन्य भागों की तरह कश्मीर में भी निवेश करना चाहते हैं लेकिन कश्मीर में पाए जाने वाले आतंक ने इनके कदम रोक रखे हैं। समय गुजरने और राजनैतिक स्थिरता के चलते अब मिलीटेंसी बहुत कम हो गई है। यही कारण है कि पूरी दुनिया से पर्यटक बिना किसी डर के कश्मीर आ रहे हैं जिससे वहां की अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है। निवेशकर्ता सबसे पहले अपने निवेश की सुरक्षा चाहता है और फिर उस पर अधिक से अधिक रिटर्न। राहुल गांधी को एवं इन उद्योगपतियों को कश्मीर के मामले पर सरकार की ओर से  बनाए गए वार्ताकारों से फीड बैक लेना चाहिए। वार्ताकारों को आशा है कि कश्मीरियों के दुख-दर्द को दूर किया जा सकेगा। आर्थिक पहल से पहले राजनीतिक स्थिरता जरूरी है।
हिमाचल प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस द्वारा किसी मुस्लिम को टिकट न दिए जाने पर दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खां ने पहले पेज पर प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि `सेकुलर कांग्रेस की सांप्रदायिक सूची जारी, 68 सीटों में मुस्लिम गायब, शीला दीक्षित हैं ड्रामे की अहम किरदार।' यह तब हुआ है जब गत विधानसभा चुनाव कांग्रेस द्वारा मुसलमानों की अनदेखी के चलते भाजपा को सत्ता मिली थी। दिल्ली की लाडली मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी हिमाचल प्रदेश के लिए उम्मीदवारों की सूची वाली क्रीनिंग कमेटी के चेयरपर्सन के तौर पर पूरी तरह मुस्लिम विरोधी मानसिकता का प्रदर्शन किया। एससी, एसटी सहित सभी अल्पसंख्यक उम्मीदवारों को सूची में शामिल किया गया। लेकिन यदि किसी समुदाय की अनदेखी की गई है तो वह मुसलमान हैं। एक अनुमान के अनुसार हिमाचल प्रदेश की 68 विधानसभा सीटों में से 4 सीटें ऐसी हैं जहां से मुस्लिम उम्मीदवार कामयाब हो सकते हैं जबकि 20 सीटों पर वह निर्णायक भूमिका में हैं। कांग्रेस पार्टी ने अप्रैल में हुए यूपी और उत्तराखंड के चुनाव में भी मुसलमानों का हक छीना था। यूपी में जहां 40 सीटों पर मुसलमान जीतने और 150 पर निर्णायक भूमिका में हैं वहां केवल 49 सीटों पर समेट दिया गया था जबकि उत्तराखंड जहां मुसलमान 7 सीट पर जीत सकता है और 16 पर निर्णायक भूमिका में है। वहां पार्टी ने केवल तीन सीटों पर मुसलमानों को बांध दिया है। देखना यह है कि हिमाचल में मुसलमानों की अनदेखी करने के नतीजे में वही कुछ तो नहीं होने वाला है जो गत विधानसभा चुनाव में हो चुका है।
`कौमी उर्दू काउंसिल की गलतियां' के शीर्षक से केके खुल्लर ने दैनिक `जदीद खबर' में प्रकाशित अपने लेख में उर्दू के नाम पर रोटियां सेंकने वालों को आड़े हाथ लेते हुए लिखा है कि जब गोपीचंद नारंग उर्दू बोर्ड के सदस्य थे और बाद में वह काउंसिल के वाईस चेयरमैन बने। उन्होंने 16 किताबें छपवाईं जो बिक तो न सकीं लेकिन नारंग साहब को रायलटी पाबंदी से मिलती रही। एक आरटीआई के जवाब में यह रहस्योद्घाटन हुआ कि नारंग को दो लाख 54 हजार 544 रुपए की रियलटी मिल चुकी है और आगे भी मिलती रहेगी। शम्सुर्रहमान फारुकी ने अपनी कुर्सी का नाजायज फायदा उठाकर 17 किताबें छपवाईं जो आज काउंसिल के गोदाम में पड़ी सड़ रही हैं। हाल में गोदाम को 70 फीसदी कमीशन पर किताबें बेच कर खाली करने की कोशिश भी नाकाम हो गई। इन्हें एक लाख पांच हजार 499 रुपए की रायलटी मिल चुकी है। तीसरा नाम फिल्मी दुनिया के गुलजार का है जिनकी 18 किताबें इसी संस्था (नेशनल काउंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंगवेज) ने छापी हैं। गुलजार ने अपने एक बयान में साफ कहा कि उन्हें उर्दू नहीं आती है। इसके बावजूद नारंग के दौर में उर्दू के साहित्य एकाडेमी अवार्ड से नवाजा गया। अभी हाल में नारंग साहब ने उर्दू संस्थानों को आदेश दिया कि वह सरकार का अनुदान न लें, यह भीख है जबकि नारंग साहब सारी उम्र सरकार के अनुदान पर पले हैं। यह वह लोग हैं जो कहते कुछ और करते कुछ और हैं उनकी सूची लंबी है लेकिन इस सूची में सर्वप्रथम नारंग का नाम है।
`नमीश आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाए' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' में यूपी के ब्यूरो चीफ फजलुर्रहमान ने अपने लेख में लिखा है कि यूपी में 2007 में हुए सिलसिलेवार कचेहरी बम धमाकों की गुत्थी पांच सालों में नहीं सुलझ सकी है। इन धमाकों के बाद जिस तरीके से एसटीएफ ने गिरफ्तारियां कीं उन पर से अब पर्दा उठता जा रहा है। खासतौर से नमीश आयोग की रिपोर्ट इस मामले में एक अहम दस्तावेज साबित होने वाली है। समाजवादी पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में वादा किया था कि बेकसूरों को रिहा किया जाए। घटनाएं चीख-चीख कर कह रही हैं कि एसटीएफ ने झूठी कहानियां गढ़ी हैं और ऐसा इसने आईबी के इशारे पर किया है।
 कई मुकदमों में यह देखने में आया है कि पुलिस और खुफिया एजेंसियों की झूठी कहानी अदालत में ताश के पत्ते की तरह बिखर गई। श्रीकृष्ण आयोग की तरह नमीश आयोग की रिपोर्ट को भी सार्वजनिक करने की जरूरत है। यूपी सरकार चाहे तो इस रिपोर्ट को विधान परिषद में भी पेश कर सकती है। खुफिया एजेंसियों की बड़ी कहानी इस रिपोर्ट में बंद है। यूपी सरकार यदि ईमानदार है तो उसे रिपोर्ट को उत्तर प्रदेश विधानसभा में पेश करना चाहिए तभी शायद असल अपराधियों के चेहरे से नकाब उठ सके।

क्या भाजपा व एनडीए संप्रग सरकार का विकल्प है?


अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका `न्यूज वीक' द्वारा `मुस्लिम गुस्से' को कवर स्टोरी बनाने पर साप्ताहिक `नई दुनिया' ने इसे मुसलमानों के जख्मों पर नमक छिड़कने वाला बताते हुए लिखा है कि मुस्लिम गुस्सा एक ऐसी स्टोरी है जिसका मकसद पत्रिका को दोबारा खड़ा करना था, लेकिन न्यूज वीक का दांव उलटा पड़ गया। ब्रिटिश अखबार `द टेलीग्राफ' के अनुसार हरसी अली की लेखनी घटिया पत्रकारिता का नमूना है, जिसने अतीत की एक बड़ी पत्रिका को सस्ता और घटिया बना दिया है। हर कोई हैरान है कि जब पैगम्बर इस्लाम पर निंदनीय फिल्म की भर्त्सना हो रही है और इस्लामी जगत जल रहा है तो हरसी अली इसको झूठा गुस्सा कह रही हैं। इस्लाम के खिलाफ जहर उगल रही सोमाली महिला का कहना है कि हम लोगों को सिर उठाकर जीना होगा। एक अधर्मी काली महिला बता रही है कि हम मुस्लिम गुस्से का किस तरह मुकाबला कर सकते हैं और उसे किस तरह खत्म करें। हरसी अली को अपनी इस्लाम दुश्मनी के कारण उसके बाप ने उसे अपने से अलग कर दिया है। हरसी अली को हालैंड की नागरिकता गंवानी पड़ी और वह अब इस्लाम दुश्मनी पर रोटियां तोड़ रही हैं। दुनिया में बहुसंख्यक ने मुस्लिम गुस्से को निरस्त कर दिया है जिसके कारण पत्रिका फिर उसी अंधकार में गिर गई है। हरसी अली तो पहले से ही गिरी हुई थीं इसलिए उनके बारे में कुछ कहना बेकार है।
`पुलिस बल में मुस्लिमों की नुमाइंदगी' के शीर्षक से हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक`ऐतमाद' ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो ने गत ढाई महीने पूर्व देश में पुलिस बल में मुसलमानों की संख्या के बारे में जो आंकड़े जारी किए थे उनसे पता चलता है कि देश में मुस्लिम पुलिस अधिकारियों की संख्या कुछ ज्यादा नहीं है। आंकड़ों के अनुसार देश में कुल 16 लाख 80 हजार पुलिस बल में मुस्लिम पुलिस अधिकारियों की संख्या एक लाख 8 हजार 389 से अधिक नहीं है अर्थात् कुल पुलिस बल में मुसलमान केवल 6 फीसदी हैं। जहां तक नई दिल्ली का मामला है, दिल्ली पुलिस में सिर्प 1521 अधिकारी हैं जबकि कुल पुलिस बल 57,117 है अर्थात् दिल्ली में मुस्लिम आबादी के अनुपात में केवल 2 फीसदी नुमाइंदगी है। यह शुभ समाचार है कि केंद्र सरकार ने अर्ध सैनिक बलों में अल्पसंख्यक समुदाय को उचित नुमाइंदगी देने के लिए विशेष मुहिम चलाने का फैसला किया है। इसके अलावा सरकार सुरक्षाबलों में महिलाओं की संख्या भी बढ़ा रही है। अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों को इसके लिए स्वयं को तैयार करना पड़ेगा।
`क्या भाजपा व एनडीए संप्रग सरकार का विकल्प है' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि भारतीय जनता पार्टी की तीन दिवसीय राष्ट्रीय परिषद की बैठक के आखिरी दिन पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने कार्यकर्ताओं को खरी-खरी सुनाई। कर्नाटक सहित भाजपा शासित कुछ राज्यों में भ्रष्टाचार के आरोपों की पृष्ठभूमि में आडवाणी ने कहा कि हमारे नेताओं, मंत्रियों, निर्वाचित प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं को ऐसा आचरण करना चाहिए कि जब कभी भी लोग भाजपा के बारे में सोचें तो उन्हें भाजपा के इस यूएसपी की याद आए। यदि आडवाणी एनडीए का कुनबा बढ़ाने की कवायद करते हैं तो कुछ लोग इसे भाजपा की आंतरिक राजनीति और पीएम पद की दावेदारी से जोड़ देते हैं। यह इसलिए भी हो रहा है कि आगामी चुनाव में नेतृत्व का सवाल अभी भी उलझा हुआ है। नरेन्द्र मोदी को पार्टी कार्यकर्ताओं का व्यापक समर्थन प्राप्त है उन्हें केंद्रीय नेतृत्व पर काबिज नेता दिल्ली नहीं आने देना चाहते। बहाना यह है कि इससे गठबंधन साथी बिदक जाएंगे। ऐसे में धर्मनिरपेक्षता के आग्रह को मोदी का पत्ता साफ करने की रणनीति के तौर पर भी देखा जा रहा है। वैसे अभी तक एनडीए कांग्रेस नीत गठबंधन सरकार के विकल्प के रूप में खुद को स्वीकार नहीं करा सका है।
दिल्ली वक्फ बोर्ड निकाह पंजीकृत करने के फैसले पर एक बार फिर उलेमा ने इसका विरोध कर इसे निरस्त किया है। दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने दारुल उलूम देवबंद और मजाहिरुल उलूम सहारनपुर सहित अनेक बुद्धिजीवियों के विचारों को प्रमुखता से प्रकाशित किया है। दारुल उलूम देवबंद के मोहतमिम मुफ्ती अबुल कासमी ने कहा कि शरीअत में तो निकाह को लिखित रूप में लिखने पर पाबंदी नहीं लगाई है लेकिन पंजीकृत से निकाह में पेचीदगी और परेशानी खड़ी हो जाएगी। जामिया मजाहिरुल उलूम सहारनपुर के नाजिम मौलाना सैयद सुलेमान मजाहिरी ने दारुल उलूम के दृष्टिकोण का समर्थन करते हुए कहा कि दिल्ली वक्फ बोर्ड और इस तरह के अन्य संस्थानों की ओर निकाह अनिवार्य पंजीकृत को गैर जरूरी समझता है। मदरसा मजाहिरुल उलूम वक्फ सहारनपुर के मोहतमिम मौलाना मोहम्मद सईदी कहते हैं कि पंजीकृत का कानून एक तरह से शरीअत में हस्तक्षेप का दरवाजा खोलता है जो मुसलमानों को स्वीकार नहीं है। इंस्टीट्यूट ऑफ मुस्लिम लॉ के डायरेक्टर अनवर अली एडवोकेट कहते हैं कि हिन्दुस्तान के कई राज्यों में निकाह का पंजीकरण कानूनी और अनिवार्य है जैसे कश्मीर, गोवा, असम और केरल आदि। कुछ इस्लामी देशों में भी निकाह का पंजीकरण होता है फिर आखिर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीअत उलेमा और जमाअत इस्लामी इस पर क्यों जोर देती हैं कि पंजीकरण न हो। तहरीक वहदत इस्लामी के अमीर मौलाना अताऊर रहमान वजदी कहते हैं कि काजी द्वारा जो निकाहनामा भरा जाता है वह अपने आप में एक तरह पंजीकरण है, इसको ही काफी माना जाए। कानूनी तौर पर पंजीकरण सिर दर्द साबित होगा।
`बंगलादेशी घुसपैठ के नाम पर समाज का सांप्रदायिक विभाजन' के शीर्षक से साप्ताहिक`अल-जमीअत' में भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी अपने विशेष लेख में लिखते हैं कि बंगलादेशी घुसपैठ और इस्लामी राज्य की स्थापना का शिगूफा बेवक्त और गैर जरूरी तौर से छेड़ा गया है, इसका मकसद इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि देश के गैर मुस्लिम समुदाय के मन में भय एवं हिंसा पैदा करके अपना सियासी उल्लू सीधा किया जाए।
इस मसले का यह पहलू भी विचारणीय है कि मीडिया के एक ताकतवर ग्रुप की इस तरह के प्रोपेगंडा  को जबरदस्त समर्थन प्राप्त है। वह बिना किसी सबूत के बंगलादेशी घुसपैठ के प्रचार में लग जाता है और असल मसले से किसी न किसी तरह से ध्यान हटाने में कामयाब हो जाता है, अब यही देखिए कि असम में बोडो और गैर बोडो के बीच जिन बातों को लेकर टकराव हुआ, उन पर बहस करने के बजाय बड़ी चालाकी से बंगलादेशी घुसपैठ का प्रोपेगंडा सबसे ऊपर ले आया गया और बोडो काउंसिल में गैर बोडो का उचित प्रतिनिधित्व और केंद्र का इससे संधि के सही गलत होने का मामला पीछे चला गया। भाजपा और आरएसएस वाले इसकी ओर से ध्यान हटाने में मीडिया के सहयोग से सफल नजर आते हैं। उन्हें मालूम है कि यदि संधि की बात पर चर्चा होगी तो यह सवाल सामने आएगा कि आखिर भाजपा अगुवाई वाली एनडीए सरकार के गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने किस उद्देश्य के तहत बोडो ग्रुप से संधि करके इसे 70 फीसदी गैर बोडो पर लाद दिया है।

Wednesday, October 3, 2012

मई में मध्यावधि चुनाव होंगे


`अगर वॉलमार्ट इतना ही इच्छा है तो न्यूयार्प में इसका विरोध क्यों?' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि दुनिया की दिग्गज रिटेल कम्पनी वॉलमार्ट का रास्ता साफ करने के लिए भारत में तमाम फायदे गिनाए जा रहे हैं। अमेरिका की इस दिग्गज कम्पनी का 16 देशों में 404 अरब डॉलर का कारोबार है। अन्य रिटेलर कम्पनियों में फ्रांस की केयरफोर (34 देशों में 2009 में 112 अरब डॉलर का कारोबार)। जर्मनी में मेट्रो एजी जिसका 33 देशों में 2009 में 91 अरब डॉलर का कारोबार था, ब्रिटेन की टैस्को जिसका साम्राज्य 13 देशों में फैला हुआ है और जिसका 2009 में राजस्व 90.43 अरब डॉलर का था। सबसे बड़ी कम्पनी वॉलमार्ट है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जितने भी वॉलमार्ट के फायदे गिनाएं पर यह कम्पनी खुद अपने देश में तगड़े झटके से दो-चार हो रही है।
न्यूयार्प टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक वॉलमार्ट ने न्यूयार्प के ब्रुकलिन में नया शॉपिंग सेंटर बनाया है। इसी में वह मेगा स्टोर खोलने की तैयारी कर रही थी। मगर स्थानीय यूनियन, सिटी काउंसिल के कई सदस्यों और सामुदायिक समूहों ने इस पर कड़ा एतराज जताया जिसके बाद कम्पनी ने पिछले सप्ताह इस योजना को रद्द कर दिया। विरोध करने वालों का कहना है कि यह कम्पनी अपने कर्मचारियों को कम वेतन देती है, सुविधाएं भी नहीं देती हैं। दाम कम रखकर अपने आसपास के छोटे दुकानदारों के मुनाफे पर चोट पहुंचाती हैं ताकि उन्हें इलाके से खदेड़ा जा सके।
`सियासी पार्टियों की करोड़ों की आमदनी का मामला' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब'ने अपने सम्पादकीय में  लिखा है कि एसोसिएशन फॉर डेमोकेटिक राइट्स नामक एनजीओ के हवाले से एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित खबर के मुताबिक देश की पांच बड़ी सियासी पार्टियोंöकांग्रेस, भाजपा, सीपीएम, बसपा और एनसीपी को गत पांच वर्षों में 3 हजार 4 सौ 53 करोड़ रुपए की आमदनी हुई है। इन सियासी पार्टियों की आमदनी को टैक्स से छुट प्राप्त है। इसलिए यह पार्टियां 1033 करोड़ रुपए के टैक्स से बच गईं। रिपोर्ट के मुताबिक जब उक्त एनजीओ ने सीधे जानकारी हासिल करने की कोशिश की ताकि आंकड़ों को मिलाया जा सके तो कांग्रेस ने जवाब दिया कि उस पर आरटीआई लागू नहीं होती। इसलिए उसे यह जानकारी देना जरूरी नहीं है। एनसीपी ने कहा कि उसके पास स्टाफ नहीं है इसलिए जानकारी नहीं दी जा सकती। भाजपा और बसपा ने आरटीआई का कोई जवाब नहीं दिया। केवल सीपीएम ने आरटीआई का जवाब दिया। सवाल यह है कि आखिर ऐसा क्यों है? यदि इस देश के एक नागरिक के लिए यह जरूरी हो कि आमदनी की सीमा क्रॉस करने के बाद अपनी आमदनी को जाहिर करे और उस पर टैक्स अदा करे तो सियासी पार्टियां क्यों अपनी आमदनी बताना नहीं चाहती हैं। जो कानून को बनाती भी हैं और क्रियान्वित भी करती हैं। हम समझते हैं कि देश की सभी पार्टियों की आमदनी को आरटीआई के तहत लाना चाहिए और उनसे भी बिल्कुल उसी तरह आमदनी का विवरण हासिल करना चाहिए जैसा नौकरी करने वाले या कारोबार करने वाले पर अनिवार्य है। अन्यथा उसके घर या दफ्तर पर इन्कम टैक्स का छापा पड़ जाता है। यह इसलिए भी जरूरी है कि एक ही देश में दो कानून नहीं हो सकते।
`सहरोजा दावत' में सम्पादक परवाज रहमानी ने अपने ख्याति प्राप्त स्तम्भ `खबरो नजर' में अमेरिका की निंदनीय फिल्म पर चर्चा करते हुए लिखा है कि मुसलमानों के खिलाफ एक ताजा शरारत तो वह है जो एक अमेरिकी फिल्म निर्माता ने अपनी फिल्म `इन्नोसेंस ऑफ मुस्लिम' में की है और दूसरी शरारत यह है जो अमेरिकी सरकार कर रही है और जिसे आज विश्व मीडिया आगे बढ़ा रहा है। अर्थात् अलकायदा नाम का कोई आतंकी ग्रुप आज भी मौजूद है वह समय-समय पर मुसलमानों को निर्देश देता रहता है और मुसलमान उसके निर्देश पर अमल करके दुनियाभर में हिंसा फैलाते हैं। इस सिलसिले में अलकायदा का नाम इतनी बार लिया जाता है कि पढ़ने और सुनने वाले गैर मुस्लिम यह विश्वास कर लें कि अलकायदा आज भी मौजूद है और विश्व स्तर पर मुसलमानों पर अपनी पकड़ रखता है। जबकि सच्चाई यह है कि अलकायदा नाम का कोई ग्रुप सिरे से कहीं मौजूद ही नहीं है वह अफगानिस्तान में सोवियत यूनियन के पराजय के कुछ साल बाद ही बिखर गया था।
 आज इस नाम से जो ग्रुप काम कर रहे हैं वह या तो फर्जी हैं या अमेरिका द्वारा खड़े किए गए हैं। तालिबान के नाम से भी कई नकली ग्रुप अमेरिका ने खड़े कर रखे हैं।
`मई में होंगे मध्यावधि चुनाव' के शीर्षक से उर्दू साप्ताहिक `चौथी दुनिया' के सम्पादक संतोष भारती ने अपने विशेष लेख में वर्तमान राजनीतिक स्थिति की समीक्षा करते हुए लिखा है कि कांग्रेस पार्टी और सरकार ने तय कर लिया है कि उसे बजट अधिवेशन के दौरान या बजट अधिवेशन खत्म होते ही चुनाव में चले जाना है। आर्थिक स्थिति तेजी से बिगड़ रही है। यह भी फैसला किया गया है कि कठोर बजट लाया जाए और आम लोगों को संकट में डालने के जितने भी तरीके हो सकते हैं, उन तरीकों को क्रियान्वित कर दिया जाए। आने वाला बजट भारतीय संविधान में दिए गए सभी आश्वासनों और विश्वासों के खिलाफ होने वाला है। इस बजट में ज्यादातर सब्सिडी खत्म हो जाएगी, टैक्स बढ़ जाएंगे, बाजार कंट्रोल नीति अपनाई जाएगी, इसके बाद कांग्रेस यदि हार गई तो आने वाली सरकार इसका खामियाजा उठाएगी, ऐसा नीतिकारों का मानना है। 2009 में कांग्रेस पार्टी ने वह चुनाव जीतने के लिए नहीं लड़ा था, यह मानकर लड़ा था कि आर्थिक स्थिति खराब होगी और आने वाली सरकार इसे भुगतेगी लेकिन भाजपा की चालाकी से वह चुनाव भी कांग्रेस जीत गई। जिसके बाद यूपीए-2 का कार्यकाल शुरू हुआ जिसने घोटालों का रिकार्ड बना दिया। कांग्रेस रणनीतिकारों का अनुमान है कि गैर कांग्रेस पार्टियों की अगुवाई वाली सरकार बनेगी इसको सालभर चलाया जाए इसके बाद चुनाव कराया जाए जिसमें कांग्रेस पार्टी को दोबारा बहुमत मिल जाए।
`विदेशी निवेश में घिरी यूपीए सरकार' के शीर्षक दैनिक `सहाफत' में मोहम्मद आसिफ इकबाल ने आईएमएफ की ताजा रिपोर्ट के हवाले से लिखा है जिसमें कहा गया है कि इस समय भारत के अन्दर 40 करोड़ से अधिक व्यक्तियों की आमदनी एक डॉलर प्रतिदिन से भी कम है। अर्थात् दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की छत्रछाया में दुनिया की सबसे बड़ी गरीबी परवान चढ़ रही है। जिसका एक कारण धन को मुट्ठीभर लोगों के हाथों में रखना है। दूसरी ओर विश्व फूड संस्था के अनुसार हिन्दुस्तान में 71 फीसदी खेत से जुड़े किसान विश्व संस्थानों की शर्तों, बीज, खाद और बिजली की कीमतों में वृद्धि के चलते आर्थिक समस्या से जूझ रहे हैं। किसानों की बड़ी संख्या रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन कर रही है इससे आबादी का संतुलन बुरी तरह बिगड़ चुका है। देश की 80 फीसदी जनता बुनियादी सुविधाओं से वंचित है और इस तर्प के साथ कहा जा रहा है कि रिटेल में एफडीआई की इजाजत का फैसला देश हित में होगा।

Monday, September 24, 2012

`बटला हाउस मुठभेड़ के बहाने स्थानीय नेताओं की सियासत'


बटला हाउस मुठभेड़ के चार वर्ष होने पर लगभग सभी उर्दू अखबारों ने विशेष रिपोर्ट और लेख प्रकाशित किए हैं। बीते सप्ताह बाजार में आया उर्दू दैनिक `सियासी तकदीर' में निसार अहमद खां और अली शहजाद ने `बटला हाउस मुठभेड़ के बहाने स्थानीय नेताओं की सियासत' के शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि देश की राजनीति को हिला देने वाली तथाकथित फर्जी मुठभेड़ की चौथी बरसी पर ओखला के स्थानीय नेता आज होने वाली गतिविधियों से गायब रहे लेकिन मुठभेड़ पर आरोप और बयानबाजी द्वारा सियासत तेज करने में पीछे नहीं रहे। एक ओर ओखला के विधायक आसिफ मोहम्मद खां ने सरकार से मांग की है कि सच को सामने लाने के लिए इस तथाकथित मुठभेड़ की जांच कराई जाए।
वहीं दूसरी ओर विपक्ष के सभी नेताओं ने उनकी आवाज में आवाज मिलाई और साथ ही आसिफ मोहम्मद खां को यह कहते हुए निशाना बनाया कि बटला हाउस मुठभेड़ द्वारा कामयाब होने वाले विधायक ने अपनी `तहरीके इंसाफ' को भुला दिया है। लोक जन शक्ति पार्टी नेता अमानत उल्लाह खां ने कहा कि इस मुठभेड़ की जांच नहीं कराने के लिए सरकार और शीला दीक्षित जिम्मेदार हैं क्योंकि दोनों ने इस मामले की जांच में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई बल्कि यह कह दिया कि इससे पुलिस का `मनोबल' गिरेगा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से साफ स्पष्ट है कि मोहम्मद आतिक की पीठ में गोलियां लगी हैं इसलिए यह इनकाउंटर नहीं है बल्कि उसे मारा गया है। इसलिए इस मामले की न्यायिक जांच की मांग हम पहले से करते रहे हैं और आज भी यही मांग कर रहे हैं।
`मुस्लिम युवाओं के सिर पर एक बार फिर खुफिया एजेंसियों की तलवार' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दिल्ली' ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जामिया टीचर्स सालिडिटरी एसोसिएशन ने 20 पेज पर आधारित एक गहन जांच रिपोर्ट जारी की है, जिसमें सबूत के आधार पर यह बताया गया है कि दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने सिर्प जामिया इलाके से जिन 14 युवाओं को गिरफ्तार किया था और उन्हें अलबदर, हूजी और लश्कर तैयबा के सक्रिय कार्यकर्ता करार देकर बहुत से आरोपों के फंदे से बांधा था।
 वह सब बेगुनाह करार दिए गए और अदालत ने पुलिस के आरोपों को फर्जी करार देकर उनको बाइज्जत बरी कर दिया। असल योजना कुछ मुस्लिम युवाओं को फांसी पर लटकाने या उम्र कैद की सजा दिलवाने का नहीं है बल्कि उन्हें देश में संदिग्ध करार देने और उनको अलग-थलग करके हाशिए पर पहुंचाने की है और इसमें नीतिकारों को सफलता मिल रही है। मुस्लिम नेतृत्व तो अब प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और कुछ अन्य उच्च पदाधिकारियों के आश्वासनों पर भरोसा करने की आदत से ऊपर नहीं उठ सका है।
केंद्र सरकार द्वारा एफडीआई की इजाजत देने और गैस सिलेंडर पर से सब्सिडी घटाने को लेकर राजनीतिक हलचल पर चर्चा करते हुए दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने `मुलायम, ममता का ड्रामा, यह बादल गरजते हैं, बरसते नहीं' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव, मायावती और करुणानिधि सभी एक साथ झटके में समर्थन वापस ले लें तो ही सरकार को सही मायनों में खतरा हो सकता है। लेकिन तब भी सरकार के तुरन्त ही गिर जाने के आसार नहीं हैं। कटु सत्य तो यह है कि न तो ममता समर्थन वापस लेने वाली हैं और न ही सपा। हां, एनडीए यह उम्मीद जरूर पाले है कि सरकार गिर सकती है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव हमेशा कहते कुछ हैं, करते कुछ और हैं। याद है कि एटमी डील और राष्ट्रपति चुनाव का किस्सा। दोनों बार पहले धमकी दी और  बाद में यूपीए के साथ खड़े नजर आए। लोकपाल पर भी सरकार को संकट से निकाल ले गए थे। दरअसल खेल तो 2014 की कुर्सी का है। मुलायम सरकार गिराने के बजाय 2014 का इंतजार करना चाहेंगे। इस बीच यूपी और थर्ड फ्रंट के बीच अपनी ताकत बढ़ाते रहेंगे। तब तक मनमोहन सरकार से पैसों की सौदेबाजी करके ज्यादा से ज्यादा पैसे लेते रहेंगे। यही उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के दौरान किया था। पहले धमकी देना फिर नाराज हो जाना ममता बनर्जी की पुरानी आदत है। ममता किसी भी कीमत पर लेफ्ट के साथ खड़ी नहीं हो सकतीं और भाजपा वाले एनडीए में जाकर मुस्लिम वोट बैंक को खोना नहीं चाहते।
`चुनाव अमेरिका का और चुनावी मुहिम इजरायल के नाम पर' शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि अमेरिका एक ऐसा देश है जहां के राष्ट्रपति चुनाव में आंतरिक मामलों से ज्यादा विदेशी संबंधों और नीति को महत्व दी जाती है। निशाने पर सिर्प और सिर्प इस्लाम, मुसलमान और मुस्लिम देश होते हैं। गत बार आतंकवाद के नाम पर इस्लाम और मुस्लिम देशों के विरोध को बहस के एजेंडे में ऊपर रखा गया था। इस बार इजरायल के वजूद और ईरान की तबाही को चर्चा का विषय बनाया गया है। अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि सरकार किसी भी पार्टी की हो, इजरायल की नाराजगी का खतरा मोल नहीं ले सकती। यही कारण है कि जब-जब फलस्तीनियों ने अपनी आजादी और सदस्यता के लिए संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटाया तो वह उसके विरोध में आगे-आगे रहा। इसी तरह वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ तो जंग की बात करता है लेकिन इजरायल के परमाणु कार्यक्रमों पर मौन धारण किए हुए है। अंतर्राष्ट्रीय परमाणु एजेंसी के पूर्व चीफ अलबरादी ने इस मामले को उठाया तो इस जुर्म में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। इजरायल के मामले को राष्ट्रपति चुनाव में कुछ ज्यादा ही उभारा जा रहा है। शासक वर्ग डेमोकेटिक और विपक्ष रिपब्लिकन पार्टी दोनों ही यहूदी लॉबी को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं जिससे पूरी तरह माहौल मुस्लिम विरोधी बन गया है।
`एफडीआई पर सरकार की मजबूती' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यह बात याद रखने की है कि एफडीआई को मंजूरी देने की वकालत जसवंत सिंह ने की थी, जब वह एनडीए में वित्त मंत्री थे। भाजपा ने कभी एफडीआई का विरोध नहीं किया। इस बार एफडीआई और डीजल के भाव ममता बनर्जी और भाजपा के विरोध का कारण बन गए हैं। जहां तक डीजल का मामला है यह जान लेना चाहिए कि डीजल की कीमत इतनी ज्यादा होने का कारण यह है कि डीजल और पेट्रोल पर इतने अधिक राज्य टैक्स लगा दिए जाते हैं कि कीमत अपने आप ज्यादा हो जाती है। कोई राज्य इन टैक्सों को कम करना नहीं चाहता। इसके विपरीत जब भी डीजल अथवा पेट्रोल की कीमत बढ़ती है राज्य टैक्स का अनुपात भी इस लिहाज से बढ़ जाता है और इससे अधिक आमदनी होती है। जिस दिन डीजल मूल्य में वृद्धि हुई उसी दिन गोवा सरकार ने डीजल पर दो फीसदी वैट में वृद्धि कर दी। गोवा में भाजपा की सरकार है और भाजपा ही डीजल में वृद्धि पर सबसे ज्यादा शोर मचा रही है। एलपीजी सिलेंडरों पर सब्सिडी दी जाती है इसका मकसद आम लोगों को राहत देना है। लेकिन सब जानते हैं कि सब्सिडी दलालों की भेंट चढ़ जाती है। इसलिए सरकार ने फैसला किया कि छह सिलेंडर सरकारी भाव से और इसके बाद बाजार भाव से मिलेंगे।

Tuesday, September 18, 2012

`जुर्म एक तो सजा अलग-अलग क्यों?'


`हिन्दुत्वा सिपाही-गोगोई' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई द्वारा `कम शिक्षित मुस्लिम घरों में ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं' के बयान पर चर्चा करते हुए लिखा है कि असमी मुसलमानों के संबंध में गोगोई का यह बयान न केवल अफसोसजनक है बल्कि यह एक खतरनाक बयान है। संघ परिवार 1960 और 1970 के दशक से न केवल असम बल्कि पूरे देश के मुसलमानों के संबंध में यह प्रचार करा रहा है कि मुसलमानों के यहां ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं। इस तरह के गलत बयान का मकसद हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति भय पैदा करना है। यदि किसी प्रकार की धारणा किसी एक समुदाय के बारे में दूसरे समुदाय के मन में बैठ जाए तो जब अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं और उनके लोग मारे जाते हैं तो बहुसंख्यक के लोग मानसिक रूप से संतोष और खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। सिर्प इतना ही नहीं बल्कि अल्पसंख्यकों को मारने वालों को खुद अपना संरक्षक समझते हैं। गोधरा 2002 में साबरमती एक्सप्रेस में कारसेवकों के मारे जाने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के मुसलमानों के खिलाफ यही रणनीति अपनाई थी जिससे वह गुजराती हिन्दुओं के न केवल हीरो बन गए थे बल्कि वह उनके अंगरक्षक भी कहे जाने लगे थे। गोगोई का मुसलमानों के खिलाफ गलत बयान देने का सियासी मकसद है इसके द्वारा वह आगामी चुनाव में मोदी की तरह हिन्दुत्व के हीरो बनकर उभरना चाहते हैं। उन्हें यह मालूम है कि उन्हें मुस्लिम वोट नहीं मिलने वाला है तो फिर क्यों न हिन्दू वोट बैंक को पूरी तरह अपने हक में कर लिया जाए। नरसिम्हा राव के बाद गोगोई दूसरे कांग्रेसी नेता हैं जो कांग्रेस के सेकुलर विचारों के बजाय खुलकर हिन्दत्ववादी विचारों की ओर झुके हैं। यह बात कांग्रेस और देश दोनों के लिए खतरनाक है।
दैनिक `जदीद खबर' ने `मुस्लिम आबादी का भय' के शीर्षक से लिखा है कि मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने अपने साक्षात्कार में इस धारणा को बेबुनियाद करार दिया है कि मुसलमान हमेशा कांग्रेस को वोट देते हैं। उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने कभी भी 50 फीसदी से ज्यादा वोट कांग्रेस को नहीं दिया। उन्होंने इस बाबत मुस्लिम आबादी वाले 126 विधानसभा क्षेत्रों की समीक्षा भी पेश की। असम एक ऐसा राज्य है जो शुरू से ही मुस्लिम बहुल रहा है। यहां के मुसलमान गरीब और परेशानी की जिंदगी गुजारते रहे हैं। उस पर से उन पर बंगलादेशी होने का आरोप लगाकर उनकी हत्या की जाती है। असम में बोडो बहुल क्षेत्रों में मुसलमानों के खिलाफ वर्तमान हिंसा उन्हें मजबूर करना है ताकि वह इन आबादियों को खाली करके कहीं और जा बसें। यही कारण है कि  बड़े पैमाने पर उनके मकान जलाए गए, उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया गया और उन्हें कारोबार से वंचित कर दिया गया। ऐसे में राज्य के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई इनके जख्मों पर मरहम रखने के बजाय नमक छिड़कने का काम कर रहे हैं। मुसलमानों की आबादी को चिन्हित करके इसमें वृद्धि का प्रचार और इसके लिए अशिक्षा को जिम्मेदार बताना, वास्तव में एक सांप्रदायिक सोच है जिसका इजहार मुख्यमंत्री ने खुलकर किया है।
`महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे का बिहारियों के खिलाफ ऐलान जंग, केंद्र एवं राज्य सरकार मौन क्यों?' के शीर्षक से साप्ताहिक `अल जमीअत' में सम्पादक मोहम्मद सालिम जामई ने अपने विशेष  लेख में चर्चा करते हुए लिखा है कि राज ठाकरे के हौसले इतने बढ़ चुके हैं कि वह अब खुद को कानून से भी ऊपर की कोई चीज समझने लगा है, इसके बावजूद भी यदि हमारी केंद्र एवं राज्य सरकारें मौन हैं तो हम इसे देश व कौम के दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कह सकते हैं। राज ठाकरे की इस घृणित राजनीति को हवा देने वाले नेताओं को भी यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि संघी ढांचे में क्षेत्र का मसला अत्यंत खतरनाक साबित हुआ करता है। ऐसी सूरत में एक गुंडे और सिरफिरे व्यक्ति का संरक्षण खुद उनके लिए भी खतरनाक साबित होगा। यह मसला सिर्प महाराष्ट्र का नहीं है बल्कि पूरे देश का मसला बन चुका है। इसलिए केंद्र सरकार को भी इस पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।
`जुर्म एक तो सजा अलग क्यों' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने 1 सितम्बर 12 के एशियन ऐज में `द लिटिल मैग्जीन' के सम्पादक अतरादेव सेन द्वारा 29 अगस्त के सुप्रीम कोर्ट और अहमदाबाद की विशेष अदालत दोनों के फैसलों की समीक्षा के हवाले से लिखा है कि दोनों ही घटनाओं अर्थात् गुजरात के नरोदा पाटिया की सांप्रदायिक हिंसा और अजमल कसाब के आतंक ने पूरे देश को हिला दिया था, जिसका फैसले में भी जिक्र किया गया है लेकिन माननीय न्यायाधीशों ने नरोदा पाटिया की हिंसा के लिए 32 व्यक्तियों को आरोपी मानने के बावजूद केवल उम्रकैद की सजा सुनाई। इस हिंसा में 97 मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इसके बावजूद मुसलमानों की हत्या करने वाले किसी अपराधी को मौत की सजा नहीं सुनाई गई। दूसरी तरफ गुजरात के ही गोधरा ट्रेन में आग लगने के आरोप में 11 मुसलमानों को यह सजा सुनाई जा चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात दंगों के अहम मुकदमों की जांच के लिए विशेष टीम गठित करते हुए यह टिप्पणी की थी कि दंगा आतंकवाद से ज्यादा खतरनाक है। फिर आतंकी और दंगा के मुकदमों में सजाओं का स्तर अलग क्यों है?
`और अब दिल्लीवासियों को बिजली का झटका' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि राजधानी वासी बिजली के बिलों से परेशान हैं, उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि यह हो क्या रहा है? हर कोई बिजली की खपत कम करने की कोशिश कर रहा है। बावजूद इसके बिजली का करंट बढ़ता जा रहा है। बिजली कम्पनियों के `पॉवर गेम' की वजह से उपभोक्ता को कम बिजली खर्च करने पर भी ज्यादा बिल अदा करना पड़ रहा है। बिजली टैरिफ के मुताबिक अगर एक महीने में 200 यूनिट से कम बिजली खर्च करेंगे तो प्रति यूनिट 3.70 रुपए देने होंगे और इसमें सरकार एक रुपए की सब्सिडी भी देती है। लेकिन अगर खर्च 200 यूनिट से ज्यादा और 400 यूनिट से कम है तो प्रति यूनिट 4.80 रुपए और इससे ज्यादा बिजली खर्च करने पर 6.40 रुपए देने होंगे। बिल दो महीने का एक साथ आता है।
अगर एक महीने में 195 यूनिट खर्च है और दूसरे महीने में 290 यूनिट है तब भी आपको 4.80 रुपए चुकाने पड़ेंगे। आरडब्ल्यूए के अनुसार बिजली कम्पनियां 10-15 करोड़ रुपए एक्स्ट्रा ले रही हैं। यह रिटेल लूट कर होलसेल फायदा जैसा है।

गुमराह युवकों को समझाना मिल्ली नेतृत्व का दायित्व


बम धमाकों के आरोप में मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी पर चर्चा करते हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मनसिफ' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि पुणे धमाके के सिलसिले में जैसा ही जांच एजेंसियों और मीडिया को इसके नाम का पता चला तो उन्हें अफसोस हुआ कि यह हिन्दू है अर्थात् दयानंद पाण्डेय इसका नाम है। यदि यह मुसलमान होता तो इसका संबंध किसी न किसी `कागजी' मुस्लिम आतंकी संगठन से जोड़ दिया जाता और फिर तुरन्त गिरफ्तारियों का न खत्म होने वाला सिलसिला चल पड़ता। महाराष्ट्र में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने चार मुसलमानों को गिरफ्तार किया और फिर बाद में दो को रिहा कर दिया गया।  पुलिस का कहना है कि यह गिरफ्तारियां आतंकवाद के विभिन्न मुकदमों में पूछताछ करना एक सामान्य प्रक्रिया का हिस्सा है। सूत्रों का कहना है कि जांच एजेंसियां पुणे धमाके के सिलसिले में मुस्लिम युवाओं को लिप्त करने में व्यस्त हैं और मीडिया विशेषकर मराठी समाचार पत्रों की झूठी खबरों की बुनियाद पर बीड़ से इन मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया था। सवाल यह है कि सिर्प मुसलमानों को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है। गत 8 सालों में हुई आतंकी घटनाओं के संबंध में यह साबित हो चुका है कि इनमें ज्यादातर हिन्दू आतंकी शामिल थे। इसलिए जांच एजेंसियों को केवल एक ही नजरिये की बुनियाद पर जांच नहीं करना चाहिए। आखिर यह सब बेबुनियाद हरकतें कब तक होती रहेंगी? क्या सिर्प इसलिए कि सरकार यूरोपीय दुनिया विशेषकर अमेरिका को बताना चाहती है कि हम भी उन ही की तरह `कागजी' आतंकियों से परेशान हैं।
अमेरिका को खुश करने की कोशिश में अरब देशों से भी संबंध खराब होने की संभावना पैदा हो रही है जिससे भविष्य में हमारी आर्थिक गतिविधियों पर चोट भी लग सकती है। सरकार को चाहिए कि वह मुस्लिम विरोध पर आधारित नीति का त्याग करे और देश से प्रेम के नाम पर हिंसा और दंगा फैलाने वाले हिन्दू आतंकी संगठनों के खिलाफ भी अपने घेरे को और अधिक सख्त करते हुए देश की सुरक्षा और सौहार्द को निश्चित करे।
`गुमराह युवकों के संबंध में मिल्ली नेतृत्व का दायित्व, जोश में होश खो देना बिल्कुल गलत रणनीति' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि इधर एक वर्ष के अंदर देशभर में पुलिस ने तथाकथित आतंकी कहकर बहुत से मुसलमानों को गिरफ्तार किया है जिनमें से ज्यादातर युवा और शिक्षित हैं। अदालतों ने बहुत से गिरफ्तार लोगों को बाइज्जत तौर पर रिहा भी किया है जो इस बात का सबूत हैं कि पुलिस ने बहुत से लोगों को गिरफ्तार किया है। मुस्लिम नेतृत्व ने मुसलमानों की अंधाधुंध गिरफ्तारियों के खिलाफ विरोध भी किया है और कानूनी कार्रवाई भी की है और यह हर तरह से सही और जायज है क्योंकि यह हमारा संवैधानिक हक है। मुस्लिम संगठनों ने आतंकवाद के खिलाफ आम सभा, सम्पोजियम और सेमिनार भी किया जिसमें बिना कारण किसी की हत्या को गैर इस्लामी बताते हुए इसकी भर्त्सना भी की गई लेकिन किसी मिल्ली संगठन ने मुस्लिम युवाओं से सीधे तौर पर संबोधित करते हुए उनकी आतंकी गतिविधियों के मुस्लिम मिल्लत पर होने वाले हुए प्रभाव से उन्हें अवगत नहीं कराया है। हम एक बार फिर मिल्ली नेतृत्व से अपील करते हैं कि वह इस बाबत सक्रिय हों और जोश में आए हुए लोगों को होश की नसीहत करें।
तीसरे मोर्चा की आहट के बीच मुलायम सिंह की रणनीति पर चर्चा करते हुए दैनिक`प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने `मुलायम सिंह एक एक तीर से कई शिकार करने के लिए चला सियासी दांव' के शीर्षक से लिखा है कि मुलायम सिंह ने कैग रिपोर्ट पर संसद के गतिरोध को तोड़ने के लिए तेलुगूदेशम के साथ एक नया फार्मूला पेश किया कि वह लोग कोयला प्रकरण में किसी की तरफदारी नहीं कर रहे, इतना भर चाहते हैं कि इस गंभीर मामले में संसद के अंदर खुली बहस हो जबकि भाजपा के लोग जिद पर उतारू हैं जो कि सही नहीं है। उन्होंने कोयला आवंटन में हुईं गड़बड़ियों के लिए सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश से जांच कराने की मांग की। जहां मुलायम ने एक तरफ कांग्रेस को अपने स्टैंड से प्रसन्न किया वहीं विपक्षी एकता तोड़ने का प्रयास कर कांग्रेस की मदद करने का प्रयास किया है। दरअसल मुलायम 2014 की रणनीति पर अमल करने का प्रयास कर रहे हैं।
वाम मोर्चा, तेलुगूदेशम को साथ लेकर वह 2014 के लिए एक नया मोर्च बनाने की जुगाड़ में हैं। इस तथाकथित तीसरा मोर्चा बनाने के प्रयास का एक फायदा मुलायम सिंह को यह हुआ कि उन्होंने अपने आपको भाजपा से दूर कर लिया है। मुलायम सिंह यादव ऐसे पहले नेता हैं जिन्होंने मध्यावथि चुनाव की बात कही थी। मुलायम का यह सियासी दांव है। पता नहीं, कांग्रेस को यह समझ आएगा या नहीं? भाजपा के लिए भी यह एक चुनौती है।
`हथियारों के सौदागर दुनिया में शांति कैसे स्थापित कर सकते हैं' के शीर्षक से `दावत सहरोजा' ने लिखा है कि अमेरिकी कांग्रेस के थिंक टैंक सीआरएस की रिपोर्ट एक ऐसे समय सामने आई है जब संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून हथियारों के बेचने और खरीदने से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय नियम बनाने की बात कर रहे थे जिसमें अमेरिका सबसे बड़ी रुकावट है क्योंकि इसकी अर्थव्यवस्था या आर्थिक उन्नति बहुत हद तक हथियारों के बेचने पर आधारित है और वह हर वर्ष अपनी इस गैर इंसानी व्यापार को हर वर्ष दो गुना और तीन गुना करने की नीति पर अमल कर रहा है। सीआरएस की रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि गत वर्ष 2011 में केवल अमेरिका ने दूसरे देशों को 66 अरब 30 करोड़ के हथियार बेचे और दुनिया में बेचे हथियारों का इसका अनुपात 78 फीसदी रहा। यह एक सच्चाई है कि ज्यादा हथियारों की खरीद से दुनिया में ताकत का बैलेंस बिगड़ता रहता है। टिप्पणीकारों का यह भी कहना है कि अमेरिका केवल हथियार बनाने और बेचने का ही काम नहीं करता है बल्कि वह खतरनाक खेल खेल कर अपने हथियारों को बेचने के लिए माहौल भी बनाता है जैसा कि वह ईरान की फौजी ताकत और इसके परमाणु कार्यक्रम का हव्वा खड़ा करके कई वर्षों से खाड़ी देशों को हथियार बेच रहा है।
`बिना मर्द के बच्चा पैदा कर सकेंगी कुंआरी लड़कियां, आश्चर्य की बात यह है कि वह फिर भी पुंआरी ही रहेंगी' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दुनिया' ने अपनी सांझी रिपोर्ट में लिखा है कि लिंग की पहचान अब पुरानी होने लगी है। अब एक नई शुरुआत के लिए दुनिया को तैयार रहने की जरूरत है। वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि पुंआरी लड़कियां मर्द से मिले बिना बच्चे पैदा कर सकेंगी। प्रकृति ने जो व्यवस्था बनाई है, इंसान अब उसको चैलेंज करने के लिए तैयार नजर आ रहा है। यूरोप में महिलाएं आजादी की सभी हदें पार कर चुकी हैं, उनका कहना है कि हमें बच्चा हासिल करने के लिए मर्दों का गुलाम बनने की जरूरत नहीं है।
 हम आजाद हैं, हमें बच्चे की इच्छा हो तो हम मर्द से मिले बिना बच्चा पैदा कर सकेंगे। वैज्ञानिकों का मानना है कि उन्होंने अपने परीक्षण का बड़ा हिस्सा पूरा कर लिया है। ऐसे उदाहरण भी हैं जिनको वह अपने दावे के सबूत में दुनिया के सामने पेश कर सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो जमीन पर एक नई पीढ़ी वजूद में आएगी जो बिन बाप के होगी। ऐसे बच्चों की देखभाल कौन करेगा और पारिवारिक व्यवस्था कैसे बनी रहेगी, के सवाल ने बुद्धिजीवियों को परेशान कर रखा है।

इस साजिश का मकसद क्या है?

यूरोप ओर अमेरिका में एक गिरोह मौजूद है, जो थोड़े-थोड़े अंतराल पर बहुत सोच-समझकर पैगंबर इसलाम की निंदा करता है। कभी काटरून द्वारा तो कभी फिल्म द्वारा या फिर किसी और तरह से। सवाल यह है कि इस साजिश का मकसद क्या है?
 पैगंबर इसलाम की निंदा पर आधारित अमेरिकी फिल्म पर मुसलिम जमाअतों के पदाधिकारियों के विचारों को लगभग सभी उर्दू अखबारों ने प्रमुखता से प्रकाशित किया है। इन सभी जिम्मेदारों ने जहां इस निंदनीय फिल्म पर शांति के साथ विरोध प्रदर्शन करने का सर्मथन किया, वहीं हिंसक घटनाओं की आलोचना भी की। इसी के साथ अमेरिका से अपनी नीति पर पुनर्विचार करने का भी आग्रह किया। जमाअत इसलामी हिंद के अमीर मौलाना सैयद जलालउद्दीन उमरी ने कहा कि इसलाम और उसके पैगंबर के मान-सम्मान को पहले भी प्रभावित करने का षड्यंत्र रचा गया, जो नाकाम रहा और आज भी कोई शक्ति पैगंबर की र्मयादा को नुकसान पहुंचाने में कामयाब नहीं हो सकती। जमाअत इसलामी के अमीर ने अमेरिका की निंदनीय फिल्म पर हो रहे धरने-प्रदर्शन पर कहा कि हमें ऐसे काम से बचना चाहिए, जिससे मिल्लत की र्मयादा पर पर आंच आती हो। यह बात सही नहीं होगी कि अपराध कोई करे और सजा दूसरे को दी जाए। इससे इसलाम की छवि बिगड़ती है। मौलाना उमरी ने इसलामी संगठनों से अपील की कि वे दीन-ए-इसलाम को दूसरों तक पहुंचाने की अपनी जिम्मेदारी पहले से अधिक महसूस करें, ताकि आम लोग इसलाम की वास्तविक शिक्षाओं से परिचित हो सकें और अमेरिकी फिल्म जैसी घटना न दोहराईजा सके।

दैनिक ‘जदीद मेल’ में जफर आगा ने पहले पेज पर प्रकाशित अपने विशेष लेख ‘खुदा के लिए पश्चिमी देशों की साजिश का शिकार मत बनिए’ शीर्षक से लिखा है कि पैगंबर की निंदा का मुद्दा मुसलमानों की वह नस है, जो थोड़ा-सा दबाते ही फड़क उठती है। इस परिप्रेक्ष्य में दो बातें बिल्कुल साफ उभरकर सामने आती हैं। एक यह कि यूरोप ओर अमेरिका में एक गिरोह मौजूद है, जो थोड़े-थोड़े अंतराल पर बहुत सोच-समझकर पैगंबर की निंदा करता है। कभी काटरून द्वारा तो कभी फिल्म द्वारा या फिर किसी और तरह से। सवाल यह है कि इस षड्यंत्र का मकसद क्या है? पैगंबर की निंदा के बाद की घटनाओं में मुसलमानों की प्रतिक्रिया पर नजर डालिए। लाखों या हजारों की भीड़ गुस्से से बेकाबू, अमेरिकी उच्चायोग पर धावा बोल रही है। पूरी भीड़ में किसी को होश नहीं, तोड़फोड़, पुलिस से जंग में व्यस्त एक ऐसा दृश्य नजर आता है, जैसे यह वहशी भीड़ हो, जो गुस्से में होश खोकर वहशी अंदाज में आतंक पर उतर आया है। पैगंबर की निंदा का यही मकसद है। यही तो षड्यंत्र है। पहले फिल्म बनाओ, काटरून बनाओ और जब मुसलमान विरोध-प्रदर्शन में अपना आपा खो बैठें, तो उसकी फिल्म बनाओ और विभिन्न संचार माध्यमों से इसका प्रचार करो।

‘आर्थिक आत्महत्या की ओर बढ़ते कदम’ शीर्षक से दैनिक ‘इंकलाब’ ने संपादकीय में लिखा है कि अर्थव्यवस्था का मामला भी बिल्कुल अलग है। सरकार ने जब डीजल के दाम बढ़ाए और रसोई गैस की सुविधा कम की, तब आर्थिक विशेषज्ञों ने सरकार की इस जनविरोधी पहल का स्वागत करते हुए यहां तक कहा कि यह सही दिशा में उठाया जाने वाला छोटा-सा कदम है। सरकार को और कड़े कदम उठाने होंगे। जनता की चमड़ी उधेड़कर यदि कोई अर्थव्यवस्था और इसके चलते कोई लोकतांत्रिक सरकार पनप सकती है, तो यह अपनी तरह का पहला और नया मामला होगा। लोकतंत्र में जनता की भावनाओं के साथ-साथ उसके हितों का भी ख्याल रखा जाता है। जहां तक सवाल आर्थिक घाटे का है, जिसके कारण हमारी आर्थिक अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है और वैश्विक संस्थानों ने हमें तीखी नजरों से देखना शुरू कर दिया है, तो इस घाटे को कम करने के और भी उपाय हो सकते हैं। सरकार उन पर अमल क्यों नहीं कर रही है? सरकार अपने खचरें में कटौती करे। सरकार जनता के वोटों से चुनी जाती है या पेट्रोलियम कंपनियों के वोटों से?

दैनिक ‘जदीद खबर’ ने भी अपने संपादकीय में डीजल की बढ़ी कीमतों पर चर्चा करते हुए लिखा है कि जनता को दी जाने वाली सब्सिडी के बारे में तो कहा जाता है कि इसके कारण अर्थव्यवस्था प्रभावित हो रही है, लेकिन भ्रष्टाचार में लाखों-करोड़ों रुपयों का घोटाला हो रहा है, वह किसी को दिखाई नहीं देता। इसका कारण यह है कि यह रुपया कॉरपोरेट घराने, नेता और दलाल हजम कर जाते हैं। आम आदमी को चंद सौ रुपयों की सब्सिडी दी जाती है, तो इसे न तो सरकार सहन करने को तैयार है और न योजना आयोग को अच्छा लगता है। सरकार भूल गई कि जब फैसले का अधिकार जनता के हाथ में होगा, तो वह भी सख्त फैसला करने से परहेज नहीं करेगी।

इसके विपरीत दैनिक ‘अखबारे मशरिक’ ने अपने संपादकीय में लिखा है कि सरकार ने डीजल की कीमत में वृद्धि और रसोई गैस पर से बड़ी हद तक सब्सिडी खत्म करके एक मजबूत कदम उठाया है। सरकार अपने फैसले पर अडिग है। इस पर सरकार को जमे रहना चाहिए और दाएं-बाएं न देखकर सीधे रास्ते पर अपनी गाड़ी हांकते रहना चाहिए।

यूरोप ओर अमेरिका में एक गिरोह मौजूद है, जो थोड़े-थोड़े अंतराल पर बहुत सोच-समझकर पैगंबर इसलाम की निंदा करता है। कभी काटरून द्वारा तो कभी फिल्म द्वारा या फिर किसी और तरह से। सवाल यह है कि इस साजिश का मकसद क्या है?

Monday, September 17, 2012

`किराए की कोख भलाई का माध्यम या कारोबार का साधन'


भारत में किराए की बढ़ती कोख के चलन पर चर्चा करते हुए भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ एवं इस्लामी विद्वान मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी ने दैनिक `अखबारे मशरिक' में लिखा है कि भारत में 2007 में शुरू की गई यह मुहिम जो कई स्तरों पर शुरू की गई थी, ने कारोबारी रूप धारण कर लिया है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में यह कारोबार वार्षिक 45 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है और स्वास्थ्य मंत्रालय भी इस धंधे में शामिल हो गया है। गत दिनों कारोबारी मानसिकता वाला नं. एक राज्य गुजरात के आनंद से इस तरह की खबरें आई थीं कि एक हवेलीनुमा मकान में औरतों को जमा करके उन्हें ठेकेदारों ने औने-पौने दाम देकर किराए की कोख देने के लिए राजी कर लिया था। यह कोई तरस खाकर मानवता के लिए औलाद देने का मामला नहीं है बल्कि यह धंधे की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है। धार्मिक पहलू से तो यह सवाल अहम ही है कि किराए की कोख से पौदा होने वाला बच्चा वास्तव में किसका है, विरासत, जायदाद में हिस्से को लेकर सवाल उठना बिल्कुल स्वाभाविक है लेकिन भारत के पास सूचना है कि बंगलादेश, पाकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल देशों में भी यह धंधा खूब फल-फूल रहा है। दलाल, ठेकेदार और डाक्टरों की मिलीभगत से यह कारोबार इतना जोर पकड़ चुका है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक अकेले भारत में किराए की कोख द्वारा 25 हजार बच्चे पैदा किए जा रहे हैं।
इस कारोबार में डाक्टरों और ठेकेदारों को भारी रकम मिलती है जिससे दोनों पर कारोबारी मानसिकता पूरी तरह हावी हो गई है। औरत की बच्चादानी गोदाम का रूप लेती जा रही है, क्या औरत को सशक्तिकरण बनाने का मतलब इतना भोंडा हो सकता है, साथ ही इस पेशे और कारोबार से जुड़े डाक्टरों की समाज में क्या छवि बन रही है। साइंसी उन्नति और आविष्कार का इससे ज्यादा गलत इस्तेमाल और क्या हो सकता है।
`पूरी दुनिया में मुसलमान परेशान' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि एक तरफ फलस्तीन में मुसलमानों का खून इस्राइल बहा रहा है। अमेरिका के डर की वजह से दुनिया के सभी देश ईमानदारी से दामन बचा रहे हैं और फलस्तीन के मामले पर खामोश हैं। हमारे देश भारत में भी मुसलमानों को नई-नई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। म्यांमार का एक आतंकवादी संगठन जिस पर संयुक्त राष्ट्र ने प्रतिबंध लगा रखा है वहां दंगों की जिम्मेवार है और मुसलमानों का कत्ल कर रही है। अब तक ढाई हजार मुसलमानों के मारे जाने की सरकारी खबर है जबकि गैर-सरकारी सूचना के अनुसार यह संख्या कई गुना ज्यादा है। तथाकथित तौर पर ज्ञात हुआ है कि इस प्रतिबंधित संगठन को वहां की सरकार का समर्थन प्राप्त है। लेकिन अफसोस है कि संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका जैसे देशों की नजर मुसलमानों की हत्या पर क्यों नहीं जाती, जबकि यदि एक इस्राइली कहीं मारा जाए तो अमेरिका चीख उठता है। क्या अमेरिका और इस्राइल के इंसान ही इंसान हैं बाकी दुनिया में इंसान नहीं हैं या दुनिया में मुसलमान इंसान नहीं हैं। आंकड़ों के अनुसार म्यांमार में अब तक 12000 मुसलमानों को बर्मा फौज मार चुकी है। कुछ बस्तियां तो ऐसी हैं जहां मुसलमानों का नाम व निशान तक मिटा दिया गया है।
मुंबई के आजाद मैदान में मुसलमानों द्वारा असम दंगों को मीडिया में नहीं दिखाए जाने पर विरोध प्रदर्शन के समय हुई घटना पर `मीडिया और मुसलमान' के शीर्षक से दैनिक`जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में  लिखा है कि असम में योजनाबद्ध तरीके से मुसलमानों का नरसंहार किया गया।  हजारों मुसलमान बेघर हो गए, उनके घरों को जला दिया गया। दर्जनों मारे गए लेकिन राष्ट्रीय स्तर के मीडिया की ओर से इन घटनाओं की रिपोर्टिंग जरूरी नहीं समझी गई। इससे मुसलमानों में बेचैनी पैदा हुई। मुंबई का विरोध प्रदर्शन अचानक हिंसक हो गया। पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी, दो व्यक्ति मारे गए और 50 से अधिक जख्मी हुए। पुलिस और प्रचार-प्रसार की कुछ गाड़ियों को भी भीड़ ने जला दिया। यह असम घटनाओं पर नाराजगी थी। मीडिया में इस विरोध प्रदर्शन की जिस तरह रिपोर्टिंग की गई है वह सही नहीं है। कुछ अखबारों और टीवी चैनल ने इसे बढ़ाचढ़ा कर पेश करने की कोशिश की और कहा गया कि मुस्लिम युवक रोष की हालत में तेज धार हथियार लेकर सड़कों पर उतर आए थे। यह बिल्कुल गलत है।
कहीं भी मुसलमानों ने हथियार के साथ विरोध प्रदर्शन नहीं किया। मुसलमान शांति के साथ असम के मुसलमानों से हमदर्दी और प्रशासन व पुलिस की बेरुखी के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। मुंबई में हिंसा फूट पड़ी। यह निंदनीय है और इसे किसी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। मीडिया को अपनी जिम्मेदारी का एहसास करते हुए भेदभाव और संकीर्ण सोच वाले रुझान को खत्म करना होगा, यह मीडिया की जिम्मेदारी है।
`मोदी की दाढ़ी में तिनका, सांप्रदायिक तत्वों' के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाओ' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दुनिया' ने अहमदाबाद के अपने नुमाइंदे की रिपोर्ट के हवाले से लिखा है कि नरेन्द्र मोदी ने अपने सुझाव में कहा है कि जो सांप्रदायिक दंगों में  लिप्त रहने का आदी होगा, उसको चुनाव में हिस्सा नहीं लेने देना चाहिए और इस बाबत यह भी स्पष्टीकरण दिया गया है कि इसका संबंध फंडामेंटलिस्ट पालिटिक्स और मिलीटेंट फंडामेंटलिज्म से संबंध रहा हो, लेकिन इसमें यह स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है कि सांप्रदायिक हिंसा के दोषी वह किसको करार देते हैं। क्या एक ऐसा व्यक्ति, जिसके सांप्रदायिक दंगों में लिप्त होने का आरोप साबित हो गया है या फिर वह व्यक्ति जिसके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई है।
`भागवत के नीतीश प्रेम के पीछे क्या रणनीति है' के शीर्षक से दैनिक `वीर अर्जुन' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में प्रस्तावित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों को लेकर घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा है। मोदी बनाम नीतीश की लड़ाई खुलकर सामने आ चुकी है। इन सबके बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने सुशासन में बिहार को गुजरात से बेहतर बताकर एक नया विवाद पैदा कर दिया। यह संभव है कि मोहन भागवत ने ऐसा बयान नीतीश कुमार को शांत करने के लिए दिया हो। मोहन भागवत ने बिहार में संघ प्रचारक के पद पर  लगभग 10 साल तक काम किया है। वह नहीं चाहते कि अब लोकसभा चुनावों को दो साल से कम का समय रह गया है भाजपा और राजग के दूसरे सबसे बड़े घटक दल जनता दल (यू) में दरार बढ़े। इससे कांग्रेस को लाभ होगा। भागवत के बयान को इसलिए नीतीश को मनाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।