Saturday, May 12, 2012

इमाम काबा के आगमन से सियासी मकसद हासिल करने की कोशिश


बीते दिनों सऊदी अरब स्थित पवित्र काबा (हरम) के इमाम  6 दिवसीय पर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के दौर पर आए। उनके आगमन पर जहां मुसलमानों ने चौंकते हुए उनके लिए पलकें बिछाईं वहां कुछ मुस्लिम नेताओं द्वारा इससे सियासी फायदा उठाने की कोशिश की गई। इस बाबत चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार हफीज नेमानी जो प्रसिद्ध आलिम स्वर्गीय मौलाना मोहम्मद मंजूर नोमानी के सुपुत्र हैं, ने अपने स्तम्भ में मिर्जा गालिब के शेर की इस पंक्ति `रखियो गालिब मुझे इस तलख नवाई में माफ' के शीर्षक से समीक्षा करते हुए लिखा है कि सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि इमाम काबा का दौरा दारुल उलूम नदवातुल उलेमा लखनऊ के निमंत्रण पर नहीं बल्कि करौली (मलिहाबाद) स्थित जामिया सैयद अहम शहीद के मोहतमिम मालना सैयद सलमान हुसैनी की दावत पर हुआ है। मौलाना हुसैनी नदवा के शिक्षक भी हैं। मौलाना सलमान हुसैनी एक यूनानी मेडिकल कालेज चलाते हैं जिस पर गत दिनों छापा पड़ा था। इस पर एक हिन्दी दैनिक ने पूरे पेज पर छापे की कार्यवाही छापी थी। उसमें फर्जी मरीज, फर्जी दवाएं, फर्जी अस्पताल सब कुछ फर्जी या केवल कालेज और मौलाना हुसैनी के। यह सारा घपला वह बहन जी के खास सतीश चन्द्र मिश्रा की छत्रछाया में करते थे। यही कारण है कि चुनाव के समय जब नमक का हक अदा करने का समय आ गया तो मौलाना सलमान हुसैन ने कोई दर्जन मुस्लिम सियासी पार्टियों का मोर्चा बनाकर मुस्लिम वोटों को निप्रभावी करने की कोशिश की, लेकिन इसमें वह सफल नहीं हो सके। राज्य में सत्ता बदलने पर यह अनुमान लगाया जा रहा था कि सरकार इनके काले कारनामों को उजागर करेगी। इस खतरे को महसूस करते हुए मौलाना हुसैनी ने इमाम हरम को बुला लिया। उनके पीछे नमाज पढ़ती भीड़ को दिखाकर सरकार को चेता दिया कि मुसलमान उनके साथ हैं। इसी के साथ एक ऐसे इंजीनियरिंग और अटल बिहारी वाजपेयी की बनाई हुई यूनिवर्सिटी में जहां न किसी मुस्लिम बच्चे के दाखिला लेनी वाली घूस और वार्षिक फीस में कोई छूट की जाती हो वहां इमाम काबा का कार्यक्रम रखाना क्या ऐसा नहीं है जैसे यह भी आपस में सगे भाई हों।
`इमाम काबा के लखनऊ आगमन से सियासी उद्देश्य हासिल करने की कोशिश' के शीर्षक से दैनिक `जदीद खबर' ने पहले पेज पर प्रकाशित खबर में लिखा है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इमाम हरम के आगमन पर परम्परागत तरीके से उनका स्वागत किया था, एयरपोर्ट उन्हें लेने गए थे और यह घोषणा की थी कि इमाम हरम राज्य के मेहमान हैं और उन्हें किसी तरह की परशानी नहीं होने दी जाएगी। 4 मई को मौलाना अली मियां के नाम पर बने एफआई मेडिकल कालेज में मेहमान के तौर पर अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव को शरीक होना था लेकिन कार्यक्रम में न तो मुख्यमंत्री आए और न ही मुलायम सिंह यादव। इस बाबत जब जानकारी ली गई तो मालूम हुआ कि गत चुनाव में मौलाना हुसैनी ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी के साथ मिलकर बहुजन समाज पार्टी का चुनाव लड़ाया था। इसी तरह ईदगाह कन्वेंशन सेंटर में भी कुछ इसी कारण से मुख्यमंत्री शरीक नहीं हुए। मुख्यमंत्री मौलाना सलमान हुसैनी के एकता मोर्चों से काफी नाराज नजर आ रहे हैं। मौलाना ने सभी कार्यक्रम ऐसे लोगों को दिए हैं जो गत सरकार में बसपा कार्यालय के करीब रहे और समाजवादी पार्टी को हराने में सक्रिय भूमिका निभाई। इमाम काबा के आने पर चली सियासत के उपरांत स्टूडेंट्स इस्लामिक आर्गेनाइजेशन ऑफ इंडिया (एसआईओ) ने भी अपना कार्यक्रम निरस्त कर दिया और इसकी सूचना सऊदी उच्चायोग की दे दी गई है।
`इजरायल में अमेरिकी हथियारों का भंडार, मकसद क्या है?' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने अपने विशेष लेख में लिखा है कि समाचार के मुताबिक अमेरिका इजरायल को खतरनाक हथियार सप्लाई तो करता ही है, साथ ही इसने इजरायल में 80 करोड़ डालर का हथियार भी जमा कर रखा है जिसमें समय और जरूरत के तहत वृद्धि की जाती है। हथियारों को जमा करने का सिलसिला 1990 में शुरू हुआ था, जब हमास ने इजरायल के खिलाफ तहरीक इनतिफाजा शुरू की थी। हथियारों के जमा करने से यह सवाल पैदा हो रहा है कि आखिर अमेरिका वहां किसलिए हथियार जमा कर रहा है? क्या यह हथियार अमेरिका के लिए है या इजरायल के लिए। यदि यह हथियार अमेरिकी इस्तेमाल के लिए होते तो इनका इस्तेमाल इराक के खिलाफ जंग में जरूर किया जाता लेकिन ऐसा देखने में नहीं आया। इसलिए संभावना यही है कि हथियारों का भंडार इजरायल के लिए किया जा रहा है। गौरतलब बात यह है कि जब रूस अपने पड़ोसी यूरोपीय देशों में अमेरिका के सुरक्षा प्रेक्षपास्त्र का विरोध कर सकता है तो मुस्लिम देश अपने सबसे बड़े शत्रु इजरायल में अमेरिकी हथियारों के भंडार का विरोध क्यों नहीं कर सकते।
`मदरसों में हस्तक्षेप, नई बिदअत (बुराई) के लिए सफदर खां जिम्मेदार, मदरसों को आर्थिक सहयोग देने का उपाय करने में लगे हैं लेकिन मिस्टर खान को नहीं मालूम कि कैसा होगा मदरसों की आर्थिक सहयोग व्यवस्था' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खां ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि मदरसा बोर्ड को लेकर दो ग्रुप हैं एक इसके बनाने की मांग कर रहा है तो दूसरा इसका विरोध कर रहा है, उसका तर्प है कि इससे मदरसों में हस्तक्षेप की राह आसान हो जाएगी। दिल्ली अल्पसंख्यक चेयरमैन सफदर हुसैन खां इन दोनों के बीच मध्यस्या की भूमिका  में रहे हैं लेकिन उन्हें भी नहीं मालूम कि मदरसों की दी जाने वाली आर्थिक सहयोग की रूपरेखा क्या होगी? इस सवाल पर कि मदरसा बोर्ड के गठन के बिना मदरसों को किस तरह सहायता दी जाएगी, के सवाल पर सफदर खां ने कहा कि अभी प्रक्रिया चल रही है। वैसे मदरसे अल्पसंख्यक आयोग को पंजीकरण के लिए आवेदन करें, आयोग उनकी संसुति शिक्षा विभाग से कराएगा, इसके बाद उन्हें सहायता दी जाएगी।
`जमीअत उलेमा हिन्द का 31वां आम अधिवेशन' पर फोकस करते हुए साप्ताहिक `अल जमीअत' ने अपनी कवर स्टोरी बनाई है। अखबार लिखता है कि हमें कोशिश करनी चाहिए कि समस्याओं के समाधन हेतु यह अधिवेशन एक यादगार अधिवेशन बन जाए जिसके बाद हमें बार-बार समस्याओं के लिए रोना न पड़े। यह सातवां अवसर है जब राजधानी दिल्ली इन अधिवेशन की मेजबानी कर रही है। मुसलमानों की पहली और सक्रिय संगठन जमीअत उलेमा हिन्द का पहला अधिवेशन 19, 20, 21 नवम्बर 1920 को हुआ था जिसमें जमीअत के विचारक शेखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन देवबंदी मालटा की जेल से छूट कर आए थे और साफ-साफ कहा था कि `देशवासियों के सहयोग के बिना स्वाधीनता सम्भव नहीं है।'

Saturday, May 5, 2012

`यौन संबंध के लिए सही उम्र क्या है?'


बीते दिनों विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक मुद्दों पर उर्दू अखबारों ने अपने विचार प्रस्तुत किए और विशेष लेख प्रकाशित किए। दिल्ली की एक अदालत द्वारा यौन संबंधों को लेकर दिया गया फैसला भी चर्चा का विषय रहा। दैनिक `प्रताप' ने `यौन संबंध के लिए सही उम्र क्या है?' के शीर्षक से सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि दिल्ली की रोहिणी जिला अदालत की अतिरिक्त न्यायाधीश डॉ. कामिनी लॉ अपने फैसलों के लिए अकसर चर्चा में रहती हैं। उन्होंने अब एक केस में सांसदों से कहा है कि उन्हें सामाजिक व्यवहार में आए बदलाव को ध्यान में रखते हुए यौन संबंधों के लिए उपयुक्त आयु से जुड़े मौजूदा कानून पर विचार करना चाहिए। अदालत की यह टिप्पणी एक लड़की के कथित अपहरण के मामले में युवक को बरी करते हुए की गई। अदालत ने कहा कि आरोपी युवक और लड़की के बीच प्रेम संबंध थे। प्रेम कर रहे नौजवानों को दंडित करने के लिए हमारे देश में कानून तंत्र का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। खासकर जब उनके बीच उम्र का फासला स्वीकार्य सीमा तक है। अदालत ने कहा कि मामले को यहीं विराम देना चाहिए।
किसी भी परिस्थिति में इन नौजवानों का भविष्य उनके अतीत को उजागर करके बर्बाद नहीं किया जा सकता। दस्तावेजी जांच के बाद पता चला कि घटना के वक्त लड़की की उम्र 18-19 साल थी और आरोपी युवक के खिलाफ कुछ नहीं मिला। डॉ. लॉ का फैसला इसलिए विवादास्पद माना जाए क्योंकि किसी भी देश में इस विषय पर एक राय नहीं है। कनाडा में कसैंट की उम्र मई 2008 तक 14 होती थी अब उसे 16 वर्ष कर दिया गया पर जहां दोनों पार्टनरों की उम्र में 5 साल से कम का फर्प है तो यौन संबंध अपराध माना जाएगा।
इसी तरह अमेरिका में 50 राज्यों में यौन संबंध की उम्र 16 से 18 वर्ष है। लगभग हर राज्य में डेटिंग, हगिंग, हाथ पकड़ना व किसिंग अपराध नहीं है। सिनेमा और टीवी में बढ़ती अश्लीलता भी यौन संबंधों में आई तेजी का एक प्रमुख कारण है।
दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `यौन संबंधों के लिए 18 साल की उम्र तय करने का सरकार का फैसला बिल्कुल सही और उचित है' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गत दिनों केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दो व्यस्कों के बीच इच्छा से यौन संबंधों की आयु कम करके 18 साल का सुझाव दिया है। संभव है कि यह विधेयक संसद के वर्तमान सत्र में मंजूर हो जाए। खुले विचार वाले इसके लिए 16 साल की उम्र तय करने के पक्ष में हैं और हिन्दुस्तान द्वारा 18 साल की उम्र तय करने पर बड़ी घृणा दृष्टि से अफ्रीकी देशों खांडा और उगांडा का हवाला देते हुए कहते हैं कि ऐसा करके वह ओंगाडा और खांडा क्लब में दाखिल हो जाएगा। यह तर्प भी दिया जा रहा है कि गांव देहात में तो 18 साल से कम उम्र में शादियों का चलन है इसलिए 18 साल तय करना शहरों में रहने वालों के खिलाफ एक प्रकार का भेदभाव है। इस कानून के नतीजे में आत्महत्या और आनर किलिंग बढ़ जाएगी। देश में बच्चों के अधिकारों के विशेषज्ञ, शिक्षक और शोधकर्ता भी इस कानून के खिलाफ विरोध कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि यही सबसे बड़ा मसला है और यदि इसे इनकी इच्छानुसार हल नहीं किया गया तो कयामत टूट पड़ेगी। जो लोग शादी के बिना यौन संबंध के समर्थन हैं और उसके लिए 16 साल की आयु पर जोर दे रहे हैं। वास्तव में उनके सिर पर यौन का भूत सवार है। आज 16 तो क्या 18 और 20 साल की आयु में भी कोई व्यक्ति आर्थिक तौर पर अपने पांव पर खड़ा नहीं हो सकता। शिक्षा और दक्षता हासिल करने में 30 से 35 साल लग जाते हैं, फिर देश की जनसंख्या भी बढ़ रही है जिस पर काबू पाने की सख्त जरूरत है। इन हालत में 18 साल का सरकार का फैसला बिल्कुल सही और उचित है जिसका अनुमोदन और समर्थन किया जाना चाहिए।
दैनिक `जदीद मेल' में एमए हक ने `कांग्रेस और दिल्ली मदरसों की सहायता' की शीर्षक से लिखे पत्र में लिखा है कि दिल्ली एमसीडी में हार के बाद दिल्ली सरकार ने 2013 के विधानसभा चुनाव के लिए मुसलमानों के रिझाने की रणनीति शुरू कर दी है ताकि विधानसभा चुनाव में मुसलमानों का वोट कांग्रेस की झोली में जा सके। मुस्लिम शैक्षिक संस्थानों में केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने मुसलमानों को बेवकूफ बनाते हुए सेंध मारा है। मुस्लिम शैक्षिक संस्था, कालेज, मदरसा बोर्ड या संगठन जो भी सरकारी अनुदान पाते हैं उनको आरटीई के दायरे में लाकर राज्यसभा ने भी इस विधेयक को पास कर दिया। इसका अंदाजा बहुत से नेताओं को है या नहीं या जानते हुए इसकी अनदेखी कर रहे हैं ताकि चुनाव के समय उन्हें मुस्लिम समस्याओं पर रोटी सेंकने का मौका मिल सके। दिल्ली सरकार ने मदरसों को कहा है कि वह अपने मदरसों का पंजीकरण कराएं ताकि उन्हें अनुदान दिया जा सके। क्या दिल्ली सरकार अपनी अकेली शैक्षिक संस्था मदरसा आलिया, फतेहपुरी मस्जिद की शैक्षिक गतिविधियों, पाठ्यक्रम एवं स्तर को दिल्ली के मुसलमानों को उदाहरण के तौर पर पेश कर सकती है।
आज तक मदरसा आलिया के प्रमाण पत्र को न तो दिल्ली सरकार ने अपने सरकारी विभागों में मंजूरी दी और न उसका अब तक सही पाठ्यक्रम तैयार किया जैसा कि अन्य राज्यों के मदरसा बोर्ड के प्रमाण पत्र की मंजूरी है जिसके आधार पर आप सरकारी, प्राइवेट नौकरी और शैक्षिक गतिविधियां जारी रख सकें। अनुदान देकर वोट लेना कांग्रेस की परम्परा रही है।
`राजग गठबंधन भी खतरे में' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि इस गठबंधन को पहला धक्का 2004 में उस समय लगा था जब उसे आशा के विपरीत बुरी तरह से पराजय हुई थी। इसके बाद उमर फारुक ने कहा कि उनकी नेशनल पार्टी ने बाजपा से हाथ मिलाकर गलती की थी। इसके बाद नवीन पटनायक की बीजू जनता दल इससे अलग हो गई। अम्मा जयललिता ने सरपरस्ती से हाथ खींच लिया। एक अन्य सहयोगी दल चन्द्र बाबू नायडू ने भी कह दिया कि तेलुगूदेशम का भाजपा से हाथ मिलाना सबसे बड़ी गलती थी। इसके बावजूद एनडीए का वजूद बरकरार रहा। कम से कम तीन अहम पार्टियां अर्थात् अकाली दल, जनता दल (यू) और शिवसेना इसमें शामिल रहीं। राष्ट्रपति चुनाव ने इस गठबंधन के लिए भी खतरे की घंटी बजा दी है। भाजपा नेता सुषमा स्वराज के इस कथन के बाद कि हामिद अंसारी राष्ट्रपति पद के उपयुक्त उम्मीदवार नहीं हैं, एनडीए गठबंधन में शामिल दलों में दरार पैदा कर दी है। एनडीए अब्दुल कलाम के हक में भी पूरी तरह नहीं है। दूसरे यह जरूरी नहीं कि भाजपा द्वारा बताया गया नाम गठबंधन में शामिल सहयोगियों के लिए स्वीकार्य हो। भाजपा ने अभी तक खुलकर कोई नाम नहीं पेश किया है। यह संभव नहीं रहा कि भाजपा अपने तौर पर किसी का नाम तय कर सके। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि एनडीए की अगुवाई अब भाजपा के हाथ में न रह सके और तकनीकी तौर पर अब भी नहीं है।

मुसलमान वोट बैंक नहीं हैं


दिल्ली एमसीडी चुनाव में भाजपा की जीत पर दैनिक `जदीद मेल' ने `एमसीडी चुनाव के नतीजों' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि दिल्ली निगम (एमसीडी) को तीन भागों में विभाजित करने के बाद यह पहला चुनाव था। विभाजन के बाद होने वाले इस चुनाव में इस कारण ज्यादा उत्साह था कि अलग-अलग वार्डों में विभिन्न पार्टियां यदि सत्ता में आईं तो फिर दिल्ली में निगम के कामकाज में निश्चित रूप से बेहतरी आएगी जिसका फायदा आम आदमी को ही मिलेगा और बिजली, पानी, सड़कें, नालियां और नालों की सफाई आदि जैसे विकास कार्यों में तेजी आएगी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। भाजपा ने अपने पांच वर्षीय शासनकाल में कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं किया जिसके आधार पर उसे सत्ता में दोबारा लाया जाता लेकिन भाजपा ने इस चुनाव में महंगाई, बिजली और पानी को ही चर्चा का विषय बनाया जिसके नकारात्मक प्रभाव कांग्रेस पर पड़े और दिल्ली की जनता ने कांग्रेस के खिलाफ मतदान किया। एमसीडी में मिली हार के बाद कांग्रेस के ही कुछ नेता मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पर निशाना साध रहे हैं। ऐसा तो हर पराजय के बाद होता है लेकिन कांग्रेस को यह समझना होगा कि बिजली और पानी का निजीकरण प्राइवेट कम्पनियों की मनमानी एवं दैनिक उपभोग की वस्तुओं के बढ़ते दाम का बोझ आम आदमी पर पड़ रहा है और इसका खामियाजा पार्टी को कहीं न कहीं तो उठाना ही पड़ेगा।
दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने एमसीडी चुनाव में ओखला रार्ड 205 का विश्लेषण करते हुए रागिब आसिम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि आज जियादी रहमान की हार ने राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों को बदनाम करने का काम किया है क्योंक जिया को चुनावी जंग में झोंकने वाले व्यक्तियों ने अपने घोषणा पत्र और पब्लिक मीटिंग में बार-बार इस गिरी सोच को उजागर किया था कि हम इस चुनाव द्वारा यह जानना चाहते हैं कि ओखला को बटला हाउस एनकाउंटर को किस दृष्टि से देखते हैं, जनता इसे सही मानती है या इसे दिल्ली पुलिस का षड्यंत्र बताती है? नतीजे सामने आ चुके हैं अपने हितों के लिए पीड़ित जियाउर्रहमान को जहां पराजय की सूली पर चढ़ा दिया वहीं बटला हाउस एनकाउंटर को गलत मानने वाले लाखों भारतीयों को बदनाम करने का काम किया है। जिया का दुर्भाग्य यह था कि इसकी अगुवाई में एल-18 के शहीदों को किराए पर फ्लैट दिलाया गया था। यही कारण है कि घटना के बाद जिया अपने पिता अब्दुर्रहमान के साथ किरायेदारों द्वारा लिए गए वेरीफिकेशन फार्म दिखाने जामिया नगर थाने पहुंचे। पुलिस ने पिता पर आरोप लगाया कि उन्होंने फर्जी वेरीफिकेशन फार्म बनवाए हैं और जिया पर बम ब्लास्ट का आरोप लगाया जिसके बाद से वह साबरमती जेल में बंद है। सौ फीसदी न्यायप्रिय भारतीय इस एनकाउंटर को गलत मानते हैं और मानते रहेंगे।
दैनिक `हमारा समाज' ने `कांग्रेस की लगातार पराजय' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में एमसीडी चुनाव का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि इस निगम के चुनाव में एक अच्छी बात यह है कि गत बार के मुकाबले इस बार मुस्लिम पार्षदों की संख्या 11 से बढ़कर 16 हो गई है लेकिन यह संख्या अभी कम है। दिल्ली में यह संख्या कम से कम 25 होनी चाहिए। निगम पर 15 साल से भाजपा का कब्जा है। वार्डों में सफाई नहीं हुई है और गंदगी भरी हुई है, इसके बावजूद निगम चुनाव में भाजपा की हैट्रिक आश्चर्यजनक है। इससे अंदाजा होता है कि दिल्ली की जनता कांग्रेस से खुश नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि शीला दीक्षित ने दिल्ली को बहुत कुछ दिया है लेकिन अल्पसंख्यकों के मामले में वह कभी गंभीर नहीं रहीं। विशेषकर मुस्लिम अल्पसंख्यक को उन्होंने हमेशा धोखा दिया। दिल्ली सरकार ने हर जिले में दिल्ली अल्पसंख्यक वित्तीय निगम कायम कर रखा है जिसका काम गरीब अल्पसंख्यकों को कर्ज उपलब्ध कराना है लेकिन इसमें ऐसी शर्त रखी गई है कि 95 फीसदी मुसलमान इन शर्तों का पूरा नहीं कर पाता। उन्होंने हर बार वादा किया कि हम जल्द उन शर्तों को आसान करेंगे।
यह मुसलमानों के साथ धोखा है। इसी तरह उर्दू भाषा के लिए हर बैठक में कहती हैं कि उर्दू से मुझे प्यार है इसलिए मैं चाहती हूं कि उसकी उन्नति हो, लेकिन उनका यह ऐलान हमेशा ऐलान ही रहा और उनसे भविष्य में कोई अच्छी आशा भी नहीं की जा सकती। जाहिर है इंसान कब तक झूठ के सहारे खुद को कामयाब करेगा। एक न एक दिन तो उसे पराजय का मुंह देखना ही पड़ेगा।
`कांग्रेस की पराजय' की समीक्षा करते हुए दैनिक `जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में कांग्रेस को नाकामी का मुंह देखना पड़ा। मुस्लिम क्षेत्रों में मटियामहल, बल्लीमारान और तुर्पमान गेट में राष्ट्रीय लोक दल के उम्मीदवार कामयाब हुए हैं जबकि ओखला की दो सीटों में से एक समाजवादी ने जीती है और दूसरी पर कांग्रेस के वर्तमान पार्षद शोएब दानिश ने 500 के मामूली वोटों से जीती है। इसके अलावा जाफराबाद, सुंदर नगरी, उस्मानपुर, मौजपुर, कर्दमपुरी में भी कांग्रेस की हार हुई है। दिल्ली के मुसलमान कांग्रेस की कार्यप्रणाली से खुश नहीं हैं। एक ओर जहां महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे हैं वहां दिल्ली पुलिस द्वारा मासूम युवाओं को आतंकवाद के आरोप में फंसाने की एक के बाद एक घटना का उन पर बहुत ज्यादा प्रभाव है।
दिल्ली में वक्फ बोर्ड हो या हज कमेटी हर जगह नेतृत्व की कमी है। वर्षों से हज कमेटी बिना किसी स्थायी चेयरमैन के चल रही है। कांग्रेस पार्टी मुसलमानों के वोट तो लेना चाहती है लेकिन वह उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखना चाहती है।
दैनिक `इंकलाब' में शकील शम्सी ने अपने स्तंभ में लिखा है कि भाजपा अपनी जीत की खुशी मना रही है जबकि उसने ऐसी कोई भी कामयाबी हासिल नहीं की है जिस पर उसको गर्व करना चाहिए। उल्टे भाजपा की कुछ सीटें ही कम हुई हैं। इसलिए वह इस भ्रम में न रहें कि जनता उसके साथ है। एक दिलचस्प बात यह है कि एमसीडी के इस चुनाव में भाजपा ने महंगाई, भ्रष्टाचार को तो चुनावी मुद्दा बनाया लेकिन राम मंदिर का जिक्र नहीं किया और न ही मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला, दिल्ली में भाजपा ने अपनी सोच के विपरीत चुनावी मुहिम चलाई। मुस्लिम बहुल क्षेत्र कसाबपुरा में मुसलमानों ने भाजपा को वोट दिया और नूरबानों को जिता दिया। मुसलमानों ने फिर यह बात जता दी कि वह वोट बैंक नहीं हैं और एक जगह उनके वोट पड़ने का कोई ठेका नहीं ले सकता। उन्होंने यह भी साबित कर दिया कि भावनात्मक मुद्दों द्वारा उनको अपनी सोच बदलने पर मजबूर नहीं किया जा सकता।