बीते सप्ताह बटला हाउस एनकाउंटर की तीसरी बरसी और नरेन्द्र मोदी के उपवास ने प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। दोनों ही मुद्दे राष्ट्रीय स्तर के हैं और इन पर राजनीति होती है। यही कारण है कि इनसे संबंधित जब कोई बात सामने आती है तो वह राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन जाती है। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय।
उर्दू दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में `बटला हाउस की तीसरी वर्षगांठ' के शीर्षक से चर्चा करते हुए लिखा है कि इस अवसर पर धरना प्रदर्शन के लिए आजमगढ़ से एक विशेष ट्रेन द्वारा राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल सदस्य आए थे। इन्होंने घटना की सीबीआई जांच की मांग की। दिलचस्प बात यह रही कि उलेमा ने हजारों समर्थकों के बीच कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पर खास निशाना लगाया। उलेमा काउंसिल चेयरमैन मौलाना जाकिर रशीद मदनी ने कहा कि दिग्विजय ने मुझसे खुद कहा था कि उन्होंने इस मुठभेड़ के फर्जी होने की बात कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से कही थी, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। मुझे लगता है कि दिग्विजय नौटंकी करते हैं, उन्हें मुसलमानों से कोई हमदर्दी नहीं है। इंस्पेक्टर मोहन चन्द शर्मा की शहादत को जिस तरह संदेह के कठघरे में खड़ा किया गया, उससे निश्चित तौर पर दिल्ली पुलिस के जवानों का ही नहीं बल्कि पूरे देश के सुरक्षा बलों का हौंसला टूटा होगा। इसका नकारात्मक प्रभाव यह जरूर हुआ कि पुलिस एवं अन्य सुरक्षा बलों के जवान अच्छी तरह से समझ चुके हैं कि आतंक के खिलाफ चुप बैठना और सांप निकलने के बाद लकीर पीटना इसका पहला दायित्व है आतंकियों को पकड़ना नहीं। नतीजे के तौर पर अब राजधानी दिल्ली में कोई भी बम धमाका हो इसमें पुलिस के हाथ खाली थे और खाली हैं।
मोर्चा के इंचार्ज जेके जैन की उपस्थिति आश्चर्यजनक रही। इस रैली में जेके जैन ने मुसलमानों को लुभाने के लिए बड़ी लच्छेदार तकरीर की, जिसे तकरीर के शौकीन मुसलमानों ने खूब चटखारे लेकर सुना। जैन ने एनकाउंटर की अदालती जांच कराने की मुसलमानों की मांग का खुलकर समर्थन किया। जैन ने इस स्थिति के लिए मुसलमानों के कांग्रेस प्रेम को कसूरवार करार दिया, क्योंकि उन्होंने आज तक भाजपा को एक बार भी मौका नहीं दिया। भाजपा का मुस्लिम प्रेम केवल बटला हाउस एनकाउंटर की जांच तक ही सीमित नहीं है बल्कि अभी भरतपुर में हुई पुलिस मुठभेड़ में मुसलमानों के नुकसान का जायजा लेने और मामले की तहकीकात के लिए भाजपा ने दो सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल भेजा है। इस प्रतिनिधिमंडल में भाजपा के मुस्लिम शाहनवाज हुसैन भी मौजूद थे। उन्होंने वापसी पर बयान दिया कि वहां पुलिस ने मुस्लिम युवकों को कत्ल किया और एक मस्जिद में तोड़फोड़ की।
यह बयान देते समय शाहनवाज यह भूल गए कि जिस भीड़ के साथ पुलिस ने भरतपुर में मुसलमानों पर अत्याचार किया, वह संघ परिवार के गुंडों की भीड़ थी। उन्होंने ही कब्रिस्तान की जमीन पर कब्जा किया था जिसके खिलाफ मुस्लिम विरोध कर रहे थे। बाद में संघ परिवार के गुंडों ने पुलिस के साथ मिलकर मुसलमानों की जान व माल से ऐसा ही खिलवाड़ किया जैसा कि गुजरात में किया गया था।
गुजरात मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा तीन दिन के उपवास पर दैनिक `हमारा समाज' में `उपवास बनाम बकवास' के शीर्षक से लिखा है कि मोदी का यह उपवास मुसलमानों के नरसंहार को नहीं धो सकता, इसलिए कि यह पूरी तरह बकवास है और `नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली' की जीती जागती तस्वीर है। इस तरह की बकवास से यदि मोदी यह समझते हैं कि हम मुसलमानों का दिल जीत लेंगे अथवा 2014 में प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करने के लिए जमीन तैयार कर सकेंगे तो यह उनकी भूल है, वैसे कुछ खरीदारों को खरीदने में शायद उन्हें कुछ कामयाबी मिल जाए, तब भी यह उनके गुनाहों को नहीं धो सकती। उन्हें अब उपवास करने के बजाय वनवास में जाकर मजलूमों की पुकारों को आसमान से टकराने का इंतजार करना चाहिए। इसलिए इस उपवास से किसी तरह की आशा न कर मोदी को प्राकृतिक मार का इंतजार करना चाहिए और बस।
दैनिक `इंकलाब' ने `उपवास और इंसाफ' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि इस संदर्भ में हमें विश्वास है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के `उपवास' पर बहुत से लोग दिल ही दिल में मुस्कुरा रहे होंगे कि दूसरों को बेवकूफ समझने वाला यह व्यक्ति खुद कितना बेवकूफ है। सद्भावना की बात उस व्यक्ति की जुबान से अच्छी लगती है जो सद्भावना पर विश्वास रखता हो।
यदि वह पूर्व में ऐसा नहीं था तब भी उसे सद्भावना की बात करना जब देगा शर्त यह है कि वह अपने तौर-तरीके बदल चुका हो और अपनी हरकतों पर उसे आत्मग्लानि महसूस हो। मोदी `उपवास' पर बैठे हुए हैं और सद्भावना की बातें कर रहे हैं। यह मुंह और मसूर की दाल।
मोदी ने जनता को बांटकर अतीत में राजनैतिक और चुनावी फायदे तो हासिल कर लिए लेकिन धीरे-धीरे ही सही, अब वह समय आ रहा है जो उन्हें कठघरे में खड़ा करके उनसे गुजरात नरसंहार का न केवल जवाब मांगेगा बल्कि बेगुनाहों के कत्ल का हिसाब मांगेगा। अपनी गर्दन को इस तरह फंसता देखकर मोदी बौखला गए हैं।
`तीन साल बाद भी...' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बटला हाउस एनकाउंटर के तीन साल पूरे हो गए। तीन साल पूर्व जो सवालात उठाए गए थे वह आज भी उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं क्योंकि इन सवालों का कोई उपयुक्त जवाब अभी तक नहीं दिया जा सका है। इस बीच विभिन्न अवसरों पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ओर से यह मांग की जाती रही कि इस घटना की अदालती जांच होनी चाहिए लेकिन इस जांच का यह कहकर विरोध किया जाता रहा कि इससे पुलिस का मनोबल गिरेगा। विशेष बात यह भी थी कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इसी बटला हाउस एनकाउंटर के मामले में अपनी साख खो चुका है। यह वही संस्था है जिसने पुलिस की कहानी को सही करार देते हुए घर बैठे अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली थी और अपनी टीम को घटनास्थल पर वास्तविकता जानने के लिए नहीं भेजी। सवाल यह है कि मानवाधिकार आयोग ने किसके इशारे पर अपनी जिम्मेदारी से फरार की कोशिश की थी।
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Friday, September 23, 2011
Sunday, September 18, 2011
मोदी की अग्निपरीक्षा'
बीते सप्ताह राष्ट्रीय एकता परिषद में सांप्रदायिक हिंसा रोधक संबंधी विधेयक पर राजनैतिक पार्टियों सहित यूपीए सहयोगी तृणमूल कांग्रेस का विरोध, 2002 के गुजरात नरसंहार में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामले को निचली अदालत में सुनवाई के लिए भेजना, आडवाणी की रथ यात्रा एवं अन्ना हजारे का राष्ट्रव्यापी आंदोलन जैसे कई मुद्दों पर उर्दू समाचार पत्रों ने चर्चा की है। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय।
दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `सांप्रदायिक हिंसा विधेयक फिर खटाई में, सांप्रदायिक और सेकुलर दोनों पार्टियों ने इसका विरोध किया' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि तीन साल बाद हुई राष्ट्रीय एकता परिषद की इस बैठक में कुछ हाई प्रोफाइल मुख्यमंत्रियों जैसे नरेन्द्र मोदी, मायावती, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और जयललिता शरीक नहीं हुईं। इस बैठक में विधेयक की धज्जियां बिखेर कर रख दी गईं। नेशनल एडवाइजरी काउंसिल (एनआईसी) ने विधेयक का जो ड्राफ्ट तैयार किया था उसमें भाजपा, जनता दल (यूनाइटेड), अकाली दल, सीपीआई(एम) बीजू जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल, यहां तक कि यूपीए समर्थक तृणमूल कांग्रेस ने इसमें सौ-सौ कीड़े निकाले स्वयं कांग्रेस के अन्दर विधेयक को लेकर कोई उत्साह नहीं था और ऐसा लगा जैसे इस महत्वपूर्ण मुद्दे को हल करने के मामले में सरकार को एक किनारे कर दिया गया है। एनआईसी इस विधेयक की रूपरेखा को फिर से तैयार करेगी।
जाहिर है इस विधेयक द्वारा अल्पसंख्यकों के आंसू पोंछने की जो कोशिश की जा रही थी उस पर पानी फिर जाएगा और उनके सिर पर पूर्व की तरह ही तलवार लटकती रहेगी। इसलिए हमें सबसे पहले सांप्रदायिक मानसिकता पर चोट करनी होगी जिसने एक अहम कानून से देश को वंचित करा दिया।
`प्रस्तावित धार्मिक हिंसा विधेयक का विरोध' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में भाजपा द्वारा अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों को बांटने के आरोप पर चर्चा करते हुए लिखा है कि यूपीए सरकार को अल्पसंख्यकों के अधिकारों एवं इंसाफ दिलाने वाले किसी प्रस्ताव पर भाजपा से सकारात्मक आशा नहीं की जा सकती। भाजपा के इस विचार कि प्रस्तावित विधेयक अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक को विभाजित करता है, को निरस्त कर देना चाहिए। क्योंकि यह साबित हो चुका है कि दंगों में धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यकों पर अत्याचार किया जाता है इसलिए ऐसे कानून बनाए जाएं जो अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का एहसास दिला सकें। भाजपा अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में फर्प के खिलाफ तो है लेकिन दंगों के दौरान इस आधार पर हो रहे नंगे नाच पर वह हमेशा मौन रहती है। इस बात को समझना होगा कि जो जख्म समाज के नीचे स्तर तक पहुंच गया है उसकी अनदेखी से स्थिति नहीं बदलेगी बल्कि इस नासूर का ऑपरेशन करके समाज को सांप्रदायिकता से मुक्ति दिलाना जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि सरकार इस विधेयक को संसद में पेश कर इसे अंजाम तक पहुंचाए।
दैनिक `इंकलाब' ने `गुलबर्ग सोसाइटी और सुप्रीम कोर्ट' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि इस बाबत सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही जो लोग खुशियां मना रहे हैं, वह हमारी समझ से परे है। सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कहा कि अब अहमदाबाद का मजिस्ट्रेट जो भी फैसला सुनाएगी उसके आगे जकिया जाफरी समेत इंसाफ चाहने वाले सभी नतमस्तक हो जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नहीं कहा कि अब वह कोई अपील नहीं सुनेगा। इस केस को निचली अदालत के पास भेजने का जो कारण हमारी समझ में आता है वह यह कि इसका संबंध हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था से है। यदि निचली अदालतों के फैसलों से जनता की बेचैनी बढ़ती रही और हर बड़ा और संगीन केस सुप्रीम कोर्ट पहुंचता रहे और उसी से आशा होने लगी तो निचली अदालतों की जरूरत क्या रह जाएगी और यदि निचली अदालतें ऐसे ही फैसले सुनाने लगे जिससे इंसाफ चाहने वालों को मायूसी हो तो फिर इस तरह के सभी केस सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचेंगे जिससे सुप्रीम कोर्ट के पास देशभर से मुकदमों की भीड़ लग जाएगी, वैसे भी सुप्रीम कोर्ट में आवेदन करने वालों की कमी नहीं है। इस अदालत ने यह तो कहा है कि अब उसे गुलबर्ग सोसाइटी केस पर नजर रखने (श्दहग्tदग्हु) की जरूरत नहीं है लेकिन यह नहीं कहा है कि अब वह इस केस की सुनवाई नहीं करेगा।
`नरेन्द्र मोदी की अग्निपरीक्षा' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र के राजनैतिक विरोधियों को पूरी आशा थी कि सुप्रीम कोर्ट सोमवार के दिन मोदी को 2002 के गोधरा कांड के बाद हुए दंगों पर मुकदमे में लपेट लेगी और उन्हें कठघरे में खड़ा कर देगी। लेकिन मोदी को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे इनके विरोधियों को सुप्रीम कोर्ट से मायूसी हाथ लगी। बड़ी अदालत ने दंगा रोकने में इनकी भूमिका में लापरवाही पर कोई फैसला सुनाने से इंकार कर दिया। जस्टिस डीके जैन की अगुवाई वाली तीन जजों की खंडपीठ ने मोदी और अन्य सरकारी अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के लिए भी कोई विशेष हिदायत जारी करने से इंकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खुशी जाहिर करते हुए जेटली ने कहा कि भाजपा शुरू से ही कहती रही है कि मोदी पर लगाए गए आरोप झूठे हैं और इनकी दंगों में कोई भूमिका नहीं थी। इससे साबित हुआ कि केवल प्रोपेगंडा और झूठे आरोप कभी सच नहीं हो सकते। मोदी का नाम एक भी चार्जशीट में नहीं है और न ही विशेष जांच टीम ने उन्हें कसूरवार पाया है। सुषमा ने कहा कि मोदी ने अग्निपरीक्षा पास कर ली है, सत्यमेव जयते।
जमीअत उलेमा हिन्द के एक धड़े जिसके अध्यक्ष मौलाना अरशद हैं, के बारे में विकीलीक्स का यह बयान कि मौलाना अमेरिका के लिए सकारात्मक व्यक्तित्व है, को अमेरिका द्वारा उन्हें बदनाम करने का षड्यंत्र है, के विषय पर आमिर सलीम खाँ ने `हमारा समाज' में लिखा है कि उपरोक्त कथन 2008 में भारत में अमेरिकी दूत मलफोर्ड का है जिसका रहस्योद्घाटन विकीलीक्स ने अपने केबल में किया है जिसमें कहा गया है कि यदि जमीअत पर मौलाना अरशद मदनी का वर्चस्व रहता है तो यह बात अमेरिका के हित में बेहतर होगी, क्योंकि दूसरे ग्रुप के मौलाना महमूद मदनी ने आतंकवाद विरोधी मुहिमों के दौरान अमेरिका की कड़ी आलोचना की है जबकि इनके मुकाबले मौलाना अरशद मदनी सुलझे हुए हैं और उनकी तरफ से कभी अमेरिका का विरोध नहीं हुआ है। भारत स्थित अमेरिकी उच्चायोग ने पूरी स्थिति को उजागर करते हुए कहा है कि दारुल उलूम देवबंद में 25 फरवरी 2008 में आतंकवाद विरोधी कांफ्रेंस में जहां एक तरफ मौलाना अरशद मदनी ने आतंकवाद को चर्चा का विषय बनाया था वहीं मौलाना महमूद मदनी और इनके समर्थकों ने आतंकवाद विरोध के साथ-साथ अमेरिका के खिलाफ खूब हंगामा किया।
दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `सांप्रदायिक हिंसा विधेयक फिर खटाई में, सांप्रदायिक और सेकुलर दोनों पार्टियों ने इसका विरोध किया' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि तीन साल बाद हुई राष्ट्रीय एकता परिषद की इस बैठक में कुछ हाई प्रोफाइल मुख्यमंत्रियों जैसे नरेन्द्र मोदी, मायावती, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और जयललिता शरीक नहीं हुईं। इस बैठक में विधेयक की धज्जियां बिखेर कर रख दी गईं। नेशनल एडवाइजरी काउंसिल (एनआईसी) ने विधेयक का जो ड्राफ्ट तैयार किया था उसमें भाजपा, जनता दल (यूनाइटेड), अकाली दल, सीपीआई(एम) बीजू जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल, यहां तक कि यूपीए समर्थक तृणमूल कांग्रेस ने इसमें सौ-सौ कीड़े निकाले स्वयं कांग्रेस के अन्दर विधेयक को लेकर कोई उत्साह नहीं था और ऐसा लगा जैसे इस महत्वपूर्ण मुद्दे को हल करने के मामले में सरकार को एक किनारे कर दिया गया है। एनआईसी इस विधेयक की रूपरेखा को फिर से तैयार करेगी।
जाहिर है इस विधेयक द्वारा अल्पसंख्यकों के आंसू पोंछने की जो कोशिश की जा रही थी उस पर पानी फिर जाएगा और उनके सिर पर पूर्व की तरह ही तलवार लटकती रहेगी। इसलिए हमें सबसे पहले सांप्रदायिक मानसिकता पर चोट करनी होगी जिसने एक अहम कानून से देश को वंचित करा दिया।
`प्रस्तावित धार्मिक हिंसा विधेयक का विरोध' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में भाजपा द्वारा अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों को बांटने के आरोप पर चर्चा करते हुए लिखा है कि यूपीए सरकार को अल्पसंख्यकों के अधिकारों एवं इंसाफ दिलाने वाले किसी प्रस्ताव पर भाजपा से सकारात्मक आशा नहीं की जा सकती। भाजपा के इस विचार कि प्रस्तावित विधेयक अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक को विभाजित करता है, को निरस्त कर देना चाहिए। क्योंकि यह साबित हो चुका है कि दंगों में धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यकों पर अत्याचार किया जाता है इसलिए ऐसे कानून बनाए जाएं जो अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का एहसास दिला सकें। भाजपा अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में फर्प के खिलाफ तो है लेकिन दंगों के दौरान इस आधार पर हो रहे नंगे नाच पर वह हमेशा मौन रहती है। इस बात को समझना होगा कि जो जख्म समाज के नीचे स्तर तक पहुंच गया है उसकी अनदेखी से स्थिति नहीं बदलेगी बल्कि इस नासूर का ऑपरेशन करके समाज को सांप्रदायिकता से मुक्ति दिलाना जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि सरकार इस विधेयक को संसद में पेश कर इसे अंजाम तक पहुंचाए।
दैनिक `इंकलाब' ने `गुलबर्ग सोसाइटी और सुप्रीम कोर्ट' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि इस बाबत सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही जो लोग खुशियां मना रहे हैं, वह हमारी समझ से परे है। सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कहा कि अब अहमदाबाद का मजिस्ट्रेट जो भी फैसला सुनाएगी उसके आगे जकिया जाफरी समेत इंसाफ चाहने वाले सभी नतमस्तक हो जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नहीं कहा कि अब वह कोई अपील नहीं सुनेगा। इस केस को निचली अदालत के पास भेजने का जो कारण हमारी समझ में आता है वह यह कि इसका संबंध हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था से है। यदि निचली अदालतों के फैसलों से जनता की बेचैनी बढ़ती रही और हर बड़ा और संगीन केस सुप्रीम कोर्ट पहुंचता रहे और उसी से आशा होने लगी तो निचली अदालतों की जरूरत क्या रह जाएगी और यदि निचली अदालतें ऐसे ही फैसले सुनाने लगे जिससे इंसाफ चाहने वालों को मायूसी हो तो फिर इस तरह के सभी केस सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचेंगे जिससे सुप्रीम कोर्ट के पास देशभर से मुकदमों की भीड़ लग जाएगी, वैसे भी सुप्रीम कोर्ट में आवेदन करने वालों की कमी नहीं है। इस अदालत ने यह तो कहा है कि अब उसे गुलबर्ग सोसाइटी केस पर नजर रखने (श्दहग्tदग्हु) की जरूरत नहीं है लेकिन यह नहीं कहा है कि अब वह इस केस की सुनवाई नहीं करेगा।
`नरेन्द्र मोदी की अग्निपरीक्षा' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र के राजनैतिक विरोधियों को पूरी आशा थी कि सुप्रीम कोर्ट सोमवार के दिन मोदी को 2002 के गोधरा कांड के बाद हुए दंगों पर मुकदमे में लपेट लेगी और उन्हें कठघरे में खड़ा कर देगी। लेकिन मोदी को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे इनके विरोधियों को सुप्रीम कोर्ट से मायूसी हाथ लगी। बड़ी अदालत ने दंगा रोकने में इनकी भूमिका में लापरवाही पर कोई फैसला सुनाने से इंकार कर दिया। जस्टिस डीके जैन की अगुवाई वाली तीन जजों की खंडपीठ ने मोदी और अन्य सरकारी अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के लिए भी कोई विशेष हिदायत जारी करने से इंकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खुशी जाहिर करते हुए जेटली ने कहा कि भाजपा शुरू से ही कहती रही है कि मोदी पर लगाए गए आरोप झूठे हैं और इनकी दंगों में कोई भूमिका नहीं थी। इससे साबित हुआ कि केवल प्रोपेगंडा और झूठे आरोप कभी सच नहीं हो सकते। मोदी का नाम एक भी चार्जशीट में नहीं है और न ही विशेष जांच टीम ने उन्हें कसूरवार पाया है। सुषमा ने कहा कि मोदी ने अग्निपरीक्षा पास कर ली है, सत्यमेव जयते।
जमीअत उलेमा हिन्द के एक धड़े जिसके अध्यक्ष मौलाना अरशद हैं, के बारे में विकीलीक्स का यह बयान कि मौलाना अमेरिका के लिए सकारात्मक व्यक्तित्व है, को अमेरिका द्वारा उन्हें बदनाम करने का षड्यंत्र है, के विषय पर आमिर सलीम खाँ ने `हमारा समाज' में लिखा है कि उपरोक्त कथन 2008 में भारत में अमेरिकी दूत मलफोर्ड का है जिसका रहस्योद्घाटन विकीलीक्स ने अपने केबल में किया है जिसमें कहा गया है कि यदि जमीअत पर मौलाना अरशद मदनी का वर्चस्व रहता है तो यह बात अमेरिका के हित में बेहतर होगी, क्योंकि दूसरे ग्रुप के मौलाना महमूद मदनी ने आतंकवाद विरोधी मुहिमों के दौरान अमेरिका की कड़ी आलोचना की है जबकि इनके मुकाबले मौलाना अरशद मदनी सुलझे हुए हैं और उनकी तरफ से कभी अमेरिका का विरोध नहीं हुआ है। भारत स्थित अमेरिकी उच्चायोग ने पूरी स्थिति को उजागर करते हुए कहा है कि दारुल उलूम देवबंद में 25 फरवरी 2008 में आतंकवाद विरोधी कांफ्रेंस में जहां एक तरफ मौलाना अरशद मदनी ने आतंकवाद को चर्चा का विषय बनाया था वहीं मौलाना महमूद मदनी और इनके समर्थकों ने आतंकवाद विरोध के साथ-साथ अमेरिका के खिलाफ खूब हंगामा किया।
Saturday, September 10, 2011
`धमाकों पर धमाके'
बीते सप्ताह अमर सिंह की जेल यात्रा सहित अनेक मुद्दों पर उर्दू अखबारों ने चर्चा की है लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट के गेट नं. 5 पर हुए बम धमाके ने देशवासियों को सकते में डाल दिया है। सभी की इच्छा है कि ऐसी आतंकी घटना को अंजाम देने वालों को सरेआम फांसी दी जाए ताकि कोई दूसरा ऐसा काम करने की हिम्मत न कर सके। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय। दैनिक `इंकलाब' ने `धमाकों पर धमाके' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि जब भी कोई ऐसी घटना होती है, घूम-फिरकर वही चन्द सवालात नए सिरे से उभरते हैं जिनका संतोषजनक जवाब पिछली वारदातों के बाद भी नहीं मिला था। मिसाल के तौर पर हमारा खुफिया विभाग क्या करता है? यदि खुफिया विभाग ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की तो संबंधित विभाग क्या करते रहे? हमारी सुरक्षा व्यवस्था इतनी फुसफुसी क्यों है कि उसकी आंखों में किसी भी समय धूल झोंकी जा सकती है। राजधानी में मोटे तौर पर अब तक बम धमाकों की डेढ़ दर्जन से अधिक वारदातें हो चुकी हैं। अब तक किसी धमाका केस में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है। यही कारण है जिससे आतंकवादियों के हौंसले बुलंद होते हैं। हर धमाके के बाद `हमारा संकल्प कि हम कसूरवारों को नहीं बख्शेंगे' जैसे बयानात अपनी छाप खोते जा रहे हैं क्योंकि अब तक हमारे सामने केवल बयानात ही हैं कोई ठोस तफ्तीश नहीं है।
`इंसाफ का मंदिर लहुलूहान' के शीर्षक से `हमारा समाज' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि देश व कौम और समाज के दुश्मनों द्वारा इंसाफ के मंदिर को लहुलूहान करने, 12 मासूमों को मौत के घाट उतारने और 83 लोगों को मौत व जिन्दगी के फंदे पर लटकाने के बाद सरकार की आंखें खुली हैं और सभी राज्यों में हाई अलर्ट जारी कर दिया गया है लेकिन इस तरह की आतंकी घटनाओं और बम धमाकों से सरकार पर सवाल उठते हैं कि आखिर अब तक सरकार इतनी बेबस क्यों है? जब चार महीने पूर्व आतंकवादियों ने रिहर्सल के तौर पर हाई कोर्ट को निशाना बनाया था तो इसके बाद सरकार और सुरक्षा विभाग की आंखें क्यों नहीं खुल सकीं?
दिल्ली जैसे कई शहरों में आतंकवादी हमले हो चुके हैं, विशेषकर दिल्ली को तो हमेशा ही आतंकवादी अपना निशाना बनाते रहे हैं। ऐसे में आतंकवादियों से निपटने के लिए सरकार के पास किसी की रणनीति का न होना दुःखदायी है।
दैनिक `जदीद मेल' में `फिर वही बर्बरता' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरी 25 मई को भी मौत के सौदागरों ने हाई कोर्ट के बाहर आतंक फैलाने की कोशिश की थी लेकिन तब कोई जानी व माली नुकसान नहीं हुआ था लेकिन आज के धमाके से साबित हुआ है कि आतंकियों ने हाई कोर्ट को अपना निशाना बनाया था जिसमें वह किसी हद तक सफल हो गए। यह धमाके क्यों और किसने कराए, अभी सरकार और एजेंसियां कुछ भी कहने से बच रही हैं। एक ईमेल पुलिस को जरूर मिला है जिसमें किसी हरकातुल जिहाद इस्लामी नामी संगठन ने धमाके की जिम्मेदारी ली है। इसका कारण भी बताया है कि संसद पर हुए आतंकवादी हमले में अपराधी करार पाए अफजल गुरु की सजाए मौत यदि माफ नहीं की जाती है तब तक अदालतों के बाहर इसी तरह के धमाके होते रहेंगे। इसलिए इस दिशा में तफ्तीश की काफी गुंजाइश है। वर्तमान में सजाए मौत का मामला देश के राजनैतिक एवं सामाजिक गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है क्योंकि देश के तीन अहम मामलों के अपराधियों की सजाए मौत का दिन करीब आ चुका है। यह तीनों मामले आतंकवाद से जुड़े हुए हैं लेकिन इन तीनों को अलग-अलग नजरिये से देखा जा रहा है। बहरहाल जुल्म करने वालों को सजा देना इंसाफ की मांग है।
दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `ठाकुर की गिरफ्तारी के बाद' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यह अपनी जगह कड़वी हकीकत है कि नोट के बदले वोट मामला ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ था और उस समय तक दिल्ली पुलिस खरगोश की नींद सोती रही जब तक अदालत ने उसे झिंझोड़ कर जगाया नहीं। इस मामले में पुलिस स्वयं सक्रिय नहीं हो सकी तो इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आम मामलों में पुलिस का रवैया किस हद तक जिम्मेदारी वाला हो सकता है। अदालत की फटकार के बाद पहले सक्सेना गिरफ्तार हुए फिर हिन्दुस्तानी पकड़े गए। पहले अमर सिंह से पूछताछ हुई और फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। देखने की बात यह होगी कि सफेदपोश जमाअतों से संबंध रखने वाले अन्य किन-किन काले चेहरों को गिरफ्त में लिया जाता है। अभी भाजपा नेता अमर सिंह की गिरफ्तारी पर झूम रहे हैं। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वह भविष्य में भी इसी तरह झूमते रहेंगे। क्योंकि ऐसे इशारे मिले हैं कि भाजपा के भी कुछ नेताओं को खुफिया एजेंसियां गिरफ्त में ले सकती हैं। मनमोहन सरकार को अविश्वास प्रस्ताव से बचाने की कोशिश के तहत सांसदों की खरीदने की कोशिश वास्तव में की गई थी या फिर यह सरकार को बदनाम करने की कोशिश। तफ्तीश द्वारा सारे बिन्दु निकलकर सामने न आ जाएं इसके बाद ही पता चलेगा कि सच्चाई क्या है?
`बेचारे अमर सिंह गए थे जमानत के लिए मिली जेल' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अमर सिंह को बलि का बकरा बना दिया गया है। पैसे किसने अमर सिंह को दिए, किसलिए दिए, पूरे मामले में फायदा किसको हुआ। जब तक इन सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं मिल जाता हमारी नजर में यह मामला अधूरा है।
उनका कसूर क्या था? बस यही कि उन्होंने पूरे षड्यंत्र का राज फाश कर दिया। इस गिरफ्तारी का जबरदस्त फाल आउट हो सकता है। यदि अमर सिंह ने सारा राज खोल दिया तो कांग्रेस के कई चोटी के नेता फंस सकते हैं और यही चीज कांग्रेस को सताएगी।
यही कारण है कि कांग्रेस ने अपना डैमेज कंट्रोल शुरू कर दिया है इससे पहले कि अमर सिंह मुंह खोलें, कांग्रेस रणनीतिकारों ने अपना मोर्चा सम्भाल लिया है। संसदीय मामलों के मंत्री पवन कुमार बंसल का कहना है कि उस समय कांग्रेस को वोट खरीदने की जरूरत नहीं थी। वाम मोर्चा द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बावजूद यूपीए के पास उचित बहुमत था। बंसल का तर्प इसलिए भी जरूरी दिखाई पड़ता है क्योंकि अदालत में सबसे पहला सवाल यही उठेगा कि आखिर पूरे मामले में फायदा किसे मिला?
`इंसाफ का मंदिर लहुलूहान' के शीर्षक से `हमारा समाज' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि देश व कौम और समाज के दुश्मनों द्वारा इंसाफ के मंदिर को लहुलूहान करने, 12 मासूमों को मौत के घाट उतारने और 83 लोगों को मौत व जिन्दगी के फंदे पर लटकाने के बाद सरकार की आंखें खुली हैं और सभी राज्यों में हाई अलर्ट जारी कर दिया गया है लेकिन इस तरह की आतंकी घटनाओं और बम धमाकों से सरकार पर सवाल उठते हैं कि आखिर अब तक सरकार इतनी बेबस क्यों है? जब चार महीने पूर्व आतंकवादियों ने रिहर्सल के तौर पर हाई कोर्ट को निशाना बनाया था तो इसके बाद सरकार और सुरक्षा विभाग की आंखें क्यों नहीं खुल सकीं?
दिल्ली जैसे कई शहरों में आतंकवादी हमले हो चुके हैं, विशेषकर दिल्ली को तो हमेशा ही आतंकवादी अपना निशाना बनाते रहे हैं। ऐसे में आतंकवादियों से निपटने के लिए सरकार के पास किसी की रणनीति का न होना दुःखदायी है।
दैनिक `जदीद मेल' में `फिर वही बर्बरता' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरी 25 मई को भी मौत के सौदागरों ने हाई कोर्ट के बाहर आतंक फैलाने की कोशिश की थी लेकिन तब कोई जानी व माली नुकसान नहीं हुआ था लेकिन आज के धमाके से साबित हुआ है कि आतंकियों ने हाई कोर्ट को अपना निशाना बनाया था जिसमें वह किसी हद तक सफल हो गए। यह धमाके क्यों और किसने कराए, अभी सरकार और एजेंसियां कुछ भी कहने से बच रही हैं। एक ईमेल पुलिस को जरूर मिला है जिसमें किसी हरकातुल जिहाद इस्लामी नामी संगठन ने धमाके की जिम्मेदारी ली है। इसका कारण भी बताया है कि संसद पर हुए आतंकवादी हमले में अपराधी करार पाए अफजल गुरु की सजाए मौत यदि माफ नहीं की जाती है तब तक अदालतों के बाहर इसी तरह के धमाके होते रहेंगे। इसलिए इस दिशा में तफ्तीश की काफी गुंजाइश है। वर्तमान में सजाए मौत का मामला देश के राजनैतिक एवं सामाजिक गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है क्योंकि देश के तीन अहम मामलों के अपराधियों की सजाए मौत का दिन करीब आ चुका है। यह तीनों मामले आतंकवाद से जुड़े हुए हैं लेकिन इन तीनों को अलग-अलग नजरिये से देखा जा रहा है। बहरहाल जुल्म करने वालों को सजा देना इंसाफ की मांग है।
दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `ठाकुर की गिरफ्तारी के बाद' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यह अपनी जगह कड़वी हकीकत है कि नोट के बदले वोट मामला ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ था और उस समय तक दिल्ली पुलिस खरगोश की नींद सोती रही जब तक अदालत ने उसे झिंझोड़ कर जगाया नहीं। इस मामले में पुलिस स्वयं सक्रिय नहीं हो सकी तो इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आम मामलों में पुलिस का रवैया किस हद तक जिम्मेदारी वाला हो सकता है। अदालत की फटकार के बाद पहले सक्सेना गिरफ्तार हुए फिर हिन्दुस्तानी पकड़े गए। पहले अमर सिंह से पूछताछ हुई और फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। देखने की बात यह होगी कि सफेदपोश जमाअतों से संबंध रखने वाले अन्य किन-किन काले चेहरों को गिरफ्त में लिया जाता है। अभी भाजपा नेता अमर सिंह की गिरफ्तारी पर झूम रहे हैं। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वह भविष्य में भी इसी तरह झूमते रहेंगे। क्योंकि ऐसे इशारे मिले हैं कि भाजपा के भी कुछ नेताओं को खुफिया एजेंसियां गिरफ्त में ले सकती हैं। मनमोहन सरकार को अविश्वास प्रस्ताव से बचाने की कोशिश के तहत सांसदों की खरीदने की कोशिश वास्तव में की गई थी या फिर यह सरकार को बदनाम करने की कोशिश। तफ्तीश द्वारा सारे बिन्दु निकलकर सामने न आ जाएं इसके बाद ही पता चलेगा कि सच्चाई क्या है?
`बेचारे अमर सिंह गए थे जमानत के लिए मिली जेल' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अमर सिंह को बलि का बकरा बना दिया गया है। पैसे किसने अमर सिंह को दिए, किसलिए दिए, पूरे मामले में फायदा किसको हुआ। जब तक इन सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं मिल जाता हमारी नजर में यह मामला अधूरा है।
उनका कसूर क्या था? बस यही कि उन्होंने पूरे षड्यंत्र का राज फाश कर दिया। इस गिरफ्तारी का जबरदस्त फाल आउट हो सकता है। यदि अमर सिंह ने सारा राज खोल दिया तो कांग्रेस के कई चोटी के नेता फंस सकते हैं और यही चीज कांग्रेस को सताएगी।
यही कारण है कि कांग्रेस ने अपना डैमेज कंट्रोल शुरू कर दिया है इससे पहले कि अमर सिंह मुंह खोलें, कांग्रेस रणनीतिकारों ने अपना मोर्चा सम्भाल लिया है। संसदीय मामलों के मंत्री पवन कुमार बंसल का कहना है कि उस समय कांग्रेस को वोट खरीदने की जरूरत नहीं थी। वाम मोर्चा द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बावजूद यूपीए के पास उचित बहुमत था। बंसल का तर्प इसलिए भी जरूरी दिखाई पड़ता है क्योंकि अदालत में सबसे पहला सवाल यही उठेगा कि आखिर पूरे मामले में फायदा किसे मिला?
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