Tuesday, December 6, 2011

सब सियासत के संकेत हैं, चना जोर गरम

केंद्र सरकार द्वारा खुदरा बाजार में विदेशी निवेश की इजाजत देने के फैसले पर जहां सियासी पार्टियों की ओर से विरोध का सिलसिला जारी है वहीं संसद में भी इसको लेकर गतिरोध है। इस मुद्दे पर उर्दू अखबारों ने अपने विचार रखे हैं। पेश हैं उनमें से कुछ की राय। `खुदरा में एफडीआई का फैसला सरकार को टाल देना चाहिए' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि देश के मंझोले और छोटे शहरों में ठेला, रेहड़ी लगाने, फल-सब्जी बेचने वाले छोटे दुकानदार और किसान यदि अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं तो उन्हें कुसूरवार नहीं ठहराया जा सकता। विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के खुदरा कारोबार से साढ़े तीन करोड़ लोगों को रोजगार मिलता है। यदि एक परिवार में पांच व्यक्तियों को भी बुनियाद माना जाए तो 18 करोड़ लोग इस खुदरा कारोबार से जुड़े हैं। इनके लिए वैकल्पिक व्यवस्था करना सरकार के समीप एक बड़ा सवाल है। इन सवालों के बावजूद मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार अपने फैसले पर अटल है। सूत्रों के अनुसार कांग्रेस के अन्दर और बाहर विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री के निवास पर कांग्रेस कोर ग्रुप की बैठक में फैसला लिया गया कि सरकार एफडीआई के फैसले को वापस नहीं लेगी। सियासी विरोध के चलते खुदरा बाजार में विदेशी दुकानें खुलना आसान नजर नहीं आ रहा है। पश्चिमी बंगाल, यूपी के बाद तमिलनाडु द्वारा विदेशी दुकानों को इजाजत न देने के ऐलान से विरोधी राज्यों की संख्या 28 हो गई है। सरकार को चाहिए कि वह एफडीआई के मामले को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाए और फैसले को टाल दे। अभी इस मसले पर बहस बहुत जरूरी है।
कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' ने `खुदरा बाजार में विदेशी निवेश, सब सियासत के हैं संकेत चना जोर गरम' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि यूपीए की सबसे बड़ी सहयोगी तृणमूल कांग्रेस ने फैसला वापस लेने की मांग की है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साफ कह दिया है कि इसके राज्य में विदेशी खुदरा कम्पनियों को सुपर मार्केट खोलने की इजाजत नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि इस मुद्दे पर सभी पार्टियां अपने-अपने राजनैतिक हित को सामने रखकर विरोध अथवा समर्थन कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर भाजपा इस फैसले के विरोध में सबसे आगे है लेकिन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और कर्नाटक सरकार ने कहा है कि वह अपने राज्यों में वॉलमार्ट और टिसको जैसी कम्पनियों के सुपर मार्केट का स्वागत करेंगे। दूसरी ओर पंजाब में भाजपा की सहयोगी शिरोमणि अकाली दल ने एफडीआई पर सरकार के फैसले का समर्थन किया है। जयललिता की एडीएम के भी केंद्र के फैसले के खिलाफ है। बहुत-सी पार्टियों को यह नहीं पता कि वह इसका विरोध क्यों कर रही हैं। मायावती का कहना है कि सरकार ने यह फैसला इसलिए किया है कि राहुल गांधी के विदेशी दोस्तों को फायदा पहुंचेगा। सीपीएम का कहना है कि इस फैसले से लाखों दुकानदार और इससे जुड़े करोड़ों व्यक्ति बेरोजगार हो जाएंगे।
`एफडीआई का विरोध' के शीर्षक से दैनिक `जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि सरकार ने इस मसले पर विपक्ष को विश्वास में लेने की जो कोशिश की थी वह पूरी तरह नाकाम हो गई है। इस मामले में विपक्ष के अतिरिक्त सरकार की समर्थक पार्टियां भी विपक्ष की भाषा बोल रही हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पूरे देश में फैले शॉपिंग मॉल के कल्चर ने भारतीय मार्केट की शक्ल की बदल दी है। इन शॉपिंग मॉल में महंगे विदेशी ब्रांड मुंह मांगी कीमतों पर बेचा जाता है और शॉपिंग मॉल की चकाचौंध से प्रभावित होकर वह लोग भी इनके चंगुल में आ जाते हैं जिनकी जेब इसे वहन नहीं कर सकती। विदेशी निवेश से नौकरियों के दरवाजे निश्चय ही खुले हैं लेकिन बेरोजगारी की दर बढ़ी है। अब देखना यह है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के बाद हालात क्या करवट लेंगे। फिलहाल इसका विरोध चल रहा है। देश के 26 राज्यों में से केवल 5 राज्य ऐसे हैं जिन्होंने एफडीआई को लागू करने से सहमति व्यक्त की है जबकि 10 राज्यों का स्पष्ट रूप से कहना है कि वह इसके हक में नहीं हैं। अन्य राज्यों का भी यही मत है। इन हालात में खुदरा बाजार में विदेशी निवेश का फैसला सरकार के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है।
`अपने पैरों पर कुल्हाड़ी' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' ने लिखा है कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश की इजाजत देने का फैसला और इस पर प्रतिक्रिया के तौर पर संसद का कामकाज ठप होने का मामला ऐसी आग है जो न तो खुद लगी है और न ही विपक्ष ने लगाई है इसके लिए सरकार के अलावा कोई जिम्मेदार नहीं है। आश्चर्य है कि सरकार ने यह फैसला अचानक ही कर लिया और इसके लिए समर्थकों को विश्वास में लेने की जरूरत भी महसूस नहीं की गई। हम नहीं जानते कि खुदरा बाजार में विदेशी निवेश के जितने फायदे गिनाए जा रहे हैं वह हासिल हो सकेंगे या नहीं, क्योंकि इस पर वही लोग प्रतिक्रिया दे सकते हैं जो अर्थव्यवस्था की गुत्थियों पर नजर रखते हैं और उन्हें सुलझाने के लिए बेहतर सुझाव भी दे सकते हैं लेकिन हम यह जरूर जानते हैं कि किसी बड़ी और अहम पहल से पूर्व सियासी वातावरण बनाना और सभी राजनीतिक पार्टियों को विश्वास में लेने की कोशिश करना ही लोकतंत्र की अंतरआत्मा है। लोकतंत्र के फैसले कभी एकतरफा नहीं हो सकते। इसके बावजूद सरकार ने लोकतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन कर यह फैसला किया और अब इसके गुणों को बताकर विपक्ष के दांत खट्टे करना चाहती है। जाहिर है यह संभव नहीं है।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `एफडीआई पर कांग्रेस की परेशानी' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का यह कहना कि एफडीआई पर फैसला जल्दबाजी में नहीं किया गया है बल्कि बहुत सोच-विचार कर किया गया है। इसके बावजूद यदि कुछ राज्य इस फैसले को कुबूल नहीं करना चाहती तो यह उनके अधिकार में है कि वह एफडीआई की इजाजत दें या न दें। इसका विरोध केवल विपक्ष अथवा कांग्रेस को सहयोग दे रही पार्टियां ही नहीं कर रही हैं बल्कि कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग भी इसके हक में नहीं है। जाहिर है कि यदि पार्टी के अन्दर से एफडीआई के खिलाफ आवाज उठेगी तो उससे निपटना सरकार और कांग्रेस दोनों के लिए बड़ा चैलेंज होगा। पार्टी के कई वर्गों की ओर से एफडीआई के संबंध में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में प्रभाव को लेकर जो सन्देह व्यक्त किया जा रहा है उसके दबाव में यदि सरकार अपना फैसला बदल देती है तो भी इसे सियासी फायदा कम और विरोधियों को ज्यादा मिलने की आशा है।

Sunday, November 13, 2011

सच गवारा क्यों नहीं होता!

मालेगांव बम धमाकों के आरोप में गिरफ्तार व मुस्लिम युवकों की 6 साल बाद रिहाई पर चर्चा करते हुए दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि 2006 में हुए इस धमाके में 37 व्यक्ति मारे गए और सैकड़ों जख्मी हुए। मरने और जख्मी होने वाले सभी मुसलमान थे। प्रशासन ने यह सोचकर कि धमाका करने वाले केवल मुसलमान होते हैं, 9 मुसलमानों को गिरफ्तार कर लिया। इनके घर वाले बराबर यह कहते रहे कि यह लोग बेगुनाह हैं और इनका धमाकों से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन सरकार ने इनकी फरियाद नहीं सुनी। शुरू में महाराष्ट्र एटीएस ने इस मामले को देखा और उसी के दखल पर इन सबकी गिरफ्तारी हुई थी, बाद में यह केस सीबीआई के हवाले कर दिया जिसके काम करने का तरीका भी एटीएस जैसा ही था। इसी वर्ष असीमानन्द ने इकबाले जुर्म किया कि 2006 में मालेगांव बम धमाके में कट्टरपंथी हिन्दू संगठन का हाथ था। जिसने मालेगांव के अतिरिक्त अजमेर और हैदराबाद की मक्का मस्जिद में भी बम धमाके किए थे। असीमानन्द के कुबूल जुर्म के बाद उर्दू अखबारों और मुस्लिम नेतृत्व ने इन मुस्लिम युवाओं को रिहा कराने का आंदोलन चलाया। इस बाबत महाराष्ट्र मुख्यमंत्री और केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम से मिलकर उन्हें हालात से अवगत कराया गया। शुक्र है कि घटनाओं की रोशनी में सरकार का माइंड सेट बदला है और अब विशाल परिपेक्ष में जांच करने लगी है। सरकार से हमारी मांग है कि वह बम धमाकों में गिरफ्तार मुसलमानों के केसों पर पुनर्विचार करें एवं बम धमाकों में लिप्त हिन्दू संगठनों को सामने लाए और इनके खिलाफ उचित कार्यवाही करे ताकि दुनिया के सामने सही सूरत-ए-हाल आ सके।
`सच गवारा क्यों नहीं होता!' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' में अपने सम्पादकीय में उत्तर प्रदेश पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी डीआईजी देवेन्द्र दत्त मिश्रा द्वारा लगाए गए आरोप पर चर्चा करते हुए लिखा है कि वह ईमानदार पुलिस अधिकारी हैं। पुलिस सेवा में आने के बाद से कई जिलों में एसपी रहकर उल्लेखनीय काम किया। इनकी बेहतर सेवा हेतु 1992 में उन्हें आईपीएस का दर्जा मिला। 2006 में उन्हें सैलेक्शन ग्रेड मिला और 2008 में उनको पदोन्नति देकर डीआईजी बना दिया गया। बेहद सादा जिन्दगी गुजारने वाले मिश्रा अचानक पागल कैसे हो गए, यह बात समझ से परे है। वह उसूलों के पक्के थे और ईमानदारी से अपना काम करते थे। शायद यही उनका पागलपन हो कि भ्रष्टाचार के समुद्र में रहकर उन्होंने गोता लगाना गवारा नहीं किया और जब सरकार और उसके अन्दर चल रहे घालमेल को मुंह से बाहर निकालना शुरू कर दिया तो उन्हें मानसिक रूप से पागल करार दे दिया गया। वह तो वही बातें कह रहे थे जो उत्तर प्रदेश सरकार के बारे में मशहूर हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार के बारह मंत्री लोकायुक्त की जांच के घेरे में न होते। वह उसी भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे थे जिसके सामने आने पर स्वयं मुख्यमंत्री को मजबूर होकर अपने मंत्रियों को मंत्रिमंडल से हटाना पड़ा है। इसलिए सरकार पर जो आरोप लगाए हैं उसके लिए किसी जांच की जरूरत नहीं है। इस कड़वी सच्चाई को हल्क में उतारने का जब साहस नहीं हुआ तो डीडी मिश्रा को पागल करार दे दिया गया।
सच्चर कमेटी के पांच साल पूरे होने पर दरभंगा (बिहार) के मिल्लत कॉलेज के प्रिंसिपल, डॉ. मुशताक अहमद ने इसकी समीक्षा करते हुए लिखा है कि अब जबकि देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और 2014 में आम चुनाव होंगे तो समय-समय पर मुसलमानों को सुनहरा सपना दिखाया जा रहा है विशेषकर सच्चर कमेटी रिपोर्ट के हवाले से। सच्चर कमेटी के सदस्य सचिव अबु सालेह शरीफ ने भी बीते दिनों इस बात को स्वीकार किया है कि कमेटी जिस मकसद से बनाई गई थी और जिस मेहनत से कमेटी सदस्यों ने इस रिपोर्ट को तैयार किया था इस पर पानी फिर गया है। सच्चर कमेटी रिपोर्ट देश के मुसलमानों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक पिछड़ेपन को दूर करने से अधिक राजनैतिक प्रोपेगंडा ही साबित हुई है। केंद्र सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस रिपोर्ट से मुसलमानों को कुछ मिला हो या नहीं लेकिन यह सच्चाई तो सामने आ ही गई कि इस देश में स्वतंत्रता के 64 वर्षों के बाद भी वह दलितों से पिछड़े हैं। नवम्बर 2006 में जब कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सरकार के हवाले की थी तो मुसलमानों को यह आशा हो चली थी कि देर से ही शायद अब उनकी हालत सुधरने वाली है लेकिन जिस तरह से इसे राजनीतिक हथकंडा बनाया गया न केवल चिन्ताजनक है बल्कि उनके साथ एक बड़ा धोखा है।
उर्दू साप्ताहिक `चौथी दुनिया' ने भारत के अटार्नी `जनरल ई. वाहनवती का असली चेहरा' से प्रकाशित लेख में रुबी अरविन ने लिखा है कि वाहनवती ने न केवल 2जी स्पेक्ट्रम में सरकार की किरकिरी कराई है बल्कि वह पहले भी अपने फैसलों पर सरकार को परेशानी में डाल चुके हैं। ताजा मामला समाजवादी पार्टी सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव की आमदनी से ज्यादा सम्पत्ति का सीबीआई में दर्ज मामला है। सुप्रीम कोर्ट के वकील विश्वनाथ चतुर्वेदी ने दिल्ली के तिलक मार्ग थाने में अटार्नी जनरल के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है जिसमें कहा गया है कि गुलाम वाहनवती ने सीबीआई पर इस बात के लिए दबाव डाला था कि वह मुलायम सिंह के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चल रहे आमदनी से ज्यादा सम्पत्ति रखने वाले मामले को रफा-दफा करे। इसके अतिरिक्त वाहनवती ने भोपाल गैस कांड पर भी सरकार की किरकिरी कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी। फौजी जनरल की आयु विवाद पर इनकी भूमिका ने इस पद की गरिमा को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया। इन पर यह भी आरोप है कि उन्होंने अपने सुपुत्र ऐसाजी वाहनवती को फायदा पहुंचाने के लिए सरकारी निर्देशों की अवहेलना की। मामला वेदांता नामी कम्पनी से जुड़ा है। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम इस कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेर्क्ट्स में थे। गुलाम वाहनवती के सुपुत्र ऐसाजी वाहनवती इसके विधि विशेषज्ञ हैं। अगस्त 2010 में वेदांता ने घोषणा की कि वह केरन इंडिया लिमिटेड की 60 फीसदी हिस्सेदारी खरीदना चाहते हैं। यह फाइल उस समय के सालिसीटर जनरल वाहनवती के पास सीधे पहुंच गई। मामला गैस और पेट्रोलियम का था जिसका तरीका यह है कि किसी भी राज्य में स्थित पेट्रोल भंडार पर पहले ओएनजीसी का अधिकार होता है लेकिन यहां गुलाम वाहनवती के बेटे की वजह से वेदांता की फाइल सीधी केंद्र तक पहुंच गई। हालांकि इस मसले पर बाद में काफी विवाद भी हुआ और वाहनवती एवं कानून मंत्रालय को इस बात पर सफाई भी देनी पड़ी।

Friday, October 28, 2011

`पेड न्यूज पर चुनाव आयोग की ऐतिहासिक पहल'

केंद्र सरकार द्वारा 1400 आईपीएस भर्ती के लिए डीएसपी और सेना के मेजर/कैप्टन रैंक के अधिकारी ही भाग ले सकेंगे, की प्रधानमंत्री कार्यालय के सुझाव पर मुस्लिम संगठनों ने आजित करते हुए इसे मुसलमानों के हक पर संवैधानिक डाका डालने के बराबर बतया है। दैनिक `सहाफत' ने जकात फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. सैयद जफर महमूद, जमाअत इस्लामी हिन्द अध्यक्ष मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी, दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस राजेन्द्र सच्चर और ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस के कार्यवाहक अध्यक्ष एवं पाक्षिक अंग्रेजी `मिल्ली गजट' के सम्पादक डॉ. जफरुल इस्लाम खां के संयुक्त बयान को प्रकाशित कर इनके विचारों को प्रमुखता से उजागर किया है। बयान के अनुसार इस तरह की भर्ती के नतीजे में आईपीएस में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व अगले तीन-चार दशकों के लिए और भी कम हो जाएगा क्योंकि सशस्त्र बल में मुसलमानों का अनुपात आईपीएस से भी कम है और डीएसपी के पद पर मुसलमान गिनती के हैं। इंडियन पुलिस सर्विस और अन्य सिविल सर्विस में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व केवल 2.3 फीसदी है जबकि 2001 की जनगणना के अनुसार इनका अनुपात 13.4 फीसदी है। नए आईपीएस अधिकारियों की भर्ती के लिए ओपन परीक्षा न लेने का फैसला मुसलमानों के हित के खिलाफ होगी। इस फैसले से सरकारी रोजगार के समान अवसर के संवैधानिक हक की अवहेलना होती है जिसकी जमानत धारा 16 में दी गई है। जस्टिस सच्चर के अनुसार यह संविधान की धारा 15 के भी खिलाफ है जिसमें धर्म के आधार पर सरकार की ओर से भेदभाव वर्जित है।
`आडवाणी की आखिरी यात्रा' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दुनिया' ने पटना से अपने विशेष संवाददाता के हवाले से लिखा है कि आडवाणी जी गुजरात के बजाय बिहार को नमूना बता रहे हैं, मोदी के बजाय नीतीश कुमार को आइडियल मुख्यमंत्री कह रहे हैं, जो मोदी को अपने राज्य में घुसने नहीं देते और साफ-साफ कह देते हैं कि बिहार में इसका अपना मोदी मौजूद है। किसी अन्य मोदी की जरूरत नहीं है। आडवाणी की यात्रा गुजरात से शुरू हुआ करती थी लेकिन यह उनकी पहली यात्रा है जो पूरब से पश्चिम को हो रही है। यह देश के सोशलिस्ट नेता के जन्म स्थल से नई दिल्ली की ओर शुरू की गई है और इसको हरी झंडी जय प्रकाश नारायण के चेले नीतीश कुमार ने दिखाई है। सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्राओं के लिए बदनाम आडवाणी की यात्रा हर बार देश में सांप्रदायिक वातावरण को खराब करती रही है लेकिन पहली बार वह भ्रष्टाचार जैसे गैर सांप्रदायिक मुद्दे पर यात्रा कर रहे हैं। विशेषज्ञों का यह विचार गलत नहीं है कि यह आडवाणी की आखिरी यात्रा है, उनके सामने करो या मरो की चुनौती है।
`पेड न्यूज पर चुनाव आयोग की ऐतिहासिक पहल' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि चुनाव आयोग ने उत्तर प्रदेश के दसौली विधानसभा क्षेत्र के विधायक उरमिलेश यादव पर तीन वर्ष तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी है। आयोग ने अपने फैसले में कहा कि पेड न्यूज मामले पर आरोप साबित होने के चलते यादव पर 20 अक्तूबर 2011 से 19 अक्तूबर 2014 तक चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी है। ऐसी स्थिति में उर्मिलेश यादव 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाग नहीं ले सकेंगी। इसी सीट से योगेन्द्र कुमार ने भी इनके खिलाफ चुनाव लड़ा था। उन्होंने एक जुलाई 2010 को चुनाव आयोग में शिकायत दर्ज कराई कि चुनाव से ठीक पहले 17 अप्रैल 2007 को उर्मिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के दो बड़े हिन्दी दैनिक में अपने हक में समाचार प्रकाशित कराए हैं। इसी के साथ उन्होंने यह शिकायत प्रेस परिषद में भी दर्ज कराई थी। चुनाव आयोग ने इस मामले की जांच की और दोनों पक्षों की दलीलें भी सुनीं और तफ्तीश के बाद आयोग ने पाया कि उर्मिलेश ने चुनाव से ठीक पहले समाचार प्रकाशित कराने के लिए 21250 रुपये खर्च किए लेकिन इस खर्च को चुनावी खर्च में नहीं दिखाया गया था। उम्मीदवार को अपना प्रचार करने का पूरा हक है लेकिन उसे खर्च दिखाना पड़ेगा। ऐसी खबरें प्रकाशित करने वाले अखबारों और इलैक्ट्रॉनिक मीडिया को भी आखिर में यह लिखना और दिखाना होगा कि यह विज्ञापन है और वह भी पेड विज्ञापन। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा पर भी पेड न्यूज के आरोप हैं। इन दोनों नेताओं को भी चुनाव आयोग द्वारा नोटिस दिया जा चुका है। दैनिक `जदीद खबर' ने `मोदी के खिलाफ सुबूत' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि गुजरात की जमीन पर मुसलमानों के नरसंहार में मोदी किस हद तक शरीक थे, इसका अभी तक कोई दस्तावेजी सुबूत सामने नहीं आ सका है। इस बाबत जकिया जाफरी की अपील पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित विशेष तफ्तीशी टीम ने भी नरेन्द्र मोदी के खिलफ ठोस सुबूत उपलब्ध करने से इंकार कर दिया था और ऐसा महसूस होने लगा था कि इतिहास के इस बड़े नरसंहार के सबसे बड़े अपराधी पर कोई आंच नहीं आएगी और वह अपनी गर्दन में बेगुनाही का हार डलकर इसी तरह इंसाफ और कानून का मजाक उड़ाता रहेगा। लेकिन अब अदालत के एक निरपेक्ष सलाहकार ने अपनी जांच में यह रहस्योद्घाटन किया है कि नरेन्द्र मोदी के खिलाफ मुकदमा चलाने के सुबूत मौजूद हैं। इन सुबूतों की बुनियाद पर मोदी के खिलाफ संगीन मुकदमा तो कायम नहीं हो पाएगा लेकिन सांप्रदायिक घृणा, भड़काऊ और जनता को हंगामे पर उसकाने जैसी धारा के तहत मुकदमा कायम हो सकता है। यदि ट्रायल कोर्ट ने विशेष वकील रामचन्द्रन के विचार को स्वीकार कर लिया तो मोदी के खिलाफ मुकदमे की कार्यवाही जल्द शुरू होगी।
`मोदी के खिलाफ शिकंजा' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी एक बार फिर मुश्किल में दिखाई दे रहे हैं क्योंकि इनके खिलाफ धारा 153 और 163 के तहत मुकदमा चलाने की पैरवी कर दी गई है, इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि गुजरात दंगों के मामले में मोदी के खिलाफ शिकंजा कसा ही जाएगा लेकिन अदालत के सलाहकार ने यह महसूस कर स्पष्ट कर दिया है कि मोदी का गुनाह माफी लायक नहीं है। इसके बावजूद एक बार फिर यह बात साफ हो गई है कि मोदी के लिए यह रिपोर्ट भारी पड़ सकती है। कल तक मोदी इस बात पर गर्व करते रहे हैं कि सुबूत न होने के आधार पर उन्हें क्लीन चिट मिल सकती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की गठित कमेटी की रिपोर्ट की रोशनी में यह बात उभरकर सामने आ गई है कि मोदी को राहत दिया जाना अब संभव नहीं है। देखना यह है कि 10 वर्षों से इंसाफ की राह देख रहे पीड़ितों को कब इंसाफ मिलता है। `मुसलमानों के लिए आरक्षण दुश्वार, कांग्रेस का मायूस कुन जवाब' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' ने कांग्रेस प्रवक्ता राशिद अलवी के हवाले से लिखा है कि मुसलमानों के लिए आरक्षण का मामला बहुत गंभीर है जब इस मसले पर कोई फैसला लिया जाएगा तो मीडिया को सूचित कर दिया जाएगा। कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में मुसलमानों को आरक्षण देने का वादा किया था और कहा था कि केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के मॉडल पर विचार किया जाएगा। राशिद अलवी ने कहा कि घोषणा पत्र में बहुत सारे वायदे किए गए हैं। मुस्लिम आरक्षण भी इन वायदों में से एक है।

Wednesday, October 26, 2011

मुस्लिम महापंचायत की अनॉप-शनॉप

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय संस्थापक सर सैयद अहमद के जन्म दिवस पर 17 अक्तूबर 2011 को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आयोजित समारोह में केंद्रीय कानून एवं इंसाफ मंत्री सलमान खुर्शीद को शरीक नहीं होने दिया गया, पर चर्चा करते हुए दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अखबार की पहली खबर बनाई है। अलीगढ़ के संवाददाता ए. समन सवॉ के हवाले से अखबार ने लिखा है कि सर सैयद का 194वां जन्म दिवस पारम्परिक जोश खरोश से मनाया जाना था। इस कार्यक्रम में मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति ने सलमान खुर्शीद को विशेष मेहमान क sतौर पर बुलाया था लेकिन उनका सपना एक डरावने ख्वाब की तरह बिखर गया। छात्र और शिक्षक संघ ने इसका विरोध करते हुए पहले ही घोषणा कर दी थी कि वह किसी भी कीमत पर सलमान खुर्शीद को इस समारोह में शरीक नहीं होने देंगे। सर सैयद कार्यक्रम शाम चार बजे शुरू होना था लेकिन वीसी लाज पर छात्र और शिक्षकों की भीड़ काले झंडे लिए हुए सलमान खुर्शीद मुर्दाबाद और वाइस चांसलर मुर्दाबाद के नारे लगा रही थी। जिला और प्रशासन ने स्थिति को देखते हुए केंद्रीय मंत्री को एक होटल में ठहरा दिया और इनको यूनिवर्सिटी में दाखिल होने की इजाजत नहीं दी। जिसके नतीजे में साम साढ़े छह बजे अर्थात् दो घंटे बाद वाइस चांसलर और रजिस्ट्रार किसी गोपनीय रास्ते से समारोह स्थल पर आए जहां रजिस्ट्रार ने बताया कि पुलिस ने सलमान खुर्शीद को यहां आने से रोक दिया है।
आल इंडिया उलेमा मशाएख के बैनर तले मौलाना मोहम्मद अशरफ द्वारा मुसलमानों के एक सप्रदाय को निशाना बनाए जाने पर दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खां ने अपनी विशेष रिपोर्ट में लिखा है कि एमएलबी की सीट और कुछ विधानसभा टिकटों के लिए मौलाना मिल्लत में फूट डाल रहे हैं इसके लिए उन्होंने उत्तर प्रदेश की एक अहम राजनैतिक पार्टी के बड़े नेता से गोपनीय संधि भी की है। कुर्सी और कुछ टिकटों के बदले पूरे मुस्लिम समुदाय को बांटने की नीति अपना सकते हैं। गत दिनों दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस और फिर बाद में बरेली की महापंचायत को इसी पार्टी ने स्पांसर किया था। मौलाना अशरफ ने प्रेस कांफ्रेंस और महापंचायत में मिल्लत इस्लामिया के संबंध में जो विचार जाहिर किए हैं उससे सुन्नी उलेमा भी हैरान हैं। इस बात से हैरान नहीं होना चाहिए कि वह राजनैतिक कद बढ़ाने के लिए वहाबी विचारधारा के खिलाफ काम कर रहे हैं। सूत्रों के अनुसार प्रेस कांफ्रेंस के लिए दिल्ली का चयन भी इन नेता जी की गोपनीय बैठक और निर्देश का नतीजा था क्योंकि दिल्ली से जो बात चलेगी वह दूर तक चलेगी। दूसरी ओर मुरादाबाद में भी हुई महापंचायत में भी वही बातें सामने आई हैं जिससे मुसलमानों में काफी गुस्सा पाया जा रहा है।
मुरादाबाद की महापंचायत में वक्ताओं द्वारा अनॉप-शनॉप बातें करने पर मुसलमानों द्वारा तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की जारी है। दैनिक `सहाफत' ने अपनी पहली खबर में जमीअत उलेमा हिन्द (अरशद ग्रुप) के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी, दिल्ली उर्दू अकादमी के वाइस चेयरमैन प्रोफेसर अखतारुल वासे, जमाअत इस्लामी हिन्द सचिव मौलाना रफीक कासमी, जमीअत अहले हदीस के महासचिव मौलाना असगर इमाम मेहंदी खलफी और मुस्लिम मजलिस अमल के महासचिव राहत मदमूद चौधरी सहित अनेक बुद्धिजीवियों के विचारों को प्रमुखता से प्रकाशित कर उनकी निन्दा की है और उन्हें कुरआन एवं हदीस की शिक्षा से अनभिज्ञ बताया है। मुरादाबाद की मुस्लिम महापंचायत में जिस तरह मुसलमानों को सुन्नी वहाबी में विभाजित कर वहाबी सप्रदाय पर आरोप लगाया गया है, वह बिल्कुल बेबुनियाद हैं। राहत महमूद चौधरी के अनुसार इस तरह का आरोप तो आरएसएस, भाजपा, शिवसेना, बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद भी आज तक नहीं लगा सकी है। उन्होंने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि इस महापंचायत में सऊदी अरब में कब्रिस्तान और मस्जिद की अवमानना का तो जिक्र किया गया लेकिन देश में वीरान पड़ी मस्जिदों और बाबरी मस्जिद तक का कोई जिक्र नहीं किया गया।
मौलाना अरशद मदनी ने महापंचयात के आरोप को नकारते हुए स्पष्ट किया कि इस्लाम दुनिया में मुसलमानों को जोड़ने के लिए आया है, तोड़ने के लिए नहीं। इसलिए दारुल उलूम देवबंद से कभी कोई आवाज मिल्लत के किसी सप्रदाय को तोड़ने के लिए नहीं उठाई जाती है। जोड़ने की यह कोशिश 150 साल से जारी है और हम इसमें पूरी तरह कामयाब हैं।
`सूचना अधिकार पर तलवार' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि सूचना का अधिकार एक बार फिर चर्चा में है और इसके कुछ बिन्दुओं पर फिर से विचार-विमर्श की बात की जा रही है। इस बार यह चिन्ता स्वयं प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा की ओर से की जा रही है। उनका कहना है कि इस कानून का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि इसके द्वारा ईमानदारी और सही ढंग से काम करने वाले लोग परेशान हों। प्रधानमंत्री की चिन्ता इसलिए है कि गत दिनों आरटीआई कार्यकर्ता द्वारा इस कानून के तहत प्रधानमंत्री कार्यालय से वह पत्र हासिल कर लिया गया था जो 2जी मामले में वित्त मंत्रालय ने उन्हें लिखा था जिसके बाद केंद्र सरकार संकट में पड़ गई थी। इसके अतिरिक्त जितने बड़े घोटाले सामने आए हैं उसमें सूचना अधिकार कानून का बड़ा योगदान है इसलिए सरकार अब इस कानून को कमजोर करना चाहती है। नौकरशाही व्यवस्था पर लगाम कसने वाला यह कानून अब सरकार के निशाने पर है।
दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने `अन्ना और उनकी टीम पर चौतरफा हमला' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अन्ना हजारे और उनकी टीम गत कुछ दिनों से चारों ओर से समस्याओं से घिरती जा रही है। एक-एक करके कई समस्याएं खड़ी हो गई हैं। उत्तर प्रदेश में अन्ना का संदेश लेकर दौरा कर रहे उनके सिपाहसालार अरविन्द केजरीवाल पर हमला हुआ। टीम अन्ना के दो वरिष्ठ सदस्य पीवी राजगोपाल और राजेन्द्र सिंह ने मुहिम के राजनैतिक रंग लेने पर कोर कमेटी से त्यागपत्र दे दिया है। कांग्रेस से सुलह कराने के प्रयासों पर उस समय पानी फिर गया जब समय देकर राहुल गांधी अन्ना के प्रतिनिधियों से नहीं मिले। रामदेव ने प्रशांत भूषण के खिलाफ मामला दर्ज करने की बात कही। अन्त में टीम अन्ना को एक झटका उस समय लगा जब सुप्रीम कोर्ट ने अन्ना के हिन्द स्वराज ट्रस्ट को मिलने वाले सरकारी पैसे का गलत इस्तेमाल की छानबीन के लिए सीबीआई की अर्जी को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया। अन्ना खुद तो बेदाग हैं लेकिन उनके साथी निश्चित रूप से अन्ना आंदोलन को नुकसान पहुंचा रहे हैं।

Friday, October 14, 2011

अन्ना हजारे का असली चेहरा

बीते सप्ताह विभिन्न राजनैतिक और सामाजिक घटनाओं सहित अनेक ज्वलंत मुद्दों पर उर्दू अखबारों ने अपना पक्ष रखा। अन्ना हजारे की मुहिम का विशेष रूप से नोटिस लिया। लगभग सभी उर्दू अखबारों ने इस पर सम्पादकीय लिखे और लेख प्रकाशित किए। हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `अन्ना हजारे की कांग्रेस विरोधी अपील' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर जनता की सकारात्मक प्रतिक्रिया कोई ढकी छिपी बात नहीं है। जन लोकपाल बिल के मंजूर किए न किए जाने पर कांग्रेस को वोट न देने की अपील का कांग्रेस गंभीरता से नोटिस ले। यदि इस अपील के नतीजे में भाजपा अगुवाई वाली एनडीए सत्ता में वापस होती है तो यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण ही कहलाएगा। दूसरी बात यह कि भाजपा कोई दूध की धूली पार्टी नहीं है। जब तक सत्ता हाथ नहीं आई यह अपनी साफ छवि का दावा करती रही लेकिन विभिन्न राज्यों और विशेषकर कर्नाटक में सत्ता संभालने के बाद भाजपा मुख्यमंत्री और मंत्रियों के अवैध खनन में विभिन्न घोटालों में लिप्त होना इस बात का सुबूत है कि भाजपा भी भ्रष्टाचार में लिप्त है। हजारे यदि कांग्रेस को वोट न देने की अपील के साथ-साथ भाजपा को भी वोट न देने की अपील करते तो सांप्रदायिक ताकतों के प्रति इनके झुकाव का संदेह दूर हो जाता। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अन्ना को यह बात समझ लेना चाहिए कि इसी सत्ता भोग का फायदा उठाकर नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार किया। हजारे जब अपने आपको गांधी उसूलों पर चलने वाला बताते हैं तो उनके लिए जरूरी है कि वह इस देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह को नजरंदाज न करें।
`...तो यह है अन्ना जी का असली चेहरा' के शीर्षक से सना उल्ला सादिक तैमी ने दैनिक `हमारा समाज' में प्रकाशित अपने लेख में लिखा है कि अन्ना हजारे के इस आंदोलन को लेकर कुछ वर्गों के अन्दर शुरू से एक प्रकार का असंतोष देखा गया, यदि साफ तौर पर कहा जाए तो मुसलमानों और दलितों ने लगभग इस पूरे आंदोलन से खुद को अलग रखा। व्यक्तिगत तौर पर हम न तो कांग्रेस को दूध की धुली हुई पार्टी समझते हैं और न ही हम इसके पक्षधर हैं कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध साथ न दें। यह तो लोकतंत्र का अपहरण करने जैसा है। अन्ना का कहना यह है कि भाजपा भी भ्रष्टाचार में वैसी ही लिप्त है जैसे अन्य राजनैतिक पार्टियां। ऐसा लगता है कि अन्ना जाने-अनजाने में किसी और के इशारों पर चल रहे हैं, वोट किसको देना है और किसको नहीं, यह फैसला हर भारतीय खुद कर सकता है। उनकी इस बात से अन्ना जी के चाहने वाले भी उनसे नाराज हो रहे हैं।
दैनिक `जदीद मेल' ने `गलत दिशा में आंदोलन' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अन्ना हजारे हो या उनकी टीम के दूसरे सदस्य, उनकी बातों पर उसी समय विश्वास करेंगे जब वह राजनैतिक पार्टियों से समान दूरी बनाकर अपने आंदोलन को आगे बढ़ाएंगे। यह सही है कि किसी भी जन आंदोलन में शामिल होने के लिए कोई भी आगे आ सकता है लेकिन आंदोलन का नेतृत्व करने वालों का दामन पाक-साफ होना जरूरी है। यदि हरियाणा में कांग्रेस को कामयाबी हासिल हो जाती है तो फिर अन्ना हजारे की पोजीशन कमजोर पड़ जाएगी और वह इस आंदोलन को जन आंदोलन होने का भी दावा नहीं कर सकते और यदि कांग्रेस वहां से हार जाती है तो अन्ना हजारे पर भाजपा के संरक्षण का आरोप लगेगा। इसलिए दोनों स्थिति में अन्ना की ही हार होगी। चुनावी जंग में कूद कर अन्ना ने बड़ी गलती की है। लोकपाल बिल संसद के आगामी अधिवेशन में पेश होगा इसके अतिरिक्त कई अन्य बिल भी पेश होंगे जो भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल कानून के सहायक बनेंगे तो फिर आगामी अधिवेशन तक अन्ना को इंतजार करने में कोई हर्ज नहीं था। अब लोग इस बात को देख रहे हैं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ और चुनावी सुधारों को लागू करने में कौन ईमानदार है और कौन ड्रामेबाजी कर रहा है।
`अन्ना हजारे का आंदोलन, बिल्ली थैले से बाहर आ गई' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' में `हिन्दुस्तान नाम' के अपने स्तम्भ में नाके किदवई ने लिखा है कि अन्ना हजारे की कांग्रेस दुश्मनी स्पष्ट है कि उन्होंने कांग्रेस हटाओ का तो नारा दिया लेकिन उत्तर प्रदेश जिसकी गिनती आज देश के भ्रष्टाचार राज्यों में की जाने लगी है और शायद मुख्यमंत्री मायावती सबसे बड़ी भ्रष्टाचारी राजनेता भी हैं। यूपी की मंत्रिपरिषद लगभग भ्रष्टाचार मंत्रियों पर आधारित है, मायावती अरबपति हैं तो उनकी मंत्रिपरिषद का हर व्यक्ति करोड़ों में खेल रहा है। उत्तर प्रदेश के लोक आयुक्त एनके मेहरोत्रा अब तक तीन मंत्रियों को भ्रष्टाचार, बेइमानी के संगीन मामलों में कसूरवार ठहरा चुके हैं। इन मंत्रियों को मायावती ने अपने मंत्रिपरिषद से निकाल बाहर भी कर दिया लेकिन खुद मायावती ने अभी तक अपनी जवाबदेही नहीं की है। अन्ना हजारे ने मायावती, बीएसपी के उम्मीदवारों को हराने की कोई अपील नहीं की और न ही अन्ना हजारे को मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी नजर आ रही है जो अतीत से लेकर आज तक भ्रष्टाचार में डूबी हुई है। यही सूरते हाल भाजपा का है लेकिन इन पार्टियों को अन्ना हजारे ने छोड़ दिया है। इनको हराने की कोई अपील जारी नहीं की। इससे साफ जाहिर है कि अन्ना आंदोलन का मकसद कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर लाल कृष्ण आडवाणी अथवा नरेन्द्र मोदी जैसे नेता को प्रधानमंत्री का ताज पहनाना चाहते हैं।
दैनिक `सहाफत' ने अपने सम्पादकीय में अन्ना हजारे की मुहिम पर चर्चा करते हुए लिखा है कि अन्ना हजारे ने धमकी दी है कि आने वाले दिनों में कुछ राज्यों में जो चुनाव होने वाले हैं, उनमें वह उन सभी पार्टियों और उम्मीदवारों के खिलाफ चुनावी मुहिम में भाग लेंगे जो जन लोकपाल बिल के विरोधी हैं। आने वाले साल में जहां चुनाव होने हैं उनमें पांच राज्यों के अतिरिक्त मुंबई नगर निगम का चुनाव भी शामिल है। मुंबई नगर निगम का बजट कई राज्यों के बजट से ज्यादा बड़ा है। इसलिए हमें नहीं मालूम कि अन्ना हजारे की सूची में मुंबई निगम का चुनाव शामिल है या नहीं, यदि नहीं शामिल है तो बड़ी आश्चर्य की बात होगी क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि अन्ना हजारे यह समझते हैं कि सारा भ्रष्टाचार विधानसभा और संसद तक सीमित है। नगर निगम भ्रष्टाचार से बिल्कुल पाक साफ होती है और यदि मुंबई नगर निगम भी इनकी सूची में शामिल हैं तो हमें यह भी नहीं मालूम कि शिवसेना और उसके उम्मीदवारों के प्रति इनका रवैया क्या होगा? मुंबई नगर निगम पर भाजपा-शिव सेना का कब्जा है। मुंबई की सड़कों के गड्ढे गवाह हैं कि मुंबई नगर निगम ने गत पांच सालों में कितना `शानदार' काम किया। शिव सेना एक बार नहीं कई बार अन्ना हजारे और उनके आंदोलन का मजाक बना चुकी है। देखना यह है कि शिव सेना और उसके उम्मीदवारों के खिलाफ चुनावी मुहिम चलाएंगे? यदि ऐसा नहीं होता है तो इसका मतलब यह है कि चिराग तले अंधेरा है।

Friday, September 23, 2011

बटला हाउस की तीसरी वर्षगांठ

बीते सप्ताह बटला हाउस एनकाउंटर की तीसरी बरसी और नरेन्द्र मोदी के उपवास ने प्रिंट और इलैक्ट्रानिक मीडिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। दोनों ही मुद्दे राष्ट्रीय स्तर के हैं और इन पर राजनीति होती है। यही कारण है कि इनसे संबंधित जब कोई बात सामने आती है तो वह राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन जाती है। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय।

उर्दू दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में `बटला हाउस की तीसरी वर्षगांठ' के शीर्षक से चर्चा करते हुए लिखा है कि इस अवसर पर धरना प्रदर्शन के लिए आजमगढ़ से एक विशेष ट्रेन द्वारा राष्ट्रीय उलेमा काउंसिल सदस्य आए थे। इन्होंने घटना की सीबीआई जांच की मांग की। दिलचस्प बात यह रही कि उलेमा ने हजारों समर्थकों के बीच कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह पर खास निशाना लगाया। उलेमा काउंसिल चेयरमैन मौलाना जाकिर रशीद मदनी ने कहा कि दिग्विजय ने मुझसे खुद कहा था कि उन्होंने इस मुठभेड़ के फर्जी होने की बात कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से कही थी, लेकिन उनकी किसी ने नहीं सुनी। मुझे लगता है कि दिग्विजय नौटंकी करते हैं, उन्हें मुसलमानों से कोई हमदर्दी नहीं है। इंस्पेक्टर मोहन चन्द शर्मा की शहादत को जिस तरह संदेह के कठघरे में खड़ा किया गया, उससे निश्चित तौर पर दिल्ली पुलिस के जवानों का ही नहीं बल्कि पूरे देश के सुरक्षा बलों का हौंसला टूटा होगा। इसका नकारात्मक प्रभाव यह जरूर हुआ कि पुलिस एवं अन्य सुरक्षा बलों के जवान अच्छी तरह से समझ चुके हैं कि आतंक के खिलाफ चुप बैठना और सांप निकलने के बाद लकीर पीटना इसका पहला दायित्व है आतंकियों को पकड़ना नहीं। नतीजे के तौर पर अब राजधानी दिल्ली में कोई भी बम धमाका हो इसमें पुलिस के हाथ खाली थे और खाली हैं।

मोर्चा के इंचार्ज जेके जैन की उपस्थिति आश्चर्यजनक रही। इस रैली में जेके जैन ने मुसलमानों को लुभाने के लिए बड़ी लच्छेदार तकरीर की, जिसे तकरीर के शौकीन मुसलमानों ने खूब चटखारे लेकर सुना। जैन ने एनकाउंटर की अदालती जांच कराने की मुसलमानों की मांग का खुलकर समर्थन किया। जैन ने इस स्थिति के लिए मुसलमानों के कांग्रेस प्रेम को कसूरवार करार दिया, क्योंकि उन्होंने आज तक भाजपा को एक बार भी मौका नहीं दिया। भाजपा का मुस्लिम प्रेम केवल बटला हाउस एनकाउंटर की जांच तक ही सीमित नहीं है बल्कि अभी भरतपुर में हुई पुलिस मुठभेड़ में मुसलमानों के नुकसान का जायजा लेने और मामले की तहकीकात के लिए भाजपा ने दो सांसदों का एक प्रतिनिधिमंडल भेजा है। इस प्रतिनिधिमंडल में भाजपा के मुस्लिम शाहनवाज हुसैन भी मौजूद थे। उन्होंने वापसी पर बयान दिया कि वहां पुलिस ने मुस्लिम युवकों को कत्ल किया और एक मस्जिद में तोड़फोड़ की।

यह बयान देते समय शाहनवाज यह भूल गए कि जिस भीड़ के साथ पुलिस ने भरतपुर में मुसलमानों पर अत्याचार किया, वह संघ परिवार के गुंडों की भीड़ थी। उन्होंने ही कब्रिस्तान की जमीन पर कब्जा किया था जिसके खिलाफ मुस्लिम विरोध कर रहे थे। बाद में संघ परिवार के गुंडों ने पुलिस के साथ मिलकर मुसलमानों की जान व माल से ऐसा ही खिलवाड़ किया जैसा कि गुजरात में किया गया था।

गुजरात मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा तीन दिन के उपवास पर दैनिक `हमारा समाज' में `उपवास बनाम बकवास' के शीर्षक से लिखा है कि मोदी का यह उपवास मुसलमानों के नरसंहार को नहीं धो सकता, इसलिए कि यह पूरी तरह बकवास है और `नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली' की जीती जागती तस्वीर है। इस तरह की बकवास से यदि मोदी यह समझते हैं कि हम मुसलमानों का दिल जीत लेंगे अथवा 2014 में प्रधानमंत्री की कुर्सी हासिल करने के लिए जमीन तैयार कर सकेंगे तो यह उनकी भूल है, वैसे कुछ खरीदारों को खरीदने में शायद उन्हें कुछ कामयाबी मिल जाए, तब भी यह उनके गुनाहों को नहीं धो सकती। उन्हें अब उपवास करने के बजाय वनवास में जाकर मजलूमों की पुकारों को आसमान से टकराने का इंतजार करना चाहिए। इसलिए इस उपवास से किसी तरह की आशा न कर मोदी को प्राकृतिक मार का इंतजार करना चाहिए और बस।

दैनिक `इंकलाब' ने `उपवास और इंसाफ' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि इस संदर्भ में हमें विश्वास है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के `उपवास' पर बहुत से लोग दिल ही दिल में मुस्कुरा रहे होंगे कि दूसरों को बेवकूफ समझने वाला यह व्यक्ति खुद कितना बेवकूफ है। सद्भावना की बात उस व्यक्ति की जुबान से अच्छी लगती है जो सद्भावना पर विश्वास रखता हो।

यदि वह पूर्व में ऐसा नहीं था तब भी उसे सद्भावना की बात करना जब देगा शर्त यह है कि वह अपने तौर-तरीके बदल चुका हो और अपनी हरकतों पर उसे आत्मग्लानि महसूस हो। मोदी `उपवास' पर बैठे हुए हैं और सद्भावना की बातें कर रहे हैं। यह मुंह और मसूर की दाल।

मोदी ने जनता को बांटकर अतीत में राजनैतिक और चुनावी फायदे तो हासिल कर लिए लेकिन धीरे-धीरे ही सही, अब वह समय आ रहा है जो उन्हें कठघरे में खड़ा करके उनसे गुजरात नरसंहार का न केवल जवाब मांगेगा बल्कि बेगुनाहों के कत्ल का हिसाब मांगेगा। अपनी गर्दन को इस तरह फंसता देखकर मोदी बौखला गए हैं।

`तीन साल बाद भी...' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बटला हाउस एनकाउंटर के तीन साल पूरे हो गए। तीन साल पूर्व जो सवालात उठाए गए थे वह आज भी उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं क्योंकि इन सवालों का कोई उपयुक्त जवाब अभी तक नहीं दिया जा सका है। इस बीच विभिन्न अवसरों पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ओर से यह मांग की जाती रही कि इस घटना की अदालती जांच होनी चाहिए लेकिन इस जांच का यह कहकर विरोध किया जाता रहा कि इससे पुलिस का मनोबल गिरेगा। विशेष बात यह भी थी कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग इसी बटला हाउस एनकाउंटर के मामले में अपनी साख खो चुका है। यह वही संस्था है जिसने पुलिस की कहानी को सही करार देते हुए घर बैठे अपनी रिपोर्ट तैयार कर ली थी और अपनी टीम को घटनास्थल पर वास्तविकता जानने के लिए नहीं भेजी। सवाल यह है कि मानवाधिकार आयोग ने किसके इशारे पर अपनी जिम्मेदारी से फरार की कोशिश की थी।

Sunday, September 18, 2011

मोदी की अग्निपरीक्षा'

बीते सप्ताह राष्ट्रीय एकता परिषद में सांप्रदायिक हिंसा रोधक संबंधी विधेयक पर राजनैतिक पार्टियों सहित यूपीए सहयोगी तृणमूल कांग्रेस का विरोध, 2002 के गुजरात नरसंहार में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामले को निचली अदालत में सुनवाई के लिए भेजना, आडवाणी की रथ यात्रा एवं अन्ना हजारे का राष्ट्रव्यापी आंदोलन जैसे कई मुद्दों पर उर्दू समाचार पत्रों ने चर्चा की है। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय।

दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `सांप्रदायिक हिंसा विधेयक फिर खटाई में, सांप्रदायिक और सेकुलर दोनों पार्टियों ने इसका विरोध किया' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि तीन साल बाद हुई राष्ट्रीय एकता परिषद की इस बैठक में कुछ हाई प्रोफाइल मुख्यमंत्रियों जैसे नरेन्द्र मोदी, मायावती, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और जयललिता शरीक नहीं हुईं। इस बैठक में विधेयक की धज्जियां बिखेर कर रख दी गईं। नेशनल एडवाइजरी काउंसिल (एनआईसी) ने विधेयक का जो ड्राफ्ट तैयार किया था उसमें भाजपा, जनता दल (यूनाइटेड), अकाली दल, सीपीआई(एम) बीजू जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल, यहां तक कि यूपीए समर्थक तृणमूल कांग्रेस ने इसमें सौ-सौ कीड़े निकाले स्वयं कांग्रेस के अन्दर विधेयक को लेकर कोई उत्साह नहीं था और ऐसा लगा जैसे इस महत्वपूर्ण मुद्दे को हल करने के मामले में सरकार को एक किनारे कर दिया गया है। एनआईसी इस विधेयक की रूपरेखा को फिर से तैयार करेगी।

जाहिर है इस विधेयक द्वारा अल्पसंख्यकों के आंसू पोंछने की जो कोशिश की जा रही थी उस पर पानी फिर जाएगा और उनके सिर पर पूर्व की तरह ही तलवार लटकती रहेगी। इसलिए हमें सबसे पहले सांप्रदायिक मानसिकता पर चोट करनी होगी जिसने एक अहम कानून से देश को वंचित करा दिया।

`प्रस्तावित धार्मिक हिंसा विधेयक का विरोध' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में भाजपा द्वारा अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों को बांटने के आरोप पर चर्चा करते हुए लिखा है कि यूपीए सरकार को अल्पसंख्यकों के अधिकारों एवं इंसाफ दिलाने वाले किसी प्रस्ताव पर भाजपा से सकारात्मक आशा नहीं की जा सकती। भाजपा के इस विचार कि प्रस्तावित विधेयक अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक को विभाजित करता है, को निरस्त कर देना चाहिए। क्योंकि यह साबित हो चुका है कि दंगों में धार्मिक आधार पर अल्पसंख्यकों पर अत्याचार किया जाता है इसलिए ऐसे कानून बनाए जाएं जो अल्पसंख्यकों को सुरक्षा का एहसास दिला सकें। भाजपा अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में फर्प के खिलाफ तो है लेकिन दंगों के दौरान इस आधार पर हो रहे नंगे नाच पर वह हमेशा मौन रहती है। इस बात को समझना होगा कि जो जख्म समाज के नीचे स्तर तक पहुंच गया है उसकी अनदेखी से स्थिति नहीं बदलेगी बल्कि इस नासूर का ऑपरेशन करके समाज को सांप्रदायिकता से मुक्ति दिलाना जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि सरकार इस विधेयक को संसद में पेश कर इसे अंजाम तक पहुंचाए।

दैनिक `इंकलाब' ने `गुलबर्ग सोसाइटी और सुप्रीम कोर्ट' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि इस बाबत सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही जो लोग खुशियां मना रहे हैं, वह हमारी समझ से परे है। सुप्रीम कोर्ट ने यह नहीं कहा कि अब अहमदाबाद का मजिस्ट्रेट जो भी फैसला सुनाएगी उसके आगे जकिया जाफरी समेत इंसाफ चाहने वाले सभी नतमस्तक हो जाएंगे। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नहीं कहा कि अब वह कोई अपील नहीं सुनेगा। इस केस को निचली अदालत के पास भेजने का जो कारण हमारी समझ में आता है वह यह कि इसका संबंध हमारे देश की न्यायिक व्यवस्था से है। यदि निचली अदालतों के फैसलों से जनता की बेचैनी बढ़ती रही और हर बड़ा और संगीन केस सुप्रीम कोर्ट पहुंचता रहे और उसी से आशा होने लगी तो निचली अदालतों की जरूरत क्या रह जाएगी और यदि निचली अदालतें ऐसे ही फैसले सुनाने लगे जिससे इंसाफ चाहने वालों को मायूसी हो तो फिर इस तरह के सभी केस सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचेंगे जिससे सुप्रीम कोर्ट के पास देशभर से मुकदमों की भीड़ लग जाएगी, वैसे भी सुप्रीम कोर्ट में आवेदन करने वालों की कमी नहीं है। इस अदालत ने यह तो कहा है कि अब उसे गुलबर्ग सोसाइटी केस पर नजर रखने (श्दहग्tदग्हु) की जरूरत नहीं है लेकिन यह नहीं कहा है कि अब वह इस केस की सुनवाई नहीं करेगा।

`नरेन्द्र मोदी की अग्निपरीक्षा' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र के राजनैतिक विरोधियों को पूरी आशा थी कि सुप्रीम कोर्ट सोमवार के दिन मोदी को 2002 के गोधरा कांड के बाद हुए दंगों पर मुकदमे में लपेट लेगी और उन्हें कठघरे में खड़ा कर देगी। लेकिन मोदी को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे इनके विरोधियों को सुप्रीम कोर्ट से मायूसी हाथ लगी। बड़ी अदालत ने दंगा रोकने में इनकी भूमिका में लापरवाही पर कोई फैसला सुनाने से इंकार कर दिया। जस्टिस डीके जैन की अगुवाई वाली तीन जजों की खंडपीठ ने मोदी और अन्य सरकारी अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के लिए भी कोई विशेष हिदायत जारी करने से इंकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर खुशी जाहिर करते हुए जेटली ने कहा कि भाजपा शुरू से ही कहती रही है कि मोदी पर लगाए गए आरोप झूठे हैं और इनकी दंगों में कोई भूमिका नहीं थी। इससे साबित हुआ कि केवल प्रोपेगंडा और झूठे आरोप कभी सच नहीं हो सकते। मोदी का नाम एक भी चार्जशीट में नहीं है और न ही विशेष जांच टीम ने उन्हें कसूरवार पाया है। सुषमा ने कहा कि मोदी ने अग्निपरीक्षा पास कर ली है, सत्यमेव जयते।

जमीअत उलेमा हिन्द के एक धड़े जिसके अध्यक्ष मौलाना अरशद हैं, के बारे में विकीलीक्स का यह बयान कि मौलाना अमेरिका के लिए सकारात्मक व्यक्तित्व है, को अमेरिका द्वारा उन्हें बदनाम करने का षड्यंत्र है, के विषय पर आमिर सलीम खाँ ने `हमारा समाज' में लिखा है कि उपरोक्त कथन 2008 में भारत में अमेरिकी दूत मलफोर्ड का है जिसका रहस्योद्घाटन विकीलीक्स ने अपने केबल में किया है जिसमें कहा गया है कि यदि जमीअत पर मौलाना अरशद मदनी का वर्चस्व रहता है तो यह बात अमेरिका के हित में बेहतर होगी, क्योंकि दूसरे ग्रुप के मौलाना महमूद मदनी ने आतंकवाद विरोधी मुहिमों के दौरान अमेरिका की कड़ी आलोचना की है जबकि इनके मुकाबले मौलाना अरशद मदनी सुलझे हुए हैं और उनकी तरफ से कभी अमेरिका का विरोध नहीं हुआ है। भारत स्थित अमेरिकी उच्चायोग ने पूरी स्थिति को उजागर करते हुए कहा है कि दारुल उलूम देवबंद में 25 फरवरी 2008 में आतंकवाद विरोधी कांफ्रेंस में जहां एक तरफ मौलाना अरशद मदनी ने आतंकवाद को चर्चा का विषय बनाया था वहीं मौलाना महमूद मदनी और इनके समर्थकों ने आतंकवाद विरोध के साथ-साथ अमेरिका के खिलाफ खूब हंगामा किया।

Saturday, September 10, 2011

`धमाकों पर धमाके'

बीते सप्ताह अमर सिंह की जेल यात्रा सहित अनेक मुद्दों पर उर्दू अखबारों ने चर्चा की है लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट के गेट नं. 5 पर हुए बम धमाके ने देशवासियों को सकते में डाल दिया है। सभी की इच्छा है कि ऐसी आतंकी घटना को अंजाम देने वालों को सरेआम फांसी दी जाए ताकि कोई दूसरा ऐसा काम करने की हिम्मत न कर सके। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय। दैनिक `इंकलाब' ने `धमाकों पर धमाके' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि जब भी कोई ऐसी घटना होती है, घूम-फिरकर वही चन्द सवालात नए सिरे से उभरते हैं जिनका संतोषजनक जवाब पिछली वारदातों के बाद भी नहीं मिला था। मिसाल के तौर पर हमारा खुफिया विभाग क्या करता है? यदि खुफिया विभाग ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की तो संबंधित विभाग क्या करते रहे? हमारी सुरक्षा व्यवस्था इतनी फुसफुसी क्यों है कि उसकी आंखों में किसी भी समय धूल झोंकी जा सकती है। राजधानी में मोटे तौर पर अब तक बम धमाकों की डेढ़ दर्जन से अधिक वारदातें हो चुकी हैं। अब तक किसी धमाका केस में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है। यही कारण है जिससे आतंकवादियों के हौंसले बुलंद होते हैं। हर धमाके के बाद `हमारा संकल्प कि हम कसूरवारों को नहीं बख्शेंगे' जैसे बयानात अपनी छाप खोते जा रहे हैं क्योंकि अब तक हमारे सामने केवल बयानात ही हैं कोई ठोस तफ्तीश नहीं है।
`इंसाफ का मंदिर लहुलूहान' के शीर्षक से `हमारा समाज' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि देश व कौम और समाज के दुश्मनों द्वारा इंसाफ के मंदिर को लहुलूहान करने, 12 मासूमों को मौत के घाट उतारने और 83 लोगों को मौत व जिन्दगी के फंदे पर लटकाने के बाद सरकार की आंखें खुली हैं और सभी राज्यों में हाई अलर्ट जारी कर दिया गया है लेकिन इस तरह की आतंकी घटनाओं और बम धमाकों से सरकार पर सवाल उठते हैं कि आखिर अब तक सरकार इतनी बेबस क्यों है? जब चार महीने पूर्व आतंकवादियों ने रिहर्सल के तौर पर हाई कोर्ट को निशाना बनाया था तो इसके बाद सरकार और सुरक्षा विभाग की आंखें क्यों नहीं खुल सकीं?
दिल्ली जैसे कई शहरों में आतंकवादी हमले हो चुके हैं, विशेषकर दिल्ली को तो हमेशा ही आतंकवादी अपना निशाना बनाते रहे हैं। ऐसे में आतंकवादियों से निपटने के लिए सरकार के पास किसी की रणनीति का न होना दुःखदायी है।
दैनिक `जदीद मेल' में `फिर वही बर्बरता' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरी 25 मई को भी मौत के सौदागरों ने हाई कोर्ट के बाहर आतंक फैलाने की कोशिश की थी लेकिन तब कोई जानी व माली नुकसान नहीं हुआ था लेकिन आज के धमाके से साबित हुआ है कि आतंकियों ने हाई कोर्ट को अपना निशाना बनाया था जिसमें वह किसी हद तक सफल हो गए। यह धमाके क्यों और किसने कराए, अभी सरकार और एजेंसियां कुछ भी कहने से बच रही हैं। एक ईमेल पुलिस को जरूर मिला है जिसमें किसी हरकातुल जिहाद इस्लामी नामी संगठन ने धमाके की जिम्मेदारी ली है। इसका कारण भी बताया है कि संसद पर हुए आतंकवादी हमले में अपराधी करार पाए अफजल गुरु की सजाए मौत यदि माफ नहीं की जाती है तब तक अदालतों के बाहर इसी तरह के धमाके होते रहेंगे। इसलिए इस दिशा में तफ्तीश की काफी गुंजाइश है। वर्तमान में सजाए मौत का मामला देश के राजनैतिक एवं सामाजिक गलियारों में चर्चा का विषय बना हुआ है क्योंकि देश के तीन अहम मामलों के अपराधियों की सजाए मौत का दिन करीब आ चुका है। यह तीनों मामले आतंकवाद से जुड़े हुए हैं लेकिन इन तीनों को अलग-अलग नजरिये से देखा जा रहा है। बहरहाल जुल्म करने वालों को सजा देना इंसाफ की मांग है।
दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `ठाकुर की गिरफ्तारी के बाद' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यह अपनी जगह कड़वी हकीकत है कि नोट के बदले वोट मामला ठंडे बस्ते में पड़ा हुआ था और उस समय तक दिल्ली पुलिस खरगोश की नींद सोती रही जब तक अदालत ने उसे झिंझोड़ कर जगाया नहीं। इस मामले में पुलिस स्वयं सक्रिय नहीं हो सकी तो इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आम मामलों में पुलिस का रवैया किस हद तक जिम्मेदारी वाला हो सकता है। अदालत की फटकार के बाद पहले सक्सेना गिरफ्तार हुए फिर हिन्दुस्तानी पकड़े गए। पहले अमर सिंह से पूछताछ हुई और फिर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। देखने की बात यह होगी कि सफेदपोश जमाअतों से संबंध रखने वाले अन्य किन-किन काले चेहरों को गिरफ्त में लिया जाता है। अभी भाजपा नेता अमर सिंह की गिरफ्तारी पर झूम रहे हैं। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वह भविष्य में भी इसी तरह झूमते रहेंगे। क्योंकि ऐसे इशारे मिले हैं कि भाजपा के भी कुछ नेताओं को खुफिया एजेंसियां गिरफ्त में ले सकती हैं। मनमोहन सरकार को अविश्वास प्रस्ताव से बचाने की कोशिश के तहत सांसदों की खरीदने की कोशिश वास्तव में की गई थी या फिर यह सरकार को बदनाम करने की कोशिश। तफ्तीश द्वारा सारे बिन्दु निकलकर सामने न आ जाएं इसके बाद ही पता चलेगा कि सच्चाई क्या है?
`बेचारे अमर सिंह गए थे जमानत के लिए मिली जेल' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अमर सिंह को बलि का बकरा बना दिया गया है। पैसे किसने अमर सिंह को दिए, किसलिए दिए, पूरे मामले में फायदा किसको हुआ। जब तक इन सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं मिल जाता हमारी नजर में यह मामला अधूरा है।
उनका कसूर क्या था? बस यही कि उन्होंने पूरे षड्यंत्र का राज फाश कर दिया। इस गिरफ्तारी का जबरदस्त फाल आउट हो सकता है। यदि अमर सिंह ने सारा राज खोल दिया तो कांग्रेस के कई चोटी के नेता फंस सकते हैं और यही चीज कांग्रेस को सताएगी।
यही कारण है कि कांग्रेस ने अपना डैमेज कंट्रोल शुरू कर दिया है इससे पहले कि अमर सिंह मुंह खोलें, कांग्रेस रणनीतिकारों ने अपना मोर्चा सम्भाल लिया है। संसदीय मामलों के मंत्री पवन कुमार बंसल का कहना है कि उस समय कांग्रेस को वोट खरीदने की जरूरत नहीं थी। वाम मोर्चा द्वारा समर्थन वापस लिए जाने के बावजूद यूपीए के पास उचित बहुमत था। बंसल का तर्प इसलिए भी जरूरी दिखाई पड़ता है क्योंकि अदालत में सबसे पहला सवाल यही उठेगा कि आखिर पूरे मामले में फायदा किसे मिला?

Friday, August 26, 2011

अन्ना मुहिम और मुस्लिम दृष्टिकोण

बीते सप्ताह जहां राजनैतिक परिदृश्य पर अन्ना हजारे और उनकी टीम द्वारा जन लोकपाल का मुद्दा छाया रहा, वहां उर्दू के कई समाचार पत्रों ने इस आंदोलन को सांप्रदायिक ताकतों से जोड़ते हुए इसे देश के लिए खतरनाक बताया। इतना ही नहीं, रामलीला मैदान में अन्ना समर्थन में उमड़ी भीड़ के इलैक्ट्रॉनिक मीडिया का कमाल बताते हुए अन्ना को जनता से मायूसी हुई और उनके समर्थकों को अन्ना की जिद झेलनी पड़ रही है, जैसी खबरें भी उनके संवाददाताओं के नाम से प्रकाशित की गईं। `अन्ना आंदोलन पर मुसलमानों को संदेह' के शीर्षक से लगभग सभी उर्दू अखबारों ने सैयद अहमद बुखारी, पर्सनल लॉ बोर्ड सदस्य जफरयाब जीलानी, वैलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के महासचिव कासिम रसूल इलियास, दारुल उलूम देवबंद के मोहतामिम अबुल कासिम नोमानी, फतेहपुरी मस्जिद के इमाम मुफ्ती मुकरम अहमद, इमाम आर्गेनाइजेशन अध्यक्ष उमैर इलियासी के बयान को प्रमुखता से प्रकाशित किया। पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह कहकर इस मुहिम से पीछा छुड़ाया है कि भ्रष्टाचार बोर्ड के कार्य क्षेत्र में नहीं है। कासिम रसूल इलियास ने कहा कि संसद के अधिकारों को कमजोर करने की कोशिश न तो लोकतंत्र के लिए अच्छी है और न ही देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे के लिए। अन्ना जिस चीज के लिए मुहिम चला रहे हैं, हम इससे सहमत हैं लेकिन संसद को अपनी शर्तें मनवाने पर मजबूर करने के हक में नहीं हैं। लोकपाल बिल और जन लोकपाल बिल पर संसद जल्द फैसला कर किसी निष्कर्ष पर पहुंचे।
`मुस्लिम नेताओं ने सदैव कांग्रेस की डूबती किश्ती बचाई है' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' ने ऑल इंडिया उलेमा काउंसिल और तनजीम अबनाए कदीम देवबंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष एजाज अहमद रज्जाकी के हवाले से लिखा है कि कांग्रेस अपने हमाम में नंगी है। `अन्ना की ललकार, बिल लाना पड़ेगा... या जाना पड़ेगा' के शीर्षक से दैनिक `हिन्द समाचार' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है। 28 जुलाई को केंद्रीय मंत्रिमंडल की ओर से टीम अन्ना के प्रस्तावित सख्त `जन लोकपाल बिल' को निरस्त कर सरकारी लोकपाल बिल के नरम विधेयक को मंजूरी देने के बाद बुजुर्ग समाजसेवी अन्ना हजारे पहले से घोषणा अनुसार 16 अगस्त से भूख हड़ताल पर बैठ गए हैं। इसी दौरान अन्ना ने लोकपाल के अपने एजेंडे को पालिका को एक ताकतवर लोकपाल के अधीन लाने की बात कही गई लेकिन अन्ना के वर्तमान अनशन को गलत बताया गया। मुस्लिम नेताओं ने मैदान में निकलना शुरू कर दिया है। मौलाना रज्जाकी ने कहा कि दारुल उलूम देवबंद को जमीयत उलेमा हिन्द से अलग कर दें। दोनों संगठनों का सुर में सुर मिल रहा है जो सदस्य दारुल उलूम की कार्यकारिणी में शामिल हैं लगभग वही लोग जमीयत उलेमा के सदस्य भी हैं। इसी के साथ मौलाना रज्जाकी ने उलेमा काउंसिल और तनजीम अबनाए कदीम की ओर से अन्ना के समर्थन की घोषणा की।
दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने `अन्ना के जन लोकपाल बिल पर भाजपा का दृष्टिकोण क्या है?' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अन्ना के अनशन को लगभग नौ दिन गुजर चुके हैं और भाजपा ने अभी तक जन लोकपाल पर अपने पत्ते नहीं खोले? भाजपा के दो सांसदों ने खुलकर जन लोकपाल बिल का समर्थन किया है। इनमें एक वरुण गांधी दूसरे राम जेठमलानी। वरुण का कहना है कि अन्ना का बिल प्राइवेट बिल के तौर पर संसद में पेश करेंगे। राज्यसभा में भाजपा सांसद राम जेठमलानी ने भी अन्ना टीम के बिल का समर्थन किया है। उनका कहना था कि अन्ना के बिल को पूरी तरह नजरंदाज करना अब राजनेताओं के लिए सम्भव नहीं है। जेठमलानी जन लोकपाल बिल के दो अहम बिन्दुओं से पूरी तरह सहमत हैं। इनमें प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाना और न्यायिक व्यवस्था को शामिल करना है। काबिले गौर है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल में लाने की मांग तो भाजपा कर रही है लेकिन न्यायाधीशों के लिए वह अलग से संस्था बनाए जाने के पक्ष में है। समय आ गया है कि टीम अन्ना और जनता चाहती है कि भाजपा हर बिन्दु पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करे। चाहे संसद के बाहर अथवा संसद के अन्दर।
`अन्ना की ललकार' बिल लाना पड़ेगा... या जाना पड़ेगा' के शीर्षक से दैनिक `हिन्द समाचार' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है। 28 जुलाई को केंद्रीय मंत्रिमंडल की ओर से टीम अन्ना के प्रस्तावित सख्त `जन लोकपाल बिल' को निरस्त कर सरकारी लोकपाल बिल के नरम विधायक को मंजूरी देने के बाद बुजुर्ग समाजसेवी अन्ना हजारे पहले से घोषणा अनुसार 16 अगस्त से भूख हड़ताल पर बैठ गए हैं। इसी दौरान अन्ना ने लोकपाल के अपने एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए जमीन अधिग्रहण और चुनाव सुधार की बात कर सरकार पर चारों तरफ से दबाव बना दिया है। उन्होंने चुनाव व्यवस्था की खामियों को दूर करने का भी आह्वान किया, क्योंकि इसी के कारण 150 अपराधी संसद में पहुंचे। एक ओर जहां जन लोकपाल सरकार के गले की फांस बना हुआ है वहीं कैग ने 40 हजार करोड़ रुपये के घोटाले की दो और रिपोर्ट तैयार कर ली है जिससे आने वाले दिनों में सरकार की परेशानी बढ़ जाएगी।
दैनिक `इंक्लाब' द्वारा सरकारी बिल में मदरसे और गैर सरकारी संगठन भी आते हैं, का समाचार प्रकाशित किए जाने के बाद पहली बार मुस्लिम संगठनों ने दबी जुबान से सरकारी बिल को खतरा बताया लेकिन इसी स्वर में उन्होंने अन्ना पर भी कटाक्ष कर उन्हें गलत बताया। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (मौलाना सालिम ग्रुप) के महासचिव इलियास मलिक ने सरकारी लोकपाल बिल को अस्वीकार करार देते हुए कहा कि सरकारी बिल के अध्याय छह की धारा `ई' में जो कुछ कहा गया है उसके तहत सभी सरकारी व गैर सरकारी संगठन विशेषकर हमारे मदरसे भी आ जाएंगे। जब हम अपने मदरसों के लिए कल नहीं तैयार हुए तो आज किस तरह तैयार हो जाएंगे कि इनमें हस्तक्षेप का दरवाजा खुले। जहां तक मदरसों में भ्रष्टचार का मामला है तो इसके लिए प्रबंधक कमेटियां होती हैं जो ट्रांसपैरेंसी के लिए प्रयासरत रहती हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना सैयद निजामुद्दीन ने सरकारी लोकपाल बिल में गैर सरकारी संगठनों और संस्थानों को इसके तहत लाने की बात पर कहा कि सरकार को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए। ऐसा कानून नहीं बनना चाहिए जिससे समाज में बेचैनी पैदा हो।
ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत (सैयद शहाबुद्दीन ग्रुप) ने अपनी बैठक में निर्णय लिया कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए किसी बड़ी संस्था के गठन की जरूरत नहीं है, क्योंकि इतनी बड़ी संख्या खुद अपने बोझ तले दब जाएगा और भ्रष्टाचर दूर करने के बजाय भ्रष्टाचार फैलाने का कारण बनेगा। बैठक में मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों के अतिरिक्त सीजीआई(एम) के प्रतिनिधि को विशेष रूप से बुलाया गया था। बैठक में राजनेताओं सहित प्रधानमंत्री, ब्यूरोकेसी और न्यायपालिका को एक ताकतवर लोकपाल के अधीन लाने की बात कही गई लेकिन अन्ना के वर्तमान अनशन को गलत बताया गया।

Friday, August 19, 2011

रमजान में भिखारियों का जमावड़ा

बीते सप्ताह जहां राजनैतिक मुद्दों पर उर्दू अखबारों ने अपना पक्ष रखा वहां पवित्र रमजान महीने के लिहाज से कुछ ऐसे मुद्दों को भी छेड़ा है जो दिलचस्प होने के साथ-साथ विचारणीय भी हैं। `रमजान में भीख मांगने के लिए महत्वपूर्ण सड़कों की नीलामी होती है' के विषय पर हैदराबाद से प्रकाशित उर्दू दैनिक `मुनसिफ' ने विशेष रिपोर्ट प्रकाशित कर बताया है कि किस तरह देश के विभिन्न शहरों से पेशावर भिखारियों की एक बड़ी संख्या हैदराबाद पहुंच चुकी है।
भिखारियों की इस टोली में ईसाई और हिन्दू भिखारी भी मुसलमानों के रूप में भीख मांगते हैं। रमजान के शुरू होते ही हिन्दुस्तानभर के पेशावर भिखारियों ने हैदराबाद का रुख कर लिया है। इनमें वह सफेदपोश भी शामिल हैं जो हाथों में रसीद लिए दीनी मदरसों और मस्जिद निर्माण के लिए चन्दे की अपीलें करते हैं। एक भिखारी ने बताया कि आम दिनों में वह अपने गांव में एक दुकान पर काम करता है लेकिन रमजान के सीजन में भीख मांगने के लिए हैदराबाद आ जाता है, जहां आम दिनों में उसे 800 रुपये से 1100 रुपये रोज मिल जाते हैं। भीख मांगने की जगह उसे ठेके पर मिलती है। ठेकेदार को रकम देकर और खाने-पीने का खर्च निकालकर वह ईद पर 15 से 20 हजार रुपये लेकर वापस जाता है। इसी तरह नाम पल्ली चौराहे के बाहर फुटपाथ पर एक टांग से विक्लांग भिखारी ने बताया कि वह गत सात साल से रमजान में भीख इकट्ठा करने आता है। अंधा भिखारी अकेला नहीं है उसके साथ इस काम में परिवार के 9 सदस्य रमजान में भीख मांग रहे हैं।
`जकात व्यवस्था के बावजूद मुसलमान सबसे ज्यादा गरीब हैं' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' में नूर उल्लाह जावेद अपने लेख में लिखते हैं। निसंदेह भारत जैसे देश में जहां मुसलमान अल्पसंख्यक हों वहां सामूहिक जकात व्यवस्था मुश्किल है लेकिन यह देश और राज्य स्तर पर नहीं हो सकता तो मोहल्ला की स्तर पर हम यह कोशिश कर ही सकते हैं। हमारे सामने मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका की मिसाल है। मलेशिया में सरकार की निगरानी में जकात की रकम ली जाती है और इसको खर्च किया जाता है लेकिन दक्षिण अफ्रीका में यह व्यवस्था स्वयं मुसलमानों ने कायम कर रखी है। वास्तव में भारत में आज जकात की रकम पहले से कहीं ज्यादा निकलती है। सच्चर कमेटी रिपोर्ट के अनुसार भारतीय बैंकों में मुसलमानों की जो रकम जमा है उसका अनुमान 23657 करोड़ रुपये है। यदि इस रकम की जकात निकाली जाए तो कुल 5914 करोड़ रुपये जकात निकलेगी। यह केवल अनुमान है जबकि मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग ब्याज रहित लेन-देन के चलते अपनी रकम बैंकों में जमा नहीं करता है। यदि इस वर्ग की जकात को भी इसमें मिला लिया जाए तो हिन्दुस्तान में हर वर्ष 10829 करोड़ रुपये की जकात निकलेगी। यदि हम इसकी व्यवस्था करने में सफल हो जाते हैं तो निश्चय ही कुछ सालों में भारतीय मुसलमानों की बहुसंख्यक जकात देने वाली हो जाएगी।
ग्रीनलैंड जहां गर्मी के दिनों में दिन 16 घंटों का होता है वहां अगस्त के महीने में सूर्य अस्त रात 11 बजे होता है। दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अरब टीवी `अल-अरबिया' के हवाले से लिखा है कि वसाम आजीकार नामी व्यक्ति गत कई वर्षों से यहां अपना होटल चलाते हैं और अकेले रोजेदार हैं, उनके आसपास कोई दूसरा मुस्लिम रोजेदार नहीं है। 21 घंटे के रोजे में उसके लिए सबसे मुश्किल समय अफतार का होता है यदि अफतार में जल्दी न की जाए तो मगरिब की नमाज कजा हो जाती है और एक रोजेदार के लिए रोजा रखकर मगरिब की नमाज कजा कर देना किसी सूरत स्वीकार्य नहीं है। लगभग 12 बजे रात ईशा की नमाज के समय शुरू होता है और फिर एक घंटे और कुछ मिनट के बाद ही सेहरी का समय शुरू हो जाता है। ग्रीनलैंड के इस इकलौते रोजेदार को लगभग तीन घंटे के अन्दर-अन्दर रोजा खोलने के बाद मगरिब और ईशा की नमाज अदा करना होता है।
ग्रीनलैंड में जिन्दगी सूरज के साथ नहीं चलती बल्कि घड़ी के साथ चलती है। इसलिए खाने-पीने का समय भी रात या दिन के हिसाब से नहीं होते बल्कि आमतौर पर लोग घड़ी देखकर जागने की हालत में हर छह घंटे बाद कुछ न कुछ खाते हैं। सर्दियों के मौसम में सूरज ज्यादा से ज्यादा केवल चार घंटे तक दिखाई देता है।
`अन्ना की आंधी है, यह दूसरे गांधी हैं' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' ने अपने सम्पादकीय में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने लिखा है कि मंगलवार 16 अगस्त का दिन हमेशा याद रहेगा। यह कोई फिल्म से कम नहीं था। पूरे दिन सस्पेंस, ड्रामा, एमोशन सभी देखने को मिले। सारे देश की नजरें अन्ना पर लगी हुई थीöदेखें आज अन्ना क्या करते हैं। अन्ना अपने कहे पर खरे उतरे। मंगल की सुबह दिल्ली पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी लगभग ढाई सौ जवानों को लेकर मूयर विहार फेज-1 में स्थित सुप्रीम एन्क्लेव में प्रशांत भूषण के फ्लैट पहुंचे, लगभग आधा घंटा बातचीत में कोई नतीजा नहीं निकला तो अन्ना को उसी फ्लैट में जहां वह रुके थे, हिरासत में ले लिया।
अन्ना की गिरफ्तारी की खबर पूरे देश में फैल गई। कुछ माहौल वैसा ही था जो एक जमाने में जेपी आंदोलन के समय बना था। अन्ना आंदोलन अब पूरा रंग दिखा चुकी है। अन्ना मुद्दा, बाबा रामदेव जैसा मुद्दा नहीं बल्कि असल मुद्दा भ्रष्टाचार और महंगाई है। गिरफ्तारी के बाद अन्ना ने कहा कि यह परिवर्तन की लड़ाई है जब तक परिवर्तन नहीं आएगा तब तक जन समर्थन हासिल नहीं होगा।
`अन्ना हजारे का आंदोलन और सोनिया की अनुपस्थिति' के शीर्षक से पहले पेज पर प्रकाशित विशेष सम्पादकीय में दिल्ली संस्करण के सम्पादक हसन शुजा दैनिक `सहाफत' में लिखा है कि अन्ना हजारे के आंदोलन को एक तरफ आरएसएस परिवार, देसी और विदेशी ताकतें हवा दे रही हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी और सरकार इससे निपटने में नाकाम रही है। इस समय सोनिया गांधी की अनुपस्थिति बुरी तरह महसूस हो रही है जो अपने ईलाज के लिए अमेरिका के एक अस्पताल में दाखिल हैं। अन्ना आंदोलन को जिस तरह आरएसएस और भाजपा का समर्थन हासिल है उससे स्पष्ट है कि इस आंदोलन को पूरी तरह सांप्रदायिक ताकतों ने हाइजैक कर लिया है। भाजपा का खेल यह है कि वह इसका रुख मोड़कर सत्ता पर काबिज होना चाहती है। यदि भाजपा इसमें कामयाब हो जाती है तो यह सेकुलरिज्म के लिए बड़ा नुकसान होगा।

Friday, August 12, 2011

मुस्लिम सांसद अपने समुदाय के लिए आवाज नहीं उठाते

बीते सप्ताह उर्दू अखबारों ने विभिन्न मुद्दों को चर्चा का विषय बनाया है। उर्दू दैनिक `सहाफत' ने मुस्लिम संगठनों को आड़े हाथ लेते हुए उन पर आरोप लगाया है कि यह संगठन मासूम युवाओं के संरक्षण में नाकाम है। मोहम्मद आतिफ ने अपनी रिपोर्ट में मुंबई से समाजवादी विधायक अबु आसिम आजमी द्वारा रमजान के अवसर पर भेजे गए एसएमएस, जिसमें उन्होंने लिखा है कि इस महीने में उन लोगों की भी खबरगीरी कीजिए जिनके बच्चे जेलों में बंद हैं और इंसाफ से वंचित हैं। अपने देश और पूरी दुनिया में शांति व्यवस्था बनी रहे, इसकी भी दुआ कीजिए। इस पर मुस्लिम पॉलिटिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष तसलीम अहमद रहमानी ने कहा कि मुझे यह स्वीकार करने में शर्मिंदगी जरूर है लेकिन संकोच नहीं है कि आतंकवाद के मामले पर मुस्लिम संगठन अपने मासूम बच्चों को संरक्षण देने में पूरी तरह नाकाम हैं। उन्होंने कहा कि हम इन बच्चों को कोई कानूनी सहायता भी नहीं दे पा रहे हैं जिससे उनकी रिहाई का रास्ता आसान हो सके। इसके अलावा बेरोजगार मां-बाप जिनके बच्चे जेलों में कैद हैं उन्हें भुखमरी से निजात दिलाने के लिए भी हमने कोई रणनीति नहीं अपनाई है जबकि उन्हीं के नाम पर हम अपनी सियासत चमका रहे हैं।
संसद के मानसून सत्र में मुसलमानों की बहुत-सी समस्याओं पर आवाज नहीं उठेगी जैसे मुद्दे पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब' ने लिखा है कि राइट टू एजुकेशन, जामिया अल्पसंख्यक चरित्र का मामला, मुसलमानों को आरक्षण और वक्फ जैसे मुद्दों पर मुस्लिम सांसदों को सूचना उपलब्ध कराने के बावजूद हर तरफ खामोशी पर चिंन्ता प्रकट की है। संसद का मानसून सत्र में महंगाई और सीएजी रिपोर्ट के खुलासे के बाद भाजपा ने कांग्रेस के खिलाफ अपना मोर्चा खोल दिया है। इन हालात में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के मामले को संसद में उठाना काफी मुश्किल लग रहा है। विशेषकर मुस्लिम सांसदों की जो भूमिका रहती है उससे तो यही संदेह व्यक्त किया जा रहा है कि इस बार भी उपरोक्त मुद्दों पर मुस्लिम सांसद कोई चर्चा नहीं करेंगे। सूत्रों के अनुसार मुसलमानों के एक बड़े संगठन की ओर से यह कोशिश की जा रही है कि इन मुद्दों पर लिखित नोट तैयार किया जाए जो उर्दू, हिन्दी और अंग्रेजी तीनों भाषाओं में हो ताकि मुस्लिम सांसदों को इन मुद्दों को समझने और सवालों का जवाब देने में किसी तरह की परेशानी न हो। जकति फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. जफर महमूद मानते हैं कि मुस्लिम सांसद अपने समुदाय के लिए आवाज नहीं उठाते हैं।
आदर्श सोसाइटी मामले में कैग रिपोर्ट पर अपने सम्पादकीय में दैनिक `हिन्द समाचार' ने लिखा है कि कारगिल जंग के शहीदों की विधवाओं और अन्य फौजियों के रहने के लिए मुंबई के कोलाबा में बनी आदर्श हाउसिंग सोसाइटी का महाघोटाला संसद में `कैग' की रिपोर्ट के बाद फिर से चर्चा में है। पहले यहां 8 मंजिल बनाने की इजाजत दी गई लेकिन बाद में पर्यावरण एवं अन्य मापदंडों की अनदेखी करते हुए इसे 31 मंजिल और 200 से ज्यादा फ्लैट वाली बिल्डिंग बना दी गई। 9 अगस्त को संसद में पेश अपनी 51 पेज की रिपोर्ट में कैग ने आदर्श सोसाइटी का कच्चा चिट्ठा खोलते हुए कहा कि इसमें दो पूर्व मुख्यमंत्रियों के अलावा फौज के दो पूर्व जनरल एनसी विज और जनरल दीपक कपूर को नियम तोड़कर फ्लैट हासिल करने का कसूरवार ठहराया है। `कैग' ने कहा है कि शायद देश में ऐसा दूसरा कोई भी मामला देखने में नहीं आया है जिसमें सभी संबंधित विभाग एक राष्ट्रीय हित के लिए नहीं बल्कि व्यक्तिगत हितों के लिए एकजुट हुए। सभी ने मिलकर आम जनता का भरोसा तोड़ा और कारगिल शहीदों का अपमान किया। कैग की रिपोर्ट ने केंद्र सरकार की परेशानी बन रहे भ्रष्टाचार मुद्दों की सूची में और वृद्धि कर दी है। इसी कारण सरकार और उसके उच्चाधिकारी कैग के खुलासे से काफी परेशानी महसूस कर रहे हैं, क्योंकि इस रिपोर्ट ने साबित कर दिया है कि नेताओं, बाबुओं और फौज के सदस्यों अर्थात् सबने मिलकर नियमों को तोड़ा और साबित कर दिया कि `सब चोर' हैं।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में आदर्श सोसाइटी पर कैग की रिपोर्ट के हवाले से लिखा है कि राष्ट्रमंडल खेलों में हुए भ्रष्टाचार पर कैग की रिपोर्ट पर संसद और इसके बाहर हंगामा जारी है। यूपीए सरकार के लिए चैलेंज है कि वह इन सबका मुकाबला कैसे करें और संसद की कार्यवाही कैसे चले। सरकार की इन परेशानियों में आदर्श सोसाइटी में घपले पर कैग रिपोर्ट ने और भी वृद्धि कर दी है। कैग की रिपोर्ट न केवल केंद्र की यूपीए सरकार बल्कि महाराष्ट्र सरकार के लिए भी समस्या बनी हुई है क्योंकि इसके बाद दोनों सरकारों पर कसूरवार ठहराए गए नेताओं, मंत्रियों और नौकरशाहों पर कार्यवाही के लिए दबाव बढ़ जाएगा। सरकार के रुख से ऐसा लगता है कि वह कैग की रिपोर्ट को ज्यादा महत्व देने के मूड में नहीं है और अपने मंत्रियों के बचाव में उतर सकती है। शीला दीक्षित के मामले में अपनाया गया रवैया इसका सबूत है लेकिन जहां तक नौकरशाहों अथवा उच्च फौजी अधिकारियों का मामला है तो इनमें से कुछ को बलि का बकरा बनाकर इस मामले को ठंडा करने की कोशिश की जा सकती है। `सोनिया की अनुपस्थिति में पार्टी को ठीकठाक चलाना चुनौती है' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि आमतौर पर स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 24 अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय में पार्टी प्रधान तिरंगा लहराती हैं लेकिन इस वर्ष पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी देश में नहीं हैं इसलिए किसी और को उनकी अनुपस्थिति में झंडा लहराना पड़ेगा। सोनिया गांधी के बाद आशा तो यह है कि राहुल गांधी इस बार राष्ट्रीय झंडा लहराएंगे। लेकिन राहुल गांधी फिलहाल अमेरिका में अपनी मां के साथ हैं। शायद वह आज-कल में आ जाएंगे। कांग्रेस पार्टी को फिलहाल दैनिक कार्यों को ठीक-ठीक चलाने के अलावा एक अहम फैसला यूपी में टिकट बंटवारे और यूपी लीडरशिप को लेकर करना होगा। इसके लिए क्रीनिंग कमेटी की बैठक होनी है। मोहन प्रकाश की अगुवाई में होने वाली बैठक तभी होगी जब राहुल गांधी वापस आ जाएंगे। राहुल का यूपी मिशन 2012 उनकी अनुपस्थिति में अधूरा है और इनके लौटने पर ही इसमें रंग भरा जाएगा।

Friday, August 5, 2011

महंगाई और भ्रष्टाचार में फंसी सरकार

`मुस्लिम कैसे पाएं अपना वाजिब स्थान' के शीर्षक से उर्दू दैनिक `हिन्द समाचार' ने लिखा है। दूसरी पिछड़ी जातियों से जुड़े मुस्लिमों के लिए यूपीए सरकार कुछ आरक्षण कर रही है क्योंकि उत्तर प्रदेश में चुनाव समीप है और कांग्रेस का मकसद यह है कि वह दोबारा इस राज्य में पदासीन हो जाए। भारतीय मुसलमानों के सामने आरक्षण ही अहम मुद्दा नहीं है अन्य कई समस्याएं भी हैं। उनकी स्थिति तो प्रचलित फारसी कहावत `तन हम दाग, दाग सूद, पम्बा कुजा नेहाम' (पूरे बदन पर दाग ही दाग हैं) में कितनी जगह फाया रखूं। अन्य समस्याओं को छोड़कर केवल एक समस्या से ही निपटना असंतुष्टि है, इससे भले ही बुरा मकसद जाहिर न होता हो, अज्ञात कारणों से नाइंसाफी को जारी रखने की बू आती है। ऐसा लगता है कि आरक्षण की यह पेशकश बड़ी होशियारी से तैयारी की गई है। इसके बाद कांग्रेस के कुछ चहेते इसे अदालत में चैलेंज करेंगे और अदालतें इसे एक अथवा दूसरा कारण बताकर निरस्त कर देंगी। आखिर हिन्दू वोट मुस्लिम वोट के मुकाबले अहम है क्योंकि हिन्दू वोट मुस्लिम वोट के मुकाबले कहीं ज्यादा है। इसी बीच आरक्षण की इस घोषणा से कांग्रेस की चुनावी मुहिम चलाने वाले पूरा फायदा उठा लेंगे। इस प्रक्रिया में मुस्लिमों की नई राजनैतिक पार्टियों को चुनाव में नुकसान पहुंचेगा जैसा कि एआईयूडीएफ, पीस पार्टी और वैलफेयर पार्टी से जाहिर है। इसलिए मुस्लिमों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उन्हें वहीं कांग्रेस के बारे में वोट देने के लिए सोचना चाहिए जहां इन पार्टियों में किसी एक अथवा अन्य का कोई उम्मीदवार न हो। `वोटिंग कायदे के तहत बहस का जुआ' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है। जैसा कि आशा थी भारतीय जनता पार्टी ने संसद में यूपीए सरकार पर हल्ला बोल दिया है और भ्रष्टाचार व महंगाई को लेकर केंद्र की कांग्रेस अगुवाई वाली यूपीए सरकार को घेरने में लगी भाजपा ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चारों तरफ से घेरने की पूरी योजना बना ली है। भाजपा ने इन पर मानसून सत्र का माहौल खराब करने का भी आरोप लगा दिया है।
भ्रष्टाचार और महंगाई पर भाजपा केवल बहस ही नहीं बल्कि वोटिंग भी चाहती है ताकि इन मुद्दों पर यह साफ हो सके कि कौन सरकार के साथ है और कौन सरकार के खिलाफ। यह दांव चलकर भाजपा कांग्रेस के साथ इसके सहयोगियों को भी बेनकाब करना चाहती है। भाजपा का अनुमान है कि इन मुद्दों पर यदि वोटिंग हुई तो यूपीए सरकार फंस सकती है। सरकार ने वोट कायदे के तहत बहस कराना स्वीकार कर लिया है। देखें इस जुए में वह कितनी कामयाब होती है?
हैदराबाद से प्रकाशित उर्दू दैनिक `ऐतमाद' में आमिर उल्लाह खां ने `सुधारों के 20 साल' के शीर्षक से समीक्षा करते हुए लिखा है कि 20 साल पूर्व भारत की प्रति व्यक्ति आय 30 डालर थी अर्थात् हर भारतीय की मासिक आय 400 रुपये से भी कम थी। लेकिन अब यह 1500 डालर अर्थात् 60 हजार रुपये को छूने लगी है। सरकार के पास अब खजाना भरा हुआ है ताकि वह गरीबों पर खर्च कर सके। मनमोहन सिंह ने 20 वर्ष पूर्व सुधारों का जब सफर शुरू किया था। यही कहा जा रहा था कि भारत संकट में आ जाएगा। गरीबी बढ़ेगी, भारतीय कम्पनियां बन्द होंगी, हर चीज इम्पोर्ट करना पड़ेगी और विदेशी कम्पनियों का भारतीय मंडियों पर कब्जा हो जाएगा। लेकिन इनमें से कोई संदेह सच साबित न हो सका। भारत में विदेशी निवेश में जितनी वृद्धि हुई, भारतीयों ने भी विदेशों में उतना ही निवेश किया।
`मस्जिदों पर गैर कानूनी कब्जों के लिए दिल्ली वक्फ बोर्ड जिम्मेदार' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' में मुमताज आलम रिजवी ने अपनी विशेष रिपोर्ट में आरटीआई के हवाले से लिखा है कि जमीयत इस्लामी हिन्द के सहायक सचिव इंतिजार नईम की 16 जून 2011 की आरटीआई के जवाब में वक्फ बोर्ड ने यह तो बताया कि 26 वक्फ जायदादों पर विभिन्न सरकारी संस्थानों के गैर कानूनी कब्जे हैं और 72 वक्फ जायदादों पर पुरातत्व विभाग का गैर कानूनी कब्जा है। दिल्ली वक्फ बोर्ड की लापरवाही की एक मिसाल निजामुद्दीन के पीछे रिंग रोड पर मिलिनियम पार्प से मिला हुआ 14 एकड़ कब्रिस्तान की जमीन है। 19 सितम्बर 1949 में सरकार से एक रजिस्टर्ड संधि के तहत दिल्ली के मुसलमानों के लिए 14 एकड़ जमीन कब्रिस्तान के लिए अलाट की गई थी लेकिन डीडीए ने इस 14 एकड़ में से 10 एकड़ जमीन इस शर्त पर इस्तेमाल कर लिया कि वक्फ बोर्ड को जब इसकी जरूरत होगी वह इसे इस्तेमाल कर सकेगा। आरटीआई द्वारा यह पूछे जाने पर कि वक्फ बोर्ड ने इस 14 एकड़ कब्रिस्तान की जमीन की सुरक्षा के लिए क्या उपाय किए और बोर्ड की बैठक में यह एजेंडा कब रहा? के जवाब में वक्फ अधिकारी नजमुल हसनैन ने लिखा कि इस 14 एकड़ जमीन की हिफाजत के लिए दिल्ली वक्फ बोर्ड की ओर से कोई उपाय नहीं किए गए और न ही कोई कानूनी कार्यवाही की गई।

Saturday, July 30, 2011

दिल्ली पुलिस में मुसलमान प्रमोशन से वंचित'

बीते सप्ताह राजनैतिक, सामाजिक मुद्दों सहित अनेक ज्वलंत मुद्दों पर उर्दू अखबारों ने खुलकर अपना नजरिया पेश किया है। पेश है इस बाबत उर्दू अखबारों की राय। उर्दू का सबसे बड़ा अखबार दैनिक `हिन्द समाचार' ने `गडकरी पहले अपने गिरेबां में झांकें' की शीर्षक से लिखे सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है। कर्नाटक सरकार की तरफ से अधिग्रहण जमीन का अधिग्रहण खत्म कर अपने रिश्तेदारों को अलॉट करने, अपने नजदीकी मंत्री को एक बिल्डर से छह करोड़ रुपये दिलाने और अपने मंत्रिमंडल में शामिल खनन व्यावसायी रेड्डी बंधुओं को लाभ पहुंचाने आदि के आरोप में घिरे मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा अब लोक आयुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की ओर से सौंपी जाने वाली 1827 करोड़ रुपये के गैर-कानूनी खनन घोटाले से संबंधित रिपोर्ट में बुरी तरह फंस गए हैं।

एक टीवी चैनल की ओर से लोक आयुक्त की लीक हुई इस रिपोर्ट में येदियुरप्पा का नाम आने पर कांग्रेस एवं अन्य पार्टियों ने जब इससे त्यागपत्र मांगा तो भाजपा अध्यक्ष ने इसका बचाव करते हुए कह दिया कि हम लोक आयुक्त की रिपोर्ट आने के बाद ही इस पर कार्यवाही करेंगे। लेकिन जब 1.76 लाख करोड़ रुपये के स्पेक्ट्रम घोटाले में पूर्व संचार मंत्री ए. राजा ने 25 जुलाई को सीबीआई की विशेष अदालत में यह कहा कि इस लेनदेन में डॉ. मनमोहन सिंह और पी. चिदम्बरम को पूरी जानकारी थी तो गडकरी ने तुरन्त ही दोनों से त्यागपत्र की मांग कर डाली। जहां तक स्पेक्ट्रम घोटाले में राजा के लिप्त होने और इन दोनों को जानकारी होने का सवाल है। गडकरी की मांग सही है लेकिन गडकरी को उनसे त्यागपत्र मांगने का कोई नैतिक हक नहीं है। गडकरी पहले ही यह कर उन्हें `बरी' कर चुके हैं कि येदियुरप्पा की कार्यवाही गैर-कानूनी नहीं अनैतिक है। श्री गडकरी पहले अपनी पार्टी का दामन साफ करें इसके बाद ही कांग्रेस को सफाई की नसीहत दें।

`दिल्ली पुलिस में मुसलमान प्रमोशन से वंचित, 15 फीसदी से अधिक मुस्लिम आबादी के बावजूद पुलिस में प्रतिनिधित्व 2 फीसदी से भी कम' के शीर्षक दैनिक `हमारा समाज' में सादिक शेरवानी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि करोड़ों की आबादी के बावजूद दिल्ली में एक भी मुस्लिम डीसीपी नहीं है जिसको फुल चार्ज दिया गया हो। दिल्ली के कुल 186 थानों में तैनात एसएचओ में मुसलमानों की संख्या दो है जबकि कुल 181 एडीशनल एसएचओ में एक भी मुस्लिम नहीं है। 186 इंस्पेक्टर एटीओ में केवल 2एटीओ इंस्पेक्टर मुस्लिम हैं। दिल्ली पुलिस में उच्च पदों पर तरक्की देने से मुसलमानों को रोका जाता है। इस तरह का आरोप लगाते हुए कई संगठनों ने दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग से शिकायत की थी। जिस पर कार्यवाही करते हुए अल्पसंख्यक आयोग ने दिल्ली पुलिस से जानकारी मांगी थी। गृह मंत्रालय द्वारा भेजी रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली पुलिस में स्पेशल/ज्वाइंट एडीशनल पुलिस आयुक्त की कुल संख्या 44 है। इनमें केवल एक मुस्लिम है जबकि तीन सिख समुदाय से हैं। इसी तरह एसीपी की संख्या 266 है और इनमें से केवल 7 मुस्लिम हैं, सिख 18 हैं। इंस्पेक्टरों की कुल संख्या 1315 है जिनमें से केवल 14 मुस्लिम हैं जबकि 40 सिखों को तरक्की दी गई है। इसी तरह हेडकांस्टेबल को तरक्की देकर एएसआई बनाया जाता है। एएसआई की कुल संख्या 6100 है जिनमें से 173 मुस्लिम हैं, 238 सिख हैं अर्थात् प्रमोशन के लिहाज से मुसलमान सिख समुदाय से पीछे हैं।

`हिना रब्बानी का भारत दौरा' के शीर्षक से दैनिक `इंक्लाब' ने चर्चा करते हुए लिखा है कि पाकिस्तान की नई और प्रथम महिला विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार का भारत दौरा उसी सिलसिले की कड़ी है जिसके तहत दोनों देशों के अधिकारी और मंत्री एक-दूसरे से मिलते रहते हैं। हिना रब्बानी ने भारत आने के पूर्व और भारत पहुंचकर जिस तरह के बयानात दिए हैं उनमें डिप्लोमैटिक शब्दों और प्रचलित शब्दावलियों के अलावा यदि कुछ है तो यह कि कुछ नहीं है। उनके यह शब्द आकर्षक हैं इसलिए सुनने में भी अच्छे मालूम होते हैं। दोबारा बातचीत, दूरी से बेहतर हैं और इतिहास से सबक लिया जाता है और इसे बोझ नहीं समझा जाता। हमें इन शब्दों में कोई गम्भीर पहल का जज्बा दिखाई नहीं पड़ता। एक बात साफ है कि पाकिस्तान अपनी शर्तों पर दोस्ती करना चाहेगा तो रिश्ते मजबूत होना तो दूर की बात, दोस्ती का वातावरण भी पैदा नहीं हो सकता। हिना रब्बानी का यह पहला दौरा है। इसी दौरे से उनके अगले दौरे की शुरुआत हो रही है। इस दौरे की कामयाबी ही उनके अगले दौरे की कामयाबी की जमानत होगी ऐसे में फैसला उन्हीं को करना है कि वह क्या चाहती हैं।

दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि लगभग एक सप्ताह बाद संसद का मानसून सत्र शुरू होने वाला है। पहले से ही कई तरफ से घिरी कांग्रेस पार्टी और उनके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और घिरने वाले हैं। विपक्ष ने पहले से ही कई मुद्दों पर सरकार के खिलाफ घेराबंदी तेज कर दी है। ऐसे में ए. राजा का सीबीआई की विशेष अदालत में प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर सीधे आरोप लगाने से पार्टी और सरकार दोनों की खासी खिंचाई होने की संभावना है। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले में पहले ही सुप्रीम कोर्ट के फटकार झेल चुके प्रधानमंत्री का नाम अब इस विवाद में घसीटे जाने से यूपीए सरकार में खलबली मचना स्वाभाविक है।

ए. राजा के अदालती बयान से चिंतित सरकार ने अपने रणनीतिकार मंत्रियों की फौज `डैमेज कंट्रोल' के लिए लगा दी है। कपिल सिब्बल से लेकर पी. चिदम्बरम, पवन बंसल और नारायणस्वामी तक सभी राजा के बयानों को एक अपराधी का बयान साबित कर विपक्ष के हमलों का जवाब तैयार करने में जुट गए हैं।

उर्दू अखबारों को घर-घर पहुंचाने के उद्देश्य से इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स प्रोटेक्शन एसोसिएशन ने अपनी मुहिम के पहले दिन इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष शमीम अहमद की अगुवाई में जामा मस्जिद गेट नम्बर 2 पर उर्दू अखबार बेचे गए। तीन घंटों में तीन हजार अखबार बेचे गए। दैनिक `सहाफत' में मोहम्मद अंजुम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि `उर्दू की तरक्की, कौम की तरक्की' का बैनर उठाए मुहिम के कार्यकर्ताओं को देखने के लिए एक भीड़ जमा हो गई। इस मुहिम में दयाल सिंह कॉलेज के उर्दू विभाग के अध्यक्ष डॉ. मौला बख्श, दैनिक `अदंलीब' के सम्पादक मोहम्मद मुस्तकीम खाँ, विख्यात शायर डॉ. शोएब रजा फातमी, डॉ. एमआर कासमी, अब्दुल अलीम अंसारी, डॉ. अमीर अमरोही, अखबार नौ के जावेद कमर, `वक्त और समाज के सम्पादक शमीम अहमद, अख्तर हुसैन अंसारी एवं अन्य जानी-मानी हस्तियां शामिल थीं।' इस मुहिम का मकसद उर्दू को दूसरी भाषा का दर्जा दिलाना और लोगों को उर्दू अखबार खरीद कर पढ़ने के लिए प्रेरित करना है। मुहिम का यह पहला दिन है। मुहिम अभी जारी रहेगी।

Saturday, July 23, 2011

`वोट के बदले नोट' अमर सिंह पर शिकंजा कसा

बीते सप्ताह विभिन्न मुद्दे उर्दू मीडिया में छाये रहे। पेश है इन में से कुछ अखबारों की राय। `नोट के बदले वोट' मामले पर अमर सिंह से पूछताछ करने की इजाजत मिलने पर दैनिक `हमारा समाज' ने चर्चा करते हुए लिखा है कि यह मामला अमर सिंह के एक करीबी साथी संजू सक्सेना की दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच द्वारा गिरफ्तारी के बाद सामने आया है। अमर सिंह पर यह आरोप है कि उन्होंने सांसदों को घूस देने के लिए नोट उपलब्ध कराए थे। संजू सक्सेना के इस आरोप के बाद दिल्ली पुलिस समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता अमर सिंह के खिलाफ शिकंजा कसने की पूरी तैयारी कर ली है। दरअसल यह मामला भारत-अमेरिका परमाणु संधि से संबंधित है, जिसके लिए वाम मोर्चों के विरोध के बाद यूपीए सरकार को वोट हासिल करने के लिए लोकसभा सदस्यों को खरीदने की बात सामने आई थी, 22 जुलाई 2008 को वोट हासिल करते समय भाजपा के कुछ सदस्यों ने नोटों की गड्डियां संसद में उछाल कर यह सुबूत देने की कोशिश की थी कि उन्हें वोट देने के लिए खरीदा गया, जिसका संबंध अमर सिंह से जोड़ा जा रहा है। तीन साल का समय गुजरने के बाद सुप्रीम कोर्ट की जब फटकार लगी है तब इस मामले में कुछ प्रगति हुई है। अब जबकि अदालत और संसद के बीच टकराव की बात आ रही है और दोनों के क्षेत्राधिकार पर बहस हो रही है, एक बार फिर यह मामला संगीन हो सकता है कि संसद के लिए कोई दिशा-निर्देश हैं या नहीं?
दारुल उलूम देवबंद के मोहतामिम मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी के मामले को लेकर दैनिक `इंक्लाब' ने रहस्योद्घाटन करते हुए लिखा है कि जांच कमेटी के एक सदस्य कानपुर के मुफ्ती मंजूर अहमद मजहिरी ने किसी जांच के बिना ही अपनी रिपोर्ट तैयार की है। रिपोर्ट के अनुसार मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी पर लगाए जाने वाले आरोपों की जांच के लिए गठित तीन सदस्य कमेटी के एक सदस्य मुफ्ती इस्माइल मालेगांव ने आगामी 23, 24 जुलाई को कार्यकारिणी (मजलिस शूरा) की बैठक से पूर्व रहस्योद्घाटन करते हुए कहा कि कमेटी में शामिल कानपुर के मुफ्ती मंजूर अहमद ने जांच पूरी किए बिना मौलाना गुलाम वस्तानवी के खिलाफ रिपोर्ट तैयार कर ली थी और मुझसे और मौलाना मोहम्मद इब्राहिम मद्रासी से अपनी तैयार की रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने की बात की थी, लेकिन हम दोनों ने यह कहकर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया कि कार्यकारिणी ने हमें जो जिम्मेदारी दी है उसे ईमानदारी से पूरा करेंगे। मुफ्ती इस्माइल के अनुसार गत महीने होने वाली कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने के लिए पहुंचे तो हम लोगों ने जांच में शामिल मुद्दों पर तफ्तीश करनी चाहिए तो मुफ्ती मंजूर अहमद ने हमारे साथ शामिल होने से साफ इंकार कर दिया। ज्ञात रहे दारुल उलूम देवबंद का मोहतामिम बनाए जाने के बाद मौलाना वस्तानवी ने मोदी के समर्थन में बयान दिया था, जिस पर काफी हंगामा खड़ा हो जाने के कारण मजलिस शूरा ने तफ्तीश के लिए तीन सदस्यीय कमेटी गठित की थी।
तेलंगाना ः कांग्रेस के `आगे कुआं पीछे खाई' के शीर्षक से दैनिक `हिन्द समाचार' ने लिखा है। 1947 में देश विभाजन के समय हमारे यहां 500 से अधिक छोटे-बड़े राज्य थे जिन्हें सरदार पटेल ने भारत में विलय कराया था। 17 दिसम्बर 1948 को हैदराबाद का भारत में विलय हुआ। तब आंध्रा प्रदेश के 21 तेलुगूभाषी जिलों में से 9 जिले हैदराबाद और 12 जिले मद्रास रेजीडेंसी के अधीन थे। 1952 में यूं ही श्री रामोलो ने आंध्रा प्रदेश के लिए मरणव्रत रखा और शहीद हो गए। पंडित नेहरू ने 19 दिसम्बर को अलग आंध्रा के गठन की घोषणा की। 1956 में राज्यों की भाषायी आधार पर इन तेलुगूभाषी जिलों को मिलाकर आंध्रा प्रदेश का गठन किया गया था जिसकी राजधानी हैदराबाद बनाई गई लेकिन तेलंगाना के लोगों की शिकायतों की अनदेखी की जाती रही। तेलंगाना के लिए आंदोलन चला रही टीआरएस व सहयोगी पार्टियों का कहना था कि वह ऐसे तेलंगाना से कम कुछ भी मंजूर नहीं करेंगे जिसकी राजधानी हैदराबाद हो। उस समय तो मामला थम गया लेकिन अब फिर गरम हो गया है। कांग्रेस एवं केंद्र सरकार इन मुद्दों पर बुरी तरह फंस चुकी है। इससे राज्य की अगुवाई कर रही रेड्डी सरकार के लिए खतरा पैदा हो गया है। एक तरफ कांग्रेस इसे कुछ महीनों के लिए टालने का प्रयास कर रही है और दूसरी तरफ तेलंगाना राज्य के लिए सभी पार्टियों ने सियासी मुहिम तेज कर दी है। कांग्रेस के नेता गण दो हिस्सों में बंट गए हैं। कर्नाटक एवं तमिलनाडु तो पहले ही कांग्रेस के हाथ से निकल चुके हैं जबकि गत चुनाव में केरल में भी इसे मामूली फर्प से सरकार बनाने में कामयाबी मिली है। ऐसे में यदि आंध्रा प्रदेश भी कांग्रेस के हाथ से निकल गया तो दक्षिण में इसका जनाधार खत्म हो जाएगा। `दार्जिलिंग पर त्रिकोणीय संधि' पर चर्चा करते हुए दैनिक `मुनसिफ' ने लिखा है। इस समय पूरा देश अलग तेलंगाना राज्य की मांग करते देख रहा है। स्वतंत्रता के बाद देश में राज्यों की व्यवस्था को सुचारू करने में जो समस्याएं पेश आईं, उससे देश परिचित है। उसके चलते कुछ अन्य राज्यों के अलग गठन की मांग होने लगी है जिसमें झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ की मांगें पूरी हुईं। विदर्भ, बुंदेलखंड, तेलंगाना और गोरखालैंड को अलग करने की मांग अभी पूरी नहीं हुई है। जनता के बीच अलग राज्य की मांग भाषायी और भौगोलिक हालात के अलावा उसी समय उठती है जब राज्य सरकारें और प्रशासन राज्य के हर कोने तक पहुंचने में नाकाम हो जाते हैं। तब जनता में बेचैनी की लहर उठती है। पटना और रांची, भोपाल और जयपुर, लखनऊ और देहरादून के विवादों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। जहां कहीं अलग राज्य के गठन की मांग उठी वहां राजनैतिक पार्टियों के निजी एजेंडे मांगों पर हावी नजर आए। पश्चिमी बंगाल में इन दिनों ऐसा ही दृश्य दिखाई दे रहा है। पश्चिमी बंगाल के पूर्वी भागों को मिलाकर जिसें दार्जिलिंग, कलम्पांग एवं कर सियांग पहाड़ी क्षेत्र हैं, गोरखालैंड के नाम से अलग राज्य बनाने की मांग 1980 से चली आ रही है। 18 जुलाई 2011 को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, पश्चिमी बंगाल और केंद्र सरकार के बीच एक त्रिकोणीय संधि हुई है जिसके तहत केंद्र सरकार ने गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन के गठन को स्वीकृति दे दी है। दार्जिलिंग में लम्बे समय से जारी नाराजगी को तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी ने फिलहाल बड़ी चालाकी से सम्भाल लिया है लेकिन इससे अलग गोरखालैंड की मांग ठंडी पड़ जाएगी, ऐसा फिलहाल नजर नहीं आ रहा है।

Friday, July 15, 2011

मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग

बीते सप्ताह कई मुद्दों को उर्दू अखबारों ने चर्चा का विषय बनाया है। `देश में मस्जिद असुरक्षित, अजान और नमाज पर रोक' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' में मोहम्मद आतिफ ने एक सर्वे रिपोर्ट के हवाले से यह रहस्योद्घाटन किया है। जमीअत उलेमा हिन्द द्वारा सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ और गाजियाबाद का सर्वे कर यह जानकारी एकत्र की है। रिपोर्ट के अनुसार जहां बहुत-सी मस्जिदें गैर-आबाद हैं वहां ऐसी मस्जिदें भी हैं जिन पर कुछ लोगों का कब्जा है और वह उसको स्टोर के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। मेरठ शहर जहां मुसलमानों की जनसंख्या काफी है वहां भी मस्जिद में अजान और नमाज अदा करने की इजाजत नहीं दी जाती है। मिलिट्री एरिया की मस्जिद हाथी खाना इसका उदाहरण है। इस मस्जिद में तीन साल पूर्व नमाज होती थी लेकिन अब हाल यह है कि इसमें किसी को अन्दर तो क्या कैम्पस में भी जाने की इजाजत नहीं है। बहुत सी मस्जिदों के कागजात गायब हैं। यह सूरतेहाल सहारनपुर और मुजफ्फरनगर की कई मस्जिदों की है। सूत्रों के अनुसार जमीअत के वर्किंग ग्रुप में विचार-विमर्श कर आगे की रणनीति तय की जाएगी। सर्वे के मुताबिक प्रशासन के भेदभाव के चलते मस्जिदों की हालत खराब होती जा रही है। सारे सुबूत मुसलमानों के हक में हैं और सारे कागजात मौजूद हैं फिर भी सरकार इसके निर्माण में रुकावट डाल रही है। इस सर्वे के हवाले से जमीअत उलेमा हिन्द सचिव मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मौलाना महमूद मदनी की कोशिश और हिदायत पर सर्वे कराया गया है और वह इस सिलसिले में गंभीरता से रणनीति बनाने पर विचार कर रही है इसके लिए जमीअत उलेमा हिन्द बड़े स्तर पर आंदोलन भी चला सकती है।
`हज घपला से सामाजिक कार्यकर्ता बेचैन' के शीर्षक से मोहम्मद अंजुम ने लिखा है कि हज घपले के रहस्योद्घाटन से लोगों में बेचैनी फैल गई है। ज्यादा कीमत वाली कम्पनी को टेंडर करने वाले मामलों को किसी ने मंत्रालय और अधिकारियों की मिलीभगत बताया और इस भ्रष्टाचार की सीबीआई जांच कराने की मांग करते हुए इसे 2जी स्पेक्ट्रम से भी बड़ा घोटाला बताया। मुस्लिम पॉलिटिकल कौंसिल के अध्यक्ष डा. तसलीम अहमद रहमानी ने हज सब्सिडी को खत्म करने की मांग करते हुए कहा कि हज कमेटी को खत्म करके एक ग्लोबल कारपोरेशन बनाया जाए जो सभी तरह के अधिकार रखता हो इसके बाद टेंडर भी ग्लोबल स्तर पर हो और जिस कम्पनी का रेट कम हो उसे टेंडर दिया जाए। इससे न केवल हाजियों को आसानी होगी बल्कि सरकार पर भी बोझ कम पड़ेगा। रहमानी के अनुसार टेंडर दिए जाने में नागरिक अड़चन मंत्रालय से लेकर संबंधित अधिकारियों को घूस कमीशन के तौर पर दी जाती थी, पहले यह कमीशन 30 डालर प्रति हाजी था जो अब बढ़कर 70 डालर प्रति हाजी हो गया है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि एक लाख 40 हजार हाजी जाते हैं तो यह कमीशन कितना हो जाएगा।
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की टीम में हुई फेरबदल में एक भी मुस्लिम को शामिल नहीं किए जाने पर दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खाँ ने कुछ मुस्लिम नेताओं के वक्तव्यों को प्रकाशित किया है। कांग्रेस पार्टी ने एक बार फिर मुसलमानों के मुंह पर जोरदार तमाचा मारा है, सलमान खुर्शीद को तरक्की जरूर दी गई लेकिन मंत्रिमंडल में लिए 8 नए चेहरों में एक भी मुस्लिम नहीं है जबकि मुसलमानों को यूपीए प्रथम और यूपीए द्वितीय से काफी उम्मीदें थीं। फिलहाल मनमोहन सिंह की टीम में वही पांच पुराने मुस्लिम चेहरे हैं। मुसलमानों का प्रतिनिधित्व अब गुलाम नबी आजाद, सलमान खुर्शीद, ई. अहमद और फारुक अब्दुल्ला तक सीमित होगा। यदि मुसलमानों का प्रतिशत सरकार के मुताबिक लगभग 15 फीसदी मान लिया जाए तब भी 67 मंत्रिमंडल मंत्रियों में मुसलमानों की संख्या 8 होनी चाहिए। यूपीए द्वितीय के गठन के समय मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने मंत्रिमंडल में 11 मुसलमानों के प्रतिनिधित्व की सिफारिश की थी लेकिन उन्हें मायूसी हाथ लगी। कांग्रेस द्वारा मुसलमानों को ठेंगा दिखाने पर मुस्लिम संगठनों के प्रतिनिधियों ने कटाक्ष करते हुए कहा कि अब हमें सरकार से उम्मीदें छोड़ देनी चाहिए।
दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने दूसरे सम्पादकीय में `अल्लाह के नाम पर' चर्चा करते हुए लिखा है कि हाल ही में पड़ोसी देश बंगलादेश में संविधान में संशोधन कर `अल्लाह' की जगह `खालिक' (बनाने वाला) शब्द इस्तेमाल किया गया है। इस पर बंगलादेश में कई स्थानों पर हिंसा भड़क उठी है जिसमें कम से कम एक सौ व्यक्ति जख्मी हुए।
यह मुहिम बंगलादेश की जमीअत इस्लामी चला रही है जिसे विपक्षी पार्टी बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बेगम खालिदा जिया) का समर्थन हासिल है। प्रदर्शनकारियों की मांग है कि संविधान में `खालिक' के बजाय पूर्व की भांति `अल्लाह' शब्द रखा जाए। बंगलादेश की 95 फीसदी जनसंख्या मुसलमानों की है। इन हालात में संविधान से शब्द `अल्लाह' निकाल देना सही नहीं है। बंगलादेश में काफी समय से दो बेगमें, बेगम खालिदा जिया और शेख हसीना वाजिद का शासन रहा है। बेहतर था कि बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी इसको अपना आगामी चुनावी मुद्दा बनाती और कामयाब होने की सूरत में संशोधन करती। बंगलादेश पहले ही गरीबी की मार झेल रहा है यह और ज्यादा हिंसा सहन नहीं कर सकता। इसलिए सारा ध्यान सकारात्मक कार्यों पर केंद्रित होना चाहिए।
`मकतबा जामिया के साथ `जंग' का मजाक' के शीर्षक से मुमताज आलम रिजवी ने लिखा है कि उर्दू किताबें छापने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय मकतबा जामिया दिल्ली के साथ जिस तरह का मजाक किया जा रहा है वह पूरी उर्दू बिरादरी के लिए निन्दनीय घटना है। मकतबा जामिया का दुर्भाग्य यह है कि जामिया मिलिया इस्लामिया की सरपरस्ती होने के बावजूद यह संस्था खस्ता हाल है।
बड़े-बड़े प्रोफेसर और उर्दू प्रेमियों की निगरानी के बावजूद इसकी व्यवस्था खराब से खराब हो चुकी है। कौमी काउंसिल बराए फरोग उर्दू जुबान (एनसीपीयूएल) के साथ हुई संधि से पूर्व मकतबा जामिया के बारे में यह बात आम थी कि यह अपनी जिन्दगी की अंतिम सांसें गिन रहा है। आखिर क्या वजह है कि जामिया मिलिया इस्लामिया इस संस्था की मालिक (स्वामी) होने के बावजूद इसको टेकओवर नहीं कर रही है? जामिया के वर्तमान वाइस चांसलर नजीब जंग से पहले जब प्रोफेसर मुशीरुल हसन जामिया के वीसी और मकतबा जामिया के चेयरमैन थे, उन्होंने भी इस संस्था को बर्बाद करने का काम किया।
22 मई 2011 को जामिया के वीसी नजीब जंग और एनसीपीयूएल के डायरेक्टर हमीद उल्ला भट्ट के बीच जो संधि हुई उसके मुताबिक मकतबा जामिया की किताबों को छापने और इन दोनों संस्थानों के सहयोग से बेचने की बातें तय हुईं। किताबों को बेचने से जो मुनाफा मिलेगा उसका आधा-आधा दोनों संस्था लेंगी। सूत्रों के अनुसार एनसीपीयूएल ने मकतबा जामिया को टेकओवर करने का इरादा किया था जिस पर वीसी नजीब जंग का कहना था कि यह क्या बात हुई कि कल वह कहेगा कि हम जामिया मिलिया इस्लामिया को टेकओवर करना चाहते हैं तो क्या हम जामिया दे देंगे।

राहुल गांधी के मिशन 2012 में मुसलमान कहां?

बीते सप्ताह कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जिसे उर्दू अखबारों ने विशेष महत्व दिया है। इनमें राहुल गांधी की कोर टीम में एक भी मुस्लिम नहीं, अब भाजपा खेलेगी सिया-सुन्नी खेल, गज्जा जाने वाले सहायता काफिले को यूनान के पोर्ट पर रोका, इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में घपला और लिंग परिवर्तन का आपरेशन छोड़ा, पहला स्तर पूरा करने के बाद सर्जन ने कानूनी इजाजतनामा और जामिया अल-अजहर का फतवा लाने की शर्त लगाई, जैसे अनेक मुद्दे हैं। पेश है उपरोक्त मुद्दों पर उर्दू अखबारों की राय।
दैनिक `जदीद मेल' ने राहुल गांधी के `मिशन 2012' पर चर्चा करते हुए लिखा है कि कांग्रेस का सेक्युलरिज्म एक बार फिर छलावा साबित हुआ। मिशन 2012 में गठित `चुनाव समिति' के 20 सदस्यों में जहां मुसलमानों की संख्या शून्य से कुछ ऊपर है वहीं चुनाव समिति से निर्वाचित सदस्यों पर आधारित `कोर कमेटी' के 6 सदस्यों में एक भी मुसलमान नहीं है। कोर कमेटी सदस्यों में राहुल गांधी महासचिव कांग्रेस पार्टी, यूपी कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी, यूपी मामलों के पार्टी इंचार्ज दिग्विजय सिंह, पिछड़ी जाति नेता और राज्यमंत्री बेनी प्रसाद वर्मा, दलित नेता और एससी आयोग चेयरमैन पीएल पूनिया एवं एमएलए प्रमोद तिवारी शामिल हैं। रीता बहुगुणा बार-बार कह रही हैं कि इस बार मुसलमानों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में टिकट मिलेगा। लेकिन मिशन 2012 के पहले पड़ाव पर ही कांग्रेस का मुसलमानों के साथ यह सलूक जाहिर करता है कि दाल में कुछ काला जरूर है। सूत्रों के अनुसार एससी आयोग के चेयरमैन पीएल पूनिया ने `अंसारी बिरादरी' के लोगों का बॉयोडाटा जमा करना शुरू कर दिया है लेकिन अन्य मुसलमानों की वकालत कौन करेगा, यह सवाल अपनी जगह बरकरार है।
दैनिक `सहाफत' ने भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा की गतिविधियों को उजागर करते हुए लिखा है कि भाजपा अब मुसलमानों को शिया-सुन्नी में बांटने का खेल करने में लगी है जिसके कारण भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के चेयरमैन डॉ. जेके जैन की कार्यप्रणाली पर सवाल उठने लगे हैं और मोर्चा पदाधिकारियों के बीच मतभेद पैदा हो गए हैं। अखबार के अनुसार हाल ही में भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चों के तहत शिया वर्किंग ग्रुप बनाया गया है जिसमें ज्यादातर लोग लखनऊ से लिए गए हैं। इस शिया ग्रुप के सिलसिले में यह बात कही जा रही है कि भाजपा अब शिया-सुन्नी का खेल खेलने की तैयारी में है। डॉ. जैन इसका खंडन करते हैं उनके अनुसार भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चों ने फैसला लिया कि जिस तरह महिला वर्किंग ग्रुप, पिछड़ा वर्किंग ग्रुप, यूथ वर्किंग ग्रुप बनाया गया है इसी तरह शिया वर्किंग ग्रुप भी होना चाहिए ताकि शिया समाज की समस्याओं को हल किया जा सके। इस संबंध में एक कांफ्रेंस 10 जून को लखनऊ में भाजपा नेता राजनाथ सिंह की अगुवाई में होने वाली थी लेकिन अब स्थगित कर दी गई है। अखबार सवाल उठा रहा है कि शक शिया समाज पर नहीं, भाजपा की नीयत पर है आखिर इसे शियों का अचानक ख्याल कैसे आ गया और इस तरह का कार्यक्रम लखनऊ में कराने की क्यों योजना बना रही है जहां पहले से ही शिया-सुन्नी झगड़े होते रहते हैं।
मोहम्मद आतिफ ने गज्जा सहायता के लिए जाने वाले जहाज को यूनान पोर्ट पर रोके जाने पर जहाज काफिले में शामिल और मुस्लिम पालिटिकल कौंसिल ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. टीए रहमानी के हवाले से लिखा है कि मजलूमों के साथ सरकार कैसा बर्ताव करती है इसका इजहार यूनान के पोर्ट पर विश्व शांति मिशन के सदस्यों को रोकने से हो जाता है। उन्होंने कहा कि इस्राइल के लोग लगातार यह झूठा प्रचार कर रहे हैं कि यह काफिला हथियार सप्लाई करने के लिए जा रहा है और इसी को बुनियाद बनाकर वह विभिन्न देशों पर राजनैतिक दबाव डाल रहे हैं एवं शांति मिशन को नाकाम बनाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। उनका कहना था कि इन जहाजों पर जाकर कोई भी व्यक्ति देख सकता है कि इसमें सहायता सामग्री के अतिरिक्त कुछ नहीं है। गज्जा के लोगों पर अत्याचार हो रहा है और जब इसके खिलाफ आवाज बुलंद करने की कोशिश की जाती है तो उसकी आवाज को दबा दिया जाता है या फिर शांति काफिले को रोक देना जैसा सलूक होता है, इस पर विश्व समुदाय को विचार करने की जरूरत है।
दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में सदस्यता में गड़बड़ी के चलते संस्था को एक करोड़ 81 लाख रुपये का नुकसान' के शीर्षक से लिखा है कि सेंटर के दो सदस्यों चौधरी जियाउल इस्लाम और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट जैडके फैजान ने इस बात रजिस्ट्रार ऑफ सोसाइटीज में शिकायत दर्ज कराई है कि इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर के प्रशासन ने सदस्यता अभियान में हेराफेरी की है जिसके कारण सेंटर को आर्थिक और तकनीकी तौर पर नुकसान पहुंचा है। वर्ष 2007-08 में 850 व्यक्तियों को लाइफ सदस्यता दी गई जिससे सदस्यता शुल्क दो करोड़ 29 लाख 60 हजार रुपये की रकम सेंटर को मिलनी चाहिए थी जबकि इसी साल 48 लाख 20 हजार रुपये की सदस्यता शुल्क के रूप में जमा दिखाया गया। इस तरह सेंटर को एक करोड़ 81 लाख 40 हजार रुपये का घाटा हुआ। इस बाबत जब एजीएम में सवाल उठाया गया तो जल्द हिसाब देने की बात कर मामले को टाल दिया गया। तीन साल का समय गुजर जाने के बाद इसका कोई हिसाब नहीं दिया गया। सेंटर ने आजीवन सदस्यता शुल्क फीस तीस हजार से बढ़ाकर पचास हजार कर दिया है जबकि सेंटर के बोर्ड ऑफ ट्रस्टी को ऐसा करने का अधिकार नहीं है।
`लिंग आपरेशन अधूरा छोड़ा, पहला स्तर पूरा करने के बाद सर्जन ने कानूनी इजाजतनामा और फतवा लाने' के शीर्षक से दैनिक `मुंसिफ' ने लिखा है कि मिस्र में अपनी तरह के अनोखे और दिलचस्प घटना में एक सर्जन ने लिंग परिवर्तन का आपरेशन इसलिए अधूरा छोड़ दिया है कि उसके पास लिंग परिवर्तन करने का फतवा मौजूद नहीं है। सर्जन का कहना है कि आधा आपरेशन करने के बाद उसे ख्याल आया कि उसे यह काम करने से पूर्व उलेमा से फतवा हासिल करना चाहिए था, जो कि नहीं लिया गया, इसलिए उसने यह शर्त लगा दी जिसके कारण लड़के से लड़की बनने वाले के मां-बाप परेशान हैं। मिस्र के अरबी दैनिक `अल हराम' ने सर्जन के नाम को गोपनीय रखते हुए लड़की के पिता के हवाले से लिखा है कि 15 साल की उम्र होने के बाद महसूस किया कि उसमें मर्दों वाले गुण ज्यादा हैं जिस पर उन्हें चिन्ता हुई और उसे लेडी डाक्टर से दिखाया गया।
रिपोर्ट में पुष्टि की गई कि इसमें लड़की वाले गुणों के बजाय लड़कों वाली आदतें ज्यादा हैं उसे नॉर्मल लड़का बनाने के लिए सर्जरी की जरूरत है। इस पर उसे लिंग परिवर्तन करने वाले डाक्टर को दिखाया गया। लेकिन डाक्टर ने पूरा आपरेशन न करके ज्यादती की है। यदि इजाजतनामा और फतवा की जरूरत थी तो उसे पहले बताना चाहिए था। लिंग परिवर्तन न करने वाली लड़की ने बताया कि उसकी दो और बहनें हैं आपरेशन से पूर्व उसे खुशी थी कि वह अपनी बहनों का भाई बन जाएगा। लेकिन अब डाक्टर ने एक नई आजमाइश में डाल दिया है। डाक्टर का कहना है कि इस्लामी शिक्षा के मुताबिक लिंग बनाना खुदा के अधिकार में हैं, किसी इंसान के हाथ में नहीं। ऐसे मामलों में धर्म क्या हिदायत देता है, यह बात उलेमा ही बता सकते हैं, इसलिए वह जामिया अजहर के फतवे के बिना इस आपरेशन को आगे नहीं बढ़ा सकते।

Friday, June 24, 2011

हज कमेटी के गठन पर दिल्ली सरकार और कांग्रेस आमने-सामने

बीते सप्ताह कई घटनाओं पर उर्दू समाचार पत्रों ने जो चर्चा की है। उसने निश्चय ही पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कराया है। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय एवं रिपोर्ट। दैनिक `जदीद मेल' ने जमाअत इस्लामी द्वारा नवगठित राजनीतिज्ञ पार्टी जिसका नाम `वैलफेयर पार्टी' है में `जबरदस्त टकराव' के शीर्षक से लिखा है कि वैसे तो यह पार्टी अपनी स्थापना के दिन से ही विवादित रही है लेकिन इन दिनों बाहरी विवाद के अलावा पार्टी में भीतरी विवाद अपनी चरमसीमा पर है। उल्लेखनीय है कि पार्टी गठन के दिन ही पार्टी को भाजपा के लोगों ने आशीर्वाद देकर भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. जेके जैन ने कहा था कि `जमाअत इस्लामी के अधीन वैलफेयर पार्टी जो काम करेगी वही काम मैं पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चा से करूंगा।' इस बात पर पार्टी सुप्रीमो मुजतुबा फारुक नाराज भी हुए थे लेकिन जानकारों के अनुसार पार्टी के महासचिव डॉ. कासिम रसूल इलियास के सामने वह बिल्कुल बेबस थे। समाचार के मुताबिक इन दिनों पार्टी में मौजूद कुछ राजनैतिक लोग वैलफेयर पार्टी से नाराज हैं। उनका कहना है कि यदि उन्हें मालूम होता कि पार्टी गैर राजनैतिक लोगों के हाथों की कठपुतली बन जाएगी तो वह पार्टी में शामिल नहीं होते। और तो और जो बैठक दिल्ली में होनी थी, वह हैदराबाद में हो रही है और जो लखनऊ में होनी थी वह दिल्ली में हो रही है। आखिर जब उत्तर प्रदेश में चुनाव नजदीक आ रहे हैं तो पार्टी के लोग साउथ पर इतना फोकस क्यों कर रहे हैं, यह समझ से परे है।
अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव पर जुर्माना और कैद की सजा पर सरकार द्वारा प्रस्तावित कानून का स्वागत करते हुए उसे समय की पुकार बताया है। `जदीद मेल' ने जमाअत इस्लामी हिन्दी के अध्यक्ष मौलाना सैयद जलालउद्दीन उभरी, कांग्रेस प्रवक्ता डॉ. शकील अहमद और जमीअत उलेमा हिन्द (अरशद मदनी) के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी सहित नेशनल काउंसिल फार प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज के डायरेक्टर हमाद उल्ला भट्ट के विचारों को प्रमुखता से प्रकाशित किया है। भट्ट के अनुसार समान अवसर आयोग की बात सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में भी कही थी। उन्होंने कहा कि भेदभाव खत्म करने के लिए केवल प्रशासनिक आदेश काफी नहीं हैं बल्कि मुसलमानों के लिए अलग से कानून बनना चाहिए। पहले यदि विश्वविद्यालयों में दाखिला अथवा नौकरी नहीं मिलती और अपराध साबित हो जाता कि मुसलमान के साथ भेदभाव हुआ है तो सिर्प माफी से काम चल जाता लेकिन आशा है कि ऐसा करने वालों को सजा मिलेगी, देश उन्नति करेगा। संविधान ने अल्पसंख्यकों को जो अधिकार दिए हैं, वह उन्हें मिलेंगे और इससे देश मजबूत होगा।
`अल्पसंख्यकों के फण्ड को दबाए बैठी है सरकार' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' ने पहले पेज पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसके मुताबिक अल्पसंख्यक मंत्रालय के विभिन्न योजनाओं की मंजूरी के लिए सरकार के पास अब भी 431.77 करोड़ रुपये बचे हुए हैं। इस मंत्रालय में जो आंकड़े उपलब्ध हैं उनके मुताबिक 43780.40 करोड़ रुपये मंजूर किए गए जबकि इस योजना के तहत अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में मंजूर हुई योजनाओं की लागत 3348.62 करोड़ रुपये है। इसमें से इस वर्ष 31 मार्च तक केंद्र को जो पूरा हिस्सा दिया जा चुका है वह 3111.55 करोड़ रुपये है। अल्पसंख्यक मंत्रालय ने 31 मार्च तक 2162.02 करोड़ रुपए जारी किए हैं।
अल्पसंख्यकों के विकास हेतु यह योजना 2008-09 में शुरू की गई थी और देश की 20 राजधानी सहित केंद्र शासित राज्यों में अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों वाले 90 जिलों में इस काम काम हो रहा है। दिल्ली हज कमेटी का गठन एक ऐसा मामला है जो पिछले पांच सालों से फाइलों में बन्द है। गत दो महीने से यह आशा हो चली थी कि शायद अब कमेटी का गठन हो जाए लेकिन सदस्यों के नामों पर न केवल जनता में विरोध हो रहा है बल्कि खुद राज्य सरकार भी कुछ नामों पर अड़ी हुई है जिसके कारण यह मसला उलझा हुआ है। `महमूद जिया के विरोध में रुकी हुई है फाइल, हज कमेटी में सदस्यों को लेकर राज्य सरकार और कांग्रेस संगठन आमने-सामने' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने लिखा है कि यदि स्रोतों की मानें तो पार्टी हाई कमान सभी मरहले पूरे कर सात नामों पर मोहर लगा चुकी है और दिल्ली हज कमेटी के चेयरमैन के लिए नकी मल्होत्रा का नाम तय हो चुका है लेकिन अब सारा मामला सीताराम बाजार के पार्षद महमूद जिया पर आकर रुक गया है। राज्य सरकार पार्षद कोटे के लिए महिला सदस्य की जिद पकड़े हुए हैं जबकि कांग्रेस संगठन की ओर से महमूद जिया का नाम दिया गया है। बताया जाता है कि संबंधित मंत्री डॉ. अशोक कुमार वालिया और मुख्यमंत्री में भी सदस्यों के नामों को लेकर मतभेद पाए जा रहे हैं। इस तरह और भी कई अन्य कारण हैं जो हज कमेटी को एक बार फिर लूली-लंगड़ी बनाने पर तुले हैं। ऑल इंडिया रेडियो के उर्दू कार्यक्रमों के गिरते स्तर के लिए अंजुमन तरक्की उर्दू (हिन्द) के महासचिव डॉ. खलीक अंजुम ने उर्दू न जानने वाले कार्यकर्ताओं को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया है। इसी महीने दिल्ली से प्रकाशित होने वाले दैनिक `इंकलाब' ने उनके विचारों को पेश करते हुए लिखा है कि ऑल इंडिया रेडियो के उर्दू कार्यक्रमों से मेरा संबंध गत 30 वर्षों से है और जिस जमाने में रेडियो वाले मुझे कार्यक्रम में बुलाते थे तो मैं बड़े उत्साह से जाता था लेकिन अब मैं वहां नहीं जाता। क्योंकि वहां का स्तर उर्दू कार्यक्रम को चलाने वाले उर्दू न जानने वाले कार्यकर्ताओं के कारण काफी गिर चुका है। उनका कहना है कि उर्दू सर्विस में उर्दू के कार्यक्रम वे लोग चला रहे हैं जो उर्दू के साहित्य से भी परिचित नहीं हैं। यहां तक उर्दू साहित्यकारों और शायरों को भी नहीं जानते। अपने संबंध वालों को गेस्ट के तौर पर कार्यक्रम में बुलाते हैं और उनको चेक थमा देते हैं। उन्होंने केंद्रीय प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी पर निशाना साधते हुए कहा कि उर्दू रेडियो और उर्दू टीवी के संबंध में संबंधित मंत्री भी भाषायी भेदभाव रखती हैं। क्योंकि कई बार उनको पत्र लिखे कि आप ऑल इंडिया रेडियो के कार्यक्रमों में उर्दू जानने वालों की नियुक्ति करें लेकिन अम्बिका सोनी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।
इस सवाल पर कि आप प्रधानमंत्री से अपनी फरियाद क्यों नहीं करते, के जवाब में डॉ. अंजुम ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री उर्दू दोस्त हैं, उर्दू में भाषण देते हैं, उर्दू लिखते-पढ़ते हैं, लेकिन जिस महिला को यह जिम्मेदारी दी गई है वह इसे ठीक से अंजाम नहीं दे रही है।

Friday, June 17, 2011

बाबा रामदेव का `षड्यंत्र बेनकाब'

योग गुरु बाबा रामदेव द्वारा काला धन देश वापस लाने और राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने की मांग को लेकर रामलीला मैदान में अमरण अनशन के दौरान आधी रात को उन्हें और उनके समर्थकों को प्रशासन द्वारा खदेड़ दिया गया। उस पर चारों ओर से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। उर्दू अखबारों ने भी इस पर अपना नजरिया पेश किया। कोलकाता, दिल्ली और झारखंड से एक साथ प्रकाशित होने वाले उर्दू दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `बाबा रामदेव पर केक डाउन करके सरकार ने अपनी राहों में कांटें बिछा लिए' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है। सच पूछा जाए तो इस मामले में सरकार ने मुंह की खाई है। बाबा रामदेव चाहे फ्रॉड हों या आरएसएस के इशारे पर मैदान में कूदे हों लेकिन वह एक ऐसे मुद्दे (काला धन) को लेकर सामने आए हैं जिसका पूरे देश में समर्थन किया जा रहा है। सरकार ने आ बैल मुझे मार वाली नीति अपनाकर स्वयं अपनी राहों में कांटें बिछा लिए हैं। अल्लाह ही खैर करे।

उर्दू दैनिक `जदीद खबर' ने `सरकार के तेवर' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बाबा रामदेव का आंदोलन पूरी तरह राजनीति से प्रेरित था और इसे संघ परिवार का समर्थन प्राप्त था लेकिन इसके बावजूद सरकार ने बाबा रामदेव से संवाद किया और केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई मंत्री उनसे बात करने एयरपोर्ट गए। विदेशी बैंकों में जमा काला धन को वापस लाकर गरीबों में बांटने, हजार और पांच सौ रुपये के नोटों को बन्द करने जैसी अव्यवहारिक मांगों पर सरकार ने रामदेव के साथ लम्बी बातचीत का भूत सवार था और वह खुद को अफलातून समझ बैठे थे। सरकार ने बातचीत की नाकामी और बाबा द्वारा वादा तोड़ने के बाद प्रशासनिक कार्यवाही को प्राथमिकता दी, जो ऐसे हालात में जरूरी होती है। बाबा रामदेव की कायरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह रामलीला मैदान में पुलिस का मुकाबला करने के बजाय वहां मौजूद महिलाओं के बीच घुस गए और एक महिला का लिबास पहनकर भागने की कोशिश करते हुए पकड़े गए। अखबार आगे लिखता है कि कांग्रेस वास्तव में इस मामले में गंभीर है और उसने सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने का फैसला किया है तो कोई कारण नहीं कि इन तत्वों को कमजोर न किया जा सके क्योंकि कांग्रेस की कमजोरियों और अनदेखी ने ही इन तत्वों को इतना ताकतवर बनाया है कि वह आज देश की व्यवस्था को चुनौती दे रही है। सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति बहुत जरूरी है।

दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `मोदी यदि मुख्यमंत्री नहीं होते' पर चर्चा करते हुए लिखा है। सुना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने पद की गरिमा का बड़ा ध्यान रहता है, वह अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को समझते हैं। उनका कहना है कि यदि वह मुख्यमंत्री नहीं होते तो नई दिल्ली में आज इतना बड़ा तूफान खड़ा कर देते कि कांग्रेस भी क्या याद रखती, बाबा रामदेव के साथ रामलीला मैदान में रविवार की रात जो सुलूक किया गया, जिम्मेदारों को इसका मजा चखा देते। अखबार आगे लिखता है कि वो समय रहते सरकार और दिल्ली पुलिस को खतरे का अंदाजा हो गया और उसने रामलीला मैदान को जलियांवाला बाग बनने से बचा लिया। लेकिन वह जो कहते हैं कि चोर चोरी से जाए, हेराफेरी से न जाए। कहां तो इसे बाबा की हरकतों पर शर्म के मारे जमीन में गढ़ जाना चाहिए लेकिन कहां यह कि वह उलटे सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर रही है।

दैनिक `हमारा मकसद' ने `षड्यंत्र बेनकाब' में लिखा है कि असल में सरकार और रामदेव के बीच जो गोपनीय समझौता हुआ था वह यह था कि रामदेव अन्ना हजारे के कैम्प को कमजोर करने का काम करेंगे जो प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सहित पूरे सरकारी तंत्र को लोकपाल के दायरे में लाए जाने पर जोर दे रहा है। दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में रामदेव और दो केंद्रीय मंत्री दिनभर इस रणनीति पर विचार करते रहे। रामेदव जिन मांगों को लेकर दिल्ली आए थे उनमें 90 फीसदी को तुरन्त मान लिया गया और रामदेव को जो कुछ करना या वह सांकेतिक था। कहानी उस समय बिगड़ गई जब सरकार को अचानक याद आया कि जब अन्ना हजारे ने भूख हड़ताल शुरू की थी तो सरकार ऐसे झुक गई थी जैसे कोई अपराधी कानून के सामने झुक जाता है। रामदेव के साथ अन्दरखाते संधि हुई थी लेकिन आम लोगों में यही संदेश जाता कि कोई भी इस सरकार को झुका सकता है। इसके बाद जो कुछ हुआ, वह दुनिया के सामने है।

हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `बाबा रामदेव बनाम सरकार' में लिखा है कि अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव, उनका राजनीति से कोई संबंध नहीं है। इनका सामाजिक कार्यकर्ता और योग गुरु की हैसियत से सीमित सम्पर्प जरूर है लेकिन इन दोनों ने एक के बाद एक अपना एजेंडा पेश किया तो सरकार के कदम लड़खड़ाने लगे। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि व्यक्तियों का अपने तौर पर कोई वजूद नहीं है बल्कि इसके पीछे आरएसएस की अगुवाई कर रही संघ परिवार के विभिन्न संगठन हैं जो दिल्ली के तख्त पर बैठने के लिए विचलित नजर आती है। इसका इजहार कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने भी किया है। बाबा रामदेव अपने को नेक और सादा जिन्दगी गुजारने वाला ऋषि-मुनि के तौर पर पेश करना चाहते हैं लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। वह एक अरबपति हैं, वो चार्टर्ड जहाजों से यात्रा करते हैं। धरना-प्रदर्शन के लिए रामलीला मैदान में जो पांच सितारा व्यवस्था की गई वह बुद्धि को हैरान कर देती है कि एक साधु के पास इतनी दौलत कहां से आई। सरकार को ऐसे व्यक्ति से भयभीत होने के बजाय जनता से सीधे बात करनी चाहिए। सरकार यदि निडरता से आरएसएस के ऐसे एजेंडों का मुकाबला करने से बचती है तो सरकार पर से जनता के विश्वास को चोट पहुंचेगी।

Monday, June 13, 2011

उर्दू प्रेस की माफियागिरी

बीते दिनों उर्दू समाचार पत्रों ने विभिन्न विषयों पर रिपोर्ट प्रकाशित कर पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कराया है। दिल्ली, मुम्बई और लखनऊ से एक साथ प्रकाशित उर्दू दैनिक `सहाफत' में मोहम्मद आतिफ ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि पिछले कुछ दिनों से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के हवाले से जिस तरह की खबरें आ रही हैं उससे ऐसा महसूस हो रहा है कि बोर्ड में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और जो खबरें भी आ रही हैं वह असल मामले में 10 फीसदी से ज्यादा नहीं हैं। जानकार मानते हैं कि बोर्ड के अन्दर पाई जाने वाली यह बेचैनी व्यक्तिगत हितों के लिए है तभी तो इस पूरे में राजनीति हो रही है। कहने को तो बोर्ड महासचिव की गतिविधियों को लेकर उन्हें कठघरे में खड़ा किया जा रहा है लेकिन यदि बिटविन द लाइन जाकर समीक्षा की जाए तो यह सच्चाई सामने आती है कि वह एक तीर से दो शिकार करना चाहते हैं। किसी भी संस्था में यदि महासचिव पर से भरोसा खत्म हो जाए अथवा उसकी कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में आ जाए तो निश्चित रूप से केवल महासचिव को ही इसके लिए आरोपी नहीं ठहराया जा सकता बल्कि इस संस्था का अध्यक्ष भी इस आरोप में इनके साथ शरीक माना जाएगा। ऐसी स्थिति में यदि महासचिव को उसके पद से मुक्त किया जाता है तो बोर्ड अध्यक्ष अपने पद पर कैसे बने रह सकेंगे। बुनियादी सवाल यह है कि अचानक ऐसी क्या बात हो गई कि महासचिव की योग्यता और कार्यप्रणाली पर सवाल उठने लगे और जो लोग सवाल उठा रहे हैं, वह कौन हैं और क्या चाहते हैं?

उर्दू दैनिक `हमारा समाज' में सादिक शेरवानी ने `उर्दू प्रेस क्लब की बेबुनियाद हवाबाजी, पदाधिकारी पत्रकार नहीं, कोई पत्रकार नहीं, कार्यालय का पता नहीं, सरपरस्तों का उर्दू का कोई अखबार नहीं, फिर भी नाम है उर्दू प्रेस क्लब' पर चर्चा करते हुए लिखा है कि आए दिन खबरें आती हैं कि फ्लां नकली कम्पनी से ठगी का मामला सामने आया है। उर्दू की यह संस्था भी ऐसी है जो अपने नाम से कोसों दूर मेल नहीं खाती लेकिन इसकी कागजी कार्यवाहियां चलती रहती हैं जिससे इनके सरपरस्तों का भला होता रहता है। इसका नाम उर्दू प्रेस क्लब है लेकिन इस संस्था का उर्दू पत्रकारिता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि उर्दू प्रेस क्लब में किसी उर्दू अखबार का कोई पत्रकार सदस्य नहीं है, इसके पदाधिकारियों में किसी का संबंध वर्तमान उर्दू पत्रकारिता से नहीं है। लगभग तीन वर्ष पूर्व कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित इसके एक कार्यक्रम में एक गैर उर्दू पत्रकार ने न केवल पैगम्बर इस्लाम की शान में गुस्ताखी की थी बल्कि यहां तक कह दिया कि कुरान से सूरा जिहाद और सूरा तलाक को निकाल दिया जाए। इस पर काफी हंगामा हुआ था। उर्दू प्रेस क्लब इन दिनों उर्दू माफिया बना हुआ है और अब वह देश में पत्रकारिता का शोषण करते हुए विदेश भी पहुंच गया है। सूचना के अनुसार इन दिनों दुबई में इसकी माफियागिरी चल रही है।

दिल्ली, कोलकाता और रांची से एक साथ प्रकाशित होने वाला उर्दू दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने पहले पेज पर रहस्योद्घाटन करते हुए यह रिपोर्ट छापी है। `मौलाना अरशद मदनी के अतिविश्वास पात्र ने 50 लाख का चूना लगाया, फजलुर रहमान ने सऊदी उच्चायोग से मिली रकम जमा नहीं की। रिपोर्ट के अनुसार जमीयत उलेमा हिन्द (मौलाना अरशद मदनी) की कार्यकारिणी सदस्य और मुख्यालय के एक अहम जिम्मेदार मालना फजलुर रहमान के बारे में यह चर्चा है कि उन्होंने जमीयत उलेमा हिन्द का 50 लाख रुपया हजम कर लिया है। मौलाना अरशद मदनी के विश्वास पात्र समझे जाने वाले मौलाना फजलुर रहमान का संबंध मुंबई से है जहां वह टेवल एजेंसी चलाते हैं लेकिन गत दो वर्ष से जमीयत उलेमा मुख्यालय में रह रहे थे और जमीयत उलेमा हिन्द की आंतरिक और विदश नीतियों में अहम भूमिका निभा रहे थे। गत दिनों पैगम्बर इस्लाम के महान साथियों (सहाबा) की महानता पर कांफ्रेंस के सिलसिले में दिल्ली स्थित सऊदी अरब उच्चायुक्त से मामला इनके ही द्वारा चल रहा था। इस कांफ्रेंस के बारे में आम धारणा थी कि सऊदी सरकार पूरी दुनिया में इस तरह की कांफ्रेंस कर रही है और वही इसका सारा खर्च वहन करती है। सऊदी उच्चायुक्त से अपने सम्पर्प के चलते कांफ्रेंस के अवसर पर अखबार में प्रकाशित विज्ञापन का 50 लाख रुपया मिला था जिसे मौलाना फजलुर रहमान ने जमा नहीं किया और वापस अपने वतन चले गए जिसकी वजह से उनके और मौलाना अरशद मदनी के बीच विवाद पैदा हो गया है।'

उर्द दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' में हज कमेटी में घोटाले और भर्तियों में घपले पर हज कमेटी उपाध्यक्ष हसन अहमद से बात करते हुए लिखा है कि फाइनेंस के मामले में सूरत-ए-हाल काफी खराब है और सदस्यों को पूरी तरह अंधेरे में रखा जाता है। हज कमेटी में हाजियों के भेजे हुए लगभग डेढ़ करोड़ रुपये के ड्राफ्ट ऐसे पड़े हैं जिन्हें हज खाते में जमा नहीं कराया गया और न ही सदस्यों को इस बारे में कुछ बताया गया, उन्होंने सवाल किया कि यह रुपया कहां जाएगा। यह हाजियों का रुपया है और यदि इसमें घपला होता है तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? हसन अहमद ने कहा कि चीफ एक्जीक्यूटिव प्रशासन के मुखिया हैं और उन्होंने भी एक साल से यह नहीं देखा कि इतनी बड़ी रकम के ड्राफ्ट हज कमेटी के खाते में जमा नहीं हुए। उनके अनुसार पिछले कुछ वर्षों के दौरान हुई भर्तियों की जांच होनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि भर्ती में तय मानकों का पालन हुआ या नहीं? इस बाबत एक कमेटी गठित करने का फैसला किया गया है जो तीन महीने में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी। जहां तक एक सऊदी अरब में हाजियों के लिए मकान हासिल करने का मामला है। कहने को तो हज कमेटी के सदस्य बिल्डिंग सैलेक्शन कमेटी (बीएससी) वहां जाते हैं, उन्हें कुछ मकान दिखाए जाते हैं और इनमें कुछ सदस्य यदि कुछ मकान बना लेते हैं तो वहां कौंसल जनरल और कौंसल हज इसकी संधि तुरन्त नहीं करते और कह देते हैं कि अभी देखेंगे, हज कमेटी के सदस्य वापस भी आ जाते हैं और मकान की संधि नहीं होती है। उनका कहना था कि बीएससी सदस्यों का सऊदी अरब भेजने का क्या फायदा? इसलिए मकान लेने की पूरी जिम्मेदारी वहां के कौंसल जनरल और कौंसल हज पर ही डाल दी जाए और उन्हें ही जवाबदेह बनाया जाए।