Monday, February 28, 2011

राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम का ब्यौरा देते उर्दू अखबार

बीते दिनों अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की बैठक का स्थगन होना, मिस्री क्रांति की आंच अरब देशों तक और भारत-पाक वार्ता सहित राष्ट्रीय स्तर पर आरुषि हत्याकांड, कश्मीर मामला, सुप्रीम कोर्ट द्वारा समान नागरिक कानून न बनाने पर केंद्र को फटकार जैसे अनेक मुद्दे समाचार पत्रों में छाए रहे। पेश हैं इस बाबत उर्दू के कुछ अखबारों की राय।

दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `त्रिकोणीय बातचीत के स्थगन' को चर्चा का विषय बनाते हुए लिखा है। अमेरिका, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की इस महीने प्रस्तावित त्रिकोणीय बैठक का स्थगन इस बात का संकेत है कि अमेरिका ने रेमंड डेविस को हत्या के आरोप में पाकिस्तान में गिरफ्तारी के बाद उसकी रिहाई के लिए पाकिस्तान पर दबाव बढ़ा दिया है। वैसे अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बैठक के स्थगन का कारण पाकिस्तान में हुई राजनैतिक उठापठक को बताया है। अमेरिका की इस बात पर विश्वास करना मुश्किल है क्योंकि इन परिवर्तन के कारण ही विदेश मंत्री की कुर्सी गंवाने वाले शाह महमूद कुरैशी पहले ही कह चुके हैं कि उन्हें रेमंड को रिहा न करने की कीमत अदा करनी पड़ रही है। अमेरिका के लिए किसी देश से 60 वर्ष की दोस्ती के मुकाबले अपने नागरिक के हित ज्यादा अहम हैं। चाहे वह नागरिक किसी देश के कानून की नजर में अपराधी ही क्यों न हो। अमेरिकी नीति को जानने वाले यह बात अच्छी तरह समझ सकते हैं कि अमेरिका के लिए सभी अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों एवं मर्यादा से ज्यादा अहम इसके अपने हित हैं। अपने एक अधिकारी की गिरफ्तारी पर अमेरिका किस हद तक जा सकता है इसका दूसरा सबूत त्रिकोणीय बातचीत का स्थगन है।

`भारत-पाक बातचीत शांति के लिए' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने लिखा है। यह अत्याधिक सुखद समाचार है कि भारत-पाकिस्तान के विदेश सचिव आपसी बातचीत द्वारा पेचीदा समस्याओं को अब दोबारा से हल करेंगे। वास्तव में यह सकारात्मक प्रक्रिया काफी लम्बे समय से चल रही थी लेकिन मुंबई में 26/11 को पाकिस्तान के आतंकवादियों ने जब विभिन्न स्थानों पर हमला किया जिसमें बहुत से भारतीय नागरिकों सहित विदेशी नागरिक भी मारे गए थे। उसको लेकर राष्ट्र में एक तीखी प्रक्रिया थी जिसके चलते भारत ने पाकिस्तान से जारी बातचीत को बन्द कर दिया था। लेकिन अब दोनों देशों ने बातचीत शुरू करने की इच्छा व्यक्त की है। इसलिए आशा की जा सकती है कि आने वाले दिनों में दोनों देशों के बीच कड़वाहट खत्म होना शुरू हो जाएगी। दोनों देशों के शासकों को इस दिशा में कदम उठाने के लिए सबसे पहले वीजा को आसान कर देना चाहिए। जब इस तरह एक-दूसरे से सम्पर्प बढ़ेगा तो उनमें परस्पर लगाव पैदा होगा और इसके बाद जब कभी किसी के साथ आतंकवाद की घटना होगी तो दोनों देश की जनता इसके खिलाफ उठ खड़ी होगी। पाकिस्तान जो आज कल अराजकता और आतंकवाद में उलझा हुआ है ऐसे नाजुक समय में हमें पाकिस्तान को आतंकवाद से लड़ने में मदद देने की जरूरत है ताकि वहां शांति का वातावरण बन सके। इस बातचीत के शुरू हेन से आशा है कि सियाचीन, कश्मीर और आतंकवाद जैसी समस्या हल होगी और यह दोनों देशों की जनता के लिए शांति का पैगाम होगा। हमारे विचार से भारत-पाक बातचीत अब केवल बातचीत न हो बल्कि शांति के लिए हो।

`मिस्री दुनिया से पूरे अरब जगत को सबक लेना चाहिए' के शीर्षक सै दैनिक `अखबारे मशरिक' ने लिखा है। जिस समय मिस्र में मुबारक के खिलाफ विद्रोह आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था उसकी छाया शाम, लेबनान, सऊदी अरब, यमन और खाड़ी देशों पर पड़ रही थी। इस महीने के शुरू में शाम में भी विद्रोह की लहर शुरू हुई थी जिसे तत्काल दबा दिया गया। सऊदी अरब में विपक्ष शाह अब्दुल्लाह से एक राजनैतिक पार्टी बनाने की मांग कर रहा है जबकि उरदन में विरोध प्रदर्शन के बाद प्रधानमंत्री मारूफ बखीत ने राजनैतिक सुधार लाने की घोषणा की है। यमन के अध्यक्ष अली अब्दुल्ला सालेह ने जनता के दबाव के आगे हथियार रखते हुए घोषणा कर दी है कि वह आगामी राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ेंगे। कतर में भी मिस्री क्रांति की गूंज सुनी जा रही है। बहरीन में भी विरोध प्रदर्शन करती रैलियां हो रही हैं।

ट्यूनीशिया और मिस्र में सफल जन आंदोलन के नतीजे में अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ जो लहर चली है उसकी रोशनी में अरब देशों ने सुधार की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया है। लेकिन यह सुधार दिखावा नहीं बल्कि वास्तविक और बुनियादी होना चाहिए। जो देश जनता की इच्छाओं का सम्मान करते हुए सुधारों को जगह देंगे वह कायम रहेंगे और जो ऐसा नहीं करेंगे उनका हश्र ट्यूनीशिया और मिस्र जैसा होगा। हालात जिस ओर इशारा कर रहे हैं उसे समझने और उसकी रोशनी में नया रास्ता अपनाने की जरूरत है।

`रबरो नजर' ने अपने स्तम्भ में `सहरोजा दावत' ने `न्यायाधीशों की चिन्ता' पर चर्चा करते हुए लिखा है। समान नागरिक कानून के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट सरकार को इस से पूर्व कम से कम दो बार लताड़ चुकी है। गैर मामूली बात 8 फरवरी के आब्जर्वेशन की यह थी कि `केंद्र को केवल हिन्दुओं के पर्सनल लॉ में तब्दीली से दिलचस्पी है, अन्य धार्मिक समुदाय के पर्सनल लॉ में कोई तब्दीली नहीं की जाती...।'

9 फरवरी 2011 के टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार न्यायाधीशों ने यह भी कहा, `पर्सनल लॉ में कानूनी हस्तक्षेप और संशोधन के मामले में हिन्दू समुदाय उदारवादी है जबकि अन्य समुदाय में यह नहीं है और यह स्थिति अल्पसंख्यकों के अन्दर सेकुलर मूल्यों की कमी का द्योतक है।' अखबार लिखता है कि मामला देश की सबसे बड़ी अदालत का है इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहिए। लेकिन पिछले कुछ समय में न्यायाधीशों के संबंध कुछ खबरें ऐसी आई हैं जो मीडिया और कानून के क्षेत्र में चर्चा का विषय बनीं।

माननीय न्यायाधीश इनता तो जरूर जानते होंगे, भले ही इससे सहमत न हों कि समान नागरिक कानून एक राजनैतिक नारा है और हिन्दुत्व राजनीति का भारी स्रोत, अन्यथा इसकी कोई वास्तविकता नहीं है। इसका ब्लूप्रिंट आज तक पेश नहीं किया। यदि हिन्दू समुदाय अपने पारिवारिक कानूनों के लिए उदारवादी हुए हैं तो यह उसकी कमजोरी है, दूसरे धर्म इसके लिए जिम्मेदार नहीं।

`चुनावी सुधार की कोशिश' पर चर्चा करते हुए दैनिक `सियासत' ने लिखा है। मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी की यह चिन्ता विचारणीय है कि सभी राजनैतिक पार्टियां राजनीति में अपराधीकरण के खिलाफ हैं। यह जानकर भी दुख होता है कि देश की 99 फीसदी राजनैतकि पार्टियां चुनाव सुधारों के खिलाफ हैं।

इस संदर्भ में चुनाव आयुक्त ने चुनाव को निष्पक्ष बनाने के लिए चुनाव सुधारों का बेड़ा उठाया है उससे यह पता चलाना जरूरी है कि चुनाव के लिए धन, बल और माफिया को कैसे खत्म किया जाए। अतीत में भी एक से अधिक बार दिशानिर्देश बनाए गए या उन पर विचार किया गया कि राजनीति में अपराधीकरण को कैसे रोका जाए और अपराधी व्यक्तियों को चुनाव में भाग लेने की इजाजत न दी जाए लेकिन सच्चाई यही है कि हजार प्रयासों के बावजूद चुनाव को अपराधीकरण से पाक करने में सफलता नहीं मिली है। अब कानून मंत्रालय के चुनाव सुधार की कोशिश इस माहौल में किस हद तक कामयाब होगी, यह तो समय ही बताएगा।

Saturday, February 26, 2011

`गोधरा ः यह इंसाफ नहीं है'

बीते दिनों अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर गोधरा पर विशेष अदालत का फैसला, जामिया मिलिया इस्लामिया को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने एवं सरकार द्वारा भ्रष्टाचार की जांच के लिए जेपीसी गठित करने की घोषणा जैसे अनेक मुद्दे चर्चा का विषय रहे। पेश है इस बाबत हुई उर्दू के कुछ अखबारों की राय।

`गोधरा ः यह इंसाफ नहीं है' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने लिखा है। हम इसको इंसाफ नहीं कह सकते। बेशक यह मेरे पिता और उन सभी आरोपियों की बेगुनाहों की जीत है जिनको गलत तरीके से फंसाया गया था लेकिन इनकी जिंदगी के जो आठ साल सलाखों के पीछे बीत गए, जिन परेशानियों का सामना इनको और इनके परिवार को करना पड़ा, इसकी भरपायी कौन करेगा और क्या यह संभव है? यह शब्द मौलाना हुसैन उमरजी के बेटे उमर सईद के हैं जिन्होंने गोधरा कांड में अपने पिता की गिरफ्तारी के बाद गोधरा से अहमदाबाद और दिल्ली (निचली अदालत से सुप्रीम कोर्ट) तक पिछले आठ सालों में किस-किस दरवाजे को नहीं खटखटाया, कहां-कहां इंसाफ की गुहार नहीं लगाई। अब आठ साल बाद साबरमती जेल में कायम विशेष अदालत ने फैसला सुनाया तो सुबूत न होने के आधार पर उनकी रिहाई का आदेश जारी कर दिया। निश्चय ही उमर सईद का यह सवाल कि क्या इसी को इंसाफ कहते हैं कि आपको गलत तरीके से गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया जाए। आपकी जिंदगी की कीमती साल, आपका भविष्य और आपके परिवार को तबाह कर दिया जाए, फिर वर्षों बाद फैसला सुनाया जाए कि हमारे पास अपराध का कोई सुबूत नहीं है। भारत के माथे पर इतना ही बड़ा कलंक है जितना बड़ा कलंक गोधरा कांड और इसके बाद के दंगे हैं। जब देश की न्यायिक व्यवस्था ही सवालों के घेरे में आ जाए और कानून की जिस कार्यवाही में एक नहीं दर्जनों बेगुनाहों की जिंदगियां तबाह हो जाया करें, इस व्यवस्था मे पीड़ितों के हित की बात करना बेवकूफी है। यदि आरोपियों को आदलत ने इसलिए छोड़ दिया कि प्रतिवादी के पास कोई छोटे से छोटा सुबूत नहीं था।

`गोधरा ट्रेन घटना' के शीर्षक से दैनिक `ऐतमाद' ने लिखा है। गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन घटना को अहमदाबाद की विशेष अदालत ने षड्यंत्र की थ्योरी को स्वीकार किया है। गुजरात पुलिस की जांच भी इस थ्योरी के तहत की गई, चूंकि अदालत से इस थ्योरी का अनुमोदन हासिल करना था और इसी आधार पर विशेष अदालत ने 31 व्यक्तियों को सजा दी और दूसरे 63 व्यक्तियों को आरोप मुक्त कर दिया। आश्चर्य तो यह है कि इस सूची में गोधरा ट्रेन घटना के अहम आरोपी मौलवी उमरजी भी शामिल हैं। राज्य सरकार की ओर से गठित स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम ने मौलवी उमरजी के संबंध में जो वक्ता भी हैं, यह कहा कि उन्होंने अपने चार सहयोगियों को एस-6 बोगी को जिसमें कारसेवक थे, गोधरा ट्रेन में आग लगाने के लिए प्रोत्साहित किया था। लेकिन षड्यंत्र के असली अपराधी को ही जब बरी कर दिया गया है तो इस षड्यंत्र की अगुवाई किसके हाथ में थी और आरएसएस की ओर से कौन सक्रिय था। यह बात भी सामने नहीं आ सकी है। सेशन अदालत का फैसला दूसरे अर्थों में गुजरात दंगों की जिममेदारी से नरेन्द्र मोदी को छुटकारा दिलाने के सिवाय कुछ नहीं है। अभी यह सवाल बाकी है कि क्या सभी पीड़ितों को इंसाफ मिला है?

`गोधरा की गुत्थी' के तहत दैनिक `इंकलाब' ने लिखा है। 27 फरवरी 2002 को साबरमती एक्सप्रेस में लगने वाली आग अचानक लगी थी या षड्यंत्र का नतीजा था। इस सवाल पर गत नौ वर्ष से बहस हो रही है। इस पर दो सितम्बर 2004 को गठित की गई यूसी बनर्जी कमीशन ने 17 जनवरी 2005 को पेश होने वाली रिपोर्ट में कहा था कि साबरमती एक्सप्रेस में लगने वाली आग संयोगवश अर्थात् अचानक थी इसके पीछे कोई षड्यंत्र नहीं था। तीन मार्च 2002 को नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा गठित किए गए नानावती कमीशन ने 18 सितम्बर 2008 में पेश हेने वाली अपनी रिपोर्ट में यूसी बनर्जी रिपोर्ट का खंडन करते हुए कहा था कि आग संयोगवंश नहीं बल्कि इसके पीछे दो दिन पहले तैयार की गई वह षड्यंत्र था जिसे क्रियान्वित करने के लिए पेट्रोल खरीदा गया और फिर उसे बोगी में उढेला गया या कुछ बयानात के अनुसार दो व्यक्ति डिब्बे में दाखिल हुए जिन्होंने आग लगाई। 31 व्यक्तियों को अपराधी बताने और षड्यंत्र थ्योरी को स्वीकार किए जाने की बात चिंताजनक है। यदि ट्रेन में लगने वाली आग वास्तव में षड्यंत्र का नतीजा था तो क्या अहमदाबाद फोरेंसिक लैबोरेट्री ने रिपोर्ट गलत दी थी? क्या यूसी बनर्जी कमीशन की रिपोर्ट झूठ का पुलिंदा थी क्या दिल्ली की गैर सरकारी संगठनों `हेजारडर्स खेंटर' के विशेषज्ञों की वह रिपोर्ट अर्थहीन थी जिसने षड्यंत्र को निरस्त किया था और जो सिद्धार्थ वरद राजन (`दी हिंड' 22 जनवरी 2005) के अनुसार अब तक की सबसे ठोस रिपोर्ट है।

`गोधरा घटना पर अदालती फैसला' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने लिखा है। इस फैसले के संबंध में विभिन्न प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं। भाजपा इस बात को लेकर खुश है कि अदालत ने 27 फरवरी 2002 के साबरमती ट्रेन घटना को षड्यंत्र मानकर इसके और मोदी सरकार के दृष्टिकोण को सही साबित किया है। जबकि कांग्रेस अभी तक यह तय नहीं कर पा रही है कि क्या दृष्टिकोण अपनाया जाए। यही कारण है कि इसके विभिन्न नेताओं और मंत्रियों की प्रतिक्रियाओं में सीधे कहने से बचा जा रहा है। षड्यंत्र के मुख्य आरोपी मौलवी उमरजी और अन्य बरी होने वाले आरोपियों के घर वाले खुश हैं तो दूसरी तरफ गुजरात की नरेन्द्र मोदी सरकार इस मामले में अपील का इशारा दे रही है। लेकिन अदालत के इस फैसले ने कई सवाल भी खड़े किए हैं और इन सवालों का सीधा संबंध गोधरा घटना से नहीं बल्कि अदालती व्यवस्था और ऐसे मामलों में सरकार और राजनेताओं की नीयत से है। सरकार और राजनेता किस तरह ऐसे मामलों को अपने हित के लिए इस्तेमाल करते हैं इसका सुबूत भागलपुर दंगे, मेरठ और मलियाना के 1987 दंगे और 1984 में दिल्ली में होने वाले सिख दंगे हैं। इसी तरह मुंबई दंगों की जांच के लिए बने श्रीकृष्णा रिपोर्ट पर अभी तक सरकार की ओर से कोई कार्यवाही नहीं हुई है। गोधरा मामले के बाद अहमदाबाद में हुए मुस्लिम विरोधी दंगों का फैसला अभी होना बाकी है जिसमें लगभग 1200 व्यक्ति (जिनमें अधिक मुसलमान) थे, मारे गए थे। इनके अपराधी आज भी घूम रहे हैं।

`गोधरा का इंसाफ' के तहत दैनिक `हमारा समाज' ने लिखा है। अदालत ने जो फैसला सुनाया है उसका सम्मान करना सब का कर्तव्य है लेकिन इससे आम लोगों को मायूसी का सामना करना पड़ा है। 9 वर्षों तक जेल में गुजारने के बाद यदि किसी को बेकसूर करार दिया जाए तो यह इंसाफ नहीं इंसाफ का खून है।

जो व्यक्ति बिना किसी अपराध के 9 साल तक जेल में बन्द हो तो उस पर क्या गुजरी होगी, का अंदाजा लगाया जा सकता है। गुजरात पुलिस ने इतनी बड़ी संख्या में मुसलमानों को गिरफ्तार करके घृणा का जो सुबूत पेश किया है वह अत्याचार के इतिहास का खराब समय माना जाएगा। अब एक अहम सवाल यह है कि क्या इसके बाद हजारों मुसलमानों के कातिलों के जिम्मेदारों को भी सजा मिल सकेगी? और मिलेगी तो कब? इसका हश्र भी मुंबई दंगों और बम धमाकों की तरह तो नहीं होगा कि 1992 में होने वाले दंगों के दोषी तो खुलेआम घूमते रहें और 1993 के बम धमाके के तथाकथित जिम्मेदारों को सजा सुना दी जाए? ऐसा संभव है, इसलिए कि इस देश में इसकी मिसाल मौजूद है।

Monday, February 21, 2011

ब्याज रहित आर्थिक व्यवस्था के फायदे

प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के मलयेशिया दौरे के दौरान वहां के प्रधानमंत्री दातु नजीब बिन तुन हाजी अब्दुल रज्जाक ने इसलामी बैंकिंग की महत्ता को उजागर करते हुए उसे आर्थिक मंदी से उबरने का विकल्प बताया। जिस पर प्रधानमंत्री ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया से इन पर विचार कर सभावनाएं तलाश करने का भरोसा दिलाया है। बहरहाल, आरबीआई के वर्तमान नियमों के तहत इसलामी कानून पर आधारित ब्याज रहित प्रणाली की कोई व्यवस्था नहीं है। वर्ष 2004 में संप्रग सरकार ने सत्ता संभालने के बाद आरबीआई के ऑपरेशन मैनेजर आनंद सिंह की अगुवाई में एक कमेटी बनाई थी, जिसमें देश-विदेश के आर्थिक विशेषज्ञ शामिल थे। उस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में यह बताया कि देश में इसलामी बैंकिग के लिए वर्तमान कानून में काफी संशोधन करना होगा, जो संभव नहीं है।
इसके बाद एक दूसरी कमेटी प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार रघुराजन राम की अध्यक्षता में गठित की गई। कमेटी में विभिन्न बैंकों के प्रतिनिधियों सहित आर्थिक विशेषज्ञ शामिल थे।

इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में ब्याज रहित प्रणाली का स्वागत करते हुए इसे शुरू करने का सुझाव दिया, लेकिन सरकार इस पर मौन है। आम तौर पर इस प्रणाली को इसलामी बैंकिग के नाम से प्रचारित किया जाता है, लेकिन रघुराजन कमेटी ने ब्याज रहित शब्दावली का इस्तेमाल किया है। ब्याज रहित बैंकिंग प्रणाली इसलामी सिद्धांतों पर आधारित व्यवस्था है और अरब जगत में तेल की खोज के बाद यह शुरू हुई। इसमें दरअसल ब्याज की कोई व्यवस्था नहीं है। इस प्रणाली का बुनियादी मकसद आर्थिक रूप से लोगों को शोषित होने से बचाना और दौलत को एक हाथ में जमा होने से रोकना है।
ब्याज रहित बैंकिंग प्रणाली में निवेशकर्ता को ब्याज नहीं दिया जाता है, बल्कि लाभ या हानि की सूरत में उसका हिस्सा तय किया जाता है। मुसलमान, जिनकी आबादी अपने देश में 15 फीसदी है, केवल ब्याज के चलते बैंकों या वित्तीय संस्थानों में निवेश नहीं करते, क्योंकि इसलाम ने ब्याज को हराम बताया है। हालांकि ऐसा नहीं कि यह व्यवस्था केवल मुसलमानों के लिए ही उपयोगी होगी। इसका लाभ समाज के सभी वर्गों को होगा, क्योंकि ब्याज के नाम पर लोगों का खूब शोषण होता है। एक अनुमान के मुताबिक, केरल में पांच हजार करोड़ से ज्यादा का निवेश ऐसा है, जो बैंकों में पड़ा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इन रकमों के मालिक ब्याज वाले कारोबार में अपना पैसा नहीं लगाना चाहते हैं। लिहाजा यह पैसा बाजार में नहीं आ रहा है।
वर्ष 2007-08 के बजटीय आंकड़ों से यह खुलासा हुआ कि देश का हर नागरिक 22,000 रुपये का कर्जदार है। विद्रूप है कि यह पैसा उसने नहीं लिया, सरकार ने लिया है। सरकार पर उसकी देनदारी है, जिसकी भरपाई वह टैक्स लगाकर करेगी। यदि इस कर्ज की समीक्षा की जाए, तो इसमें अधिकतर वह राशि है, जो विदेशी कर्ज को समय पर अदा न करने की सूरत में ब्याज के रूप में लगी है। आलम यह है कि एलआईसी जैसी ब्याज देने वाली कंपनी भी मुसलिम देशों में ब्याज रहित बीमा योजनाएं पेश कर रही हैं, लेकिन अपने देश में यह संभव नहीं हो पा रहा है।
ब्याज रहित बैंकिंग प्रणाली की लोकप्रियता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि यह विश्व के विकसित मुल्कों में भी सफलतापूर्वक काम कर रही है। फ्रांस के अखबार चैलेंज ने अपने संपादकीय में लिखा है, ‘वर्तमान ब्याज आधारित पूंजीवाद व्यवस्था दुनिया को तबाही की ओर ले जा रही है। लिहाजा आर्थिक मंदी से निकलने के लिए कुरआन शरीफ का अध्ययन आवश्यक है।’
आज विश्व के करीब 500 इसलामी बैंकों द्वारा वार्षिक 1,000 अरब डॉलर का कारोबार होता है। 2020 तक इसके 4,000 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। यदि अपने देश में यह प्रणाली शुरू की जाती है, तो इस पूंजी का कुछ हिस्सा इधर भी आ सकेगा, जो अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के साथ समाज को शोषण से भी बचाएगा। यह खुशी की बात है कि केरल उच्च न्यायालय ने इसलामी बैंक खोलने की मंजूरी देकर इस राह को और आसान बना दिया है।

Monday, February 14, 2011

अल्ला के दरबार में पांच सितारा होटल

किसी उपासना स्थल का निर्माण एवं उसकी देखभाल और वहां आने वाले आगंतुकों का विशेष रूप से ध्यान रखना हर लिहाज से सराहनीय कार्य है। यदि वह उपासना स्थल केंद्रीय दर्जा रखता हो तो उसका महत्व और भी बढ़ जाता है। ऐसे में उपासना स्थल की देखभाल करने वालों से यह आशा की जाती है कि वे निःस्वार्थ भाव से यह काम करें। कोई ऐसा काम न करें जिससे उसकी अध्यात्मिकता और पवित्रता पर आंच आए। बात चाहे जिस धर्म अथवा संप्रदाय की हो, हर जगह यही भावना पाई जाती है। इस मामले में किसी भी धर्म में कोई भेद-भाव नहीं है। पवित्रता के प्रभावित होते ही आध्यात्मिकता का पहलू भी कमजोर पड़ने लगता है जो किसी भी लिहाज से एक सभ्य समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है।
इस परिप्रेक्ष्य में सऊदी अरब के शहर मक्का में स्थित ‘खाना-ए-काबा’ (अल्लाह का घर) और उसकी देखभाल करने वालों की सक्रियता से इसकी महत्ता का अनुमान भली भांति लगाया जा सकता है। मुसलमानों के लिए यह स्थल बहुत महत्वपूर्ण है। इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक स्तंभ के तौर पर इसका उल्लेख मिलता है। हर साल अरबी महीने जिलहिज्जा में यहां हज संपन्न होता है। विश्व भर से मुसलमान यहां आकर हज करते हैं और कुर्बानी देते हैं। आर्थिक रूप से संपन्न हर मुसलमान के लिए जीवन में एक बार उस घर तक जाना अनिवार्य है। काबा भौगोलिक दृष्टि से दुनिया के मध्य में स्थित है। हज के दिनों को छोड़कर बाकी दिनों में विश्व भर से मुसलमान उमरा करने यहां आते हैं। इस लिहाज से पूरे साल ही यहां चहलपहल और गहमागहमी रहती है।
हज के लिए हर साल लगभग 25 लाख व्यक्ति काबा में हाजिरी के लिए उपस्थित होते हैं। अकेले भारत से एक लाख से अधिक लोग हज कमेटी के माध्यम से हज के लिए जाते हैं। जबकि प्राइवेट आपरेटरों के माध्यम से जाने वाले लोगों की संख्या इसके अतिरिक्त है जो लगभग 50 हजार के करीब है। सऊदी सरकार ने हज के दौरान जहां हाजी आते हैं, बढ़ती भीड़ को देखते हुए उन स्थानों का विस्तार किया है। यहां तक कि हाजियों के रहने के लिए पुराने भवनों को तोड़कर नए भवन बनाए जा रहे हैं। इससे हाजियों को और भी आसानी हो रही है। लेकिन इसी के साथ काबा के चारों तरफ जिस तरह ऊंचे टावर वाले होटल और भवन बनाए जा रहे हैं, वह आम मुसलमानों के लिए चिंता का विषय है। यह होटल साधारण होटल नहीं है बल्कि इनका स्तर फाइव स्टार होटल से भी ज्यादा अर्थात फाइव प्लस है। ये होटल सभी जन सुविधाओं से लैस पश्चिमी तर्ज पर आधारित हैं। जिनमें पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का जलवा है। खाना-ए-काबा जो जमीन पर है, चारांे तरफ से घिरी इमारतों के बीच कैसा लगेगा और क्या उसकी पवित्रता बाकी रहेगी! इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। गत कुछ दशकों से काबा स्थित मक्का शहर में एक नया इनफ्रास्ट्रक्चर परवान चढ़ रहा है, जिसमें होटल से लेकर शापिंग मॉल आदि सभी हैं। एक प्रकार से यहां हज इंडस्ट्री वजूद में आ रही है। और जब किसी जगह इंडस्ट्री वजूद में आती है अथवा कोई वस्तु बाजार में चल पड़ती है तो एक नया वर्ग वजूद में आता है। दोनों ही परिस्थितियों में मुनाफा कमाने एवं कारोबारी मानसिकता का पैदा होना आवश्यक है। सच तो यह है कि कारोबारी मानसिकता ही चीजों को व्यापारी शक्ल प्रदान करती है।
सऊदी सरकार जो हाजियों की सेवा तत्परता से करती है। बदलते परिदृश्य में उसकी सोच भी बदलती जा रही है। निःस्वार्थ सेवा भाव की जगह व्यापारी मानसिकता बढ़ती जा रही है। इसके लिए नए-नए उपाय और योजनाएं बनाई जा रही हैं। काबा के चारों तरफ जिस तेजी से ऊंची-ऊंची इमारतें और होटल बनाए जा रहे हैं। वह आम हाजियों की पहुंच से दूर होंगे, क्योंकि इन होटलों में वही हाजी ठहर सकेगा जो अपनी जेब ढीली करने के लिए तैयार होंगे। जबकि आम हाजी जिसका अपना एक सीमित बजट है, वह यहां ठहर नहीं सकता। हज कमेटी ऑफ इंडिया के वाइस चेयरमैन हसन अहमद ने भी इस बात को स्पष्ट किया कि हज के दौरान सऊदी अरब में निवास अब महंगा हो गया है। यदि हाजी काबा से करीब रहना चाहे तो उसे और ज्यादा खर्च करने के लिए तैयार रहना चाहिए। सऊदी सरकार ने ऐसा कर उस मानसिकता को भुनाने की कोशिश की है, जो काबा से करीब ठहरना चाहते हैं। इससे जहां उनकी मनोकामना पूरी होगी वहीं सऊदी सरकार की भी आमदनी बढ़ेगी। काबा के चारों तरफ बन रहे होटल और भवन आम लोगों के नहीं हैं। उन्हें इस क्षेत्र में किसी तरह के निर्माण कार्य करने की इजाजत भी नहीं है। यह अधिकार सिर्फ शाही परिवार को है। वे ही इन होटलों अथवा भवनों के मालिक हैं।
जहां तक खाना-ए-काबा का मामला है। इसकी मर्यादा के चलते ही इसके ऊपर से जहाज नहीं गुजरता है। लेकिन जब आसमान छूती इमारतें इसे चारों तरफ से घेर लेंगी तो क्या इसकी मर्यादा बचेगी, यह सवाल मुसलमानों को परेशानी किए हुए है। काबा जिसे हरम भी कहते हैं, उसके करीब एक 595 मीटर लंबी इमारत है जो 1952 फुट ऊंचे टावर की शक्ल का है और सबसे ऊंची है। इसी पर दुनिया की सबसे बड़ी घड़ी मक्का रायल क्लॉक टावर लगी है। दूसरे टॉवर का काम भी जोरों पर है। अगर यह जिस दिन पूरी तरह तैयार हो गया उस दिन काबा पूरी तरह ढक जाएगा।
काबा का मान-सम्मान हर मुसलमान के लिए सर्वोपरि है। इसे भंग करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती, चाहे वह व्यक्तिगत स्तर पर हो अथवा सामूहिक स्तर पर या किसी सरकार द्वारा हो। हाजियों की बढ़ती संख्या को देखते हुए सऊदी सरकार का दायित्व है कि वह इनके लिए नए भवन व होटल बनाए। लेकिन वह काबा से 100-150 किलोमीटर दूर हो।
व्यापारी मानसिकता केवल शासक वर्ग में ही नहीं है, अब इसके कीटाणु नागरिकों में भी फैल गए हैं। काबा में नमाज पढ़ने की इच्छा हर मुसलमान की होती है। जब वह वहां पहुंच जाता है तो उसकी कोशिश होती है कि आगे की पंक्ति में बैठे। इसके लिए कुछ सऊदी नागरिकों ने अपने लोगों को लगा दिया कि वह आगे की पंक्तियों में जा-ए-नमाज (जमीन पर बिछा कर नमाज पढ़ने वाला कपड़े का टुकड़ा) बिछा कर बैठ जाए। जब कोई संपन्न हाजी उस व्यक्ति को इस जगह के बदले कुछ रुपए दे देता तो वह जगह उसके हवाले कर दी जाती। यह एक कारोबार की शक्ल में जारी था। पांच समय की नमाज एवं इतने बडे़ काबा में जहां एक साथ एक लाख से अधिक लोग नमाज पढ़ सकते हैं, जगह घेर कर पैसा वसूल करना अच्छा व्यापार था। काबा में केवल हज के समय ही भीड़ नहीं रहती है बल्कि वहां तो साल के 12 महीने ही भीड़-भाड़ और चहल-पहल रहती है। इसका रहस्योद्घाटन उस समय हुआ जब कुछ लोगों ने इस तरह पैसा वसूल करने की शिकायत की। जिसके बाद सरकार सक्रिय हुई और उन्होंने इसका संज्ञान लिया। लेकिन सवाल यह है कि जब व्यापारी सोच की मानसिकता सत्ता वर्ग में आ गई है तो आम नागरिक उससे कैसे बच सकेगा!
बात ज्यादा पुरानी नहीं है जब व्यवस्था को पुण्य कार्य समझते हुए भारतीय मुसलमानों द्वारा सऊदी अरब में निवास के लिए भवन निःशुल्क उपलब्ध कराए जाते थे। अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार कई भारतीय मुसलमानों ने इस तरह की व्यवस्था कर रखी थी, जिन्हें रूबात कहा जाता है। अब इन पुराने भवनों को तोड़कर नया बनाया जा रहा है। लेकिन इसमें भारतीय मुसलमानों की भूमिका नहीं के बराबर है। यह ज्यादातर शाही परिवार के सदस्यों की मिल्कियत है। ये उन्हें किराए पर देने के लिए अपने एजेंट रखते हैं जो विभिन्न देशों से आने वाले हाजियों को इन भवनों में रहने के लिए तैयार करते हैं, जिस पर उसे कमीशन मिलता है। हज कमेटी ऑफ इंडिया पर भी यह आरोप है कि वह शाही परिवार के सदस्यों की कम सुविधा वाली भवनों को ज्यादा किराए पर हाजियों के लिए लेती है। साथ ही हाजियों से जिस श्रेणी का किराया वसूल किया जाता है, उन्हें वहां न ठहरा कर अत्यंत घटिया मकान में ठहराया जाता है। इस संबंध में हज प्रतिनिधि मंडल में गए हैदराबाद के जस्टिस फखरूद्दीन ने अपनी आपत्ति दर्ज कराते हुए इसकी जांच की मांग की है। हज के दौरान आम तौर पर हाजियों के निवास को लेकर अक्सर शिकायतें आती हैं, जिसकी कोई सुनवाई नहीं होती है। उसे यह कह कर ठंडा करने की कोशिश की जाती है कि हज एक तरह का परिश्रम है, इसके रास्ते में जो परेशानी एवं कठिनाई आए उसे हंसते हुए बर्दाश्त करना चाहिए। इस तरह अपने दायित्वों का निर्वाह करने के बजाए हाजियों की भावनाओं का शोषण किया जाता है।

Saturday, February 12, 2011

`मुस्लिम देशों में जनता की नाराजगी है या इस्लामी बेदारी'

बीते सप्ताह राष्ट्रीय स्तर पर भ्रष्टाचार का मुद्दा चर्चा में छाया रहा जबकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले घटनाक्रम के चलते मिस्र में इंकलाब की दस्तक ने सभी मुद्दों को पीछे छोड़ दिया। राष्ट्रीय समाचार पत्रों की तरह उर्दू के अखबारों ने इस पर अपने सम्पादकीय लिखे और आलेख प्रकाशित किए। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `सियासत' ने `मिस्र में टकराव' के शीर्षक से लिखा है। राष्ट्रपति मिस्र हुस्नी मुबारक को हटाने की कोशिश, अरब देशों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के किस ढांचे में ले जाएगी इसका अनुमान काहिरा के तहरीर स्क्वायर पर एकत्र लाखों की भीड़ को न हो। लेकिन अरब देशों को यह विश्वास हो गया है कि मध्य पूर्व में जन आंदोलन के पीछे कोई न कोई ताकत जरूर है। 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने काहिरा दौरे में लोकतंत्र के लिए मजबूत केस पेश करते हुए जनता में जो प्रेरणा पैदा की, यह उसी श्रृंखला की कड़ी समझी जा रही है। हुस्नी मुबारक ने मिस्र के हालात के लिए अखवानुल मुसलेमीन को जिम्मेदार ठहराया है तो सत्ता के हस्तांतरण के लिए यह कट्टरपंथी संगठन जनता में किस हद तक विकल्प साबित हो सकेगा, यह कहना मुश्किल है। काहिरा के तहरीर स्क्वायर पर एकत्र होकर विरोध करने वालों में मिस्र के आम नागरिक और मध्य वर्गीय से संबंध रखने वाले भी शामिल हैं। शांतिपूर्ण ढंग से विरोध करने वाली जनता यह अच्छी तरह जानती है कि इनके देश के लिए कट्टरपंथी वर्ग एक मात्र हल नहीं है क्योंकि अखवानुल मुसलेमीन को गलत दिनों होने वाले चुनाव में 30 फीसदी वोट ही मिले थे।
कानपुर, फतेहपुर और लखनऊ से एक साथ प्रकाशित दैनिक `अनवारे कौम' ने `भय का शिकार' शीर्षक से लिखा है। मिस्र के इंकलाब की विशेष बात यह है कि वहां की इस्लाम समर्थक पार्टी `अखवानुल मुसलेमीन' बहुत तेजी से आगे बढ़ रही है। यह वह पार्टी है जिसके हजारों कार्यकर्ताओं, उलेमा और बुद्धिजीवियों को मिस्र की गैर इस्लामी सरकारों ने फांसी पर चढ़ाया और कत्ल किया। राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक के प्रतिद्वंद्वी मोहम्मद अल-बरदाई से इस पार्टी ने कहा है कि वह उनका साथ देगी इस तरह इस बात की संभावना पैदा हो गई है कि मिस्र में इस्लाम समर्थकों की सरकार कायम हो जाए। इस बदलती हुई स्थिति से इस्राइल, अमेरिका तो परेशान हैं ही फ्रांस और ब्रिटेन जैसे इस्लाम विरोधी देश भी बहुत परेशान हैं। उत्तरी अफ्रीका के देश मिस्र में इंकलाब विशेष तौर पर यूरोप के देशों को भी प्रभावित कर सकता है, क्योंकि कई दिनों से चलने वाले प्रदर्शनों ने मिस्र की अर्थव्यवस्था को गड़बड़ा दिया है। दैनिक उपभोग की वस्तुओं के दाम आसमां से बातें कर रहे हैं। इस बात का संदेह पैदा हो गया कि नहर स्वेज बन्द कर दी जाएगी यदि यह बन्द कर दी गई तो सारी दुनिया में तेल की कीमतें आसमां छूने लगेंगी क्योंकि हर दिन पचास जहाज तेल लेकर इस नहर से गुजरते हैं विशेष रूप से यूरोप में जिनता भी तेल सप्लाई होता है वह इसी तरफ से आता है। मिस्र तेल पैदा करने वाला देश नहीं है लेकिन नहर स्वेज एक ऐसी नहर है जो छह हजार किलोमीटर की दूरी को कम करती है और तेल से लदे हुए जहाजों को इसी नहर से गुजरना पड़ता है तभी वह यूरोप में दाखिल हो सकते हैं। इससे साफ स्पष्ट है कि हुस्नी मुबारक के खिलाफ बगावत से यूरोप अत्याधिक प्रभावित होगा, वाणिज्य दृष्टि से भी और वैचारिक दृष्टि से भी मिस्र का यह इंकलाब बहुत अहम है।
कोलकाता और दिल्ली से एक साथ प्रकाशित दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `इंकलाब मिस्र को सही दिशा देने और उसकी दशा निर्धारित करने की जरूरत' के तहत लिखा है। मिस्र के राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक का समय खत्म हो गया है और समय की मांग है कि उन्हें सत्ता से अलग हो जाना चाहिए लेकिन वह शरारती बच्चों की तरह जिद पर अड़े हुए हैं। बदहवासी में उन्होंने पुलिस के सिपाहियों को वर्दी उतारकर तहरीर स्क्वायर में प्रदर्शनकारियों पर हमला करने के लिए भेज दिया। मुबारक को समझना चाहिए था कि देश में पुलिस कोई बड़ी ताकत नहीं है, असल ताकत फौज की है जो एक संगठित इकाई है। लेकिन वह उनका साथ देने के बजाय प्रदर्शनकारियों की समर्थक बन गई है। जगह-जगह पुलिस और जनता में तो झड़पें देखने में आईं लेकिन फौज और प्रदर्शनकारियों में कोई टकराव नहीं है। फौज ने स्पष्ट कर दिया है कि वह जनता पर गोलियां नहीं चलाएगी।
वास्तविक लोकतंत्र केवल चुनाव करा देने का नाम नहीं है। मजा तो जब है जब इसका फायदा आम आदमी तक पहुंचे और उसे अतीत और वर्तमान स्पष्ट फर्प महसूस हो। इस उद्देश्य के लिए पूरा लोकतांत्रिक ढांचा नए सिरे से खड़ा करना होगा। हुस्नी मुबारक से छुटकारा पाने के बाद विपक्षी नेताओं को सिर जोड़कर बैठना होगा और जनता की भावनाओं को ध्यान रखते हुए न केवल संविधान को नए सिरे से बनाना होगा बल्कि देश में लोकतांत्रिक समस्याओं का जाल बिछाना होगा।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' में शकील शम्सी ने अपने स्तंभ `क्या मिस्र में लोकतंत्र ला सकेगी अखवानुल मुसलेमीन'? में लिखा है। मिस्र के नेताओं ने विभिन्न तरह की झूठी घटनाएं अखवान आंदोलन के नाम जोड़कर मिस्र की जनता को गुमराह करने की बहुत कोशिशें कीं लेकिन अखवानुल मुसलेमीन की लोकप्रियता में कमी आने के बजाय दिन प्रतिदिन बढ़ती गई और नतीजा यह हुआ कि मिस्र की जनता सड़कों पर आ गई और आज पहली बार दुनिया में यह बात कही जा रही है कि अखवान को बातचीत में शरीक किया जाना चाहिए। विचित्र संयोग है कि 12 नवम्बर 1949 को हसनुल बन्ना को शहीद किया गया और इसके तीस साल बाद 11 फरवरी को ईरान में इस्लामी क्रांति आई और वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई और फिर एक बार हसनुल बन्ना के शहीदी दिवस के आसपास ही एक और मुस्लिम देश में लोकतंत्र का चिराग जलने वाला है लेकिन पश्चिम के षड्यंत्र के चलते मिस्र में लोकतंत्र का फूल खिलने में विलम्ब हो रहा है। अखवानुल मुसलेमीन के नेतृत्व ने बहुत सूझबूझ का परिचय देते हुए अभी तक स्वयं को जन आंदोलन के पीछे रखा है अन्यथा पश्चिमी मीडिया अब तक इस आंदोलन को अलकायदा और तालिबान से जोड़ चुके होते।
`सहरोजा दावत' ने मुस्लिम देशों में यह नाराजगी है या इस्लामी बेदारी? के शीर्षक से लिखा है। अरब, मध्य एशिया और उत्तरी अफ्रीका के मुस्लिम देशों में जन चेतना की जो लहर देखने को मिल रही है और जिस तरह एक के बाद एक मुस्लिम देशों में सरकार विरोधी प्रदर्शन हो रहे हैं। उसे अधिकतर जीडीपी, गरीबी एवं बेरोजगारी और आर्थिक सुधारों के शीशे से देख रहे हैं। कुछ लोग मानव अधिकार और अभिव्यक्त की आजादी और परिवारवाद के संदर्भ में देख रहे हैं। पश्चिमी मीडिया भी लगभग इसी तरह की सोच रखता है और वह शुरू से इन पहलुओं को पेश कर रहा है। लेकिन विश्व में एक ऐसा वर्ग भी है जो इस जन चेतना को इस्लामी बेदारी बता रहा है। उसका कहना है कि जनता की समस्याएं और सरकार से शिकायत सही है। इससे किसी को इंकार नहीं लेकिन यदि यही सच्चाई होती तो विश्व स्तर की आर्थिक संकट के समय जब अमेरिका सहित सभी यूरोपीय एवं पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई थी। एक के बाद एक दुनिया की बड़ी से बड़ी आर्थिक संस्था दीवालिया हो गई, मध्य पूर्व के किसी भी देश अमेरिका और यूरोप जैसे हालात क्यों नहीं पैदा हुए, जो प्रदर्शन अब हो रहे हैं वह प्रदर्शन आर्थिक संकट के समय क्यों नहीं हुए। अचानक इतने बड़े स्तर पर एक साथ कई देशों में जन चेतना की यह लहर कैसे चल पड़ी?

Thursday, February 10, 2011

दारूल उलूम- साख पर आंच

किसी चिंतक ने सच ही कहा है कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। ठीक यही मामला देवबद स्थित अंतरराष्ट्रीय शिक्षण संस्था दारुल उलूम का है। लगभग तीस साल के बाद यह दूसरा मौका है जब दारुल उलूम के मोहतमिम (कुलपति) पद को लेकर विवाद अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका है। अतीत में हुए इस विवाद के चलते ही दारुल उलूम का विभाजन हुआ था। दारुल उलूम की मजलिस शूरा (कार्यकारिणी) के फैसले की बुनियाद पर ही उसके मोहतमिम कारी मोहम्मद तैयब ने दारुल उलूम (वक्फ) बनाकर अपनी राह अलग पकड़ी और जमीअत उलेमा हिंद के अध्यक्ष मौलाना असद मदनी की दारुल उलूम पर पकड़ मजबूत हो गई। कहा जाता है कि ऐसा कांग्रेस की नीति के चलते हुआ क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मुसलमानों की एकजुटता को खत्म कर उन्हें कमजोर करना चाहती थीं। वर्तमान विवाद को इस प्ररिप्रेक्ष्य से अलग कर नहीं देखा जा सकता। फर्क केवल इतना है कि तब मजलिस शूरा ने मदनी परिवार के हक में अपना मत दिया था और अब तीस साल बाद उसने मदनी परिवार को दारुल उलूम से बेदखल कर दिया है।
दारुल उलूम के मोहतमिम मौलाना मरगूर्बुरहमान के निधन के बाद 10 जनवरी को मजलिस शूरा ने अपनी बैठक में बहुसंख्यक मतों के आधार पर मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी को दारुल उलूम के मोहतमिम की जिम्मेदारी सौंपी थी। 21 सदस्यीय शूरा में 4 सदस्यों का निधन हो चुका है, जिनका चुनाव किया जाना बाकी है। जबकि तीन सदस्य किन्हीं कारणों से बैठक में शरीक नहीं हुए। इस तरह 14 सदस्यों में से 8 ने मौलाना वस्तानवी को मोहतमिम बनाने के पक्ष में वोट दिया। चार सदस्यों ने इनके प्रतिद्वंद्वी जमीअत उलेमा हिंद के दूसरे घडे़ के अध्यक्ष एवं दारुल उलूम के शिक्षक और मौलाना वस्तानवी के रिश्तेदार मौलाना अरशद मदनी के पक्ष में और दो सदस्यों ने दारुल उलूम के नायब मोहतमिम मौलाना अब्दुल खालिक मदरासी के पक्ष में अपना मत दिया। साफ और निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया से हताश मौलाना अरशद मदनी के एक रिश्तेदार एवं शूरा सदस्य मौलाना अब्दुल अलीम फारूकी ने यह शिगूफा छोड़ दिया कि मौलाना वस्तानवी कासमी नहीं है। इस पद पर किसी कासमी को ही आसीन करना चाहिए। बतातें चलें कि दारुल उलूम से शिक्षा प्राप्त करने वालों को कासमी कहा जाता है। ऐसा वह मौलाना मोहम्मद कासिम नानोतवी द्वारा दारुल उलूम का गठन किए जाने की याद में अपने नाम के आगे लगाकर करते हैं। कोई कासमी मोहतमिम हो, दारुल उलूम का संविधान इस बाबत मौन है। मोहतमिम के चयन का पूरा अधिकार मजलिस शूरा को दिया गया है।
मजलिस शूरा के इस फैसले की अभी स्याही सूखी भी नहीं थी कि मौलाना वस्तानवी के अतीत के कुछ कामों को लेकर विवाद खड़ा हो गया। ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ को दिए साक्षात्कार में मौलाना वस्तानवी ने कहा कि गुजरात में मुसलमानों के साथ भेद-भाव नहीं किया जा रहा है। राज्य में मुसलमानों की आर्थिक स्थित अच्छी है। उन्होंने यह भी कहा कि 8 वर्ष पूर्व हुए दंगों को अब याद करने का औचित्य नहीं है। मौलाना वस्तानवी को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थन में बयान देने की जरूरत क्यों महसूस हुई? इसे लेकर मुसलमानों में यह चर्चा जोर पकड़ रही है कि क्या चर्चा में बने रहने के लिए दारुल उलूम का इस्तेमाल किया जा रहा है। पूर्व में मौलाना मरगूर्बुरहमान के समय इसकी शुरुआत हो चुकी थी लेकिन तब वह एक सीमित दायरे में थी। अब जिस तरह खुल कर राजनीतिक बयानबाजी हो रही है, उससे आम मुसलमानों की नाराजगी बिल्कुल स्वाभाविक है। राजनैतिक पार्टियां जिस तरह दिल्ली स्थित जामा मस्जिद को अपने हित के लिए इस्तेमाल करती हैं बिल्कुल उसी तरह दारुल उलूम का इस्तेमाल किया जा रहा है। जानकारों को इस बात पर आश्चर्य है कि मोलाना वस्तानवी गुजरात जाने के बाद दारुल उलूम की बाबत कहने के बजाए मोदी के राज्य में मुसलमान खुशहाल हैं और वह उन्नति कर आगे बढ़ रहे हैं, जैसे बयान दे रहे हैं। इससे उनकी दिलचस्पी का अनुमान लगाया जा सकता है।
बात यहीं खत्म नहीं हुई बल्कि एक उर्दू दैनिक ‘सहाफत’ ने पहले पेज पर उस फोटो को छापकर उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया, जिसमें महाराष्ट्र के एक मंत्री को मौलाना वस्तानवी के हाथों एक मूर्ति पेश करते दिखाया गया था। यह फोटो कोई साल भर पहले के एक कार्यक्रम का है। इस फोटो ने मौलाना वस्तानवी के खिलाफ माहौल बनाने में अहम भूमिका निभाई। दारुल उलूम के कुछ शिक्षकों ने भी इस बयान को दारुल उलूम की साख को नुकसान पहुंचाने वाला बताया। साथ ही दारुल उलूम की मजलिस शूरा से अपने फैसले पर पुनर्विचार का अनुरोध किया। तनजीम मुहिब्बान दारुल उलूम, देवबंद ने तो शूरा के फैसले पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया। तनजीम के महासचिव मौलाना अरशद रजा कासमी बिजनौरी ने शूरा से सवाल किया है कि क्या दारुल उलूम इतना बांझ हो गया है कि इससे पढ़कर निकलने वाले उलेमा में से कोई नहीं मिल सका कि उसे दूसरी संस्था के पढ़े हुए को लेना पड़ा।
पूरे मामले में नाटकीय मोड़ तब आया जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल जिनका संबंध भी गुजरात से है और वे मौलाना वस्तानवी के करीबी रिश्तेदार हैं, का बयान उक्त उर्दू दैनिक में प्रकाशित हुआ। जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि दारुल उलूम का मोहतमिम किसी योग्य व्यक्ति को बनाया जाए। मौलाना वस्तानवी इस पद के लायक नहीं हैं। उन्होंने अपने इस बयान में मौलाना वस्तानवी के पुत्र मुफ्ती हुजैफा के दावे को भी निरस्त कर दिया, जिसमें उसने कहा था कि अहमद पटेल उसके नाना हैं और गुजरात एवं महाराष्ट्र की कांग्रेस इकाई में वह जो चाहते हैं, वही होता है। पटेल ने यह भी कहा कि जो व्यक्ति मोदी का दोस्त हो सकता है वह मेरा कैसे हो सकता है।
इसी बीच मौलाना वस्तानवी ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि टाइम्स ऑफ इंडिया का जो बयान उनसे संबंधित बताया जा रहा है, उसे तोड़ मोड़कर पेश किया गया है। मैं ऐसी कोई बात जो दारुल उलूम देवबंद और अपने बुजुर्गों की परंपरा एवं मान-सम्मान के खिलाफ है, को सोच भी नहीं सकता। मूर्ति के संबंध में उन्होंने कहा कि यह उनके दुश्मनों का षड्यंत्र है। वस्तानवी ने कहा कि गत वर्ष नवंबर में ईद मिलन समारोह के अवसर पर जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों शरीक थे, उन्हें महाराष्ट्र के एक मंत्री को मोमेंटो पेश करना था। उस पर तस्वीर बनी हुई थी, वह मूर्ति नहीं थी। उन्होंने जोर देकर कहा कि तस्वीर और मूर्ति में बड़ा फर्क है। जो लोग इस तस्वीर को मूर्ति कह रहे हैं, वह गलत कह रहे हैं।
मौलाना वस्तानवी दीनी शिक्षा के साथ ही आधुनिक शिक्षा में दक्षता रखते हैं। वे गुजरात के निवासी हैं। वे गुजरात एवं महाराष्ट्र में कई कॉलेज एवं मदरसे चला रहे हैं जिनमें हजारों लड़के शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। मजलिस शूरा ने उनका चयन एक ऐसे समय में किया है जब मदरसों की विचारधारा को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहस चल रही है। दूसरी ओर उनके करीबी रिश्तेदार मौलाना अरशद मदनी जो मदनी परिवार के मुखिया हैं, की कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह से मुलाकात को कांग्रेस एजेंडा को लागू करने के संदर्भ में देखा जा रहा हैं। जानकर मानते हैं कि अहमद पटेल पहले वस्तानवी के समर्थक थे। उन्होंने इसलिए पाला बदला कि वस्तानवी के दारुल उलूम में आने से मुसलमानों को कांग्रेस के करीब लाने में परेशानी होगी। इसके विपरीत मौलाना अरशद मदनी के आने से उत्तर भारत में मुसलमानों को कांग्रेस से जोड़ने में कामयाबी मिलेगी। चर्चा यह भी है कि 10 जनपथ से इसका ब्लू प्रिंट तैयार हो गया है? लेकिन ऐसा कैसे होगा? क्या मजलिस शूरा जिसने मौलाना अरशद मदनी के खिलाफ फैसला दिया था, पर राजनैतिक दबाव डाला जाएगा या फिर उसमें जो जगहें खाली हैं, उन पर ऐसे लोगों को लाने की कोशिश होगी जो इस मिशन को पूरा करने में अपना सहयोग देंगे। ऐसे ही सवालों पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं।

बाबरी मामले को लेकर बोर्ड ने नई कमेटी बनाई

पिछले दिनो बर्मा जिसका नया नाम म्यांमार है, में लोकतंत्र की आवाज बनी सान सान सू की रिहाई समेत कांग्रेस द्वारा आरएसएस पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाने और बाबरी मस्जिद के मुकदमें को सुप्रीम कोर्ट ले जाने का मुद्दा उर्दू समाचार पत्रों में छाया रहा।
जमीअत उलेमा हिंद (मौलाना अरशद मदनी ग्रुप) द्वारा बाबरी मस्जिद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किए जाने को बाबरी मस्जिद काज को नुकसान हो सकता है एवं आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को नजरंदाज कर अपील दाखिल की गई, अपील में 34 से ज्यादा गलतियों की संभावना के तहत दैनिक हमारा समाज ने लिखा है कि जमीअत उलेमा द्वारा जल्दबाजी में दाखिल की गई यह याचिका न तो मुसलमानों के हक में है और न ही बाबरी मस्जिद के हित में। मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी के हवाले से लिखा है कि अरशद मदनी ने बोर्ड को नजरंदाज किया है। इस जल्दबाजी के पीछे क्या सोच है यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इतना तय है कि बाबरी मस्जिद काज को नुकसान पहुंचने का खतरा जरूर पैदा हो गया है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि इस याचिका में बहुत सी गलतियों को चिन्हित किया गया था। अखबार के मुताबिक फैजाबाद के वरिष्ठ अधिवक्ता अफताब अहमद सिद्दीकी को यह याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर करने से पूर्व भेजी गई थी ताकि उसकी कमियों को देखा जा सके। इसमें 34 गलतियों को चिन्हित किया गया था। यह रिपोर्ट अहम जिम्मेदारों को दी गई थी लेकिन इसे बिल्कुल नजरअंदाज कर दिया गया।
बाबरी मस्जिद मामले में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड द्वारा नई बाबरी मस्जिद कमेटी के गठन पर दैनिक सहाफत ने लिखा है कि पिछली कमेटी की गतिविधियों से असंतुष्ट एवं इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद बोर्ड ने यह नई कमेटी बनाई है। 10 सदस्यों वाली इस कमेटी में पूर्व कमेटी के संयोजक को मात्र सदस्य के तौर पर शामिल किया गया है। जबकि एक नई परम्परा की शुरुआत के चलते इस कमेटी का चेयरमैन बोर्ड सचिव अर्ब्दुरहीम कुरैशी को बनाया गया है और संयोजक बोर्ड की लीगल कमेटी के सदस्य एवं मुंबई हाई कोर्ट के वकील युसुफ हातिम मुछाला को बनाया गया है। बोर्ड ने यह फैसला लखनऊ में अपने पदाधिकारियों की तीन दिवसीय बैठक जो एक से तीन नम्बर 2010 को हुई में लिया है। पूर्व की बाबरी मस्जिद कमेटी के संयोजक डा. कासिम रसूल इलियास ने हाई कोर्ट के फैसले के बाद जिस तरह बयानबाजी शुरू की थी उस पर आल इंडिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव
डॉ. मोहम्मद मंजूर आलम ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त कर संयोजक बाबरी कमेटी से कहा था कि वह मौन रहें क्योंकि उनके बयान से कनफियूजन पैदा हो रहा है।
सारा की शादी, टीआरपी के खेल में इस्लाम का मजाक के शीर्षक से साप्ताहिक नई दुनिया ने लिखा है कि निकाह के नाम पर जो बेहुदगी फैलाई गई और सारा को हर किसी से गले मिलते दिखाया गया, वह केवल इस्लामी सिद्धांतों के ही नहीं, भारतीय संस्कृति और नैतकिता के मुंह पर भी जोरदार तमाचा है। बिग बास से पहले किसी भी चैनल ने कम से कम इस तरह का गंदा मजाक नहीं किया था और निकाह व अन्य इस्लामी परम्पराओं को टीआरपी की भेंट नहीं चढ़ाया। कैमरे के सामने शादी करने के लिए दोनों ने 50 लाख रुपए लिए हैं। सुहाग रात की फिल्म बंदी के लिए भी दोनों ने मोटी रकम वसूल की है। टीआरपी के इस खेल के बाद यह बहस छिड़ी हुई है कि क्या एक शादी के बाद दूसरी शादी करना इस्लाम के अनुसार सही है या नहीं।
आरएसएस की तिलमिलाहट के शीर्षक से आलमी सहारा ने लिखा है कि आतंकवादी घटनाओं में आरएसएस के लिप्त होने की बात सामने आने और कांग्रेस की आलोचना के बाद इसके नेताओं की बेचैनी स्वभाविक है। अपनी तिलमिलाहट का इजहार वह जगह जगह रैली और प्रदर्शनों द्वारा कर रहा है। इंदौर में पांच किलोमीटर लंबी रैली इसी का हिस्सा है। इंदौर रैली में आरएसएस ने इस बात की भी व्यवस्था की कि स्वयंसेवकों का स्वागत मुसलमान भी करें और सिख भी, इसके लिए कुछ बुर्के पहनी महिलाएं और दाढ़ी टोपी वाले बोहरा मुसलमान भी स्वागत समारोह में नजर आ रहे थे। दरअसल आरएसएस इन दिनों भारत के विभिन्न समूहों का नैतिक समर्थन हासिल चाहता है क्योंकि वह अपने ऊपर लगे आतंकवाद के आरोप को धोने के लिए ऐसा करना जरूरी समझता है। गत दिनों जंतर मंतर पर एक प्रदर्शन की व्यवस्था कुछ मुसलमानों की ओर से किया गया था जिसका मकसद इंद्रेश कुमार का अजमेर बम धमाकों में नाम आने के खिलाफ विरोध करना था। आरएसएस ने मुसलमानों को करीब करने और मुस्लिम चेहरों को सामने लाने के लिए राष्ट्रीय मुस्लिम संगठन कायम कर रखा है जिनका इस्तेमाल ऐसे मौकों पर किया जाता है। आरएसएस जिस बेचैनी के दौर से गुजर रहा है इसका एहसास करते हुए संघ नेताओं को समझना चाहिए कि भारत में आतंकवाद के नाम पर मुस्लिम युवाओं पर अत्याचार का जो सिलसिला एक लंबे समय से जारी है क्या इसके खिलाफ उसने कभी विरोध प्रदर्शन किया।
बर्मा में स्वतंत्रता सेनानी सान सू की रिहाई के शीर्षक से दैनिक अखबार मशरिक ने लिखा है कि फौजी सरकार के विरुद्ध बगावत का बिगुल बजाने वाली सान सू को आखिरकार रिहा कर दिया गया उन्हें गत सात वर्षों से अपने घर में कैद कर रखा था। उनकी रिहाई पर पूरे देश में उत्साह का माहौल देखा जा रहा है। अखबार के अनुसार बर्मा की जमीन सोना उगलती थी। जमीन उपजाऊ है और अत्याधिक प्राकृतिक संसाधन हैं। किसी समय में बर्मा विश्व का सबसे बड़ा चावल निर्यात करने वाला देश होता था लेकिन अब नहीं। वर्तमान बर्मा दुनिया के गरीब देशों की श्रेणी में आ गया है। भ्रष्टाचार के चलते इसकी मिसाल सोमालिया से दी जाती है। उसकी यह स्थित वास्तव में फौजी शासन का नतीजा है जो उस पर 1962 से काबिज है।
फौजी शासन ने लोकतंत्र के सभी रास्ते बंद कर दिए गए थे यहां तक कि पिछले दिनों हुए चुनाव में सान सू को भी वोट नहीं डालने दिया गया। फौजी शासन ने दावा किया है कि इस चुनाव में बहुत सी राजनैतिक पार्टियों ने भाग लिया है लेकिन यह चोर दरवाजे से फौजी टोले की सरकार है। फौजी शासकों ने केवल अपनी वर्दियां उतार दी हैं और शहरी लिबास पहन लिया है। इस आम चुनाव में फौज की सरपरस्ती में यूनियन सालिडेटरी एवं डेवलपमेंट पार्टी ने इसलिए कामयाबी हासिल की है क्योंकि सान सू की नेशनल लीग फार डेमोकेसी को इस हाल में कि उसकी प्रिय नेता कैद में थी, चुनाव का बायकाट करने पर मजबूर होना पड़ा। 1990 के आम चुनाव में सान सू की पार्टी को 80 फीसदी वोट मिले थे जिसे फौजी शासकों ने निरस्त कर दिया था। लोकतंत्र की लहर में फौजी टोला जिस लिबास में हो ज्यादा देर तक नहीं रह सकता और बर्मा में लोकतंत्र एवं सान सू की जीत होकर रहेगी।

Wednesday, February 9, 2011

मोदी को क्लीन चिट से इंसाफ की आशा धूमिल

गुजरात एसआईटी द्वारा गुजरात मुख्यमंत्री को क्लीन चिट दिए जाने, Šजी स्पेक्ट्रम घोटाले पर संसद में गतिरोध, फ्रांस राष्ट्रपति की भारत यात्रा, सुप्रीम कोर्ट द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट के बारे में व्यक्त की गई टिप्पणी, भारत-पाक संबंध, नीति का निर्धारण जैसे अन्य मुद्दों सहित विकिलीक्स के गोपनीय दस्तावेजों को उजागर करने एवं बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की जीत पर समीक्षा का सिलसिला जारी है। `हमारा समाज' ने गुजरात मुख्यमंत्री को क्लीन चिट दिए जाने पर चर्चा करते हुए लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में काम कर रही एसआईटी ने गुजरात मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को 2002 की गोधरा घटना के बाद हुए दंगों में जिस तरह क्लीन चिट दी है उससे इंसाफपसंद लोगों को बड़ा धक्का लगा है। नरेन्द्र मोदी के आदेश पर दंगों के दौरान हजारों मुसलमानों का कत्ल हुआ, इससे पूरी दुनिया परिचित है। इसके बावजूद एसआईटी ने उन्हें क्लीन चिट देकर उन लाखों शांतिप्रिय लोगों के मुंह पर ताला लगा दिया जो गोधरा घटना के बाद हुए मुसलमानों के नरसंहार का दोषी नरेन्द्र मोदी को करार देते हैं। यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जिसे `मौत का सौदागर' कहा, ऐसे व्यक्ति को सुप्रीम कोर्ट की अगुवाई में काम कर रही एसआईटी ने क्लीन चिट दी है। जिस पर कई तरह के सवालात खड़े हो रहे हैं। गुजरात के पूर्व डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस आरबी श्री कुमार के आरोप से इसकी शुरुआत हो चुकी है कि गुजरात दंगों की तफ्तीश कर रही विशेष टीम (एसआईटी) वास्तव में गुजरात पुलिस की बी टीम के तौर पर काम कर रही है। अखबार लिखता है कि मोदी को क्लीन चिट मिलने के बाद अब यह आशा भी धूमिल हो गई कि गुजरात दंगों के निर्दोषों को इंसाफ मिल सकेगा।
Šजी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच जेपीसी से कराने की मांग पर जिस तरह संसद में गतिरोध है उसको लेकर पक्ष, विपक्ष एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं। दैनिक मुनसिफ लिखता है कि इस दौरान जनता की समस्याओं और संसद के दैनिक खर्चा की हो रही तबाही का किसी को भी ख्याल तक नहीं है और इस भारी रकम का भरपायी भी जनता से की जाएगी। यह तो किसी शिक्षित देश के जनप्रतिनिधियों का व्यवहार नहीं हो सकता। देश की परम्परा ही निराली है जो नेता जितना बड़ा घोटाला करता वह उतना ही सीना ठोंक कर चलता है। सभी तरह के कानूनी प्रतिबंध और सजा केवल चोर-उच्चकों के लिए रह गई हैं जो कि संविधान की मर्यादा के खिलाफ ही नहीं बल्कि संविधान का उल्लंघन है। `अखबारें मशरिक' ने फ्रांस राष्ट्रपति के भारत आगमन पर लिखा है कि फ्रांस के राष्ट्रपति सर्कोजी ने वादा किया है कि फ्रांस भारत के संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्य की उम्मीदवारी का हर तरह से समर्थन करेगा। जहां तक संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का सवाल है तो परिषद के पांच में से चार सदस्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस ने पहले ही भारत की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता का समर्थन कर रखा है केवल चीन को इस मामले में संकोच है जो भारत को अपना प्रतिद्वंद्वी समझता है। बहरहाल जब संयुक्त राष्ट्र के ढांचे में सुधार का एजेंडा आगे बढ़ाया जाएगा और यह चारों देश भारत के समर्थन में उठ खड़े होंगे तो चीन का विरोध निप्रभावी हो जाएगा। ओबामा की तरह सर्कोजी ने भी भारत का समर्थन कर इस काज को आगे बढ़ाया है। भविष्य में हमें अच्छी उम्मीद रखनी चाहिए।
विकिलीक्स द्वारा गोपनीय दस्तावेजों को उजागर करने की समीक्षा करते हुए `सह रोजा दावत' ने लिखा है कि इन रहस्योद्घाटन को एक सप्ताह हो गया लेकिन अभी तक किसी भी मुस्लिम देश अथवा शासक की ओर से दूसरे देश अथवा शासक के खालफ ऐसी कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है जिससे कहा जा सके कि विकिलीक्स का तार निशाने पर लग गया और इसने संबंध खराब करने का अपना काम कर दिया। जैसा कि सभी ने देखा कि अमेरिका ने पहले इराक पर ईरान को आपस में लड़ाकर उन्हें कमजोर किया, फिर इराक द्वारा कुवैत पर हमला कर खुद ही इस पर धावा बोल दिया और देखते ही देखते सभी खाड़ी देशों को अपनी चपेट में कर लिया। यही खेल उसने अफगानिस्तान और पाकिस्तान में खेला और अब ईरान एवं शान और पर्दों के पीछे इंडोनेशिया एवं मलेशिया को भी अपने निशाने पर रख लिया। इसलिए विकिलीक्स के रहस्योद्घाटन की यह कहकर अनदेखी नहीं की जा सकती कि इसमें सभी अहम देशों विशेषकर अमेरिका को निशाना बनाया गया है बल्कि यह मुस्लिम देशों और शासकों के खिलाफ योजनाबद्ध षड्यंत्र है और इस रहस्योद्घाटन में अन्य देशों को इसलिए शामिल किया गया है ताकि मुस्लिम देश भ्रम में रहें। इसलिए सचेत रहने की जरूरत अमेरिका एवं पश्चिमी देशों को नहीं है बल्कि मुस्लिम देशों को है जिनके खिलाफ नए खेल के लिए भरपूर सामान उपलब्ध करा दिया गया है। बनारस के बम धमाकों पर `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने लिखा है कि हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि इन धमाकों के पीछे वही तत्व हैं जो पहले भी देश में इस प्रकार के बम धमाके करा के सांप्रदायिक हिंसा की आग भड़काने का खेल खेलते आए हैं। यह एक अटल सच्चाई है कि हर बम धमाके के बाद इंडियन मुजाहिद्दीन अथवा लश्कर-ए-तोयबा और सिमी का नाम लिया गया लेकिन बाद में इनमें से कुछ के पीछे अभिनव भारत और आरएसएस अथवा इसी की शाखाओं के कार्यकर्ताओं का हाथ निकला, हैदराबाद से अजमेर और मालेगांव से सूरत तक इनके खिलाफ बेशुमार सुबूत हैं जिनका खंडन नहीं किया जा सकता। यह सोच कर एक ओर से आंखें फेर लेना कि किसी मंदिर अथवा घाट पर बम धमाके होते हैं तो यह मुजाहिद्दीन की कार्यवाही होगी या किसी मस्जिद एवं गुरुद्वारा में आतंकवाद के लिए एक विशेष समुदाय के लोग ही जिम्मेदार हो सकते हैं, किसी तरह सही नहीं है। 2006 में बनारस के संकट मोचन मंदिर और कैंट रेलवे स्टेशन पर होने वाले बम धमाकों का सुराग आज तक नहीं मिल सका। यह सोच बेबुनियाद नहीं है कि एक बार फिर इंडियन मुजाहिद्दीन की आड़ में विशेष समुदाय के लोगों की शामत आएगी, पुलिस और खुफिया एजेंसियों का कहर इन बेगुनाहों पर टूटेगा और ऊपरी तौर पर देखने से बम धमाकों को अंजाम देने वालों का मकसद भी यही है। सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ द्वारा इलाहाबाद हाई कोर्ट पर की गई टिप्पणी पर `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि इससे लॉ कमीशन की रिपोर्ट प्रमाणित हो गई जिसमें कहा गया है कि बेलाग इंसाफ को लोग तरसते जा रहे हैं और वह उनसे दूर होता जा रहा है। कमीशन ने अपनी 230वीं रिपोर्ट में अदालतों की गतिविधियों की समीक्षा कर वर्तमान स्थिति को उजागर करने के लिए एक विशेष शब्दावली का इस्तेमाल किया है। इसमें एक विशेष शब्दावली अंकल जज की है। कमीशन का भी यही कहना है कि यह अंकल जज दो ही काम जानते हैं या तो अपने करीबी रिश्तेदारों को फायदा पहुंचाना चाहते हैं या अपने विरोधियों को सबक सिखाना जानते हैं। निश्चय ही दोनों स्थिति में पद का गलत इस्तेमाल हो रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर नोटिस लिया है तो कोई गलत नहीं किया है।

Tuesday, February 8, 2011

मुसलमान विकास और सत्ता में साझेदारी के एजेंडे पर

यूनाइटेड लेबरेशन फ्रंट (उल्फा) के चेयरमैन राजखोवा को जमानत पर रिहा कर उत्तर पूर्व भाग में चल रहे आतंकवाद को खत्म करने की ओर एक अहम प्रयास किया है और इससे क्षेत्र में उम्मीद की आशा दिखाई पड़ती है।
अंग्रेजों ने यहां चाय बागान में चीनी मजदूरों को हटाकर मध्य भारत के मैदानी क्षेत्र से मजदूर लाना शुरू किया जिससे यहां की जनसंख्या का संतुलन बिगड़ गया और स्थानीय लोगों में बेचैनी पैदा होने लगी। उन्नीसवीं सदी के आखिर में भुखमरी और सूखे के कारण बहुत से लोगों की जानें गईं और यहां के क्षेत्र में स्थानीय आबादी कम हो गई जिसको मुहाजिर मजदूरों द्वारा पूरा किया गया। शुरू में अंग्रेजों ने असम को बंगला प्रेसीडेंसी का हिस्सा बनाकर रखा। बाद में यह भारत सरकार का एक राज्य हो गया। अंग्रेजों के जाने के बाद यहां कई साल तक शांति रही लेकिन स्थानीय आबादी और असमी नागरिकों के बीच घृणा जोर पकड़ती गई और असमी नागरिकों को यह लगता रहा कि देश के अन्य भागों विशेषकर बांगल से आए हुए लोगों ने इनको आर्थिक कंगाली पर पहुंचा दिया है। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बीच पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे बंगलादेश आंदोलन के कराण लाखों बंगाली अपना देश छोड़कर यहां पनाह लेने पर विवश हुए उनको बहाना बनाकर यहां के स्थानीय नागरिकों ने यह कहना शुरू कर दिया कि बंगलादेश बन जाने के बावजूद लाखों मुहाजिर असम से वापस नहीं गए हैं जिसके कारण यहां की जनसंख्या का संतुलन बिगड़ गया है। असम के स्थानीय नागरिकों ने असम में बसने वाले सभी बंगालियों को विदेशी कहकर बाहर निकालने की मांग शुरू कर दी और कुछ ही वर्षों बाद यह घृणित आंदोलन सांप्रदायिक रुख अख्तियार कर गया क्योंकि ज्यादातर बंगाली बोलने वाले नागरिक मुसलमान थे। 1979 में पहले ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन और बाद में असम गण परिषद नामी संगठनों ने काफी हिंसात्मक आंदोलन चलाए। राज खोवा ने अपनी रिहाई के बाद कहा कि जब तक इनके सभी साथी रिहा नहीं हो जाते तब तक बातचीत शुरू नहीं हो सकती। भारत सरकार के नरम रुख को देखते हुए ऐसा लगने लगा है कि जल्द ही अन्या नेता भी रिहा हो जाएंगे और असम समस्या का कोई राजनीतिक हल निकलेगा। उल्फा की ओर से बातचीत की मेज पर आने के बाद देशवासी कश्मीरी चरमपंथियों से भी यही आशा करते हैं कि वह बन्दूक छोड़कर बातचीत की मेज पर आने के सिलसिले में पहल करेंगे ताकि साउथ एशिया के इस अहम क्षेत्र में पूर्ण रूप से शांति व्यवस्था स्थापित हो सके। दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `श्रीकृष्णा कमेटी की रिपोर्ट की रोशनी में आंध्र प्रदेश में राजनैतिक संकट' में लिखा है कि पृथक तेलंगाना राज्य की स्थापना के सवाल पर इस समय आंध्र प्रदेश में जबरदस्त राजनैतिक भूचाल मचा हुआ है और सरकार अन्दर से डरी हुई है कि यह मामला हाथ से बेहाथ न हो जाए। 1953 में जब जस्टिस फजल अली की अगुवाई में राज्यों के पुनर्गठन का आयोग बनाया गया तो उस समय भी तेलंगाना का मसला खड़ा हुआ था। उस समय राज्य के एक वर्ग ने संयुक्त आंध्र प्रदेश के हक में राय दी थी जिस पर प्रजा राज्यम, सीपीआईएम और मज्लिस इत्तेहादुल मुसलमान आज भी कायम हैं। इसी के साथ पृथक तेलंगाना राज्य की मांग भी उठी थी।
इतना तो तय है कि श्रीकृष्णा रिपोर्ट पर विभिन्न पार्टियों की ओर से भिन्न और एक दूसरे के विपरीत प्रतिक्रिया सामने आएंगी। ऐसे में कोई स्पष्ट फैसला करना केंद्र के लिए एक टेढ़ी खीर साबित होगा। यदि सरकार पृथक तेलंगाना की मांग मान लेती है तो कांग्रेस निश्चित रूप से दो भागों में विभाजित हो जाएगी और विद्रोही कांग्रेसी में जगन रेड्डी की स्थिति मजबूत हो जाएगी। पृथक तेलंगाना राज्य के हक में फैसला देश के विभिन्न भागों में छोटे राज्यों की मांग को समर्थन मिलेगा। कांग्रेस एक तूफानी संकट से गुजर रही है। देखना है कि वह इस संकट से कैसे उबरती है। `इंसाफ की डगर' मैं दैनिक `हमारा समाज' ने लिखा है कि 18 वर्ष बाद मुंबई दंगों के 10 मुस्लिम युवक बरी हो चुके हैं लेकिन यह अपने पीछे कई ऐसे सवाल छोड़ गई है जिनका हर दिमाग में आना स्वाभाविक है। सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह है कि 18 वर्ष बाद ऐसे मुकदमे का फैसला आया है जो प्रथमदृष्टि में पुलिस पक्षपात को जाहिर कर रहा था। इसलिए कि गवाह कोई और नहीं बल्कि कुरला पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर शिंदे और इनके सहायक थे। दोनों के बयानात में विरोधाभास पाया जा रहा था और सुबूत के तौर पर ऐसी चीजें पेश की गईं जो बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं। मतलब यह है कि पुलिस की फर्जी कहानी पहले दिन से उजागर थी फिर भी इतने लम्बे समय के बाद फैसला क्यों आया, आश्चर्यजनक है। 18 वर्ष में एक बच्चा जवान, जवान बूढ़ा और बूढ़ा मौत की दहलीज पर पहुंच जाता है। बहरहाल 18 वर्ष बाद ही सही मुस्लिम युवाओं की बेगुनाही साबित हो गई, पुलिस की भेदभाव वाली भूमिका और मुस्लिम दुश्मनी उजागर हो गई। इस मुकदमे में यह तीन पहलू विचारणीय हैं। हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `पुलिस प्रशासन में सुधार' में लिखा है। कनाडा में उच्च पद पर भारतीय मूल के टोरंटो पुलिस बोर्ड चेयरमैन आलोक मुखर्जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है कि भारतीय पुलिस प्रशासन में तेजी के साथ सुधार स्वयं भारत के हित में है। उन्होंने भारतीय पुलिस शासन को उपनिवेशवाद (अंग्रेजों) शासकों का बरसा करार देते हुए कहा कि उपनिवेशवाद शासन जनता को अपना दुश्मन समझते थे। इसलिए पुलिस फोर्स को उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जाता था। उन्होंने कहा कि भारतीय पुलिस राजनेताओं के अधीन है और इस तरह की पुलिस कार्यवाहियों पर रोक लगा देनी चाहिए। उन्होंने भारतीय पुलिस अधिकारियों को अच्छा व्यवहार न करने और कांस्टेबल की कम पगार को पुलिस विभाग में घूस का कारण बताया। भारतीय पुलिस व्यवस्था में सुधार निश्चय ही देश एवं कौम के हित में होगा। यदि पुलिस फोर्स को राजनैतिक शासकों के प्रभाव से आजाद कर दिया जाता है तो देश में 60 साल से अधिक समय से जारी भ्रष्टाचारी पर रोक संभव है। क्योंकि भ्रष्टाचार में लिप्त राजनेता/शासकों को अपने खिलाफ पुलिस कार्यवाही का डर पैदा हो जाएगा, यही वह मोड़ है जहां से भ्रष्टाचार के खात्मे के शुरुआत होगी। दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `मुस्लिम वोट की जंग' के शीर्षक से लिखा है कि बिहार के बाद अब उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट की जंग छिड़ गई है। विधानसभा चुनाव के दिन जैसे-जैसे करीब आ रहे हैं यह जंग तेज होती जा रही है। सवाल यह नहीं कि यह जंग किस-किस रूप में सामने आ रही है और चुनाव का समय करीब आने पर क्या गुल खिलाएगी? सवाल यह भी है कि इस जंग में खुद मुसलमान कहां खड़े हैं और क्या वह सिर्प मैदान जंग या इस्तेमाल ही होते रहेंगे? मुस्लिम नेताओं व कार्यकर्ताओं की भूमिका केवल शतरंज के मोहरों और बादशाह के सिपाहियों की ही रहेगी या फिर वह सियासी पार्टियों की इस जंग से कोई फायदा भी उठाएंगे? इनकी अपनी आवाज भी जगह हासिल कर सकेगी और इनका नेतृत्व भी अपनी भूमिका निभा सकेगी? राज्य में हर वर्ग और हर जाति की सियासत और उसका रुख स्पष्ट है। यादव मुलायम के साथ हैं।
ब्राह्मण राजपूत, भाजपा और कांग्रेस में विभाजित हैं। बनिये, कायस्थ, भूमिहार और अन्य जातियां भाजपा के साथ हैं, जाट अजीत सिंह के साथ हैं। हिन्दुओं की अन्य जातियों की भी अपनी पार्टी है। ले-दे कर केवल मुसलमान मुफ्त माल हैं। इसलिए उन पर हर तरफ से जाल डाला जा रहा है लेकिन मुसलमान है कि हल्के फुल्के दाने या फिर भावुक नारों में आ जाते हैं। जब तक वह अपने आपको नहीं बदलते, वह खुद ठोस समस्याओं और विकास एवं सत्ता में साझेदारी के एजेंडे पर नहीं आते, मुस्लिम वोट की जंग सकारात्मक रुख अख्तियार नहीं कर सकती।

Monday, February 7, 2011

करकरे की हत्या, सच्चाई सामने आनी चाहिए

कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह द्वारा हेमंत करकरे से मौत से पूर्व बात करने सहित अमेरिकी दबाव में संधि एवं चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा, आशाएं और जैसे अनेक मुद्दों को उर्दू अखबारों ने चर्चा का विषय बनाया है।

दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `दिग्विजय सिंह की कथनी और खंडन' के तहत लिखा है कि जिस तरह यह चर्चा का विषय बना हुआ है वह बहुत अफसोसजनक है। उन्होंने चंद दिन पूर्व नई दिल्ली के इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में एक सम्मेलन में भाषण देते हुए यह रहस्योद्घाटन किया था कि हेमंत करकरे ने अपने कत्ल से सिर्प दो घंटे पूर्व फोन पर उनसे बात की थी और बताया था कि वह बेहद परेशान हैं और गंभीर परिणाम भुगतने की धमकियां दी जा रही हैं। उन्होंने कहा था कि षड्यंत्र करना और झूठे प्रचार करना आरएसएस के लोगों की पुरानी आदत है। यह किताब के लोकार्पण पर आयोजित गोष्ठी थी और जिस किताब का उन्होंने विमोचन किया उसका नाम है। `आरएसएस की साजिश 26/11?' उनका यह बयान अगले दिन केवल उर्दू समाचार पत्रों में स्थान पा सका था लेकिन उसके चार दिन बाद जब एक अंग्रेजी दैनिक ने इनके इस बयान को पहली खबर बना दी तो हंगामा हो गया और अब कांग्रेस यह कह कर अपना दामन बचा रही है कि यह उनका व्यक्तिगत बयान है इससे जार्टी का कुछ लेना-देना नहीं है। वहीं स्वयं दिग्विजय सिंह सफाई दे रहे हैं कि मैंने यह कब कहा कि करकरे के कत्ल में उन ताकतों का हाथ है जो मालेगांव बम धमाके की तहकीकात से परेशान थे। मैंने तो केवल यह कहा है कि करकरे से इस दिन मेरी बात हुई थी और वह बहुत परेशान थे। वह अब इससे भी इंकार कर रहे हैं कि करकरे ने उनको फोन किया था। कह रहे हैं कि मैंने करकरे को फोन किया था। सवाल यह है कि जब अपनी बातचीत के बारे में इतने दिनों तक मौन रहे, कभी जरूरत नहीं समझी कि इसका रहस्योद्घाटन करें तो फिर इतने सनसनी अंदाज में आज इसका जिक्र करने की जरूरत क्यों पेश आ गई? वह अब कह रहे हैं कि न ही इस वारदात समझा जाए? क्या है जो 6 दिसम्बर के दिन इस कार्यक्रम में भारी संख्या में मौजूद थे।

`हेमंत करकरे की मौत' पर दैनिक `सियासत' ने अपने संपादकीय में लिखा है कि मुंबई हमलों के समय करकरे की मौत से ही कई सवाल उठने लगे थे। यह सवाल किया जा रहा था कि इतने गंभीर आतंकवादी हमलों के स्थान पर करकरे और उनके साथी किसी सूचना के बिना अचानक क्यों पहुंच गए? उनकी जैकेट भी लापता हो गई थी। यह वह सवालात थे जो उस समय उठे थे लेकिन तब उनको जुबान नहीं मिल सकी। अब कांग्रेस के एक जिम्मेदार महासचिव दिग्विजय सिंह ने स्वयं यह संदेह व्यक्त किया है कि हिन्दू आतंकवादी संगठन करकरे की मौत के जिम्मेदार हो सकते हैं क्योंकि इन संगठनों से खतरे की बात स्वयं करकरे ने बताई थी। दिग्विजय सिंह के रहस्योद्घाटन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस समय दुनिया भर में तहलका मचाने वाले वीकीलेक्स के रहस्योद्घाटन से यह सच्चाई सामने आई है कि कांग्रेस पार्टी ने मुंबई में हुए आतंकवाद हमलों के बाद धार्मिक राजनीति की है। जबकि दिग्विजय सिंह की तरह वीकीलेक्स दस्तावेजों में किए गए रहस्योद्घाटन को भी बेबुनियाद करार देते हुए उन्हें नजर अंदाज किया जा रहा है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि इस पूरे घटना की सच्चाई को सारी हिन्दुस्तानी कौम के सामने लाया जाए। सच्चाई को सामने लाने के लिए केंद्र और महाराष्ट्र दोनों ही सरकारों को इन आरोपों की छानबीन का आदेश देना चाहिए।

दैनिक `उर्दू टाइम्स' ने `हेमंत करकरे पर राजनीति अफसोसनाक' में लिखा है कि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि करकरे ऐसे ईमानदार अधिकारी साबित हुए हैं जिन्होंने बम धमाके के आरोपियों को बेनकाब किया और पहली बार हिन्दू आतंकवादियों को मालेगांव बम धमाके में लिप्त होने के आरोप में गिरफ्तार किया था जिसके कारण भगवा संगठन हेमंत करकरे की मुखालिफ हो गई। यदि हेमंत करकरे के दिमाग में हिन्दू-मुस्लिम की भावना होती तो यह संभव नहीं था। वह एक सेकुलर और मजबूत इरादों के मालिक थे। उन्होंने कभी हिन्दू बनकर काम नहीं किया बल्कि एक सच्चे और ईमानदार अधिकारी के तौर पर काम किया और इसी में है वह सही नहीं है। नेताओं को इस तरह की बयानबाजी से करना चाहिए ताकि आम आदमी के शरीर पर लगे जख्म ठीक हो सकें।

`अमेरिका के दबाव में संधि' के तहत दैनिक `सहाफत' ने लिखा है कि मीडिया विशेषकर अंग्रेजी मीडिया को जब यह पता चलता है कि कोई काम अमेरिकी दबाव में आकर किया गया है तो उसकी तेजी खत्म हो जाती है, तेवर नरम पड़ जाते हैं और हाथ-पांव ठंडे पड़ जाते हैं। यही कारण है कि तुर्पमानिस्तान से गैस पाइप लाइन पर कोई चर्चा तो दूर उसे कोई महत्व भी देने की जरूरत नहीं समझी गई। यदि यही संधि ईरान से हुई होती तो चारों तरफ चेतावनी और खतरे वाले भोंपू बजने लगते। अब एक और खबर आई है जो इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसका प्रभाव छोटे-छोटे उद्योगों पर भी पड़ सकता है। भारत में बहुत से ऐसे छोटे-छोटे उद्योग हैं जिनमें कोयले का इस्तेमाल किया जाता है और कोयले के इस्तेमाल की वजह से बड़ी संख्या में कार्बन डाई आक्साइड निकलती है। इसी आधार पर भारत इस संधि पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर रहा था। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश इसी आश्वासन के साथ कानकुन गए थे लेकिन वहां पहुंचकर उन्होंने भाषण के बीच अपना लहजा बदल दिया जिससे अंदाजा हुआ कि उन्होंने अमेरिकी दबाव कुबूल कर लिया है। राष्ट्रपति बराक ओबामा शुरू से कह रहे थे कि भारत को इस संधि पर हस्ताक्षर करना ही होगा। जयराम रमेश के बदले लहजे पर यहां के राजनैतिक हलकों और मीडिया में काफी हंगामा हुआ, लेकिन अब वही समाचार पत्र जो कल तक ऐसी किसी संधि के खिलाफ थे, अब अपने संपादकीय धारा हमें यह समझा रहे हैं कि स्वास्थ्य और पर्यावरण आर्थिक उन्नति से ज्यादा अहम है।

इसलिए यदि यह संधि हो जाती है तो हमें इस संधि का विरोध नहीं करना चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि पर्यावरण की बेहतरी हम सबके हित में है लेकिन इसके लिए जरूरी है कि कोयले की मदद से चलने वाले उद्योगों को विकल्प दिया जाए, अन्यथा यह उद्योग दम तोड़ देंगे। शायद यही कारण है कि स्टाक एक्सचेंज के विशेषज्ञ सुझाव देने लगे हैं कि छोटे उद्योगों के शयेर न खरीदे जाएं।

`राष्ट्रीय सहारा' ने चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा ः आशा एवं संभावनाएं में लिखा है कि भारत-चीन संबंधों के लिए कभी गर्म और कभी नरम की शब्दावली का इस्तेमाल किया जाए तो गलत न होगा। चीनी प्रधानमंत्री 400 व्यापारियों का एक बड़ा प्रतिनिधि मंडल अपने साथ लेकर आ रहे हैं और वह भारत-चीन कंपनियों के बीच बिजली से लेकर दवाओं के विभिन्न क्षेत्रों में 20 अरब डालर के 45 से अधिक व्यापारिक समझौते के इच्छुक हैं। दोनों देशों के नेतृत्व को जनता के संपर्प को बढ़ावा देना चाहिए और सीमा विवाद के स्वीकार हल तलाश करने में गंभीरतापूरक कोशिश करनी चाहिए।

`जेपीसी और आरएसएस का आतंकवाद सिक्के के दो रुख'

बीते सप्ताह जहां 2जी स्पेक्ट्रम और महंगाई का मुद्दा छाया रहा वहां अजमेर बम धमाके के आरोपी स्वामी असीमानंद का इकबालिया बयान सभी मुद्दों पर हावी पड़ गया और इकबालिया बयान के विभिन्न पहलुओं की समीक्षा का सिलसिला शुरू हो गया है। पेश है इस बाबत उर्दू अखबारों की राय।

हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `एतमाद' ने `जेपीसी और आरएसएस का आतंकवाद एक सिक्के के दो रुख' के शीर्षक से लिखा है। आरएसएस का आतंकवाद जैसे-जैसे बेनकाब होने लगा है और आतंकवाद में लिप्त इसके नेता गण इकबाले जुर्म करने लगे हैं। 2जी स्पेक्ट्रम की ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी (जेपीसी) द्वारा कराने की जांच के लिए भाजपा की मांग जोर पकड़ती जा रही है। महसूस यह होता है कि आरएसएस का आतंकवाद और जेपीसी के लिए भाजपा की मांग में कोई आपसी संबंध है। आरएसएस नेताओं को जो आतंकवाद में लिप्त हैं। भाजपा कानून के शिकंजे से छुटकारा दिलाना चाहती हैं ताकि `हिन्दू राष्ट्रभक्त' आरएसएस का शरीर जो खून से भरा है है उसे दूध से नहलाया जा सके। गोहाटी में भाजपा कार्यकारिणी में पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने जिस भाषा का प्रयोग किया है वह यह जाहिर करता है कि आरएसएस को आतंकवाद के आरोप से मुक्ति दिलाने के लिए भाजपा सरकार से सौदेबाजी करना चाहती है। असम में गडकरी ने मक्का मस्जिद और समझौता एक्सप्रेस धमाकों के बारे में असीमानंद के रहस्योद्घाटन को सोनिया और राहुल गांधी के संरक्षण में एक षड्यंत्र करार दिया और कहा कि 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले से ध्यान हटाने के लिए हिन्दू आतंकवाद का हव्वा खड़ा किया जा रहा है और जो भी हो रहा है, वह सोनिया और राहुल गांधी का षड्यंत्र है।

`हिन्दू आतंकवाद का नेटवर्प' के तहत दैनिक `सियासत' ने लिखा है। भारत में हिन्दू आतंकवाद के विषय पर संघ परिवार ने खुद को पाक साफ और राष्ट्रीय होने का दावा किया था। संघ परिवार के सभी छोटे-बड़े कार्यकर्ता भारत को अपनी जागीर समझते हुए अन्य नागरिकों विशेषकर अल्पसंख्यकों को निशाना बनाते हुए अपना दबदबा कायम करने की कोशिश की। सरकार की आंख में धूल झोंक कर आतंकवादी हमलों का आरोप अल्पसंख्यकों के सिर थोपने में सफल हुआ। इस घटना से कई मुस्लिम बच्चे जेल में हैं और उनका भविष्य अंधकारमय बन चुका है। मक्का मस्जिद बम धमाके में खुफिया एजेंसियों की कार्यवाहियों ने संघ परिवार के काले चेहरे को बेनकाब कर दिया है। मक्का मस्जिद के आरोपी असीमानंद के इकबाले जुर्म के साथ यह सच्चाई भी उजागर हुई है कि आतंकवाद गतिविधियों के पीछे संघ परिवार का बड़ा नेटवर्प काम कर रहा है। देश में आतंकवाद फैलाने और भय के साथ-साथ मुसलमानों को संदिग्ध बनाने के लिए एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत नेटवर्प सक्रिय है। मस्जिस्ट्रेट के सामने भारतीय दंड संहिता की धारा 164 के तहत कलमबंद बयान में असीमानंद ने संघ परिवार के हिन्दुत्व आतंकवादी नेटवर्प को बेनकाब किया है तो सरकार का यह दायिव है कि इस मामले में पूरी जांच कर संघ परिवार पर पाबंदी लगाए।

सह रोजा `दावत' ने `आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त होने के नाम पर गिरफ्तारियों की हककीत' में लिखा है। देश की खुफिया एजेंसियों की तफ्तीश से यह राज् ा खुलने लगा है कि गत कुछ वर्ष से देश के अंदर जो आतंकी गतिविधियां हुई हैं उन सबके पीछे सलमानों का हाथ नहीं था। न केवल उन्हें रिहा कर दिया जाना चाहिए बल्कि इनकी इज्जत पर जो दाग लगा है उसको धोने की भी व्यवस्था की जानी चाहिए एवं उन्हें उचित मुआवजा भी दिया जाना चाहिए ताकि वहअपना भविष्य संवार सकें। `खबरो नजर' के अपने स्तंभ में परवाज रहमानी ने `दो बिन्दु विचारणीय हैं' के शीर्षक से लिखा है। असीमानंद के इस बयान की मूल प्रति मीडिया को पुलिस ने उपलबध कराई है, अर्थात् मीडिया से स्वामी की बात सीधे तौर पर नहीं हुई है अन्यथा शायद और भी बहुत विस्तृत विवरण सामने आता। लेकिन जो कुछ बताया गया है वह भी अत्यंत महत्वपूर्ण और कई पहलुओं से विचारणीय है। दो बिन्दु विशेष तौर पर विचारणीय हैं। (1) कलीम का प्रशंसीय कार्य जो निश्चिय ही उसके मुस्लिम पारिवारिक पृष्ठभूमि का नतीजा था। इस कार्य ने स्वामी के सामने दावते हक (सत्यता) का काम किया। (2) एक कट्टर स्वामी का हृदय जिससे यह हकीकत उजागर थी कि हर व्यक्ति के हृदय में कहीं न कहीं मानवता, शराफत और अल्लाह से डर छिपा होता है जो किसी भी घटना के नतीजे में उभकर सामने आ सकती है। अभी पूरे विश्वास से कुछ नहीं कहा जा सकता कि स्वामी असीमानंद का यह इकबालिया बयान आने वाले दिनों में क्या रूप लेगा, क्या रंग लाएगा। हृदय स्वामी को अपने बया न पर कायम रहने देगा या आंतरिक दबाव अपना काम कर जाएगा। इसके बावजूद (1) यह घटना अपनी तरह की पहली घटना नहीं है। (2) `मुस्लिम आतंकवाद' के शोर में यह बयान बहरहाल अच्छा काम करेगा चाहे इसे दबाने या नजरंदाज करने की कितनी ही कोशिशें की जाएं। स्वामी के वकील ने बयान का खंडन करने की कोशिश की है लेकिन खंडन से सच्चाई का पहलू निकल रहा है।

दिल्ली, कोलकाता और रांची से एक साथ प्रकाशित होने वाले दैनिक `अखबारे मशरिफ' में डॉ. परवेज अहमद `असीमानंद का इकबालिया जुर्म ः वास्तविकता का द्योतक' में लिखते हैं। पाप का घड़ा भर कर फूट पड़ता है अब पता नहीं आतंकवाद के मामलों में गिरफ्तार असीमानंद के इकबालिया बयान से हिन्दू आतंकवादी और उसके संरक्षणकर्ताओं के पापों का घड़ा भर चुका है या सेकुलरिज्म के नाम पर सांप्रदायिकता के पापों को दूध पिलाने वालों का घड़ा फूट रहा है लेकिन यह तो तय है कि भगवा आतंकवादी और आरएसएस के संबंध में स्वामी असीमानंद के इकबालिया बयान से खुल रहा है कि हमलों के लिए इन्द्रsश कुमार प्रचारकों का चयन और आर्थिक सहायता उपलब्ध कराता था। सेकुलरिज्म के हंगामे के दौरान अक्सर सुनता रहा हूं कि सरकार सांप्रदायिकता को बर्दाश्त नहीं करेगी लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है।

Sunday, February 6, 2011

`कांग्रेस की नई मुस्लिम रिझाऊ नीति'

बीते कांग्रेस अधिवेशन की गतिविधियों और दिग्विजय सिंह के बयान पर बढ़ता वाद-विवाद, चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा सहित 2जी स्पेक्ट्रम मामले पर ए. राजा की बढ़ती मुसीबतें, भाजपा अध्यक्ष नीतिन गडकरी का अपनी टीम के साथ इस्राइल भ्रमण एवं बढ़ती महंगाई जैसे अनेक मुद्दे उर्दू समाचार पत्रों में छाये रहे।

`कांग्रेस का दूरगामी और साहसी कदम' के तहत दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने लिखा है। सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, आतंकवाद एवं नक्सली व माओ हिंसा कुछ ऐसी समस्याएं हैं जिनके कारण हमारी उन्नति और खुशहाली को ब्रेक लग गया है। यह हमारी राष्ट्रीय एकता एवं सद्भाव को भी जहरीले नाग की तरह डस रहा है। कोई भी देश विकास की सीढ़ी पर चढ़कर खुशहाल तभी हो पाता है जब देश में शांति व्यवस्था, आपसी भाईचारा और राष्ट्रीय एकता एवं सद्भाव का वातावरण बना रहे। इसे हम अपने देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि सरकार के हजार प्रयासों के बावजूद कुछ भ्रष्ट एवं अपना हित साधने वाले सांप्रदायिक तत्व कानून की कमियां एवं लोकतांत्रिक व्यवस्था के तहत नागरिकों को प्राप्त अधिकारों का फायदा उठाकर लोगों के दिलों में धार्मिककरण एवं सांप्रदायिकता का जहर घोलकर देश को हिंसा और बर्बादी की ओर ले जाने के इच्छुक हैं। दिल्ली में कांग्रेस के 83वें अधिवेशन में पार्टी ने न केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का बिगुल बजाया है बल्कि संघ और भाजपा पर देश को तोड़ने का आरोप लगाते हुए इनसे सतर्प रहने और अपने कार्यकर्ताओं एवं उच्चाधिकारियों से पूरी ताकत से इनका मुकाबला करने की अपील भी की है।

`मुसलमानों को अब संरक्षण एवं विकास दोनों चाहिए' में जफर आगा ने लिखा है कि कांग्रेस अधिवेशन ने संघ परिवार के खिलाफ जो बयानात और प्रस्ताव पारित किए हैं वह स्वागत योग्य हैं, लेकिन सवाल यह है कि कांग्रेस पार्टी आरएसएस के सभी षड्यंत्रों के खिलाफ सत्ता में आने के 6-7 वर्षों के बाद ही क्यों सक्रिय हो रही है? क्या कारण है कि उसके खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर एक राजनैतिक मुहिम की जरूरत है?

कांग्रेस की यह नई मुस्लिम रिझाऊ (तुष्टिकरण) रणनीति यदि बयानबाजी की हद तक ही सीमित रहती है तो इसमें कांग्रेस को तो शायद कुछ फायदा हो जाए लेकिन मुस्लिम हित में कुछ नहीं होने वाला है। सभी आतंकवादी कार्यवाहियों में जो बेगुनाह मुस्लिम युवक पकड़े गए हैं वह आज भी जेल में बन्द हैं।

इन मासूमों को तुरन्त रिहाई मिलनी चाहिए। सरकार को इस सिलसिले में आतंकवादी घटनाओं के नए पुराने सभी मामलों की छानबीन करके मुस्लिम आतंकवाद का जो झूठा हव्वा खड़ा किया गया है उसको तुरन्त खत्म करना चाहिए।

हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `सियासत' ने कांग्रेस और हिन्दुत्व में लिखा है। भारत में पिछले दो दशकों से या कुछ अधिक से हिन्दुत्व ने जोर पकड़ना शुरू किया था। आरएसएस ने सबसे पहले हिन्दुत्व के समर्थन में मुहिम चलानी शुरू की जिसे बाद में राजनीति के मैदान में भाजपा ने आगे बढ़ाया। इसके बाद दूसरे संगठनों जैसे विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, हिन्दू महासभा और इसी तरह के अन्य छोटे-मोटे संगठनों ने हिन्दुत्व को आगे बढ़ाने का काम शुरू किया। गत दिनों इस संबंध में अभिनव भारत नामी संगठन का नाम भी सामने आया। इस पूरी प्रक्रिया में यह बात महसूस की जा सकती है कि भारत में हिन्दुत्व को सियासी घाटे में एक जगह मिल गई है। भाजपा द्वारा शुरू किए गए हिन्दुत्व मुहिम को अन्य संगठनों ने भी अख्तियार किया लेकिन उनका तरीका और अंदाज अलग था। भाजपा ने खुलेआम हिन्दुत्व की पैरवी की लेकिन अन्य संगठन इस मामले में भाजपा की बराबरी नहीं कर सकती कुछ नीतियों में अवश्य ही हिन्दुत्व को ध्यान में रखा गया। इन संगठनों में अब कांग्रेस भी शामिल होती नजर आती है क्योंकि इसने धीरे-धीरे हिन्दुत्व अख्तियार किया है। इसका रहस्योद्घाटन न केवल मीडिया द्वारा किया जाता रहा है बल्कि विकिलीक्स द्वारा उजागर किए गए दस्तावेज से भी होता है।

दिग्विजय सिंह और राहुल गांधी के रहस्योद्घाटन पर पार्टी ने जो दृष्टिकोण अख्तियार किया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि पार्टी की रणनीति यह नहीं बल्कि इससे अलग है। पार्टी दोनों के बयान को निरस्त कर रही है लेकिन वह राहुल या दिग्विजय सिंह, दोनों में से किसी एक के बयान की जांच की मांग नहीं करती और न ही इसकी मांग करने वालों का समर्थन करती है। यही दृष्टिकोण इस व्यवहार को संदेह पैदा करने के लिए काफी है। कांग्रेस पार्टी को यह समझ लेना चाहिए कि हिन्दुत्व चाहे वह `नरम' हो `कट्टर', हिन्दुस्तानी समाज, हिन्दुस्तानी जनता और हिन्दुस्तान के भविष्य के लिए ठीक नहीं है और इससे स्वयं कांग्रेस पार्टी के भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह लग सकता है।

`प्याज की मार' में दैनिक `हमारा समाज' ने लिखा है कि शरद पवार ने बहुत आसानी के साथ यह कह दिया कि अगले कई सप्ताह तक प्याज की कीमत सामान्य मूल्य पर नहीं आएगी अर्थात् जानबूझ कर इतना माल एक्सपोर्ट कर दिया गया कि अचानक प्याज की कीमत आसमान छूने लगी जबकि वर्तमान मौसम में सभी सब्जियों की कीमत गत वर्षों कम हुआ करती थीं। सब्जियों के मौसम में इतनी महंगाई समझ से परे हैं। इसके कारण लोगों को सोचने पर मजबूर होना पड़ रहा है कि सरकार की सोचे-समझे षड्यंत्र के कारण महंगाई का यह हाल है। पेट्रोल और डीजल की कीमतों का फैसला करने को कम्पनियों को पूरी तरह छूट दे गई है। केंद्र को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। इस पर जल्द काबू नहीं पाया गया तो आने वाले दिन इसे सख्त हालात से जूझना पड़ेगा जिसका प्रभाव कई राज्यों में होने वाले चुनाव पर निश्चय ही पड़ेगा। बिहार के नतीजों से सरकार को सबक लेना चाहिए।

ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल ने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के इस्राइल दौरे पर संदेह व्यक्त करते हुए कहा है कि कहीं उनका यह दौरा भारत में आतंकवाद में लिप्त पाए जाने वाले हिन्दुत्व तत्वों को राहत दिलाने से संबंधित तो नहीं है? काउंसिल के अनुसार यह सवाल इसलिए उठता है कि गत कुछ वर्षों से इन तत्वों द्वारा जिस तरह आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है, उनका तरीका वही है जिसका इस्तेमाल इस्राइल, फलस्तीन के खिलाफ करता है। काउंसिल महासचिव डॉ. मोहम्मद मंजूर आलम ने अपने बयान में कहा कि यहां की गोपनीय एजेंसियों के कुछ ईमानदार अधिकारियों ने अपने फर्ज का निर्वाह करते हुए हिन्दुत्व तत्वों को बेनकाब कर दिया है जिसके कारण यह बुरी तरह जाल में फंस गए हैं और अब इससे बाहर निकलने की तरकीब मालूम करने के लिए इस्राइल गए हैं एवं क्या उनका यह दौरा मुसलमानों को फंसाने के लिए कोई नया फार्मूला हासिल करने से संबंधित तो नहीं है।

...लेकिन सारे आतंकवादी संघी क्यों हैं?

बीते सप्ताह की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक घटनाओं को परम्परानुसार उर्दू अखबारों ने चर्चा का विषय बनाया है। इसके बावजूद वहां भाजपा के दो दिवसीय सम्मेलन सहित सारे आतंकवादी संघी क्यों हैं, बम धमाकों की जांच के लिए विशेष ट्रिब्यूनल की मांग और कश्मीर में फौज की कमी करने जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दी गई है। पेश है इस बाबत उर्दू अखबारों की राय।

हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक सियासत में फैसल जाफरी ने भाजपा का दो दिवसीय सम्मेलन ः नकारात्मक राजनीतिक का शानदार प्रदर्शन में लिखा है। भाजपा ने बजट अधिवेशन से पहले कांग्रेस पर दबाव डालने के उद्देश्य से अपने दो दिवसीय सम्मेलन की घोषणा कर दी। यह सम्मेलन गत दिनों गोहाटी असम में आयोजित हुआ है। हमने बिना कारण इसे नकारात्मक राजनीति का प्रदर्शन नहीं कहा है। होना यह चाहिए था कि अपने दो दिवसीय सम्मेलन में भाजपा खुद को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर पेश करती। पार्टी नेता जनता को बताते कि उनके पास देश विकास की कौन सी योजनाएं हैं। सत्ता में आने की सूरत में वह देश की 70 फीसदी जनता को गरीबी, अज्ञानता और भुखमरी से मुक्ति दिलाने के लिए क्या करना चाहते हैं।

लेकिन गोहाटी सम्मेलन में इस तरह की कोई बहस नही हुई, हां, तीन बातों पर विशेष ध्यान दिया गया। भ्रष्टाचार, सोनिया गांधी का व्यक्तित्व और नेतृत्व एवं महंगाई भ्रष्टाचार निश्चय ही एक गंभीर मसला हैं। भाजपा इस भ्रम में है कि इस मामले पर वह कांग्रेस को लोकसभा भंग करने और नए चुनाव कराने पर विवश कर सकती है आडवाणी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि वर्तमान सरकार ज्यादा समय तक नहीं चल सकती, आप लोग चुनाव की तैयारी कीजिए। जो बात वह नहीं कह सके कि वह बहुत जल्द भारत के प्रधानमंत्री बनने वाले हैं। इससे हटकर हमें अच्छी तरह याद है कि जो बात आडवाणी ने गोहाटी में कही बिल्कुल वही बात अटल बिहारी वाजपेयी ने जनवरी 2006 में मुंबई में भाजपा अधिवेशन में कही थी राजनाथ सिंह को नया अध्यक्ष मनोनीत किया गया था। जहां तक भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी का संबंध है वह दो चार भोंडे शब्दों का इस्तेमाल किए बिना भाषण नहीं दे सकते। उन्होंने सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए कहा, वाह रे राजा, कांग्रेस का बजाया बाजा। स्पष्ट रहे कि यह भाषा राजनीतिक नेताओं की नहीं मुंबई की सड़कों पर आवारागर्दी करने वाले युवाओं की हो सकती है जिसे स्थानीय भाषा में टपोरी कहा जाता है।

दैनिक मुनसिफ ने जनता समर्थन की प्राप्ति के लिए पहले के शीर्षक से लिखा है। 2जी स्पेक्ट्रम में राजा, कामनवेल्थ खेलों में कलमाड़ी और आदर्श सोसायटी में अशोक चौहान से किनारा करके केंद्र और कांग्रेस ने खुद का दामन साफ रखने की कोशिश तो की है लेकिन दो दशक पूर्व बोफोर्स दलाली वाले मामले में इन्कम टैक्स ट्रिब्यूनल के फैसले ने तो सब कुछ बेनकाब कर दिया है। सरकार और कांग्रेस शुरू से कहती रही है कि बोफोर्स सौदे में न तो मध्य व्यक्ति या और न ही कमीशन दिया गया लेकिन जब केंद्रीय सरकार के ही एक प्रतिष्ठित संस्था ने कहा कि बोफोर्स सौदे में बिन चड्ढा को कमीशन मिला है लेकिन उन्होंने नियम के अनुसार इसका टैक्स नहीं दिया। इस रहस्योद्घाटन पर जिस तरह केंद्र सरकार ने कोई पहल नहीं की और सीबीआई अदालत में मामला बन्द करने की अपील पर कायम रही है, इससे साफ है कि पालिसी और नीयत भ्रष्टाचार रोकने की नहीं बल्कि उनके बचाव की है। ऐसे में निश्चय ही भ्रष्टाचार यदि सबसे अहम नहीं तो कमरतोड़ महंगाई के सामने मसला जरूर बनना चाहिए। वर्तमान में महंगाई और भ्रष्टाचार दो ऐसे मुद्दे हैं जो किसी भी राजनीतिक पार्टी के एजेंडे में सर्वप्रथम होने चाहिए। लेकिन इसके लिए जरूरी है कि उसका दामन साफ हो, दुर्भाग्य से भाजपा इस कसौटी पर खरी नहीं उतरती। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की बाकी का तार कोल घोटाला तो पुराना हो गया, लेकिन कर्नाटक में मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा का जमीन घोटाला और इनकी सरकार में शामिल रेड्डी भाइयों का माफिया तो ताजा मामला है जिसे भाजपा हाई कमान नजरंदाज करने के अलावा कुछ नहीं कर पा रही है। भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा की मुहिम को जनता का समर्थन तभी मिलेगा जब वह पहले अपने दामन को बेदाग बनाए।

राष्ट्रीय सहारा में सईद हमीद ने लेकिन सारे आतंकवादी संघी क्यों हैं? के शीर्षक से लिखा है कि इन सभी बम धमाकों के टारगेट कौन थे? मुसलमान या मुस्लिम इलाके या मुस्लिम उपासक स्थल, पहले राउंड में इन सभी बम धमाकों के लिए मुसलमानों को ही आरोपी ठहराया गया। वास्तव में यह हिन्दुत्व आतंकवादियों को बचाने की एक साजिश थी। विशाल परिदृश्य में देखा जाए तो हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों ने जिस तरह मुसलमानों को मारो और उन्हीं को आरोपित करने की रणनीति अपनाई थीं उस पर क्रियान्वित करने वाले दो षड्यंत्रकारियों (1) वह हिन्दुत्ववादी जो बम धमाके किया करते थे (2) वह हिन्दुत्ववादी जो इन बम धमाकों के आरोप में बेगुनाह मुसलमानों को जेलों में बन्द कर देते थे, उनको यातनाएं देते थे और हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों का आरोप अपने ऊपर लेने के लिए मजबूर करते थे। हम ने हिन्दुत्ववादियों की जिस दूसरी श्रेणी की ओर इशारा किया है, यह खाकी ड्रेस पहनते हैं, लेकिन अन्दर से यह भगवा मानसिकता में डूबे रहते हैं। इन दो वर्षों (2006-2008) में हिन्दुत्ववादी आतंकवादियों ने अपना मिशन बड़ी हद तक कामयाब कर लिया है और हर व्यक्ति मुसलमानों पर कटाक्ष करने लगा है कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं है, लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान क्यों है? आज ठाकरे, तोगड़िया, आडवाणी, मुंडे, सिंघल से यह पूछा जाना चाहिए कि सारे संघी आतंकवादी नहीं, लेकिन सारे आतंकवादी संघी क्यों हैं।

पटना से प्रकाशित साप्ताहिक नकीब ने विशेष ट्रिब्यूनल के गठन का प्रस्ताव में लिखा है। अजमेर, मक्का मस्जिद, मालेगांव बम धमाका और समझौता एक्सप्रेस पर हुए धमाकों की जांच जल्द से जल्द पूरी कर ली जाए और जो लोग इसमें लिप्त हैं उनके खिलाफ ठोस सबूत के साथ अदालत में चार्जशीट पेश कर दी जाए ताकि आतंकी सजा पा सकें। इस सिलसिले में जितनी भी देर की जाएगी इससे नुकसान का संदेह है। हो सकता है कि इस बीच सुबूत को मिटाने की कोशिश की जाए और इसी के साथ मामले को नया रुख देने की कोशिश की जाने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता। इस सिलसिले में आरएसएस अध्यक्ष मोहन भागवत के उस बयान से संकेत मिलता है जिसमें उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया है कि सरकार हिन्दुओं के पीछे पड़ी है और इसके खिलाफ तरह-तरह के आरोप लगा रही है। निश्चय ही भागवत का इशारा असीमानंद की गिरफ्तारी और उनसे पूछताछ की तरफ ही है। इस संदर्भ में इस प्रस्ताव का जिक्र करना भी जरूरी है जो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कानून विभाग की ओर से हेने वाली कांफ्रेंस में सर्वसम्मति से पारित किया गया कि 1998 से लेकर अब तक देश के विभिन्न भागों में बम धमाकों की जो घटनाएं हुई हैं, केंद्र सरकार उसकी जांच कराए और इसके लिए एक विशेष अदालती आयोग गठित करे और उसकी रिपोर्ट एवं सुझावों की रोशनी में दोषियों के खिलाफ जरूरी कार्रवाई करे।

कश्मीर में फौज की संख्या घटाने का सवाल, वादी में वातावरण उचित, अहम फैसले लिए जा सकते हैं, के तहत अखबारे मशरिक ने लिखा है। जब से केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम और प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कश्मीर के मामले में दिलचस्पी लेनी शुरू की है। वादी के हालात धीरे-धीरे बेहतर होते जा रहे हैं। पत्थर फेंकने का सिलसिला भी बन्द हो गया है जो कुछ माह पूर्व वादी की परम्परा बन गई थी। विख्यात पत्रकार और बुद्धिजीवी दिलीप पडगांवकर की अगुवाई में भारत सरकार ने कश्मीर के लिए जिन वार्ताकारों का चयन किया है वह भी अपना काम बड़ी अच्छी तरह से कर रहे हैं और लोगों से मिलकर उनका दुखदर्द बांट रहे हैं। इन हालातों में यदि घाटी में फौज में कमी की जाए तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। इससे लोगों तक यह पैगाम जाएगा कि सरकार उनकी भावनाओं से न केवल परिचित है बल्कि उसका सम्मान करते हुए ऐसी सूरत निकाली जाए कि उनके हृदय का कांटा जाता रहे। घाटी के हवाले से इस समय कुछ अहम फैसले करने का अच्छा समय है। आश्चर्य नहीं कि इससे हवा का रुख इधर से उधर हो जाए और वहां की काया पलट हो जाए।

Saturday, February 5, 2011

'बेगुनाह मुसलमानों की रिहाई का मामला'

बम धमाकों में लिप्त असीमानंद के इकबालिया बयान को लेकर उर्दू अखबारों ने सम्पादकीय लिखे और आलेख प्रकाशित किया है। इसी के साथ आरएसएस द्वारा इस दाग को मिटाने की मुहिम पर भी विशेष रूप से चर्चा की है। पेश है इस बाबत उर्दू अखबारों की राय।

हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `ऐतमाद' ने `आतंकवाद के दाग को मिटाने की आरएसएस की मुहिम' के शीर्षक से लिखा है। स्वामी असीमानंद के बम धमाकों से संबंधित इकबालिया बयान से आरएसएस को मानसिक रूप से इतना परेशान कर दिया है कि हिन्दू समाज में इस संगठन की छवि मिट्टी में मिल गई है। इसलिए अब उसने अपनी छवि सुधारने के लिए घर-घर दस्तक देने और इन धमाकों के बारे में अपनी गढ़ी हुई कहानी सुनने का फैसला किया है। आरएसएस और इसकी सहयोगी संगठनों सहित भाजपा के कार्यकर्ता बुकलेट वितरित कर यह बताने की कोशिश करेंगे कि किस तरह कांग्रेस अगुवाई वाली यूपीए सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा के नेतृत्व में संघ परिवार की मुहिम का बदला लेने के लिए प्रचारकों और स्वयंसेवकों की गिरफ्तारी और उनकी तफ्तीश द्वारा आरएसएस पर आतंकवाद का ठप्पा लगाने की कोशिश कर रही है। लेकिन आरएसएस ने तथाकथित देश प्रेम और कौम परस्ती के नाम पर दंगों द्वारा जो अराजकता फैलाई और घृणा के बीज बोए हैं उनके खिलाफ आज भी कोई इसके मुकाबले के लिए मैदान में नहीं उतर रहा है।

आरएसएस प्रवक्ता राम माधव आज अगर यह प्रचार करते हैं कि आरएसएस का आतंकवाद से कोई संबंध नहीं है और राजनीति के चलते उसे बदनाम किया जा रहा है तो दुनिया में हिन्दू धर्म की छवि गलत बन रही है। जाहिर है कि राम माधव का इस तरह का बयान हिन्दुओं को कांग्रेस सरकार से दूर कर सकता है लेकिन यदि सरकार इन बिन्दुओं को विचारणीय नहीं समझती और खुद दूसरी सेकुलर पार्टियों के साथ संघ परिवार की आतंकी गतिविधियों से जनता को अवगत नहीं कराती तो फंदा कांग्रेस के गले में पड़ सकता है।

मुंबई से प्रकाशित दैनिक `इंकलाब' में मुब्बशिर मुशताक ने `मालेगांव मामले में सीबीआई उधेड़बुन की शिकार, इसे कंफ्यूज्ड ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन भी कहा जा सकता है' के अपने आलेख में लिखा है। 17वीं सदी में ईसाई विचारधारा के मशहूर स्तम्भकार एन होसटन ने लिखा था कि कंफ्यूजन मानसिक बिगाड़ का एक संकेत है। मानसिक उधेड़बुन साफ और तुरन्त सोच को अपंग बना देती है जबकि मानसिक बिगाड़ भय और उधेड़बुन के साथ धोखे की ओर ले जाता है। इसी मानसिक बीमारी का शिकार कंफ्यूजन ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन (सीबीआई का पूरा नाम) ने 9 आरोपियों की जमानत का विरोध करते हुए इंसाफ को और पेचीदा बना दिया है। सीबीआई के वकील राज ठाकरे ने मकोका कोर्ट में एक आम कानूनी बिन्दु उठाते हुए कहा कि आरोपियों ने कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया है जिसकी बुनियाद पर जमानत अर्जी पर विचार किया जा सके, इसलिए जमानत अर्जी निरस्त की जाए। सीबीआई के इस दृष्टिकोण में `कानूनी बिन्दु' छिपा है कि केवल असीमानंद के इकबाले जुर्म की बुनियाद पर जमानत नहीं दी जा सकती लेकिन सीबीआई के पास कोई ठोस सबूत नहीं जिसकी बुनियाद पर जमानत अर्जी निरस्त करने की बात की जाए। इससे पूर्व मुंबई हाई कोर्ट में सीबीआई कह चुकी है कि इसके पास आरोपियों के संबंध में कुछ सबूत नहीं हैं।

ऐसे हालात में कांग्रेस की सियासी चालाकी उल्लेखनीय है। सभी बातें दिग्विजय सिंह से कहलाती है और दिग्विजय सिंह वह अब बातें कहने के बाद उसे `व्यक्तिगत विचार' करारे देते हैं। मुस्लिम वोट बैंक पर पकड़ के लिए यह अच्छा तरीका है। किसी भी राजनैतिक पार्टी को सेकुलरिज्म पर खरा उतरने के लिए कथनी और करनी में विरोधाभास नहीं होना चाहिए लेकिन कांग्रेस हमेशा से यही करती आई है।

`बेगुनाह मुसलमानों की रिहाई का मामला' के तहत दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने लिखा है। 2006 में मालेगांव में मुसलमानों के बीच धमाके करके 36 मुसलमानों को शहीद कर दिया गया था और 100 से अधिक व्यक्ति जख्मी हो गए थे लेकिन पुलिस और खुफिया विभाग ने इन धमाकों में मुसलमानों को ही फंसा दिया और उन पर अत्याचार कर इकबाले जुर्म भी करा लिया। इस बाबत शनिवार को टाइम्स ऑफ इंडिया ने सामाजिक संगठन अनहद द्वारा जारी किए वह बयानात प्रकाशित किए हैं जिनमें उन मुस्लिम युवाओं की आप बीती बयान की गई है जो विभिन्न मामलों में गिफ्तार किए गए और उनको अलग-अलग राज्यों की पुलिस ने यातना पहुंचाकर इकबाले जुर्म पर मजबूर किया। हिन्दुस्तान के इस विशाल भाग में ऐसी न जाने कितनी दास्तानें हैं जिनके बारे में अभी तक मीडिया को भी कोई जानकारी नहीं मिली है और न जाने कितने बेगुनाह ऐसे हैं जो केवल अपने धर्म के आधार का प्रड़तारित किए जा रहे हैं लेकिन केंद्र एवं राज्य सरकारों की तरफ से इनके बारे में कोई बात नहीं की जा रही है, उल्टे कोर्ट में सीबीआई इनकी जमानत का विरोध कर रही है। आतंकवादियों के एक मुखिया की ओर से अपने जुर्म का इकबाल कर लेने के बाद क्या सीबीआई जैसी जिम्मेदार संस्था से यह आशा की जा सकती है क विह यदि अभी केस वापस नहीं ले सकता तो कम से कम इनकी जमानत की राह में रोड़े न अटकाए।

`सहरोजा दावत' ने `कसूरवार जब बेनकाब हो गए तो बेकसूरों को सजा क्यों' के शीर्षक से लिखा है। जब सूरते हाल बदल चुकी है कि आतंकवाद के आरोप में जो मुसलमान जेलों में बंद हैं वह बेकसूर हैं तो उनको रिहा कर देना चाहिए। सवाल सिर्प रिहाई का नहीं है बल्कि उनके मुआवजे और कसूरवार पुलिस वालों को सजा दिलाने का भी है ताकि भविष्य में फिर से ऐसी गलतियां न हों।

बेहतर तो यही होता कि पोटा और टाडा की तरह कोई समीक्षा कमेटी गठित करने की मांग देश के मुसलमान शांतिप्रिय लोगों के साथ मिलकर करते क्योंकि यह रिहाई भी इतनी आसान नहीं है जितनी समझ में आती है, इसके लिए कानूनी प्रक्रिया से गुजरना होगा लेकिन यदि समीक्षा कमेटी गठित कर दी जाए तो शायद इससे इस काम में कुछ आसानी हो जाए। आतंकवाद की हकीकत सामने आने के बाद अब मुसलमानों को इसे प्रभावी ढंग से उठाना चाहिए। यह कोई नया मामला नहीं है बल्कि ऐसा होता रहता है, जुर्म कोई और करता है और गिरफ्तारी किसी और की हो जाती है। बाद में जब कसूरवाद पकड़े जाते हैं तो वह भी इसी तरह जेलों में रहते हैं जिस तरह बेकसूरवार पहले से हैं। बेकसूरों की रिहाई के लिए बहुत से कानूनी स्तरों से गुजरना पड़ता है। यह काम जितना आसान नजर आता है, वास्तव में नहीं है। लेकिन कोशिश की जाए तो कामयाबी जरूर मिलती है और मुसलमानों को इस समय यही काम करना होगा।

दैनिक `जदीद खबर' ने `मालेगांव के बेकसूर' में लिखा है। मालेगांव बम धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार किए गए मुसलमानों की समस्या यह है कि वह अपने नहीं किए गुनाह की सजा काट रहे हैं। 2008 में शहीद हेमंत करकरे की अगुवाई में जब मालेगांव बम धमाकों के सिलसिले में साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर एण्ड कम्पनी को गिरफ्तार कर लिया गया तो इंसाफ की बात थी कि इन बेकसूर मुसलमानों को रिहा कर दिया जाता। भगवा आतंकवादियों की गिरफ्तारी और इनके खिलाफ मकोका अदालत में कायम किए गए मुकदमों के बाद अब स्वामी असीमानंद के इकबाले जुर्म के बाद इस बात की पूरी आशा थी कि तफ्तीशी एजेंसियां और विशेष मकोका अदालत जमीनी सच्चाई पर विचार करते हुए बेकसूरों की रिहाई के आदेश जारी करेगी। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण इन आरोपियों की रिहाई के रास्ते में रोड़े अटका दिए गए जिस पर मानवाधिकार संगठनों और मुसलमानों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है। क्या अदालत और जांच एजेंसियां जमीनी सच्चाई को स्वीकार करते हुए इन आरोपियों को रिहा करने का आदेश जारी करेंगी।

`मालेगांव धमाका 2006 ः सीबीआई ने शुरू किया नया खेल' में सईद हमीद लिखते हैं। दिल्ली में सीबीआई की भूमिका कुछ और है...लेकिन महाराष्ट्र में सीबीआई कुछ और ही रंग दिखा रही है। ऐसा क्यों?

यह कहा जाता है कि वेस्टर्न जोन की सीबीआई के अधिकार क्षेत्र में महाराष्ट्र के साथ गुजरात भी शामिल है तो क्या मुंबई मुख्यालय की सीबीआई पर नरेन्द्र मोदी का ज्यादा प्रभाव है... या महाराष्ट्र और केंद्र सरकार की ओर से मुंबई में कुछ दिल्ली में कुछ और खेल दिखाया जा रहा है...?

Wednesday, February 2, 2011

राजनीति का मोहरा बना दारुल उलूम

दारुल उलूम देवबंद के नए मोहतमिम (कुलपति) मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी द्वारा यह कहने के बाद कि नरेंद्र मोदी राज्य में मुसलमान भी अन्य संप्रदाय की तरह विकास की ओर अग्रसर हैं और उनके खिलाफ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है, उन पर उंगली उठने लगी है। मौलाना वस्तानवी को दारुल उलूम देवबंद की मजलिस शूरा (कार्यकारिणी) ने गत 10 जनवरी को बहुमत के आधार पर मोहतमिम बनाया था। मजलिस शूरा में 21 सदस्य हैं, जिनमें चार सदस्यों का निधन हो जाने के कारण उनकी जगह खाली है। बैठक में तीन सदस्य उपस्थित नहीं हुए थे। कुल 14 सदस्यों ने अपने मत का प्रयोग किया था, जिनमें चार सदस्यों ने दारुल उलूम के शिक्षक और जमीअत उलेमा हिंद के एक धड़े के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी को, दो सदस्यों ने दारुल उलूम के नायब मोहतमिम मौलाना अब्दुल खालिक मदरासी और आठ सदस्यों ने मौलाना वस्तानवी के पक्ष में मतदान किया। तब फैसले से बौखलाकर अशरद मदनी के करीबी रिश्तेदार मौलाना अब्दुल अलीम फारुकी ने यह शिगूफा छोड़ दिया कि वस्तानवी कासमी नहीं हैं, जबकि दारुल उलूम के संविधान में इस बाबत कोई दिशा-निर्देश नहीं है। यहीं से वस्तानवी को विरोध शुरू हो गया, लेकिन इसकी शक्ल वह नहीं थी, जो मोदी के संदर्भ में दिए गए बयान के बाद पैदा हुई है।
आम मुसलमानों सहित बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मौलाना वस्तानवी के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की, जिसके बाद वस्तानवी ने अपनी स्थिति स्पष्ट की। लेकिन उनके स्पष्टीकरण से बात बनी नहीं और यह आग दारुल उलूम तक पहुंच गई। फिलहाल दारुल उलूम में माहौल अपने हित में नहीं होने की बात स्वीकार कर वस्तानवी ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है और गुजरात चले गए हैं। और इधर सबकी नजरें 23 फरवरी को होने वाली मजलिस शूरा की बैठक पर टिक गई है।
अनहद की ट्रस्टी और संस्थापक शबनम हाशमी कहती हैं कि मौलाना वस्तानवी का बयान इतनी छोटी घटना नहीं है, जिसे नजरंदाज किया जाए। उनके अनुसार, वस्तानवी ने जिस दिन मोदी से संबंधित बयान दिया, उसके अगले दिन गुजरात नरसंहार पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने वाली थी। इसके अलावा वस्तानवी को कनाडा जाने के लिए वीजा चाहिए था, जो उन्हें नहीं मिल रहा था। शबनम का कहना है कि मोदी राज्य में मुसलमान के विकास करने की पोल एनएसएसओ की रिपोर्ट ने ही खोल दी है, जिसमें बताया गया है कि राज्य में 2005 के मुकाबले मुसलिम युवाओं की बेरोजगारी का ग्राफ बढ़ा है और उनकी शिक्षा में भी कमी आई है।
बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम का दुखद पहलू यह है कि मोदी को लेकर मुसलमानों को दो खेमों में बांटा जा रहा है और इसे सीधे तौर पर एक शैक्षणिक संस्था से जोड़ दिया गया है। मोदी का विरोध करने वालों को कट्टरपंथी और समर्थन करने वालों को उदारवादी मुसलमान के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। इसी फॉरमूले के तहत सांप्रदायिक ताकतें दारुल उलूम की छवि कट्टरवाद के तौर पर पेश करती हैं। मदनी परिवार द्वारा दारुल उलूम का अपने हित में इस्तेमाल करने का जो आरोप वस्तानवी लगा रहे हैं, उससे वह खुद भी शिकार हैं। नरेंद्र मोदी के संबंध में की गई उनकी टिप्पणी उसी का हिस्सा है।
बीते दिनों एक मंत्री को मूर्ति भेंट करने की घटना पर वस्तानवी का कहना है कि वह तसवीर थी, पर जब एक उर्दू दैनिक ने मूर्ति के साथ उनकी तसवीर छाप दी, तो वह मौन हो गए। वस्तानवी के अनुसार, मूर्ति का मामला शूरा में भी आया था और वह उनके जवाब से संतुष्ट है। अगर यह सच है, तो यह सवाल लाजिमी है कि शूरा पर किसी तरह का दबाव था कि वह मूर्ति और तसवीर में फर्क नहीं कर पाई या फिर जानबूझकर इसकी अनदेखी की गई?
बहरहाल, मौलान अशरद मदनी की प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात के बाद यह कयास तेज हो गए हैं कि कांग्रेस ने मौलाना मदनी को इस पद पर लाने की योजना बना ली है। संभव है कि इसके लिए शूरा की खाली जगह पर ऐसे व्यक्तियों को लाया जाएगा, जो इस मिशन को पूरा करने में सहयोग देगा।