Saturday, March 26, 2011

अरब जगत की हलचल और शासकों के लिए सबक

बीते दिनों विकीलीक्स ने रहस्योद्घाटन सहित वोट के बदले नोट एवं अरब जगत के देशों में चल रही सामाजिक न्याय की हलचल विशेष रूप से चर्चा में रही। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय।

`विकीलीक्स के रहस्योद्घाटन' के शीर्षक से सहरोजा दावत ने अपने स्तम्भ `खबरो नजर' में लिखा है। विकीलीक्स का शोर एक बार फिर हुआ है। इस बार अंग्रेजी दैनिक `हिन्दू' विकीलीक्स द्वारा सरकारी और कूटनीतिक दस्तावेजों तक पहुंचा है। नए-नए रहस्योद्घाटन हो रहे हैं। नया रहस्योद्घाटन से जो सबसे अहम चीज उभरकर सामने आई है, वह देश की विदेश नीति पर अमेरिका की पकड़ और हमारे आंतरिक मामलों में इसका हस्तक्षेप। सरकारी हलकों को भी संकोच होता था और विपक्ष में भी। लेकिन अब तो सत्तापक्ष इसकी जरूरत ही महसूस नहीं करता कि वह इसका खंडन करे और न विपक्ष में केवल वाम मोर्चा के एक छोटे से समूह ने इसका विरोध किया। विपक्ष होने का भ्रम रखने के लिए वह कुछ न कुछ बोलती रही। जैसे इस बार भी इसके एक वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने ताजा रहस्योद्घाटन पर कहा कि ऐसा मालूम होता है कि हमारी नीतियां अमेरिका में बनाई जाती हैं।

अब यदि अमेरिका अर्थात् दुनिया में सुपर पावर के साथ दोस्ती और वफादारी की बात की जाए तो जो कुछ हुआ, नहीं होना चाहिए। इसके सिवाय कुछ हो भी नहीं सकता। इसलिए कि इतिहास वही बताता है। ताकतवर के साथ दोस्ती, कमजोर के साथ दुश्मनी यहां का तरीका रहा है। यहां की सामाजिक व्यवस्था जो जन्म आधारित ऊंच-नीच पर कायम है और एक वर्ग के हाथों में सभी आर्थिक संसाधनों का रहना। यह नीति इतनी मजबूत है कि इसे कोई हिला नहीं सकता। यहां की राजनीति और शासन के तीनों खम्भे इसी के आधीन हैं। दोनों राजनैतिक पार्टियां यही चाहती हैं, तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। `लोकतंत्र के नाम पर अरब जगत में शासकों के खिलाफ गुस्सा, यह जन चेतना है या कोई षड्यंत्र' के शीर्षक से अल जमीअत ने लिखा है। 2003 में मुअम्मर गद्दाफी ने जिस तेजी से सौदे अमेरिका और इसके समर्थक देशों के साथ किए थे अब अमेरिका को ऐसा नहीं लगता कि लीबिया में आंदोलनकारियों द्वारा कायम होने वाली सरकार अमेरिका की गोद में इस तरह बैठने वाली होगी।

एक इस्राइली समाचार पत्र ने रहस्योद्घाटन किया है कि गद्दाफी के बेटे सैफुल इस्लाम ने गोपनीय तौर पर इस्राइल का दौरा किया है और विरोधियों को कुचलने में मदद मांगी है।

ऐसे भी सबूत सामने आए हैं कि इस्राइल कुछ विदेशी किराये के फौजियों को गद्दाफी सरकार के समर्थन में लीबिया भेज रहा है। मिस्र में हुस्नी मुबारक की सरकार खत्म होने के बाद से ही सऊदी अरब में भी सरकार विरोधी तत्वों ने एकजुट होना शुरू कर दिया था लेकिन सऊदी अरब में ऐसा लगता है कि विरोध को गैर शरई बताने और खुफिया एजेंसियों द्वारा जनता को भयभीत करने के कारण अभी तक देश की बहुसंख्यक पर भय है। यहां स्वयं अमेरिका भी इस पक्ष में नहीं है कि शाही परिवार को हटाकर लोकतंत्र का बिगुल बजाया जाए। `अब्दुल्ला साहेल का शासन भी संकट में' के शीर्षक से दैनिक राष्ट्रीय सहारा ने लिखा है। यमन में भी हालात बिगड़ रहे हैं और 23 वर्ष से यमन के शासन पर पदासीन अब्दुल्ला सालेह की गिरफ्त से बाहर होते जा रहे हैं। यमन कुछ वर्षों से आंदोलनकारियों के निशाने पर है लेकिन ऐसा लगता है कि अब हालात निर्णायक स्तर पर पहुंच गए हैं। यमन के शासक अली अब्दुल्ला सालेह अब तक सत्ता पर काबिज थे उन्होंने ही अब्दुल्ला का साथ छोड़ दिया है और आंदोलनकारियों से जा मिले हैं। इसके अतिरिक्त कई देशों में यमन के राजनयिकों और दक्षिणी यमन के राज्य अदन के गवर्नर ने भी अली अब्दुल्ला सालेह का साथ छोड़ दिया है और विरोधियों के समर्थन की घोषणा कर दी है। समाचार के अनुसार अब्दुल्ला सालेह के सबसे करीबी और फौज के ताकतवर कमांडर जनरल मोहसिन सालेह ने खुलकर प्रदर्शनकारियों से हाथ मिलाने की घोषणा की है। इनका संबंध भी इसी कबीले से है जिससे अब्दुल्ला सालेह का संबंध है। इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि अब्दुल्ला सालेह की अपने क्षेत्र में भी पकड़ कमजोर हो रही है और उनके लिए अपनी सत्ता बचा पाना आसान नहीं है। इसलिए यमन सहित ऐसे हालात का शिकार सभी देशों को इस मामले में बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता छोड़ देनी चाहिए ताकि अमेरिका और यूरोप को इस क्षेत्र में फौजी हस्तक्षेप का मौका न मिल सके। `बहरीन में संकट तो लीबिया में तूफान' के शीर्षक से सैयद मंसूर आगा ने लिखा है। चालीस वर्षीय शासन में गद्दाफी ने अरब दुनिया में बहुत से दुश्मन बना लिए हैं। अरब लीग के सचिव जनरल अगर मूसा जिनकी नजर मिस्र के राष्ट्रपति पद पर लगी हुई है, लीबिया में यूरोपीय फौजी हस्तक्षेप की मांग कर रही है, जिस पर अमेरिकी विदेश मंत्री ने प्रशंसा भी जाहिर की है। काहिरा जाने से पूर्व मिसेज क्लिंटन ने पेरिस में लीबिया के विद्रोही सेना के एक समूह से लम्बी मुलाकात की और वहां की सूरतेहाल पर चिन्ता व्यक्त की। लेकिन जब पत्रकारों ने बहरीन संकट का जिक्र छेड़ा तो वह टाल गईं। हमें यह बताने की जरूरत नहीं है कि जिस अमेरिका का लीबिया के विद्रोहियों से इतनी ज्यादा हमदर्दी है उसको बहरीन की कोई चिन्ता क्यों नहीं है। `अब पाकिस्तान गोमगो का जिगर होटल है' में इशतियाक दानिश ने लिखा है। पश्चिम इस बात से भी परेशान है कि कहीं अरब दुनिया में वह ताकतें सत्ता पर कब्जा न कर लें जो इस्राइल विरोधी हैं।

उनकी परेशानी यह भी है कि नए शासक कहीं अपनी आर्थिक नीतियां न बदल दें। यदि नए शासक यह फैसला करते हैं कि वह दूसरों पर भरोसा करने के बजाय स्वयं उद्योग लगाएं और सामान तैयार करें तो इससे पश्चिम की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचेगी। इसलिए पश्चिम नहीं चाहता कि लोगों के सामने एक लोकतंत्र विरोधी ताकत के तौर पर सामने आए। यही कारण है कि अमेरिका और यूरोपीय देश शांतिपूर्ण प्रदर्शन का समर्थन कर रहे हैं। यह कोई मामूली बात नहीं है कि सऊदी अरब ने बहरीन में अपनी फौज उतार दी है। सऊदी शासक तेल की दौलत से अपने विरोधियों को राम करते रहे हैं। वह अपनी शिया आबादी को विरोध नहीं करने देते लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति की चिन्ता करते हैं।

जैसे ही सऊदी अरब में विरोध प्रदर्शन हुए, वहां के शासकों ने बिलियन डालर की विकास योजना बना डाली ताकि सऊदी समाज के उन लोगों की मदद की जाए तो जिन्दगी की दौड़ में पीछे रह गए हैं। `अरब जगत की हलचल' पर रिजवान उल्ला ने लिखा है। अरब जगत की हलचल के कारण चाहे जो भी हो, इसका अन्त चाहे जो भी हो, लेकिन इसमें सारे नेताओं के लिए एक सबक जरूर है। उन्होंने विदेशों में अपनी दौलत जो वास्तव में कौम की अमानत होनी चाहिए, जमा की गई है। यही दौलत का यदि कुछ हिस्सा भी वह अपने देश की जनता के विकास और उन्नति पर खर्च करते रहते तो आज उनको यह काला दिन न देखना पड़ता और न ही विदेशी दौलत के हड़प किए जाने का खतरा पैदा होता है। वास्तव में यह सबक भारत के उन पूंजीपतियों के लिए भी है जो देश में कमाई हुई दौलत को विदेशों में जमा करते हैं और इनके फायदों से जनता को वंचित करते हैं और सरकार की जवाबदेही से बचते हैं। भ्रष्टाचार और गलत तरीके पर जमा किए हुए काले धन के खिलाफ आवाज तो यहां भी उठ रही है, कौन जाने किस दिन यह किसी आंदोलन का रूप ले ले।

Wednesday, March 23, 2011

मौलाना अरशद मदनी पर 101 करोड़ रुपये का दावा

बीते दिनों राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर उर्दू मीडिया ने परम्परानुसार बेबाकी से अपना पक्ष रखा। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय।

दुश्मन जायदाद के विधेयक (संशोधित) को लेकर जहां उर्दू अखबारों ने सक्रिय भूमिका निभाई वहां मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने वाले मुस्लिम सांसदों की इसमें दिलचस्पी नहीं रही। इस पर चर्चा करते हुए दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खाँ ने अपनी रिपोर्ट में यह रहस्योद्घाटन किया है कि ऐनामी प्रापर्टी विधेयक 2010 पर राज्यसभा की स्टैंडिंग कमेटी की बैठक से गायब रहे कमेटी के मुस्लिम सदस्य। जबकि सूत्रों के अनुसार कल की यह बैठक आखिरी थी जिसके बाद कमेटी विधेयक पर अपनी रिपोर्ट पेश करने में सक्षम हो जाती है। इसी बीच 14 मार्च को राष्ट्रीय एकता परिषद के सदस्य नवेद हामिद की पहल पर 17 सांसदों के हस्ताक्षर से एक पत्र कमेटी चेयरमैन वेंकैया नायडू को दिया गया है जिस पर एक माह का समय दे दिया गया है। राज्यसभा की 31 सदस्यीय स्टैंडिंग कमेटी में चार सदस्य मुस्लिम हैं जिनमें तारिक अनवर, मौलाना असरारुल हक कासमी, मोहम्मद हमीद उल्ला सईद और जावेद अख्तर शामिल हैं। 1968 में बने एनेमी प्रापर्टी कानून के तहत पाकिस्तान जाने वालों के हिन्दुस्तान में रह गए वारिसों के बावजूद उनकी जमीनें कसटोडियन के कब्जे में दे दी गई थीं। राजा महमूदाबाद के वारिस मोहम्मद आमिर खाँ ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और एक लम्बी लड़ाई के बाद 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने इनके हक में फैसला कर दिया लेकिन इसके खिलाफ गृहमंत्री पी. चिदम्बरम ने अध्यादेश को लेकर फैसले को निरस्त कर दिया। इस अध्यादेश से वारिसों को जायदादें नहीं मिल रही थीं इस पर राज्यसभा के डिप्टी चेयरमैन के. रहमान खाँ और केंद्रीय मंत्री अल्पसंख्यक मंत्रालय सलमान खुर्शीद की अगुवाई में 40 मुस्लिम सांसदों ने जुलाई 2010 में प्रधानमंत्री से मुलाकात कर विधेयक में उचित संशोधन की मांग की थी। जिस पर सरकार ने स्टैंडिंग कमेटी बनाकर मामला उसके सुपुर्द कर दिया।

`मौलाना अरशद मदनी पर 101 करोड़ का दावा, मौलाना बदरुद्दीन अजमल पर भाजपा से 55 करोड़ घूस लेने का आरोप, गोहाटी जिला अदालत में अवमानना का मुकदमा दायर' के शीर्षक से `हमारा समाज' ने लिखा है। गत महीनों जमीयत उलेमा हिन्द (मौलाना अरशद मदनी) के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी और मौलाना बदरुद्दीन अजमल में होने वाली लड़ाई खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोकेटिक फ्रंट के अध्यक्ष मौलाना अजमल पर गत महीने फरवरी में मौलाना मदनी द्वारा कथित तौर पर गत लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी से 55 करोड़ रुपये घूस लेने का आरोप लगाया था। मौलाना अजमल ने इस पर अवमानना का केस करते हुए असम मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारेगी। इस पार्टी में आरिफ बेग, सिकंदर बख्त, मुख्तार अब्बास नकवी और आरिफ मोहम्मद खाँ जैसे तथाकथित मुस्लिम चेहरों को सामने रखकर असम के मुस्लिम चेहरों की हकीकत को भी अच्छी तरह समझा जा सकता है। गोहाटी की जिला अदालत में 101 करोड़ रुपये का मुकदमा मौलाना अरशद मदनी पर किया है। एयूडीएफ प्रवक्ता के अनुसार अवमानना की याचिका में मौलाना अजमल की ओर से कहा गया है चूंकि वह लाखों लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं और इनके सामाजिक काम का दायरा दूर-दूर तक फैला हुआ है। इसलिए इस आरोप से उन्हें काफी मानसिक और आर्थिक चोट पहुंची है और इनकी छवि खराब हुई है। ऐसी सूरत में यदि उन्होंने घूस लिया है तो आदलत में सुबूत पेश किए जाएं। यदि ऐसा नहीं है तो फिर मौलाना अरशद मदनी के खिलाफ अदालत नोटिस जारी करे। मौलाना अजमल ने याचिका में कहा है कि यदि दावा गलत है तो फिर मेरे करोड़ों रुपये की भरपायी की जाए जिसके लिए उन्होंने 101 करोड़ रुपये तय किए हैं। इसमें अदालत को कम-ज्यादा करने का अधिकार दिया गया है। ज्ञात रहे असम में तोपखाना मदरसा के अधिवेशन में मौलाना अजमल पर मौलाना अरशद मदनी ने आरोप लगाया कि उन्होंने गत लोकसभा चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी से 55 करोड़ रुपये घूस ली थी।

बाबरी मस्जिद मिलकियत मुकदमें में अदालत की अवमानना के आरोप में इलाहाबाद हाई कोर्ट की विशेष तीन सदस्यीय खंडपीठ द्वारा पीटीआई, दैनिक जागरण और इतिहासकारों एवं पुरातत्व विशेषज्ञों पर जुर्माना किए जाने पर चर्चा करते हुए दैनिक `अखबारे मशरिक' ने लिखा है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट की विशेष खंडपीठ के जस्टिस एसयू खाँ, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस वीके दीक्षित ने हिन्दी `दैनिक जागरण' बाबरी मस्जिद मुकदमें की गलत रिपोर्टिंग पर दोनों पर एक हजार रुपये का जुर्माना किया है। खंडपीठ ने बाबरी मस्जिद मुकदमें में मुसलमानों की तरफ से पेश किए इतिहासकार और पुरातत्व विशेषज्ञ धतेश्वर मंडल और प्रोफेसर शिंटी रत्नाकर को भी अदालत की अवमानना का दोषी ठहराते हुए दोनों पर एक-एक हजार का जुर्माना किया है। इन दोनों इतिहासकारों तक अधारित सच्चाई को स्वीकार किए जाने पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की विशेष खंडपीठ की आलोचना करते हुए अपना विरोध प्रकट किया था।

`असम के मुसलमानों के लिए नया जाल बिछाया जा रहा है' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है। भाजपा ने इस बार मुस्लिम बहुल क्षेत्र असम में मुसलमानों को अपने जाल में फंसाने की रणनीति बनाई है। सूत्रों के अनुसार भाजपा इस चुनाव में दो मुस्लिम उम्मीदारों को मैदान में उतारेगी। इस पार्टी में आरिफ बेग, सिकंदर बख्त, मुख्तार अब्बास नकवी और आरिफ मोहम्मद खाँ जैसे तथाकथित मुस्लिम चेहरों को सामने रखकर असम के मुस्लिम चेहरों की हकीकत को भी अच्छी तरह समझा जा सकता है।

स्वतंत्रता आंदोलन से पूर्व ही इसकी विचारधारा को दुनिया जानती है। हिन्दू महासभा, आरएसएस, जनसंघ और भाजपा की तरह मुखौटे सामने आते हैं। लेकिन मिशन एवं गंतव्य में कोई फर्प नहीं रहा।

भाजपा बिहार विधाननसभा के चुनावी नतीजों की रोशनी में असम चुनाव को देख रही है। जाहिर है वहां लालू यादव और कांग्रेस ने जिस तरह उन्हें मायूस किया और नीतीश कुमार ने सांप्रदायिकता को रोकते हुए चाहे मुसलमानों को कुछ नहीं दिया। कुल मिलाकर जो विकास कार्य किया उससे मुसलमान भी लाभांवित हो रहे हैं। कोई ऐसा काम नहीं किया गया जिससे मुसलमान भेदभाव का अहसास करते। यदि स्वयं भाजपा इस रंग में आ जाएगी तो अपनी विचारधारा से दूरी की बिना पर स्वयं अपने वोट बैंक से वंचित हो जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा हज सब्सिडी को बहाल रखने के निर्णय के बाद मुस्लिम नेतृत्व ने इसके खिलाफ लामबंद होना शुरू कर दिया है और वह इसे खत्म करने की मांग कर रहे हैं क्योंकि हज सब्सिडी के बहाने सरकार एयर इंडिया को फायदा पहुंचा रही है। मुस्लिम नेतृत्व की सोच के विपरीत केंद्रीय हज कमेटी के उपाध्यक्ष ने हज सब्सिडी जारी रखने की वकालत कर इनके खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' में फरजान कुरैशी ने हज कमेटी उपाध्यक्ष हसन अहमद के हवाले से लिखा है कि सब्सिडी हमारा अधिकार है और यह जारी रहना चाहिए। उनका कहना था कि देश का मुसलमान इनकम टैक्स और सेल्स टैक्स देता है और जो लोग सरकार को टैक्स देते हैं उसके बदले सरकार उन्हें कुछ न कुछ छूट जरूर देती है। मुसलमान देश के नागरिक हैं जब दूसरे लोग सरकार से सब्सिडी हासिल कर सकते हैं तो फिर मुसलमान इस छूट से क्यों वंचित रहें।

`नकवी के बयान पर कांग्रेस में आंतरिक बहस की शुरुआत, कांग्रेस के मुस्लिम नेता झांक रहे हैं अपना गिरेबां, सेकुलरिज्म की रक्षा के लिए पार्टी नेता सक्रिय' के तहत दैनिक `सहाफत' ने लिखा है। भाजपा प्रवक्ता और सांसद मुख्तार अब्बास नकवी द्वारा जारी बजट के आरोप को लेकर कांग्रेस पार्टी में आंतरिक बहस शुरू हो गई है। मुख्तार अब्बास नकवी ने अल्पसंख्यक मंत्रालय पर बहस के दौरान कांग्रेस और सरकार पर कई तरह के सवाल उठाए थे। उनका आरोप था कि कांग्रेस पार्टी सेकुलरिज्म की बात करती है लेकिन देश में आज के दिन किसी राज्य का गवर्नर मुस्लिम नहीं है। पूरे देश के किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री तो दूर की बात है। एक भी विपक्षी नेता मुस्लिम नहीं है। बिहार छोड़कर किसी भी राज्य में कांग्रेस अध्यक्ष मुस्लिम नहीं है। इस सन्दर्भ में कांग्रेस अल्पसंख्यक मोर्चा के महासचिव अनीस दुर्रानी का कहना है कि उनके बयान से कांग्रेस की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है।

Tuesday, March 15, 2011

इंसाफ के इंतजार में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय

बीते दिनों कई मुद्दों ने अपनी ओर ध्यान आकर्षित कराया है। अयोध्या विध्वंस मामले में आरोपियों के विरुद्ध षड्यंत्र का मामला और दिल्ली की एक अदालत द्वारा बोफोर्स तोप सौदे में दलाली पाने वाले कथित आरोपी क्वात्रोची के खिलाफ फाइल बन्द करने पर मुहर और जामिया मिलिया इस्लामिया को अल्पसंख्यक संस्था का दर्जा मिलने के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जा से तुलना जैसे अनेक मुद्दे अखबारों में छाये रहे। पेश है इस बाबत उर्दू के कुछ अखबारों की राय।

`सहरोजा दावत' ने `अयोध्या विध्वंस में आरोपियों के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र का मामला' के शीर्षक से लिखा है। गोधरा घटना में जहां षड्यंत्र को कोई पहलू नजर नहीं आ रहा था और यदि होगा तो यह दंगाइयों का ही किया कराया होगा ताकि वह इस बहाने मुसलमानों का नरसंहार कर सकें। रेलवे की ओर से गठित यूसी बनर्जी कमेटी ने उसे एक अचानक घटना बताया था और पोटा पुनर्विचार कमेटी ने पोटा हटाने की सिफारिश करके आरोपियों को फंसाने की सरकार के षड्यंत्र को बेनकाब कर दिया था। अहमदाबाद की विशेष अदालत ने इस घटना में 31 मुसलमानों को षड्यंत्रकारी मान कर उन्हें सजा सुना दी और जिस बाबरी मस्जिद का विध्वंस षड्यंत्र के तहत ही हुआ था, इस बाबत योजनाएं और प्लानिंग की रिपोर्टें खुफिया एजेंसियों ने विध्वंस से पहले भी दी थीं और विध्वंस के बाद भी विध्वंस से पूर्व राजनैतिक पार्टियों ने पूरी स्थिति का जायजा लेकर संदेह व्यक्त कर तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव सरकार से उचित कार्यवाही और बाबरी मस्जिद को बचाने की मांग की। इस सबके बावजूद विध्वंस के 18 वर्षों बाद षड्यंत्र का मामला कानूनी दांव पेंच में उलझा हुआ है और यह फैसला नहीं हो पा रहा है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के षड्यंत्र के आरोप में छोटे-बड़े सभी आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाया जाए या बड़ों के खिलाफ केवल मुकदमें की खानापूरी हो और छोटे लोगों को अंजाम तक पहुंचाया जाए।

सारा मामला मुकदमें में एक तकनीकी खामी का है जिसमें सुधार नहीं किया जा रहा है। निश्चय ही इसका फायदा आरोपियों को मिल रहा है। मुकदमा रस्मी बनकर रह गया है, जिस घटना को देश में सेकुलरिज्म, लोकतंत्र और संविधान का खून और अदालत की अवमानना कहा गया, उसके आरोपियों के खिलाफ एक फुसफुसा मुकदमा चलाना घटना से ज्यादा शर्मनाक है। लेकिन गत 18 वर्षों से यही हो रहा है। उत्तर प्रदेश की कोई भी सरकार इस तकनीकी खामी को दूर करने के लिए तैयार नहीं है। `बोफोर्स केस में एक नया मोड़' के शीर्षक से उपरोक्त अखबार ने अपने सम्पादकीय में लिखा है। बोफोर्स तोप सौदे में बड़े पैमाने पर हेने वाली हेराफेरी का मामला उस समय एक नए मोड़ में दाखिल हो गया जब दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने इस मामले के एक अहम आरोपी इटली व्यवसायी क्वात्रोची को घूस के आरोप से बरी कर दिया। इस तरह उसे सजा दिलाने की सभी कोशिशों पर पानी फिर गया और इस उद्देश्य से क्वात्रोची को भारत लाने का तर्प भी खत्म हो गया। इस तरह 25 साल की मेहनत और लगभग 250 करोड़ रुपये से देश हाथ धो बैठा। क्वात्रोची को अदालत के सामने पेश करने की कोशिशें उस समय से हो रही हैं जब वह 1993 में देश से फरार होने में कामयाब हो गया था। यह एक अलग किस्सा है कि वह यहां से भागने में कैसे कामयाब हुआ। इसके लिए पहले मलेशिया के साथ बातचीत की गई इसके बाद अर्जेंटीना से बात की गई, लेकिन दोनों कोशिशें बुरी तरह नाकाम रहीं। अब सीबीआई ने अपनी असफलता को स्वीकार करते हुए अदालत को भी इससे सहमत करने की अपील की कि इसका कोई फायदा नहीं इसलिए इसको बन्द कर दिया जाए। ठीक यही मामला यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों के साथ किया गया, वह भी इसी देश से फरार होने में कामयाब हो गया था। अब यह सच्चाई भी सामने आ चुकी है कि उसको देश से भागने में किन-किन व्यक्तियों ने मदद की और कौन-सी ताकतें इसमें लिप्त हैं। अब यह कहा जा रहा है कि बोफोर्स मामले का अध्याय बन्द हो गया और बड़ी बात यह है कि अदालत इसका रास्ता आसान कर रही है। यदि राष्ट्रीय दौलत के बर्बाद होने का अदालत को इतना ही गम है तो उसे इस तरह के दूसरे मामलों पर भी ध्यान देना चाहिए। दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `दस्तावेज' के स्तंभ में अल्पसंख्यकों की शैक्षिक समस्याएं और उनकी संस्थानों के अधिकार पर विस्तारपूर्वक चर्चा की है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के डीन फैकलटी ऑफ लॉ प्रोफेसर एम. शब्बीर लिखते हैं। 2006 में एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा को खत्म करने वाले फैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चैलेंज किया गया, लेकिन इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रोशनी में अल्पसंख्यक संस्था मानने से इंकार कर दिया। अदालत के सामने एएमयू (संशोधित) कानून 1981 की पृष्ठभूमि को बयान किया गया कि यह एक अल्पसंख्यक संस्था है और इस अधिकार को बहाल करने के लिए यह कानून बनाया गया था। लेकिन इस सब के बावजूद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अजीज पाशा के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को महत्व दिया। उसका कहना था कि हम सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि एएमयू (संशोधित) कानून 1981 में यह कहीं नहीं कहा गया कि इस कानून को बनाने का किसी को कोई अधिकार नहीं दिया गया। टंडन ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाम डॉ. नरेश अग्रवाल केस में स्पष्ट कर दिया कि संसद को यह अधिकार हासिल नहीं है कि वह एएमयू (संशोधित) एक्ट 1981 कानून बनाए क्योंकि उस समय अजीज पाशा मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है। इसलिए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्था नहीं माना। एएमयू को अल्पसंख्यक संस्था करार देने और अजीज पाशा केस के प्रभाव से मुक्ति दिलाने के लिए याचिका दाखिल करनी पड़ी। यह याचिका सुप्रीम कोर्ट के सामने विचाराधीन है। इसको कम से कम पांच जजों से अधिक की खंडपीठ के सामने पेश होना चाहिए क्योंकि अजीज पाशा केस पर जो फैसला आया था वह पांच जजों की खंडपीठ का था। `गोधरा अदालती फैसला कुछ उभरते सवालात' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' में ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल महासचिव डॉ. मोहम्मद मंजूर आलम ने लिखा है कि यह सवाल भी अहम है कि जब मुकदमे में पोटा लगाना ही षड्यंत्र साबित हो चुका और उसकी बुनियाद पर आगे की कानूनी कार्यवाही पर भरोसा कैसे किया जा सकता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि विशेष अदालत ने गोधरा घटना के पूरे मामले में उन 59 कारसेवकों जिनकी मौत का दावा किया जाता है, के नाम और परिजनों का पता नहीं मालूम कर पाई और न ही साबरमती एक्सप्रेस की जलाई गई एस-6 बोगी के आरक्षण चार्ट को हासिल कर पाई लेकिन इनकी हत्या के आरोप में सुनवाई पूरी कर डाली और एक सौ लोगों की जिन्दगी से खिलवाड़ किया। यह फैसला हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया जाना चाहिए ताकि पूरा मामला जो पहेली बन गया है, सुलझाया जा सके और सही सूरते हाल सामने आ सके। `बिहार 2459 मदरसों की मंजूरी या मुसलमानों की ठगी' के शीर्षक से साप्ताहिक `चौथी दुनिया' में अशरफ अस्थानवी ने लिखा है। 2459 मदरसों के सिलसिले में जारी खुलासे में यह फर्प पैदा कर दिया गया है जिसे कमजोर पाएगी या कहना अभी जल्दबाजी है। अध्यादेश में मदरसों को मंजूरी देने और उनके शिक्षक एवं कर्मचारियों को सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के बराबर पगार देने के लिए 108 करोड़ रुपये की मंजूरी की बात कही गई है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। सबसे पहली बात यह कि सभी 2459 मदरसों को इस फैसले से मंजूरी हासिल नहीं होगी। इनकी जांच जिला शिक्षा अधिनियम के तहत निर्धारित दिशानिर्देश के तहत करेंगे।

Saturday, March 5, 2011

`गोधरा को पहेली न बनाया जाए'

पिछले दिनों की विभिन्न घटनाओं को लेकर उर्दू अखबारों ने परम्परानुसार अपने सम्पादकीय और आलेख प्रकाशित किए हैं। लेकिन गोधरा की विशेष अदालत का फैसला इन सभी मुद्दों पर छाया रहा। पेश है इस बाबत उर्दू के कुछ समाचारपत्रों की राय।

`सजा-ए-मौत' के शीर्षक से दैनिक `सियासत' ने लिखा है। भारत की साप्रदायिक ताकतों को गोधरा ट्रेन घटना में 31 में से 11 को सजा-ए-मौत पर भी खुशी नहीं हुई। यह लोग सभी अपराधी करार दिए गए 94 व्यक्ति को सजा-ए-मौत के इच्छुक हैं। गुजरात के साबरमती जेल में विशेष अदालत की ओर से 2002 की गोधरा घटना पर जस्टिस पीआर पाटिल ने 11 व्यक्तियों को सजा-ए-मौत देने के अलावा अन्य 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। यही सोच काम करती है कि हमारे देश का कानून मजबूत है और वह बिना भेदभाव फैसला करता है लेकिन गोधरा के अतिरिक्त अन्य मामलों या केसों की समीक्षा से अंदाजा होता है कि इंसाफ हेतु अन्य अदालतें या जज इस तरह का प्रदर्शन नहीं करते जिस तरह साबरमती जेल की अदालत में किया गया। कानून अंधा होता है तो फिर इसे हर उस अपराधी के साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि इसने गोधरा ट्रेन घटना के आरोपियों से किया है। गोधरा के बाद हुए दंगे या देश के अन्य भागों में लाखों व्यक्तियों की मौत के जिम्मेदारों को वर्षों अदालती प्रक्रिया के बावजूद गोधरा केस की तरह आरोपियों को सजा-ए-मौत नहीं दी गई। विशेष अदालत के जज ने अपने 850 पेज के फैसले में क्या विवादित प्रतिक्रिया और किन विचारों को व्यक्त किया है। इसका रहस्योद्घाटन नहीं किया गया। पूरा फैसला पढ़कर ही मानव अधिकार संगठन या इंसाफ प्रिय संस्थानें अगला कदम उठा सकती हैं। इसमें दो राय नहीं कि सजा-ए-मौत पाने वाले सभी 11 व्यक्ति इस फैसले के खिलाफ गुजरात हाई कोर्ट जा सकते हैं। इस फैसले के संदर्भ में यदि कोई गुजरात दंगों को सही बताता है तो यह साप्रदायिक ताकतें ही होंगी। `गोधरा की सजाएं' के तहत दैनिक `खबरदार जदीद' ने लिखा है। गोधरा की विशेष अदालत ने साबरमती एक्सप्रेस घटना में कुसूरवार करार दिए गए 31 अपराधियों को सजा सुनाई है। इन में से 11 अपराधियों को फांसी की सजा दी गई है जबकि 20 को आजीवन कारावास की सजा। इन सजा का अनुमोदन अभी हाई कोर्ट से होना बाकी है। जहां अपराधियों के वकील एक बार फिर अपने मुवक्किलों की बेगुनाही के हक में सुबूत पेश करेंगे और उन्हें सजा से बचाने की पूरी कोशिश करेंगे। हाई कोर्ट के बाद अगला कदम सुप्रीम कोर्ट होगा, यदि सुप्रीम कोर्ट ने इन अपराधियों की मौत की सजा बरकरार रखी तो वह राष्ट्रपति से रहम की अपील करने के हकदार होंगे। इस पूरी प्रक्रिया के होने में कितना समय लगेगा, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह बात तय है कि विशेष अदालत ने जिन सजाओं की घोषणा की है उनमें निश्चय ही तब्दीली होगी क्योंकि इस मुकदमें में जितनी बड़ी संख्या में आरोपियों को बरी किया गया है वह इस बात का सुबूत है कि गोधरा घटना को खतरनाक षड्यंत्र करार देने के तार आपस में जोड़ते समय पुलिस और इसतेगासा को व्यावहारिक परेशानियों से जूझना पड़ा और वह अपने केस को मजबूती से पेश नहीं कर सका। मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी गोधरा घटना को खतरनाक षड्यंत्र करार देने की थ्योरी पर कितना ही शोर क्यों न मचाएं लेकिन जिस तरह षड्यंत्र की थ्योरी ताश के पत्तों की तरह अदालत में बिखरती नजर आई है उसने सच और झूठ का फर्प पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है और यही नरेन्द्र मोदी की सबसे बड़ी नाकामी है।

`गोधरा को पहेली न बनाया जाए' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' ने लिखा है। देश के ख्याति प्राप्त कानूनी विशेषज्ञ प्रशांत भूषण का कहना है कि गोधरा घटना के सिलसिले में विशेष अदालत का फैसला `गलत सुबूत पर आधारित गलत फैसला है जिसके संदर्भ में ट्रेन में आग लगने की घटना की नए सिरे से तफ्तीश होनी चाहिए।' यही विचार स्वामी अग्निवेश के हैं। उनका कहना है कि `फैसला कमजोर है क्योंकि यह एक गवाह के संदेह आधारित गवाही पर आधारित है।' पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज से जुड़े जेएस बंदूकवाला भी विशेष अदालत के फैसले से सहमत नहीं हैं जिसमें 11 अपराधियों को सजा-ए-मौत और 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। बंदूकवाला की दृष्टि में यह एक अफसोसनाक फैसला है जो अपर्याप्त सुबूत के आधार पर सुनाया गया।' मशहूर कैथोलिक सामाजिक कार्यकर्ता फादर सेडरेक प्रकाश भी अदालती फैसले से खुश नहीं हैं। अपनी बेचैनी पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि `षड्यंत्र की थ्योरी को मान लेने का कोई तर्प नहीं है विशेषकर उन हालात में जब कि षड्यंत्र रचने के अहम आरोपी मोहम्मद हुसैन उमर जी के खिलाफ कोई सुबूत नहीं मिल सका है।'

किसी भी घटना की तफ्तीश के दौरान यह देखा जाना जरूरी है कि जो कुछ भी हुआ उससे फायदा किसको हुआ या फायदा किसने उठाया। जिसका फायदा हुआ या जिसने फायदा उठाया बहुत संभव है कि वह अपराधी हो। गोधरा घटना के पूर्व और बाद के हालात विशेषकर राजनैतिक हालात की समीक्षा की जाए तो मालूम होता है कि इस घटना से भाजपा विशेष रूप से नरेन्द्र मोदी सरकार को ऐसा फायदा हुआ जिसे जिंदगीभर की मेहनत का रातोंरात फल कहा जा सकता है। साबरमती के डिब्बों में आग क्या लगी, मोदी सरकार की छत्रछाया में रंगने वाले साप्रदायिक तत्वों ने पूरे गुजरात में आग लगा दी। सच पूछिए तो अपराधी सामने हैं।

`गोधरा अपराधियों को सजा-ए-मौत' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने लिखा है। हमें अदालतों की ईमानदारी पर अंगुलियां उठाने का हक नहीं है लेकिन एक जैसे अपराधी के लिए अलग-अलग कानून के इस्तेमाल पर खामोशी हमारे समीप माफ करने वाला अपराध नहीं है। अभी यह मामला उच्च अदालतों में जाएगा। हमें उम्मीद रखनी चाहिए कि उच्च अदालत का जब आखिरी फैसला आएगा तो उस पर अंगुलियां उठाने की गुंजाइश नहीं रह जाएगी। इंसाफ के तकाजे पूरे किए जाएंगे लेकिन इस समय इस फैसले पर जो सवालात उठाए जा रहे हैं उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। इससे देश में कानून के शासन पर इतनी ही गहरी चोट आई है और वह सारे जख्म ताजा हो गए हैं जो गुजरात में भारत के इतिहास के भयानक दंगों के दौरान मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और इनकी सरकार की भूमिका सै पैदा हुए थे। इस फैसले को जिस तरह साप्रदायिक रंग देने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, वह इससे भी ज्यादा खतरनाक है।

`गोधरा फैसले से उलझती गुत्थियां' के तहत दैनिक `हमारा समाज' ने लिखा है। अदालत के फैसले से संघी और भाजपा नेताओं के चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ गई है और ऐसा क्यों न हो इसलिए कि सैंकड़ों मुसलमानों की हत्या का आधार ढूंढने के लिए इसी का सहारा लिया जाएगा। लेकिन अब हर एक के दिमाग sं यह सवाल पैदा हो रहा है कि जब 59 व्यक्तियों की षड्यंत्र रचने वालों में से 11 को सजा-ए-मौत और 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है तो सैकड़ों मुसलमानों के कितने हत्यारों को सजा-ए-मौत और आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी? गोधरा घटना के पीछे षड्यंत्र की बात सच्चाई के स्तर तक नहीं पहुंच सकी है लेकिन मुसलमानों की हत्या की षड्यंत्र के ठोस सुबूत मिल चुके हैं। इसलिए अब देखना यह है कि राज्य के मुखिया समेत कितने लोगों के खिलाफ सजा सुनाई जाती है, इसके बाद ही अदालत की निष्पक्षता का सुबूत मिल सकेगा।

`गोधरा पर विशेष अदालत का फैसला, उभरते सवाल' के तहत ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल महासचिव डॉ. मोहम्मद मंजूर आलम ने लिखा है। अदालत द्वारा बरी किए गए लोगों को उचित मुआवजा दिया जाए एवं उनके पुनर्वास के लिए उन्हें सरकारी नौकरी दी जाएं जैसा कि बरी किए गए पांच लोगों को जेल विभाग की नौकरी दी गई है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि नौ वर्षों के लम्बे समय में उनका सामाजिक जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अब जबकि वह बेगुनाह छोड़ दिए गए हैं तो सरकार को चाहिए कि उन्हें समाज में सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने हेतु सहायता करे।