कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम पर हुए विवाद पर चर्चा करते हुए आल इंडिया वुमेन पर्सनला बोर्ड की अध्यक्षा शाइस्ता अंबर ने दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' के अपने लेख में लिखा है कि इस फिल्म में सभी मुसलमानों की छवि को बिगाड़ने की एक कोशिश है। इस फिल्म में दुनिया के सभी मुसलमानों को आतंकवादी बताया गया है और उन्हें कुछ इस अंदाज में पेश किया गया है कि यदि इस फिल्म को कोई गैर मुस्लिम देखेगा तो निश्चय ही मुस्लिम पड़ोसी उसकी नजर में संदिग्ध हो जाएगा। इसमें एक मुस्लिम पात्र को कुरआन पढ़ने के बाद बम धमाका करते हुए दिखाया गया है। इस तरह फिल्म निर्माता यह बताना चाहता है कि कुरआन शरीफ आतंक का गाइड है जो कि बिल्कुल गलत बात है। फिल्म में मुस्लिम पात्रों को नमाज पढ़ने के बाद बम रखते हुए दिखाया गया है। छोटे बच्चों की आंख बंद करके हथियार पहुंचाते हुए दृश्य दिखाया गया है। यहां तक कि कारतूसों को सिर्प छूकर उसका नाम बताने की बात कही गई है। अर्थात मुसलमानों को बचपन से ही आतंकवाद की ट्रेनिंग मिल रही है। इस तरह के कई दृश्य फिल्म में मौजूद हैं जिससे मुसलमानों की छवि खराब करने की कोशिश की गई है। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर एक विशेष समुदाय को निशाना बनाना कहां का लोकतंत्र है। कमल हासन रोना रोते हैं कि इस फिल्म में उन्होंने अपनी पूरी पूंजी लगा दी तो क्या मुसलमानों की भावनाओं से ऊपर उनका पैसा है। पैसे से देश की एकता को खत्म करने की कोई इजाजत नहीं दे सकता। जिस तरह बुद्धिजीवी वर्ग विश्वरूपम को लेकर परेशान है यदि यह वर्ग मुसलमानों की सही सूरतेहाल पर भी आवाज उठाता तो शायद देश में मुस्लिम विरोधी माहौल बनाने वालों का मनोबल टूटता। लेकिन जिस तरह यह तथाकथित वर्ग सेकुलरिज्म की दुहाई देकर इस्लाम विरोधी लेखनी, फिल्मों और कार्टूनों का मनोबल बढ़ा रहा है यह देश की गगनचुंभी सभ्यता ही नहीं बल्कि उपमहाद्वीप की संस्कृति को भी किसी न किसी तरह नुकसान पहुंचा रहा है।
जयपुर के साहित्यिक मेले पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील शम्सी अपने बहुचर्चित स्तम्भ में लिखते हैं कि आजकल साहित्य का एक और अर्थ हो गया है और उसका नाम है साहित्य द्वारा दिल दुखाना। साहित्य द्वारा दिल दुखाने वाले साहित्यकारों को बड़े-बड़े पुरस्कार और खिताब दिए जाते हैं। इन साहित्यकारों का यह पैदाइशी हक माना जाता है कि वह किसी भी धार्मिक समूह की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकते हैं। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दिल दुखाने वाला यह वर्ग अपने को दुनिया के सभी कानूनों से ऊपर समझता है। हमारे देश में भी अब यह समझा जाने लगा है कि साहित्यकार और लेखक किसी भी धार्मिक समूह अथवा अल्पसंख्यकों का दिल दुखाने का हक रखते हैं। जयपुर में इसी मकसद के तहत एक साहित्यिक मेला भी हर साल सम्पन्न होने लगा है। गत वर्ष इसमें भाग लेने के लिए रुशदी को बुलाया गया था लेकिन मुसलमानों के विरोध के चलते वह शरीक नहीं हो सका। अपने प्रयासों में नाकाम होने के बाद कई तथाकथित साहित्यकारों ने विरोध करते हुए रुशदी की विवादित किताब के कुछ अंश पेश किए और इसकी हमारे देश के मीडिया ने खूब प्रशंसा की। इस बार इस मेले में रुशदी भाग लेने आया और मुसलमानों के दिलों पर कांग्रेस की मदद से तीर चलाने में कामयाब रहा। मेले में मौजूद आशीष नंदी जो उच्च जाति से संबंध रखते हैं और इनके दिल में दलितों और पिछड़ों के लिए जो घृणा मौजूद है वह उनकी जुबान पर आ गई। वही चैनल जो मुसलमानों का दिल दुखाने वाले रुशदी को हीरो बना पेश करते थे वही आशीष नंदी के खिलाफ मैदान में उतर आए। खुशी की बात है कि देश में इंसानों के समूह के खिलाफ बोलने वालों को जेल भेजे जाने की वकालत हो रही है। इस अवसर पर हम दुआ करते हैं कि काश! ऐसा दिन आए जब पैगम्बर इस्लाम का अनादर करने वालों को यहां मेहमान न बनाया जाए बल्कि उनको गिरफ्तार भी किया जाए।
`दुष्कर्म जैसे अपराध के बढ़ते रुझान के लिए क्या कोई सभ्यता जिम्मेदार है?' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि अपराध के कारणों के संबंध में वैदिक साहित्य का नाम लेकर दलित बुद्धिजीवी कांचा अलिया ने बहस को एक नया रुख दे दिया है। उनके इस बयान की भर्त्सना हो रही है लेकिन न तो किसी ने उन्हें झूठा बताया और न उनके बयान को ऐतिहासिक और धार्मिक आधार पर गलत बताया अर्थात कांचा अलिया ने वैदिक साहित्य के बारे में जो कुछ कहा वह सही था, मतभेद इस बात पर था कि वैदिक साहित्य का प्रभाव आज भी पाया जाता या नहीं। कुछ समय पूर्व मशहूर वकील राम जेठमलानी ने भी श्री रामचन्द्र जी के भी कुछ पहलुओं पर आपत्ति की थी जिस पर काफी विरोध हुआ था लेकिन उस समय भी न तो किसी ने उन्हें झूठा बताया और न ही आपत्ति को दूर करने की कोशिश की। उपरोक्त मामले में भी कांचा अलिया के रहस्योद्घाटन के खंडन में हिन्दू धार्मिक गुरू का कोई बयान सुनने या पढ़ने में नहीं आया है।
वैदिक धर्म क्या है? वह मानव का किस तरह मार्गदर्शन करता है? इस पर विचार व्यक्त करने का हक तो हिन्दू धार्मिक गुरुओं का ही है और वही इसको सही तौर पर परिभाषित कर सकते हैं। लेकिन इस देश की प्राचीन संस्कृति का बहुत प्रचार किया जाता है जिस पर कुछ लोगों द्वारा गर्व किया जाता है। इसकी कुछ बातों से सभी लोग परिचित हैं जैसे सती प्रथा, देवदासी प्रथा, विधवाओं को मनहूस समझना, दहेज प्रथा आदि इसी प्राचीन संस्कृति की देन हैं, भले ही कानून द्वारा इन पर प्रतिबंध हो लेकिन समाज पर इसका प्रभाव बिल्कुल न हो ऐसा कहना गलत होगा बल्कि सच तो यह है कि लड़कियों को गर्भ में मार देने का एक कारण महिलाओं के प्रति उपरोक्त सोच भी है। ऐसी सूरत में वर्तमान समाज पर प्राचीन सभ्यता के इस प्रभाव को बिल्कुल खारिज नहीं किया जा सकता। सच तो है कि इस देश की बहुसंख्या कुछ मामलों को छोड़कर व्यावहारिक जिंदगी में धर्म के मार्गदर्शन के पक्ष में नहीं है और वह पश्चिमी सभ्यता की पक्षधर है जो उसे दुनिया में ज्यादा से ज्यादा मनोरंजन करने का पाठ देती है।
आतंकवाद के संबंध में गृहमंत्री के बयान पर चर्चा करते हुए वरिष्ठ पत्रकार शमीम तारिक ने कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' में लिखा है कि आतंकवाद के सिलसिले में किसी गैर राजनीतिक संगठन और एक राजनीतिक पार्टी का नाम लेना बहुत अहम है। पूरा विवरण गृह सचिव आरके सिंह ने पेश किया जिसका कहना है कि समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद और ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर धमाकों के सिलसिले में गिरफ्तार होने वाले कम से कम 10 व्यक्ति ऐसे हैं जो किसी न किसी तरह आरएसएस से जुड़े रहे हैं। कई अन्य मंत्रियों ने भी गृहमंत्री के बयान का समर्थन किया है। अच्छा होता कि गृहमंत्री आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले इन संगठनों के खिलाफ की गई कार्यवाही भी बताते। गृहमंत्री के इस बयान के संदर्भ में यह जरूरत महसूस होती है कि कांग्रेस सरकारी और प्रशासनिक स्तर पर इस तरह की गतिविधियों को रोकने के साथ जन स्तर पर भी ऐसे कार्यक्रम करे जिससे जनता के सामने आतंकवादियों का असल चेहरा सामने आ सके। इस काम में दूसरी सेकुलर ताकतों का साथ होना भी जरूरी है। जनता दल (यू) और शिवसेना भाजपा के समर्थन में उतर आए हैं। क्या कांग्रेस सेकुलर पार्टियों का फ्रंट तैयार नहीं कर सकती? यह विचित्र बात है कि कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियां चुनाव के बाद सत्ता के लिए एक-दूसरे से हाथ मिलाती हैं लेकिन चुनाव से पूर्व सांप्रदायिकता खत्म करने के लिए संयुक्त मोर्चा बनाने और जन आंदोलन चलाने से कतराती हैं।
`कश्मीर के ग्रैंड मुफ्ती का तालिबानी फतवा' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि पड़ोसी अफगानिस्तान का तालिबानी असर कश्मीर में पड़ने लगा है। कश्मीर के ग्रैंड मुफ्ती-ए-आजम बशीरुद्दीन ने तालिबानी फतवा जारी किया। उनका कहना है कि खुलेआम तेज संगीत गैर इस्लामिक है। दरअसल कश्मीरी लड़कियों ने एक राक बैंड प्रगाश बनाया है। जिसका अर्थ होता है अंधेरे से उजाले की ओर। लेकिन उसकी यह कोशिश रुढ़ीवादी समाज के लोगों के गले नहीं उतरी। पहले उन्हें ऑनलाइन बैंड बंद करने की धमकी दी गई और फिर सोशल साइट्स पर भद्दे कमेंट किए गए। इसके बाद इनके खिलाफ फतवा जारी कर दिया गया। उनका कहना है कि खुले आम तेज संगीत गैर इस्लामी है। इसलिए राक बैंड में शामिल लड़कियों को यह काम बंद कर देना चाहिए। सवाल यह है कि घाटी में नई चेतना का स्वर क्या कुछ दकियानूसी लोगों के समूह के एतराज के कारण खामोश हो जाएगा? क्या सामाजिक सांस्कृतिक जड़ता के खिलाफ संगीत को एक औजार की तरह इस्तेमाल करने का तीन लड़कियों का हौसला बीच राह में ही दम तोड़ देगा? क्या देश में सांस्कृतिक अराजकतावाद इतना मजबूत हो गया है कि कलाकारों और उनकी कला पर भी पाबंदी लगाई जाएगी? अगर ऐसा है तो हमें संदेह है कि हम क्या गुजरी सदियों की ओर नहीं बढ़ रहे हैं?