Monday, December 6, 2010

बिहार चुनाव से मुसलमानों को नई राह

बिहार विधानसभा चुनाव में राजग गठबंधन की शानदार जीत केबाद अब भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड को मिले मुसलिम वोटों का विश्लेषण जारी है। इस पूरे परिप्रेक्ष्य में सबसे ज्यादा दिक्कत मुसलिम जमाअतों और मिल्ली नेताओं को हो रही है, क्योंकि राज्य के मुसलमानों ने उनकी फासिज्म थ्योरी को खारिज कर विकास को अपना एजेंडा बनाया।
बिहार में करीब 16 फीसदी मुसलिम मतदाता हैं। तकरीबन 50 विधानसभा क्षेत्रों में इनकी तादाद 40 फीसदी है, जबकि 102 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुसलिम वोट नतीजों को प्रभावित करने का माद्दा रखते हैं। इसकेबावजूद केवल 19 मुसलिम उम्मीदवार कामयाब हुए, जिनमें तीन महिलाएं शामिल हैं। वहीं 37 मुसलिम उम्मीदवार दूसरे स्थान पर रहे। अधिकतर मुसलिम क्षेत्रों में राजग की सफलता को विकास से जोड़कर देखा जा रहा है, जो एक अहम फैक्टर है, लेकिन राजग की सफलता में वोटों के विभाजन ने भी अहम भूमिका निभाई। विधानसभा पहुंचने वाली तीन मुसलिम महिलाओं में एक राज्य के मुख्य सचिव अफजल अमानुल्ला की पत्नी परवीन अमानुल्ला भी हैं, जो ऑल इंडिया मुसलिम मजलिस मुशावरत के सदस्य शहाबुद्दीन की बेटी हैं। परवीन जदयू के टिकट पर विजयी हुई हैं। उनके पिता पूरे देश में भाजपा की सांप्रदायिकता के खिलाफ अभियान छेड़े हुए हैं और मुसलमानों को भाजपा के करीब जाने से रोकने में अहम भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन खुद उनकी बेटी उनके खिलाफ चली गई। इसलिए यह सवाल बहुत अहम हो जाता है कि क्या मुशावरत का भाजपा के प्रति दृष्टिकोण बदल गया है। मुसलिम जमाअतें जो हर मौके पर मुसलमानों को नसीहत देना अपना परम कर्तव्य समझती हैं, इस चुनाव में उनकी ओर से कोई अपील नहीं की गई। नतीजों के बाद जिन मुसलिम नेताओं ने अपनी जुबान खोली भी, उन्होंने सेक्यूलर पार्टियों को तो नसीहत दी, लेकिन किसी ने कांग्रेस को कठघरे में नहीं खड़ा किया कि उसने मुसलिम वोटों को प्रभावहीन करने के लिए इतनी बड़ी संख्या में अपने उम्मीदवार क्यों खड़े किए, जिसकेकारण राजग गठबंधन को अप्रत्याशित जीत हासिल हुई। निश्चय ही इससे कांग्रेस ने एक तीर से कई शिकार किए। लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान को हाशिये पर पहुंचाया और मुसलमानों को प्रभावहीन कर उनको जोर का झटका दिया। राजग गठबंधन को 2005 के विधानसभा चुनावों की तुलना में तीन फीसदी ज्यादा वोट मिले, लेकिन उसे 63 सीटों का फायदा हुआ, जबकि राजद-लोजपा गठबंधन को नौ फीसदी कम वोट मिले, लेकिन उनकी सीटों की संख्या घटकर आधी रह गई। वहीं दो फीसदी ज्यादा वोट मिलने केबावजूद कांग्रेस की सीटें 2005 विधानसभा चुनाव की तुलना में आधी रह गईं। इससे साफ है कि वोटों के बिखराव ने राजग की शानदार जीत में अहम भूमिका निभाई। बिहार चुनाव में एक अहम बात यह भी रही कि जदयू ने भाजपा से गठबंधन के बावजूद भाजपा के कट्टर हिंदुत्व की छवि वाले नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी व सांसद वरुण गांधी को चुनाव प्रचार के लिए राज्य में नहीं आने दिया। इसका फायदा यह हुआ कि जदयू पहले से मजबूत पार्टी बनकर उभरी और उसे 27 सीटों का फायदा हुआ। अब नीतीश की सरकार भाजपा के रहमोकरम पर नहीं रहेगी और न ही उसकेदबाव में काम करेगी। जदयू को समर्थन जारी रखना भाजपा की मजबूरी होगी, नहीं तो अन्य विधायकों का समर्थन हासिल करना जदयू केलिए कोई बड़ा काम नहीं होगा। एक न्यूज पोर्टल ने इन चुनावों में भाजपा को मिले मुसलिम वोट फीसदी का विश्लेषण करकेबताया कि भाजपा को मुसलिम वोट मिलने की बात करना सचाई के विपरीत है। इसके बावजूद यह बात अपनी जगह सही है कि भाजपा ने एक मुसलिम उम्मीदवार को टिकट दिया और वह कामयाब हो गया। इसी तरह गुजरात के पंचायत चुनाव में भाजपा ने 100 मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट दिया और वे सभी कामयाब हो गए, जो ऐतिहासिक सचाई है। इसे यह कहकर खारिज नहीं किया जा सकता कि ऐसा करने के लिए मुसलमान मजबूर थे, क्योंकि वे भाजपा शासित गुजरात में मानसिक रूप से सहमे थे। दरअसल, कुछ मुसलिम बुद्घिजीवियों और मुसलिम नेताओं का यह स्वीकार्य नहीं है कि मुसलमान कांग्रेस केजाल से बाहर निकल आएं। कुछ भी हो, लेकिन बिहार के चुनावी नतीजों ने देश के मुसलमानों को एक नई राह दिखाई है।

Tuesday, November 16, 2010

मुसलिमों को बदनाम करने की साजिश

इन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों के संबंध में कुछ ऐसी घटनाएं हो रही हैं, जो कई लिहाज से चौंकाने वाली हैं। हर जगह मुसलमानों को केंद्र में रखकर नीति बनाने की बात की जाती है, जबकि खुद मुसलिम इस परिदृश्य में कोई उल्लेखनीय भूमिका निभाते नजर नहीं आते।
बाबरी मसजिद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के फैसले के बाद जहां मुसलमानों ने फैसले को इंसाफ केखिलाफ बताया, वहीं बहुजन समाज पार्टी से कांग्रेस में गए राशिद अलवी ने मुसलमानों को ही यह सुझाव दे डाला कि वे हाई कोर्ट फैसले से मिली एक तिहाई जमीन को वापस कर दें, ताकि वहां पर भव्य राम मंदिर निर्माण हो सके। उनका यह बयान मुसलमानों को स्वीकार्य नहीं था, क्योंकि मुसलमान मंदिर निर्माण के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि वे मसजिद केस्थान पर मंदिर बनाने केखिलाफ हैं। अलवी का यह बयान उनकी पार्टी लाइन के अनुसार था। यही कारण था कि कांग्रेस अधिवेशन में किसी दूसरे मुसलिम कांग्रेसी को उतना महत्व नहीं मिला, जितना उन्हें मिला। यह वही कांग्रेस है, जिसकेशासन काल में बाबरी मसजिद में ताला लगा, फिर ताला खुला, इसके बाद शिलान्यास हुआ और अंत में बाबरी मसजिद का विध्वंस हुआ। अब मिलकियत केमुकदमे में अदालत की तरफ से जो एक तिहाई जगह मिली है, पार्टी (कांग्रेस) की तरफ से उसे भी छोड़ने की सलाह दी जा रही है।
अभी इस पर आत्ममंथन का सिलसिला जारी ही था कि केरल में मुसलमानों से संबंधित एक रायशुमारी ने उन्हें और भी विचलित कर दिया है। इस सर्वेक्षण में जिस तरह के सवालात पूछे जा रहे हैं उनसे मुसलिम समाज सांसद में है। उल्लेखनीय है कि केरल में यह सर्वेक्षण एक अमेरिकी संस्था द्वारा कराया जा रहा है। टीएनएस नाम की इस संस्था का कार्यालय हैदराबाद में भी है। टीएनएस ने दो अक्टूबर, 2010 को तिरुअनंतपुरम की करदम कॉलोनी में यह सर्वेक्षण कराया, जहां बहुसंख्यक मुसलिम आबादी है और यहां रहने वाले अधिकतर लोग गरीब तबके से ताल्लुक रखते हैं। यह सर्वेक्षण महिलाकर्मियों ने किया। कुल 83 पेज पर आधारित सवालों वाली इस पुस्तिका में पूछे गए सवाल कुछ इस तरह हैं। मसलन, आप खुद को भारतीय मानते हैं या मुसलमान? भारत में इसलामी कानून को क्रियान्वित करने के बारे में आप क्या सोचते हैं? क्या आप बुरका पहनना पसंद करती हैं? अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा केबारे में आपके क्या विचार हैं?
स्थानीय पुलिस ने भी इस सर्वेक्षण को सांप्रदायिक हिंसा फैलाने वाला बताया है। केरल केपुलिस महानिदेशक जैकब पोनोज के मुताबिक, सर्वेक्षण में पूछे जाने वाले सवालों से लोगों की भावनाएं भड़क सकती हैं। इससे पहले दिल्ली में भी एक सर्वेक्षण किया गया था। इसमें मुसलिम संगठनों के पदाधिकारियों से कई आपत्तिजनक सवाल पूछे गए थे।
9/11 की घटना के बाद जिस तरह विश्व स्तर पर मुसलमानों को निशाना बनाया गया, उससे पूरा समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया। खुद मुसलमानों को भी उनकी विचारधारा केआधार पर कई खानों में बांट दिया गया। इससे पहले ब्रिटेन में भी एक ऐसे सर्वेक्षण में आपत्तिजनक सवाल पूछे गए थे। इसमें वहां के आम नागरिकों से पूछा गया था कि आप मुसलमानों को पहले देशभक्त मानते हैं या मुसलिम। आश्चर्यजनक तरीके से वहां के लोगों ने मुसलिमों के बारे में कहा कि वे पहले देशभक्त हैं।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि 9/11 हमले केलिए अल कायदा को जिम्मेदार बताते हुए उसके खिलाफ मुहिम छेड़ी गई, तब खुद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ने हिंदुस्तानी मुसलमानों केबारे में कहा था कि भारत में मुसलमानों की इतनी बड़ी संख्या होने केबावजूद वहां के मुसलमान अल कायदा से नहीं जुडे़। बाद में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी इसी बात को दोहराया। सवाल यह है कि उपरोक्त सवालों का औचित्य क्या है और ये किन उद्देश्यों केतहत पूछे जा रहे हैं? मुसलमान पहले भारतीय हैं या मुसलिम, यह सवाल गुमराह करने के साथ-साथ किसी को भी ठेस पहुंचा सकता है। यह ठीक ऐसा ही है, जैसे किसी से पूछा जाए कि मां और बाप में पहले कौन है? मुसलिम होने के नाते धर्म उसे जिंदगी गुजारने का सलीका देता है, तो जन्मभूमि उसे सुरक्षा प्रदान करती है, जहां वह इच्छाओं को परवान चढ़ाता है। इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। इसलिए बुनियादी तौर पर यह सवाल ही गलत है, जिसकी भर्त्सना की जानी चाहिए।

Sunday, November 7, 2010

Article About RTI

You people may also check my latest article about RTI on following site.
http://www.aalamisahara.com/30102010/home.aspx?userid=&uli=

Sunday, October 31, 2010

आखिर किसका हित साध रहे हैं मिल्ली नेता?

बाबरी मसजिद पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ काफैसला आने के बाद मुसलमानों में दो दृष्टिकोण पाए जा रहे हैं। एक समूह, जिसमें ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी शमिल है, जो फैसले केखिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रहा है, तो वहीं कुछ मुसलिम नेता बातचीत द्वारा इस मसले को हल करना चाहते हैं। गत दिनों इस बाबत बंद कमरे में हुई बैठक केबाद यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि ये मिल्ली नेता किसका एजेंडा पूरा कर रहे हैं?
बंद कमरे की यह बैठक दिल्ली केलोधी रोड स्थित इंडिया इसलामिक कल्चरल सेंटर में हुई थी। सर्वसम्मेलन समाज की ओर से आयोजित इस बैठक में ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड केसदस्य एवं दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व चेरयमैन कमाल फारूकी, ख्याति प्राप्त आलिमेदीन मौलाना वहीदउद्दीन खां, जमीअत उलेमा हिंद केपूर्व महासचिव एवं मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड सदस्य मौलाना महसूद मदनी, आर्य समाज के स्वामी अग्निवेश, आर्ट ऑफ लिविंग केश्री श्री रविशंकर और आरएसएस नेता इंद्रेश शामिल थे। इस बैठक में ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल महासचिव डा. मोहम्मद मंजूर आलम को भी बुलाया गया था, पर उन्होंने इसमें भाग लेने से साफ इनकार कर दिया।
इस बैठक में सबसे गंभीर मामला जमीअत केपूर्व महासचिव मौलाना महमूद मदनी का था। उन्होंने बातचीत से मसला हल करने का बयान लखनऊ में पर्सनल लॉ बोर्ड की 16 अक्तूबर को हुई कार्यकारिणी की बैठक से एक दिन पहले दिया था, जिस पर काफी हंगामा हुआ और खुद जमीअत उलेमा केअंदर यह सवाल उठ खड़ा हुआ था कि क्या जमीअत का भी यही दृष्टिकोण है। उनकेइस बयान से सर्वप्रथम दारूल उलूम देवबंद ने पल्ला झाड़ा। देवबंद के नायब मोहतामिम मौलाना अबदुल खालिक मदरासी ने स्पष्ट किया कि इस बयान से दारूल उलूम का संबंध नहीं है। यदि यह उनका व्यक्तिगत बयान है, तो उन्हें 19 अक्तूबर को होने वाली जमीअत कार्यकारिणी की बैठक से पूर्व यह कहने की क्या जरूरत थी?
बंद कमरे की यह बैठक जमीअत कार्यकारिणी केदो दिन बाद हुई। लिहाजा सवाल यह है कि पर्सनल लॉ बोर्ड की बैठक से एक दिन पूर्व बयान और जमीअत कार्यकारिणी केदो दिन बाद बैठक में भाग लेने का औचित्य क्या है, जबकि वह पर्सनल बोर्ड द्वारा सुप्रीम कोर्ट में जाने के सुर में सुर मिला रहे हैं। जमीअत बाबरी मसजिद के पहलू को लेकर प्रस्ताव कर स्पष्ट कर चुकी है कि एक बार मसजिद बन जाने के बाद जमीन से आसमान तक और कयामत (प्रलय) तक मसजिद रहेगी। जमीअत नेता इस सोच के विपरीत विचारधारा केलोगों से मुलाकात कर किस मिशन पर हैं? इस तर्क से बचाव किया जा सकता कि शायद उन्हें नहीं मालूम हो कि बैठक में कौन-कौन आ रहे थे और वे तो स्वामी अग्निवेश के फोन करने पर चले गए थे। पर काबिल-ए-गौर बात यह है कि बैठक का आयोजन करने वाली संस्था की मुसलमानों में सिरे से कोई पकड़ ही नहीं है और न ही उसकेबारे में लोग जानते हैं। उसकेफोन करने से कोई मुसलिम नेता आने के लिए तैयार नहीं होते, इसलिए संस्था ने स्वामी अग्निवेश का सहारा लिया और उनसे फोन कर लोगों को बैठक में बुलाया। उर्दू समाचार-पत्रों ने बैठक की रिपोर्ट छापी और फोटो छापकर उपस्थित जनों को बेनकाब कर दिया। इसके विपरीत एक प्रमुख अंगरेजी दैनिक केसंवाददाता द्वारा मौलाना महमूद मदनी को बैठक का हिस्सा नहीं थे, लिखे जाने पर इंडिया इसलामिक कल्चरल सेंटर के अध्यक्ष सिराजउददीन कुरैशी के मीडिया सचिव आश्चर्यचकित हैं। उनकेअनुसार मौलाना महमूद मदनी बैठक का हिस्सा थे और वहां उन्होंने बातचीत में हिस्सा लिया और लगभग सवा घंटा तक का वक्त वहां गुजारा। यह बात उक्त समाचार पत्र केपत्रकार को भलीभांति मालूम थी, लेकिन उसने अपनी रिपोर्ट में मदनी को क्लीन चिट दे दिया।
वैसे यह भी चर्चा है कि कहीं इस पूरे घटनाक्रम के पीछे ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड का समर्थन तो नहीं है। वह इस घटना पर पूरी तरह मौन है और अब तक उसकी ओर से किस तरह का खंडन भी नहीं आया है, जबकि ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल ने काउंसिल सदस्य के तौर पर कमाल फारुकी का नाम आने पर स्थित स्पष्ट कर दी है कि उसकी कार्यकारिणी ने किसी भी व्यक्ति को इस तरह की बातचीत में भाग लेने के लिए अधिकृत नहीं किया है।

Right to Education Act 2009

Muslim Personal law Board and Muslims Issues

Indian Population And Muslims

We and Qadiyaniyat

Muslim and Interest

Why does Politics Issus Become Muslim Issues?

Qadiyaniyat

Right to information

अयोध्या विवाद : बुनियादी सवालों की अनदेखी


इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ द्वारा बाबरी मसजिद-राम जन्मभूमि की मिलकियत पर दिया गया फैसला अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है। स्वयं मुसलमानों और धर्मनिरपेक्ष लोगों की ओर से इसे आस्था आधारित फैसला बताया जा रहा है और फैसले के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की जा रही है, जबकि कानूनी विशेषज्ञ पूरा फैसला पढ़ने और उसका विश्लेषण करने में लगे हुए हैं। वहीं हिंदू महासभा ने सुप्रीम कोर्ट में कैवियट दाखिल कर पूरे मामले को एक नया रुख दे दिया है। इसके चलते वह मुसलिम नेता, जो बातचीत द्वारा इस मसले को हल करने की बात कर रहे थे, ने भी अपना दृष्टिकोण बदल लिया और अब इसे सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रहे हैं।
मुसलमानों की ओर से लगभग एक ही स्वर में सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कही जा रही है। इस बावत ऑल इंडिया मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड, जिसमें विभिन्न मुस्लिम जमाअते शामिल हैं और जिसका काम ही पसर्नल लॉ का संरक्षण करना है, की बाबरी मसजिद कमेटी की बैठक में यह फैसला लिया जा चुका है जिस पर आधिकारिक तौर पर बोर्ड की 16 अक्तूबर की बैठक में मुहर लगेगी। सबसे दिलचस्प मामला बाबरी मसजिद मुकदमे के एक पक्ष जमाअत उलेमा हिंद का है। 9 अक्तूबर को बोर्ड की बाबरी मसजिद कमेटी की बैठक के दिन ही जमाअत नेता मौलाना महमूद मदनी का एक बयान अखबारों में प्रकाशित हुआ कि मसले के हल के लिए बातचीत की जा सकती है। उनकी इस बात पर मुसलिम उलेमा ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की, स्वयं जमाअत के अंदर भी उनके इस बयान को पसंद नहीं किया गया।
मामले का मुख्य वादी उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड पहले से सुप्रीम कोर्ट जाने की घोषणा कर चुका है। जबकि एक अन्य वादी हाशिम अंसारी बातचीत के पक्ष में हैं।
हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना कोई आश्चर्यजनक और नई बात नहीं है, बल्कि इंसाफ पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाना लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा है। यही कारण है कि जो भी वादी हाईकोर्ट के फैसले से संतुष्ट नहीं होता है वह सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाता है। ऐसा करने से उसे किसी भी तरह से रोका नहीं जा सकता है। लेकिन मुसलिम जमाअतों द्वारा जिस योजनाबद्ध तरीके से इसे दोहराया जा रहा है उससे चाहते हुए भी संदेह पैदा हो रहा है। सवाल यह है कि आखिर ऑल इंडिया मुसलिम पसर्नल लॉ बोर्ड इस मामले में इतना सक्रिय क्यों है? मुकदमे में वादी उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड है, मुसलिम पसर्नल लॉ बोर्ड का तो इस मसले में दूर-दूर तक वजूद नहीं है।
काबिले गौर बात यह है कि ऑल इंडिया मुसलिम पसर्नल लॉ बोर्ड का गठन पसर्नल लॉ के संरक्षण हेतु 1972 में किया गया था। लेकिन इतिहास साक्षी है कि पसर्नल लॉ संरक्षण के मामले में यह बोर्ड लगातार नाकाम रहा है। 1985 में बहुचर्चित शाहबानो केस में भी इसने मुहिम चलाई थी, लेकिन उसके नतीजे में संसद से जो कानून पारित हुआ उसने पसर्नल लॉ के संरक्षण के बजाय हस्तक्षेप का दरवाजा खोल दिया। उसके बाद से अदालतों द्वारा लगातार पसर्नल लॉ विरोधी फैसले रहे हैं। लेकिन बोर्ड आज तक उन्हें कोर्ट में चैलेंज कर पाने में असमर्थ रहा है। ऐसे में मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा बाबरी मुकदमे में किसी तरह की सकारात्मक उम्मीद वास्तविकता के विपरीत ही होगी। निश्चिय ही जो लोग इसका प्रचार कर रहे हैं, उससे इस बात को बल मिलता है कि ऐसा मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड के शीर्ष पदों पर बैठे अधिकारियों के संरक्षण और उनकी चौधराहट और पकड़ को बरकरार रखने और मजबूत बनाने के लिए किया जा रहा है।
बुनियादी बात यह है कि उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड इस मामले में मुख्य वादी है। यह सरकार के अधीन संस्था है। फिर वह अदालत में मुकदमे की ठीक से पैरवी क्यों नहीं कर सका? कहीं किसी योजना के तहत उसने मामले में कमजोर पैरवी तो नहीं की? इस लंबे चले मुकदमे के दौरान मुसलिम पसर्नल लॉ बोर्ड सहित अन्य लोगों द्वारा लगातार यही कहा जाता रहा कि हम जीत रहे हैं, लेकिन जब मालिकाना हक का फैसला आया तो वह विपरीत था। ऐसा क्यों हुआ, पर कोई चर्चा के लिए तैयार नहीं है और एक ऐसे मसले पर अंगुली उठाई जा रही है जिस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है। सभी पक्षों को यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि चाहे जो भी हो, माहौल बिगड़े।
  • खुरशीद आलम

जनता के पैसे पर ‘सरकारी हज’

देश में हुए  कॉमनवेल्थ गेम्स में ही जनता के टैक्स का दुरुपयोग नहीं हुआ है, बल्कि हज जैसी पवित्र यात्रा में सब्सिडी देने और हज डेलीगेशन को सऊदी अरब भेजने के नाम पर भी यही कुछ हो रहा है। सब्सिडी और डेलीगेशन सदस्यों की प्रति वर्ष बढ़ती संख्या के चलते हर साल इसके बजट में भारी वृद्धि हो रही है। कैगने अपनी रिपोर्ट में इस पर सवाल उठाए हैं और डेलीगेशन सदस्यों के चयन और भेजने की पूरी प्रक्रिया पर प्रश्न चिह्न लगाया है।
हज के समय सरकार द्वारा हज डेलीगेशन भेजने का सिलसिला 1966में शुरू हुआ था, तब सरकार ने पहली बार पांच लोगों को डेलीगेशन में भेजा था। जिसके बाद यह सिलसिला साल-दर-सालबढ़ता गया और अब स्थिति यह है कि इसके सदस्यों की संख्या 40का आंकड़ा पार कर चुकी है। हज डेलीगेशन को लेकर मुसलमानों में समय-समयपर चर्चा होती रहती है। वह यह समझ पाने में असमर्थ हैं कि हज डेलीगेशन का औचित्य क्या है? जबकि हज जिंदगी में एक बार फर्ज है, वह भी आर्थिक रूप से संपन्नमुसलमानों पर इसी के साथ उसकी कमाई पाक और हलाल होनी चाहिए। शायद ही इसीलिएआम मुसलमान सरकार द्वारा हज पर जाने वालों को सरकारी हाजी की उपाधि देते हैं। हज डेलीगेशन विदेश मंत्रालय द्वारा तैयार किया जाता है। सरकार इसमें अपने शुभ चिंतकों को शामिल करती है। डेलीगेशन में केवल राजनेता ही नहीं बल्कि, पत्रकार, उलेमा,बुद्धिजीवी आदि शामिल हैं। बताया जाता है कि सरकार इन्हें हज पर भेजकर एक वार से दो शिकार करती है। एक तो उसके विरोधी स्वर को खत्म कर देती है और दूसरा जब कभी सत्ता असनपार्टी मुसलमानों में स्वयं को घिरा महसूस करती है, वहीं माहौल को अनुकूल बनाने के लिएइन्हें ही इस्तेमाल करती है। हज डेलीगेशन की सऊदी अरब में क्या भूमिका है और इस गुडविल डेलीगेशन में किसी को शामिल करने का पैमाना क्या है, जैसे सवालों को विदेश मंत्रालय के पास कोई जवाब नहीं है, तभी तो उसने सूचना अधिकार अधिनियम 2005के तहत पूछे गएइस सवाल को टाल दिया है। कैगने भी इस सवाल को अपनी रिपोर्ट में उठाया है। कैगने गुडविल डेलीगेशन का साइज कम करने और उसकी भूमिका निर्धारित करने का सुझाव दिया है।
18से 20दिन तक चलने वाले इस हज डेलीगेशन में शामिल व्यक्तियों का पूरा खर्च सरकार वहन करती है। इसके बावजूद इनका वहां कोई काम तय नहीं है। आरटीआई द्वारा हासिल सूची से स्पष्ट होती है कि इसमें शामिल होने वाले कई व्यक्ति दो-दो, तीन-तीनबार सरकारी हज करते रहे हैं। इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के अध्यक्ष और रेलवे राज्य मंत्री ई अहमद तीन बार सरकारी खर्च पर हज पर जा चुके हैं। पहली बार वह राजद शासन काल में गए थे, दूसरी बार 2004और तीसरी बार 2006में जब वह विदेश राज्य मंत्री थे। भाजपाके सैयद शाहनवाज हुसैन 2002और 2003में लागतारदो बार हज पर जा चुके हैं। इसी सूची में कांग्रेस सांसद (राज्यसभा) अहमद सईद मलिहाबादी(2001और 2007),सांसद शफीर्कुरहमानवर्क (2005और 2007)और सेवा निवृत्त आईएएस लुतुर्फरहमानलशकर(2000और 2007)भी शामिल हैं।
आरटीआई जवाब के मुताबिक इस हज डेलीगेशन पर सरकार का छह करोड़ रुपये का बजट है। डेलीगेशन के प्रत्येक सदस्य पर आठ लाख रुपये का खर्च आता है, जो एक हाजी पर आने वाले खर्च से चार से पांच गुना ज्यादा होता है। यह खर्च 2008में बढ़कर 13लाख रुपये प्रतिहाजी तक पहुंच गया है। 2005में यह डेलीगेशन 34सदस्यों पर आधारित था। जबकि अगले साल दो-दो डेलीगेशन भेजे गए,जिसमें से हर एक में 24व्यक्ति शरीक थे । 2007में 29और 2008में 34व्यक्ति शामिल थे।
यह बात कम महत्वपूर्ण नहीं है कि एक तरफ तो सरकार दैनिक उपभोग की वस्तुओं पर से सब्सिडी खत्म करने की बात कर रही है, जिसका सीधा असर गरीबों पर पड़ेगा। लेकिन दूसरी तरफ वह मुसलमानों द्वारा करोड़ों की हज सब्सिडी को खत्म करने की मांग को मानने के बजाय हर साल उसमें वृद्धि करती जा रही है। टैक्स की रकम को हज सब्सिडी और डेलीगेशन में खर्च करके धार्मिक कार्यों को जिस तरह राजनीतिक रंग दिया जा रहा है, वह निश्चय ही निंदा का विषय है। क्योंकि सरकारी पैसे से हज की इसलाम में कोई मान्यता नहीं हैं।
सरकार मुसलमानों द्वारा करोड़ों की हज सब्सिडी को खत्म करने की मांग को मानने के बजाय हर साल उसमें वृद्धि करती जा रही है ।
  • खुर्शीद आलम

इराक से अमेरिकी वापसी की वास्तविकता

इराक में 18माह पूर्व शुरू हुई अमेरिकी फौजियोंकी वापसी का अंतिम जत्था 31अगस्त 2010को अमेरिका ने इराक की जंग जीत ली के नारे के साथ इराक से निकल गया। साढ़े सात साल चली इस जंग पर 748 अरबडालर खर्च हुएऔर 4414 अमरिका फौजियों सहित डेढ़ लाख बेगुनाह इराकी नागरिक मारे गए।इराक से 94हजार अमेरिकी फौजियोंकी वापसी के बाद भी वहां अमेरिका के 50हजार फौजी बने रहेंगे। इस फौज का नाम बदल दिया गया है। वह अब जंगी फौज नहीं, बल्कि प्रशिक्षण फौज कहलाएगी। जो इराकी फौज को प्रशिक्षण देगी और इराक में अमेरिकी हितों का संरक्षण करेगी, जिसमें इराकी तेल पर कब्जा सर्वप्रथम है। अमेरिकी रक्षा समीक्षकों का मानना है कि इराकी फौज को बड़े लंबे समय तक इसकी जरूरत रहेगी क्योंकि आगामी दस वर्षों तक यह आशा नहीं की जा सकती कि, इराकी फौज आंतरिक सुरक्षा के साथ-साथ देश की हिफाजत की भी जिम्मेदारीपूरे तौर पर संभाल सकेगी।
वरिष्ठपत्रकार आसिफ जिलानी(लंदन) लिखते हैं कि इराक से अमेरिकी फौज की वापसी एक ढोंग है और यह बताने के लिएकिया गया है कि राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस साल 31अगस्त तक इराक से अमेरिकी फौज की वापसी का जो वादा किया था, वह निर्धारितसमय में पूरा हो गया। इस समय यह ढोंग वास्तव में नवंबर में होने वाले मध्यावधि चुनाव के लिएरचा गया है। नवंबर में अमेरिकी कांग्रेस के अतिरिक्त सीनेट की 100में से 34सीटों के लिएऔर 50में से 34राज्यों के राज्यपाल के लिएचुनाव होंगे। वे इस लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण है कि इन्हें राष्ट्रपति की कार्यप्रणाली पर जनमत संग्रह माना जाएगा औरइसके नतीजों का आगामी राष्ट्रपति चुनाव पर गहरा प्रभाव पडे़गा।
गैलपपोल के ताजा सर्वे के अनुसार ओबामा की लोकप्रियता गोरे (श्वेत) मतदाताओं में घटी है और जनवरी 2009में 62फीसदी के मुकाबले वर्तमान में मात्र 38फीसदी रह गई है। जो कि बहुत ही चिंताजनक है। विशेषज्ञ मानते हैं कि इस अवसर पर अमेरिकी फौजों की वापसी से यह बताना संभव हो सकेगा कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने जो वादा किया था, वह पुरा कर दिखाया। अमेरिकी गृह मंत्रालय का मानना है कि 50हजार अमेरिकी फौज के अलावा निजी संस्थानों की सुरक्षा हेतु लगभग सात हजार निजी सुरक्षा कर्मियों की तुरंत आवश्यकता होगी, जिनमें ब्लैक वॉटरके जो अब जी सर्विसेज कहलाती है और डाएनकोर जैसी संस्थानों के सुरक्षाकर्मी शामिल होंगे।
2003में जब अमेरिका ने इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन पर बड़े पैमाने पर तबाही फैलाने वाले हथियारों के झूठे आरोपों की बुनियाद पर अपने ऑफिसरों के साथ इराक पर हमला किया था, तो इसे ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ का नाम दिया था। यह सही है कि इस जंग के नतीजे में सद्दाम हुसैन का तख्ता उलट कर सदैव के लिएउससे मुक्ति हासिल कर ली गई, लेकिन इस मकसद के लिएइराक में जिस तरह तबाही और बरबादी की गइ,ऱ् उसे विश्व के मुसलिम समुदाय किसी भी सूरत में आजादी या आजादी की संज्ञा देने के लिएतैयार नहीं हैं। अमेरिकी फौजों के आने से पहले इराक में शिया-सुन्नीएक साथ रहते थे, लेकिन अमेरिकी फौजों के आने के बाद से दोनों एक -दूसरेके खून के प्यासे हो गए।इसी के साथ अरब-कुर्दसंघर्ष ने भी इराकी एकता, अखंडता को चूर-चूरकर दिया है। अमेरिका का दावा है कि उसने इराक पर कब्जे के तुरंत बाद चुनाव कराए और लोकतंत्र स्थापित किया, लेकिन वास्तविकता यह है कि साढ़े सात साल के दौरान अमेरिकी फौजियोंने इराकियों को आपस में इस बुरी तर लड़ाया है कि पांच महीने पूर्व हुएआम चुनाव के बाद अभी तक नई सरकार नहीं बन सकी है।
गत दिनों यह रहस्योद्घाटनहुआ कि ओबामा ने निराशा के चलते इराक के शिया धर्म गुरु अयातुल्ला उजमीअली सिसतंयानीको एक पत्र लिखकर अनुरोध किया गया था कि वह नई सरकार के गठन में पैदा हुई रुकावटोंको दूर करने में सहायता करें। अभी तक इस निवेदन पर कोई सुनवाई नहीं हुई। इस कटु सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि सद्दाम हुसैन के दौर में धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद दूर-दूरतक नहीं था, लेकिन समाचारों के अनुसार अब इराक अल कायदा और अन्य आतंकवादी संगठनों का केंद्र बन चुका है, जिससे पूरे मध्य पूर्व को खतरा पैदा हो गया है। इस प्रसंग में अमेरिका के लिएइराक ऑपरेशन एक बड़ी जीत हो सकती है। लेकिन लुटे-पिटेउजड़े इराकवासियों के लिएतो यह भयानक डरावनी रात जैसा साबित होगा।
अब ओबामा की लोकप्रियता गोरे (श्वेत) मतदाताओं में पहले से घटी है, जिसकी वजह से वर्तमान में मात्र 38 फीसदी ही रह गई है ।
  • खुर्शीद आलम

मिस्र में आसान नहीं सत्ता परिवर्तन


आनेवाले दिनों में मिस्र की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा, इस पर सुगबुगाहट तेज हो गई है। क्या राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक अपना पद छोड़ देंगे? क्या वह अपने बेटे को अपना उत्तराधिकारी बना पाएंगे? क्या हमेशा की तरह इस बार भी वह अपने विरोधियों को चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित कर सकेंगे? क्या मोहम्मद अलबरदेई उनके लिए चुनौती साबित होंगे? ऐसे सवालों से वहां के अखबार भरे हुए हैं।
मिस्र में विपक्ष कमजोर है। इसके बावजूद 1981 से राष्ट्रपति चले रहे 82 वर्षीय मुबारक के खिलाफ लगातार माहौल बनता जा रहा है और जनता परिवर्तन चाहती है। हुस्नी मुबारक ने अभी कोई घोषणा नहीं की है, लेकिन आम धारणा यही है कि वह अपने बेटे जमाल मुबारक को अपना उत्तराधिकारी बनाने की कोशिश करेंगे। हालांकि अमेरिका-यूरोप के चहेते मोहम्मद अलबरदेई उनके खिलाफ ताल ठोंककर मैदान में गए हैं।
मिस्र में राष्ट्रपति चुनाव अगले साल होगा, जबकि संसदीय चुनाव अगले महीने। आगामी राष्ट्रपति चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर उतरने की मुहिम चलाने वाले 68 वर्षीय अलबरदेई का अब कहना है कि वह उस समय तक चुनाव नहीं लड़ेंगे, जब तक निर्दलीय उम्मीदवारों पर लगाए गए उन विशेष प्रतिबंधों को खत्म करने के लिए संविधान में संशोधन कर दिए जाएं, जिनका सहारा लेकर अभी तक मुबारक अपने विरोधियों का रास्ता रोकते रहे हैं।
अलबरदेई ने संविधान संशोधन के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाने की बात कही है। इसके बाद वह शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन करेंगे और इस मुहिम का अंतिम पड़ाव असहयोग आंदोलन होगा, जो तब तक चलेगा, जब तक सरकार संशोधन के लिए राजी हो जाए। करीब 25 साल तक संयुक्त राष्ट्र की ओर से दुनिया भर के परमाणु कार्यक्रम की गतिविधियों का मॉनीटर करने वाले और 2005 में शांति का नोबल पुरस्कार हासिल करने वाले अलबरदेई ने मिस्र की राजनीति में पहले कभी भाग नहीं लिया। हालांकि अभी कहा नहीं जा सकता कि वह राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार होंगे ही। उनके नाम की चर्चा इस वजह से हो रही है, क्योंकि उन्होंने कहा था कि वैश्विक जिम्मेदारियों से फारिग होकर राजनीति में हिस्सा लेने के लिए वह अपने देश वापस रहे हैं।
अलबरदेई के बारे में मिस्र में आम चर्चा यह है कि उन्होंने मुसलिम देशों के खिलाफ पश्चिम के आरोपों को साबित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इराक और ईरान के खिलाफ परमाणु हथियार रखने के आरोपों को सच साबित करने के अलावा सद्दाम हुसैन के महलों और उनके परमाणु ठिकानों की तलाशी में उनकी उल्लेखनीय भूमिका है। जबकि पश्चिम के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, उन्होंने कभी इस्राइल के परमाणु हथियारों पर आपत्ति नहीं जताई। पश्चिम का आशीर्वाद अपनी जगह, लेकिन मिस्र की राजनीति में उनके लिए भाग लेना बच्चों का खेल नहीं होगा। जबकि हुस्नी मुबारक को तीन दशक के अपने विराट कार्यकाल में कभी कोई बड़ी राजनीतिक चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा।
अनवर सादात के कत्ल के बाद हुस्नी मुबारक उपराष्ट्रपति से राष्ट्रपति बने थे। राष्ट्रपति पद संभालने के बाद उन्होंने उपराष्ट्रपति का पद ही खत्म कर दिया। अब मिस्र के राष्ट्रपति चुनाव रेफरेनडम की तरह होते हैं, जिसमें एक ही उम्मीदवार होता है, जिसके समर्थन में 95 फीसदी से ज्यादा वोटिंग हो जाती है। मिस्र के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के उम्मीदवार के लिए कड़ी शर्तें रखी गई हैं। उम्मीदवार अगर किसी राजनीतिक पार्टी से है, तो शर्त यह है कि वह आधिकारिक तौर पर पंजीकृत पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में से हो और चुनाव से पहले कम से कम एक साल का समय गुजार चुका हो। इस राजनीतिक पार्टी का भी चुनाव से कम से कम पांच साल पूर्व पंजीकरण होना चाहिए। यदि वह निर्दलीय उम्मीदवार है, तो उसे कम से कम ढाई सौ सांसदों अथवा जिला काउंसिलों का समर्थन हासिल करना होगा, जो बेहद मुश्किल है, क्योंकि इन संस्थानों में दो तिहाई से अधिक लोग सत्ता पार्टी के हैं।
मिस्र का समाज बदलाव चाहता है। लेकिन जब तक संविधान संशोधन नहीं हो जाता, नए राष्ट्रपति का सामने आना टेढ़ी खीर है। ऐसी स्थिति में अमेरिका और यूरोप अपने एजेंडे के लिए कौन-सी चाल चलते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा।
  • खुरशीद आलम

ब्याजरहित कर्ज नीति की जरूरत


केंद्र की यूपीए सरकार की दूसरी पारी के पहले साल में अल्पसंख्यकों के उत्थान हेतु घोषित की गई योजनाओं की स्याही सूखी भी नहीं थी कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने अल्पसंख्यकों के उन योजनाओं की पोल खोल दी है। इससे पहले भी जब सरकार ने अपना रिपोर्ट कार्ड जारी किया था, तो उसके दूसरे दिन ही एनएसएसओ ने अपनी रिपोर्ट में शैक्षिक रूप से मुसलमानों के पिछड़ेपन के आंकड़े जारी कर उसे कठघरे में खड़ा कर दिया था। फिलहाल आरबीआई की यह रिपोर्ट कहती है कि पिछले वित्त वर्ष में देश के 121 अल्पसंख्यक जिलों में बैंकों की ओर से कर्ज दिए जाने और बैंक खाता खोलने की दर में भारी गिरावट आई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2008-09 की समाप्ति पर अल्पसंख्यक बहुल जिलों में खुलने वालों बैंक खातों में मात्र 4.05 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि वर्ष 2007-08 में यह वृद्धि 83.80 प्रतिशत थी। इसी तरह, अल्पसंख्यक बहुल जिलों में व्यावसायिक बैंकों की ओर से कर्ज दिए जाने में भी मात्र 31.26 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि वर्ष 2007-08 में यह दर 199.69 प्रतिशत थी।
दरअसल, आरबीआई ने प्रधानमंत्री के 15 सूत्रीय कार्यक्रम में रंग भरने हेतु सभी बैंकों को निर्देश दिया था कि वह अल्पसंख्यक बहुल जिलों में कर्ज देने और उनके नए बैंक खाते खोलने पर विशेष ध्यान दें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रिपोर्ट बताती है कि अत्यधिक निरक्षरता, बुनियादी सुविधाओं की कमी, अल्पसंख्यक बहुल जिलों में आर्थिक गतिविधियों की कमी, कर्ज वापसी की दर में कमी, बैंक और स्पांसर एजेंसियों में ताल-मेल की कमी जैसे कारकों के कारण ही ऐसा हुआ है।
गौरतलब है कि सरकार द्वारा जिन पांच समुदाय को अल्पसंख्यक के तौर पर चिह्नित किया गया है, उसमें मुसलिम, सिख, इसाई, बौद्ध और पारसी शामिल हैं। मुसलिम समुदाय को छोड़कर बाकी चारों समुदाय काफी संपन्न एवं शिक्षित माने जाते हैं। सच्चर कमेटी ने भी मुसलमानों के पिछड़ेपन को उजागर किया था। फिलहाल, रिपोर्ट में जिन कमियों की ओर इशारा किया गया है, वे सभी मुसलमानों से संबंधित हैं। इस स्थिति में आरबीआई द्वारा उन्हें दूर करने के लिए किसी रोडमैप का बनाना सरकार की नीति और आरबीआई की इच्छा शक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाती है।
इस संदर्भ में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि किसी को कर्ज देने का अर्थ क्या है? निश्चय ही बिना किसी स्पष्ट नीति के कर्ज देने को कोई औचित्य नहीं है। इससे तो वह समुदाय लाभान्वित होगा और ही ऐसा करने से किसी प्रकार की आर्थिक गतिविधि को संबल मिलेगा। अल्पसंख्यक, विशेषकर मुसलिम बहुल क्षेत्रों में जिस तरह की आर्थिक गतिविधियां होती हैं, वे ज्यादातर हाथ वाले कामों की श्रेणी में आते हैं। मसलन, लघु उद्योग, जैसे कानपुर के कुछ मोहल्लों में घर-घर चप्पल बनाने का काम होता है। इन छोटे और घरेलू उद्योगों को पैसे की जरूरत होती है, लेकिन बैकों द्वारा शर्तों और विभिन्न प्रकार के कागजात की मांग की जाती है, जिसकी पूर्ति करना इनके लिए संभव नहीं होता। लिहाजा वे इससे दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। वैसे भी कर्ज का ब्याज कितनी तेजी से बढ़ता है, उसका अनुमान भुक्तभोगी को ही होता है। आम सोच यही है कि यह जोंक की तरह आदमी से चिपक जाती है और जान लेकर ही छोड़ती है। सरकार यदि वास्तव में अल्पसंख्यक समुदाय में आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देना चाहती है, तो उसे ब्याजरहित कर्ज देने की नीति अपनानी चाहिए।
अल्पसंख्यक आबादी वाले क्षेत्रों का एक बड़ा मसला यह है कि वे घनी बस्तियों में बसते है, जहां किसी प्रकार की बुनियादी सुविधाएं नहीं होतीं। बैंक अपने स्तर से इन क्षेत्रों को निगेटिव घोषित कर देते हैं, जिसके बाद उस क्षेत्र के रहने वाले लोगों के लिए बैंक कर्ज आदि के दरवाजे बंद हो जाते हैं। दिल्ली का ओखला ऐसा ही एक क्षेत्र है, जहां मुसलमानों की बड़ी-बड़ी जमाअतों के मुख्यालय हैं और जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसे विश्वविद्यालय भी हैं, पर यह क्षेत्र निगेटिव एरिया है। सवाल यह है कि किसी क्षेत्र को किस आधार पर निगेटिव एरिया घोषित किया जाता है। क्या समुदाय विशेष के रहने के कारण ऐसा होता है? अगर नहीं, तो क्या मुसलमान कर्ज वापस नहीं करते? अगर ऐसा है, तो सरकार को स्पष्ट रूप से बताना चाहिए कि कहां और किस क्षेत्र में कितना कर्ज बाकी है, जिसकी वापसी नहीं हुई। हमें नहीं भूलना चाहिए कि एक बेहतर नीति ही समाज को विकास की सीढ़ी पर आगे बढ़ा सकती है।
  • खुरशीद आलम