Sunday, February 17, 2013

`संसद हमला इतना बड़ा और फांसी सिर्प एक को'


अफजल गुरू की फांसी पर चर्चा करते हुए दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील शम्सी ने अपने स्तंभ में लिखा है कि अफजल गुरू को मकबूल भट की तरह फांसी के बाद जेल ही में दफन कर दिया गया। जाहिर है इसकी मौत पर कश्मीर के अलगाववादी लोगों में गम का माहौल है, क्योंकि  उनकी दृष्टि में अफजल गुरू तो एक मुजाहिद था, जिसने कश्मीरियत की लड़ाई  लड़ी। दुर्भाग्य से आतंकवाद अख्तियार करने वालों की दो तस्वीरें दुनिया के सामने होती हैं। एक वर्ग उनको अत्यंत खराब इंसान मानता है जबकि दूसरा वर्ग उनको हीरो का दर्जा देता है जैसा कि पंजाब में भी हो रहा है कि वहां की शिरोमणी अकाली दल की सरकार ऐसे लोगों को शहीद का दर्जा देती है जिन्होंने देश में आतंक का नंगा नाचा दिखाया। इंदिरा गांधी के हत्यारों की तस्वीर अमृतसर के धार्मिक स्थानों पर शहीद के तौर पर लगी हुई हैं। बेअंत सिंह के हत्यारे को जिंदा शहीद का दर्जा दिया गया है। ऐसी ही हमदर्दी अफजल गुरू के साथ कश्मीर के अलगाववादियों को है और इसी कारण वहां इतनी बेचैनी है कि सरकार को पूरी घाटी में कर्फ्यू लगाना पड़ा है। जहां तक अफजल गुरू को फांसी दिए जाने का सवाल है तो भारतीय सरकार ने न्यायिक प्रक्रिया को पूरी तरह साफ रखा है और इसी कारण सजा के आदेश पर अमल होने में इतनी ज्यादा देर लगी। हमारे विचार में देरी के कारण भारत की कानूनी व्यवस्था का सम्मान बाकी रहा।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अफजल गुरू को फांसी दिया जाना कानून के सभी पहलुओं की कसौटी पर खरा उतरता है या नहीं, इस पर बहस की जा सकती है और शायद की भी जाए। लेकिन एक बात तय है कि इस अचानक फैसले के पीछे सियासी पहलू छुपा हुआ है। यह बात आमतौर पर जानी जाती है कि अफजल गुरू को फांसी न दिया जाना भाजपा और शिवसेना के हाथों में एक बहुत प्रभावी हथियार बन गया था, जिसका दोनों ने कांग्रेस के खिलाफ जी भर इस्तेमाल किया और यह कहकर किया कि अफजल गुरू को फांसी इसलिए नहीं दी जा रही है कि कांग्रेस आतंकवादियों के प्रति नरमी की नीति पर काम कर रही है। इस  बाबत इस तर्प को भी चुटकियों में उड़ा दिया जाता था कि अफजल गुरू ने राष्ट्रपति से दया की अपील की थी और इनकी अपील का नम्बर पहला नहीं था। इसके पूर्व अजमल कसाब के प्रति भी भाजपा और शिवसेना का यही दृष्टिकोण था। इसलिए जब अचानक कसाब को फांसी दी गई तो भाजपा और शिवसेना सन्नाटे में आ गईं। उनका एक अहम हथियार खत्म हो गया। भाजपा यूरोपीय यूनियन की ओर से नरेन्द्र मोदी का बायकाट खत्म किए जाने को अपनी लिए और नरेन्द्र मोदी के लिए शुभ साबित करने और प्रधानमंत्री पद के लिए नरेन्द्र मोदी की उम्मीदवारी मजबूत करने का फैसला कर चुकी थी। यदि अफजल गुरू की फांसी पर ब्रेकिंग न्यूज का दर्जा न अख्तियार कर लेती तो नरेन्द्र मोदी और उनके माध्यम से भाजपा मीडिया पर छाई रहती।
आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत (शहाबुद्दीन ग्रुप) के अध्यक्ष डॉ. जफरुल इस्लाम खां ने अपने बयान में कहा कि यह कानूनी और नैतिक स्तर पर जल्दबाजी में उठाया गया इंसाफ के विरुद्ध कदम है। अफजल ने बार-बार दावा किया था कि वह एक  पुलिस अधिकारी द्वारा भेजा गया था लेकिन इस दावे की कोई जांच नहीं की गई।
सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला भी विचारणीय है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि `इस दर्दनाक घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था और हमारा समाज सिर्प इस बात पर संतुष्ट होगा कि हमला करने वालों को फांसी की सजा दी जाए।'
`संसद हमला इतना बड़ा और फांसी सिर्प एक को क्यों ' के शीर्षक से सहरोजा  `दावत'ने लिखा है कि संसद के शीत सत्र के पूर्व मुंबई हमले के आरोपी अजमल कसाब को तुरन्त 21 नवम्बर 2012 को  पुणे की जेल में फांसी दे दी गई और अब इसके ठीक 79 दिन बाद अर्थात 9 फरवरी 2013 को संसद हमला केस में अफजल गुरू को फांसी दे दी गई और इसे भी कसाब की तरह जेल में ही दफन कर इस अध्याय को बंद कर दिया गया, यह भी संयोग है कि दोनों मामलों में केवल एक-एक व्यक्ति को फांसी दी गई, जबकि इस मामले को देश-विदेश में जिस तरह पेश किया गया था, केवल एक-एक व्यक्ति की फांसी एक तरह से उसका अपमान है। इसे सांकेतिक सजा कहकर अध्याय को बंद करना ही कहेंगे।
 हमला करने वालों को फांसी तो दे दी लेकिन यह सवाल आज भी अपनी जगह है, सुरक्षा में जिन से चूक हुई या हमले की रोकथाम में सुरक्षा एजेंसियां या सरकारें नाकाम हुईं, उनको कब सजा होगी, क्या केवल हमला करने वालों को घटनाओं के लिए जिम्मेदार ठहरा देना और केवल उनको ही सजा देना समस्या का हल है या जिन लोगों ने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई, उसको भी सजा दिलाना जरूरी है।
`अफजल गुरू को फांसी दे दी गई और दी भी जानी चाहिए थी लेकिन इसमें इतनी जल्दी और छुपाने का तुक क्या है' के शीर्षक से कोलकाता और नई दिल्ली से प्रकाशित दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कांग्रेस 2014 के आम चुनाव से पूर्व आंतरिक सुरक्षा के हवाले से आतंकियों को फांसी पर लटका कर अपने सियासी हित को बढ़ावा दे रही है और यह कि इस समय वह 13 व्यक्ति जिन्हें फांसी पर लटकाया जाना है उनका किस्सा जल्द से जल्द खत्म कर वह वाहवाही लूटना चाहती है। संभव है कि इस विश्लेषण में कुछ सच्चाई भी हो लेकिन 13 व्यक्तियों को फांसी पर लटका कर कांग्रेस चुनावी किला नहीं जीत सकती। इसके बावजूद यह बात उल्लेखनीय है कि सरकार हर मामले में संदेह पैदा करती है। कसाब को फांसी देने में भी जल्दबाजी की गई। दिल्ली गैंगरेप की शिकार निर्भय को सिंगापुर ले जाने और उसके अंतिम संस्कार किए जाने तक यही स्थिति देखने को मिली। यह किसी जन हित सरकार की निशानी नहीं हो सकती कि वह जन हित मामलों को छुपाए और अपने कामों संदेह के घेरे में  लाए।
`कसाब बनाम अफजल ः एक आतंक का चेहरा तो दूसरा शैतानी दिमाग' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि संसद हमले के साजिशकर्ता अफजल गुरू की फांसी की खबर के साथ ही हर हिन्दुस्तानी के जेहन में एक और फांसी की अनदेखी तस्वीर कौंध जाती है। मुंबई पर कहर बरपाने वाले अजमल आमिर कसाब का कारनामा भले ही अलग हो लेकिन दोनों का इरादा एक था और अंजाम भी एक सा हुआ। एक ने देश के आर्थिक केंद्र को तो दूसरे ने राजनैतिक केंद्र को निशाना बनाया। इसमें से एक विदेशी था तो दूसरा देसी लेकिन दोनों की कमान पाकिस्तान में ही थी। दोनों को कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने फांसी पर लटकाया। दोनों ही मामलों में पाकिस्तान बार-बार अपनी किसी भी भूमिका से पूरी तरह इंकार करता रहा लेकिन उसकी भूमिका साफ थी।

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