Tuesday, April 5, 2011

जामिया मिलिया इस्लामिया: अल्पसंख्यक चरित्र बहाल

नेशनल कम्वेंशन फॉर माइनारीटीज एजूकेशनल इंस्टीट्यूट (एनसीएमईआई) द्वारा जामिया मिलिया इस्लाािमया का अल्पसंख्यक चरित्र बहाल करने के फैसले को एक ऐतिहासिक निर्णय के रूप में लिया जा रहा है। इस फैसले से जामिया में मुस्लिम छात्रों को दाखिले में 50 फीसदी आरक्षण का हक हासिल हो गया है।
जामिया मिलिया इस्लामिया के अल्पसंख्यक चरित्र का मामला उस समय पैदा हुआ था जब 1955 में केन्द्रीय सरकार ने संसद से एक कानून पारित कर इसे सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया था। उस समय उसका अल्पसंख्यक चरित्र खत्म कर दिया गया था। 1955 के उस कानून के अनुसार यह एक सामान्य यूनिवर्सिटी थी। मामले में उस समय मोड़ आया जब 2006 में केन्द्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर जामिया मिलिया इस्लाािमया को अपने यहां 27 फीसदी ओबीसी कोटा लागू करने का निर्देश दिया। जामिया ने इस आदेश के खिलाफ नेशनल कमीशन फॉर माइनारीटीज एजूकेशनल इंस्टीट्यूट में अपील दायर की। जामिया में पहले के ही 22.5 फीसदी सीटें एससी/एसटी 25 फीसदी इन्टरनल और तीन फीसदी सीटें विक्लांग छात्रों के लिए आरक्षित थीं। ओबीसी कोटा लागू करने से यह कोटा 50 फीसदी से बढ़ जाता जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सीमा से ज्यादा था।
18 सुनवाई के बाद एनसीएमईआई ने 22 फीसदी 2011 को अपने फैसले में स्पष्ट किया कि उसे यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि जामिया मिलिया इस्लामिया को मुसलमानों के फायदे के लिए मुसलमानों ने ही कायम किया था और कभी भी इसने अपना मुस्लिम चरित्र नहीं खोया है। कमीशन चेयरमैन जस्टिस सुहैल एज़ाज़ सिद्दीकी ने फैसला सुनाते हुए कहा कि संविधान की धारा 30(1) के तहत जामिया मिलिया इस्लामिया एक अल्पसंख्यक संस्था है। इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्था घोषित किया जाए।
फैसले के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया के कुलपति नजदिव जंग ने इसे अगले शैक्षिक सत्र में लागू करने का भरोसा दिलाया है और कहा कि 2012-12 के प्रोस्पैक्टस आदि सामग्री छप चुकी है। इसके अतिरिक्त इसे लागू करने में जो बाधायें हैं उन्हें भी दूर किया जाएगा। इसलिए यह आगामी सत्र से लागू हो पाएगा। फैसले के अनुसार जहां 50 फीसदी सीटें मुस्लिम समुदाय के लिए आरक्षित होंगी वहां 50 फीसदी सीटें सामान्य कोटे के तहत भरी जाएगी। तब एससी/एसटी आरक्षण बांकी नहीं रहेगा। जामिया कुलपति का बयान अखबारों में सुरक्षित है जिसमें उन्होंने कहा कि जामिया का सेकुलर चरित्र बरकरार रहेगा। सवाल यह है कि किसी शैक्षिक संस्था में सेकुलर चरित्र का अर्थ क्या है और जामिया मिलिया में यह कहां से आया?
1988 में जामिया को सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी का दर्जा देते समय उसकी अंजुमन (संस्था) का उर्दू से अंग्रेजी अनुवाद किया गया और तब जामिया के मेमोरेण्डम ऑफ एसोसिएशन में दर्ज दीनी और पुनभावी शिक्षा की जगह अंग्रेजी में धार्मिक और सेकुलर अनुवार किया गया, यहीं से सेकुलर चरित्र की बात चल पड़ी जबकि इसके पूर्व लगता है कि कोई बात नहीं थी। फाना वाच डाट काम के संपादक एवं दिल्ली मामलों के जानकार क्यू आसिफ कहते हैं कि दुन्त्यावी शब्द का अंग्रेजी में सेकुलर अनुवाद किसी तरह सही नहीं है। उनका कहना था कि एनएमसीईआई के फैसले के बाद जिस तरह कुछ लोगों में क्रेडिट लेने की होड़ मची है वह उस समय कहां थे जब संसद में इस पर जोरदार बहस चल रही थी। तब अकेले जिस व्यक्ति की आवाज सुनी गई वह कोई और नहीं बल्कि वरिष्ठ भाजपा नेता एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे। उनकी मांग थी कि जामिया का जो विधेयक चर्चा का विषय है उसमें जामिया के ऐतिहासिक चरित्र का कोई जिक्र नहीं है। जाहिर सी बात है कि जामिया का यह ऐतिहासिक चरित्र इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था कि 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को यूनिवर्सिटी का दर्जा दिए जाने के बाद तत्कालीन मुस्लिम नेतृत्व विशेषकर खिलाफत आंदोलन की अगुवाई कर रहे अलीग बंधुओं को यह एहसास था कि एएमयू अब पूरी तरह अंग्रेजों के कंट्रोल में चला जाएगा और यहां से स्वतंत्रता संग्राम के मतवालों को भी आवाज उठाने की अनुमति नहीं होगी। यही वह सोच थी जिसके तहत एक अलग मुस्लिम शिक्षण संस्था की 29 अक्टूबर, 1920 को स्थापना हुई, जिसका नाम जामिया मिलिया इस्लामिया पड़ा। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कैम्पस में शुरू होने वाली जामिया को दिल्ली के करोल बाग लाया गया, बाद में ओखला। यहीं यह यूनिवर्सिटी स्थापित है।
ख्याति प्राप्त आलिम दीन और स्वतंत्र सेनानी जो नालंदा की जेल से रिहा हुए थे ने इसकी बुनियाद रखते हुए कहा कि इसका मकसद मुसलमानों की शिक्षा मुसलमानों के हाथों में रख्ना है। जामिया की स्थापना से लेकर 1938 तक जामिया के प्रॉस्पेक्टस में उसका यह उद्देश्य लिखा जाता रहा लेकिन 1939 में डॉ. जाकिर हुसैन ने जामिया कुलपति बनने के बाद जामिया की अंजुमन के पंजीकृत के समय उसके उद्देश्य में थोड़ा संशोधन कर दिया। तब उसमें यह बात दर्ज की गई कि इसकी स्थापना का असल मकसद हिंदुस्तानी विशेषकर मुसलमानों को दोनी एवं दुनभावी शिक्षा देना है।
2006 के अंत में जब प्रोफेसर मुशीहल हसन जामिया के कुलपति थे। जब जामिया टीचर्स एसोसिएशन, जामिया स्टुडेन्टस यूनियन और जामिया ओल्ड ब्वायज़ एसोसिएशन ने अलग-अलग याचिका दायर कर इस कमीशन से अनुरोध किया कि जामिया मिलिया को अल्पसंख्यक होने का दर्जा प्रदान करे। तत्काली रजिस्ट्रार एस.एम. अफजल ने इसका विरोध किया क्योंकि मुशीहल हसन इसका विरोध कर चुके थे। लेकिन वर्तमान रजिस्ट्रार एस.एम. साजिद ने अपने शपथ-पत्र में स्वीकार किया कि जामिया अल्पसंख्यक संस्था था और है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कमीशन में याचिका दाखिल कर मांग की कि इस मामले की सुनवाई उस समय तक स्थगित रखी जाए। जब तक सुप्रीम कोर्ट अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक चरित्र से सम्बन्धित इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ इसकी और यूनिवर्सिटी की अपील पर कोई फैसला न दे।
कमीशन ने अपने फैसले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की जामिया मिलिया से तुलना करते हुए कहा कि 1920 में जब एक एक्ट के तहत मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी उस समय एमएओ कॉलेज तो था, लेकिन मुस्लिम यूनिवर्सिटी का वजूद नहीं था। इसलिए यह कहा जाएगा कि यूनिवर्सिटी एक्ट के तहत कायम हुई है जबकि जामिया मिलिया के मामले में यह सूरते हाल नहीं थी। इस आधार पर कमीशन ने इस आपत्ति को निरस्त कर दिया कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक इंतजार किया जाए। लेकिन इससे यह नहीं समझना चाहिए कि मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक संस्था होने में इस आधार पर कोई ज्वेंट नहीं किया जा सकता। इसका चरित्र और प्रबंध शुरू दिन से मुसलमानों के हाथों में है। कई धारा वजूद में आने वाली यूनिवर्सिटी इसी एमएओओ कॉलेज की नई शक्ल है जो अल्पसंख्यक संस्था है।
एनसीएमईआई ने अपने फैसले में जामिया की स्थापना पर चर्चा करते हुए लिखा है कि किस तरह पहले अलीगढ़ में 1920 में जामिया को कायम किया गया, फिर दिल्ली लाया गया। 1939 में इसे सोसाइटी एक्ट के तहत पंजीकृत कराया गया। इस बात का विशेष तौर से जिक्र किया है कि जामिया कालेजा की ब्रिटिश सरकार से मदद हासिल थी जबकि जामिया मिलिया इस्लामिया खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन के नतीजे में कायम हुआ। जामिया के संस्थापक संस्था के प्रबंध को सरकारी हस्तक्षेप से आजाद अपने हाथ में रखना चाहते थे।
जामिया मिलिया इस्लामिया इस प्रसंग में अकेली यूनिवर्सिटी है जहां अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और बनारस विश्वविद्यालय की तरह किसी एक संस्थापक के बजाए संस्थापकों की शब्दावली प्रचलित है। जबकि वास्तविकता यह है कि 29 अक्टूबर, 1920 को जामिया की स्थापना के समय 92 सदस्यीय फाउडेशन कमेटी गइित हुई थी। जिसमें सर्व सम्मति से प्रस्ताव पारित कर मौलाना मोहम्मद अली जौहर को इसका संस्थापक बताया गया था। कमेटी सदस्यों में शेरवुल हिंद मौलाना महमूद हसन, हकीम अजमल खां, डॉ. मुखतार अहमद अंसारी, अब्दुल मजीद ख्वाजा, मुफ्ती किफायत उल्ला, मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना अबुल कलाम आजाद और महात्मा गांधी के नाम उल्लेखनीय हैं। 1920 से 1938 तक मौलाना जौहर का नाम संस्थापक के तौर पर आता रहा लेकिन बाद में संस्थापकों की शब्दावली का इस्तेमाल कर उसमें डॉ. जाकिर हुसैन का नाम शामिल कर दिया गया।
डॉ. जाकिर हुसैन 1925 में जर्मनी से आए थे। निःसंदेह उन्होंने जामिया को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जामिया को आर्थिक संकट से निकालने के लिए संस्था सदस्यों ने एक शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर किया जिस पर लिखा था कि वह 20 साल तक 150 रुपए मासिक से ज्यादा वेतन नहीं लेंगे और जामिया मिलिया इस्लामिया में पढ़ाएंगे। स्वयं डॉ. जाकिर हुसैन ने अपना वेतन 150 रुपए से कम कर 40 रुपए मासिक कर वह कुर्बानी दी जिसकी मिसाल शायद ही किसी संस्था में देखने को मिले। उनका नाम सुनहरे अक्षरों में लिखने लायक है लेकिन इसके बावजूद वह उसके संस्थापकों की सूची में शामिल नहीं हो सकते।
आश्चर्य तो इस बात पर है कि जामिया के कुछ अपने हित के चलते मोहम्मद अली जौहर जैसे स्वतंत्र सेनानी जिन्हें महात्मा गांधी ने भारत की आजादी दिलाने से सम्बन्धित लंदन की गोल मेज कांफ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा था। वहां उन्होंने अपने भाषण में कहा कि ब्रिटेन हमें आजादी का परवाना दे अन्यथा हम गुलाम देश में मरना पसंद नहीं करेंगे। कांफ्रेंस के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई उन्हें फिलीस्तीन में दफन किया गया, की भूमिका को नकारने में लगे हैं वहीं मुंबई से प्रकाशित ‘उर्दू टाइम्स’ ने भी जामिया का संस्थापक डॉ. जाकिर हुसैन और उनके साथियों को बताकर सच्चाई के छुपाने की जो कोशिश की है वह निश्चय ही निंदनीय है और पत्रकारिता मूल्यों के विरुद्ध भी है।

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