Monday, January 3, 2011

अफगानिस्तान को बांटने की नापाक कोशिश

क्या अमेरिका ने अफगानिस्तान को बांटने की योजना बना ली है? अमेरिकी राष्ट्रपति का अफगान का गुप्त दौरा इस सिलसिले की कड़ी है या नहीं, इस बहस को किनारे भी कर दें, तो भी इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि तालिबान के साथ अमेरिका और नाटो के बीच गुप्त बातचीत हो रही है। लेकिन इस बातचीत में तालिबान के वास्तविक प्रतिनिधि शामिल हैं या नहीं, इसे लेकर अब तक संदेह बना हुआ है। यह वार्ता उसी रणनीति का हिस्सा है, जिसकी घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जनवरी, 2010 में की थी। इसका आधार कट्टर विचार रखने वाले लड़ाकुओं के बीच फूट डालने और नरमपंथी वर्ग से उन्हें विभाजित करना था। पेंटागन की रणनीति है कि नरमपंथियों को नागरिक जीवन में वापस लाया जाए, ताकि अफगान सरकार के साथ उनका समझौता हो सके।
इसके तहत सरकार और नरमपंथी वर्ग के बीच बातचीत शुरू हुई है। स्वयं अफगानी राष्ट्रपति हामिद करजई ने स्वीकार किया कि ‘अकसर’ तालिबान नेताओं के साथ उनकी बातचीत हो रही है। उन्होंने एक सरकारी ‘शांति परिषद’ का भी गठन किया है, जिसमें पूर्व अफगान गुटों एवं विभिन्न वर्गों को प्रतिनिधित्व दिया गया है। हालांकि इस परिषद के गठन की घोषणा के तुरंत बाद विद्रोही वर्गों ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया था, बावजूद अक्तूबर में काबुल के सेरेना होटल में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच शुरुआती दौर की बात हुई। यह बातचीत 2009 में सऊदी अरब के नेतृत्व में रियाद शहर में हुई बातचीत जैसी थी। फर्क इतना है कि रियाद की वार्ता में तालिबान के वास्तविक प्रतिनिधि मौजूद थे। जानकारों का मानना है कि तालिबान पर पाकिस्तान का प्रभाव होने के कारण वर्तमान बातचीत में सफलता नहीं मिल रही है। अफगान सरकार इसलामाबाद के प्रभाव से मुक्ति दिलाने की कोशिश कर रही है। अमेरिकी योजना है कि नाटो किसी तरह तालिबान को पराजित करे, ताकि वह राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेने के लिए तैयार हो जाए।
दूसरी ओर तालिबान ने अमेरिका के अलावा किसी से बात करने के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया है। वह अफगान सरकार या किसी और से बात नहीं करना चाहता, क्योंकि वह करजई सरकार को गैरकानूनी मानते हुए उसे निरस्त करता है। वह अमेरिका से भी इस शर्त पर बात करना चाहता है कि अमेरिका पहले अफगानिस्तान से वापसी की समय सीमा की घोषणा कर दे। अरबी पत्रिका ‘अल-मुजल्ला’ के अनुसार, नाटो के एक अधिकारी ने बताया कि तालिबान जैसे ढांचे के साथ बात करना बहुत कठिनाई वाला काम है, क्योंकि उनका कोई परिचित ढांचा नहीं है। उनके लड़ाकुओं को डर है कि यदि उन्होंने केंद्रीय नेतृत्व की आज्ञा का पालन नहीं किया, तो उन्हें उसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। वहीं अन्य जानकारों का मानना है कि तालिबान फौज में नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच मतभेद है। पुराने नेता शांति संधि के हक में हैं, लेकिन युवा इसके खिलाफ।
राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिका तालिबान के साथ बात करने के प्रति गंभीर नहीं है और बातचीत को नाकाम बनाने का आरोप तालिबान के सिर मढ़ना चाहता है, ताकि पश्चिमी ताकतें अफगानिस्तान को टुकड़ों में बांटने की योजना पूरी कर सके। एक दैनिक अपनी समीक्षा में लिखता है, यदि पश्चिम की ओर से अफगानिस्तान को कई भागों में विभाजित किया जाता है, तो इससे ईरान, पाकिस्तान और अन्य देशों के विभाजन का दरवाजा खुल जाएगा। विभाजन की यह लहर मध्य एशिया में फैलकर चीन को अपनी लपेट में ले सकती है। उज्बेक, ताजिक और इराकी तुर्क अपनी आजादी की मांग कर रहे हैं, यदि ऐसा हुआ, तो इसलामी कट्टरपंथ अपनी चरम सीमा पर पहुंच जाएगा, जो पश्चिमी ताकतों के हित में नहीं होगा।
अब जबकि यह स्पष्ट हो गया है कि बातचीत करने वाले तालिबान के वास्तविक प्रतिनिधि नहीं हैं, इससे पश्चिमी ताकतें सांसत में हैं। अब अगर अफगानिस्तान को बांटने की कोशिश हुई, तो इससे तालिबान या इसलाम समर्थकों का तो ज्यादा नुकसान नहीं होगा, लेकिन पश्चिमी ताकतों के लिए यह घाटे का सौदा साबित हो सकता है।

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