बीते सप्ताह कई घटनाओं पर उर्दू समाचार पत्रों ने जो चर्चा की है। उसने निश्चय ही पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कराया है। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय एवं रिपोर्ट। दैनिक `जदीद मेल' ने जमाअत इस्लामी द्वारा नवगठित राजनीतिज्ञ पार्टी जिसका नाम `वैलफेयर पार्टी' है में `जबरदस्त टकराव' के शीर्षक से लिखा है कि वैसे तो यह पार्टी अपनी स्थापना के दिन से ही विवादित रही है लेकिन इन दिनों बाहरी विवाद के अलावा पार्टी में भीतरी विवाद अपनी चरमसीमा पर है। उल्लेखनीय है कि पार्टी गठन के दिन ही पार्टी को भाजपा के लोगों ने आशीर्वाद देकर भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक डॉ. जेके जैन ने कहा था कि `जमाअत इस्लामी के अधीन वैलफेयर पार्टी जो काम करेगी वही काम मैं पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चा से करूंगा।' इस बात पर पार्टी सुप्रीमो मुजतुबा फारुक नाराज भी हुए थे लेकिन जानकारों के अनुसार पार्टी के महासचिव डॉ. कासिम रसूल इलियास के सामने वह बिल्कुल बेबस थे। समाचार के मुताबिक इन दिनों पार्टी में मौजूद कुछ राजनैतिक लोग वैलफेयर पार्टी से नाराज हैं। उनका कहना है कि यदि उन्हें मालूम होता कि पार्टी गैर राजनैतिक लोगों के हाथों की कठपुतली बन जाएगी तो वह पार्टी में शामिल नहीं होते। और तो और जो बैठक दिल्ली में होनी थी, वह हैदराबाद में हो रही है और जो लखनऊ में होनी थी वह दिल्ली में हो रही है। आखिर जब उत्तर प्रदेश में चुनाव नजदीक आ रहे हैं तो पार्टी के लोग साउथ पर इतना फोकस क्यों कर रहे हैं, यह समझ से परे है।
अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले भेदभाव पर जुर्माना और कैद की सजा पर सरकार द्वारा प्रस्तावित कानून का स्वागत करते हुए उसे समय की पुकार बताया है। `जदीद मेल' ने जमाअत इस्लामी हिन्दी के अध्यक्ष मौलाना सैयद जलालउद्दीन उभरी, कांग्रेस प्रवक्ता डॉ. शकील अहमद और जमीअत उलेमा हिन्द (अरशद मदनी) के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी सहित नेशनल काउंसिल फार प्रमोशन ऑफ उर्दू लैंग्वेज के डायरेक्टर हमाद उल्ला भट्ट के विचारों को प्रमुखता से प्रकाशित किया है। भट्ट के अनुसार समान अवसर आयोग की बात सच्चर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में भी कही थी। उन्होंने कहा कि भेदभाव खत्म करने के लिए केवल प्रशासनिक आदेश काफी नहीं हैं बल्कि मुसलमानों के लिए अलग से कानून बनना चाहिए। पहले यदि विश्वविद्यालयों में दाखिला अथवा नौकरी नहीं मिलती और अपराध साबित हो जाता कि मुसलमान के साथ भेदभाव हुआ है तो सिर्प माफी से काम चल जाता लेकिन आशा है कि ऐसा करने वालों को सजा मिलेगी, देश उन्नति करेगा। संविधान ने अल्पसंख्यकों को जो अधिकार दिए हैं, वह उन्हें मिलेंगे और इससे देश मजबूत होगा।
`अल्पसंख्यकों के फण्ड को दबाए बैठी है सरकार' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' ने पहले पेज पर रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसके मुताबिक अल्पसंख्यक मंत्रालय के विभिन्न योजनाओं की मंजूरी के लिए सरकार के पास अब भी 431.77 करोड़ रुपये बचे हुए हैं। इस मंत्रालय में जो आंकड़े उपलब्ध हैं उनके मुताबिक 43780.40 करोड़ रुपये मंजूर किए गए जबकि इस योजना के तहत अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में मंजूर हुई योजनाओं की लागत 3348.62 करोड़ रुपये है। इसमें से इस वर्ष 31 मार्च तक केंद्र को जो पूरा हिस्सा दिया जा चुका है वह 3111.55 करोड़ रुपये है। अल्पसंख्यक मंत्रालय ने 31 मार्च तक 2162.02 करोड़ रुपए जारी किए हैं।
अल्पसंख्यकों के विकास हेतु यह योजना 2008-09 में शुरू की गई थी और देश की 20 राजधानी सहित केंद्र शासित राज्यों में अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों वाले 90 जिलों में इस काम काम हो रहा है। दिल्ली हज कमेटी का गठन एक ऐसा मामला है जो पिछले पांच सालों से फाइलों में बन्द है। गत दो महीने से यह आशा हो चली थी कि शायद अब कमेटी का गठन हो जाए लेकिन सदस्यों के नामों पर न केवल जनता में विरोध हो रहा है बल्कि खुद राज्य सरकार भी कुछ नामों पर अड़ी हुई है जिसके कारण यह मसला उलझा हुआ है। `महमूद जिया के विरोध में रुकी हुई है फाइल, हज कमेटी में सदस्यों को लेकर राज्य सरकार और कांग्रेस संगठन आमने-सामने' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने लिखा है कि यदि स्रोतों की मानें तो पार्टी हाई कमान सभी मरहले पूरे कर सात नामों पर मोहर लगा चुकी है और दिल्ली हज कमेटी के चेयरमैन के लिए नकी मल्होत्रा का नाम तय हो चुका है लेकिन अब सारा मामला सीताराम बाजार के पार्षद महमूद जिया पर आकर रुक गया है। राज्य सरकार पार्षद कोटे के लिए महिला सदस्य की जिद पकड़े हुए हैं जबकि कांग्रेस संगठन की ओर से महमूद जिया का नाम दिया गया है। बताया जाता है कि संबंधित मंत्री डॉ. अशोक कुमार वालिया और मुख्यमंत्री में भी सदस्यों के नामों को लेकर मतभेद पाए जा रहे हैं। इस तरह और भी कई अन्य कारण हैं जो हज कमेटी को एक बार फिर लूली-लंगड़ी बनाने पर तुले हैं। ऑल इंडिया रेडियो के उर्दू कार्यक्रमों के गिरते स्तर के लिए अंजुमन तरक्की उर्दू (हिन्द) के महासचिव डॉ. खलीक अंजुम ने उर्दू न जानने वाले कार्यकर्ताओं को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया है। इसी महीने दिल्ली से प्रकाशित होने वाले दैनिक `इंकलाब' ने उनके विचारों को पेश करते हुए लिखा है कि ऑल इंडिया रेडियो के उर्दू कार्यक्रमों से मेरा संबंध गत 30 वर्षों से है और जिस जमाने में रेडियो वाले मुझे कार्यक्रम में बुलाते थे तो मैं बड़े उत्साह से जाता था लेकिन अब मैं वहां नहीं जाता। क्योंकि वहां का स्तर उर्दू कार्यक्रम को चलाने वाले उर्दू न जानने वाले कार्यकर्ताओं के कारण काफी गिर चुका है। उनका कहना है कि उर्दू सर्विस में उर्दू के कार्यक्रम वे लोग चला रहे हैं जो उर्दू के साहित्य से भी परिचित नहीं हैं। यहां तक उर्दू साहित्यकारों और शायरों को भी नहीं जानते। अपने संबंध वालों को गेस्ट के तौर पर कार्यक्रम में बुलाते हैं और उनको चेक थमा देते हैं। उन्होंने केंद्रीय प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी पर निशाना साधते हुए कहा कि उर्दू रेडियो और उर्दू टीवी के संबंध में संबंधित मंत्री भी भाषायी भेदभाव रखती हैं। क्योंकि कई बार उनको पत्र लिखे कि आप ऑल इंडिया रेडियो के कार्यक्रमों में उर्दू जानने वालों की नियुक्ति करें लेकिन अम्बिका सोनी के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।
इस सवाल पर कि आप प्रधानमंत्री से अपनी फरियाद क्यों नहीं करते, के जवाब में डॉ. अंजुम ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री उर्दू दोस्त हैं, उर्दू में भाषण देते हैं, उर्दू लिखते-पढ़ते हैं, लेकिन जिस महिला को यह जिम्मेदारी दी गई है वह इसे ठीक से अंजाम नहीं दे रही है।
A Blog is specially build for minorities. Where you can find a latest article as well as Issues. there is no need to recognize a muslim but there is a lot of work for humanity.
Friday, June 24, 2011
Friday, June 17, 2011
बाबा रामदेव का `षड्यंत्र बेनकाब'
योग गुरु बाबा रामदेव द्वारा काला धन देश वापस लाने और राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित करने की मांग को लेकर रामलीला मैदान में अमरण अनशन के दौरान आधी रात को उन्हें और उनके समर्थकों को प्रशासन द्वारा खदेड़ दिया गया। उस पर चारों ओर से तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। उर्दू अखबारों ने भी इस पर अपना नजरिया पेश किया। कोलकाता, दिल्ली और झारखंड से एक साथ प्रकाशित होने वाले उर्दू दैनिक `अखबारे मशरिक' ने `बाबा रामदेव पर केक डाउन करके सरकार ने अपनी राहों में कांटें बिछा लिए' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है। सच पूछा जाए तो इस मामले में सरकार ने मुंह की खाई है। बाबा रामदेव चाहे फ्रॉड हों या आरएसएस के इशारे पर मैदान में कूदे हों लेकिन वह एक ऐसे मुद्दे (काला धन) को लेकर सामने आए हैं जिसका पूरे देश में समर्थन किया जा रहा है। सरकार ने आ बैल मुझे मार वाली नीति अपनाकर स्वयं अपनी राहों में कांटें बिछा लिए हैं। अल्लाह ही खैर करे।
उर्दू दैनिक `जदीद खबर' ने `सरकार के तेवर' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बाबा रामदेव का आंदोलन पूरी तरह राजनीति से प्रेरित था और इसे संघ परिवार का समर्थन प्राप्त था लेकिन इसके बावजूद सरकार ने बाबा रामदेव से संवाद किया और केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई मंत्री उनसे बात करने एयरपोर्ट गए। विदेशी बैंकों में जमा काला धन को वापस लाकर गरीबों में बांटने, हजार और पांच सौ रुपये के नोटों को बन्द करने जैसी अव्यवहारिक मांगों पर सरकार ने रामदेव के साथ लम्बी बातचीत का भूत सवार था और वह खुद को अफलातून समझ बैठे थे। सरकार ने बातचीत की नाकामी और बाबा द्वारा वादा तोड़ने के बाद प्रशासनिक कार्यवाही को प्राथमिकता दी, जो ऐसे हालात में जरूरी होती है। बाबा रामदेव की कायरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह रामलीला मैदान में पुलिस का मुकाबला करने के बजाय वहां मौजूद महिलाओं के बीच घुस गए और एक महिला का लिबास पहनकर भागने की कोशिश करते हुए पकड़े गए। अखबार आगे लिखता है कि कांग्रेस वास्तव में इस मामले में गंभीर है और उसने सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने का फैसला किया है तो कोई कारण नहीं कि इन तत्वों को कमजोर न किया जा सके क्योंकि कांग्रेस की कमजोरियों और अनदेखी ने ही इन तत्वों को इतना ताकतवर बनाया है कि वह आज देश की व्यवस्था को चुनौती दे रही है। सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति बहुत जरूरी है।
दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `मोदी यदि मुख्यमंत्री नहीं होते' पर चर्चा करते हुए लिखा है। सुना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने पद की गरिमा का बड़ा ध्यान रहता है, वह अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को समझते हैं। उनका कहना है कि यदि वह मुख्यमंत्री नहीं होते तो नई दिल्ली में आज इतना बड़ा तूफान खड़ा कर देते कि कांग्रेस भी क्या याद रखती, बाबा रामदेव के साथ रामलीला मैदान में रविवार की रात जो सुलूक किया गया, जिम्मेदारों को इसका मजा चखा देते। अखबार आगे लिखता है कि वो समय रहते सरकार और दिल्ली पुलिस को खतरे का अंदाजा हो गया और उसने रामलीला मैदान को जलियांवाला बाग बनने से बचा लिया। लेकिन वह जो कहते हैं कि चोर चोरी से जाए, हेराफेरी से न जाए। कहां तो इसे बाबा की हरकतों पर शर्म के मारे जमीन में गढ़ जाना चाहिए लेकिन कहां यह कि वह उलटे सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर रही है।
दैनिक `हमारा मकसद' ने `षड्यंत्र बेनकाब' में लिखा है कि असल में सरकार और रामदेव के बीच जो गोपनीय समझौता हुआ था वह यह था कि रामदेव अन्ना हजारे के कैम्प को कमजोर करने का काम करेंगे जो प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सहित पूरे सरकारी तंत्र को लोकपाल के दायरे में लाए जाने पर जोर दे रहा है। दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में रामदेव और दो केंद्रीय मंत्री दिनभर इस रणनीति पर विचार करते रहे। रामेदव जिन मांगों को लेकर दिल्ली आए थे उनमें 90 फीसदी को तुरन्त मान लिया गया और रामदेव को जो कुछ करना या वह सांकेतिक था। कहानी उस समय बिगड़ गई जब सरकार को अचानक याद आया कि जब अन्ना हजारे ने भूख हड़ताल शुरू की थी तो सरकार ऐसे झुक गई थी जैसे कोई अपराधी कानून के सामने झुक जाता है। रामदेव के साथ अन्दरखाते संधि हुई थी लेकिन आम लोगों में यही संदेश जाता कि कोई भी इस सरकार को झुका सकता है। इसके बाद जो कुछ हुआ, वह दुनिया के सामने है।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `बाबा रामदेव बनाम सरकार' में लिखा है कि अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव, उनका राजनीति से कोई संबंध नहीं है। इनका सामाजिक कार्यकर्ता और योग गुरु की हैसियत से सीमित सम्पर्प जरूर है लेकिन इन दोनों ने एक के बाद एक अपना एजेंडा पेश किया तो सरकार के कदम लड़खड़ाने लगे। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि व्यक्तियों का अपने तौर पर कोई वजूद नहीं है बल्कि इसके पीछे आरएसएस की अगुवाई कर रही संघ परिवार के विभिन्न संगठन हैं जो दिल्ली के तख्त पर बैठने के लिए विचलित नजर आती है। इसका इजहार कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने भी किया है। बाबा रामदेव अपने को नेक और सादा जिन्दगी गुजारने वाला ऋषि-मुनि के तौर पर पेश करना चाहते हैं लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। वह एक अरबपति हैं, वो चार्टर्ड जहाजों से यात्रा करते हैं। धरना-प्रदर्शन के लिए रामलीला मैदान में जो पांच सितारा व्यवस्था की गई वह बुद्धि को हैरान कर देती है कि एक साधु के पास इतनी दौलत कहां से आई। सरकार को ऐसे व्यक्ति से भयभीत होने के बजाय जनता से सीधे बात करनी चाहिए। सरकार यदि निडरता से आरएसएस के ऐसे एजेंडों का मुकाबला करने से बचती है तो सरकार पर से जनता के विश्वास को चोट पहुंचेगी।
उर्दू दैनिक `जदीद खबर' ने `सरकार के तेवर' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बाबा रामदेव का आंदोलन पूरी तरह राजनीति से प्रेरित था और इसे संघ परिवार का समर्थन प्राप्त था लेकिन इसके बावजूद सरकार ने बाबा रामदेव से संवाद किया और केंद्रीय मंत्रिमंडल के कई मंत्री उनसे बात करने एयरपोर्ट गए। विदेशी बैंकों में जमा काला धन को वापस लाकर गरीबों में बांटने, हजार और पांच सौ रुपये के नोटों को बन्द करने जैसी अव्यवहारिक मांगों पर सरकार ने रामदेव के साथ लम्बी बातचीत का भूत सवार था और वह खुद को अफलातून समझ बैठे थे। सरकार ने बातचीत की नाकामी और बाबा द्वारा वादा तोड़ने के बाद प्रशासनिक कार्यवाही को प्राथमिकता दी, जो ऐसे हालात में जरूरी होती है। बाबा रामदेव की कायरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह रामलीला मैदान में पुलिस का मुकाबला करने के बजाय वहां मौजूद महिलाओं के बीच घुस गए और एक महिला का लिबास पहनकर भागने की कोशिश करते हुए पकड़े गए। अखबार आगे लिखता है कि कांग्रेस वास्तव में इस मामले में गंभीर है और उसने सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने का फैसला किया है तो कोई कारण नहीं कि इन तत्वों को कमजोर न किया जा सके क्योंकि कांग्रेस की कमजोरियों और अनदेखी ने ही इन तत्वों को इतना ताकतवर बनाया है कि वह आज देश की व्यवस्था को चुनौती दे रही है। सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति बहुत जरूरी है।
दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने `मोदी यदि मुख्यमंत्री नहीं होते' पर चर्चा करते हुए लिखा है। सुना है कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने पद की गरिमा का बड़ा ध्यान रहता है, वह अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को समझते हैं। उनका कहना है कि यदि वह मुख्यमंत्री नहीं होते तो नई दिल्ली में आज इतना बड़ा तूफान खड़ा कर देते कि कांग्रेस भी क्या याद रखती, बाबा रामदेव के साथ रामलीला मैदान में रविवार की रात जो सुलूक किया गया, जिम्मेदारों को इसका मजा चखा देते। अखबार आगे लिखता है कि वो समय रहते सरकार और दिल्ली पुलिस को खतरे का अंदाजा हो गया और उसने रामलीला मैदान को जलियांवाला बाग बनने से बचा लिया। लेकिन वह जो कहते हैं कि चोर चोरी से जाए, हेराफेरी से न जाए। कहां तो इसे बाबा की हरकतों पर शर्म के मारे जमीन में गढ़ जाना चाहिए लेकिन कहां यह कि वह उलटे सरकार को ही कटघरे में खड़ा कर रही है।
दैनिक `हमारा मकसद' ने `षड्यंत्र बेनकाब' में लिखा है कि असल में सरकार और रामदेव के बीच जो गोपनीय समझौता हुआ था वह यह था कि रामदेव अन्ना हजारे के कैम्प को कमजोर करने का काम करेंगे जो प्रधानमंत्री और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सहित पूरे सरकारी तंत्र को लोकपाल के दायरे में लाए जाने पर जोर दे रहा है। दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में रामदेव और दो केंद्रीय मंत्री दिनभर इस रणनीति पर विचार करते रहे। रामेदव जिन मांगों को लेकर दिल्ली आए थे उनमें 90 फीसदी को तुरन्त मान लिया गया और रामदेव को जो कुछ करना या वह सांकेतिक था। कहानी उस समय बिगड़ गई जब सरकार को अचानक याद आया कि जब अन्ना हजारे ने भूख हड़ताल शुरू की थी तो सरकार ऐसे झुक गई थी जैसे कोई अपराधी कानून के सामने झुक जाता है। रामदेव के साथ अन्दरखाते संधि हुई थी लेकिन आम लोगों में यही संदेश जाता कि कोई भी इस सरकार को झुका सकता है। इसके बाद जो कुछ हुआ, वह दुनिया के सामने है।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `बाबा रामदेव बनाम सरकार' में लिखा है कि अन्ना हजारे हों या बाबा रामदेव, उनका राजनीति से कोई संबंध नहीं है। इनका सामाजिक कार्यकर्ता और योग गुरु की हैसियत से सीमित सम्पर्प जरूर है लेकिन इन दोनों ने एक के बाद एक अपना एजेंडा पेश किया तो सरकार के कदम लड़खड़ाने लगे। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि व्यक्तियों का अपने तौर पर कोई वजूद नहीं है बल्कि इसके पीछे आरएसएस की अगुवाई कर रही संघ परिवार के विभिन्न संगठन हैं जो दिल्ली के तख्त पर बैठने के लिए विचलित नजर आती है। इसका इजहार कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने भी किया है। बाबा रामदेव अपने को नेक और सादा जिन्दगी गुजारने वाला ऋषि-मुनि के तौर पर पेश करना चाहते हैं लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है। वह एक अरबपति हैं, वो चार्टर्ड जहाजों से यात्रा करते हैं। धरना-प्रदर्शन के लिए रामलीला मैदान में जो पांच सितारा व्यवस्था की गई वह बुद्धि को हैरान कर देती है कि एक साधु के पास इतनी दौलत कहां से आई। सरकार को ऐसे व्यक्ति से भयभीत होने के बजाय जनता से सीधे बात करनी चाहिए। सरकार यदि निडरता से आरएसएस के ऐसे एजेंडों का मुकाबला करने से बचती है तो सरकार पर से जनता के विश्वास को चोट पहुंचेगी।
Monday, June 13, 2011
उर्दू प्रेस की माफियागिरी
बीते दिनों उर्दू समाचार पत्रों ने विभिन्न विषयों पर रिपोर्ट प्रकाशित कर पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कराया है। दिल्ली, मुम्बई और लखनऊ से एक साथ प्रकाशित उर्दू दैनिक `सहाफत' में मोहम्मद आतिफ ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि पिछले कुछ दिनों से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के हवाले से जिस तरह की खबरें आ रही हैं उससे ऐसा महसूस हो रहा है कि बोर्ड में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है और जो खबरें भी आ रही हैं वह असल मामले में 10 फीसदी से ज्यादा नहीं हैं। जानकार मानते हैं कि बोर्ड के अन्दर पाई जाने वाली यह बेचैनी व्यक्तिगत हितों के लिए है तभी तो इस पूरे में राजनीति हो रही है। कहने को तो बोर्ड महासचिव की गतिविधियों को लेकर उन्हें कठघरे में खड़ा किया जा रहा है लेकिन यदि बिटविन द लाइन जाकर समीक्षा की जाए तो यह सच्चाई सामने आती है कि वह एक तीर से दो शिकार करना चाहते हैं। किसी भी संस्था में यदि महासचिव पर से भरोसा खत्म हो जाए अथवा उसकी कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में आ जाए तो निश्चित रूप से केवल महासचिव को ही इसके लिए आरोपी नहीं ठहराया जा सकता बल्कि इस संस्था का अध्यक्ष भी इस आरोप में इनके साथ शरीक माना जाएगा। ऐसी स्थिति में यदि महासचिव को उसके पद से मुक्त किया जाता है तो बोर्ड अध्यक्ष अपने पद पर कैसे बने रह सकेंगे। बुनियादी सवाल यह है कि अचानक ऐसी क्या बात हो गई कि महासचिव की योग्यता और कार्यप्रणाली पर सवाल उठने लगे और जो लोग सवाल उठा रहे हैं, वह कौन हैं और क्या चाहते हैं?
उर्दू दैनिक `हमारा समाज' में सादिक शेरवानी ने `उर्दू प्रेस क्लब की बेबुनियाद हवाबाजी, पदाधिकारी पत्रकार नहीं, कोई पत्रकार नहीं, कार्यालय का पता नहीं, सरपरस्तों का उर्दू का कोई अखबार नहीं, फिर भी नाम है उर्दू प्रेस क्लब' पर चर्चा करते हुए लिखा है कि आए दिन खबरें आती हैं कि फ्लां नकली कम्पनी से ठगी का मामला सामने आया है। उर्दू की यह संस्था भी ऐसी है जो अपने नाम से कोसों दूर मेल नहीं खाती लेकिन इसकी कागजी कार्यवाहियां चलती रहती हैं जिससे इनके सरपरस्तों का भला होता रहता है। इसका नाम उर्दू प्रेस क्लब है लेकिन इस संस्था का उर्दू पत्रकारिता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि उर्दू प्रेस क्लब में किसी उर्दू अखबार का कोई पत्रकार सदस्य नहीं है, इसके पदाधिकारियों में किसी का संबंध वर्तमान उर्दू पत्रकारिता से नहीं है। लगभग तीन वर्ष पूर्व कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित इसके एक कार्यक्रम में एक गैर उर्दू पत्रकार ने न केवल पैगम्बर इस्लाम की शान में गुस्ताखी की थी बल्कि यहां तक कह दिया कि कुरान से सूरा जिहाद और सूरा तलाक को निकाल दिया जाए। इस पर काफी हंगामा हुआ था। उर्दू प्रेस क्लब इन दिनों उर्दू माफिया बना हुआ है और अब वह देश में पत्रकारिता का शोषण करते हुए विदेश भी पहुंच गया है। सूचना के अनुसार इन दिनों दुबई में इसकी माफियागिरी चल रही है।
दिल्ली, कोलकाता और रांची से एक साथ प्रकाशित होने वाला उर्दू दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने पहले पेज पर रहस्योद्घाटन करते हुए यह रिपोर्ट छापी है। `मौलाना अरशद मदनी के अतिविश्वास पात्र ने 50 लाख का चूना लगाया, फजलुर रहमान ने सऊदी उच्चायोग से मिली रकम जमा नहीं की। रिपोर्ट के अनुसार जमीयत उलेमा हिन्द (मौलाना अरशद मदनी) की कार्यकारिणी सदस्य और मुख्यालय के एक अहम जिम्मेदार मालना फजलुर रहमान के बारे में यह चर्चा है कि उन्होंने जमीयत उलेमा हिन्द का 50 लाख रुपया हजम कर लिया है। मौलाना अरशद मदनी के विश्वास पात्र समझे जाने वाले मौलाना फजलुर रहमान का संबंध मुंबई से है जहां वह टेवल एजेंसी चलाते हैं लेकिन गत दो वर्ष से जमीयत उलेमा मुख्यालय में रह रहे थे और जमीयत उलेमा हिन्द की आंतरिक और विदश नीतियों में अहम भूमिका निभा रहे थे। गत दिनों पैगम्बर इस्लाम के महान साथियों (सहाबा) की महानता पर कांफ्रेंस के सिलसिले में दिल्ली स्थित सऊदी अरब उच्चायुक्त से मामला इनके ही द्वारा चल रहा था। इस कांफ्रेंस के बारे में आम धारणा थी कि सऊदी सरकार पूरी दुनिया में इस तरह की कांफ्रेंस कर रही है और वही इसका सारा खर्च वहन करती है। सऊदी उच्चायुक्त से अपने सम्पर्प के चलते कांफ्रेंस के अवसर पर अखबार में प्रकाशित विज्ञापन का 50 लाख रुपया मिला था जिसे मौलाना फजलुर रहमान ने जमा नहीं किया और वापस अपने वतन चले गए जिसकी वजह से उनके और मौलाना अरशद मदनी के बीच विवाद पैदा हो गया है।'
उर्द दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' में हज कमेटी में घोटाले और भर्तियों में घपले पर हज कमेटी उपाध्यक्ष हसन अहमद से बात करते हुए लिखा है कि फाइनेंस के मामले में सूरत-ए-हाल काफी खराब है और सदस्यों को पूरी तरह अंधेरे में रखा जाता है। हज कमेटी में हाजियों के भेजे हुए लगभग डेढ़ करोड़ रुपये के ड्राफ्ट ऐसे पड़े हैं जिन्हें हज खाते में जमा नहीं कराया गया और न ही सदस्यों को इस बारे में कुछ बताया गया, उन्होंने सवाल किया कि यह रुपया कहां जाएगा। यह हाजियों का रुपया है और यदि इसमें घपला होता है तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? हसन अहमद ने कहा कि चीफ एक्जीक्यूटिव प्रशासन के मुखिया हैं और उन्होंने भी एक साल से यह नहीं देखा कि इतनी बड़ी रकम के ड्राफ्ट हज कमेटी के खाते में जमा नहीं हुए। उनके अनुसार पिछले कुछ वर्षों के दौरान हुई भर्तियों की जांच होनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि भर्ती में तय मानकों का पालन हुआ या नहीं? इस बाबत एक कमेटी गठित करने का फैसला किया गया है जो तीन महीने में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी। जहां तक एक सऊदी अरब में हाजियों के लिए मकान हासिल करने का मामला है। कहने को तो हज कमेटी के सदस्य बिल्डिंग सैलेक्शन कमेटी (बीएससी) वहां जाते हैं, उन्हें कुछ मकान दिखाए जाते हैं और इनमें कुछ सदस्य यदि कुछ मकान बना लेते हैं तो वहां कौंसल जनरल और कौंसल हज इसकी संधि तुरन्त नहीं करते और कह देते हैं कि अभी देखेंगे, हज कमेटी के सदस्य वापस भी आ जाते हैं और मकान की संधि नहीं होती है। उनका कहना था कि बीएससी सदस्यों का सऊदी अरब भेजने का क्या फायदा? इसलिए मकान लेने की पूरी जिम्मेदारी वहां के कौंसल जनरल और कौंसल हज पर ही डाल दी जाए और उन्हें ही जवाबदेह बनाया जाए।
उर्दू दैनिक `हमारा समाज' में सादिक शेरवानी ने `उर्दू प्रेस क्लब की बेबुनियाद हवाबाजी, पदाधिकारी पत्रकार नहीं, कोई पत्रकार नहीं, कार्यालय का पता नहीं, सरपरस्तों का उर्दू का कोई अखबार नहीं, फिर भी नाम है उर्दू प्रेस क्लब' पर चर्चा करते हुए लिखा है कि आए दिन खबरें आती हैं कि फ्लां नकली कम्पनी से ठगी का मामला सामने आया है। उर्दू की यह संस्था भी ऐसी है जो अपने नाम से कोसों दूर मेल नहीं खाती लेकिन इसकी कागजी कार्यवाहियां चलती रहती हैं जिससे इनके सरपरस्तों का भला होता रहता है। इसका नाम उर्दू प्रेस क्लब है लेकिन इस संस्था का उर्दू पत्रकारिता से कुछ भी लेना-देना नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि उर्दू प्रेस क्लब में किसी उर्दू अखबार का कोई पत्रकार सदस्य नहीं है, इसके पदाधिकारियों में किसी का संबंध वर्तमान उर्दू पत्रकारिता से नहीं है। लगभग तीन वर्ष पूर्व कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित इसके एक कार्यक्रम में एक गैर उर्दू पत्रकार ने न केवल पैगम्बर इस्लाम की शान में गुस्ताखी की थी बल्कि यहां तक कह दिया कि कुरान से सूरा जिहाद और सूरा तलाक को निकाल दिया जाए। इस पर काफी हंगामा हुआ था। उर्दू प्रेस क्लब इन दिनों उर्दू माफिया बना हुआ है और अब वह देश में पत्रकारिता का शोषण करते हुए विदेश भी पहुंच गया है। सूचना के अनुसार इन दिनों दुबई में इसकी माफियागिरी चल रही है।
दिल्ली, कोलकाता और रांची से एक साथ प्रकाशित होने वाला उर्दू दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने पहले पेज पर रहस्योद्घाटन करते हुए यह रिपोर्ट छापी है। `मौलाना अरशद मदनी के अतिविश्वास पात्र ने 50 लाख का चूना लगाया, फजलुर रहमान ने सऊदी उच्चायोग से मिली रकम जमा नहीं की। रिपोर्ट के अनुसार जमीयत उलेमा हिन्द (मौलाना अरशद मदनी) की कार्यकारिणी सदस्य और मुख्यालय के एक अहम जिम्मेदार मालना फजलुर रहमान के बारे में यह चर्चा है कि उन्होंने जमीयत उलेमा हिन्द का 50 लाख रुपया हजम कर लिया है। मौलाना अरशद मदनी के विश्वास पात्र समझे जाने वाले मौलाना फजलुर रहमान का संबंध मुंबई से है जहां वह टेवल एजेंसी चलाते हैं लेकिन गत दो वर्ष से जमीयत उलेमा मुख्यालय में रह रहे थे और जमीयत उलेमा हिन्द की आंतरिक और विदश नीतियों में अहम भूमिका निभा रहे थे। गत दिनों पैगम्बर इस्लाम के महान साथियों (सहाबा) की महानता पर कांफ्रेंस के सिलसिले में दिल्ली स्थित सऊदी अरब उच्चायुक्त से मामला इनके ही द्वारा चल रहा था। इस कांफ्रेंस के बारे में आम धारणा थी कि सऊदी सरकार पूरी दुनिया में इस तरह की कांफ्रेंस कर रही है और वही इसका सारा खर्च वहन करती है। सऊदी उच्चायुक्त से अपने सम्पर्प के चलते कांफ्रेंस के अवसर पर अखबार में प्रकाशित विज्ञापन का 50 लाख रुपया मिला था जिसे मौलाना फजलुर रहमान ने जमा नहीं किया और वापस अपने वतन चले गए जिसकी वजह से उनके और मौलाना अरशद मदनी के बीच विवाद पैदा हो गया है।'
उर्द दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' में हज कमेटी में घोटाले और भर्तियों में घपले पर हज कमेटी उपाध्यक्ष हसन अहमद से बात करते हुए लिखा है कि फाइनेंस के मामले में सूरत-ए-हाल काफी खराब है और सदस्यों को पूरी तरह अंधेरे में रखा जाता है। हज कमेटी में हाजियों के भेजे हुए लगभग डेढ़ करोड़ रुपये के ड्राफ्ट ऐसे पड़े हैं जिन्हें हज खाते में जमा नहीं कराया गया और न ही सदस्यों को इस बारे में कुछ बताया गया, उन्होंने सवाल किया कि यह रुपया कहां जाएगा। यह हाजियों का रुपया है और यदि इसमें घपला होता है तो उसका जिम्मेदार कौन होगा? हसन अहमद ने कहा कि चीफ एक्जीक्यूटिव प्रशासन के मुखिया हैं और उन्होंने भी एक साल से यह नहीं देखा कि इतनी बड़ी रकम के ड्राफ्ट हज कमेटी के खाते में जमा नहीं हुए। उनके अनुसार पिछले कुछ वर्षों के दौरान हुई भर्तियों की जांच होनी चाहिए और यह देखना चाहिए कि भर्ती में तय मानकों का पालन हुआ या नहीं? इस बाबत एक कमेटी गठित करने का फैसला किया गया है जो तीन महीने में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी। जहां तक एक सऊदी अरब में हाजियों के लिए मकान हासिल करने का मामला है। कहने को तो हज कमेटी के सदस्य बिल्डिंग सैलेक्शन कमेटी (बीएससी) वहां जाते हैं, उन्हें कुछ मकान दिखाए जाते हैं और इनमें कुछ सदस्य यदि कुछ मकान बना लेते हैं तो वहां कौंसल जनरल और कौंसल हज इसकी संधि तुरन्त नहीं करते और कह देते हैं कि अभी देखेंगे, हज कमेटी के सदस्य वापस भी आ जाते हैं और मकान की संधि नहीं होती है। उनका कहना था कि बीएससी सदस्यों का सऊदी अरब भेजने का क्या फायदा? इसलिए मकान लेने की पूरी जिम्मेदारी वहां के कौंसल जनरल और कौंसल हज पर ही डाल दी जाए और उन्हें ही जवाबदेह बनाया जाए।
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