Tuesday, March 15, 2011

इंसाफ के इंतजार में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय

बीते दिनों कई मुद्दों ने अपनी ओर ध्यान आकर्षित कराया है। अयोध्या विध्वंस मामले में आरोपियों के विरुद्ध षड्यंत्र का मामला और दिल्ली की एक अदालत द्वारा बोफोर्स तोप सौदे में दलाली पाने वाले कथित आरोपी क्वात्रोची के खिलाफ फाइल बन्द करने पर मुहर और जामिया मिलिया इस्लामिया को अल्पसंख्यक संस्था का दर्जा मिलने के बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जा से तुलना जैसे अनेक मुद्दे अखबारों में छाये रहे। पेश है इस बाबत उर्दू के कुछ अखबारों की राय।

`सहरोजा दावत' ने `अयोध्या विध्वंस में आरोपियों के खिलाफ आपराधिक षड्यंत्र का मामला' के शीर्षक से लिखा है। गोधरा घटना में जहां षड्यंत्र को कोई पहलू नजर नहीं आ रहा था और यदि होगा तो यह दंगाइयों का ही किया कराया होगा ताकि वह इस बहाने मुसलमानों का नरसंहार कर सकें। रेलवे की ओर से गठित यूसी बनर्जी कमेटी ने उसे एक अचानक घटना बताया था और पोटा पुनर्विचार कमेटी ने पोटा हटाने की सिफारिश करके आरोपियों को फंसाने की सरकार के षड्यंत्र को बेनकाब कर दिया था। अहमदाबाद की विशेष अदालत ने इस घटना में 31 मुसलमानों को षड्यंत्रकारी मान कर उन्हें सजा सुना दी और जिस बाबरी मस्जिद का विध्वंस षड्यंत्र के तहत ही हुआ था, इस बाबत योजनाएं और प्लानिंग की रिपोर्टें खुफिया एजेंसियों ने विध्वंस से पहले भी दी थीं और विध्वंस के बाद भी विध्वंस से पूर्व राजनैतिक पार्टियों ने पूरी स्थिति का जायजा लेकर संदेह व्यक्त कर तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव सरकार से उचित कार्यवाही और बाबरी मस्जिद को बचाने की मांग की। इस सबके बावजूद विध्वंस के 18 वर्षों बाद षड्यंत्र का मामला कानूनी दांव पेंच में उलझा हुआ है और यह फैसला नहीं हो पा रहा है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के षड्यंत्र के आरोप में छोटे-बड़े सभी आरोपियों के खिलाफ मुकदमा चलाया जाए या बड़ों के खिलाफ केवल मुकदमें की खानापूरी हो और छोटे लोगों को अंजाम तक पहुंचाया जाए।

सारा मामला मुकदमें में एक तकनीकी खामी का है जिसमें सुधार नहीं किया जा रहा है। निश्चय ही इसका फायदा आरोपियों को मिल रहा है। मुकदमा रस्मी बनकर रह गया है, जिस घटना को देश में सेकुलरिज्म, लोकतंत्र और संविधान का खून और अदालत की अवमानना कहा गया, उसके आरोपियों के खिलाफ एक फुसफुसा मुकदमा चलाना घटना से ज्यादा शर्मनाक है। लेकिन गत 18 वर्षों से यही हो रहा है। उत्तर प्रदेश की कोई भी सरकार इस तकनीकी खामी को दूर करने के लिए तैयार नहीं है। `बोफोर्स केस में एक नया मोड़' के शीर्षक से उपरोक्त अखबार ने अपने सम्पादकीय में लिखा है। बोफोर्स तोप सौदे में बड़े पैमाने पर हेने वाली हेराफेरी का मामला उस समय एक नए मोड़ में दाखिल हो गया जब दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने इस मामले के एक अहम आरोपी इटली व्यवसायी क्वात्रोची को घूस के आरोप से बरी कर दिया। इस तरह उसे सजा दिलाने की सभी कोशिशों पर पानी फिर गया और इस उद्देश्य से क्वात्रोची को भारत लाने का तर्प भी खत्म हो गया। इस तरह 25 साल की मेहनत और लगभग 250 करोड़ रुपये से देश हाथ धो बैठा। क्वात्रोची को अदालत के सामने पेश करने की कोशिशें उस समय से हो रही हैं जब वह 1993 में देश से फरार होने में कामयाब हो गया था। यह एक अलग किस्सा है कि वह यहां से भागने में कैसे कामयाब हुआ। इसके लिए पहले मलेशिया के साथ बातचीत की गई इसके बाद अर्जेंटीना से बात की गई, लेकिन दोनों कोशिशें बुरी तरह नाकाम रहीं। अब सीबीआई ने अपनी असफलता को स्वीकार करते हुए अदालत को भी इससे सहमत करने की अपील की कि इसका कोई फायदा नहीं इसलिए इसको बन्द कर दिया जाए। ठीक यही मामला यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों के साथ किया गया, वह भी इसी देश से फरार होने में कामयाब हो गया था। अब यह सच्चाई भी सामने आ चुकी है कि उसको देश से भागने में किन-किन व्यक्तियों ने मदद की और कौन-सी ताकतें इसमें लिप्त हैं। अब यह कहा जा रहा है कि बोफोर्स मामले का अध्याय बन्द हो गया और बड़ी बात यह है कि अदालत इसका रास्ता आसान कर रही है। यदि राष्ट्रीय दौलत के बर्बाद होने का अदालत को इतना ही गम है तो उसे इस तरह के दूसरे मामलों पर भी ध्यान देना चाहिए। दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `दस्तावेज' के स्तंभ में अल्पसंख्यकों की शैक्षिक समस्याएं और उनकी संस्थानों के अधिकार पर विस्तारपूर्वक चर्चा की है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के डीन फैकलटी ऑफ लॉ प्रोफेसर एम. शब्बीर लिखते हैं। 2006 में एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा को खत्म करने वाले फैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चैलेंज किया गया, लेकिन इस मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रोशनी में अल्पसंख्यक संस्था मानने से इंकार कर दिया। अदालत के सामने एएमयू (संशोधित) कानून 1981 की पृष्ठभूमि को बयान किया गया कि यह एक अल्पसंख्यक संस्था है और इस अधिकार को बहाल करने के लिए यह कानून बनाया गया था। लेकिन इस सब के बावजूद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अजीज पाशा के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को महत्व दिया। उसका कहना था कि हम सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि एएमयू (संशोधित) कानून 1981 में यह कहीं नहीं कहा गया कि इस कानून को बनाने का किसी को कोई अधिकार नहीं दिया गया। टंडन ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बनाम डॉ. नरेश अग्रवाल केस में स्पष्ट कर दिया कि संसद को यह अधिकार हासिल नहीं है कि वह एएमयू (संशोधित) एक्ट 1981 कानून बनाए क्योंकि उस समय अजीज पाशा मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आ चुका है। इसलिए इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्था नहीं माना। एएमयू को अल्पसंख्यक संस्था करार देने और अजीज पाशा केस के प्रभाव से मुक्ति दिलाने के लिए याचिका दाखिल करनी पड़ी। यह याचिका सुप्रीम कोर्ट के सामने विचाराधीन है। इसको कम से कम पांच जजों से अधिक की खंडपीठ के सामने पेश होना चाहिए क्योंकि अजीज पाशा केस पर जो फैसला आया था वह पांच जजों की खंडपीठ का था। `गोधरा अदालती फैसला कुछ उभरते सवालात' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' में ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल महासचिव डॉ. मोहम्मद मंजूर आलम ने लिखा है कि यह सवाल भी अहम है कि जब मुकदमे में पोटा लगाना ही षड्यंत्र साबित हो चुका और उसकी बुनियाद पर आगे की कानूनी कार्यवाही पर भरोसा कैसे किया जा सकता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि विशेष अदालत ने गोधरा घटना के पूरे मामले में उन 59 कारसेवकों जिनकी मौत का दावा किया जाता है, के नाम और परिजनों का पता नहीं मालूम कर पाई और न ही साबरमती एक्सप्रेस की जलाई गई एस-6 बोगी के आरक्षण चार्ट को हासिल कर पाई लेकिन इनकी हत्या के आरोप में सुनवाई पूरी कर डाली और एक सौ लोगों की जिन्दगी से खिलवाड़ किया। यह फैसला हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट में चैलेंज किया जाना चाहिए ताकि पूरा मामला जो पहेली बन गया है, सुलझाया जा सके और सही सूरते हाल सामने आ सके। `बिहार 2459 मदरसों की मंजूरी या मुसलमानों की ठगी' के शीर्षक से साप्ताहिक `चौथी दुनिया' में अशरफ अस्थानवी ने लिखा है। 2459 मदरसों के सिलसिले में जारी खुलासे में यह फर्प पैदा कर दिया गया है जिसे कमजोर पाएगी या कहना अभी जल्दबाजी है। अध्यादेश में मदरसों को मंजूरी देने और उनके शिक्षक एवं कर्मचारियों को सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के बराबर पगार देने के लिए 108 करोड़ रुपये की मंजूरी की बात कही गई है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। सबसे पहली बात यह कि सभी 2459 मदरसों को इस फैसले से मंजूरी हासिल नहीं होगी। इनकी जांच जिला शिक्षा अधिनियम के तहत निर्धारित दिशानिर्देश के तहत करेंगे।

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