Saturday, March 26, 2011

अरब जगत की हलचल और शासकों के लिए सबक

बीते दिनों विकीलीक्स ने रहस्योद्घाटन सहित वोट के बदले नोट एवं अरब जगत के देशों में चल रही सामाजिक न्याय की हलचल विशेष रूप से चर्चा में रही। पेश है इस बाबत कुछ उर्दू अखबारों की राय।

`विकीलीक्स के रहस्योद्घाटन' के शीर्षक से सहरोजा दावत ने अपने स्तम्भ `खबरो नजर' में लिखा है। विकीलीक्स का शोर एक बार फिर हुआ है। इस बार अंग्रेजी दैनिक `हिन्दू' विकीलीक्स द्वारा सरकारी और कूटनीतिक दस्तावेजों तक पहुंचा है। नए-नए रहस्योद्घाटन हो रहे हैं। नया रहस्योद्घाटन से जो सबसे अहम चीज उभरकर सामने आई है, वह देश की विदेश नीति पर अमेरिका की पकड़ और हमारे आंतरिक मामलों में इसका हस्तक्षेप। सरकारी हलकों को भी संकोच होता था और विपक्ष में भी। लेकिन अब तो सत्तापक्ष इसकी जरूरत ही महसूस नहीं करता कि वह इसका खंडन करे और न विपक्ष में केवल वाम मोर्चा के एक छोटे से समूह ने इसका विरोध किया। विपक्ष होने का भ्रम रखने के लिए वह कुछ न कुछ बोलती रही। जैसे इस बार भी इसके एक वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने ताजा रहस्योद्घाटन पर कहा कि ऐसा मालूम होता है कि हमारी नीतियां अमेरिका में बनाई जाती हैं।

अब यदि अमेरिका अर्थात् दुनिया में सुपर पावर के साथ दोस्ती और वफादारी की बात की जाए तो जो कुछ हुआ, नहीं होना चाहिए। इसके सिवाय कुछ हो भी नहीं सकता। इसलिए कि इतिहास वही बताता है। ताकतवर के साथ दोस्ती, कमजोर के साथ दुश्मनी यहां का तरीका रहा है। यहां की सामाजिक व्यवस्था जो जन्म आधारित ऊंच-नीच पर कायम है और एक वर्ग के हाथों में सभी आर्थिक संसाधनों का रहना। यह नीति इतनी मजबूत है कि इसे कोई हिला नहीं सकता। यहां की राजनीति और शासन के तीनों खम्भे इसी के आधीन हैं। दोनों राजनैतिक पार्टियां यही चाहती हैं, तरीके अलग-अलग हो सकते हैं। `लोकतंत्र के नाम पर अरब जगत में शासकों के खिलाफ गुस्सा, यह जन चेतना है या कोई षड्यंत्र' के शीर्षक से अल जमीअत ने लिखा है। 2003 में मुअम्मर गद्दाफी ने जिस तेजी से सौदे अमेरिका और इसके समर्थक देशों के साथ किए थे अब अमेरिका को ऐसा नहीं लगता कि लीबिया में आंदोलनकारियों द्वारा कायम होने वाली सरकार अमेरिका की गोद में इस तरह बैठने वाली होगी।

एक इस्राइली समाचार पत्र ने रहस्योद्घाटन किया है कि गद्दाफी के बेटे सैफुल इस्लाम ने गोपनीय तौर पर इस्राइल का दौरा किया है और विरोधियों को कुचलने में मदद मांगी है।

ऐसे भी सबूत सामने आए हैं कि इस्राइल कुछ विदेशी किराये के फौजियों को गद्दाफी सरकार के समर्थन में लीबिया भेज रहा है। मिस्र में हुस्नी मुबारक की सरकार खत्म होने के बाद से ही सऊदी अरब में भी सरकार विरोधी तत्वों ने एकजुट होना शुरू कर दिया था लेकिन सऊदी अरब में ऐसा लगता है कि विरोध को गैर शरई बताने और खुफिया एजेंसियों द्वारा जनता को भयभीत करने के कारण अभी तक देश की बहुसंख्यक पर भय है। यहां स्वयं अमेरिका भी इस पक्ष में नहीं है कि शाही परिवार को हटाकर लोकतंत्र का बिगुल बजाया जाए। `अब्दुल्ला साहेल का शासन भी संकट में' के शीर्षक से दैनिक राष्ट्रीय सहारा ने लिखा है। यमन में भी हालात बिगड़ रहे हैं और 23 वर्ष से यमन के शासन पर पदासीन अब्दुल्ला सालेह की गिरफ्त से बाहर होते जा रहे हैं। यमन कुछ वर्षों से आंदोलनकारियों के निशाने पर है लेकिन ऐसा लगता है कि अब हालात निर्णायक स्तर पर पहुंच गए हैं। यमन के शासक अली अब्दुल्ला सालेह अब तक सत्ता पर काबिज थे उन्होंने ही अब्दुल्ला का साथ छोड़ दिया है और आंदोलनकारियों से जा मिले हैं। इसके अतिरिक्त कई देशों में यमन के राजनयिकों और दक्षिणी यमन के राज्य अदन के गवर्नर ने भी अली अब्दुल्ला सालेह का साथ छोड़ दिया है और विरोधियों के समर्थन की घोषणा कर दी है। समाचार के अनुसार अब्दुल्ला सालेह के सबसे करीबी और फौज के ताकतवर कमांडर जनरल मोहसिन सालेह ने खुलकर प्रदर्शनकारियों से हाथ मिलाने की घोषणा की है। इनका संबंध भी इसी कबीले से है जिससे अब्दुल्ला सालेह का संबंध है। इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि अब्दुल्ला सालेह की अपने क्षेत्र में भी पकड़ कमजोर हो रही है और उनके लिए अपनी सत्ता बचा पाना आसान नहीं है। इसलिए यमन सहित ऐसे हालात का शिकार सभी देशों को इस मामले में बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुए शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता छोड़ देनी चाहिए ताकि अमेरिका और यूरोप को इस क्षेत्र में फौजी हस्तक्षेप का मौका न मिल सके। `बहरीन में संकट तो लीबिया में तूफान' के शीर्षक से सैयद मंसूर आगा ने लिखा है। चालीस वर्षीय शासन में गद्दाफी ने अरब दुनिया में बहुत से दुश्मन बना लिए हैं। अरब लीग के सचिव जनरल अगर मूसा जिनकी नजर मिस्र के राष्ट्रपति पद पर लगी हुई है, लीबिया में यूरोपीय फौजी हस्तक्षेप की मांग कर रही है, जिस पर अमेरिकी विदेश मंत्री ने प्रशंसा भी जाहिर की है। काहिरा जाने से पूर्व मिसेज क्लिंटन ने पेरिस में लीबिया के विद्रोही सेना के एक समूह से लम्बी मुलाकात की और वहां की सूरतेहाल पर चिन्ता व्यक्त की। लेकिन जब पत्रकारों ने बहरीन संकट का जिक्र छेड़ा तो वह टाल गईं। हमें यह बताने की जरूरत नहीं है कि जिस अमेरिका का लीबिया के विद्रोहियों से इतनी ज्यादा हमदर्दी है उसको बहरीन की कोई चिन्ता क्यों नहीं है। `अब पाकिस्तान गोमगो का जिगर होटल है' में इशतियाक दानिश ने लिखा है। पश्चिम इस बात से भी परेशान है कि कहीं अरब दुनिया में वह ताकतें सत्ता पर कब्जा न कर लें जो इस्राइल विरोधी हैं।

उनकी परेशानी यह भी है कि नए शासक कहीं अपनी आर्थिक नीतियां न बदल दें। यदि नए शासक यह फैसला करते हैं कि वह दूसरों पर भरोसा करने के बजाय स्वयं उद्योग लगाएं और सामान तैयार करें तो इससे पश्चिम की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचेगी। इसलिए पश्चिम नहीं चाहता कि लोगों के सामने एक लोकतंत्र विरोधी ताकत के तौर पर सामने आए। यही कारण है कि अमेरिका और यूरोपीय देश शांतिपूर्ण प्रदर्शन का समर्थन कर रहे हैं। यह कोई मामूली बात नहीं है कि सऊदी अरब ने बहरीन में अपनी फौज उतार दी है। सऊदी शासक तेल की दौलत से अपने विरोधियों को राम करते रहे हैं। वह अपनी शिया आबादी को विरोध नहीं करने देते लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति की चिन्ता करते हैं।

जैसे ही सऊदी अरब में विरोध प्रदर्शन हुए, वहां के शासकों ने बिलियन डालर की विकास योजना बना डाली ताकि सऊदी समाज के उन लोगों की मदद की जाए तो जिन्दगी की दौड़ में पीछे रह गए हैं। `अरब जगत की हलचल' पर रिजवान उल्ला ने लिखा है। अरब जगत की हलचल के कारण चाहे जो भी हो, इसका अन्त चाहे जो भी हो, लेकिन इसमें सारे नेताओं के लिए एक सबक जरूर है। उन्होंने विदेशों में अपनी दौलत जो वास्तव में कौम की अमानत होनी चाहिए, जमा की गई है। यही दौलत का यदि कुछ हिस्सा भी वह अपने देश की जनता के विकास और उन्नति पर खर्च करते रहते तो आज उनको यह काला दिन न देखना पड़ता और न ही विदेशी दौलत के हड़प किए जाने का खतरा पैदा होता है। वास्तव में यह सबक भारत के उन पूंजीपतियों के लिए भी है जो देश में कमाई हुई दौलत को विदेशों में जमा करते हैं और इनके फायदों से जनता को वंचित करते हैं और सरकार की जवाबदेही से बचते हैं। भ्रष्टाचार और गलत तरीके पर जमा किए हुए काले धन के खिलाफ आवाज तो यहां भी उठ रही है, कौन जाने किस दिन यह किसी आंदोलन का रूप ले ले।

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