Saturday, March 5, 2011

`गोधरा को पहेली न बनाया जाए'

पिछले दिनों की विभिन्न घटनाओं को लेकर उर्दू अखबारों ने परम्परानुसार अपने सम्पादकीय और आलेख प्रकाशित किए हैं। लेकिन गोधरा की विशेष अदालत का फैसला इन सभी मुद्दों पर छाया रहा। पेश है इस बाबत उर्दू के कुछ समाचारपत्रों की राय।

`सजा-ए-मौत' के शीर्षक से दैनिक `सियासत' ने लिखा है। भारत की साप्रदायिक ताकतों को गोधरा ट्रेन घटना में 31 में से 11 को सजा-ए-मौत पर भी खुशी नहीं हुई। यह लोग सभी अपराधी करार दिए गए 94 व्यक्ति को सजा-ए-मौत के इच्छुक हैं। गुजरात के साबरमती जेल में विशेष अदालत की ओर से 2002 की गोधरा घटना पर जस्टिस पीआर पाटिल ने 11 व्यक्तियों को सजा-ए-मौत देने के अलावा अन्य 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। यही सोच काम करती है कि हमारे देश का कानून मजबूत है और वह बिना भेदभाव फैसला करता है लेकिन गोधरा के अतिरिक्त अन्य मामलों या केसों की समीक्षा से अंदाजा होता है कि इंसाफ हेतु अन्य अदालतें या जज इस तरह का प्रदर्शन नहीं करते जिस तरह साबरमती जेल की अदालत में किया गया। कानून अंधा होता है तो फिर इसे हर उस अपराधी के साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि इसने गोधरा ट्रेन घटना के आरोपियों से किया है। गोधरा के बाद हुए दंगे या देश के अन्य भागों में लाखों व्यक्तियों की मौत के जिम्मेदारों को वर्षों अदालती प्रक्रिया के बावजूद गोधरा केस की तरह आरोपियों को सजा-ए-मौत नहीं दी गई। विशेष अदालत के जज ने अपने 850 पेज के फैसले में क्या विवादित प्रतिक्रिया और किन विचारों को व्यक्त किया है। इसका रहस्योद्घाटन नहीं किया गया। पूरा फैसला पढ़कर ही मानव अधिकार संगठन या इंसाफ प्रिय संस्थानें अगला कदम उठा सकती हैं। इसमें दो राय नहीं कि सजा-ए-मौत पाने वाले सभी 11 व्यक्ति इस फैसले के खिलाफ गुजरात हाई कोर्ट जा सकते हैं। इस फैसले के संदर्भ में यदि कोई गुजरात दंगों को सही बताता है तो यह साप्रदायिक ताकतें ही होंगी। `गोधरा की सजाएं' के तहत दैनिक `खबरदार जदीद' ने लिखा है। गोधरा की विशेष अदालत ने साबरमती एक्सप्रेस घटना में कुसूरवार करार दिए गए 31 अपराधियों को सजा सुनाई है। इन में से 11 अपराधियों को फांसी की सजा दी गई है जबकि 20 को आजीवन कारावास की सजा। इन सजा का अनुमोदन अभी हाई कोर्ट से होना बाकी है। जहां अपराधियों के वकील एक बार फिर अपने मुवक्किलों की बेगुनाही के हक में सुबूत पेश करेंगे और उन्हें सजा से बचाने की पूरी कोशिश करेंगे। हाई कोर्ट के बाद अगला कदम सुप्रीम कोर्ट होगा, यदि सुप्रीम कोर्ट ने इन अपराधियों की मौत की सजा बरकरार रखी तो वह राष्ट्रपति से रहम की अपील करने के हकदार होंगे। इस पूरी प्रक्रिया के होने में कितना समय लगेगा, यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह बात तय है कि विशेष अदालत ने जिन सजाओं की घोषणा की है उनमें निश्चय ही तब्दीली होगी क्योंकि इस मुकदमें में जितनी बड़ी संख्या में आरोपियों को बरी किया गया है वह इस बात का सुबूत है कि गोधरा घटना को खतरनाक षड्यंत्र करार देने के तार आपस में जोड़ते समय पुलिस और इसतेगासा को व्यावहारिक परेशानियों से जूझना पड़ा और वह अपने केस को मजबूती से पेश नहीं कर सका। मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी गोधरा घटना को खतरनाक षड्यंत्र करार देने की थ्योरी पर कितना ही शोर क्यों न मचाएं लेकिन जिस तरह षड्यंत्र की थ्योरी ताश के पत्तों की तरह अदालत में बिखरती नजर आई है उसने सच और झूठ का फर्प पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है और यही नरेन्द्र मोदी की सबसे बड़ी नाकामी है।

`गोधरा को पहेली न बनाया जाए' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' ने लिखा है। देश के ख्याति प्राप्त कानूनी विशेषज्ञ प्रशांत भूषण का कहना है कि गोधरा घटना के सिलसिले में विशेष अदालत का फैसला `गलत सुबूत पर आधारित गलत फैसला है जिसके संदर्भ में ट्रेन में आग लगने की घटना की नए सिरे से तफ्तीश होनी चाहिए।' यही विचार स्वामी अग्निवेश के हैं। उनका कहना है कि `फैसला कमजोर है क्योंकि यह एक गवाह के संदेह आधारित गवाही पर आधारित है।' पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज से जुड़े जेएस बंदूकवाला भी विशेष अदालत के फैसले से सहमत नहीं हैं जिसमें 11 अपराधियों को सजा-ए-मौत और 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है। बंदूकवाला की दृष्टि में यह एक अफसोसनाक फैसला है जो अपर्याप्त सुबूत के आधार पर सुनाया गया।' मशहूर कैथोलिक सामाजिक कार्यकर्ता फादर सेडरेक प्रकाश भी अदालती फैसले से खुश नहीं हैं। अपनी बेचैनी पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि `षड्यंत्र की थ्योरी को मान लेने का कोई तर्प नहीं है विशेषकर उन हालात में जब कि षड्यंत्र रचने के अहम आरोपी मोहम्मद हुसैन उमर जी के खिलाफ कोई सुबूत नहीं मिल सका है।'

किसी भी घटना की तफ्तीश के दौरान यह देखा जाना जरूरी है कि जो कुछ भी हुआ उससे फायदा किसको हुआ या फायदा किसने उठाया। जिसका फायदा हुआ या जिसने फायदा उठाया बहुत संभव है कि वह अपराधी हो। गोधरा घटना के पूर्व और बाद के हालात विशेषकर राजनैतिक हालात की समीक्षा की जाए तो मालूम होता है कि इस घटना से भाजपा विशेष रूप से नरेन्द्र मोदी सरकार को ऐसा फायदा हुआ जिसे जिंदगीभर की मेहनत का रातोंरात फल कहा जा सकता है। साबरमती के डिब्बों में आग क्या लगी, मोदी सरकार की छत्रछाया में रंगने वाले साप्रदायिक तत्वों ने पूरे गुजरात में आग लगा दी। सच पूछिए तो अपराधी सामने हैं।

`गोधरा अपराधियों को सजा-ए-मौत' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने लिखा है। हमें अदालतों की ईमानदारी पर अंगुलियां उठाने का हक नहीं है लेकिन एक जैसे अपराधी के लिए अलग-अलग कानून के इस्तेमाल पर खामोशी हमारे समीप माफ करने वाला अपराध नहीं है। अभी यह मामला उच्च अदालतों में जाएगा। हमें उम्मीद रखनी चाहिए कि उच्च अदालत का जब आखिरी फैसला आएगा तो उस पर अंगुलियां उठाने की गुंजाइश नहीं रह जाएगी। इंसाफ के तकाजे पूरे किए जाएंगे लेकिन इस समय इस फैसले पर जो सवालात उठाए जा रहे हैं उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। इससे देश में कानून के शासन पर इतनी ही गहरी चोट आई है और वह सारे जख्म ताजा हो गए हैं जो गुजरात में भारत के इतिहास के भयानक दंगों के दौरान मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और इनकी सरकार की भूमिका सै पैदा हुए थे। इस फैसले को जिस तरह साप्रदायिक रंग देने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, वह इससे भी ज्यादा खतरनाक है।

`गोधरा फैसले से उलझती गुत्थियां' के तहत दैनिक `हमारा समाज' ने लिखा है। अदालत के फैसले से संघी और भाजपा नेताओं के चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ गई है और ऐसा क्यों न हो इसलिए कि सैंकड़ों मुसलमानों की हत्या का आधार ढूंढने के लिए इसी का सहारा लिया जाएगा। लेकिन अब हर एक के दिमाग sं यह सवाल पैदा हो रहा है कि जब 59 व्यक्तियों की षड्यंत्र रचने वालों में से 11 को सजा-ए-मौत और 20 को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है तो सैकड़ों मुसलमानों के कितने हत्यारों को सजा-ए-मौत और आजीवन कारावास की सजा दी जाएगी? गोधरा घटना के पीछे षड्यंत्र की बात सच्चाई के स्तर तक नहीं पहुंच सकी है लेकिन मुसलमानों की हत्या की षड्यंत्र के ठोस सुबूत मिल चुके हैं। इसलिए अब देखना यह है कि राज्य के मुखिया समेत कितने लोगों के खिलाफ सजा सुनाई जाती है, इसके बाद ही अदालत की निष्पक्षता का सुबूत मिल सकेगा।

`गोधरा पर विशेष अदालत का फैसला, उभरते सवाल' के तहत ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल महासचिव डॉ. मोहम्मद मंजूर आलम ने लिखा है। अदालत द्वारा बरी किए गए लोगों को उचित मुआवजा दिया जाए एवं उनके पुनर्वास के लिए उन्हें सरकारी नौकरी दी जाएं जैसा कि बरी किए गए पांच लोगों को जेल विभाग की नौकरी दी गई है। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि नौ वर्षों के लम्बे समय में उनका सामाजिक जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अब जबकि वह बेगुनाह छोड़ दिए गए हैं तो सरकार को चाहिए कि उन्हें समाज में सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने हेतु सहायता करे।

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