Saturday, July 23, 2011

`वोट के बदले नोट' अमर सिंह पर शिकंजा कसा

बीते सप्ताह विभिन्न मुद्दे उर्दू मीडिया में छाये रहे। पेश है इन में से कुछ अखबारों की राय। `नोट के बदले वोट' मामले पर अमर सिंह से पूछताछ करने की इजाजत मिलने पर दैनिक `हमारा समाज' ने चर्चा करते हुए लिखा है कि यह मामला अमर सिंह के एक करीबी साथी संजू सक्सेना की दिल्ली पुलिस क्राइम ब्रांच द्वारा गिरफ्तारी के बाद सामने आया है। अमर सिंह पर यह आरोप है कि उन्होंने सांसदों को घूस देने के लिए नोट उपलब्ध कराए थे। संजू सक्सेना के इस आरोप के बाद दिल्ली पुलिस समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता अमर सिंह के खिलाफ शिकंजा कसने की पूरी तैयारी कर ली है। दरअसल यह मामला भारत-अमेरिका परमाणु संधि से संबंधित है, जिसके लिए वाम मोर्चों के विरोध के बाद यूपीए सरकार को वोट हासिल करने के लिए लोकसभा सदस्यों को खरीदने की बात सामने आई थी, 22 जुलाई 2008 को वोट हासिल करते समय भाजपा के कुछ सदस्यों ने नोटों की गड्डियां संसद में उछाल कर यह सुबूत देने की कोशिश की थी कि उन्हें वोट देने के लिए खरीदा गया, जिसका संबंध अमर सिंह से जोड़ा जा रहा है। तीन साल का समय गुजरने के बाद सुप्रीम कोर्ट की जब फटकार लगी है तब इस मामले में कुछ प्रगति हुई है। अब जबकि अदालत और संसद के बीच टकराव की बात आ रही है और दोनों के क्षेत्राधिकार पर बहस हो रही है, एक बार फिर यह मामला संगीन हो सकता है कि संसद के लिए कोई दिशा-निर्देश हैं या नहीं?
दारुल उलूम देवबंद के मोहतामिम मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी के मामले को लेकर दैनिक `इंक्लाब' ने रहस्योद्घाटन करते हुए लिखा है कि जांच कमेटी के एक सदस्य कानपुर के मुफ्ती मंजूर अहमद मजहिरी ने किसी जांच के बिना ही अपनी रिपोर्ट तैयार की है। रिपोर्ट के अनुसार मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी पर लगाए जाने वाले आरोपों की जांच के लिए गठित तीन सदस्य कमेटी के एक सदस्य मुफ्ती इस्माइल मालेगांव ने आगामी 23, 24 जुलाई को कार्यकारिणी (मजलिस शूरा) की बैठक से पूर्व रहस्योद्घाटन करते हुए कहा कि कमेटी में शामिल कानपुर के मुफ्ती मंजूर अहमद ने जांच पूरी किए बिना मौलाना गुलाम वस्तानवी के खिलाफ रिपोर्ट तैयार कर ली थी और मुझसे और मौलाना मोहम्मद इब्राहिम मद्रासी से अपनी तैयार की रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने की बात की थी, लेकिन हम दोनों ने यह कहकर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया कि कार्यकारिणी ने हमें जो जिम्मेदारी दी है उसे ईमानदारी से पूरा करेंगे। मुफ्ती इस्माइल के अनुसार गत महीने होने वाली कार्यकारिणी की बैठक में भाग लेने के लिए पहुंचे तो हम लोगों ने जांच में शामिल मुद्दों पर तफ्तीश करनी चाहिए तो मुफ्ती मंजूर अहमद ने हमारे साथ शामिल होने से साफ इंकार कर दिया। ज्ञात रहे दारुल उलूम देवबंद का मोहतामिम बनाए जाने के बाद मौलाना वस्तानवी ने मोदी के समर्थन में बयान दिया था, जिस पर काफी हंगामा खड़ा हो जाने के कारण मजलिस शूरा ने तफ्तीश के लिए तीन सदस्यीय कमेटी गठित की थी।
तेलंगाना ः कांग्रेस के `आगे कुआं पीछे खाई' के शीर्षक से दैनिक `हिन्द समाचार' ने लिखा है। 1947 में देश विभाजन के समय हमारे यहां 500 से अधिक छोटे-बड़े राज्य थे जिन्हें सरदार पटेल ने भारत में विलय कराया था। 17 दिसम्बर 1948 को हैदराबाद का भारत में विलय हुआ। तब आंध्रा प्रदेश के 21 तेलुगूभाषी जिलों में से 9 जिले हैदराबाद और 12 जिले मद्रास रेजीडेंसी के अधीन थे। 1952 में यूं ही श्री रामोलो ने आंध्रा प्रदेश के लिए मरणव्रत रखा और शहीद हो गए। पंडित नेहरू ने 19 दिसम्बर को अलग आंध्रा के गठन की घोषणा की। 1956 में राज्यों की भाषायी आधार पर इन तेलुगूभाषी जिलों को मिलाकर आंध्रा प्रदेश का गठन किया गया था जिसकी राजधानी हैदराबाद बनाई गई लेकिन तेलंगाना के लोगों की शिकायतों की अनदेखी की जाती रही। तेलंगाना के लिए आंदोलन चला रही टीआरएस व सहयोगी पार्टियों का कहना था कि वह ऐसे तेलंगाना से कम कुछ भी मंजूर नहीं करेंगे जिसकी राजधानी हैदराबाद हो। उस समय तो मामला थम गया लेकिन अब फिर गरम हो गया है। कांग्रेस एवं केंद्र सरकार इन मुद्दों पर बुरी तरह फंस चुकी है। इससे राज्य की अगुवाई कर रही रेड्डी सरकार के लिए खतरा पैदा हो गया है। एक तरफ कांग्रेस इसे कुछ महीनों के लिए टालने का प्रयास कर रही है और दूसरी तरफ तेलंगाना राज्य के लिए सभी पार्टियों ने सियासी मुहिम तेज कर दी है। कांग्रेस के नेता गण दो हिस्सों में बंट गए हैं। कर्नाटक एवं तमिलनाडु तो पहले ही कांग्रेस के हाथ से निकल चुके हैं जबकि गत चुनाव में केरल में भी इसे मामूली फर्प से सरकार बनाने में कामयाबी मिली है। ऐसे में यदि आंध्रा प्रदेश भी कांग्रेस के हाथ से निकल गया तो दक्षिण में इसका जनाधार खत्म हो जाएगा। `दार्जिलिंग पर त्रिकोणीय संधि' पर चर्चा करते हुए दैनिक `मुनसिफ' ने लिखा है। इस समय पूरा देश अलग तेलंगाना राज्य की मांग करते देख रहा है। स्वतंत्रता के बाद देश में राज्यों की व्यवस्था को सुचारू करने में जो समस्याएं पेश आईं, उससे देश परिचित है। उसके चलते कुछ अन्य राज्यों के अलग गठन की मांग होने लगी है जिसमें झारखंड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ की मांगें पूरी हुईं। विदर्भ, बुंदेलखंड, तेलंगाना और गोरखालैंड को अलग करने की मांग अभी पूरी नहीं हुई है। जनता के बीच अलग राज्य की मांग भाषायी और भौगोलिक हालात के अलावा उसी समय उठती है जब राज्य सरकारें और प्रशासन राज्य के हर कोने तक पहुंचने में नाकाम हो जाते हैं। तब जनता में बेचैनी की लहर उठती है। पटना और रांची, भोपाल और जयपुर, लखनऊ और देहरादून के विवादों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। जहां कहीं अलग राज्य के गठन की मांग उठी वहां राजनैतिक पार्टियों के निजी एजेंडे मांगों पर हावी नजर आए। पश्चिमी बंगाल में इन दिनों ऐसा ही दृश्य दिखाई दे रहा है। पश्चिमी बंगाल के पूर्वी भागों को मिलाकर जिसें दार्जिलिंग, कलम्पांग एवं कर सियांग पहाड़ी क्षेत्र हैं, गोरखालैंड के नाम से अलग राज्य बनाने की मांग 1980 से चली आ रही है। 18 जुलाई 2011 को गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, पश्चिमी बंगाल और केंद्र सरकार के बीच एक त्रिकोणीय संधि हुई है जिसके तहत केंद्र सरकार ने गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन के गठन को स्वीकृति दे दी है। दार्जिलिंग में लम्बे समय से जारी नाराजगी को तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी ने फिलहाल बड़ी चालाकी से सम्भाल लिया है लेकिन इससे अलग गोरखालैंड की मांग ठंडी पड़ जाएगी, ऐसा फिलहाल नजर नहीं आ रहा है।

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