Tuesday, March 6, 2012

गुजरात नरसंहार के 10 साल

गुजरात दंगों को लेकर 10 वर्ष पूरे होने पर विभिन्न संगठनों ने कार्यक्रम आयोजित किए। उर्दू अखबारों ने इस पर सम्पादकीय लिखे और विशेष लेख प्रकाशित किए। `गुजरात ः दंगों के 10 साल' के शीर्षक से दैनिक `जदीद खबर' में प्रकाशित सुहैल अंजुम ने अपने समीक्षात्मक लेख में लिखा है कि दंगों की 10 वर्ष पूरा होने पर जो रिपोर्ट अखबारों में प्रकाशित हुई है वह केवल एक दिखावा और झूठ है। मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी छह करोड़ गुजरातियों की बात करते हैं, वह उन लोगों को गुजराती मानते हैं जो हिन्दू हैं, उन लोगों को गुजराती नहीं मानते जो मुसलमान कहलाते हैं। वह उन्हें पहले तो इंसान ही नहीं मानते और यदि मानते हैं तो भारतीय नहीं बल्कि पाकिस्तानी मानते हैं इसलिए इनके समीप यह किसी सुविधा के पात्र नहीं हैं। मोदी कहते हैं कि वह हिन्दू-मुस्लिम की नीति पर अमल करते हैं लेकिन उनके यहां इस बात की कोई गुंजाइश नहीं है वह अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की नहीं बल्कि सिर्प गुजराती की बात करते हैं। दंगे स्वतंत्रता से पहले और बाद में भी हुए। लेकिन यह दंगा नहीं बल्कि मुसलमानों का नरसंहार था।
नरेन्द्र मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाकर इसीलिए भेजा गया कि वह आरएसएस के एजेंडे पर अमल करें। उन्होंने इस पर अमल करके दिखा दिया। आज भारत के मानचित्र पर दो गुजरात कायम हो गए हैं, एक वह गुजरात जो आरएसएस और नरेन्द्र मोदी का गुजरात है दूसरा वह गुजरात है जो मजलूम मुसलमानों का गुजरात है।
`भय और अन्याय के 10 साल' के शीर्षक से `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गोधरा घटना और इसके दूसरे दिन गुजरात में शुरू हुए नरसंहार को 10 वर्ष पूरे हो चुके हैं लेकिन गुजरात के जख्म इतने गहरे हैं कि एक दशक का समय गुजर जाने के बाद भी ऐसा लगता है जैसे यह कल की बात हो। इसका बड़ा कारण यह है कि कातिल नजरों के सामने हे और पीड़ित बेबसी के साथ अपने चारों तरफ घूमते देख रहे हैं। कहते हैं कि समय जख्म पर मरहम लगा देता है लेकिन गुजरात में न समय बदला, न सरकार बदली और न व्यवस्था में कुछ तब्दीली आई। सेक्यूलर पार्टियों ने गुजरात पर सियासत तो बहुत की लेकिन सत्ता में बैठे हुए तथाकथित नेतृत्व को इतना साहस आज तक न हुआ कि वह गुजरात के इस अन्याय आधारित व्यवस्था के खिलाफ कोई संवैधानिक कदम उठा सकें जबकि ऐसी सरकारों को भंग करने की संवैधानिक व्यवस्था हमारे संविधान में मौजूद है। कहते हैं कि नेता लोग कोई भी काम अपने सियासी फायदे व नुकसान को सामने रखकर ही करते हैं, इसलिए उन्हें गुजरात के पीड़ितों की चीख-पुकार सुनाई नहीं पड़ी जिनकी दास्तान सुनने के बाद बरबस ही आंखों से आंसू आ जाते हैं। बहरहाल यह भी साफ है कि गुजरात में जिस योजना के तहत यह नरसंहार किया गया वह योजना गुजरात में ही दफन हो गई। बदनाम होकर मोदी भले ही एक पार्टी के हीरो बन गए हों लेकिन हिन्दुस्तान का सेक्यूलरिज्म आज भी जिन्दा है और वह सांप्रदायिक ताकतों को ऐसे ही काटता रहेगा।
`गांधी के देश में...' के शीर्षक से दैनिक `हिन्दुस्तान एक्सप्रेस' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात में हिन्दुइज्म के फलसफे को मुस्लिम दुश्मनी में बदलने की भरपूर कोशिश हो रही है, जिसकी वजह से मुसलमानों के बच्चे शिक्षा से वंचित हैं, इनका कारोबार पहले ही खत्म हो चुका है। हर दिन इनके लिए संकट भरा है, हर रात इनके लिए भय का साया है। इस स्थिति को कुछ लोग मोदी के आतंक से प्रेरित बता रहे हैं। प्रोफेसर आबिद शम्सी ऐसे ही बुद्धिजीवी हैं जिनका विचार है कि गुजरात में मोदी का आतंक फैला हुआ है, वह तो यह भी कहते हैं कि यदि कोई हिन्दू किसी मुसलमान को अपना मकान अथवा दुकान किराये पर देना चाहे तो हिन्दू संगठन बीच में आ जाते हैं जिसके नतीजे में उन्हें किराये पर भी रहने की अच्छी जगह नहीं मिल पाती। मानवाधिकार के लिए काम करने वाले गिरीश पटेल तो शम्सी से एक कदम आगे बढ़कर कहते हैं कि आज से 7-8 साल पहले तक मैं यह नहीं कह सकता था कि मोदी टाइप सोच आगे बढ़ सकती है लेकिन आज ऐसा नहीं कह सकता। आज भारत में हिन्दुआइजेशन धीरे-धीरे हो रहा है। गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में इसके प्रभाव देखे जा सकते हैं। हिन्दू राज्य आधिकारिक रूप से घोषित नहीं है लेकिन सच्चाई यह है कि यह सेक्यूलर स्टेट के लिए एक बड़ा चैलेंज है।
कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' ने `गुजरात दंगे के 10 साल' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि देश में जब कोई बड़ी घटना होती है तो उस समय नैतिक बुनियाद पर आरोपी से त्यागपत्र की मांग शुरू हो जाती है। भाजपा संसद में चिदम्बरम का मात्र इस आधार पर बायकाट कर रही है कि अदालत ने एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई शुरू कर दी है। लेकिन क्या नरेन्द्र मोदी को नैतिक बुनियाद पर त्यागपत्र नहीं देना चाहिए कि अदालत ने इनके शासनकाल में हुई मुठभेड़ की सीबीआई जांच की हिदायत दी, दंगों को नहीं रोक पाने पर डांट लगाई, अदालत की अवमानना का नोटिस जारी किया है और एक बहादुर महिला के कारण एक मुख्यमंत्री से घंटों एसआईटी टीम ने पूछताछ की है। नरेन्द्र मोदी का मुख्यमंत्री के पद पर बने रहना ही देश के लोकतंत्र के लिए शर्म की बात है। ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताना इस पद की अवहेलना है।
हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `सियासत' ने `मुस्लिम नरसंहार के 10 साल, आरोपी अब तक आजाद' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि आश्चर्य इस बात पर है कि नरसंहार के 10 साल बीत जाने के बाद भी इनके आरोपी आजाद घूम रहे हैं और सरकारी पदों पर रहते हुए सभी सरकारी फायदे हासिल कर रहे हैं जबकि पीड़ितों की कोई खबर लेने वाला भी नहीं है। इंसाफपसंद व्यक्ति और संगठन पीड़ितों को न्याय दिलाने के मकसद से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था और अदालत ने एक विशेष जांच टीम भी गठित की। अब यहआरोप लगाया जा रहा है कि इस टीम पर भी नरेन्द्र मोदी प्रभाव डालने और अपनी मर्जी से तैयार करवाने में कामयाब हो गए हैं। संजु भट्ट के आरोप मुख्यमंत्री और उनके सथियों पर हैं लेकिन एसआईटी पर आरोप है कि इसने इन आरोप का कोई नोटिस लेना तक उचित नहीं समझा जबकि संजु भट्ट का कहना है कि इस सिलसिले में उन्होंने सुबूत भी पेश किए हैं। अब जबकि इस नरसंहार को हुए 10 वर्ष का समय बीत चुका है।
पीड़ितों की समस्याओं में कोई कमी नहीं हुई है और न ही उन्हें इंसाफ मिल सका है। जरूरत इस बात की है कि बिना किसी देरी के आरोपियों को सजा दी जाए।

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