Saturday, March 24, 2012

`बेचारा हिन्दुस्तानी मुसलमान...'

गत सप्ताह केंद्र सरकार द्वारा संसद से पारित बजट में मुसलमानों के लिए प्रावधान सहित योजना आयोग की वार्षिक रिपोर्ट जैसे अनेक मुद्दे उर्दू अखबारों में चर्चा का विषय रहे। पेश है इनमें से कुछ उर्दू अखबारों की राय।
`दिल्ली के स्कूलों में मुस्लिम बच्चों के दाखिले का मसला, मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इस पर तुरन्त ध्यान दें' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि दिल्ली के प्राइवेट स्कूलों में नर्सरी कक्षाओं में जो दाखिले हुए हैं उनमें मुसलमानों के साथ अन्याय किया गया है। लोक जनशक्ति पार्टी के महासचिव अब्दुल खालिक ने आंकड़ों द्वारा यह रहस्योद्घाटन किया कि दिल्ली पब्लिक स्कूल (मथुरा) को छोड़कर शहर के सभी स्कूलों में मुस्लिम बच्चों के साथ अन्याय किया गया है। कुछ स्कूलों में तो मुस्लिम बच्चों को दाखिला दिया ही नहीं गया जबकि कुछ अन्य में सिर्प नाम के लिए कुछ बच्चों को दाखिला दिया गया। यह सवाल लोक जनशक्ति पार्टी सुप्रीमो रामविलास पासवान ने राज्यसभा में उठाया तो मुस्लिम दुश्मनी में भाजपा सांसद बलबीर पुंज भड़क उठे और मुसलमानों से अपने बच्चों को मदरसों में पढ़ाने को कहा। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने अल्पसंख्यकों के हवाले से इस रहस्योद्घाटन को संगीन बताते हुए इस मामले की जांच कर उचित कार्यवाही करने की घोषणा की है जबकि मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने रामविलास पासवान के आरोपों को गलत करार दिया है।
सच्चाई यह है कि मुस्लिम बच्चों के दाखिलों में रुकावट खड़ी नहीं की जाती बल्कि दलितों और झुग्गी-झोपड़ियों वाले गरीब बच्चों के साथ भी ऐसा होता है। पश्चिमी दिल्ली के एक मोहल्ले पांडव नगर में 50 से अधिक ऐसे बच्चे हैं जिनका दाखिला सरकारी स्कूलों में नहीं हो सका। आरोप है कि झुग्गी-झोपड़ी में रहने के कारण उनका दाखिला नहीं हुआ। सरकार इस पर तुरन्त ध्यान दे।
`बेचारा हिन्दुस्तानी मुसलमान...' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपनी समीक्षा में चर्चा करते हुए लिखा है कि सच्चर कमेटी ने इस बात को उजागर किया था कि हिन्दुस्तानी मुसलमान शैक्षिक तौर पर दलितों से भी पिछड़े हैं। अब योजना आयोग ने मुसमलानों के संबंध में एक और चौंकाने वाला रहस्योदघाटन किया है और वह यह है कि शहरों में रहने वाले मुसलमानों की गिनती अब देश के सबसे गरीब वर्ग में होती है। योजना आयोग के अनुसार 2005-10 के बीच पांच करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से बाहर हो गए हैं लेकिन मुसलमान और गरीब हुआ है। शहरी क्षेत्रों में रहने वाले 34 फीसदी मुसलमान अत्याधिक गरीबी के दायरे में आते हैं। इस बाबत सबसे ज्यादा खराब सूरतेहाल गुजरात, बिहार और उत्तर प्रदेश में है। ग्रामीण क्षेत्रों के मुसलमानों की हालत भी अत्यंत चिन्ताजनक है। आयोग के आंकड़ों के अनुसार असम के ग्रामीण क्षेत्रों के मुसलमानों में 53 फीसदी गरीबी रेखा से नीचे हैं और उत्तर प्रदेश में यह अनुपात 56 फीसदी है। गुजरात में मुसलमान यदि दूसरे वर्गों से अधिक गरीब हैं तो इसमें कोई बहुत आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन आश्चर्य इस बात पर है कि उत्तर प्रदेश और बिहार जहां सेकुलर सरकारों का राज है।
यह स्थिति असम की है जहां ज्यादातर कांग्रेस का राज रहा है। योजना आयोग के यह आंकड़े इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि मुसलमानों की गरीबी दूर करने की कोशिश नहीं की गई तो सेकुलरिज्म एक खोखला नारा होकर रह जाएगा और यह हिन्दुस्तानी मुसलमानों का दुर्भाग्य होगा।
`अल्पसंख्यक मंत्रालय की सुस्ती, 587 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं हुए' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' ने स्टैंडिंग कमेटी आन सोशल जस्टिस एंड इम्पावरमेंट की रिपोर्ट के हवाले से लखा है कि 2010-11 में अल्पसंख्यकों के विकास के लिए दिए गए अनुदान में से 587 करोड़ रुपये इस्तेमाल करने के बजाय इसे सरकार को वापस लौटा दिया। रिपोर्ट के अनुसार गत वर्ष लौटाई गई रकम इसके मुकाबले कहीं कम थी। अल्संख्यक मंत्रालय ने 2008-09 में 33.63 करोड़ रुपये और 2009-10 में 31.5 करोड़ रुपये का गैर इस्तेमाल अनुदान लौटा दिया था। कमेटी रिपोर्ट के अनुसार यह रकम इसलिए इस्तेमाल नहीं हो सकी कि 4 नई योजनाएं शुरू ही नहीं की जा सकीं। मंत्रालय ने मल्टी सेक्टोरियल डेवलपमेंट प्रोग्राम के लिए दिए गए 426.26 करोड़ रुपये इस्तेमाल नहीं किए। इसने पोस्ट मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए 24 करोड़, वक्फ बोर्ड के कम्प्यूटरीकरण के लिए दिए गए 9.3 करोड़ रुपये, प्री मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए 33 करोड़ रुपये और मेरिट कम मींस छात्रवृत्ति के लिए दिए 26 करोड़ रुपये भी इस्तेमाल नहीं किए। कमेटी ने यह भी कहा कि सच्चर कमेटी के सभी सुझावों का गंभीरतापूर्वक क्रियान्वयन नहीं किया जा रहा है। कमेटी ने मंत्रालय को हिदायत दी कि सच्चर सुझावों को सीमित समय में क्रियान्वित करने हेतु योजना बनाए।
`यह तो सांप्रदायिकता के संबंध में बातें हैं और बातों का क्या? काम कब शुरू होगा?' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' में प्रकाशित समीक्षात्मक लेख में मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी ने लिखा है कि सांप्रदायिक तत्रों की गतिविधियों और देश की व्यवस्था को अपने विचारों के अनुसार चलाने की बात कोई नई नहीं है और यह भी कोई राज नहीं कि इनकी पकड़ विभिन्न विभागों पर कितनी मजबूत है। अन्य पार्टियों को छोड़िए, खुद कांग्रेस में भी संघ और इसके विचारों से प्रभावित सांप्रदायिक तत्वों की एक मजबूत टोली हमेशा से रही है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू बराबर इस तरफ ध्यान दिलाते हुए उन्हें बेनकाब करने और उनसे सरकारी विभागों को पाक करने की जरूरत बताते रहते थे।
गत कुछ दिनों से राहुल गांधी, जयप्रकाश अग्राल और दिग्विजय सिंह जैसे कांग्रेसियों को सरकारी विभागों में सांप्रदायिक तत्वों की घुसपैठ का बहुत अहसास हो रहा है और वह इसका इजहार कर रहे हैं। लेकिन यह काफी नहीं है। बीमारी के कारणों को दूर करने के साथ सरकारी विभागों को पाक करने के लिए व्यवहारिक उपाय भी जरूरी हैं।
`सरकार और अल्पसंख्यक' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने अपने संपादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि 2012-13 के बजट में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने अपनी आंखों पर एक चश्मा लगाते हुए अल्पसंख्यकों के हाथों में झुनझुना थमा दिया है जिससे यह महसूस होता है कि हमारी सरकार के पास अल्पसंख्यकों के लिए कुछ है ही नहीं अथवा हम अल्पसंख्यकों को देश के नागरिक ही नहीं मानते। अल्पसंख्यकों के साथ बजट में यह अन्याय कोई इस वर्ष का मामला ही नहीं है बल्कि गत कई बार से अल्पसंख्यकों के साथ यही मजाक किया जाता रहा है और यदि अल्पसंख्यकों के लिए राशि का प्रावधान किया जाता है, इसके संबंध में कोई योजना तैयार नहीं की जाती कि वह किस तरह खर्च की जाएगी अथवा अल्पसंख्यकों पर इस राशि को कैसे लगाएं। इसलिए आने वाले वर्ष में वह राशि वापस हो जाती है और कहा जाता है कि अल्पसंख्यकों को इसकी जरूरत नहीं। वैसे गत बजट के मुकाबले 385 करोड़ रुपये की वृद्धि की गई है। लेकिन इस वृद्धि से देश के अल्पसंख्यकों को किसी सूरत में कोई फायदा नहीं होता।

No comments:

Post a Comment