Sunday, April 1, 2012

मुस्लिम औरतों की बदहाली

बीते दिनों उर्दू समाचार पत्रों ने विभिन्न मुद्दों पर खुलकर चर्चा की और सम्पादकीय द्वारा स्थिति को स्पष्ट किया। पेश है कुछ उर्दू अखबारों की राय।
`मुस्लिम औरतों की बदहाली पर कोई सियासी पार्टी बोलने को तैयार नहीं' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि देश में मुस्लिमों के पारिवारिक कानून में सुधार व मुस्लिम निजी कानून को संहिताबद्ध किए जाने की मांग अब जोर पकड़ रही है। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन से जुड़ी मुस्लिम महिला शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार, कानून एवं सेहत के मुद्दों पर जागरुकता लाने का काम कर रही हैं। उत्तर प्रदेश के कई शहरों में भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन व परचम संस्था संयुक्त रूप से मुस्लिम महिलाओं के बीच जाकर उन्हें सशक्त करने की नई राह दिखा रही हैं। देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति हमेशा से बहस में रही है। मुस्लिम पारिवारिक कानून में सुधार का समय आ गया है। इस्लाम धर्म में मुसलमानों को हालात के आधार पर चार बीवी रखने की छूट है। धर्म की आड़ में हालात कुछ लोग खुद ही गढ़ लेते हैं और इस्लाम में बताई गई परिस्थितियों को नजरंदाज कर देते हैं। मनमुताबिक व्याख्या करते हैं। सूबे या मुल्क के सियासी दल भले ही पार्टी की सियासत में चुप्पी साधे हों। लेकिन हालात ज्यादा बिगड़ते नजर आ रहे हैं।
सियासी दल अल्पसंख्यक के रूप में मुस्लिमों को आरक्षण देने की वकालत तो करते हैं लेकिन महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचार पर चुप्पी साध लेते हैं। सूरते हाल यह है कि पारिवारिक परामर्श केंद्र में पारिवारिक बिखराव के जितने भी मामले आते हैं वह ज्यादातर मुस्लिम परिवारों के ही होते हैं। 21वीं सदी में बिना किसी सुधार के डेढ़ हजार साल के कानून में सुधार जरूरी है।
`नागरिकों की गर्दन पर एक नई तलवार' के शीर्षक से कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिन्द' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि 20 मार्च को राज्यसभा में आतंकवाद विरोधी राष्ट्रीय सेंटर (एनसीटीसी) को मंजूरी दे दी गई जबकि राज्यसभा के 245 सांसदों में यूपीए के केवल 97 सांसद हैं। लेकिन इसके बावजूद सरकार एनसीटीसी पर भाजपा और सीपीआईएम की ओर से संशोधन के प्रस्ताव को 82 के मुकाबले 105 वोटों से पराजित कर दिया। यह कानून वास्तव में आतंकवाद को खत्म करने के लिए बनाया गया है। लेकिन यह पिछले सभी आतंक रोधी कानून से भी ज्यादा सख्त है और शायद यही कारण है कि भाजपा और सीपीएम सहित कई पार्टियों और कम से कम सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने इसका विरोध किया। खुद ममता बनर्जी ने इसे पूर्व का टाडा और पोटा के मुकाबले कई ज्यादा खतरनाक बताया जो भारतीय संविधान के संघीय ढांचे से मेल नहीं खाता है। एनसीटीसी की कानूनी पेचीदगियों पर बहस से बचते हुए यह विचार करना है कि इस कानून की जरूरत क्यों पेश आई जबकि 2008 में मुंबई में ताज होटल वाली आतंकी घटना के बाद देश में कोई बड़ी आतंकी घटना नहीं हुई। एनसीटीसी वास्तव में आतंक रोधी अमेरिकी संगठन है जिसका मुख्यालय वर्जीनिया में है। अमेरिका इस एजेंसी के तहत राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवादियों के विरुद्ध कार्यवाही करता है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान समेत एक दर्जन से अधिक मुस्लिम देश और कई दर्जन गैर मुस्लिम देशों में एजेंसी के कार्यकर्ता किसी भी व्यक्ति को उठा लेते हैं और आतंकवादी करार देकर जेलों में बन्द कर देते हैं। यह कानून अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश ने 2003 में मंजूर कराया था। भारत ने भी एक ऐसा ही कानून बनाया जो अमेरिकी के एनसीटीसी की पूरी नकल है। पोटा और टाडा के तहत गिरफ्तार होने वालों में भारी संख्या मुसलमानों की थी तो आश्चर्य नहीं कि एनसीटीसी भी किसी तज्जमुल हुसैन के लिए बनाया गया है।
`एनसीटीसी पर सियासी पार्टियों की दोहरी भूमिका' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि एनसीटीसी पर केवल तृणमूल कांग्रेस की दोहरी भूमिका ही नहीं बल्कि आरजेडी, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की भी है। इनमें उपरोक्त दोनों पार्टियों ने वोटिंग के समय वाकआउट किया और परमाणु संधि की तरह एक बार फिर समाजवादी पार्टी ने सरकार के दृष्टिकोण का समर्थन किया और बाद में बयान दिया कि उनकी पार्टी यूपीए सरकार का बाहर से समर्थन करती है नाकि कांग्रेस पार्टी का। सवाल यह है कि परमाणु संधि अथवा एनसीटीसी आदि यूपीए का एजेंडा है या कांग्रेस का। यदि यूपीए का एजेंडा होता तो यूपीए में शामिल पार्टियां उसका विरोध नहीं करती। आखिर यह कैसा विरोध है कि संसद से बाहर तो खूब शोर मचाया जाए लेकिन जब परीक्षा की घड़ी आए तो सरकार के समर्थन में आ जाएं या खुद ही अपनी आवाज को कमजोर करने वाला कदम उठाया जाए। देश के संजीदा लोगों विशेषकर मुसलमानों को आगे आकर इसका विरोध करना चाहिए और दोहरी नीति रखने वाली पार्टियों को कठघरे में खड़ा करना चाहिए।
`फौज में भ्रष्टाचार' के विषय पर दैनिक `जदीद मेल' ने लिखे अपने सम्पादकीय में लिखा है कि एक तरफ अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम में सांसद के अपमान के दोषी ठहराए जा रहे हैं तो दूसरी ओर फौज का चीफ भ्रष्टाचार का एक ऐसा खुलासा कर रहा है जो अंजाम को नहीं पहुंच पाया। लेकिन इससे यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई कि फौज में भी हर स्तर पर भ्रष्टाचार बुरी तरह फैला हुआ है और इसमें यदि कुछ लोग सच्चे और ईमानदार हैं तो उन्हें भी इस दलदल में घसीटने की नापाक कोशिश यह कर की जा रही है कि `सब ही लेते हैं, आ भी ले लें क्या दिक्कत है, नहीं लेने से यह गोरखधंधा बन्द नहीं हो जाएगा।' देश की सुरक्षा निश्चित रूप से फौज के हाथों में होती है इसीलिए देश के बजट में एक बड़ी राशि सुरक्षा पर खर्च की जाती है।
जाहिर है कि देश की सुरक्षा पर जो भी राशि खर्च की जाती है वह अन्य विभागों के जरूरी बजट में कटौती करके ही की जाती है। फौज के बहुत से ईमानदार अधिकारी आज भी मौजूद हैं जो बहुत कुछ चाहते हुए भी कुछ करने में असमर्थ हैं। शायद जनरल वीके सिंह भी उनमें एक हैं जो आगामी कुछ दिन में नौकरी से सेवानिवृत्ति होने वाले हैं। उन्होंने दावा किया है कि फौज के लिए खरीदी जाने वाली बड़ी गाड़ियों की खेप की मंजूरी के लिए उन्हें 14 करोड़ रुपये घूस की पेशकश यह कहते हुए की गई कि `सब लेते हैं।' वह यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गए और हड़बड़ाहट में यह समझ ही नहीं पाए कि वह क्या करें। उनके अनुसार यह पेशकश करने वाला कोई बाहरी व्यक्ति न होकर बीते दिनों सेवानिवृत्ति होने वाला एक फौजी जनरल ही था। उन्होंने यह बात रक्षामंत्री को बता दी थी लेकिन रक्षामंत्री ने इसे क्यों दबाकर रखा।

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