Monday, February 28, 2011

राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम का ब्यौरा देते उर्दू अखबार

बीते दिनों अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की बैठक का स्थगन होना, मिस्री क्रांति की आंच अरब देशों तक और भारत-पाक वार्ता सहित राष्ट्रीय स्तर पर आरुषि हत्याकांड, कश्मीर मामला, सुप्रीम कोर्ट द्वारा समान नागरिक कानून न बनाने पर केंद्र को फटकार जैसे अनेक मुद्दे समाचार पत्रों में छाए रहे। पेश हैं इस बाबत उर्दू के कुछ अखबारों की राय।

दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `त्रिकोणीय बातचीत के स्थगन' को चर्चा का विषय बनाते हुए लिखा है। अमेरिका, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की इस महीने प्रस्तावित त्रिकोणीय बैठक का स्थगन इस बात का संकेत है कि अमेरिका ने रेमंड डेविस को हत्या के आरोप में पाकिस्तान में गिरफ्तारी के बाद उसकी रिहाई के लिए पाकिस्तान पर दबाव बढ़ा दिया है। वैसे अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बैठक के स्थगन का कारण पाकिस्तान में हुई राजनैतिक उठापठक को बताया है। अमेरिका की इस बात पर विश्वास करना मुश्किल है क्योंकि इन परिवर्तन के कारण ही विदेश मंत्री की कुर्सी गंवाने वाले शाह महमूद कुरैशी पहले ही कह चुके हैं कि उन्हें रेमंड को रिहा न करने की कीमत अदा करनी पड़ रही है। अमेरिका के लिए किसी देश से 60 वर्ष की दोस्ती के मुकाबले अपने नागरिक के हित ज्यादा अहम हैं। चाहे वह नागरिक किसी देश के कानून की नजर में अपराधी ही क्यों न हो। अमेरिकी नीति को जानने वाले यह बात अच्छी तरह समझ सकते हैं कि अमेरिका के लिए सभी अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों एवं मर्यादा से ज्यादा अहम इसके अपने हित हैं। अपने एक अधिकारी की गिरफ्तारी पर अमेरिका किस हद तक जा सकता है इसका दूसरा सबूत त्रिकोणीय बातचीत का स्थगन है।

`भारत-पाक बातचीत शांति के लिए' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने लिखा है। यह अत्याधिक सुखद समाचार है कि भारत-पाकिस्तान के विदेश सचिव आपसी बातचीत द्वारा पेचीदा समस्याओं को अब दोबारा से हल करेंगे। वास्तव में यह सकारात्मक प्रक्रिया काफी लम्बे समय से चल रही थी लेकिन मुंबई में 26/11 को पाकिस्तान के आतंकवादियों ने जब विभिन्न स्थानों पर हमला किया जिसमें बहुत से भारतीय नागरिकों सहित विदेशी नागरिक भी मारे गए थे। उसको लेकर राष्ट्र में एक तीखी प्रक्रिया थी जिसके चलते भारत ने पाकिस्तान से जारी बातचीत को बन्द कर दिया था। लेकिन अब दोनों देशों ने बातचीत शुरू करने की इच्छा व्यक्त की है। इसलिए आशा की जा सकती है कि आने वाले दिनों में दोनों देशों के बीच कड़वाहट खत्म होना शुरू हो जाएगी। दोनों देशों के शासकों को इस दिशा में कदम उठाने के लिए सबसे पहले वीजा को आसान कर देना चाहिए। जब इस तरह एक-दूसरे से सम्पर्प बढ़ेगा तो उनमें परस्पर लगाव पैदा होगा और इसके बाद जब कभी किसी के साथ आतंकवाद की घटना होगी तो दोनों देश की जनता इसके खिलाफ उठ खड़ी होगी। पाकिस्तान जो आज कल अराजकता और आतंकवाद में उलझा हुआ है ऐसे नाजुक समय में हमें पाकिस्तान को आतंकवाद से लड़ने में मदद देने की जरूरत है ताकि वहां शांति का वातावरण बन सके। इस बातचीत के शुरू हेन से आशा है कि सियाचीन, कश्मीर और आतंकवाद जैसी समस्या हल होगी और यह दोनों देशों की जनता के लिए शांति का पैगाम होगा। हमारे विचार से भारत-पाक बातचीत अब केवल बातचीत न हो बल्कि शांति के लिए हो।

`मिस्री दुनिया से पूरे अरब जगत को सबक लेना चाहिए' के शीर्षक सै दैनिक `अखबारे मशरिक' ने लिखा है। जिस समय मिस्र में मुबारक के खिलाफ विद्रोह आंदोलन अपनी चरम सीमा पर था उसकी छाया शाम, लेबनान, सऊदी अरब, यमन और खाड़ी देशों पर पड़ रही थी। इस महीने के शुरू में शाम में भी विद्रोह की लहर शुरू हुई थी जिसे तत्काल दबा दिया गया। सऊदी अरब में विपक्ष शाह अब्दुल्लाह से एक राजनैतिक पार्टी बनाने की मांग कर रहा है जबकि उरदन में विरोध प्रदर्शन के बाद प्रधानमंत्री मारूफ बखीत ने राजनैतिक सुधार लाने की घोषणा की है। यमन के अध्यक्ष अली अब्दुल्ला सालेह ने जनता के दबाव के आगे हथियार रखते हुए घोषणा कर दी है कि वह आगामी राष्ट्रपति चुनाव नहीं लड़ेंगे। कतर में भी मिस्री क्रांति की गूंज सुनी जा रही है। बहरीन में भी विरोध प्रदर्शन करती रैलियां हो रही हैं।

ट्यूनीशिया और मिस्र में सफल जन आंदोलन के नतीजे में अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ जो लहर चली है उसकी रोशनी में अरब देशों ने सुधार की ओर ध्यान देना शुरू कर दिया है। लेकिन यह सुधार दिखावा नहीं बल्कि वास्तविक और बुनियादी होना चाहिए। जो देश जनता की इच्छाओं का सम्मान करते हुए सुधारों को जगह देंगे वह कायम रहेंगे और जो ऐसा नहीं करेंगे उनका हश्र ट्यूनीशिया और मिस्र जैसा होगा। हालात जिस ओर इशारा कर रहे हैं उसे समझने और उसकी रोशनी में नया रास्ता अपनाने की जरूरत है।

`रबरो नजर' ने अपने स्तम्भ में `सहरोजा दावत' ने `न्यायाधीशों की चिन्ता' पर चर्चा करते हुए लिखा है। समान नागरिक कानून के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट सरकार को इस से पूर्व कम से कम दो बार लताड़ चुकी है। गैर मामूली बात 8 फरवरी के आब्जर्वेशन की यह थी कि `केंद्र को केवल हिन्दुओं के पर्सनल लॉ में तब्दीली से दिलचस्पी है, अन्य धार्मिक समुदाय के पर्सनल लॉ में कोई तब्दीली नहीं की जाती...।'

9 फरवरी 2011 के टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार न्यायाधीशों ने यह भी कहा, `पर्सनल लॉ में कानूनी हस्तक्षेप और संशोधन के मामले में हिन्दू समुदाय उदारवादी है जबकि अन्य समुदाय में यह नहीं है और यह स्थिति अल्पसंख्यकों के अन्दर सेकुलर मूल्यों की कमी का द्योतक है।' अखबार लिखता है कि मामला देश की सबसे बड़ी अदालत का है इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहिए। लेकिन पिछले कुछ समय में न्यायाधीशों के संबंध कुछ खबरें ऐसी आई हैं जो मीडिया और कानून के क्षेत्र में चर्चा का विषय बनीं।

माननीय न्यायाधीश इनता तो जरूर जानते होंगे, भले ही इससे सहमत न हों कि समान नागरिक कानून एक राजनैतिक नारा है और हिन्दुत्व राजनीति का भारी स्रोत, अन्यथा इसकी कोई वास्तविकता नहीं है। इसका ब्लूप्रिंट आज तक पेश नहीं किया। यदि हिन्दू समुदाय अपने पारिवारिक कानूनों के लिए उदारवादी हुए हैं तो यह उसकी कमजोरी है, दूसरे धर्म इसके लिए जिम्मेदार नहीं।

`चुनावी सुधार की कोशिश' पर चर्चा करते हुए दैनिक `सियासत' ने लिखा है। मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी की यह चिन्ता विचारणीय है कि सभी राजनैतिक पार्टियां राजनीति में अपराधीकरण के खिलाफ हैं। यह जानकर भी दुख होता है कि देश की 99 फीसदी राजनैतकि पार्टियां चुनाव सुधारों के खिलाफ हैं।

इस संदर्भ में चुनाव आयुक्त ने चुनाव को निष्पक्ष बनाने के लिए चुनाव सुधारों का बेड़ा उठाया है उससे यह पता चलाना जरूरी है कि चुनाव के लिए धन, बल और माफिया को कैसे खत्म किया जाए। अतीत में भी एक से अधिक बार दिशानिर्देश बनाए गए या उन पर विचार किया गया कि राजनीति में अपराधीकरण को कैसे रोका जाए और अपराधी व्यक्तियों को चुनाव में भाग लेने की इजाजत न दी जाए लेकिन सच्चाई यही है कि हजार प्रयासों के बावजूद चुनाव को अपराधीकरण से पाक करने में सफलता नहीं मिली है। अब कानून मंत्रालय के चुनाव सुधार की कोशिश इस माहौल में किस हद तक कामयाब होगी, यह तो समय ही बताएगा।

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