`हिन्दुत्वा सिपाही-गोगोई' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई द्वारा `कम शिक्षित मुस्लिम घरों में ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं' के बयान पर चर्चा करते हुए लिखा है कि असमी मुसलमानों के संबंध में गोगोई का यह बयान न केवल अफसोसजनक है बल्कि यह एक खतरनाक बयान है। संघ परिवार 1960 और 1970 के दशक से न केवल असम बल्कि पूरे देश के मुसलमानों के संबंध में यह प्रचार करा रहा है कि मुसलमानों के यहां ज्यादा बच्चे पैदा होते हैं। इस तरह के गलत बयान का मकसद हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति भय पैदा करना है। यदि किसी प्रकार की धारणा किसी एक समुदाय के बारे में दूसरे समुदाय के मन में बैठ जाए तो जब अल्पसंख्यकों पर हमले होते हैं और उनके लोग मारे जाते हैं तो बहुसंख्यक के लोग मानसिक रूप से संतोष और खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। सिर्प इतना ही नहीं बल्कि अल्पसंख्यकों को मारने वालों को खुद अपना संरक्षक समझते हैं। गोधरा 2002 में साबरमती एक्सप्रेस में कारसेवकों के मारे जाने के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के मुसलमानों के खिलाफ यही रणनीति अपनाई थी जिससे वह गुजराती हिन्दुओं के न केवल हीरो बन गए थे बल्कि वह उनके अंगरक्षक भी कहे जाने लगे थे। गोगोई का मुसलमानों के खिलाफ गलत बयान देने का सियासी मकसद है इसके द्वारा वह आगामी चुनाव में मोदी की तरह हिन्दुत्व के हीरो बनकर उभरना चाहते हैं। उन्हें यह मालूम है कि उन्हें मुस्लिम वोट नहीं मिलने वाला है तो फिर क्यों न हिन्दू वोट बैंक को पूरी तरह अपने हक में कर लिया जाए। नरसिम्हा राव के बाद गोगोई दूसरे कांग्रेसी नेता हैं जो कांग्रेस के सेकुलर विचारों के बजाय खुलकर हिन्दत्ववादी विचारों की ओर झुके हैं। यह बात कांग्रेस और देश दोनों के लिए खतरनाक है।
दैनिक `जदीद खबर' ने `मुस्लिम आबादी का भय' के शीर्षक से लिखा है कि मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने अपने साक्षात्कार में इस धारणा को बेबुनियाद करार दिया है कि मुसलमान हमेशा कांग्रेस को वोट देते हैं। उन्होंने कहा कि मुसलमानों ने कभी भी 50 फीसदी से ज्यादा वोट कांग्रेस को नहीं दिया। उन्होंने इस बाबत मुस्लिम आबादी वाले 126 विधानसभा क्षेत्रों की समीक्षा भी पेश की। असम एक ऐसा राज्य है जो शुरू से ही मुस्लिम बहुल रहा है। यहां के मुसलमान गरीब और परेशानी की जिंदगी गुजारते रहे हैं। उस पर से उन पर बंगलादेशी होने का आरोप लगाकर उनकी हत्या की जाती है। असम में बोडो बहुल क्षेत्रों में मुसलमानों के खिलाफ वर्तमान हिंसा उन्हें मजबूर करना है ताकि वह इन आबादियों को खाली करके कहीं और जा बसें। यही कारण है कि बड़े पैमाने पर उनके मकान जलाए गए, उनकी जमीनों पर कब्जा कर लिया गया और उन्हें कारोबार से वंचित कर दिया गया। ऐसे में राज्य के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई इनके जख्मों पर मरहम रखने के बजाय नमक छिड़कने का काम कर रहे हैं। मुसलमानों की आबादी को चिन्हित करके इसमें वृद्धि का प्रचार और इसके लिए अशिक्षा को जिम्मेदार बताना, वास्तव में एक सांप्रदायिक सोच है जिसका इजहार मुख्यमंत्री ने खुलकर किया है।
`महाराष्ट्र नव निर्माण सेना के अध्यक्ष राज ठाकरे का बिहारियों के खिलाफ ऐलान जंग, केंद्र एवं राज्य सरकार मौन क्यों?' के शीर्षक से साप्ताहिक `अल जमीअत' में सम्पादक मोहम्मद सालिम जामई ने अपने विशेष लेख में चर्चा करते हुए लिखा है कि राज ठाकरे के हौसले इतने बढ़ चुके हैं कि वह अब खुद को कानून से भी ऊपर की कोई चीज समझने लगा है, इसके बावजूद भी यदि हमारी केंद्र एवं राज्य सरकारें मौन हैं तो हम इसे देश व कौम के दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कह सकते हैं। राज ठाकरे की इस घृणित राजनीति को हवा देने वाले नेताओं को भी यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि संघी ढांचे में क्षेत्र का मसला अत्यंत खतरनाक साबित हुआ करता है। ऐसी सूरत में एक गुंडे और सिरफिरे व्यक्ति का संरक्षण खुद उनके लिए भी खतरनाक साबित होगा। यह मसला सिर्प महाराष्ट्र का नहीं है बल्कि पूरे देश का मसला बन चुका है। इसलिए केंद्र सरकार को भी इस पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।
`जुर्म एक तो सजा अलग क्यों' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने 1 सितम्बर 12 के एशियन ऐज में `द लिटिल मैग्जीन' के सम्पादक अतरादेव सेन द्वारा 29 अगस्त के सुप्रीम कोर्ट और अहमदाबाद की विशेष अदालत दोनों के फैसलों की समीक्षा के हवाले से लिखा है कि दोनों ही घटनाओं अर्थात् गुजरात के नरोदा पाटिया की सांप्रदायिक हिंसा और अजमल कसाब के आतंक ने पूरे देश को हिला दिया था, जिसका फैसले में भी जिक्र किया गया है लेकिन माननीय न्यायाधीशों ने नरोदा पाटिया की हिंसा के लिए 32 व्यक्तियों को आरोपी मानने के बावजूद केवल उम्रकैद की सजा सुनाई। इस हिंसा में 97 मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इसके बावजूद मुसलमानों की हत्या करने वाले किसी अपराधी को मौत की सजा नहीं सुनाई गई। दूसरी तरफ गुजरात के ही गोधरा ट्रेन में आग लगने के आरोप में 11 मुसलमानों को यह सजा सुनाई जा चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात दंगों के अहम मुकदमों की जांच के लिए विशेष टीम गठित करते हुए यह टिप्पणी की थी कि दंगा आतंकवाद से ज्यादा खतरनाक है। फिर आतंकी और दंगा के मुकदमों में सजाओं का स्तर अलग क्यों है?
`और अब दिल्लीवासियों को बिजली का झटका' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि राजधानी वासी बिजली के बिलों से परेशान हैं, उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि यह हो क्या रहा है? हर कोई बिजली की खपत कम करने की कोशिश कर रहा है। बावजूद इसके बिजली का करंट बढ़ता जा रहा है। बिजली कम्पनियों के `पॉवर गेम' की वजह से उपभोक्ता को कम बिजली खर्च करने पर भी ज्यादा बिल अदा करना पड़ रहा है। बिजली टैरिफ के मुताबिक अगर एक महीने में 200 यूनिट से कम बिजली खर्च करेंगे तो प्रति यूनिट 3.70 रुपए देने होंगे और इसमें सरकार एक रुपए की सब्सिडी भी देती है। लेकिन अगर खर्च 200 यूनिट से ज्यादा और 400 यूनिट से कम है तो प्रति यूनिट 4.80 रुपए और इससे ज्यादा बिजली खर्च करने पर 6.40 रुपए देने होंगे। बिल दो महीने का एक साथ आता है।
अगर एक महीने में 195 यूनिट खर्च है और दूसरे महीने में 290 यूनिट है तब भी आपको 4.80 रुपए चुकाने पड़ेंगे। आरडब्ल्यूए के अनुसार बिजली कम्पनियां 10-15 करोड़ रुपए एक्स्ट्रा ले रही हैं। यह रिटेल लूट कर होलसेल फायदा जैसा है।
No comments:
Post a Comment