Monday, September 17, 2012

`किराए की कोख भलाई का माध्यम या कारोबार का साधन'


भारत में किराए की बढ़ती कोख के चलन पर चर्चा करते हुए भारतीय दर्शन के विशेषज्ञ एवं इस्लामी विद्वान मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी ने दैनिक `अखबारे मशरिक' में लिखा है कि भारत में 2007 में शुरू की गई यह मुहिम जो कई स्तरों पर शुरू की गई थी, ने कारोबारी रूप धारण कर लिया है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में यह कारोबार वार्षिक 45 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है और स्वास्थ्य मंत्रालय भी इस धंधे में शामिल हो गया है। गत दिनों कारोबारी मानसिकता वाला नं. एक राज्य गुजरात के आनंद से इस तरह की खबरें आई थीं कि एक हवेलीनुमा मकान में औरतों को जमा करके उन्हें ठेकेदारों ने औने-पौने दाम देकर किराए की कोख देने के लिए राजी कर लिया था। यह कोई तरस खाकर मानवता के लिए औलाद देने का मामला नहीं है बल्कि यह धंधे की शक्ल अख्तियार करता जा रहा है। धार्मिक पहलू से तो यह सवाल अहम ही है कि किराए की कोख से पौदा होने वाला बच्चा वास्तव में किसका है, विरासत, जायदाद में हिस्से को लेकर सवाल उठना बिल्कुल स्वाभाविक है लेकिन भारत के पास सूचना है कि बंगलादेश, पाकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल देशों में भी यह धंधा खूब फल-फूल रहा है। दलाल, ठेकेदार और डाक्टरों की मिलीभगत से यह कारोबार इतना जोर पकड़ चुका है कि एक रिपोर्ट के मुताबिक अकेले भारत में किराए की कोख द्वारा 25 हजार बच्चे पैदा किए जा रहे हैं।
इस कारोबार में डाक्टरों और ठेकेदारों को भारी रकम मिलती है जिससे दोनों पर कारोबारी मानसिकता पूरी तरह हावी हो गई है। औरत की बच्चादानी गोदाम का रूप लेती जा रही है, क्या औरत को सशक्तिकरण बनाने का मतलब इतना भोंडा हो सकता है, साथ ही इस पेशे और कारोबार से जुड़े डाक्टरों की समाज में क्या छवि बन रही है। साइंसी उन्नति और आविष्कार का इससे ज्यादा गलत इस्तेमाल और क्या हो सकता है।
`पूरी दुनिया में मुसलमान परेशान' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि एक तरफ फलस्तीन में मुसलमानों का खून इस्राइल बहा रहा है। अमेरिका के डर की वजह से दुनिया के सभी देश ईमानदारी से दामन बचा रहे हैं और फलस्तीन के मामले पर खामोश हैं। हमारे देश भारत में भी मुसलमानों को नई-नई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। म्यांमार का एक आतंकवादी संगठन जिस पर संयुक्त राष्ट्र ने प्रतिबंध लगा रखा है वहां दंगों की जिम्मेवार है और मुसलमानों का कत्ल कर रही है। अब तक ढाई हजार मुसलमानों के मारे जाने की सरकारी खबर है जबकि गैर-सरकारी सूचना के अनुसार यह संख्या कई गुना ज्यादा है। तथाकथित तौर पर ज्ञात हुआ है कि इस प्रतिबंधित संगठन को वहां की सरकार का समर्थन प्राप्त है। लेकिन अफसोस है कि संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका जैसे देशों की नजर मुसलमानों की हत्या पर क्यों नहीं जाती, जबकि यदि एक इस्राइली कहीं मारा जाए तो अमेरिका चीख उठता है। क्या अमेरिका और इस्राइल के इंसान ही इंसान हैं बाकी दुनिया में इंसान नहीं हैं या दुनिया में मुसलमान इंसान नहीं हैं। आंकड़ों के अनुसार म्यांमार में अब तक 12000 मुसलमानों को बर्मा फौज मार चुकी है। कुछ बस्तियां तो ऐसी हैं जहां मुसलमानों का नाम व निशान तक मिटा दिया गया है।
मुंबई के आजाद मैदान में मुसलमानों द्वारा असम दंगों को मीडिया में नहीं दिखाए जाने पर विरोध प्रदर्शन के समय हुई घटना पर `मीडिया और मुसलमान' के शीर्षक से दैनिक`जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में  लिखा है कि असम में योजनाबद्ध तरीके से मुसलमानों का नरसंहार किया गया।  हजारों मुसलमान बेघर हो गए, उनके घरों को जला दिया गया। दर्जनों मारे गए लेकिन राष्ट्रीय स्तर के मीडिया की ओर से इन घटनाओं की रिपोर्टिंग जरूरी नहीं समझी गई। इससे मुसलमानों में बेचैनी पैदा हुई। मुंबई का विरोध प्रदर्शन अचानक हिंसक हो गया। पुलिस को फायरिंग करनी पड़ी, दो व्यक्ति मारे गए और 50 से अधिक जख्मी हुए। पुलिस और प्रचार-प्रसार की कुछ गाड़ियों को भी भीड़ ने जला दिया। यह असम घटनाओं पर नाराजगी थी। मीडिया में इस विरोध प्रदर्शन की जिस तरह रिपोर्टिंग की गई है वह सही नहीं है। कुछ अखबारों और टीवी चैनल ने इसे बढ़ाचढ़ा कर पेश करने की कोशिश की और कहा गया कि मुस्लिम युवक रोष की हालत में तेज धार हथियार लेकर सड़कों पर उतर आए थे। यह बिल्कुल गलत है।
कहीं भी मुसलमानों ने हथियार के साथ विरोध प्रदर्शन नहीं किया। मुसलमान शांति के साथ असम के मुसलमानों से हमदर्दी और प्रशासन व पुलिस की बेरुखी के लिए विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। मुंबई में हिंसा फूट पड़ी। यह निंदनीय है और इसे किसी सूरत में स्वीकार नहीं किया जा सकता। मीडिया को अपनी जिम्मेदारी का एहसास करते हुए भेदभाव और संकीर्ण सोच वाले रुझान को खत्म करना होगा, यह मीडिया की जिम्मेदारी है।
`मोदी की दाढ़ी में तिनका, सांप्रदायिक तत्वों' के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाओ' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दुनिया' ने अहमदाबाद के अपने नुमाइंदे की रिपोर्ट के हवाले से लिखा है कि नरेन्द्र मोदी ने अपने सुझाव में कहा है कि जो सांप्रदायिक दंगों में  लिप्त रहने का आदी होगा, उसको चुनाव में हिस्सा नहीं लेने देना चाहिए और इस बाबत यह भी स्पष्टीकरण दिया गया है कि इसका संबंध फंडामेंटलिस्ट पालिटिक्स और मिलीटेंट फंडामेंटलिज्म से संबंध रहा हो, लेकिन इसमें यह स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है कि सांप्रदायिक हिंसा के दोषी वह किसको करार देते हैं। क्या एक ऐसा व्यक्ति, जिसके सांप्रदायिक दंगों में लिप्त होने का आरोप साबित हो गया है या फिर वह व्यक्ति जिसके खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई गई है।
`भागवत के नीतीश प्रेम के पीछे क्या रणनीति है' के शीर्षक से दैनिक `वीर अर्जुन' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में प्रस्तावित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवारों को लेकर घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा है। मोदी बनाम नीतीश की लड़ाई खुलकर सामने आ चुकी है। इन सबके बीच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने सुशासन में बिहार को गुजरात से बेहतर बताकर एक नया विवाद पैदा कर दिया। यह संभव है कि मोहन भागवत ने ऐसा बयान नीतीश कुमार को शांत करने के लिए दिया हो। मोहन भागवत ने बिहार में संघ प्रचारक के पद पर  लगभग 10 साल तक काम किया है। वह नहीं चाहते कि अब लोकसभा चुनावों को दो साल से कम का समय रह गया है भाजपा और राजग के दूसरे सबसे बड़े घटक दल जनता दल (यू) में दरार बढ़े। इससे कांग्रेस को लाभ होगा। भागवत के बयान को इसलिए नीतीश को मनाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।

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