Monday, September 24, 2012

`बटला हाउस मुठभेड़ के बहाने स्थानीय नेताओं की सियासत'


बटला हाउस मुठभेड़ के चार वर्ष होने पर लगभग सभी उर्दू अखबारों ने विशेष रिपोर्ट और लेख प्रकाशित किए हैं। बीते सप्ताह बाजार में आया उर्दू दैनिक `सियासी तकदीर' में निसार अहमद खां और अली शहजाद ने `बटला हाउस मुठभेड़ के बहाने स्थानीय नेताओं की सियासत' के शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि देश की राजनीति को हिला देने वाली तथाकथित फर्जी मुठभेड़ की चौथी बरसी पर ओखला के स्थानीय नेता आज होने वाली गतिविधियों से गायब रहे लेकिन मुठभेड़ पर आरोप और बयानबाजी द्वारा सियासत तेज करने में पीछे नहीं रहे। एक ओर ओखला के विधायक आसिफ मोहम्मद खां ने सरकार से मांग की है कि सच को सामने लाने के लिए इस तथाकथित मुठभेड़ की जांच कराई जाए।
वहीं दूसरी ओर विपक्ष के सभी नेताओं ने उनकी आवाज में आवाज मिलाई और साथ ही आसिफ मोहम्मद खां को यह कहते हुए निशाना बनाया कि बटला हाउस मुठभेड़ द्वारा कामयाब होने वाले विधायक ने अपनी `तहरीके इंसाफ' को भुला दिया है। लोक जन शक्ति पार्टी नेता अमानत उल्लाह खां ने कहा कि इस मुठभेड़ की जांच नहीं कराने के लिए सरकार और शीला दीक्षित जिम्मेदार हैं क्योंकि दोनों ने इस मामले की जांच में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई बल्कि यह कह दिया कि इससे पुलिस का `मनोबल' गिरेगा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट से साफ स्पष्ट है कि मोहम्मद आतिक की पीठ में गोलियां लगी हैं इसलिए यह इनकाउंटर नहीं है बल्कि उसे मारा गया है। इसलिए इस मामले की न्यायिक जांच की मांग हम पहले से करते रहे हैं और आज भी यही मांग कर रहे हैं।
`मुस्लिम युवाओं के सिर पर एक बार फिर खुफिया एजेंसियों की तलवार' के शीर्षक से साप्ताहिक `नई दिल्ली' ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जामिया टीचर्स सालिडिटरी एसोसिएशन ने 20 पेज पर आधारित एक गहन जांच रिपोर्ट जारी की है, जिसमें सबूत के आधार पर यह बताया गया है कि दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने सिर्प जामिया इलाके से जिन 14 युवाओं को गिरफ्तार किया था और उन्हें अलबदर, हूजी और लश्कर तैयबा के सक्रिय कार्यकर्ता करार देकर बहुत से आरोपों के फंदे से बांधा था।
 वह सब बेगुनाह करार दिए गए और अदालत ने पुलिस के आरोपों को फर्जी करार देकर उनको बाइज्जत बरी कर दिया। असल योजना कुछ मुस्लिम युवाओं को फांसी पर लटकाने या उम्र कैद की सजा दिलवाने का नहीं है बल्कि उन्हें देश में संदिग्ध करार देने और उनको अलग-थलग करके हाशिए पर पहुंचाने की है और इसमें नीतिकारों को सफलता मिल रही है। मुस्लिम नेतृत्व तो अब प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और कुछ अन्य उच्च पदाधिकारियों के आश्वासनों पर भरोसा करने की आदत से ऊपर नहीं उठ सका है।
केंद्र सरकार द्वारा एफडीआई की इजाजत देने और गैस सिलेंडर पर से सब्सिडी घटाने को लेकर राजनीतिक हलचल पर चर्चा करते हुए दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने `मुलायम, ममता का ड्रामा, यह बादल गरजते हैं, बरसते नहीं' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव, मायावती और करुणानिधि सभी एक साथ झटके में समर्थन वापस ले लें तो ही सरकार को सही मायनों में खतरा हो सकता है। लेकिन तब भी सरकार के तुरन्त ही गिर जाने के आसार नहीं हैं। कटु सत्य तो यह है कि न तो ममता समर्थन वापस लेने वाली हैं और न ही सपा। हां, एनडीए यह उम्मीद जरूर पाले है कि सरकार गिर सकती है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव हमेशा कहते कुछ हैं, करते कुछ और हैं। याद है कि एटमी डील और राष्ट्रपति चुनाव का किस्सा। दोनों बार पहले धमकी दी और  बाद में यूपीए के साथ खड़े नजर आए। लोकपाल पर भी सरकार को संकट से निकाल ले गए थे। दरअसल खेल तो 2014 की कुर्सी का है। मुलायम सरकार गिराने के बजाय 2014 का इंतजार करना चाहेंगे। इस बीच यूपी और थर्ड फ्रंट के बीच अपनी ताकत बढ़ाते रहेंगे। तब तक मनमोहन सरकार से पैसों की सौदेबाजी करके ज्यादा से ज्यादा पैसे लेते रहेंगे। यही उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के दौरान किया था। पहले धमकी देना फिर नाराज हो जाना ममता बनर्जी की पुरानी आदत है। ममता किसी भी कीमत पर लेफ्ट के साथ खड़ी नहीं हो सकतीं और भाजपा वाले एनडीए में जाकर मुस्लिम वोट बैंक को खोना नहीं चाहते।
`चुनाव अमेरिका का और चुनावी मुहिम इजरायल के नाम पर' शीर्षक से `सहरोजा दावत' ने लिखा है कि अमेरिका एक ऐसा देश है जहां के राष्ट्रपति चुनाव में आंतरिक मामलों से ज्यादा विदेशी संबंधों और नीति को महत्व दी जाती है। निशाने पर सिर्प और सिर्प इस्लाम, मुसलमान और मुस्लिम देश होते हैं। गत बार आतंकवाद के नाम पर इस्लाम और मुस्लिम देशों के विरोध को बहस के एजेंडे में ऊपर रखा गया था। इस बार इजरायल के वजूद और ईरान की तबाही को चर्चा का विषय बनाया गया है। अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि सरकार किसी भी पार्टी की हो, इजरायल की नाराजगी का खतरा मोल नहीं ले सकती। यही कारण है कि जब-जब फलस्तीनियों ने अपनी आजादी और सदस्यता के लिए संयुक्त राष्ट्र का दरवाजा खटखटाया तो वह उसके विरोध में आगे-आगे रहा। इसी तरह वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम के खिलाफ तो जंग की बात करता है लेकिन इजरायल के परमाणु कार्यक्रमों पर मौन धारण किए हुए है। अंतर्राष्ट्रीय परमाणु एजेंसी के पूर्व चीफ अलबरादी ने इस मामले को उठाया तो इस जुर्म में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। इजरायल के मामले को राष्ट्रपति चुनाव में कुछ ज्यादा ही उभारा जा रहा है। शासक वर्ग डेमोकेटिक और विपक्ष रिपब्लिकन पार्टी दोनों ही यहूदी लॉबी को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं जिससे पूरी तरह माहौल मुस्लिम विरोधी बन गया है।
`एफडीआई पर सरकार की मजबूती' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यह बात याद रखने की है कि एफडीआई को मंजूरी देने की वकालत जसवंत सिंह ने की थी, जब वह एनडीए में वित्त मंत्री थे। भाजपा ने कभी एफडीआई का विरोध नहीं किया। इस बार एफडीआई और डीजल के भाव ममता बनर्जी और भाजपा के विरोध का कारण बन गए हैं। जहां तक डीजल का मामला है यह जान लेना चाहिए कि डीजल की कीमत इतनी ज्यादा होने का कारण यह है कि डीजल और पेट्रोल पर इतने अधिक राज्य टैक्स लगा दिए जाते हैं कि कीमत अपने आप ज्यादा हो जाती है। कोई राज्य इन टैक्सों को कम करना नहीं चाहता। इसके विपरीत जब भी डीजल अथवा पेट्रोल की कीमत बढ़ती है राज्य टैक्स का अनुपात भी इस लिहाज से बढ़ जाता है और इससे अधिक आमदनी होती है। जिस दिन डीजल मूल्य में वृद्धि हुई उसी दिन गोवा सरकार ने डीजल पर दो फीसदी वैट में वृद्धि कर दी। गोवा में भाजपा की सरकार है और भाजपा ही डीजल में वृद्धि पर सबसे ज्यादा शोर मचा रही है। एलपीजी सिलेंडरों पर सब्सिडी दी जाती है इसका मकसद आम लोगों को राहत देना है। लेकिन सब जानते हैं कि सब्सिडी दलालों की भेंट चढ़ जाती है। इसलिए सरकार ने फैसला किया कि छह सिलेंडर सरकारी भाव से और इसके बाद बाजार भाव से मिलेंगे।

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