Tuesday, January 8, 2013

प्रधानमंत्री के आश्वासन के बाद क्या मुस्लिम युवकों की गिरफ्तारी रुकेगी?


बाबरी मस्जिद गिराए जाने के 20 वर्ष बाद लगभग सभी उर्दू अखबारों ने इस पर विशेष रिपोर्ट प्रकाशित की और सम्पादकीय लिखे। दैनिक `सहाफत' में अतहर सिद्दीकी ने अपने विशेष लेख `परदे सियासत पर अगर शहाबुद्दीन न होते तो बाबरी मस्जिद शहीद नहीं होती' में स्थिति की समीक्षा की है। साथ ही उनके द्वारा नरेन्द्र मोदी को माफी दिए जाने पर लिखा है कि किसी व्यक्ति को यह अधिकार नहीं है कि वह दंगा पीड़ितों की ओर से उस अत्याचारी व्यक्ति को माफ करे। शहाबुद्दीन साहब। खुदा के लिए ऐसा फलस्फा आप मुस्लिम कौम को न पढ़ाएं जिसमें दूसरी बार बाबरी मस्जिद को शहीद करने का संदेह मौजूद हो। इसी अखबार ने बाबरी मस्जिद मुकदमे के संदर्भ में तीन किस्तों में सूरतेहाल को स्पष्ट कर बताया है कि मुकदमों में देर भी है और अंधेर भी। सीबीआई ने 9 फरवरी 2011 को सुप्रीम कोर्ट में अपील कर मांग की है कि हाई कोर्ट के इस आदेश को निरस्त करते हुए आडवाणी सहित 21 आरोपियों के खिलाफ बाबरी मस्जिद गिराने का षड्यंत्र और अन्य धाराओं में मुकदमा चलाया जाए। अभी इस अपील पर सुनवाई होनी है। मुकदमा चलने के बाद सबूत न होने के कारण बहुत से अपराधी छूट जाएंगे, वह अलग बात है लेकिन अभी यही तय नहीं हो रहा है कि किस आरोपी के खिलाफ किस-किस सेक्शन में कहां मुकदमा चलाया जाएगा। अब हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से कौन पूछेगा कि अदालतों में यह देर अंधेर नहीं तो फिर क्या है?
दैनिक `इंकलाब' में सईद अहमद खां ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद मुंबई दंगों के पीड़ितों पर चर्चा करते हुए लिखा है कि 20 साल बाद भी इंसाफ का रास्ता देख रहे हैं। मुंबई दंगा पीड़ितों के जख्म आज भी हरे हो जाते हैं जब 6 दिसम्बर आता है। पीड़ितों को सबसे ज्यादा शिकायत पुलिस और सरकार से है। उनके अनुसार एक तरफ जहां पुलिस ने दंगों के दौरान दंगाइयों की भूमिका निभाई, वहीं सरकार ने भी इनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की है। जिसकी वजह से पीड़ितों को आज तक न्याय नहीं मिला और उन पर भय छाया हुआ है। `बाबरी मस्जिद घटना' पर इसी अखबार ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बहुत से लोग गंभीरता के साथ ही यह सुझाव देते हुए मिलते हैं कि मुसलमान बाबरी मस्जिद घटना को भूल जाएं और शिक्षा एवं रोजगार द्वारा उस सामूहिक परिवर्तन को पकड़ें जो उन्हें इस देश में ज्यादा प्रभावी बना सकता है। जहां तक इस पहले सुझाव का मामला है कि मुसलमान बाबरी मस्जिद को भूल जाएं, तो यह संभव नहीं है क्योंकि बाबरी मस्जिद देश में लोकतंत्र और भाईचारे का एक अहम प्रतीक थी। इस घटना ने मुसलमानों को ही नहीं देशवासियों को भी झिझोड़ कर रख दिया था। यह सेकुलरिज्म पर विश्वास रखने वाले, देश के हर नागरिक का मसला है। इस बुनियाद पर यह भी कहना गलत न होगा कि यदि मुसलमान उसे भूल जाएं तब भी यह घटना भूली नहीं जा सकती। दूसरा सुझाव सौ फीसदी सही है कि मुसलमान शैक्षिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन से निजात हासिल कर जिंदगी की दौड़ में न केवल आएं बल्कि खुद को भी मनवाएं।
दारुल उलूम देवबंद में भारतीय दर्शन के शिक्षक एवं जमीअत उलेमा हिन्द के प्रवक्ता मौलाना अब्दुल हमीद नोमानी ने आरएसएस के चेन्नई में हुए तीन दिवसीय सम्मेलन पर चर्चा करते हुए लिखा है कि आरएसएस के सिलसिले में यह बताने की जरूरत नहीं है कि उसकी सभी बुनियादें नकारात्मक और प्रयास का निशाना देश के एक विशेष वर्ग का उत्थान और उसे सत्तासीन बनाना है, जिसे वह हिन्दू राष्ट्र का नाम देता है। तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में आयोजित हुई इस बैठक के पहले सेशन में असम की हिंसा के शीर्षक से बंगलादेशी घुसपैठियों की चनौती को देशव्यापी स्तर पर बताने की कोशिश की गई है। इससे जाहिर है कि राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के खिलाफ बहुसंख्यक में घृणा और संदेह पैदा करने का और रास्ता खुलेगा। पुलिस प्रशासन की भी इसमें पूरी मदद मिलेगी, जैसा कि आज तक देखा गया है। घृणा, हिंसा और संदेह के माहौल में जहां संघ को बहुसंख्यक समाज के संरक्षण के तौर पर पेश करने का मौका मिल जाता है वहीं आतंक के शिकार इसे अपनी पनाहगाह समझते हुए इसके करीब आ जाते हैं और यही आरएसएस की कामयाबी है। आरएसएस के अंग्रेजी मुखपत्र`आर्गनाइजर' के सम्पादकीय, डॉ. प्रवीन तोगड़िया का स्तम्भ और राष्ट्रीय कार्यकारिणी के चेन्नई अधिवेशन की पूर्ण रिपोर्ट से संघ के इरादों का पता चलता है। इस सिलसिले में हमें नहीं मालूम कि हमारा नेतृत्व किस हद तक संघ के मामले को गंभीरता से लेते हुए आने वाले दिनों में रणनीति बनाकर ऐसा काम करेंगे जिससे मुल्क व मिल्लत दोनों को फायदा हो।
मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी को लेकर समाजवादी पार्टी नेता प्रोफेसर राम गोपाल यादव की अगुवाई में संसद में मुद्दा उठाने और इसके चलते संसद की कार्यवाही तीन बार रोकनी पड़ी, जबकि इसके एक दिन पूर्व 3 दिसम्बर को लोक जन शक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम विलास पासवान की अगुवाई में 16 सांसदों के एक प्रतिनिधि मंडल ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से मुलाकात कर उन्हें एक ज्ञापन दिया। इन सांसदों ने जांच एजेंसियों सीबीआई, पुलिस और अन्य एजेंसियों द्वारा मुस्लिम युवाओं की लगातार हो रही गिरफ्तारियों पर चिन्ता व्यक्त की। इस पर प्रधानमंत्री ने उन्हें भरोसा दिलाया कि आतंकी मामलों में पारदर्शिता और ईमानदारी से काम लिया जाएगा। दैनिक `हमारा समाज' ने `विश्वास दिलाने से कुछ नहीं होगा' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में  लिखा है कि सवाल यह पैदा होता है कि इन मुस्लिम युवाओं को कब तक इंसाफ मिलेगा और प्रधानमंत्री ने जो विश्वास दिलाया है, उस पर किस समय अमल किया जाएगा। हकीकत यह है कि ऐसी यकीनी दहानी अल्पसंख्यक विशेषकर मुसलमानों के बारे में कराई जाती रही हैं लेकिन उसके बाद हमारे देश के नेता यह भूल जाते हैं कि हम ने कब किस से क्या वादा किया था। समाजवादी पार्टी की मांग पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने आकर कोई बयान नहीं दिया जबकि संसद की कार्यवाही को तीन बार स्थगित करना पड़ा। राज्यसभा में मुस्लिम युवाओं की रिहाई के सिलसिले में नारे लगाए गए लेकिन हमें अब भी सरकार की नीयत साफ नजर आती और हमें नहीं लगता कि इस तरह की यकीन दहानी के बाद बेगुनाह मुसलमानों की गिरफ्तारियों पर रोक लग जाएगी।
अरविन्द केजरीवाल द्वारा `आम आदमी पार्टी' के नाम से सियासी पार्टी के गठन पर सहरोजा `दावत' के सम्पादक परवाज रहमानी ने विख्यात स्तम्भ `खबरो नजर' में चर्चा करते हुए लिखा कि आम आदमी पार्टी के संस्थापक के अब तक बयानात और विचारों से यह धारणा गलत न होगी कि वह अपने प्रयासों में ईमानदार हैं। भ्रष्टाचार से परेशान हैं और उसे हर कीमत पर खत्म करना चाहते हैं। थोड़ा जज्बाती आदमी  हैं लेकिन आदमी काम के हैं। इसलिए उन्हें याद दिलाना उचित मालूम होता है कि वह बातचीत याद करें जो गत वर्ष जमाअत इस्लामी हिन्दू मुख्यालय में अमीर जमाअत मौलाना जलालुद्दीन उमरी ने उनसे की थी, जब वह अपनी टीम के साथ जमाअत मुख्यालय विचार-विमर्श के लिए आए थे। अमीर जमाअत ने उनकी टीम से कहा था कि भ्रष्टाचार सहित सभी बुराइयों पर काबू अल्लाह के सामने जवाबदेही की धारणा के बिना संभव नहीं है। अरविन्द ने स्वीकार किया कि फिलहाल यह पहलू हमारे सामने नहीं है। अब उन्हें इस पर जरूर विचार करना चाहिए। काम देखने में मुश्किल है लेकिन अगर समझ में आ जाए तो भ्रष्टाचार पर रोक का सबसे आसान रास्ता भी यही है।
थ�e � � � ��{ Р� � हो सकती है और क्या जो दल पायः सभी दल-वर्ग विशेष का मत पाने की आंकांक्षा में उससे दूरी बनाये हुए हैं-वे सरकार बनाते समय संयुक्त मोर्चा बनाने की दिशा में जाकर कांग्रेस के समर्थन से सरकार चलायेंगे। पिछले डेढ़ दशक में जो राजनीतिक नियत उतरकर सामने आई है उससे किसी पतिबद्धता की सांवना का आंकलन करना दिवास्वप्न देखने के समान ही होगा। लेकिन एक बात को-उत्तर पदेश के संदर्भ में- समझ लेना आवश्यक है वह यह कि मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व के समय 1989 में जनता दल का विभाजन होने के बाद उनकी सरकार के समर्थन में जब कांग्रेस खड़ी हुई तो वे अल्पमत में थे। उनकी सरकार कांग्रेस के सहारे कुछ महीने चली नारायण दत्त तिवारी विपक्ष के नेता थे। मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह से सरकार चलायी वह वैसी ही थी जैसे आज अखिलेश की सरकार चल रही है। फलतः 1991 के चुनाव में विधानसभा में चौथे नंबर का सिर्फ 31 सीटें मिल पायी थी और कांग्रेस तब से उत्तर पदेश में राजनीति की मुख्यधारा से बाहर है। नारायण दत्त के नेतृत्व में मुलायम सिंह की सरकार को समर्थन न मुलायम सिंह के लिए शुभ रहा और ना ही कांग्रेस के लिए। नारायण दत्त तिवारी का ``आर्शीवाद'' वैसा ही जैसे विधान परिषद में स्थान पाने के लिए जे.ए. अहमद का कम्युनिस्ट पार्टी छोड़ मुलायम सिंह की शरण में जाना। लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिला। तिवारी जी सुर्खियों में बने रहने के लिए चाहे जो उपकम करें। अब उनको जे.ए. अहमद की स्थिति पाप्त हो गई है। आज की राजनीति अवसरवादिता और सत्ता सुख भोगने का साधन मात्र होकर रह गई है इसलिए किसी भी चुनाव के बाद कोई पार्टी किस करवट बढ़ेगी इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती।

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