Tuesday, January 8, 2013

एफडीआई और मुस्लिम अल्पसंख्यक


`अभी लंबी है एफडीआई की राह' के शीर्षक से दैनिक `पताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि वालमार्ट ने अमेरिकी सीनेट को दी गई अपनी रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि उसने भारत में निवेश तथा अन्य लाबिंग गतिविधियों पर 2008 से अब तक 2.5 करोड़ डालर (लगभग 125 करोड़ रुपए) खर्च किए हैं। इसमें भारत में एफडीआई पर चर्चा से सम्बन्धित मुद्दा भी शामिल है। तिमाही के दौरान वालमार्ट ने अमेरिकी सीनेट, अमेरिकी पतिनिधि सभा, अमेरिकी व्यापार पतिनिधि (यूएसटीआर) और अमेरिकी विदेशी विभाग के समक्ष अपने मामले में लाबिंग की। अमेरिका में कंपनियों को किसी मामले में विभागों या एजेंसियों के समक्ष लाबिंग की अनुमति तो है लेकिन लाबिंग पर हुए खर्च की रिपोर्ट तिमाही आधार पर सीनेट में देनी होती है। इधर जैसी उम्मीद थी अमेरिका ने एफडीआई को मंजूरी देने के फैसले का स्वागत किया है। उसने कहा कि इससे दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग मजबूत होंगे। विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार के इस फैसले के मूर्त रूप लेने में अभी समय लगेगा। क्योंकि सरकार ने एक शर्त जोड़ी है जिसके अनुसार एफडीआई का कम से कम 50 फीसदी हिस्सा तीन साल के भीतर कोल्ड स्टोरेज के लिए जमीन खरीदने या किराये को इन्फास्ट्रक्चर खर्च नहीं माना जाएगा। सरकार ने मल्टीब्रांड रिटेल में एफडीआई पर भले ही सदन के दोनों सदनों की मंजूरी हासिल कर ली है लेकिन आम आदमी को विदेशी किराना स्टोर के लिए अभी इंतजार करना पड़ेगा।
`गुजरात के मतदाताओं की परीक्षा' के शीर्षक से हैदराबाद से पकाशित दैनिक `ऐतमाद'ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि गुजरात चुनाव के जो ओपिनियन पोल के नतीजे सामने आए हैं उनमें बताया गया है कि मोदी को स्पष्ट बहुमत हासिल होगा। भाजपा को ज्यादा सीटें मिलेंगी लेकिन इसके वोटों का पतिशत 2007 के मुकाबले घट जाएगा। 2007 में पार्टी ने 49.12 फीसदी वोट हासिल किए थे लेकिन नए पोल में वह 47 फीसदी वोट हासिल कर पाएगी। मोदी सरकार ने गुजरात में विकास से सम्बन्धित तथाकथित तहकीकात पर आधारित किताब छापी है जो सच्चाई के खिलाफ है। 2007 के चुनाव 2002 में गुजरात नरसंहार के बाद हुए थे जिसमें दो हजार से अधिक मुसलमानों की हत्या के लिए गुजरात सरकार जिम्मेदार थी। इस चुनाव के नतीजों ने मोदी के कैरियर को हमेशा के लिए खत्म करने की बजाय उन्हें एक नई जिंदगी दे दी। गुजरात के बहुसंख्यक समुदाय ने भाजपा विशेष कर मोदी के लिए वोट बैंक का काम किया। पधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह जब इस सच्चाई को पेश करते हैं कि गुजरात में अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं और मोदी की भेद-भाव पूर्ण नीतियों ने हिन्दुओं और मुसलमानों में एक दरार डाल दी है, तो यह सच्चाई नरेन्द्र मोदी को कड़वी मालूम होती है और वह पधानमंत्री पर आरोप लगाते हैं कि वह वोट बैंक की राजनीति कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि मोदी की वोट बैंक की सियासत पर किसी पकार की पतिकिया उन्हें पसंद नहीं इसलिए उन्होंने उलटे कांग्रेस पर जवाबी हमले शुरू कर दिए हैं। देखना यह है कि गुजरात के मतदाता नरेन्द्र मोदी से छुटकारा हासिल कर पाएंगे?
`फौज और पुलिस के हत्यारे अधिकारी' के शीर्षक से दैनिक `सहाफत' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मानव अधिकार से सम्बन्धित एक समूह और लापता व्यक्तियों के अभिभावकों के एक संगठन ने दावा किया है कि जम्मू-कश्मीर में फौज और पुलिस के सैकड़ों ऐसे व्यक्ति हैं जो मानव अधिकारों के उल्लंघन की गंभीर घटनाओं में लिप्त हैं, मुकदमा नहीं चलाया गया। यह दो ग्रुप हैं मानव अधिकार और इंसाफ के लिए इन्टरनेशनल पीपुल्स ट्रिब्यूनल और श्रीनगर में स्थित लापता लोगों के अभिभावकों के संगठन की तैयार की हुई रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि भारतीय फौज के तीन ब्रिगेडियर, कर्नल, तीन लेफ्टिनेंट कर्नल, 78 मेजर, 25 कैप्टन और केन्द्र के अर्धसैनिक बलों के 37 वरिष्ठ अधिकारी राज्य में विभिन्न अपराध और मानव अधिकारों के उल्लंघन के दोषी हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि मानव अधिकारों के उल्लंघन में हत्या, अपहरण, दुष्कर्म, हिंसा और जबरदस्ती गायब करने की घटनाएं शामिल हैं। यह रिपोर्ट राज्य के सरकारी कागजों की बुनियाद पर दो साल में तैयार हुई है। इस पर अभी सरकार की पतिकिया सामने नहीं आई है। गोतम नवलखा और पेस कान्पेंस में मौजूद लोगों ने बताया कि यह रिपोर्ट मुख्यमंत्री और पधानमंत्री को भेजी जा चुकी है ताकि आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई हो सके। दोनों ग्रुपों ने बताया कि वह आरोपियों के खिलाफ ठोस सबूत नहीं पेश कर सकते लेकिन इन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए काफी शहादतें मौजूद हैं।
मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी और सरकार के आश्वासन पर चर्चा करते हुए दैनिक`इंकलाब' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि कांग्रेस के सिर पर इस समय चुनाव सवार है। 2012 के गुजरात चुनाव, 2013 के कुछ अहम विधानसभा चुनाव और फिर 2014 के आम चुनाव। इसके बावजूद इस सरकार को ज्यादा दिलचस्पी उन कामों से है जिनकी बुनियाद पर उसे समाचार पत्रों और टीवी की ब्रेकिंग न्यूज में जगह मिल जाए ताकि दुनिया को यह बताया जा सके कि वह सकिय है। पाकृतिक पाथमिकता के चयन की बजाय चुनावी सियासत को सामने रखकर तय की जा रही पथमिकता के चलते कांग्रेस और यूपीए सरकार काम करते हुए तो दिखाई दे रही हैं लेकिन समस्याएं हल नहीं होतीं। इस संदर्भ में जब हम आतंकी मामलों में पकड़े गए मुस्लिम युवाओं के बारे में सोचते हैं तो महसूस होता है कि बार-बार की याददहानी अपील और विरोध के बावजूद यूपीए सरकार इस विषय में चिलचस्पी नहीं ले रही है जबकि अब किसी संदेह की गुंजाइश नहीं रह गई है। कई मामलों में बिल्ली के थैले से बाहर आने के बाद भगवा संगठनों से जुड़े तत्व गिरफ्तार किए गए और कई दूसरे मामलों में सम्मानित अदालतों ने मुस्लिम युवाओं को बाइज्जत रिहा करके जांच एजेंसियों की भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिए। 3 दिसम्बर को विभिन्न सियासी पार्टियों के 16 सांसदों के एक पतिनिधि मंडल ने पधानमंत्री से मुलाकात कर उनका ध्यान मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी, कमजोर, मुकदमों, उनके साथ सख्त रवैया और बाइज्जत बरी होने के बावजूद उनके साथ सौतले व्यवहार की ओर दिलाया। पधानमंत्री ने गृहमंत्री एवं गृहसचिव को बुलाकर उनसे बात करने और एक मेकानिज्म तैयार करने का आश्वासन दिया है और अभी तक आश्वासन से आगे बात नहीं बढ़ सकी है। अब इस सरकार को कौन समझाए कि मुस्लिम युवकों की रिहाई भी इसके चुनावी हित में है।
`एफडीआई और मुस्लिम अल्पसंख्यक' के शीर्षक से `सहरोजा दावत' में मोहम्मद सिबगत उल्ला नदवी ने लिखा है कि क्या देश के मुसलमान भी इससे पभावित होंगे, इस बाबत कोई भी कुछ कहने को तैयार नहीं है। खुद मुसलमान भी इस पहलू से नहीं सोच रहे हैं। जब समाज का हर वर्ग सरकारी फैसले को अपने फायदे और नुकसान की दृष्टि से देख रहा है तो मुसलमान सोते रहते हैं और जब उन फैसलों के खतरनाक पभाव उन पर पड़ते हैं और उन्हें नुकसान होता हुआ दिखाई देता है तो उन्हें अफसोस करने का मौका भी नहीं मिलता है। जैसा कि सरकारी नौकरियों में इनकी हिस्सेदारी का हुआ। आजादी के समय सरकारी नौकरियों में इनकी जो हिस्सेदारी 35 फीसदी थी वह योजनावद्ध तरीके से घटते-घटते लगभग 2.5 फीसदी हो गई तो अब जाकर इनकी आखें खुली हैं लेकिन इस नुकसान की भरपाई की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है। मुसलमानों के लिए पाइवेट सेक्टर के दरवाजे भी बंद करने की साजिश हो रही है। मुसलमानों के सामने नौकरी के अवसर कम हैं इनके सामने छोटे कारोबार करना और खुद को रोजगार से जोड़ना मजबूरी है। सच्चर कमेटी ने भी यह बात कही है कि मुसलमानों का अनुपात नौकरियों के मुकाबले खुद के रोजगार में ज्यादा है। पैसे की कमी से वह बड़ा कारोबार नहीं कर सकते। इसके लिए रिटेल कारोबार से जुड़े हैं। एफडीआई से संभव है कि कुछ रोजगार मिल जाए लेकिन बेरोजगार वालों का फीसदी ज्यादा होगा, बहुत से किसान भी मुसलमान हैं उनको भी नुकसान पहुंच सकता है।

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