Tuesday, January 8, 2013

मोदी की माफी पर मुस्लिम जमाअतों की नाराजगी


ज्वाइंट कमेटी आफ मुस्लिम आर्गनाइजेशन फार इम्पावरमेंट के संयोजक एवं पूर्व सांसद सैयद शहाबुद्दीन द्वारा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को लिखे पत्र पर मुस्लिम जमाअतों ने एक स्वर में इसकी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे निरस्त कर दिया। मोदी को लिखे पत्र में सैयद शहाबुद्दीन ने लिखा कि गुजरात नरसंहार के लिए मोदी माफी मांगें और गुजरात विधानसभा चुनाव में 20 सीटें मुसलमानों को दें। गुजरात पीड़ितों को 1984 के सिख दंगों की तरह मुआवजा देने, बेघर हुए परिवारों का पुनर्वास और सुरक्षा, दंगों में तबाह होने वाले लगभग 300 धार्मिक स्थलों का दोबारा निर्माण, दंगों के लिए जेल में सजा काट रहे आरोपियों की बिना शर्त रिहाई। जमीअत उलेमा हिन्द, जमाअत इस्लामी हिन्द, आल इंडिया मिल्ली काउंसिल और आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत जैसे बड़े संगठनों ने सैयद शहाबुद्दीन के इस पत्र से खुद को अलग करते हुए कहा कि यह उनका व्यक्तिगत बयान था और इस बाबत हम लोगों से कोई मशविरा नहीं किया गया और न ही हमने सैयद शहाबुद्दीन को इस बात का अधिकार दिया था कि वह कोई फैसला करें। जमीअत प्रवक्ता अब्दुल हमीद नोमानी ने कहा कि ज्वाइंट कमेटी के तहत जो बैठक हुई थी वह आरक्षण के मुद्दे पर थी और इस पर सभी मुस्लिम संगठनों की सहमति थी। लेकिन अब जो पत्र लिखा गया है उसका इससे कोई संबंध नहीं है वह राजनीति से प्रेरित है। आल इंडिया मिल्ली काउंसिल के महासचिव डा. मोहम्मद मंजूर आलम ने तो आधिकारिक तौर से सैयद शहाबुद्दीन को पत्र भेजकर ज्वाइंट कमेटी आफ मुस्लिम आर्गनाइजेशन फार इम्पावरमेंट को भंग करने की मांग की है। विवाद उठते देख सैयद शहाबुद्दीन ने सफाई देते हुए कहा कि आफिस क्लर्प की गलती से ज्वाइंट कमेटी के लैटरपैड पर यह पत्र चला गया। चूंकि यह सब गलती में हुआ है इसलिए अब यह बात खत्म हो जानी चाहिए।
दैनिक `इंकलाब' (नार्थ) के सम्पादक शकील सम्शी ने `मोदी को माफी का ड्रामा' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा कि गुजरात चुनाव से पूर्व मोदी को माफी दिए जाने का ड्रामा शुरू हो गया है। कुछ मुस्लिम संगठनों की ओर से मोदी को माफी दिए जाने की सोची-समझी मुहिम शुरू करने का मकसद हमारी समझ से बहुत दूर की प्लानिंग है, क्योंकि मोदी को माफ किए जाने या न किए जाने का गुजरात चुनाव पर कोई विशेष प्रभाव होने वाला नहीं है। वहां इससे पूर्व दो बार चुनाव हो चुके हैं और मोदी को चुनाव जीतने में कोई परेशानी नहीं हुई, न तो उनको मुसलमानों की कोई चिंता थी और न उनको रिझाने की कोशिश मोदी ने की। दोनों चुनाव में कोई ऐसा नारा नहीं दिया गया था कि मोदी को मुसलमान कट  कर दें। न तो भाजपा ने मुसलमानों से कहा और न मोदी ने कभी यह चाहा कि मुसलमान गुजरात दंगों के लिए मोदी को माफ कर दें। कुछ मुस्लिम संगठनों के दिल में मोदी की जो मोहब्बत जागी है, इसका कोई कारण दिखाई नहीं पड़ रहा है। इसलिए आम मुसलमान को यही लग रहा है कि इन संगठनों और भाजपा के बीच कोई बहुत बड़ी डील हुई है।
`शहाबुद्दीन बनाम नरेन्द्र मोदी' के शीर्षक से दैनिक `जदीद खबर' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि साप्ताहिक `नई दुनिया' के सम्पादक शाहिद सिद्दीकी के बाद सैयद शहाबुद्दीन ऐसे लोकप्रिय मुस्लिम नेता हैं जिन्हें मोदी की मोहब्बत में तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ रहा है। नरेन्द्र मोदी फिलहाल गुजरात के चुनावी दंगल में हैं। अखबारी रिपोर्टों पर विश्वास किया जाए तो वह एक बार फिर गुजरात में भाजपा की सरकार को सत्ता में ला रहे हैं, बात सिर्प इतनी-सी नहीं है। मोदी की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर भी है और जब तक उनकी छवि सही नहीं होगी तब तक वह इस कुर्सी पर नहीं पहुंच सकते। मोदी की छवि को सही करने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि किसी तरह मुसलमानों को खींचतान कर उनकी झोली में डाल दिया जाए। आश्चर्यजनक बात यह है कि इस काम को मुसलमानों के ऐसे नेता और पत्रकार अंजाम दे रहे हैं जिन्हें एक समय में मुसलमानों का बड़ा विश्वास हासिल रहा है। इसे मुस्लिम कौम का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जाएगा।
समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रखने पर चर्चा करते हुए दैनिक `सियासी तकदीर' में जावेद कमर ने अपनी समीक्षा में लिखा है कि चुनावी घोषणा पत्र में मुलायम सिंह ने मुसलमानों से बड़े वादे किए थे लेकिन हमें बहुत अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि अब तक एक भी वादा पूरा नहीं हुआ।
एक अहम वादा आतंकवाद के झूठे आरोप में बंद मुस्लिम युवाओं की रिहाई का था। यह मामला अब अदालत तक जा पहुंचा है जिसने राज्य सरकार पर तीखे कटाक्ष किए हैं। आठ महीनों के दौरान दो और मुस्लिम युवाओं को राज्य में आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका है।
अब इस तरह की बात भी सामने आ रही है कि मुस्लिम विरोधी अधिकारियों को पदोन्नति दी जा रही है। लखनऊ में रिहाई मंच के एक धरने को सम्बोधित करते हुए पूर्व सांसद और सीपीआईएम नेता सुभाषनी अली ने आरोप लगाया कि 1992 में कानपुर में हुए दंगों के दौरान एसएसपी रहते जिस एसी शर्मा ने खुलेआम दंगाइयों को संरक्षण दिया और जिसकी जांच के लिए आईएस माथुर आयोग गठित किया गया था उसे डीजीपी बना दिया गया। अखिलेश सरकार ने मांग के बावजूद नमेश आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया। सरकार ने आईबी की रिपोर्ट को भी गंभीरता से नहीं लिया जिसमें कहा गया था कि राज्य में सांप्रदायिक दंगे हो सकते हैं। तो क्या समाजवादी भी मुसलमानों को भयभीत कर उनका वोट लेना चाहते हैं?
`कांग्रेस का चुनावी हथकंडा ः कैश फार वोट' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि यूपीए सरकार ने 2014 लोकसभा चुनाव की तैयारियां जोरशोर से शुरू कर दी हैं। वह अपने पुराने और आजमाए हुए फार्मूले पर काम करने जा रही है। केंद्र सरकार ने अपनी वोटें पक्की करने के लिए गरीबों को सीधे पैसे देने का फैसला किया है। कांग्रेस पार्टी को उम्मीद है कि जब सीधे लोगों के खाते में पैसा जमा होगा तो वह सारे घोटालों, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, बिजली, पानी, कानून अव्यवस्था सब को भूल जाएंगे और कांग्रेस पार्टी को 2014 के चुनाव में वोट दे देंगे। ऐसा संभव भी हो सकता है और नहीं भी। यूपीए सरकार की योजना सफल हुई तो देश में सब्सिडी का स्वरूप 2013 के अंत तक पूरा ही बदल जाएगा। लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं है, पेचीदगियों से भरा हुआ है। सब्सिडी के कैश ट्रांसफर यानि लाभार्थियों को सीधे नकद सहायता देने की योजना में राजनीतिक जोखिम भी है। ब्राजील के उदाहरण से यह कहा जाने लगा है कि नकद सब्सिडी सत्तारूढ़ दल को चुनावी फायदा पहुंचा सकती है। अनेक सामाजिक संगठनों ने नकद सब्सिडी को लेकर कई अंदेशे जताए हैं। इसमें सबसे अहम सवाल यह है कि गरीबों को नकद सब्सिडी देने  से यह कैसे सुनिश्चित किया जा सकेगा कि इसका मकसद के अनुरूप ही इस्तेमाल होगा?
`एफडीआई ः सरकार का नया आत्म विश्वास' के शीर्षक से हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `ऐतमाद' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि एफडीआई पर करुणानिधि के फैसले से कांग्रेस को बड़ी राहत मिली है जबकि दूसरी दो पार्टियां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जो बाहर से सरकार का समर्थन कर रही हैं, ने सरकार को बचाने का फैसला किया है। भाजपा और वाम मोर्चे की पार्टियों ने सरकारी नीतियों का सामूहिक रूप से विरोध किया है और चाहती हैं कि इस मुद्दे पर वोटिंग हो। इस मकसद के लिए इन जमाअतों ने संसद की कार्यवाही को ठप कर रखा है। सरकार बहस के लिए तैयार है। बहस के बाद वोटिंग होगी या नहीं, यह फैसला यूपीए ने स्पीकर के विवेकाधिकार पर छोड़ या है।

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