Monday, November 26, 2012

बाल ठाकरे और मुसलमान


अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के बर्मा दौरे पर चर्चा करते हुए दैनिक `जदीद मेल'ने अपने सम्पादकीय में लिखा है। उनके पहले शासनकाल में उनके प्रशासन की विदेश नीति का केंद्र मध्य पूर्व और अफगानिस्तान बने हुए थे लेकिन मालूम होता है कि अब उनके लिए एशिया बहुत अहम रहेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा केवल छह घंटे तक जारी रहा लेकिन फिर भी यह बहुत अहम है। गत वर्ष तक बर्मा विश्व बिरादरी में आलोचना का निशाना बना रहा और वह फौजी शासन एवं मानव अधिकार उल्लंघन के कारण नापसंद और अलोकतांत्रिक देश माना जाता था। ओबामा प्रशासन का कहना है कि इस दौरे का मकसद उन लोकतांत्रिक सुधारों का समर्थन करना है जो राष्ट्रपति थेन सेन ने बर्मा में शुरू की है लेकिन एक और मकसद यह भी है जिसका जिक्र नहीं किया जाता, वह है बर्मा में चीन के बढ़ते असर को कम करना। बर्मा और चीन के संबंधों का इतिहास बहुत अच्छा नहीं रहा है और दोनों के बीच हथियारों के बेचने और चीनी निवेश पर आधारित रहा है। दौरे की आलोचना करने वालों का यह भी कहना है कि शायद यह दौरा समय से पहले किया गया है। क्योंकि सुधार की प्रक्रिया पिछले साल से ही शुरू हुई थी और इस पर अमेरिका अपने लिए कोई विशेष मांग नहीं मनवा सका। बर्मा सरकार ने कुछ दिन पूर्व 452 कैदियों को माफी देने की घोषणा की थी लेकिन इनमें वह लोग शामिल नहीं हैं जिनको सियासी बुनियाद पर कैद किया गया है। `बर्मा की सरकार ने कुछ कैदियों को रिहा किया है जिनमें कोई सियासी कैदी शामिल नहीं। यह तो दौरे के लिए कोई अच्छी शुरुआत नहीं।' बर्मा में सत्ता और सियासी सुधार के बारे में अब भी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है। फौज की भूमिका कितनी कम हो सकी है, बर्मा के वर्तमान राष्ट्रपति सुधार के प्रति कितना गंभीर हैं, इन सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है।
बर्मा में मुसलमानों के नरसंहार के हवाले से दैनिक `जदीद मेल' ने `ओबामा का म्यांमार का दौरा' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बराक ओबामा ने म्यांमार के दौरे के दौरान कहा कि रोहगनियां मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल किया जाना चाहिए। निसंदेह उनके इस बयान से मुसलमानों को हार्दिक सुकून मिला होगा लेकिन गत चार वर्ष का अनुभव कहता है कि ओबामा मुसलमानों के हक में हमदर्द साबित नहीं हुए और इनकी कथनी करनी से मुसलमानों को मायूसी हाथ लगी है। गत चार साल के शासनकाल में ओबामा ने सबसे बड़े आतंकी देश इजरायल को फलस्तीनी मुसलमानों की हत्या करने की खुली छूट दे रखी है जब-जब इजरायल को घेरने की कोशिश की गई। अमेरिका वीटो कर गया और फलस्तीन मामला वहीं का वहीं उलझा रहा। गत एक सप्ताह से फिर इजरायली हमलों में तेजी आ गई है। ओबामा से जब फलस्तीनी मुसलमानों के बारे में कोई आशा नहीं की जा सकती तो फिर इनके इस बयान पर किस तरह विश्वास किया जा सकता है कि म्यांमार  में रोहगनियां मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल किया जाए। अपने चार वर्षीय शासनकाल में अपनी कथनी और करनी से अब तक यह साबित नहीं किया गया है कि वह मुसलमानों के हमदर्द हैं।
`इजरायल बनाम हमास लड़ाई खतरनाक मोड़ पर' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मध्य पूर्व एशिया में गाजा पट्टी और इजरायल में पिछले कई दिनों से लड़ाई खतरनाक स्थिति में पहुंचती जा रही है। गत दिनों फलस्तीनी चरमपंथियों ने यरुशलम पर राकेट से हमला किया। फलस्तीनी संगठन हमास ने कहा कि इस राकेट का निशाना इजरायली संसद थी। पिछले कई दशकों में यह पहली बार है कि यरुशलम को निशाना बनाया गया और गाजा पट्टी से इस तरह का यह पहला हमला था। पिछले कई दिनों से हमास तथा इजरायल की तरफ से एक-दूसरे को निशाना बनाया जा रहा है और दोनों ही यह स्वीकार भी कर रहे हैं कि अंतर बस इतना है कि इजरायल डिफेंस फोर्स (आईडीएफ) इसे आतंकी ठिकानों पर किया गया हमला बता रहा है और हमास सहित अरब दुनिया या उससे जुड़े तमाम चरमपंथी संगठन इसे गाजा के निर्दोष लोगों के खिलाफ हमला मान रहे हैं। दोनों देशों द्वारा अपनाई जा रही गतिविधियों को देखते हुए यह कहना शायद गलत होगा कि इस स्थिति के लिए कोई एक दोषी है।
मुसलमानों के प्रति बाल ठाकरे का रवैया को लेकर दैनिक `जदीद खबर' में `बाल ठाकरे और मुसलमान' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि बाल ठाकरे की पूरी जिंदगी मुसलमानों की देशभक्ति पर सवालिया निशान लगाते गुजरी। वह अक्सर ऐसे बयान दागा करते थे जो भारतीय दंड संहिता के तहत काबिले गिरफ्त होते थे। उन पर कई बार मुकदमे भी कायम हुए लेकिन कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका क्योंकि उन्होंने कानून का क्रियान्वयन करने वाली संस्थानों पर यह भय कर रखा था कि यदि पुलिस ने उनके खिलाफ कोई कार्रवाई की तो पूरा महाराष्ट्र जल उठेगा। पुलिस और प्रशासन इसी भय से इनके खिलाफ कोई सख्त कदम नहीं उठा सके और इसी बुजदिली (कायरता) के नतीजे में बाल ठाकरे लॉ एंड आर्डर की मशीनरी पर हावी हो गए। बाल ठाकरे शिवसेना मुख्य पत्र `सामना' में भी अपने सम्पादकीय में अक्सर मुसलमानों के खिलाफ अंतिम स्तर की भड़काऊ लेखनी लिखा करते थे, यह उनकी सियासी मजबूरी थी क्योंकि उन्होंने अपनी सांप्रदायिकता की राजनीति से जिन लाखों शिव सैनिकों की फौज तैयार की थी उसकी मानसिक खुराक और हरारत बाला साहब के उत्तेजित बयान और भड़काऊ लेखनी से ही मिलती थी। दिलचस्प बात यह है कि मुसलमानों से दुश्मनी के बावजूद उन पर विश्वास भी करते थे। जिस समय उन्होंने अंतिम सांस ली तो उनके पास जो डाक्टर मौजूद था उसका नाम डॉ. जलील पारकर था। डॉ. जलील बाल ठाकरे का पांच साल से इलाज कर रहे थे और इनके परिवार को डॉ. जलील पर बड़ा भरोसा था। डॉ. जलील ठाकरे के साथ  दशहरे की पारंपरिक रैली में मंच पर मौजूद रहते थे ताकि आपातकाल स्थिति में उन्हें चिकित्सा सहायता पहुंचा सकें।
`कसाब को फांसी' के शीर्षक से दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि फांसी दिए जाने के लिए ऐसा समय चुना गया जिसके सियासी पहलू को देखने के लिए किसी मैगनीफाइट ग्लास की जरूरत नहीं है। कसाब को फांसी 21 नवम्बर को दी गई, संसद का अधिवेशन 22 नवम्बर से शुरू हो रहा है। इसका मतलब यह है कि संसद के अधिवेशन का पहला दिन बहुत दिलचस्प होगा। इस दिन सरकार के खिलाफ या तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता और यदि कहा जा सकता है तो अच्छा ही कहा जा सकता है। कम से कम इस मुद्दे पर विपक्ष सरकार पर हमला नहीं कर सकता। विपक्ष के पास केवल एक मुद्दा अफजल गुरु की फांसी की मांग का रह गया, वह भी कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने छीन लिया है। इससे पहले कि कोई और अफजल गुरु का मामला उठाए, उन्होंने खुद ही उसकी फांसी की मांग कर दी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अजमल कसाब की फांसी से कांग्रेस आमतौर से और महाराष्ट्र कांग्रेस विशेष रूप से फायदा उठाने की कोशिश करेगी। महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की मौत के बाद जो सियासी गैप पैदा हो गया, उसे भरने के लिए जनहित में कुछ लोकप्रिय कदम उठाए जाएं। अजमल कसाब को फांसी दिया जाना ऐसा ही कदम है क्योंकि इसकी फांसी की मांग केवल सियासी पार्टियां ही नहीं, वह लोग भी कर रहे थे जिनके अपने 26/11 हमले में मारे गए थे।

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