Sunday, October 31, 2010

ब्याजरहित कर्ज नीति की जरूरत


केंद्र की यूपीए सरकार की दूसरी पारी के पहले साल में अल्पसंख्यकों के उत्थान हेतु घोषित की गई योजनाओं की स्याही सूखी भी नहीं थी कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) ने अल्पसंख्यकों के उन योजनाओं की पोल खोल दी है। इससे पहले भी जब सरकार ने अपना रिपोर्ट कार्ड जारी किया था, तो उसके दूसरे दिन ही एनएसएसओ ने अपनी रिपोर्ट में शैक्षिक रूप से मुसलमानों के पिछड़ेपन के आंकड़े जारी कर उसे कठघरे में खड़ा कर दिया था। फिलहाल आरबीआई की यह रिपोर्ट कहती है कि पिछले वित्त वर्ष में देश के 121 अल्पसंख्यक जिलों में बैंकों की ओर से कर्ज दिए जाने और बैंक खाता खोलने की दर में भारी गिरावट आई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2008-09 की समाप्ति पर अल्पसंख्यक बहुल जिलों में खुलने वालों बैंक खातों में मात्र 4.05 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि वर्ष 2007-08 में यह वृद्धि 83.80 प्रतिशत थी। इसी तरह, अल्पसंख्यक बहुल जिलों में व्यावसायिक बैंकों की ओर से कर्ज दिए जाने में भी मात्र 31.26 फीसदी की वृद्धि हुई है, जबकि वर्ष 2007-08 में यह दर 199.69 प्रतिशत थी।
दरअसल, आरबीआई ने प्रधानमंत्री के 15 सूत्रीय कार्यक्रम में रंग भरने हेतु सभी बैंकों को निर्देश दिया था कि वह अल्पसंख्यक बहुल जिलों में कर्ज देने और उनके नए बैंक खाते खोलने पर विशेष ध्यान दें। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रिपोर्ट बताती है कि अत्यधिक निरक्षरता, बुनियादी सुविधाओं की कमी, अल्पसंख्यक बहुल जिलों में आर्थिक गतिविधियों की कमी, कर्ज वापसी की दर में कमी, बैंक और स्पांसर एजेंसियों में ताल-मेल की कमी जैसे कारकों के कारण ही ऐसा हुआ है।
गौरतलब है कि सरकार द्वारा जिन पांच समुदाय को अल्पसंख्यक के तौर पर चिह्नित किया गया है, उसमें मुसलिम, सिख, इसाई, बौद्ध और पारसी शामिल हैं। मुसलिम समुदाय को छोड़कर बाकी चारों समुदाय काफी संपन्न एवं शिक्षित माने जाते हैं। सच्चर कमेटी ने भी मुसलमानों के पिछड़ेपन को उजागर किया था। फिलहाल, रिपोर्ट में जिन कमियों की ओर इशारा किया गया है, वे सभी मुसलमानों से संबंधित हैं। इस स्थिति में आरबीआई द्वारा उन्हें दूर करने के लिए किसी रोडमैप का बनाना सरकार की नीति और आरबीआई की इच्छा शक्ति पर प्रश्नचिह्न लगाती है।
इस संदर्भ में यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है कि किसी को कर्ज देने का अर्थ क्या है? निश्चय ही बिना किसी स्पष्ट नीति के कर्ज देने को कोई औचित्य नहीं है। इससे तो वह समुदाय लाभान्वित होगा और ही ऐसा करने से किसी प्रकार की आर्थिक गतिविधि को संबल मिलेगा। अल्पसंख्यक, विशेषकर मुसलिम बहुल क्षेत्रों में जिस तरह की आर्थिक गतिविधियां होती हैं, वे ज्यादातर हाथ वाले कामों की श्रेणी में आते हैं। मसलन, लघु उद्योग, जैसे कानपुर के कुछ मोहल्लों में घर-घर चप्पल बनाने का काम होता है। इन छोटे और घरेलू उद्योगों को पैसे की जरूरत होती है, लेकिन बैकों द्वारा शर्तों और विभिन्न प्रकार के कागजात की मांग की जाती है, जिसकी पूर्ति करना इनके लिए संभव नहीं होता। लिहाजा वे इससे दूर रहने में ही अपनी भलाई समझते हैं। वैसे भी कर्ज का ब्याज कितनी तेजी से बढ़ता है, उसका अनुमान भुक्तभोगी को ही होता है। आम सोच यही है कि यह जोंक की तरह आदमी से चिपक जाती है और जान लेकर ही छोड़ती है। सरकार यदि वास्तव में अल्पसंख्यक समुदाय में आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देना चाहती है, तो उसे ब्याजरहित कर्ज देने की नीति अपनानी चाहिए।
अल्पसंख्यक आबादी वाले क्षेत्रों का एक बड़ा मसला यह है कि वे घनी बस्तियों में बसते है, जहां किसी प्रकार की बुनियादी सुविधाएं नहीं होतीं। बैंक अपने स्तर से इन क्षेत्रों को निगेटिव घोषित कर देते हैं, जिसके बाद उस क्षेत्र के रहने वाले लोगों के लिए बैंक कर्ज आदि के दरवाजे बंद हो जाते हैं। दिल्ली का ओखला ऐसा ही एक क्षेत्र है, जहां मुसलमानों की बड़ी-बड़ी जमाअतों के मुख्यालय हैं और जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसे विश्वविद्यालय भी हैं, पर यह क्षेत्र निगेटिव एरिया है। सवाल यह है कि किसी क्षेत्र को किस आधार पर निगेटिव एरिया घोषित किया जाता है। क्या समुदाय विशेष के रहने के कारण ऐसा होता है? अगर नहीं, तो क्या मुसलमान कर्ज वापस नहीं करते? अगर ऐसा है, तो सरकार को स्पष्ट रूप से बताना चाहिए कि कहां और किस क्षेत्र में कितना कर्ज बाकी है, जिसकी वापसी नहीं हुई। हमें नहीं भूलना चाहिए कि एक बेहतर नीति ही समाज को विकास की सीढ़ी पर आगे बढ़ा सकती है।
  • खुरशीद आलम

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