Sunday, October 31, 2010

मिस्र में आसान नहीं सत्ता परिवर्तन


आनेवाले दिनों में मिस्र की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा, इस पर सुगबुगाहट तेज हो गई है। क्या राष्ट्रपति हुस्नी मुबारक अपना पद छोड़ देंगे? क्या वह अपने बेटे को अपना उत्तराधिकारी बना पाएंगे? क्या हमेशा की तरह इस बार भी वह अपने विरोधियों को चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित कर सकेंगे? क्या मोहम्मद अलबरदेई उनके लिए चुनौती साबित होंगे? ऐसे सवालों से वहां के अखबार भरे हुए हैं।
मिस्र में विपक्ष कमजोर है। इसके बावजूद 1981 से राष्ट्रपति चले रहे 82 वर्षीय मुबारक के खिलाफ लगातार माहौल बनता जा रहा है और जनता परिवर्तन चाहती है। हुस्नी मुबारक ने अभी कोई घोषणा नहीं की है, लेकिन आम धारणा यही है कि वह अपने बेटे जमाल मुबारक को अपना उत्तराधिकारी बनाने की कोशिश करेंगे। हालांकि अमेरिका-यूरोप के चहेते मोहम्मद अलबरदेई उनके खिलाफ ताल ठोंककर मैदान में गए हैं।
मिस्र में राष्ट्रपति चुनाव अगले साल होगा, जबकि संसदीय चुनाव अगले महीने। आगामी राष्ट्रपति चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर उतरने की मुहिम चलाने वाले 68 वर्षीय अलबरदेई का अब कहना है कि वह उस समय तक चुनाव नहीं लड़ेंगे, जब तक निर्दलीय उम्मीदवारों पर लगाए गए उन विशेष प्रतिबंधों को खत्म करने के लिए संविधान में संशोधन कर दिए जाएं, जिनका सहारा लेकर अभी तक मुबारक अपने विरोधियों का रास्ता रोकते रहे हैं।
अलबरदेई ने संविधान संशोधन के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाने की बात कही है। इसके बाद वह शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शन करेंगे और इस मुहिम का अंतिम पड़ाव असहयोग आंदोलन होगा, जो तब तक चलेगा, जब तक सरकार संशोधन के लिए राजी हो जाए। करीब 25 साल तक संयुक्त राष्ट्र की ओर से दुनिया भर के परमाणु कार्यक्रम की गतिविधियों का मॉनीटर करने वाले और 2005 में शांति का नोबल पुरस्कार हासिल करने वाले अलबरदेई ने मिस्र की राजनीति में पहले कभी भाग नहीं लिया। हालांकि अभी कहा नहीं जा सकता कि वह राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार होंगे ही। उनके नाम की चर्चा इस वजह से हो रही है, क्योंकि उन्होंने कहा था कि वैश्विक जिम्मेदारियों से फारिग होकर राजनीति में हिस्सा लेने के लिए वह अपने देश वापस रहे हैं।
अलबरदेई के बारे में मिस्र में आम चर्चा यह है कि उन्होंने मुसलिम देशों के खिलाफ पश्चिम के आरोपों को साबित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इराक और ईरान के खिलाफ परमाणु हथियार रखने के आरोपों को सच साबित करने के अलावा सद्दाम हुसैन के महलों और उनके परमाणु ठिकानों की तलाशी में उनकी उल्लेखनीय भूमिका है। जबकि पश्चिम के दिशा-निर्देशों के मुताबिक, उन्होंने कभी इस्राइल के परमाणु हथियारों पर आपत्ति नहीं जताई। पश्चिम का आशीर्वाद अपनी जगह, लेकिन मिस्र की राजनीति में उनके लिए भाग लेना बच्चों का खेल नहीं होगा। जबकि हुस्नी मुबारक को तीन दशक के अपने विराट कार्यकाल में कभी कोई बड़ी राजनीतिक चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा।
अनवर सादात के कत्ल के बाद हुस्नी मुबारक उपराष्ट्रपति से राष्ट्रपति बने थे। राष्ट्रपति पद संभालने के बाद उन्होंने उपराष्ट्रपति का पद ही खत्म कर दिया। अब मिस्र के राष्ट्रपति चुनाव रेफरेनडम की तरह होते हैं, जिसमें एक ही उम्मीदवार होता है, जिसके समर्थन में 95 फीसदी से ज्यादा वोटिंग हो जाती है। मिस्र के संविधान के अनुसार राष्ट्रपति के उम्मीदवार के लिए कड़ी शर्तें रखी गई हैं। उम्मीदवार अगर किसी राजनीतिक पार्टी से है, तो शर्त यह है कि वह आधिकारिक तौर पर पंजीकृत पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व में से हो और चुनाव से पहले कम से कम एक साल का समय गुजार चुका हो। इस राजनीतिक पार्टी का भी चुनाव से कम से कम पांच साल पूर्व पंजीकरण होना चाहिए। यदि वह निर्दलीय उम्मीदवार है, तो उसे कम से कम ढाई सौ सांसदों अथवा जिला काउंसिलों का समर्थन हासिल करना होगा, जो बेहद मुश्किल है, क्योंकि इन संस्थानों में दो तिहाई से अधिक लोग सत्ता पार्टी के हैं।
मिस्र का समाज बदलाव चाहता है। लेकिन जब तक संविधान संशोधन नहीं हो जाता, नए राष्ट्रपति का सामने आना टेढ़ी खीर है। ऐसी स्थिति में अमेरिका और यूरोप अपने एजेंडे के लिए कौन-सी चाल चलते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा।
  • खुरशीद आलम

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