Sunday, October 31, 2010

अयोध्या विवाद : बुनियादी सवालों की अनदेखी


इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ द्वारा बाबरी मसजिद-राम जन्मभूमि की मिलकियत पर दिया गया फैसला अभी भी विवाद का विषय बना हुआ है। स्वयं मुसलमानों और धर्मनिरपेक्ष लोगों की ओर से इसे आस्था आधारित फैसला बताया जा रहा है और फैसले के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की जा रही है, जबकि कानूनी विशेषज्ञ पूरा फैसला पढ़ने और उसका विश्लेषण करने में लगे हुए हैं। वहीं हिंदू महासभा ने सुप्रीम कोर्ट में कैवियट दाखिल कर पूरे मामले को एक नया रुख दे दिया है। इसके चलते वह मुसलिम नेता, जो बातचीत द्वारा इस मसले को हल करने की बात कर रहे थे, ने भी अपना दृष्टिकोण बदल लिया और अब इसे सुलझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रहे हैं।
मुसलमानों की ओर से लगभग एक ही स्वर में सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कही जा रही है। इस बावत ऑल इंडिया मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड, जिसमें विभिन्न मुस्लिम जमाअते शामिल हैं और जिसका काम ही पसर्नल लॉ का संरक्षण करना है, की बाबरी मसजिद कमेटी की बैठक में यह फैसला लिया जा चुका है जिस पर आधिकारिक तौर पर बोर्ड की 16 अक्तूबर की बैठक में मुहर लगेगी। सबसे दिलचस्प मामला बाबरी मसजिद मुकदमे के एक पक्ष जमाअत उलेमा हिंद का है। 9 अक्तूबर को बोर्ड की बाबरी मसजिद कमेटी की बैठक के दिन ही जमाअत नेता मौलाना महमूद मदनी का एक बयान अखबारों में प्रकाशित हुआ कि मसले के हल के लिए बातचीत की जा सकती है। उनकी इस बात पर मुसलिम उलेमा ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की, स्वयं जमाअत के अंदर भी उनके इस बयान को पसंद नहीं किया गया।
मामले का मुख्य वादी उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड पहले से सुप्रीम कोर्ट जाने की घोषणा कर चुका है। जबकि एक अन्य वादी हाशिम अंसारी बातचीत के पक्ष में हैं।
हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाना कोई आश्चर्यजनक और नई बात नहीं है, बल्कि इंसाफ पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट जाना लोकतांत्रिक व्यवस्था का हिस्सा है। यही कारण है कि जो भी वादी हाईकोर्ट के फैसले से संतुष्ट नहीं होता है वह सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाता है। ऐसा करने से उसे किसी भी तरह से रोका नहीं जा सकता है। लेकिन मुसलिम जमाअतों द्वारा जिस योजनाबद्ध तरीके से इसे दोहराया जा रहा है उससे चाहते हुए भी संदेह पैदा हो रहा है। सवाल यह है कि आखिर ऑल इंडिया मुसलिम पसर्नल लॉ बोर्ड इस मामले में इतना सक्रिय क्यों है? मुकदमे में वादी उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड है, मुसलिम पसर्नल लॉ बोर्ड का तो इस मसले में दूर-दूर तक वजूद नहीं है।
काबिले गौर बात यह है कि ऑल इंडिया मुसलिम पसर्नल लॉ बोर्ड का गठन पसर्नल लॉ के संरक्षण हेतु 1972 में किया गया था। लेकिन इतिहास साक्षी है कि पसर्नल लॉ संरक्षण के मामले में यह बोर्ड लगातार नाकाम रहा है। 1985 में बहुचर्चित शाहबानो केस में भी इसने मुहिम चलाई थी, लेकिन उसके नतीजे में संसद से जो कानून पारित हुआ उसने पसर्नल लॉ के संरक्षण के बजाय हस्तक्षेप का दरवाजा खोल दिया। उसके बाद से अदालतों द्वारा लगातार पसर्नल लॉ विरोधी फैसले रहे हैं। लेकिन बोर्ड आज तक उन्हें कोर्ट में चैलेंज कर पाने में असमर्थ रहा है। ऐसे में मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा बाबरी मुकदमे में किसी तरह की सकारात्मक उम्मीद वास्तविकता के विपरीत ही होगी। निश्चिय ही जो लोग इसका प्रचार कर रहे हैं, उससे इस बात को बल मिलता है कि ऐसा मुस्लिम पसर्नल लॉ बोर्ड के शीर्ष पदों पर बैठे अधिकारियों के संरक्षण और उनकी चौधराहट और पकड़ को बरकरार रखने और मजबूत बनाने के लिए किया जा रहा है।
बुनियादी बात यह है कि उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड इस मामले में मुख्य वादी है। यह सरकार के अधीन संस्था है। फिर वह अदालत में मुकदमे की ठीक से पैरवी क्यों नहीं कर सका? कहीं किसी योजना के तहत उसने मामले में कमजोर पैरवी तो नहीं की? इस लंबे चले मुकदमे के दौरान मुसलिम पसर्नल लॉ बोर्ड सहित अन्य लोगों द्वारा लगातार यही कहा जाता रहा कि हम जीत रहे हैं, लेकिन जब मालिकाना हक का फैसला आया तो वह विपरीत था। ऐसा क्यों हुआ, पर कोई चर्चा के लिए तैयार नहीं है और एक ऐसे मसले पर अंगुली उठाई जा रही है जिस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है। सभी पक्षों को यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि चाहे जो भी हो, माहौल बिगड़े।
  • खुरशीद आलम

No comments:

Post a Comment