Sunday, October 31, 2010

फतवे कैसे-कैसे

इन दिनों सऊदी अरब के एक फतवे की व्यावहारिकता को लेकर दुनिया भर के इसलाम मानने वालों के बीच बहस अपनी चरम सीमा पर है। दरअसल, सऊदी अरब के शाही दरबार के एक सलाहकार और न्याय मंत्रालय के परामर्शदाता शेख अल हुसैन आवैखान ने यह कहकर सबको आश्चर्यचकित कर दिया कि मर्दों के साथ काम करने वाली महिलाओं को चाहिए कि वे अपने पुरुष सहकर्मियों को अपना दूध पिला दें, ताकि वे पुरुष महरम (उनके बेटे के समान) हो जाएं। इससे दूध पिलाने वाली महिला के साथ पुरुष सहकर्मी का निकाह तो नहीं ही हो सकता, इससे दुराचार की आशंका भी पूरी तरह से खत्म हो जाती है। इसलाम चूंकि औरतों को मर्दों के मेल-जोल वाले माहौल में काम करने अथवा घुलने-मिलने से मना करता है, इसीलिए कामकाजी महिलाओं के मामले में समस्या का समाधान इस फतवे द्वारा सऊदी उलेमा ने निकाला है।
इस फतवे का आम तौर पर विरोध हो रहा है और इसे अनुचित एवं महिला के मान-सम्मान व मर्यादा के खिलाफ बताया जा रहा है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि हर दीनी और सियासी फतवे पर वक्तव्य जारी करने वाले हमारे उलेमा इस फतवे पर पूरी तरह मौन हैं। ऐसा क्यों है कि हर फतवे पर कुछ न कुछ बोलने वाले हमारे उलेमा इस फतवे पर चुप्पी साधे हुए हैं? इस फतवे के दरअसल दो पहलू हैं। एक यह कि क्या यह फतवा इसलामी शिक्षा से मेल खाता है? क्या इसलाम के प्रारंभिक काल में ऐसी कोई मिसाल मिलती है, जिसका सहारा लेकर सऊदी मुफ्ती ने यह फतवा दिया है। दूसरा यह कि क्या इस फतवे से औरत की मर्यादा भंग नहीं होती? क्या महिला द्वारा दूध पिलाने से वह व्यक्ति उसका बेटा हो जाएगा? सवाल यह भी है कि क्या कोई व्यक्ति इस बात के लिए राजी होगा कि एक अजनबी मर्द उसकी बीवी, बहन अथवा मां से उसका दूध मांगकर पीये और इस घृणित कार्य पर उस पुरुष की कामुकता न जागे? फिर आखिर क्या सोचकर सऊदी अरब के उलेमा ने इस तरह का फतवा जारी किया?
बेशक इसके पीछे की एक पृष्ठभूमि है। इसलाम के आरंभिक दौर में पैगंबर मोहम्मद की बीवी हजरत आयशा को अपने गुलाम हजरत सालिम के बार-बार घर आने की वजह से उनके परदे में खलल पड़ता था, क्योंकि सालिम वयस्क हो चुके थे। उनकी परेशानी देखकर पैगंबर मोहम्मद ने फरमाया कि सालिम को अपना दूध पिला दो, जिससे यह तुम्हारे लिए महरम हो जाए। यह एक ऐतिहासिक घटना भले ही है, लेकिन तथ्य यह है कि बाद में किसी ने इसे तर्क के तौर पर पेश नहीं किया। इसकी वजह है। कुरान और हदीस से साबित है कि दूध पीने से एक बेटे का मां से जो रिश्ता कायम होता है, उसकी सीमा दो से ढाई साल है। किसी वयस्क को दूध पिला देने से मां-बेटे का रिश्ता कायम नहीं हो सकता। इसलाम में उसी दूध को मान्यता दी गई है, जिससे बच्चे में खून और गोश्त बने। साफ है कि अपनी महिला सहकर्मी का दूध पीने से उसका वयस्क सहकर्मी उसके बेटे के समान कतई नहीं होगा।
इस मामले को एक और संदर्भ में देखना उचित होगा। इसलाम के शुरुआती काल में नमाज फर्ज हो गई थी, लेकिन शराब हराम नहीं हुई थी। इस संदर्भ में बाद में दिशा-निर्देश आए कि नशे की हालत में नमाज नहीं पढ़ना चाहिए। ऐसे में, कोई यह तर्क नहीं दे सकता कि पहले लोग शराब पीकर नमाज पढ़ते थे, तो अब क्यों नहीं। दूध पिलाना ऐसा ही मामला है। दूध पिलाने को लेकर उलेमा ने लंबी-लंबी बहसें की हैं। अहले हदीस मत (मसलक) के, जिनके अनुयायियों का सऊदी अरब में शासन है, इमाम इब्ने तैमिया आदि इसके पक्ष में हैं, जबकि अन्य मसलकों के उलेमा ने इसका विरोध किया है।
बुनियादी सवाल यह है कि जब हम महिलाओं के मान-सम्मान को लेकर इसलाम का हवाला देते हुए कहते हैं कि इसने महिला को एक नई पहचान के साथ समाज में जीने का रास्ता दिखाया है, तो क्या उपरोक्त फतवा उसके जीवन में जहर नहीं घोलता? आखिर कोई कामकाजी औरत किसी पुरुष को दूध पिलाने के बारे में सोच भी कैसे सकती है? सीधी-सी बात है कि यह फतवा औरतों को मर्दों के मेल-जोल वाले माहौल में सुरक्षित काम करने का अवसर प्रदान करने के बजाय उनके साथ छेड़छाड़ की घटनाओं को बढ़ावा देने का संकेत देता नजर आता है।
  • खुर्शीद आलम

No comments:

Post a Comment