Monday, August 6, 2012

`सलमान खुर्शीद मिल्ली संगठनों को साइड लाइन करने की परम्परा छोड़ दें'


`अन्ना के आंदोलन को पब्लिक रिस्पांस की कमी' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' में सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में स्थिति की समीक्षा करते हुए लिखा है कि जंतर-मंतर पर अनशन कर रही टीम अन्ना के समर्थकों में लगातार कमी आ रही है, कम से कम अनशन स्थल पर भीड़ का अभाव है। भीड़ के लिए तरसते अन्ना के आंदोलन में थोड़ी जान बाबा रामदेव ने आकर पूंकी। इस दयनीय स्थिति के लिए टीम अन्ना खुद ही जिम्मेदार है। वह पहले दिन से न केवल भ्रमित दिख रही है बल्कि अपने भ्रम का प्रदर्शन कर रही है। पहले कहा गया कि जन लोकपाल के लिए आंदोलन है फिर स्टैंड बदल गया और केंद्र सरकार के 15 भ्रष्ट मंत्रियों को निशाने पर लाया गया। इस सूची में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह व तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को भी शामिल कर लिया गया। इससे जनता थोड़ी गुमराह हो गई और जनता में आंदोलन के प्रति थोड़ा मोह भंग हो गया। आम जनता इस भ्रष्टाचार से अच्छी तरह परिचित है और इस नतीजे पर पहुंचती जा रही है कि वर्तमान राजनीतिक माहौल में कोई ठोस सुधार नहीं हो सकता। जरूरत तो इस बात की है कि टीम अन्ना खुद आत्म मंथन करे कि आखिर क्यों जनता उनके आंदोलन से उत्साहित नहीं? क्यों यह उत्साह कम होता जा रहा है? अन्ना आंदोलन में भीड़ की कमी से बेशक सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी प्रसन्न होगी पर उसे यह नहीं समझना चाहिए कि भ्रष्टाचार का मुद्दा ही समाप्त हो गया है। भ्रष्टाचार से निपटने में यह सरकार पहले भी असफल थी और आज भी है।
`बर्मा के मुसलमानों से सबक लो' के शीर्षक से मोहम्मद आसिफ इकबाल ने दैनिक`जदीद मेल' में  लिखा है कि बर्मा के मुसलमान प्राचीन नाम `रोहंग' की बुनियाद पर खुद को `रोहंगिया' कहलाते हैं। यह यहां के असली नागरिक हैं और 2006 में एक अनुमान के अनुसार इनकी संख्या 30 फीसदी से भी अधिक थी। बर्मा के रोहंगिया के मुसलमानों की संख्या 8 लाख है जो नागरिकता के अधिकार से भी वंचित कर दिए गए हैं और उन्हें गंदी बस्तियों तक सीमित कर दिया गया है जिनमें वह जानवरों से भी खराब जिंदगी गुजार रहे हैं। शाहजहां का बेटा शाह शुजा औरंगजेब से पराजित होकर बर्मा भाग गया। अहिंसा के प्रचारक बौद्ध बादशाह ने इसकी मजबूरी का फायदा उठाते हुए पनाह देने के बदले उसकी दौलत और बेटी मांगी थी। इंकार पर इसी अहिंसक बादशाह ने शाह शुजा के सभी साथियों की हत्या कर दी थी। 17वीं सदी में हुए इस नरसंहार के बाद से आज तक मुसलमानों की किसी न किसी बहाने हत्या का सिलसिला जारी है। बर्मा जिसे बौद्ध राज्य कहा जाता है, में मुसलमानों को मोबाइल फोन इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध है जिसके पास मोबाइल फोन पकड़ा गया उस पर 10 साल और 25 लाख रुपये जुर्माना किया जाता है। इस के विपरीत बौद्धों और मगों को इसकी खुली छूट है। मोबाइल के इस्तेमाल पर अब तक हजारों मुसलमानों को शहीद किया जा चुका है। यह घटनाएं उन बौद्धों की हैं जिनके मत में जानवरों और कीड़ों तक को मारना बुरा समझा जाता है। वहां मुसलमानों को इस आधार पर मारा जा रहा है कि वह मुसलमान हैं।
`सलमान खुर्शीद वक्फ विधेयक को हलके में न लें' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज'में आमिर सलीम खां ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि पार्टी हाई कमान ने मिल्ली एवं सामाजिक संगठनों के सुझावों के बिना वक्फ संशोधन विधेयक को संसद में पेश न करने की हिदायत दी है। मंत्री महोदय से कहा गया है कि यदि वक्फ संशोधन विधेयक 2010 में संगठनों के सभी सुझावों के लिए और समय चाहिए तो संसद के मानसून सत्र में इस विधेयक को पटल पर रखने की कोई जल्दी नहीं होनी चाहिए बल्कि वक्फ जायदादों के संरक्षण के लिए उचित कानून की जरूरत है। ज्ञात रहे वक्फ संशोधित विधेयक 27 अप्रैल 2010 को जल्दबाजी में लोकसभा से पास कराया गया था लेकिन जब वह विधेयक राज्यसभा के पटल पर रखा गया तो उसका कड़ा विरोध हुआ जिसके नतीजे में अगस्त 2010 को विचार-विमर्श हेतु सलेक्ट कमेटी के हवाले कर दिया गया। तथा कथित तौर पर सलमान खुर्शीद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीअत उलेमा हिंद, आल इंडिया मिल्ली काउंसिल, आल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत, मुस्लिम पालिटिकल काउंसिल आफ इंडिया, वकीलों का संगठन सामना, नेशनल हेरीटेज प्रोटेक्शन काउंसिल और विशेष रूप से पर्सनल लॉ बोर्ड के सुझावों को रद्दी की टोकरी में डाल देना चाहते हैं। जिसके लिए उन्हें पार्टी हाई कमान की ओर से सरल भाषा में समझा दिया गया है कि वह मिल्ली संगठनों को साइड लाइन करने की अपनी परम्परा को छोड़ दें।
`कोकराझार में लीपापोती से काम नहीं चलेगा, समस्या का हल निकालना चाहिए' के शीर्षक से दैनिक `अखबारे मशरिक' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि 20 जुलाई को असम के कोकराझार में  बोडो और मुसलमानों के बीच हुई हिंसक घटना को लेकर राज्य के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई को हर तरफ से निशाना बनाया जा रहा है कि इनकी सुस्ती और लापरवाही से कोकराझार के दंगे बड़ी तेजी से बढ़े और अन्य जिलों को भी अपनी चपेट में ले लिया एवं स्वयं कोकराझार पहुंचने के बजाय उन्होंने कई मंत्रियों को वहां भेज दिया जो वहां जमे रहे। मुख्यमंत्री के कहने में यह बड़ी सच्चाई है कि केंद्र सरकार ने फौज भेजने में देरी की एवं केंद्रीय गुप्तचर एजेंसी ने भी अपने दायित्व को पूरी तरह नहीं निभाया और सरकार को फीड बैक नहीं दिया। बोडो और स्थानीय मुसलमानों में नस्ली और सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास बहुत पुराना है। यही कारण है कि मामूली बात पर भी हिंसा भड़क उठती है और स्थिति काबू से बाहर हो जाती है। इसका वास्तविक हल यह है कि मुसलमानों और बोडो के आपसी संबंधों में बिगाड़ के  बजाय दोस्ती पैदा करने की कोशिश की जाए और शांति व्यवस्था को सौ फीसदी निश्चित किया जाए। फौज तो शांति स्थापना के बाद वहां से चली जाएगी। यह स्थानीय पुलिस का कर्तव्य होगा कि वह जख्मी दिलों पर मरहम रखे इसके बिना सांप्रदायिक सौहार्द नहीं हो सकता।
दैनिक `राष्ट्रीय सहारा' ने `विषय बहुत सही, तरीका बिल्कुल गलत' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में अन्ना अनशन पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि अन्ना ने जो मुद्दे उठाए हैं, वह हर भारतीय की हृदय की आवाज है। लेकिन इन समस्याओं, मुद्दों को सरकार से मनवाने के लिए अन्ना हजारे और उनकी टीम ने जो रणनीति अख्तियार की है, आम भारतीय उसे सही नहीं समझता है। वैसे भी अन्ना टीम कई अंदरूनी विरोधाभास के साथ मैदान में उतरी है। एक तरफ तो उसके पुराने साथी दूर-दूर नजर नहीं आ रहे हैं जिन्होंने इंडिया अगेंस्ट करप्शन को परवान चढ़ाया। आज आमिर खां, संतोष हेगड़े और स्वामी अग्निवेश न केवल अनुपस्थित हैं बल्कि अभी तक उन्होंने अन्ना हजारे के समर्थन में कोई बयान भी जारी नहीं किया है। दूसरी तरफ अन्ना तहरीक के एक बड़े समर्थक नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा कर रहे हैं। अन्ना हजारे खुद भी एक बार नरेन्द्र मोदी की तारीफ का नतीजा भुगत चुके हैं। इसलिए अब कोई दूसरा विवाद नहीं चाहते। अन्ना तहरीक से जुड़े एक समर्थक द्वारा नरेन्द्र मोदी की तारीफ करने से यह सवाल खड़ा हो गया है कि यह पूरी तहरीक किसी विशेष राजनीतिक मकसद से तो नहीं चलाई जा रही है।

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