Sunday, August 5, 2012

`मुसलमान आतंकवादी नहीं, आतंकवाद के शिकार हैं'


`उत्तर  प्रदेश में दंगाइयों के लिए छूट क्यों' के शीर्षक से दैनिक `इंकलाब' यूपी के ब्यूरो चीफ फजुलुर्रहमान ने अपने लेख में उत्तर प्रदेश की सांप्रदायिक हिंसा, आगजनी और सरकार की सुस्ती एवं लापरवाही पर चर्चा करते हुए लिखा है कि प्रतापगढ़ प्रशासन ने यदि प्रवीण तोगड़िया को सभा करने की इजाजत नहीं दी थी तो उन्हें रोकने की कार्यवाही की जानी चाहिए थी या फिर दलित बस्ती में कुछ समय के लिए जाने की इजाजत देकर वापसी की व्यवस्था करनी चाहिए था लेकिन हुआ यह कि प्रवीण तोगड़िया और इसके साथ 10 हजार से अधिक की भीड़ अस्थान गांव पहुंच गई और पुलिस के मात्र दो-चार जवान ही मौजूद थे। वहां जो कुछ हुआ उसे स्थानीय लोगों ने बयान करते हुए कहा कि शांति व्यवस्था नाम की कोई चीज नजर नहीं आती। रोजा रखे हुए 10/20 मुसलमान दरगाह में दुबके बैठे थे और अपनी खैर मना रहे थे। आतंक पैदा करने वालों को समाजवादी पार्टी की सरकार और उसकी पुलिस एवं प्रशासन से ऐसी छूट और ऐसी आजादी आश्चर्यजनक है। ऐसे अराजक माहौल में यह आशा रखना कि प्रवीण तोगड़िया के खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज किया गया होगा, बेकार है। इसके विपरीत अपने घरों को लौटने वाले पीड़ितों के पुनर्वास में रुकावटें खड़ी की जा रही हैं। जिन आतंकियों ने आग लगाई उनके खिलाफ नामजद मुकदमा दर्ज होने के बावजूद उनकी गिरफ्तारी नहीं हो रही है और अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि यह सांप्रदायिक तत्व अपने आकाओं की मदद से अस्थान गांव के पीड़ितों का जीवन मुश्किल किए हैं। इससे तो यही अंदाजा होता है कि सरकार कहीं न कहीं किसी दबाव में काम कर रही है।
`दंगा पर रोक लगाइए' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल'  ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि उत्तर प्रदेश और असम में दंगों की आग भड़कने के बाद यह स्पष्ट है कि भारत में एक बार फिर से दंगों की राजनीति शुरू हो चुकी है। सांप्रदायिकता की राजनीति करने वालों ने खुद को मुस्लिम संरक्षक कही जाने वाली कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के अधीन दंगों की राजनीति कर मुसलमानों के साथ-साथ इन दोनों पार्टियों को भी निशाना बनाया है। 2004 में यूपी सरकार के बाद देश में दंगों का सिलसिला लगभग टूट गया था। लेकिन दंगों की वापसी ने फिर देश में चिन्ताजनक स्थिति पैदा कर दी है। इस संदर्भ में खुद को सेक्यूलर कहने वाली कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का यह दायित्व है कि  वह अपने-अपने शासित राज्यों में सांप्रदायिकता से निपटे और दंगों पर रोक  लगाए। यदि यह पार्टियां ऐसा नहीं करती हैं तो 2014 में मुसलमान नाराज होकर घर बैठ जाएंगे और इन दोनों  पार्टियों को नुकसान होगा जो संघ और भाजपा के लिए हितकारी होगा।
`मुसलमान आतंकवादी नहीं, आतंकवाद के शिकार' के शीर्षक से दैनिक `हमारा समाज'में यूसुफ रामपुरी ने अपने समीक्षात्मक लेख में लिखा है कि इसमें संदेह नहीं कि आतंकवाद के शिकार दुनिया के सभी वर्ग हैं लेकिन सबसे ज्यादा इसका शिकार मुसलमान हैं। मुसलमानों पर यह आरोप इतनी बार लगाया गया कि मुसलमानों के अतिरिक्त सभी वर्ग अब उन्हें आतंकवादी ही ख्याल करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी छवि को आतंकवाद के तौर पर पेश की गई है। लेकिन यदि इस आरोप का विश्लेषण किया जाए तो सच्चाई सामने आती है कि मुसलमान आतंकवादी नहीं बल्कि आतंकवाद के शिकार हैं। कहीं इनका कबाइली आतंक का सामना है, कहीं सांप्रदायिक एवं नस्ल परस्ती पर आधारित आतंक का सामना है तो कहीं धार्मिक कट्टरता का सामना है और कहीं राज्य आतंक का सामना है। विश्व ताकतें जिस तरह उन पर अत्याचार कर रही हैं उसे आतंकवाद की श्रेणी से अलग नहीं माना जा सकता। इसके अलावा विभिन्न स्थानों और विभिन्न देशों में विभिन्न कौमें मुसलमानों के साथ भेदभाव करते हुए उन्हें सांप्रदायिकता की आग में झोंक रही हैं, उसे भी आतंकवाद से अलग नहीं किया जा सकता। `मुसलमानों की गिरफ्तारी के लिए अपहरण का तरीका ही बहुत कुछ बता देता है' के शीर्षक से `सह रोजा दावत' ने लिखा है कि इसका मकसद मुसलमानों को सजा दिलाना नहीं बल्कि उन्हें बदनाम करके उनका जीना मुश्किल करना और पूरे परिवार एवं मुस्लिम बहुल क्षेत्र को तबाह करना होता है। एक और मामले में 12 साल तक बिना किसी जुर्म के जेल की सजा काटकर 6 मुस्लिम युवक बाइज्जत बरी हुए लेकिन अफसोस कि उनकी रिहाई न तो खबर बन सकी और न कुसूरवार पुलिस वालों के खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की गई। राष्ट्रीय मीडिया जो मुसलमानों की गिरफ्तारी की खबर को बढ़ाचढ़ा कर छापने में एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करता है उपरोक्त घटना की इस तरह अनदेखी की गई जैसे कुछ हुआ ही नहीं। 12 वर्ष पूर्व जब प्रतिबंधित एसआईएम को बदनाम करने की सरकारी मुहिम अपनी चरम सीमा पर थी, मस्जिदों पर एक पोस्टर चिपकाने के मामले पर इतना शोर मचाया गया जैसे देश पर पहाड़ टूट पड़ा है। मध्य प्रदेश पुलिस ने 6 मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार किया। गिरफ्तार युवकों का मुकदमा लड़ रहे परवेज आलम का कहना है कि इस केस में शुरू से खामियां रहीं। एक तो झूठे आरोप लगाए गए और पांच साल बाद चार्जशीट दाखिल की गई। मुकदमे में अलग से चार्ज भी गलत तरीके से लगाया गया। इस तरह 6 आरोपियों को कोई जुर्म न करने के आरोप में 12 साल जेल की सजा काटनी पड़ी। पुलिस यह साबित नहीं कर सकी कि इनका सिमी से कोई संबंध था और न वह यह स्पष्ट कर सकी कि मस्जिद पर लगाया गया पोस्टर का मैटर देशद्रोही था।
`कांग्रेस किस हद तक गठबंधन धर्म निभाने को तैयार है?' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप'के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि संप्रग सरकार की समस्याएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। एक तरफ तो सरकार के गठबंधन साथियों ने सरकार और कांग्रेस पार्टी की नाक में दम कर रखा है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस के अन्दर भी अब घमासान मच गया है। राकांपा पहले से ही नाराज चल रही है और अब तो उसके नेताओं ने कांग्रेस नेतृत्व को चुनौती देना आरम्भ कर दी है। शरद पवार के नेतृत्व वाली पार्टी ने यह भी संकेत दिया है कि अगर वह केंद्र सरकार से अलग होते हैं तो उसका असर महाराष्ट्र गठबंधन पर भी पड़ेगा। राकांपा महाराष्ट्र में कांग्रेस सरकार के साथ 13 साल से गठबंधन में है। अभी यह तकरार थमी भी नहीं थी कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ उन ही के कांग्रेस विधायकों ने उनकी शिकायत हाई कमान से कर दी। कांग्रेस की मुश्किल यह होती जा रही है कि पार्टी को केंद्र और प्रादेशिक स्तर पर परस्पर विरोधाभासी राजनीति से जूझना पड़ रहा है।

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