Sunday, August 5, 2012

पुलिस थानों में मुस्लिम पुलिसकर्मियों की तैनाती टेढ़ी खीर


केंद्रीय गृह सचिव द्वारा सच्चर सुझावों पर अमल करने हेतु मुस्लिम बहुल क्षेत्रों के थानों में पुलिस इंस्पेक्टर तैनात करने का आदेश दिल्ली पुलिस के समीप एक गंभीर समस्या बनी हुई है क्योंकि पुलिस विभाग में इतनी संख्या में मुस्लिम इंस्पेक्टर नहीं हैं। इस पर चर्चा करते हुए दैनिक `हमारा समाज' में आमिर सलीम खां ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि दिल्ली पुलिस के रिकार्ड के अनुसार दिल्ली में कुल 83 हजार पुलिसकर्मी हैं इसमें अल्पसंख्यक समुदाय का हिस्सा 1.8 फीसदी है जिसमें मुसलमानों की संख्या मात्र 1500 है। आश्चर्यजनक बात यह है कि 1978 में बनाए गए दिल्ली पुलिस आयुक्त के पद पर आज तक एक भी मुसलमान नहीं पहुंच सका है। दिल्ली के 11 जिलों में बहुत सी ऐसी कालोनियां हैं जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं लेकिन इन क्षेत्रों के थानों में एक भी मुस्लिम इंस्पेक्टर नहीं है। केवल जामा मस्जिद थाने में 9 सब-इंस्पेक्टर मुस्लिम हैं। काबिले गौर बात है कि दिल्ली के कुल 186 थाने, 181 एडिशनल एसएचओ, 180 इंस्पेक्टर एटीओ हैं। पुलिस ने थानों के लिहाज से दिल्ली को 11 जिलों में बांटा है जिनमें कुल 172 थाने हैं और लगभग हर चार थानों को कंट्रोल करने के लिए एक एसीपी को तैनात किया गया है। इस लिहाज से दिल्ली में कुल 56 एसीपी हैं। क्राइम पर काबू पाने के लिए सरकार ने कुल 186 थाने बनाए हैं। पुलिस का कहना है कि मुस्लिम युवक पुलिस में भर्ती के लिए नहीं आते जबकि मुस्लिम वर्ग का कहना है कि तैनाती और प्रमोशन में भेदभाव होता है इसलिए मुस्लिम युवक नहीं आ पाते हैं।
पाकिस्तान द्वारा सरबजीत की रिहाई की घोषणा और फिर अपने बयान से पलटकर सुरजीत सिंह कि रिहाई पर हैदराबाद से प्रकाशित दैनिक `मुनसिफ' ने `राष्ट्रपति फैसला या मजाक?' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि अब बात सुरजीत या सरबजीत की रिहाई की नहीं बल्कि पाकिस्तान सरकार की कार्यप्रणाली की है। इसको यदि चुनी सरकार की मजबूरी व बेबसी कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा। पाकिस्तान सरकार ने इस मामले को `उलझन' बताते हुए इसे मामूली बनाने की कोशिश की है लेकिन वास्तव में यह इतना मामूली नहीं है। सबसे पहला सवाल यह पैदा होता है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति को सुरजीत की रिहाई के लिए आदेश जारी करने की जूरत क्यों पड़ी। सुरजीत 1982 से पाकिस्तान की जेल में है इसकी सजा-ए-मौत को 1989 में बेनजीर के दौर में राष्ट्रपति गुलाम इसहाक खां ने उम्र कैद में बदल दी थी और इसकी उम्र कैद की सजा तो पांच साल पूर्व 2008 में खत्म हो गई लेकिन इसे रिहा नहीं किया गया। यदि सुरजीत को रिहा करना था तो किसी अदालत द्वारा यह प्रक्रिया पूरी की जाती इसके लिए राष्ट्रपति को किसी आदेश की जरूरत ही नहीं थी। दूसरे यह बयान में `माफी' का शब्द इस्तेमाल किया गया। शब्द इस तरह थे `सरबजीत सिंह की सजा-ए-मौत को माफ करते हुए उम्र कैद में तब्दील कर दिया गया और चूंकि इसने 14 साल कैद में गुजार दिए हैं लिहाजा इसे रिहा किया जाता है।' जबकि सुरजीत के साथ ऐसा कोई मामला ही नहीं है, यह तो स्पष्ट रूप से सरबजीत सिंह से संबंधित आदेश थे। इतनी बड़ी गलती के पीछे राज क्या है?
खुद पाकिस्तान के समीक्षकों एवं टिप्पणीकारों का मानना है कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने अपना फैसला आईएसआई और फौज के दबाव में बदला है। बेहतर होता कि राष्ट्रपति भवन अपना फैसला देने से पूर्व आईएसआई और फौज से मशविरा कर लेता।
लखनऊ के वरिष्ठ स्तम्भकार हफीज नोमानी ने `क्या सरकार चलाने का तरीका एक ही है?' के शीर्षक से लिखा है कि बटला हाऊस मुठभेड़ की जांच से जब शीला दीक्षित और पी. चिदम्बरम ने इंकार कर दिया तो जिन मुसलमानों को सबसे ज्यादा तकलीफ हुई उनमें समाजवादी सरकार में मंत्री नम्बर दो आजम खां भी थे। आज जब प्रतापगढ़ के एस्थान घटना की जांच और मुसलमानों की बर्बादी की जांच की मांग हिन्दू नेताओं ने की तो सबसे ज्यादा जोर से इंकार करने वाले भी आजम खां हैं। वह फरमाते हैं कि हम पीड़ितों को पक्का मकान बनाकर देंगे जिनमें एक कमरा, एक किचन और एक बाथरूम होगा। फारसी की एक मशहूर कहावत है कि जब तक इराक से जहर की काट आएगी जहरीले सांप का काटा मर जाएगा। शायद आजम खां भी यही चाहते हैं कि सारे पीड़ित मकान का सपना देखते-देखते पांच साल गुजार दें। एस्थान नामी गांव में हुई घटना के बाद जी चाहता है कि यूपी के मुस्लिम विधायकों का एक प्रतिनिधिमंडल मुलायम सिंह से मिले और उनसे कहे कि वह घोषणा पत्र में किया हुआ वादा न पूरा करें। न मुस्लिम लड़कियों को लैपटॉप दें, न ही 30 हजार रुपये दें और न ही बेरोजगारी भत्ता दें। केवल इतना करें कि मुसलमान सिपाहियों और अधिकारियों को मुसलमानों की सुरक्षा का अधिकार दे दें और उनकी संख्या आबादी के अनुपात में कर दें और उन बेगुनाह मुसलमानों को जेल से रिहा कर दें जो बेगुनाह और मासूम हैं जिसे राज्य की पुलिस, सीआईडी और एटीएस सब जानते हैं।
`भारतीय संविधान धार्मिक बुनियादों पर आरक्षण की इजाजत नहीं देता यह अफसाना है या हकीकत?' के शीर्षक से इलाहाबाद हाई कोर्ट के वकील सैयद फरमान अहमद नकवी ने दैनिक `इंकलाब' में प्रकाशित अपने शोधपूर्ण लेख में लिखा है कि यह जानकर आश्चर्य होगा कि जब इस बाबत अधिसूचना 1950 में जारी की गई तो इसने धार्मिक बुनियादों पर आरक्षण को संविधान की धारा 15 का पूर्ण रूप से उल्लंघन कर दिया। हमारी सरकार ने धार्मिक बुनियादों पर आरक्षण की इजाजत संविधान की धारा 341 को इस्तेमाल करते हुए दी है।
यह धारा मंजूरी देती है कि अलग-अलग जाति को स्पष्ट कर उनको उस सूची में जोड़ दिया जाए जो राष्ट्रपति तैयार करता है और जो अधिसूचना द्वारा जारी करता है। अधिसूचना 1950 के पैरा-2 में कहा गया है। `इसके बावजूद जो कोई भी हिन्दू व सिख या बौद्ध धर्म के अतिरिक्त कोई भी धर्म से संबंध रखता है वह इस सूची में शामिल होने के योग्य नहीं समझा जाएगा।'
`बीजापुर मामले की अदालती जांच हो' के शीर्षक से दैनिक `जदीद मेल' ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में 17 माओवादियों की मौत को लेकर मीडिया में जो खबरें आ रही हैं उसके अनुसार इस क्षेत्र में मारे जाने वाले व्यक्ति माओवादी नहीं बल्कि गांव के मासूम लोग थे। जो इस क्षेत्र की परम्परा के अनुसार एक कबाइली परम्परा का निर्वाह करने के लिए एकत्र हुए थे। मारे गए लोग माओवादी थे या नहीं, इसका फैसला जांच के बाद ही हो सकता है लेकिन इस सिलसिले में दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर विचार करना जरूरी है कि सीआरपीएफ की गोली का निशाना बने लोगों की जांच खुद सीआरपीएफ को ही करनी चाहिए। इस सिलसिले की दूसरी अहम बात एनकाउंटर की है। यह शब्द इतना संदिग्ध हो चुका है कि अब किसी को इस पर विश्वास नहीं आता। अदालतों और अदालत के बाहर दर्जनों एनकाउंटरों के मामलों में यह तय हो चुका है कि एनकाउंटर के नाम पर पुलिस अक्सर मासूम व्यक्तियों का बेदर्दी से कत्ल करती है।

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