Sunday, August 5, 2012

`खबर' का विश्लेषण करने के सवाल पर उर्दू सम्पादक बगले झांकता नजर आया


नेशनल काउंसिल फार प्रमोशन आफ उर्दू लैंग्वेज (एनसीपीयूएल) द्वारा उर्दू पत्रकारों के लिए जम्मू कश्मीर में गत दिनों वर्पशाप आयोजित किए जाने पर एक हिंदी अखबार ने इसमें शामिल दिल्ली के पत्रकारों की सूची देखकर यह टिप्पणी प्रकाशित की थी कि यह सरकारी पैसे पर मनोरंजन करना है जो वर्पशाप के मकसद से दूर है। उर्दू के एक बड़े अखबार जिसे एक हिंदी अखबार ने खरीदा है, से  दो लोगों को कश्मीर ले जाना सरकारी पैसे का दुरुपयोग है। वर्पशाप उर्दू पत्रकारों का था जिसमें कुछ सम्पादक भी शरीक हो रहे थे इसलिए किसी उर्दू अखबार ने इस वर्पशाप की आलोचना नहीं की लेकिन अब दैनिक`जदीद खबर' ने श्रीनगर के मुशरफ अहमद की पहले पेज पर विशेष रिपोर्ट प्रकाशित कर हिंदी अखबार के संदेह की पुष्टि कर दी है। `श्रीनगर के पत्रकार वर्पशाप में काउंसिल को शर्मिंदगी का सामना, बड़े दैनिक का सम्पादक खबर का विश्लेषण करने के सवाल पर बगले झांका नजर आया' के शीर्षक से मुशरफ अहमद ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि एनसीपीयूएल ने कश्मीर यूनिवर्सिटी के  पत्राचार विभाग  के सहयोग से उर्दू पत्रकारों के लिए सात दिवसीय वर्पशाप आयोजित की थी जिसमें दिल्ली के कुछ उर्दू अखबारों के सम्पादकों का चयन विशेषज्ञों के तौर पर किया गया था लेकिन इनमें से केवल एक पत्रकार के अलावा कोई भी इस योग्य नहीं था कि वह पत्रकारिता के विभिन्न पहलुओं से अच्छी तरह परिचित हो। यही कारण है कि वर्पशाप के दौरान कई ऐसे सवालात उठाए गए जिनका यह `विशेषज्ञ पत्रकार' संतोषजनक उत्तर देने में असमर्थ रहे। इसी तरह जब दिल्ली के एक बड़े अखबार के सम्पादक से `खबर' का विश्लेषण करने के बारे में पूछा गया तो सम्पादक महोदय बगले झांकने लगे। याद रहे काउंसिल ने दो बड़े दैनिक के सम्पादकों के अलावा एक शिक्षिका, एक ऐसे सम्पादक जिसे खुद उर्दू पढ़ना नहीं आती, एक बड़े अखबार से जुड़े एक पत्रकार जिनकी योग्यता केवल मसलकी (पंत) है को विशेषज्ञ के तौर पर चयन किया था और इस सिलसिले में काउंसिल के नए डायरेक्टर ने अपनी ही मीडिया कमेटी से कोई सुझाव लेना जरूरी नहीं समझा।
दैनिक `सहाफत' ने `वाह मुसलमानों! कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने पर लगा दी पाबंदी' के शीर्षक से पहले पेज पर प्रकाशित खबर में लिखा है कि उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के सखेड़ के  मुस्लिम बहुल गांव नराना की पंचायत ने एक आदेश जारी किया है जिसमें 30 वर्षों में आकर रहने वाले लोगों को कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने में पाबंदी लगा दी है। सखेड़ा थाने के अंतर्गत मुस्लिम बहुल गांव नराना में 52 बीघे का कब्रिस्तान है। गत दिनों विवाद के चलते इस कब्रिस्तान को तीन हिस्सों में विभाजित किया गया। एक भाग में तेली, धनी दूसरे में जुलाहे और तीसरे में गाढ़ा बिरादरी के मुर्दों को दफने करने पर सहमति हुई थी लेकिन तीन दिन पहले फिर से विवाद गहरा गया। बताया जाता है कि गत कुछ वर्षों में बाहर से आकर रहने वालों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है उसको लेकर कब्रिस्तान में मुर्दा दफन करने के लिए जगह कम पड़ गई है। इसी पर गांव में ग्राम प्रधान तैयब अली और पूर्व प्रधान सलीम की उपस्थिति में पंचायत बुलाई गई जिसमें फैसला किया गया कि जो लोग 30 वर्षों के अंदर यहां आकर बसे हैं उनके मुर्दों को कब्रिस्तान में दफन करने नहीं दिया जाएगा।
`पश्चिमी बंगाल में मुस्लिम आरक्षण...कितनी हितकारी?' के शीर्षक से कोलकाता से प्रकाशित दैनिक `आजाद हिंद' में अशफाक अहमद ने अपने विश्लेषण में लिखा है कि पश्चिमी बंगाल में सरकारी नौकरियों में दस फीसदी आरक्षण की खबर पर मुसलमानों ने खुशी जाहिर की थी लेकिन जब आरक्षण लागू करने का आर्डर सामने आया तो सारी खुशी काफुर हो गई। आरक्षण के लिए जो ए कैटेगरी है उसमें 65 जाति हैं जिसमें मुसलमानों के साथ गैर मुस्लिम भी हैं। इसी तरह कैटेगरी बी में भी 78 जातियां हैं। आम सोच यह थी कि ओबीसी आरक्षण के लिए कैटेगरी ए और बी का मकसद यह है कि एक कैटेगरी मुसलमानों के लिए विशेष होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जानकारों के अनुसार ममता सरकार और पूर्व की वाम मोर्चा सरकार के आरक्षण विधेयक में फर्प केवल इतना है कि नई सरकार ने आरक्षण के लिए बनाई ए और बी कैटेगरी में 21 मुस्लिम जातियों को शामिल किया है। इस कानून का फायदा केंद्र की किसी नौकरी में नहीं होगा इसके अलावा उच्च न्यायिक पदों, प्राइवेट सेक्टर और सिंग्ल पोस्ट कैडर में भी यह  लागू नहीं होगा।
`असारा की मुस्लिम पंचायत' के फैसले को सही बताते हुए वरिष्ठ पत्रकार सैयद मंसूर आगा ने दैनिक `जदीद मेल' के अपने लेख में लिखा है कि यहां की पंचायत ने जो फैसला किया है वह सही है। उदाहरण के तौर पर कोई युवा महिला अकेले बाजारों में न घूमती फिरे और यदि घर से निकले तो चादर ओढ़कर निकले ताकि शरीर के अंग ढके रहे। यह तरीका शरीअत के मुताबिक और हमारे सामाजिक मूल्यों के अनुरूप है। इसलिए बिना संकोच महसूस किए हमें यह कहना चाहिए कि इन पर आपत्ति गलत है। गोहाटी में एक महिला के साथ जो कुछ घटित हुआ उसके बाद राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ममता शर्मा ने भी हमारी बहनों, बेटियों और बहुओं को यही सुझाव दिया है।
साप्ताहिक `नई दुनिया' ने `क्या बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद के कैम्पों को हासिल है चिदम्बरम का आशीर्वाद?' के शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में  लिखा है कि यदि हवा का झोंका चलता है और पत्ते खड़कते हैं तो सरकार को मालूम हो जाता है लेकिन सरकार को इसकी जानकारी नहीं है कि इसकी नाक के नीचे राइफलों से फायरिंग करने की ट्रेनिंग दी जा रही है, गोलियां चलने की आवाजें मीडिया के लोग सुन रहे हैं लेकिन प्रशासन के कानों में कोई आवाज नहीं आ रही है। सवाल यह कि आखिर हथियार चलाने की यह ट्रेनिंग क्यों दी जा रही है, सांप्रदायिकों की एक पैरालेल फौज क्यों बन रही है जाहिर है यह सब कुछ नेक नीयते पर आधारित नहीं है। मकसद यही है कि मुसलमानों पर हमले की तैयारी पूरी कर ली जाए और जब भी मौका मिले तो इसमें किसी तरह की चूक न होने पाए।
`ओबामा की टिप्पणी इतनी बुरी क्यों  लग रही है' के शीर्षक से दैनिक `प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में चर्चा करते हुए लिखा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत की आर्थिक प्रगति को लेकर की गई टिप्पणी का भारत सरकार ने बुरा माना है। देखा जाए तो ओबामा ने कोई बात नहीं की। यही बात भारत की कारपोरेट लाबी बहुत दिनों से कर रही है। लगभग यही बात गत दिनों अमेरिकी पत्रिका टाइम ने भी कही थी। हैरानी है कि इसी अमेरिकी लाबी की नीतियों पर यह सरकार आज तक चलती आ रही है आज इन्हें बुरा क्यों  लग रहा है? मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह खुद अमेरिकी समर्थक हैं, आज ओबामा की बात क्यों चुभ रही है?

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