Sunday, November 18, 2012

`बढ़ती महंगाई के कारण गरीब को दो वक्त की रोटी के लाले'


`बढ़ती महंगाई के कारण गरीब को दो वक्त की रोटी के लाले' के शीर्षक से दैनिक`प्रताप' के सम्पादक अनिल नरेन्द्र ने अपने सम्पादकीय में लिखा है कि डीजल के दामों में वृद्धि का असर अब महंगाई पर दिखने लगा है और बुरी खबर यह है कि महंगाई की मार से पस्त हो चुके आम लोगों को निकट भविष्य में भी इससे निजात मिलने की खास संभावना नहीं है। उलटे आशंका है कि डीजल और पेट्रोल के दाम और बढ़ाने की तैयारी हो रही है और खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतें अभी और बढ़ेंगी। कीमतों में हुई इस वृद्धि के बाद सितम्बर में थोक मूल्यों पर आधारित महंगाई दर 7.81 फीसदी पर पहुंच गई है। अगस्त में यह 7.55 फीसदी थी। एसोचैम के मुताबिक आठ महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थों जिनमें दालें, गेहूं, चीनी, खाद्य तेल और दूध शामिल हैं, के दाम सितम्बर 2011 से सितम्बर 2012 के मध्य तक 18 फीसदी बढ़े जबकि इसकी तुलना में औसत आय बमुश्किल 10 फीसदी बढ़ी है। उद्योग मंडल द्वारा अपने अध्ययन में यह रेखांकित करना महत्वपूर्ण है कि आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति पक्ष की कमजोरी महंगाई की भयावहता को बढ़ा रही है।
इसकी एक बड़ी वजह कमजोर मानसून को भी बताया गया लेकिन इसके निदान हेतु यदि कदम उठाए भी गए तो उसका नतीजा महंगाई पर कहीं नजर नहीं आया। हमारा मानना है कि इस संप्रग सरकार की प्राथमिकताएं सही नहीं हैं। इसका एक उदाहरण मौजूदा आर्थिक विकास माडल में कृषि क्षेत्र की हो रही लगातार अनदेखी है।
कौमी काउंसिल बराए फरोगे उर्दू जुबान (नेशनल काउंसिल फार प्रमोशन आफ उर्दू लैंग्वेज) की कार्यप्रणाली पर केके खुल्लर की आलोचना के बाद उर्दू मासिक आईटी `नई शनाखत' के  पूर्व सम्पादक फिरोज हाशमी ने काउंसिल पर टीका टिप्पणी करते हुए लिखा है कि 1998 में जब काउंसिल डायरेक्टर ने काउंसिल से प्रकाशित नूरुल लुगात (शब्द कोश) को इन पेज उर्दू साफ्टवेयर में शामिल करने को कहा था और उस समय इन पेज से संबंधित उर्दू का काम मेरे जिम्मे था, मेरे पास आया तो मैंने इसके अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला कि यह शब्द कोश विश्वस्तरीय उर्दू साफ्टवेयर इन पेज में शामिल करने लायक नहीं है। इस नोट के साथ मैंने इस शब्द कोश के चारों खंड काउंसिल को वापस कर दिए। काउंसिल आज तक खुद भी कोई गुणवत्ता वाला साफ्टवेयर तैयार नहीं कर सकी है जिससे उर्दू प्रकाशन में उल्लेखनीय फर्प आया हो। हद तो यह है कि इन पेज उर्दू के लिए उर्दू में जो मैनवेल हमने तैयार किया था उसे कई व्यक्ति और संस्थान किताबी शक्ल में छाप रहे हैं। खुद काउंसिल भी अपने छात्रों के लिए इन पेज की गाइड बुक तैयार नहीं कर सकी है। 2000 में यह बात सामने आई कि जिस व्यक्ति ने काउंसिल की नौकरी के दौरान इन पेज मैनवेल को काट छांट कर गाइड बुक तैयार की थी, वही इसे फिर से भुनाने की कोशिश कर रहा है। यदि वह गाइड बुक इतनी ही गुणवत्ता वाली थी तो काउंसिल ने एक संस्करण के बाद उसे दोबारा क्यों नहीं छापा और इन पेज के मैनवेल को छाप कर क्यों इस्तेमाल कर रही है?
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को ब्रिटेन और अमेरिका द्वारा वीजा दिए जाने के समाचार पर `सहरोजा दावत' ने पहले पेज पर प्रकाशित `दंगों के दाग धुले नहीं तो संबंधों की बहाली क्यों?' के शीर्षक से अपनी समीक्षा में लिखा है कि गुजरात में विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद ब्रिटिश सरकार ने 2002 के गुजरात दंगों को जो वास्तव मुस्लिम नरसंहार थे, को बाई-बाई करते हुए नरेन्द्र मोदी को गुड मार्निंग कहा है और नए सिरे से संबंध बनाने के लिए पैंगे बढ़ाई हैं। नरेन्द्र मोदी को अमेरिका या ब्रिटेन के दौरे का वीजा देने पर पाबंदी की मांग न तो हिन्दुस्तानी मुसलमानों ने की थी और न इस फैसले में उनकी कोई भूमिका थी। यह उन देशों का अपना फैसला था। इसलिए मुसलमान न तो पाबंदी पर खुश थे और न अब मुलाकातों पर दुखी। वह इस पहलू पर जरूर सोच रहे हैं कि दुनिया में अब भी सरकारी स्तर पर मानवता का सम्मान करने और नरसंहार को अपराध मानने वाले मौजूद हैं। उन्हें यदि अफसोस है तो केवल इस बात पर कि उनकी यह सोच गलत साबित हो रही है और वह इसे अपने साथ एक धोखा समझ रहे हैं। एक बड़ा सवाल यह है कि किस बुनियाद पर मोदी के दौरों पर पाबंदी लगाई गई और सरकारी स्तर पर इनसे दूरी बनाई गई और अब दस साल बाद किस बुनियाद पर उन्हें गले लगाया जा रहा है। न तो दंगों के दाग अभी तक धुले हैं और न ही दंगों के सभी मामलों में मोदी को क्लीन चिट दी गई है।
अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत की नाकामी पर साप्ताहिक `अल जमीअत' के सम्पादक  मोहम्मद सालिम जामई ने प्रथम पेज पर प्रकाशित अपने विशेष लेख में लिखा है कि अमेरिका तालिबान में दो ग्रुप बनाकर और एक ग्रुप को आगे बढ़ाकर दुनिया को यह बताना चाहता है कि वह अफगानिस्तान में अकेले जो चाहे कर सकता है लेकिन बातचीत की नाकामी ने इसके दावे की पोल खोल दी है और वह स्वयं अपनी ही चाल में फंस गया है। समाचार के अनुसार यह मालूम होता रहा कि किसी अज्ञात स्थान पर दोनों पक्षों के बीच बातचीत का सिलसिला चल रहा है। खुद अमेरिकी स्टेट डिपार्टमेंट की प्रवक्ता विक्टोरिया नोलैंड ने भी इन खबरों की तस्दीक करते हुए कहा था कि तालिबान बातचीत की मेज पर लौट सकते हैं और अमेरिका तालिबान से बातचीत का समर्थन करता है। अमेरिका ने तालिबान की मांगों के अनुसार ग्वानतामो कैद खाने से इनके कुछ साथियों को भी छोड़ दिया था लेकिन अब ऐसा मालूम होता है कि बातचीत का यह सिलसिला अब बंद हो गया है और मामला एक बार वहीं पहुंच गया है जहां से शुरू हुआ था। ओबामा प्रशासन को भी यह स्वीकार करना पड़ा कि वह तालिबान को बातचीत जारी रखने पर मनाने में नाकाम हो गया है और अब कोई कदम राजनीतिक स्तर पर 2014 के बाद ही उठाया जा सकेगा जब यूरोपीय देशों की ज्यादातर फौज अफगानिस्तान से बाहर हो जाएंगी। तालिबान की बातचीत के लिए पहली शर्त यही थी कि पश्चिमी देश अपनी फौजें अफगानिस्तान से निकाल लें इसके बाद ही बातचीत हो सकती है।
डॉ. मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए मंत्रिमंडल में 17 नए चेहरों को शामिल किया गया है जिसमें चार मुस्लिम हैं और मुस्लिम मंत्री को उन्नति देकर उच्च पद पर पहुंचाया गया है। दैनिक `जदीद खबर' ने `केंद्रीय मंत्रिमंल में मुसलमान' के शीर्षक से अपने सम्पादकीय में लिखा है कि मंत्रिमंडल में नए मंत्रियों के शामिल होने के बाद अब मनमोहन सरकार में मुस्लिम मंत्रियों की संख्या बढ़कर आठ हो गई है। अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री का चार्ज सलमान खुर्शीद से लेकर राज्यसभा के पूर्व चेयरमैन के. रहमान खां को दिया गया है जबकि सलमान खुर्शीद को उन्नति देकर विदेश मंत्री का पद दिया गया। सलमान खुर्शीद स्वतंत्र भारत के इतिहास में इस पद पर पहुंचने वाले पहले मुसलमान हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में जिन तीन मुस्लिम मंत्रियों को शामिल किया गया है, उनमें तारिक अनवर एनसीपी कोटे से मंत्री बनाए गए हैं। अबु हाशिम खां चौधरी और असम की कबाइली मुस्लिम महिला रानी नारा का संबंध कांग्रेस पार्टी से है। मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में शामिल अन्य मुस्लिम मंत्रियों में गुलाम नबी आजाद, फारुख अब्दुल्ला और ई. अहमद के नाम शामिल हैं।
गुलाम नबी आजाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हैं जबकि फारुख अब्दुल्ला और ई. अहमद का संबंध नेशनल कांफ्रेंस और मुस्लिम लीग से है। लोकसभा और राज्यसभा में कुल मुस्लिम सांसदों की संख्या लगभग 50 के करीब है जो कि उनकी आबादी के अनुपात में कम है। इन मंत्रियों की असली परीक्षा उस समय होगी जब यह मुस्लिम समस्याओं पर गंभीरता का प्रदर्शन करें। यह सभी मंत्री पार्टी एजेंडे से बंधे हुए हैं लेकिन उन्हें अपनी छाप छोड़ने के लिए कुछ बेहतर प्रदर्शन करना होगा।

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